समस्त मूलनिवासी बहुजन समाज को “भीमा-कोरेगांव क्रांति” शौर्य दिवस (1 जनवरी) की हार्दिक शुभेच्छाएं
अधिकतर लोगों ने 300 फिल्म तो देखी ही होगी। लेकिन कभी अपने भारतीय इतिहास के ऐसे ही युद्ध के बारे मे पढ़ा है? दुनिया के इतिहास में ऐसा युद्ध ना कभी किसी ने पढ़ा होगा और ना ही सोचा होगा, जिसमें 28,000 फौज का सामना महज 500 लोगों के साथ हुआ था और जीत किसकी होती है? उन 500 शूरमाओं की! कोरेगांव महाराष्ट्र प्रदेश के अन्तर्गत पूना जनपद की शिरूर तहसील में पूना नगर रोड़ पर भीमा नदी के किनारे बसा हुआ एक छोटा सा गांव है, इस गांव को नदी के किनारे बसा होने के कारण ही इसको भीमा कोरेगांव कहते हैं।
1ः पेशवाओं/ब्राह्मणों के शासन काल में यदि कोई सवर्ण हिन्दू सड़क पर चल रहा हो तो वहां अछूत को चलने की आज्ञा नहीं होती थी ताकि उसकी छाया से वह सवर्ण हिन्दू भ्रष्ट न हो जाय। अछूत को अपनी कलाई या गले में निशान के तौर पर एक काला डोरा बांधना पड़ता था। ताकि हिन्दू भूल से स्पर्श न कर बैठे।
2ः पेशवाओं की राजधानी पूना में अछूतों के लिए राजाज्ञा थी कि वे कमर में झाडू बांधकर चलें ताकि चलने से भूमि पर उसके पैरों के जो चिन्ह बनें उनको उस झाडू से मिटाते जायें, ताकि कोई हिन्दू उन पद चिन्हों पर पैर रखने से अपवित्र न हो जाये। पूना में अछूतों को गले में मिट्टी की हांडी लटका कर चलना पड़ता था ताकि उसको थूकना हो तो उसमें थूके। क्योंकि भूमि पर थूकने से यदि उसके थूक से किसी सवर्ण हिन्दू का पांव पड़ गया तो वह अपवित्र हो जायेगा।
पेशवाओं के घोर अत्याचारों के कारण महारों में अन्दर ही अन्दर असन्तोष व्याप्त था। वे पेशवाओं से इन जुल्मों का बदला लेने के लिए मौके की तलाश में थे। जब महारों का स्वाभिमान जागा, तब पूना के आस-पास के महार लोग पूना आकर अंग्रेजों की सेना में भर्ती हुए। इसी का प्रतिफल कोरेगांव की लडाई का गौरवशाली इतिहास है।
कोरेगांव की लडा़ई का गौरवशाली इतिहासः
अंग्रेजों की बम्बई नेटिव इंफैंट्री (महारों की पैदल फौज) फौज अपनी योजना के अनुसार 31 दिसम्बर 1817 ई. की रात को कैप्टन स्टाटन शिरूर गांव से पूना के लिए अपनी फौज के साथ निकला। उस समय उनकी फौज ‘सेकेंड बटालियन फर्स्ट रेजीमेंट’ में मात्र 500 महार थे। 260 घुड़सवार और 25 तोप चालक थे। यह फौज 31 दिसम्बर 1817 ई. की रात में 25 मील पैदल चलकर दूसरे दिन प्रातः 8 बजे कोरेगांव भीमा नदी के एक किनारे जा पहुंची। 1 जनवरी सन् 1818 ई.को बम्बई की नेटिव इंफैन्टरी फौज (पैदल सेना) अंग्रेज कैप्टन स्टाटन के नेत्रत्व में नदी के एक तरफ थी। दूसरी तरफ बाजीराव पेशवा की विशाल फौज दो सेनापतियों रावबाजी और बापू गोखले के नेत्रत्व लगभग 28 हजार सैनिकों के साथ जिसमें दो हजार अरब सैनिक भी थे, सभी नदी के दूसरे किनारे पार काफी दूर-दूर तक फैले हुए थे।
1 जनवरी सन् 1818 को प्रातः 9.30 बजे युद्ध शुरू हुआ। भूखे-थके महार अपने सम्मान के लिए बिजली की गति से लड़े। अपनी वीरता और बुद्धि बल से ‘करो या मरो’ का संकल्प के साथ समय-समय पर ब्यूह रचना बदल कर बड़ी कड़ाई के साथ उन्होंने पेशवा सेना का मुकाबला किया। युद्ध चल रहा था। कैप्टन स्टाटन ने पेशवाओं की विशाल सेना को देखते हुए अपनी सेना को पीछे हटने के लिए कहा। महार सेना ने अपने कैप्टन के आदेश की कठोर शब्दों में भर्त्सना करते हुए कहा, हमारी सेना पेशवाओं (ब्राह्मण) से लड़कर ही मरेगी, किन्तु उनके सामने आत्म समर्पण नहीं करेगी, न ही पीछे हटेगी, हम पेशवाओं को पराजित किए बिना नहीं हटेंगे। यह महारों का आपसे वादा है।
महार सेना अल्पतम में होते हुए भी पेशवा सेनिकों पर टूट पड़े, तबाई मच गयी। लड़ाई निर्णायक मोड़ पर थी। पेशवा सेना एक-एक कदम पीछे हटने लगी. लगभग सांय 6 बजे महार सैनिक नदी के दूसरे किनारे पेशवाओं को खदेड़ते-खदेड़ते पहुंच गये और पेशवा फौज लगभग 9 बजे मैदान छोड़कर भागने लगी। इस लड़ाई में मुख्य सेनापति रावबाजी भी मैदान छोड़ कर भाग गया, जबकि, दूसरा सेनापति बापू गोखले भी मैदान छोड़कर भाग रहा था. लेकिन, महार सूरवीरों ने पकड़ कर मार गिराया। इस प्रकार लड़ाई एक दिन और उसी रात लगभग 9.30 बजे लगातार 12 घंटे तक लड़ी गयी, जिसमें महारों ने अपनी शूरता और वीरता का परिचय देकर विजय हासिल की। और इसी के साथ महारों की इस विजय ने इतिहास में जुल्म करने वाले पेशवाओं के पेशवाई शासन का हमेशा के लिए खात्मा कर दिया।
कोरेगांव का क्रान्ति स्तम्भः
कोरेगांव के मैदान में जिन महार सैनिकों ने वीरता से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त किया। उनकी याद में अंग्रेजों ने उनके सम्मान में सन 1822 ई. में कोरेगांव में भीमा नदी के किनारे काले पत्थरों का क्रान्ति स्तम्भ का निर्माण किया। सन 1822 ई. में बना यह स्तम्भ आज भी महारों की वीरता की गौरव गाथा गा रहा है। महारों की वीरता के प्रतीक के रूप में अंग्रेजों ने जो विजय स्तम्भ बनवाया है, वहां उन्होंने महारों की वीरता के सम्बन्ध में अंग्रेजों ने स्तुति युक्त वाक्य लिखा है.
“One of the proudest traimphs of the British Army in the eat” ब्रिटिश सेना को पूरब के देशों में जो कई प्रकार की जीत हासिल हुई उनमें यह अदभुत जीत है। इस स्तम्भ को हर साल 1 जनवरी को देश की सेना अभिवादन करने जाती थी। इसे सर्व प्रथम ‘महार स्तम्भ’ के नाम से सम्बोधित किया जाता था। बाद में इसे ‘‘विजय स्तम्भ’’ के नाम से जाना गया। आज इसे क्रान्ति स्तम्भ के नाम से जाना जाता है, जो सही दृष्टि में ऐतिहासिक क्रान्ति स्तम्भ है। यह स्तम्भ 25 गज लम्बे 6 गज चौढ़े और 6 गज ऊंचे एक प्लेटफार्म पर स्थापित 30 गज ऊंचा है। इस लड़ाई में पेशवाओं की हार हुई और महार सैनिक दमखम के साथ विजय हुए। कोरेगांव के युद्ध में 20 महार सैनिक और 5 अफसर शहीद हुए थे. शहीद हुए महारों के नाम, उनके सम्मान में बनाये गये स्मारक पर अंकित हैं। जो इस प्रकार हैं
1ः गोपनाक मोठेनाक
2ः शमनाक येशनाक
3ः भागनाक हरनाक
4ः अबनाक काननाक
5ः गननाक बालनाक
6ः बालनाक घोंड़नाक
7ः रूपनाक लखनाक
8ः बीटनाक रामनाक
9ः बटिनाक धाननाक
10ः राजनाक गणनाक
11ः बापनाक हबनाक
12ः रेनाक जाननाक
13ः सजनाक यसनाक
14ः गणनाक धरमनाक
15ः देवनाक अनाक
16ः गोपालनाक बालनाक
17ः हरनाक हरिनाक
18 : जेठनाक दीनाक
19ः गननाक लखनाक
इस लड़ाई में महारों का नेत्रत्व करने वालों के नाम निम्न थे.
रतननाक, जाननाक और भकनाक आदि। इनके नामों के आगे सूबेदार, जमादार, हवलदार और तोपखाना आदि उनके पदों का नाम लिखा है।
जबकि, इस संग्राम में जख्मी हुए योद्धाओं के नाम निम्न प्रकार हैं.
1ः जाननाक
2ः हरिनाक
3ः भीकनाक
4ः रतननाक
5ः धननाक
आज भी महार रेजीमेंट के सैनिकों बैरी कैप पर कोरेगांव की लड़ाई की याद में बनाए इस स्तम्भ की निशानी को अंकित किया गया है। 1851 में दोबारा एक सैन्य समारोह में अँग्रेजी सरकार ने शहीद हुए सैनिकों को मैडल देकर सम्मानित किया। डॉ.बाबासाहब आम्बेडकर हर साल 1 जनवरी को अपने शहीद हुए पूर्वजों को श्रद्धार्पण करने कोरेगांव जाते थे। आज इस पवित्र स्मारक पर लाखों की संख्या में लोग अपने पुरखों को श्रद्धा सुमन अर्पित करने आते हैं। 01 जनवरी 2019 को भीमा कोरेगांव युद्ध के 200 साल पूरे होने पर मा.वामन मेश्राम साहब के नेतृत्व में भारत मुक्ति मोर्चा ने विशाल कार्यक्रम आयोजित किया था जिसमें लाखों लोग पहुंचे थे. लेकिन, ब्राह्मणों द्वारा लाखों लोगों को कोरेगांव पहुंचने से रोकने की कोशिश की थी. मगर, उनकी कोशिश नाकाम रही.
बता दें कि भीमा कोरेगांव शौर्य पर बनी फिल्म ‘‘500 Battle of Koregaon’’ फिल्म को बने 5 साल हो गये लेकिन पांच साल से इसे रिलीज नहीं होने दिया जा रहा। आखिर कौनसा डर है? यही डर है ना कि फिल्म रिलीज़ हुई तो चाशनी में लिपटा हुआ पेशवाई वीरता का झूठा इतिहास बेनकाब हो जायेगा और साथ ही इनके अमानवीय अत्याचारों का इतिहास और उसके खिलाफ हुई ये निर्णायक लड़ाई कहीं फिर से अछूतों के सोये जमीर को जिंदा न कर दे। लेकिन कब तक सोये रहेंगे?
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