रविवार, 2 सितंबर 2018

ललई सिंह यादव: संक्षिप्त जीवन परिचय

विद्रोही चेतना के प्रखर नायक ललई सिंह यादव
संक्षिप्त जीवन परिचय-


महाप्राण कर्मवीर पेरियार ललई सिंह यादव का जन्म 01 सितम्बर 1911 को उत्तर प्रदेश प्रदेश के ग्राम कठारा रेलवे स्टेशन-झींझक, जिला कानपुर देहात के एक समाज सुधारक सामान्य कृषक परिवार में हुआ था। पिता चौधरी गुज्जू सिंह यादव एक कर्मठ मूलनिवासी समाजी थे, इनकी माता मूलादेवी, उस क्षेत्र के जनप्रिय नेता चौधरी साधो सिंह यादव निवासी ग्रा. मकर दादुर रेलवे स्टेशन रूरा, जिला कानपुर की पुत्री थी। इनके मामा चौधरी नारायण सिंह यादव एक समाज सेवी कृषक थे। मा.ललई सिंह यादव ने सन् 1928 में हिन्दी के साथ उर्दू लेकर मिडिल पास किया। सन् 1929 से 1931 तक फॉरेस्ट गार्ड रहे। 1931 में ही इनका विवाह ‘दुलारी देवी’ पुत्री चौधरी सरदार सिंह यादव ग्राम जरैला निकट रेलवे स्टेशन रूरा जिला कानपुर के साथ हुआ। 1933 में शशस्त्र पुलिस कम्पनी जिला मुरैना (म.प्र.) में कान्स्टेबल पद पर भर्ती हुए। नौकरी से समय निकाल कर विभिन्न शिक्षाएं प्राप्त की। 
सन् 1946 ईस्वी में नान गजेटेड मुलाजिमान पुलिस एण्ड आर्मी संघ ग्वालियर कायम करके उसके अध्यक्ष चुने गए। ‘सोल्जर ऑफ दी वार’ ढंग पर हिन्दी में ‘‘सिपाही की तबाही’ किताब लिखी, जिसने कर्मचारियों को क्रांति के पथ पर विशेष अग्रसर किया। इन्होंने आजाद हिन्द फौज की तरह ग्वालियर राज्य की आजादी के लिए जनता तथा सरकारी मुलाजिमान को संगठित करके पुलिस और फौज में हड़ताल कराई जवानों से कहा कि ‘‘बलिदान न सिंह का होते सुना, बकरे बलि बेदी पर लाए गये। विषधारी को दूध पिलाया गया, केंचुए कटिया में फंसाए गये। न काटे टेढ़े पादप गये, सीधों पर आरे चलाए गये। बलवान का बाल न बांका भया, बलहीन सदा तड़पाये गये। हमें रोटी कपड़ा मकान चाहिए’’
29.03.47 को ग्वालियर स्टेट्स स्वतंत्रता संग्राम के सिलसिले में पुलिस व आर्मी में हड़ताल कराने के आरोप में धारा 131 भारतीय दण्ड विधान (सैनिक विद्रोह) के अंतर्गत साथियों सहित राज-बन्दी बने। दिनांक 06.11.1947 को स्पेशल क्रिमिनल सेशन जज ग्वालियर ने 5 वर्ष सश्रम कारावास तथा पाँच रूपये अर्थ दण्ड का सर्वाधिक दण्ड अध्यक्ष हाईकमाण्डर ग्वालियर नेशनल आर्मी होने के कारण दी। वहीं दिनांक 12.01.1948 को सिविल साथियों सहित बंधन मुक्त हुये। उसी समय यह स्वाध्याय में जुटे गये। एक के बाद एक इन्होंने श्रृति स्मृति, पुराण और विविध रामायणें भी पढ़ी। हिन्दू शास्त्रों में व्याप्त घोर अंधविश्वास, विश्वासघात और पाखण्ड से वह तिलमिला उठे। स्थान-स्थान पर ब्राह्मण महिमा का बखान तथा दबे पिछड़े शोषित समाज की मानसिक दासता के षड़यन्त्र से वह व्यथित हो उठे। ऐसी स्थिति में इन्होंने यह धर्म छोड़ने का मन भी बना लिया। अब वह इस निष्कर्ष पर पहुंच गये थे कि समाज के ठेकेदारों द्वारा जानबूझ कर सोची समझी चाल और षड़यन्त्र से शूद्रों के दो वर्ग बना दिये गये है। एक सछूत-शूद्र, दूसरा अछूत-शूद्र, शूद्र तो शूद्र ही है, चाहे कितना सम्पन्न ही क्यों न हो। 
उनका कहना था कि सामाजिक विषमता का मूल, वर्ण व्यवस्था, जाति व्यवस्था, श्रृति, स्मृति और पुराणों से ही पोषित हैं। सामाजिक विषमता का विनाश सामाजिक सुधार से नहीं अपितु इस व्यवस्था से अलगाव में ही समाहित है। अब तक इन्हें यह स्पष्ट हो चुका था कि विचारों के प्रचार-प्रसार का सबसे सबल माध्यम लघु साहित्य ही है। इन्होंने यह कार्य अपने हांथों में लिया और सन् 1925 में इनकी माताश्री, 1939 में पत्नी, 1946 में पुत्री शकुन्तला (11 वर्ष) और सन् 1953 में पिताश्री इन चार लोगों की मृत्यु हो गयी। इससे मानों उनके ऊपर पहाड़ टूट पड़ा। हालांकि वे अपने पिता के इकलौते पुत्र थे। पहली स्त्री के मरने के बाद दूसरा विवाह कर सकते थे, किन्तु क्रान्तिकारी विचारधारा होने के कारण इन्होंने दूसरा विवाह नहीं किया और कहा कि अगली शादी स्वतन्त्रता की लड़ाई में बाधक होगी। 
अंततः साहित्य प्रकाशन की ओर भी इनका विशेष ध्यान गया। दक्षिण भारत के महान क्रान्तिकारी पेरियार ई.वी.रामस्वामी नायकर के उस समय उत्तर भारत में कई दौरे हुए थे। वह इनके सम्पर्क में आये। जब पेरियार रामास्वामी नायकर से सम्पर्क हुआ तो इन्होंने उनके द्वारा लिखित ‘‘रामायण ए टू रीडिंग’’ (अंग्रेजी में) में विशेष अभिरूचि दिखाई। साथ ही दोनों ने इस पुस्तक के प्रचार-प्रसार की, सम्पूर्ण भारत विशेषकर उत्तर भारत में लाने पर भी विशेष चर्चा हुई। उत्तर भारत में इस पुस्तक के हिन्दी में प्रकाशन की अनुमति पेरियार रामास्वामी नायकर ने ललईसिंह यादव को 01-07-1968 को दे दी। 
इस पुस्तक के ‘सच्ची रामायण’ हिन्दी में 01-07-1969 को प्रकाशन से सम्पूर्ण उत्तर-पूर्व तथा पश्चिम् भारत में एक तहलका सा मच गया। पुस्तक प्रकाशन को अभी एक वर्ष ही बीत पाया था कि उ.प्र. सरकार द्वारा 08-12-69 को पुस्तक जब्ती का आदेश प्रसारित हो गया कि यह पुस्तक भारत के कुछ नागरिक समुदाय की धार्मिक भावनाओं को जानबूझकर चोट पहुंचाने तथा उनके धर्म एवं धार्मिक मान्यताओं का अपमान करने के लक्ष्य से लिखी गयी है। उपरोक्त आज्ञा के विरूद्ध प्रकाशक ललई सिंह यादव ने हाईकोर्ट आफ जुडीकेचर इलाहाबाद में क्रिमिनल मिसलेनियस एप्लीकेशन 28-02-70 को प्रस्तुत की। माननीय तीन जजों की स्पेशल फुल बेंच इस केस को सुनने के लिए बनाई गई। कोर्ट ने अपीलॉट (ललई सिंह यादव) की ओर से निःशुल्क एडवोकेट बनवारी लाल यादव और सरकार की ओर से गवर्नमेन्ट एडवोकेट तथा उनके सहयोगी पी.सी.चतुर्वेदी एडवोकेट व आसिफ अंसारी एडवोकेट की बहस 26, 27 व 28 अक्टूबर 1970 को लगातार तीन दिन सुनी। दिनांक 19-01-71 को माननीय जस्टिस ए.के.कीर्ति, जस्टिस के.एन.श्रीवास्तव तथा जस्टिस हरी स्वरूप ने बहुमत के तीन निर्णय दिया। 1. गवर्नमेन्ट ऑफ उ.प्र.की पुस्तक ‘सच्ची रामायण’ की जप्ती की आज्ञा निरस्त की जाती है। 2. जप्तशुदा पुस्तकें ‘सच्ची रामायण’ अपीलांट ललई सिंह यादव को वापिस दी जाये और 3. गर्वर्न्मेन्ट ऑफ उ.प्र. की ओर से अपीलांट ललई सिंह यादव को तीन सौ रूपये खर्चे के दिलावें जावें। 
ललई सिंह यादव द्वारा प्रकाशित ‘सच्ची रामायण’ का प्रकरण अभी चल ही रहा था कि उ.प्र. सरकार की 10 मार्च 1970 की स्पेशल आज्ञा द्वारा  ‘सम्मान के लिए धर्म परिवर्तन करें’ नामक पुस्तक जिसमें डॉ.अम्बेडकर के कुछ भाषण थे तथा ‘जाति भेद का उच्छेद’ नामक पुस्तक 12 सितम्बर 1970 को चौ. चरण सिंह की सरकार द्वारा जब्त कर ली गयी। इसके लिए भी ललई सिंह यादव ने बनवारी लाल यादव एडवोकेट के सहयोग से मुकदमें की पैरवी की। मुकदमें की जीत से ही 14 मई 1971 को उ.प्र.सरकार की इन पुस्तकों की जब्ती की कार्यवाही निरस्त कराई गयी और तभी उपरोक्त पुस्तकें जनता को भी सुलभ हो सकी। इसी प्रकार ललई सिंह यादव द्वारा लिखित पुस्तक ‘आर्यो का नैतिक पोल प्रकाश’ के विरूद्ध 1973 में मुकदमा चला दिया। यह मुकदमा उनके जीवन पर्यन्त चलता रहा। 
दिलचस्प बात तो यह है कि सच्ची रामायण के मामले में हाई कोर्ट में हारने के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने सुप्रीम कोर्ट दिल्ली में अपील दायर कर दी वहां भी अपीलांट उत्तर प्रदेश सरकार क्रिमिनल मिसलेनियस अपील नम्बर 291/1971  निर्णय सुप्रीम कोर्ट ऑफ इण्डिया, नई दिल्ली दि. 16.9.1976 के अनुसार अपीलांट की हार हुई अर्थात् रिस्पांडेण्ट ललई सिंह यादव की जीत हुई। (सच्ची रामायण की जीत हुई) फुलबेंच में माननीय सर्वश्री जस्टिस पी.एन. भगवती जस्टिस वी.आर. कृष्णा अय्यर तथा जस्टिस मुर्तजा फाजिल अली थे। 
चौधरी ललई सिंह यादव से पेरियार ललई सिंह बनने का एक ऐतिहासिक सच यह है कि महान क्रान्तिकारी पेरियार ई.व्ही.रामास्वामी नायकर जो गड़रिया (पाल-बघेल) जाति के थे, के संघर्षमय जीवन का लम्बा इतिहास है। 20 दिसम्बर 1973 को उनका निर्वाण हो गया। इनके जीवन काल से ही इनका जन्मोत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया जाने लगा था, इनकी मृत्यु के पश्चात् एक विशाल सभा में चौधरी ललई सिंह यादव को भी भाषण के लिए बुलाया गया। निर्वाण प्राप्त रामास्वामी नायकर की श्रद्धांजलि सभा में दिये गये इनके भाषण पर दक्षिण भारतीय मुग्ध हो गये। इनके भाषण की समाप्ति पर तीन नारे लगाये गये ‘‘अब हमारा अगला पेरियार’’ बस इसी नारे की आवाज ने चौधरी ललई सिंह यादव से पेरियार ललई सिंह की नई पहचान देकर फिर से पेरियार ई.वी.रामासामी नायक के संघर्ष को पुर्नजीवित कर दिया। 
इस घटना के बाद से ही इनके नाम के पूर्व पेरियार ‘शब्द’ का शुभारम्भ हुआ। दक्षिण भारत में पेरियार शब्द जातिवादी नहीं अपितु क्रांतिकारी, स्वच्छ, निष्पक्ष, निर्भीक और सागर के अर्थों में प्रयोग किया जाने वाला सम्मान सूचक शब्द है। साहित्य प्रकाशन के लिए उन्होंने एक के बाद एक तीन प्रेस खरीदे। शोषित पिछड़े समाज में स्वाभिमान व सम्मान को जगाने तथा उनमें व्याप्त अज्ञान, अंधविश्वास, जातिवाद तथा ब्राह्मणवादी परम्पराओं को ध्वस्त करने के उद्देश्य से वह लघु साहित्य के प्रकाशन की धुन में अपनी उनसठ बीघे सरसब्ज-जमीन कौड़ियों के भाव बेचकर प्रकाशन के कार्य में आजीवन जुटे रहे। अंततः 7 फरवरी 1993 को वह चमकता सूरज अस्त हो गया। 

मंगलवार, 28 अगस्त 2018

मा.दीनाभाना स्मृति दिवस

दीनाभाना न होते तो बहुजन आंदोलन को कांशीराम नहीं मिलते

बामसेफ के संस्थापक सदस्य दीनाभाना जी ने बामसेफ संस्थापक अध्यक्ष मान्यवर कांशीराम साहब को बाबासाहब के विचारो से प्रेरित किया। मा.कांशीराम साहब ने बाबासाहब के विचारों को पूरे भारत में फैलाया। आज पूरे देश मे जय भीम, जय मूलनिवासी की जो आग लगी है उसमे चिंगारी लगाने का काम हमारे महापुरूष मा.दीनाभाना जी ने किया है। मा. दीनाभाना साहब का जन्म 28 फरवरी 1928 को राजस्थान के सीकर जिले के बगास गांव में एक गरीब भंगी परिवार में हुआ था। यह बड़े जिद्दी किस्म के शख्स थे। 1956 में आगरा में डॉ.बाबासाहब द्वारा दिया गया वो भाषण सूना जिसमें डॉ.बाबासाहब ने कहा था कि ‘‘मुझे पढ़े-लिखे लोगां ने धोखा दिया’’ यह बात सुनकर दीनाभाना साहब ज्यादा विचलित होने लगे। वही से उन्होंने संकल्प लिया कि वे बाबासाहब के उस कारवां को आगे बढ़ायेंगे जिस कारवां को वो बड़ी ही कठिनाईयों से यहां तक लायें हैं। सच तो यही है कि समाज के प्रति त्याग पुरूषों के लिए एक भाषण ही काफी है। 
दीनाभाना जी ने बाबासाहब के विचार जाने समझे और बाबासाहब के परिनिर्वाण के बाद भटकते भटकते पूना आ गये और पूना मे गोला बारूद फैक्टरी (रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन) मे सफाई कर्मचारी के रूप मे सर्विस प्रारंभ की। मा. कांशीराम साहब रोपड़ (रूपनगर) पंजाब निवासी क्लास वन ऑफिसर थे। लेकिन कांशीराम जी को बाबासहाब कौन हैं? यह पता नही था। उस समय अंबेडकर जयंती की छुट्टी को लेकर दीनाभाना जी ने इतना बड़ा हंगामा किया जिसकी वजह से दीनाभाना जी को नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया। 
इस बात पर कांशीराम जी नजर पड़ी तो उन्होने दीनाभाना जी से पूछा कि यह बाबासाहब कौन हैं जिनकी वजह से तेरी नौकरी चली गयी? दीनाभाना जी व उनके साथी विभाग में ही कार्यरत महार जाति में जन्मे नागपुर, महाराष्ट्र निवासी मा.डी.के. खापर्डे साहब जो बामसेफ के द्वितीय संस्थापक अध्यक्ष थे। मा.डीके खापर्डे साबह ने कांशीराम जी को बाबासाहब की ‘ऐनीहिलेशन ऑफ कॉस्ट’ नाम की पुस्तक दी जो कांशीराम साहब ने रातभर में कई बार पढ़ी और सुबह ही दीनाभाना जी के मिलने पर बोले दीना तुझे छुट्टी भी और नौकरी भी दिलाऊंगा और इस देश में बाबासाहब की जयंती की छुट्टी न देने वाले की जब तक छुट्टी न कर दूं तब तक चैन से नही बैठूंगा। क्योकि यह तेरे साथ-साथ मेरी भी बात है, तू भंगी है तो मैं भी रामदासिया चमार हूं। कांशीराम साहब ने नौकरी छोड़ दी और बाबासाहब के मिशन को ‘बामसेफ’ संगठन बनाकर पूरे देश में फैलाया। बामसेफ के संस्थापक सदस्य मा.कांशीराम, मा.दीनाभाना और मा.डीके खापर्डे साहब थे। 

अंत में मा.दीनाभाना साहब का 29 अगस्त 2009 को पूना में परिनिर्वाण हो गया, यह सूरज हमेशा के लिए अस्त हो गया, लेकिन आज भी वे हम मूलनिवासी बहुजनों के दिलों में जीवित हैं। यदि  आज दीनाभाना साहब न होते तो न बामसेफ होता और न ही व्यवस्था परिवर्तन हेतु अंबेडकरवादी जनआन्दोलन चल रह होता। इस देश में ब्राह्मणों की नाक में दम करने वाला जय भीम, जय मूलनिवासी का नारा भी गायब हो गया होता। ऐसे महापुरूष को उनके 9वें स्मृति दिवस के अवसर पर सभी मूलनिवासी बहुजनों को उनसे प्रेरणा लेकर अपने दबे, कुचले, अधिकार वंचित समाज के लिए बामसेफ का साथ सहयोग करना चाहिए, ताकि देश के 85 प्रतिशत मूलनिवासी बहुजन समाज अपनी आजादी को हाशिल कर सकें।

सोमवार, 25 जून 2018

विरांगना झलकारी बाई


विरांगना झलकारी बाई

 28 साल की एक लड़की. मस्तमौला. इरादे पक्के. जो काम सामने आया, कर दिया. दौड़ने वाला घोड़ा सामने आया, दौड़ा लिया. चलने वाला घोड़ा आया, चला दिया. रानी ने बुलाया तो तन्मयता से काम कर दिया. जब मेकअप कर लिया तो खुद ही रानी लगने लगी. रानी के साथ लड़ाई पर गई. जब रानी घिर गई तो खुद ही रानी बन लड़ पड़ी. क्योंकि रानी उसकी सखी थी. ये दोस्ती की बात थी. साथ ही अपने राज्य के प्रति प्रेम की बात थी.
सबसे बड़ी बात थी अपने जौहर को दिखाने की. बचपन में कुल्हाड़ी से लकड़ी काटने गई थी. तेंदुआ गया सामने, उसे भी काट दिया. रानी को इस लड़की की ये अदा पसंद थी. वो रानी थी लक्ष्मीबाई और ये लड़की थी झलकारी बाई. जिसका नाम इतिहास के पन्नों में इतना नीचे दबा है कि खोजते-खोजते पन्ने फट जाते हैं. वक्त की मार थी, लोग-बाग राजा-रानियों से ऊपर किसी और की कहानी नहीं लिखते थे.
पर जो बात है, वो बात है. कहानी उड़ती रही. डेढ़ सौ साल बाद भी वो लड़की जिंदा है. भारत के बहुजन समाज की हीरोईन. सबको नायक-नायिकाओं की तलाश रहती है. बहुजन समाज को इससे वंचित रखा गया था. पर इस लड़की ने बहुत पहले ही साबित कर दिया था कि इरादे और ट्रेनिंग से इंसान कुछ भी कर सकता है. बाकी बातें तो फर्जी होती हैं. बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम ने जब लोगों को जगाना चाहा तो इसी लड़की के नाम का सहारा लिया था. वरना एक वर्ग दूसरे वर्ग को यही बता रहा था कि बहुत सारे काम तो तुम कर ही नहीं सकते हो.
22 नवंबर 1830 को झांसी के एक कोली परिवार में पैदा हुई थी झलकारी. पिता सैनिक थे. तो पैदाइश से ही हथियारों के साथ उठना-बैठना रहा. पढ़ाई-लिखाई नहीं हुई. पर उस वक्त पढ़ता कौन था. राजा-रानी तक जिंदगी भर शिकार करते थे. उंगलियों पर जोड़ते थे. उस वक्त बहादुरी यही थी कि दुश्मन का सामना कैसे करें. चतुराई ये थी कि अपनी जान कैसे बचायें. तो झलकारी के गांव में एक दफे डाकुओं ने हमला कर दिया. कहने वाले यही कहते हैं कि जितनी तेजी से हमला किया, उतनी तेजी से लौट भी गये. क्योंकि झलकारी के साथ मिलकर गांव वालों ने बड़ा इंतजाम कर रखा था. फिर झलकारी की शादी भी हो गई. एक सैनिक के साथ. एक बार पूजा के अवसर पर झलकारी रानी लक्ष्मीबाई को बधाई देने गई तो रानी को भक्क मार गया. झलकारी की शक्ल रानी से मिलती थी. और फिर उस दिन शुरू हो गया दोस्ती का सिलसिला.
1857 की लड़ाई में झांसी पर अंग्रेजों ने हमला कर दिया. झांसी का किला अभेद्य था. पर रानी का एक सेनानायक गद्दार निकला. नतीजन अंग्रेज किले तक पहुंचने में कामयाब रहे. जब रानी घिर गईं, तो झलकारी ने कहा कि आप जाइए, मैं आपकी जगह लड़ती हूं. रानी निकल गईं और झलकारी उनके वेश में लड़ती रही. जनरल रोज ने पकड़ लिया झलकारी को. उन्हें लगा कि रानी पकड़ ली गई हैं. उनकी बात सुन झलकारी हंसने लगी. रोज ने कहा कि ये लड़की पागल है. पर ऐसे पागल लोग हो जाएं तो हिंदुस्तान में हमारा रहना मुश्किल हो जाएगा.
मैथिली शरण गुप्ता ने झलकारी बाई के बारे में लिखा है:
जा कर रण में ललकारी थी,
वह तो झांसी की झलकारी थी.
गोरों से लड़ना सिखा गई,
है इतिहास में झलक रही,
वह भारत की ही नारी थी.
झलकारी के अंत को लेकर बड़ा ही मतभेद है. कोई कहता है कि रोज ने झलकारी को छोड़ दिया था. पर अंग्रेज किसी क्रांतिकारी को छोड़ते तो ना थे. कोई कहता है कि तोप के मुंह पर बांध कर उड़ा दिया गया था. जो भी हुआ हो, झलकारी को अंग्रेजों ने याद रखा था. वहीं से कुछ जानकारी कहीं-कहीं आई. वृंदावन लाल वर्मा ने अपने उपन्यास झांसी की रानी में झलकारी बाई का जिक्र किया है. पर इतिहास में ज्यादा जिक्र नहीं मिलता है.