शुक्रवार, 16 अगस्त 2019

तिरंगे का अपमान क्यों? वो दिन भी याद करो जब आरएसएस ने तिरंगे को पैरों तले रौंदा था...........





वो दिन भी याद करो जब आरएसएस ने 1948 में  तिरंगे को पैरों तले रौंदा था...! इतिहास इस बात का गवाह है कि बीजेपी की मातृ संगठन, आरएसएस ने कभी भी आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा नहीं लिया था. 1930 और 1940 के दशक में जब आज़ादी की लड़ाई पूरे उफान पर थी तो आरएसएस का कोई भी सदस्य उसमें शामिल नहीं हुआ. यहाँ तक की अपने आपको देशभक्ति साबित करने का ढिंढोरा पीटने वाला आरएसएस कभी भी तिरंगे को सैल्यूट तक नहीं किया. बल्कि, आरएसएस हमेशा अपने झंडे को महत्व दिया. बताते चलें कि 30 जनवरी 1948 को जब गाँधीजी की हत्या कर दी गयी तो इस तरह की खबरें आने लगी कि आरएसएस के लोग तिरंगे को पैरों से रौंद रहे थे. यह खबर उन दिनों के अखबारों में खूब छपी थी. आज़ादी में शामिल लोगों को आरएसएस की इस हरकत से बहुत तकलीफ हुई. हालांकि जवाहरलाल नेहरू ने 24 फरवरी को एक भाषण में कहा कि आरएसएस के सदस्य तिरंगे का अपमान कर रहे हैं. उन्हें मालूम होना चाहिए कि राष्ट्रीय झंडे का अपमान करके वे अपने आपको देशद्रोही साबित कर रहे हैं. नेहरू ने यह भी कहा था कि आरएसएस वालों ने आज़ादी की लड़ाई में देश की जनता की भावनाओं का साथ नहीं दिया था.



अगर इतिहास पर एक नजर दौड़ाएं तो इतिहासा बताता है कि 26 जनवरी, 1930 की शाम तत्कालीन आरएसएस सर संघचालक हेडगेवार ने आरएसएस के प्रत्येक सदस्य को लिखा, ‘‘राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की शाखाएं अपने अपने आरएसएस के स्थान पर सभी स्वयंसेवकों को सभाओं का आयोजन कर भगवे ध्वज की वंदना करें’’ इससे स्पष्ट है कि आरएसएस शुरु से ही राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे के प्रति असम्मान का भाव प्रकट रखता था. इतिहास का अवलोकन करने से स्पष्ट होता है कि आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक गोलवलकर भी राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे के प्रति दुर्भावना से ग्रस्त थे, जो उनके तीन वक्तव्यों से साफ है. 

याद होगा गोलवरक का पहला वक्तव्य, जो 14 जुलाई, 1946 को गुरु पूर्णिमा के अवसर पर नागपुर के एक सभा में कहा था कि हमारी महान संस्कृति का परिपूर्ण परिचय देने वाला प्रतीक स्वरूप हमारा भगवा ध्वज है, जो हमारे लिए परमेश्वर स्वरूप है. इसलिए इसी परम वंदनीय ध्वज को हमने अपने गुरुस्थान में रखना उचित समझा है. हमारा दृढ़ विश्वास है कि अंत में इसी ध्वज के समक्ष सारा राष्ट्र नतमस्तक होगा. क्या इससे नहीं लगता है कि तिरंगे के प्रति आरएसएस शुरु से ही दुराग्रह से ग्रस्त है. यही नहीं, इसके बाद 15 अगस्त, 1947 को देश की आजादी की घोषणा के समय दिल्ली के लाल किले से तिरंगा झंडे को फहराने की तैयारी चल रही थी, तभी आरएसएस ने अपने अंग्रेजी के मुखपत्र ऑर्गनाईजर के 14 अगस्त, 1947 के अंक में राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे की भर्त्सना करते हुए लिखा, ‘‘वे लोग जो किस्मत के दांव से सत्ता तक पहुंचे हैं, वे भले ही हमारे हाथों में तिरंगे को थमा दें. लेकिन, हिन्दुओं में न इसे कभी सम्मानित किया जा सकेगा, न अपनाया जा सकेगा. आगे लिखा यह तिरंगे में यह तीन का आंकड़ा अपने आप में अशुभ है और एक ऐसा झंडा, जिसमें तीन रंग हों, बेहद खराब मनोवैज्ञानिक असर डालेगा और देश के लिए नुकसानदेह साबित होगा.

इसके अलावा आजादी मिलने के बाद गोलवलकर ने राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे को लेकर अपने लेखपत्र ‘‘पतन ही पतन’’ में लिखा, उदाहरणस्वरूप हमारे नेताओं ने हमारे राष्ट्र के लिए नया ध्वज निर्धारित किया है. उन्होंने ऐसा क्यों किया? यह पतन की ओर बहने का एक यह सर्वविदित है कि गांधीजी की हत्या के बाद देश के गृहमंत्री, सरदार वल्लभ भाई पटेल ने आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया. प्रतिबंध माफीनामा/स्पष्टीकरण दिए जाने के बाद साल 1949 में आरएसएस से यह प्रतिबंध हटाया गया. भारत के गृहमंत्रालय द्वारा (जिसके गृहमंत्री सरदार पटेल थे) 11 जुलाई, 1949 को एक विज्ञप्ति जारी की गई. उस विज्ञप्ति के अनुसार, ‘‘आरएसएस के नेता ने आश्वासन दिया है कि आरएसएस के संविधान में भारत के संविधान और राष्ट्रध्वज के प्रति निष्ठा को और सुस्पष्ट किया जाएगा. इस हेरफेर और आरएसएस के नेता द्वारा स्पष्टीकरण को देखते हुए मनुवादी सरकार ने कहा आरएसएस को मौका दिया जाना चाहिए कि वो एक जनतांत्रिक, सांस्कृतिक, भारतीय संविधान को निष्ठा और राष्ट्रीय ध्वज को स्वीकार करने वाले व गोपनीयता को छोड़कर हिंसा से दूर रहने वाले संगठन के रूप में काम कर सके. आरएसएस अपने मुख्यालय पर कभी भी तिरंगा झंडा नहीं फहराया. अब वही आरएसएस और आरएसएस पैदा भारतीय जनता पार्टी तिरंगे पर केवल राजनीति कर रही है, बल्कि तिरंगे को पैरों तले रौंदने वाले और कभी न तिरंगा फरहराने वाले देशभक्त होने का ढ़िढोरा पीट रहे हैं. 

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