मंगलवार, 12 मार्च 2019

मीडिया का बहिष्कार

मीडिया का बहिष्कार


मीडिया हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं का एक अग्रणी चेहरा है. इन पांच सालों में गोदी मीडिया बनने की प्रक्रिया तेज ही हुई है, कम नहीं हुई. एक मालिक के हाथों में पचासों चैनल आ गए हैं और पुराने मालिकों पर दबाव डालकर उनके सारे चैनलों के सुर बदल दिए गए हैं. राजनीति और कारोबारी पैसे के घाल-मेल से रातों-रात चैनल खड़े किए जा रहे हैं.
अगर सारे चैनल या 90 फीसदी चैनल एक ही मालिक के हो गए और वह किसी सरकार से झुक गया तब क्या होगा? विपक्ष को गोदी मीडिया की खास समझ नहीं है, उसे लगता है कि इस मंच का वह भी इस्तेमाल कर सकता है और इस चक्कर में वह मीडिया को सरकार के तलुए चाटते रहने की मान्यता देते आया है.
चैनलों में ऐसे राजनीतिक संपादक और एंकर पैदा किए गए हैं जो पूरी निर्लज्जता के साथ सरकार की वकालत कर रहे हैं. उन्हें सरकार की नीतियों में कमी नजर नहीं आती. वे प्रधानमंत्री के बयानों और नीतियों का स्वागत करने की जल्दी में रहते हैं. कई चैनलों में यही मुख्य चेहरा और आवाज हैं. कुछ जगहों पर इन्हें वैकल्पिक आवाज और चेहरे के रूप में मान्यता दी गई है. कुछ चालाक चैनलों ने इस विविधता को लेकर विज्ञापन भी बना दिया है. मगर यह विविधता नहीं है, बल्कि विविधता के नाम पर व्यापक रूप से प्रोपेगैंडा की एकरूपता को ही कायम करना है. जो अंत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ललाट से लेकर चरणों तक में समर्पित होता है.
आपको तय करना है कि गोदी मीडिया की बहसों में जाकर उसके प्रोपेगैंडा को मान्यता देनी है या नहीं, मेरे हिसाब से तो आपको इन बहसों में नहीं जाना चाहिए. 100 प्रतिशत बहिष्कार करें. ऐसा करने से चैनलों में बहस का स्पेस कम होगा और ग्राउंड रिपोर्टिंग का स्पेस बढ़ेगा. आपके इतना भर कर देने से लोकतंत्र और जनता का भला हो जाएगा.

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