मंगलवार, 1 अगस्त 2017

आनुवंशिकी आर्यों की वापसी





नई दिल्ली/दै.मू.समाचार
01 अगस्त 2017  इंडिया टूडे
हमारे पूर्वज कहां से आए थे? यह एक जबरदस्त भावनात्मक और राजनैतिक मुद्दा हो सकता है। कई लोगों के लिए यह सवाल अहम है और आधुनिक जेनेटिक्स यानी आनुवंशिकी काफी हद तक इसका जवाब दे चुकी है। बीएमसी इवॉल्यूशनरी बायोलॉजी नामक जर्नल में हाल ही में प्रकाशित एक वैज्ञानिक पर्चे ने भारतीय मीडिया में एक विवाद को जन्म दे डाला है। यह पर्चा भारतीय उपमहाद्वीप में भारोपीय विस्तार को रेखांकित करता है जिसका निर्णायक स्रोत पॉन्टिक-कैस्पियन क्षेत्र है। पर्चे की भाषा थोड़ी गूढ़ और विद्वतापूर्ण है। इसमें कहा गया है कि सभी आधुनिक भारतीयों के पूर्वजों की आनुवंशिकी इस बात के साक्ष्य दर्शाती है कि आज से 4,000-5,000 साल पहले उत्तरी ईरान और कैस्पियन क्षेत्र से जो आबादी उपमहाद्वीप की ओर आई थी, उसके साथ यहां का पर्याप्त सम्मिश्रण हुआ था। इस पर्चे पर बहस इसलिए गरम हो गई है क्योंकि वैदिक आर्यों के प्राचीन उद्भव को लेकर लंबे समय से चली आ रही एक राजनैतिक बहस को इसने फिर से ताजा कर दिया है।
दशकों तक इतिहासकारों, भाषाविदों और पुरातत्वविदों ने भारत के साथ आर्यों के संबंध पर बहस की है जिसका कोई ठोस नतीजा नहीं निकला हैकृबल्कि उलटे हुआ यह है कि सारी दलीलें संघ परिवार की उग्र-राष्ट्रवादी राजनीति और सेकुलर तथा उदार विपक्ष के दो खांचों में बंटकर रह गई हैं। कई हिंदू राष्ट्रवादी इस विचार पर असहज हो जाते हैं कि भारतीयों की जड़ें इस उपमहाद्वीप के पावन भूगोल से बाहर भी हो सकती हैं। उसी तरह विजयी आक्रांताओं के रूप में वैदिक आर्यों और बाद में इस्लामिक तथा यूरोपीय साम्राज्यों के बीच की समांतर तुलनाओं को स्वीकारने में उदारपंथियों का भी पाखंड सामने आ जाता है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान जेनेटिक विज्ञान ने अपने निष्कर्ष इस संबंध में देने शुरू किए हैं जो कहीं ज्यादा पुख्ता तरीके से संकेत करते हैं कि 4,000 से 5,000 साल पहले कुछ लोगकृजो आर्य हो सकते हैंकृइस उपमहाद्वीप में आए होंगे। बहुत संभव है कि प्राचीन डीएनए शोध का क्षेत्र जल्द ही इस सवाल को हमेशा के लिए हल कर दे। बीएमसी का दस्तावेज इस दिशा में दशकों से चल रहे सिलसिलेवार शोधों का महज एक हिस्सा है जो हर नई प्रौद्योगिकीय तरक्की के साथ और ज्यादा सटीक होते जा रहे हैं। आधुनिक मनुष्यों के जेनेटिक मार्कर के पैटर्न को देखते हुए आनुवंशिकी विज्ञानियों ने हमारी नस्ल का एक वंशवृक्ष तैयार किया है। शोधकर्ता दसियों हजार साल पुराने अवशेषों की आनुवंशिकीय सामग्री का भी परीक्षण कर रहे हैं। इसी सामग्री ने आज अफ्रीका से बाहर के सभी मनुष्यों में निएंडरथल मानव की विरासत की मौजूदगी को पुष्ट किया है।
जेनेटिक विज्ञान के अगुआ चूंकि अमेरिकी शोधकर्ता हैं, लिहाजा पूछे जाने वाले सवालों में भी कुछ पूर्वाग्रहों को जगह मिल जाती है लेकिन जिस तरीके से इस क्षेत्र का लोकतंत्रीकरण हुआ है, उसने और ज्यादा विविध विषयों के अन्वेषण को सुगम बनाने का काम किया है जिनमें भारतीय उपमहाद्वीप से जुड़े प्रश्न भी हैं। यूरोप केंद्रित विचारधाराओं का अपना प्रतिविमर्श रहा है। भारतीय राष्ट्रवादी बाल गंगाधर तिलक ने जहां 1903 में उस दौर के प्रवास से जुड़ी आस्थाओं के मद्देनजर द आर्कटिक होम इन द वेदाज की रचना की थी, वहीं आज की तारीख में कोनराड एल्स्ट जैसे भारतीय विषयों के पश्चिमी जानकार उस सिद्धांत को सिर के बल खड़ा करके आउट ऑफ  इंडिया विमर्श का प्रचार कर रहे हैं। ये दलीलें राजनीति और राष्ट्रवाद के दायरे से बाहर हैं। अर्थशास्त्री और लेखक संजीव सान्याल कहते हैं कि 1,500 ईपू. एकरेखीय आर्य आक्रमण या पलायन का विचार अब निर्णायक ढंग से गलत साबित हो चुका है। अपनी पुस्तक द ओशन ऑफ  चर्न में सान्याल लोगों की परस्पर आवाजाही पर जोर देते हैं, वे इस बात की ओर ध्यान दिलाते हैं कि पुरातत्व विज्ञान सिंधु घाटी की किसी भी सभ्यता को मध्य एशिया से नहीं बांधता और ऐसा लगता है कि वेद खुद दक्षिणी एशिया से बाहर के भूगोल से बेखबर थे।
दस साल पहले आप आनुवंशिकीय दृष्टिकोण से सान्याल की प्रस्थापनाओं का समर्थन कर सकते थे। उस वक्त तक माइटोकॉन्ड्रिया के आधार पर मातृवंश की पहचान ही निष्कर्ष का एक साधन हुआ करती थी। इसी से पता चलता था कि सारे मनुष्य अफ्रीका से निकलकर आए हैं। उसके आधार पर मिले साक्ष्य इस ओर ठोस रूप से इशारा करते हैं कि दक्षिण एशियाई आबादी की जड़ें अपने उपमहाद्वीप में ही हैं। दूसरे शोधकर्ता वाइ क्रोमोसोम के क्वयूटेशन के आधार पर पितृवंश की तलाश कर रहे थे। इन नतीजों से निकले साक्ष्य कहीं ज्यादा संदिग्ध थे। एक ज्यादा समान दक्षिण एशियाई वाइ वंशावली आर1ए1ए पूर्वी यूरोप और मध्य एशिया में भी बहुत समान है। इस वंशावली की खोज करने वाल जेनेटिक विज्ञानी स्पेंसर वेल्स कहते हैं कि नब्बे के दशक के अंत में किया उनका काम इस बात का ठोस संकेत देता है कि 5,000 साल पहले पूर्वी यूरोप और मध्य एशिया के स्तेपी से भारत की ओर पर्याप्त पलायन हुआ था। वेल्स ने इसे भारोपीय भाषाएं बोलने वाले बंजारों के साथ जोड़ा था और वे मानते हैं कि हालिया नतीजे वही बात कह रहे हैं। जाहिर है, यह माइटोकॉन्ड्रिया के आधार पर निकाले गए निष्कर्षों से हटकर है। आर1ए1ए चूंकि बहुत विविधतापूर्ण नहीं है इसलिए इस बात का बोध होना कठिन है कि उसकी उत्पत्ति कहां या कब हुई रही होगी। वेल्स को छोड़कर कई शोधकर्ताओं का कहना था कि आर1ए1ए हो सकता है, विशुद्ध दक्षिण एशियाई ही रहा हो।
आज हम पहले के मुकाबले आर1ए1ए के बारे में ज्यादा जानते हैं। पहले शोधकर्ता वाइ क्रोमोसोम पर कुछेक सौ मार्करों को देखते थे या फिर उन क्षेत्रों को जहां सघनता ज्यादा थी लेकिन आज तकरीबन पूरे वाइ क्रोमोसोम की ही सीक्वेंसिंग कर ली गई है। वेल्स के आरंभिक संशय को पुष्ट करते हुए आज कई शोधकर्ता मान रहे हैं कि आर1ए1ए ने यूरेशियाई स्तेपी से दक्षिण एशिया में 4,000 से 5,000 साल पहले प्रवेश किया होगा। आर1ए1ए के विविधतापूर्ण न होने की एक वजह यह है कि उसका हाल ही में बड़े पैमाने पर विस्तार हुआ हैय क्वयूटेशनों को इकट्ठे हुए बहुत वक्त नहीं गुजरा है। संपूर्ण जीनोम विश्लेषण से हम पा सकते हैं कि पूर्वी यूरोपीय आर1ए1ए की वंशावली एक है जबकि इसके मध्य एशियाई और दक्षिण एशियाई संस्करण एक जैसे हैं। बीएमसी पर्चे के सहलेखक मार्टिन रिचर्ड्स कहते हैं, यह हाइ रेजॉल्यूशन हमें विस्तृत वंशावली सूचना और सटीक जेनेटिक डेटिंग मुहैया करवाता हैकृइसलिए हम देख पाते हैं कि वंशावलियां कब और कहां नई शाखाओं में परिवर्तित हो जाती हैं।
प्राचीन डीएनए ने आर1ए1ए की विभिन्न शाखाओं के बीच संबंधों पर भी प्रकाश डालने का काम किया है। मध्य एशिया के विलुप्त गड़रिये, स्कायथियन और उनके भौगोलिक परिजन स्रुबना लोग जो 3,750 साल पहले कैस्पियन सागर के उत्तर में रहा करते थे, उनमें भी यही वाइ वंशावली मिलती है। ध्यान देने वाली बात है कि स्कायथियनों और स्रुबना की आर1ए1ए वंशावली यूरोपियों से नहीं बल्कि मध्य एशियाई और दक्षिण एशियाई लोगों से मिलती है।
माइटोकॉन्ड्रिया के आधार पर मिले निष्कर्ष और वाइ क्रोमोसोम के आधार पर निकली वंशावली के बीच के विरोधाभास को भी अब हल कर लिया गया है। इसका जवाब यह है कि भारत में जो पलायन हुआ उसमें यौन संतुलन नहीं था। बीएमसी के पर्चे में यह एक अहम बिंदु हैं। रिचर्ड्स कहते हैं, ताम्र युग में पूर्वी यूरोप के स्तेपी क्षेत्र से खासकर नए लोगों के आगमन में बिल्कुल स्पष्ट लैंगिक झुकाव था (यूरोप में भी ऐसा ही मामला है जहां स्तेपी से पलायन करने वाले मुख्यतः पुरुष ही थे)।
आज हमारी समझदारी अकेले वाइ क्रोमोसोम या माइटोकॉन्ड्रियल डीएनए अध्ययन तक सीमित नहीं है। आज जबकि पूरे के पूरे जीनोम का अध्ययन किया जा सकता है, वैज्ञानिकों ने दक्षिण एशिया के अतीत पर हमारी समझदारी को नई शक्ल दी है। 2013 में आनुवंशिकी विज्ञानी प्रिया मूरजानी और उनके सहयोगियों ने एक शोध प्रकाशित किया था जिसका निष्कर्ष था कि 2,000 से 4,000 साल पहले भारतीय उपमहाद्वीप में दो निहायत अलहदा आबादियों का मिश्रण हो रहा था। मूरजानी कहती हैं कि 4,000 साल पहले भारतीय उपमहाद्वीप में विशुद्ध और अमिश्रित एएनआइ और एएसआइ समूह मौजूद हुआ करते थे। पैतृक उत्तर भारतीयों को एएनआइ और पैतृक दक्षिण भारतीयों को एएसआइ कहते हैं। एएनआइ की आबादी आनुवंशिक स्तर पर पश्चिम एशियाइयों और यूरोपियों से मिलती थी। भारतीय मूल के इस मॉडल को विकसित करने वाले एक मौलिक शोधकर्ता निक पैटर्सन एएनआइ और यूरोपीय आबादियों के बीच जेनेटिक दूरी को इतना कम करके बताते हैं कि अगर आपको किसी की उत्पत्ति का पता नहीं है तो आप उसे यूरोपीय आबादी करार देंगे। दूसरी ओर, एएसआइ के कोई करीबी परिजन नहीं मिलते हैं। वे अंडमान के मूल निवासियों के सुदूर परिजन थे। मूरजानी यह भी बताती हैं कि हालिया अतीत में भले ही इन समूहों की नुमाइंदगी करने वाली गैर-मिश्रित आबादी रही हो लेकिन आज सभी दक्षिण एशियाई मूल निवासी दोनों से ही निकले हुए लगते हैं।
मूरजानी ने 2013 के अपने पर्चे में अनुमान लगाया था कि तमिलनाडु के दलित 40 फीसदी एएनआइ हैं (बाकी जाहिरा तौर पर एएसआइ)। पठान 70 फीसदी एएनआइ हैं, कश्मीरी पंडित 65 फीसदी एएनआइ जबकि उत्तर प्रदेश के ब्राह्मण और क्षत्रिय 55 से 60 फीसदी एएनआइ हैं। जब एएनआइ और एएसआइ के मिश्रण की बात आती है तो इसे पता करने के दो नियम हैं। आप जितना ज्यादा उत्तर पश्चिम में जाएंगे, आपको उतने एएनआइ मिलेंगे। उच्च जातियों में ज्यादा एएनआइ पाए जाते हैं (बंगाली और मुंडा जनजाति पूर्वी एशियाई हैं जो न एएनआइ है और न ही एएसआइ)। ऐसे ही पैटर्न की उक्वमीद वाइ क्रोमोसोम की आर1ए1ए वंशावली से की जा सकती है जिसके बारे में आनुवंशिक विज्ञानियों का अंदाजा है कि वे मध्य एशिया से 4,000-5,000 साल पहले आए रहे होंगे। आबादी से जुड़ी आनुवंशिकी पर नजर रखने वाले भारतीय पर्यवेक्षकों ने इन निष्कर्षों को अपनी समझदारी में पिरोने का काम किया है। सान्याल कहते हैं कि भारतीय कई जेनेटिक धाराओं के मिश्रण हैं, खासकर एएनआइ और एएसआइ जो पाषाण युग से भारतीय उपमहाद्वीप में रह रहे हैं। मूरजानी कहती हैं कि उन्होंने अपने अध्ययन में पलायन की दिशा पर विशिष्ट काम नहीं किया है, लेकिन वे मानती हैं कि एएनआइ तक पलायन की दिशा भारत की ओर ही रही। वे ऐसा क्यों कह रही हैं? आइए, पहले आउट ऑफ इंडिया वाली प्रस्थापना में निहित दो बिंदुओं को संबोधित करते हैं। जैसा कि सान्याल कहते हैं, दक्षिणी एशिया और मध्य एशिया के बीच पुरातात्विक संबंध सूक्ष्म हैं। आर्यों को भारत से पहले का काल याद नहीं पड़ता, लेकिन पिछले 10 साल के दौरान प्राचीन डीएनए में हुई खोजों ने दिखाया है कि जहां कहीं पुरातत्वविदों को कोई पलायन नहीं दिखा, वहां बड़े पैमाने पर पलायन हुआ था। इसके भौतिक रिकॉर्ड अधूरे हैं लिहाजा इसे इतिहास के व्यापक चलन के साथ जोडना आसान नहीं है, लेकिन इसका एक अंश यह कहता है कि कुछ आबादी, जैसे बंजारे, अपने पीछे पुरातात्विक निशान नहीं छोड़ जाती। जहां तक भारतीय धार्मिक व मौखिक इतिहास की दलीलों का सवाल है, तो इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि यूनान के लोगों की भी स्मृति यूनान से पहले की नहीं है बावजूद इसके वे भारोपीय लोगों के जितने ही प्राचीन हैं। इस मामले में सांस्कृतिक स्मृतियों के आधार पर कोई फैसला इसीलिए नहीं दिया जा सकता। यही वजह है कि तमाम अनिश्चयों का एक ही समाधान हैकृप्राचीन डीएनए पांच हजार से दस हजार साल पहले यूरोप का निकटवर्ती पूर्व और यूरोप के नमूनों का परीक्षण दिखाता है कि पलायन के कुछ अध्यायों के बाद वह प्रभुत्वकारी जेनेटिक पैटर्न उभरा जिसे हम आज देख पाते हैं। हमारे पास यूरोप के निकटवर्ती पूर्व, मध्य एशिया और यूरोप के प्राचीन व्यक्तियों के पर्याप्त नमूने हैं जिनके आधार पर हम पाते हैं कि बीते दस हजार साल के दौरान आबादी में भारी बदलाव हुए हैं, तो क्या हम भारत को इससे कुछ अलग मान सकते हैं?
दक्षिण एशियाई जेनेटिक परिदृश्य की एक समझदारी कायम करने के लिए यह जानना जरूरी है कि पश्चिमी यूरेशिया की दो प्राचीन आबादियों की इस उपमहाद्वीप के लोगों से काफी निकटता है। पहली, पश्चिमी ईरान के आरंभिक किसान जो जागरोस में थे। उनकी विरासत आज समूचे यूरेशिया में पाई जाती है और भारत के कई आबादी समूहों के साथ उनकी समानताएं मिली हैं। दूसरे, ताम्र युग में पॉन्टिक स्तेपी निवासी यमना संस्कृति के गड़रिये जो 4,000 से 5,500 साल पहले मौजूद रहे। इनकी दक्षिण एशियाई लोगों से, खासकर उत्तर पश्चिमी क्षेत्र और ब्राह्मणों के साथ काफी ज्यादा समानता है। यमना संस्कृति ताम्र युग के बाद और कांस्य युग के शुरू में 4,000 से 2,300 ईस्वी पूर्व में पॉन्टिक स्तेपी में थी। यमना संस्कृति प्रोटो-इंडो-यूरोपिय के साथ जुड़ी है। हारवर्ड में डेविड राइश की प्रयोगशाला में शोधकर्ताओं ने इस बात का परीक्षण किया कि आखिर कौन से संभावित समूहों ने मिलकर दक्षिण एशियाइयों में एएनआई तत्व को जन्म दिया होगा। काफी सघन तुलना के बाद उन्होंने पाया कि एएनआइ का सबसे सही मॉडल पॉन्टिक गड़रियों और आदिम ईरानी किसानों के सक्विमश्रण के तौर पर बनता है।
दि ओशन ऑफ चर्न में कहा गया है कि विचार और मनुष्य, दोनों दिशाओं में आवाजाही करते हैं। पाइथागोरस और अफलातून के माध्यम से भारत के धार्मिक विचारों और फलसफे का पश्चिम पर प्रभाव पड़ा. इसके उलट भारतीय वर्णमाला की संभावित उत्पत्ति यूरोप के निकटवर्ती पूर्व में रही होगी जबकि इस्लाम और ईसाइयत, दोनों ने इसी उपमहाद्वीप में अपनी जड़ें जमाईं। यही हाल जीन्स का भी है। दक्षिण एशियाई जेनेटिक मार्कर थाईलैंड से लेकर बाली तक दक्षिण-पूर्वी एशिया में पाए जाते हैं। इसके उलट, बंगाली, असमिया और मुंडा लोगों की दक्षिण-पूर्वी विरासत उनके चेहरों और जीन्स में दिखती है और खासकर मुंडा के मामले में तो यह समानता उनकी भाषा से जाहिर होती है. जीन प्रवाह के इस विचार की हालांकि कुछ सीमाएं भी हैं।
भारत की विशिष्ट जेनेटिक विरासत एएसआइ की जड़ें भले उपमहाद्वीप में गहरी हों और इसका कहीं और की आबादी के साथ निकटवर्ती रिश्ता न हो लेकिन ईरान और अफगानिस्तान में कम अनुपात में ही सही, ये मिलती हैं। रोमा लोगों को अपवाद मान लें तो एएसआई की विरासत समूचे पश्चिमी यूरेशिया में अनुपस्थित है (रोमा खानाबदोश लोग हैं जो मुख्यतः यूरोम और 
अमेरिका में रहते हैं, वे मूलतः उत्तर भारत के राजस्थान, हरियाणा और पंजाब इलाके के रहने वाले थे)। इससे पता चलता है कि भारत के बाहर पश्चिम की ओर पलायन पिछले कुछ हजार वर्षों में बहुत कम हुआ था क्योंकि जैसा कि मूरजानी कहती हैं, भारत की सभी आबादियों की पिछले 4,000 साल में वंशावली एएसआइ की ही रही। कई जेनेटिक विज्ञानी अब मानते हैं कि नियोलिथिक और ताम्र युग में मध्य यूरेशिया व पश्चिमी एशिया से दक्षिण एशिया में बड़े पैमाने पर पलायन हुआ था और यही हमारे पास मौजूद आंकड़ों को समझाने का सबसे सहज मॉडल है। आउट ऑफ इंडिया वाला मॉडल सैद्धांतिक रूप से असंभव तो नहीं है लेकिन कई लोगों को यह संग्रहित डेटा की व्याख्या के लिहाज से दूर की कौड़ी जान पड़ता है। संभावनाओं के पार जाने के लिए हमें वापस उसी चीज पर लौटना होगा जिसने अतीत में हमें राह दिखाई हैरू प्राचीन डीनए. दुर्भाग्यवश, कायदे से दक्षिण एशिया का कोई प्राचीन डेटा उपलब्ध नहीं है। आज भी शोधकर्ता हरियाणा के राखीगढ़ी से जुटाए हड़प्पाकालीन नमूनों के आधार पर जेनेटिक नतीजे निकालने में जुटे हुए हैं। इनके नमूना परीक्षण के नतीजे आने के बाद प्रायिकताओं को दूर किया जा सकता है। इंडिया टुडे को पता चला है कि राखीगढ़ी से जुटाए नमूनों से निकले नतीजों का ऐलान इसी साल सितंबर में होना है।
सियोल नेशनल यूनिवर्सिटी के जेनेटिक विज्ञानियों के साथ मिलकर इस परियोजना पर काम करने वाले डेकन कॉलेज के एक पुरातत्वविद् डॉ.वसंत शिंदे राखीगढ़ी के नमूनों से निकले संकेत देने में थोड़ा संकोच बरतते हैं। वे कहते हैं, राजनैतिक रूप से यह बहुत संवेदनशील हैं। चूंकि ये नमूने जिन कब्रों से जुटाए गए, वे 2300 से 2500 ईसा पूर्व के हैंकृयानी वही अवधि जब मार्टिन रिचर्ड्स और उनके सहयोगी पॉन्टिक-कैस्पियन से भारत में व्यापक पलायन की बात करते हैंकृलिहाजा एक संभावना यह कायम रहती है कि राखीगढ़ी से आर1ए1ए डीएनए निकलेगा जो बहस का अंत नहीं कर पाएगा. यह तो केवल एक स्थल है, बाकी सैकड़ों स्थल यूरोप और यूरोप के निकटवर्ती पूर्व के हैं जहां से हमें आश्चर्यजनक नतीजे देखने को मिले हैं। एक वक्त ऐसा होगा जब हमारे पास दक्षिण एशिया से सैकड़ों नमूने होंगे और बेशक चौंकाने वाले नतीजे भी आएंगे।
जनसंख्या के इतिहास के जेनेटिक अध्ययन की दिशा अब पलायन की ओर मुड़ चुकी है लेकिन कुछ लोग अब भी निरंतरता के मॉडल को पकड़े बैठे हैं। ज्ञानेश्वर चौबे बीते 10 साल से मानव जेनेटिक्स पर अध्ययन कर रहे हैं और अपने निष्कर्ष प्रकाशित कर रहे हैं। भारतीय आबादी के इतिहास में उनका योगदान पर्याप्त है। वे आर्यों के व्यापक पलायन की अवधारणा से कतई विचलित नहीं हैं। इसकी बजाए वे मानते हैं कि प्रकाशित शोध ने दिखाया है कि इस पलायन (अगर हम मान भी लें तो) की जेनेटिक छाया न्यूनतम है। बिना प्राचीन डीएनए के हम जीवित मनुष्यों के बीच अंतर के आधार पर मोटी बातें कर सकते हैं, मसलन, अतीत के अवशेषों को आज जीवित लोगों के डेटा के आधार पर पुनर्संयोजित करना, हमारा सारा अनुमान अवधारणाओं पर आधारित है। चौबे नियोलिथिक ईरानी किसानों और ताम्र युग के पॉन्टिक गड़रियों के साथ आधुनिक भारतीयों के जेनेटिक साक्ष्य वाले आंकड़ों का खंडन नहीं करते। वे उसी समान संभाव्यता से यह दलील देते हैं कि जो समूह कांस्य युग या नियोलिथिक युग में भारत में रह रहे थे, हो सकता है कि उनकी वंशावली स्तेपी की आबादी या नियोलिथिक ईरानियों की आबादी से मेल खाती हो। अवधारणाओं को पुनर्संयोजित करते हुए वे इस बात से भी असहमति जताते हैं कि आर1ए1ए के इतिहास में कोई संशोधन किया जाना चाहिए।
वे कहते हैं कि बीएमसी के पर्चे से उन्होंने खुद को आर1, ए1ए के कारण ही अलग कर लिया था। भले कुछ लोगों को यह स्वीकार्य न हो, लेकिन चौबे की दलील का आधार डेटा और सैद्धांतिकी में निहित है, असहमति संभाव्यताओं पर है। जेनेटिक आंकड़ों के मामले में यह सामान्य बात है। बहुत जल्द ही प्राचीन डीएनए इन तमाम टकरावों का समाधान कर देगा, लेकिन यह मुद्दा बेहद राजनैतिक रंगत का है। कुछ चीजें फिर भी हम जानते हैं, जेनेटिक विज्ञानियों ने भारतीयों के जीनोम में जाति और क्षेत्र की विविधता की पुष्टि की है। ऐसा लगता है कि भारी पैमाने पर मिश्रण बीते 4,000 साल के दौरान हुआ है। उससे पहले अधिकांश उपमहाद्वीप ऐसे लोगों से भरा था जो आज जीवित लोगों से जेनेटिक रूप से बहुत भिन्न थे। शायद यह संयोग होकृया नहीं भीकृकि आर1,ए1ए पितृवंशीय लिंकेज जो कई भारतीय पुरुषों को योरोपियों और मध्य एशियाइयों के साथ बांधता है, वह काफी तेजी से विस्तृत होने लगता है जब एएनआइ और एएसआई के बीच दक्षिण एशिया में आखिरी सम्मिश्रण हो रहा होता है। कई ऐसी अहम जेनेटिक प्रयोगशालाएं जिन्होंने यूरोप और उसके निकटवर्ती पूर्व के इतिहास की हमारी समझ को प्राचीन डीएनए अध्ययन के रास्ते समृद्ध किया है, वे अब भारत की ओर देख रही हैं। बहुत दिन नहीं बचे हैं जब एक पुराने विवादास्पद सवाल का हल नए उपकरणों से होगा। अब आप कम से कम यह नहीं कह सकते कि भारतीय आर्यों के भारी संख्या में इस उपमहाद्वीप में आने की सैद्धांतिकी गलत है। उपमहाद्वीप के बाहर प्राचीन समूहों के साथ संपर्क बहुत संभावित है और कई जेनेटिक विज्ञानी अब पलायन और आबादी के कायाकल्प पर आधारित नजरिए का प्रसार कर रहे हैं जो यूरोप और निकटवर्ती पूर्व में एक मानक बन चुका है।
इसके बावजूद कुछ अहम संस्थानों में ऐसे विश्वसनीय वैज्ञानिक मौजूद हैं जो नए मॉडलों को संदेह की दृष्टि से देखते हैं। एक नई सहमति भले ही बन रही हो, लेकिन यह अब तक स्थापित नहीं हो सकी है। जेनेटिक विज्ञान एक मोटी झलक दे सकता है और इसमें त्रुटियों का आकार एक झटके में हजार साल आगे या पीछे का हो सकता है। यहां हर नई खोज व्यापक तस्वीर के विवरणों को थोड़ा और साफ करती है। हम जबरदस्त संक्रमण और महान बौद्धिक उबाल के दौर में हैं। यह उबाल राजनीति तक चला जाता है। जिस तरह आर्यों के आक्रमण का मूल मॉडल राजनीति-प्रेरित था, उसी तरह आउट ऑफ  इंडिया सैद्धांतिकी को भी राजनैतिक वैधता प्राप्त है। हकीकत यह है कि मानव इतिहास के ये मॉडल या तो सही हैं या फिर गलत. ये समझ में आएं या नहीं लेकिन तथ्य तो हमारे पास ही हैं। इन तथ्यों की राजनैतिक व्याख्या में बदलाव होता रहता है। मनुष्य परिवर्तनशील है, लेकिन प्रकृति अनंत है.फिलहाल हम अंधेरे में आईना देख रहे हैं। आने वाले कुछ वर्षों में यह बात शायद शीशे की तरह साफ हो जाएगी कि 4,000 साल पहले भारतीय उपमहाद्वीप में कुछ नए लोग आए थे। आज अधिकतर प्रतिष्ठित शोधकर्ताओं के लिए यह आस्था का मामला है। एक सदी की सैद्धांतिकी और वैचारिकी ने हमें तथ्यों और प्रति-तथ्यों से समृद्ध किया है लेकिन हो सकता है कि जेनेटिक्स की खोह से निकला इतिहास हमारी रूढ़ और भव्य धारणाओं को चमत्कृत करके तोड़ दे। इस शोध का सबसे 
उत्साहजनक पहलू यही होगा कि सदियों पुराने तर्कों के साथ यह शोध कैसे अपना मेल बैठा पाता है।