चुनाव आयोग के
पास
32 करोड़
मतदाताओं
के
आधार
कार्ड
आधार को वोटर
कार्ड
से
लिंक
किया
तो.......
वन
वोट
वन
वैल्यू.
अमीर-गरीब,
सबके
एक
वोट
का
समान
महत्व
है,
ऐसे
में
अगर
वोटर
कार्ड
को
आधार
से
लिंक
किया
गया,
तो
इसकी
क्या
गारंटी
है
कि
आपका
वोट
गुप्त
रह
पाएगा।
आधार
पर
सुप्रीम
कोर्ट
में
सुनवाई
पूरी
हो
चुकी
है,
इस
बीच
कोर्ट
के
आदेश
से
पहले
तक
चुनाव
आयोग
करीब
32 करोड़
मतदाताओं
के
आधार
कार्ड
इकट्ठा
कर
चुका
है।
क्या
चुनाव
आयोग
यह
बता
पाने
में
सक्षम
है
कि
उन
आधार
कार्ड
को
अब
तक
वोटर
कार्ड
से
लिंक
किया
गया
है
या
नहीं?
फिलहाल,
कुछ
ही
दिनों
में
सुप्रीम
कोर्ट
का
फैसला
आने
वाला
है,
लेकिन
यह
जानना
जरूरी
है
कि
यदि
मतदाताओं
के
वोटर
कार्ड
को
आधार
कार्ड
से
लिंक
किया
जाता
है,
तो
उसके
क्या
नतीजे
हो
सकते
हैं?
जाहिर
है,
सरकार
और
चुनाव
आयोग
को
अपनी
तरफ
से
यह
साफ
करना
चाहिए
कि
देश
के
हर
मतदाता
का
मत
कैसे
गोपनीय
और
सुरक्षित
रहेगा,
यदि
वोटर
कार्ड
को
आधार
कार्ड
से
लिंक
किया
जाता
है?
इस कहानी की
शुरुआत
कर्नाटक
विधानसभा
चुनाव
से
ही
करते
हैं,
हुबली
धारवाड़
सीट
का
चुनाव
परिणाम
पहले
रोक
दिया
गया
था
वजह,
ईवीएम
में
पड़े
मत
और
वीवीपैट
(पर्ची)
की
संख्या
में
असमानता
पाई
गई
थी
यानि,
जितने
मत
डाले
गए
और
जितने
मत
गिने
गए,
उनमें
अंतर
था।
यह
तथ्य
सिर्फ
एक
पोलिंग
स्टेशन
के
ईवीएम
की
वीवीपैट
की
गणना
से
सामने
आया,
वीवीपैट
के
अनुसार
459 वोट
पड़े
थे
और
चूंकि
जीत
का
मार्जिन
20,000 से अधिक था, इसलिए
अंततः
भाजपा
उम्मीदवार
जगदीश
शेट्टर
को
विजयी
घोषित
कर
दिया
गया.
अब सवाल
यह
उठता
है
कि
ऐसा
अंतर
अगर
एक
पोलिंग
स्टेशन
पर
आ
सकता
है,
तो
सभी
पर
क्यों
नहीं
आ
सकता
है?
चूंकि,
सभी
पोलिंग
स्टेशन
के
वीवीपैट
मतों
की
गिनती
का
प्रावधान
नहीं
है,
इसलिए
इस
तरह
के
ज्यादातर
अंतर
का
पता
ही
नहीं
चल
पाता
है,
लेकिन
हांडी
की
एक
चावल
से
पता
चल
जाता
है
कि
भात
पका
है
या
नहीं।
उसी
तरह,
यदि
एक
ईवीएम
और
उसके
वीवीपैट
में
गड़बड़ी
हो
सकती
है,
तो
दूसरे
में
क्यों
नहीं
हो
सकती?
क्या
इसका
कोई
फुलप्रूफ
जवाब
चुनाव
आयोग
दे
सकता
है?
मतदाता के
साथ
साइकोलॉजिकल
गेम
इस खबर
से
कहानी
की
शुरुआत
इसलिए
करने
की
जरूरत
पड़ी,
क्योंकि
इस
तरह
की
गड़बड़ियां
तब
भी
हो
रही
हैं,
जब
चुनाव
आयोग
ने
सभी
राजनीतिक
दलों
को
ईवीएम
हैक
करने
की
चुनौती
दी
थी
और
किसी
दल
ने
इसे
हैक
करने
की
न
हिम्मत
दिखाई
और
न
प्रतिभा।
वैसे
सवाल
हैकिंग
से
अधिक
महत्वपूर्ण,
तकनीक
के
साथ
छेड़छाड़
का
भी
है
और
तकनीक
की
विश्वसनीयता
का
भी
है।
क्या
लोकतंत्र
की
बुनियाद
को
तकनीक
के
भरोसे
गिरवी
रखा
जा
सकता
है?
वो
भी
ऐसे
समय
में,
जब
राजनीतिक
दल
मतदाताओं
को
प्रभावित
करने
के
लिए
साइकोलॉजिकल
गेम
खेल
रहे
हैं।
फेसबुक
डेटा
लीक
और
कैंब्रिज
एनालिटिका
का
खेल
यही
तो
था।
हर
एक
यूजर्स
की
पूरी
जानकारी
हासिल
करो,
ट्रेंड
का
पता
लगाओ
और
फिर
उसके
हिसाब
से
उसके
मत
को
प्रभावित
करने
की
कोशिश
करो,
ये
सब
राजनीतिक-व्यापारिक
तरीके
से
हो
रहा
है,
जिसका
खुलासा
अभी
कुछ
ही
दिन
पहले
हुआ
था।
अब
मूल
मुद्दे
पर
बात
करते
हैं,
मूल
मुद्दा
यह
है
कि
क्या
अब
तक
32 करोड़
मतदाताओं
का
वोटर
कार्ड
आधार
कार्ड
से
जोड़ा
जा
चुका
है?
पहले
इस
सवाल
का
जवाब
तलाशते
हैं,
बाद
में
यह
जानेंगे
कि
यदि
वोटर
कार्ड
को
आधार
कार्ड
से
लिंक
किया
गया,
तो
उसके
क्या
संभावित
परिणाम
हो
सकते
हैं?
मतदाता सूची
शुद्धिकरण
के
नाम
पर
3 मार्च 2015 को चुनाव आयोग
ने
नेशनल
इलेक्टोरल
रोल
प्योरीफिकेशन
एंड
ऑथेंटिकेशन
प्रोग्राम
(नेरपाप)
लॉन्च
किया
था।
इस
कार्यक्रम
के
तहत
मतदाताओं
के
एपिक
डेटा
(वोटर
कार्ड
डेटा)
को
आधार
कार्ड
के
साथ
लिंक
और
ऑथेंटिकेट
किया
जाना
था।
यह
काम
बूथ
लेवल
ऑफिसर
से
लेकर
ऊपर
तक
के
अधिकारियों
के
जरिए
कराया
गया
था।
बीएलओ
मतदाताओं
के
घर
जाकर
ये
डेटा
(आधार
कार्ड
डिटेल)
इकट्ठा
कर
रहे
थे।
हालांकि,
इसमें
यह
भी
कहा
गया
था
कि
मतदाताओं
के
लिए
अपना
आधार
कार्ड
डिटेल
देना
अनिवार्य
नहीं
होगा
और
डेटा
की
सुरक्षा
के
पुख्ता
इंतजाम
किए
जाएंगे।
खैर,
आधार
इकट्ठा
करने
के
लिए
कई
तरीके
अपनाए
गए,
जैसे
डेटा
हब,
केंद्र
और
राज्य
के
संगठन
और
अन्य
एजेंसियों
के
जरिए
आधार
डेटा
इकट्ठा
किए
गए।
कई
राज्यों
ने
भी
स्टेट
रेजिडेंट
डेटा
हब
बनाए
हैं,
जिसमें
मध्य
प्रदेश,
आन्ध्र
प्रदेश,
तेलंगाना,
दिल्ली
आदि
शामिल
हैं।
स्टेट
रेजिडेंट
डेटा
हब
के
जरिए
राज्य
सरकारें
अपने
नागरिकों
के
आधार
कार्ड
को
विभिन्न
कार्यों
के
लिए
लिंक
करती
हैं।
स्टेट
रेजिडेंट
डेटा
हब
का
अर्थ
है
सरकार
के
पास
अपने
नागरिकों
की
360 डिग्री
प्रोफाइल
तैयार
करना।
360 डिग्री
प्रोफाइल
का
अर्थ
यह
है
कि
आपकी
कोई
भी
जानकारी,
आपकी
कोई
भी
ऐसी
राय,
विचार
जो
किसी
सोशल
साइट्स
या
स्मार्ट
फोन
पर
मौजूद
है,
उसकी
हर
एक
जानकारी
सरकार
के
पास
होगी।
राज्य
सरकार
के
पास
यूआईडीएआई
की
तरफ
से
मुहैया
कराई
गई
हर
एक
जानकारी
(बायोमेट्रिक)
होगी।
चुनाव
आयोग
ने
ऐसे
ही
स्टेट
रेजिडेंट
डेटा
हब
से
भी
डेटा
लिए
और
इस
तरह
से
चुनाव
आयोग
तकरीबन
32 करोड़
मतदाताओं
के
आधार
डेटा
इकट्ठा
कर
चुका
था।
11 अगस्त 2015 को सुप्रीम कोर्ट
का
एक
आदेश
आता
है,
जस्टिस
केएस
पुट्टास्वामी
(रिटायर्ड)
की
याचिका
रिट
पेटिशन
सिविल
संख्या
494/2012 पर सुनवाई करते हुए
सुप्रीम
कोर्ट
ने
अपने
आदेश
में
स्पष्ट
रूप
से
कहा
कि
आधार
का
इस्तेमाल
सिवाय
पीडीएस
(राशन)
वितरण
के
कहीं
नहीं
किया
जा
सकता
है।
अदालत
ने
यहां
तक
कहा
कि
सरकार
किसी
को
दबाव
के
तहत
आधार
कार्ड
बनवाने
के
लिए
जबरदस्ती
नहीं
कर
सकती
है।
इस
आदेश
के
आने
के
तुरंत
बाद
ही
चुनाव
आयोग
ने
सभी
राज्यों
के
मुख्य
निर्वाचन
अधिकारियों
को
13 अगस्त
2015 को
पत्र
लिख
कर
तत्काल
मतदाताओं
से
आधार
डेटा
इकट्ठा
करने
का
काम
बंद
करने
को
कहा।
आयोग
ने
नेशनल
इलेक्टोरल
रोल
प्योरीफिकेशन
एंड
ऑथेंटिकेशन
प्रोग्राम
को
भी
स्थगित
कर
दिया,
लेकिन
इस
बीच
करीब
32 करोड़
मतदाताओं
के
आधार
डेटा
चुनाव
आयोग
के
पास
पहुंच
चुके
थे।
आयोग ने
वैसे
तो
भरोसा
दिलाया
कि
जमा
किए
गए
डेटा
की
सुरक्षा
के
पुख्ता
इंतजाम
हैं,
लेकिन
सबसे
बड़ा
सवाल
यह
है
कि
क्या
चुनाव
आयोग
की
मानव
शक्ति
और
तकनीकी
ताकत
(खुद
की
न
कि
आउटसोर्स्ड)
इतनी
है,
जिससे
वो
इस
डेटा
सुरक्षा
की
गारंटी
दे
सके?
गौरतलब
है
कि
चुनाव
आयोग
के
बहुत
सारे
काम
(खास
कर
तकनीकी)
आउटसोर्सेड
होते
हैं।
चुनाव
आयोग
ने
अब
तक
32 करोड
मतदाताओं
के
वोटर
कार्ड
आधार
से
लिंक
किए
है
या
नहीं,
इसकी
आधिकारिक
जानकारी
चुनाव
आयोग
को
देनी
चाहिए।
यहां
यह
स्पष्ट
रूप
से
समझना
चाहिए
कि
वोटर
कार्ड
का
आधार
कार्ड
के
माध्यम
से
वेरीफिकेशन
करना
एक
अलग
बात
है
और
वोटर
कार्ड
को
आधार
कार्ड
से
लिंक
करना
एक
अलग
बात
है।
वोट पर
चोट!
भारत में
गुप्त
मतदान
की
व्यवस्था
है,
अभी
ईवीएम
को
लेकर
सवाल
उठते
रहते
हैं।
हुबली
विधानसभा
से
भी
खबर
आई
कि
वीवीपैट
और
ईवीएम
में
दर्ज
मतों
की
गिनती
में
अंतर
पाया
गया।
ईवीएम बेसिकली एक
प्रीलोडेड डेटा के आधार
पर काम करता है।
आने वाले दिनों में
अगर वोटर कार्ड को
आधार से लिंक किया
जाता है, तो मतदान
से पहले बायोमेट्रिक वेरिफिकेशन
होगा। इसमें यह गुंजाइश
रहेगी कि जो बूथ
का चुनाव अधिकारी है
और जिसके पास कंट्रोल
पैनल होता है, वो
चाहे तो इस बात
का पता लगा सकता
है कि किसी मतदाता
ने किसे वोट दिया।
ऐसा इसलिए संभव है
कि उसके पास मतदाता
का बायोमेट्रिक वेरिफिकेशन
डिटेल और उसकी टाइमिंग
होगी। वो यदि चाहे
तो बाद में उस
टाइमिंग के हिसाब से
अंगूठे के निशान और
ईवीएम पर दबाए गए
चुनाव निशान का मिलान
कर सकता है। हालांकि,
यह इतना आसान नहीं
है, लेकिन तकनीकी जानकार
व्यक्ति ऐसा कर सकता
है। यह कोई साइंस
फिक्शन का हिस्सा नहीं
है, बल्कि दुनियाभर में
जिस तरह से हैकिंग
हो रही है, उसे
देखते हुए संभव लगता
है। यदि ऐसा होने
की रत्ती भर भी
गुंजाइश रहती है तो
यह पूरी मतदान प्रक्रिया
को बेमानी बना देगा,
क्योंकि तब हमारा मत
गुप्त नहीं रह सकेगा।
दूसरा अहम
तथ्य
यह
है
कि
यदि
एक
बार
वोटर
कार्ड
को
आधार
से
लिंक
कर
दिया
गया,
तो
आने
वाले
समय
में
देश
में
ई-वोटिंग
की
प्रक्रिया
भी
शुरू
की
जा
सकती
है,
ऐसी
एक
कोशिश
गुजरात
के
स्थानीय
नगर
निगम
चुनाव
में
हो
भी
चुकी
है।
इस
वक्त
गुजरात
के
8 नगर
निगम
में
ई-वोटिंग
को
अपनाया
जा
रहा
है।
ई-वोटिंग
का
सबसे
बड़ा
खतरा
तो
यही
है
कि
मतदाता
को
यह
पता
ही
नहीं
होगा
कि
उसने
किसे
वोट
दिया।
मतदाता
अपने
स्मार्ट
फोन
या
कंप्यूटर
पर
एक
नंबर
दबाएगा
और
वोट
चुनाव
आयोग
या
ई-बूथ
पर
रखी
मशीन
में
दर्ज
हो
जाएगा।
अब
वो
मशीन
क्या
दर्ज
कर
रहा
है,
मतदाता
कभी
नहीं
जान
पाएंगे,
सिवाय
विश्वास
करने
के.
ई-वोट
फेल
हुआ
या
उसके
साथ
फ्रॉड
हुआ,
यह
जानने
का
क्या
विकल्प
होगा
इसे
लेकर
भी
सवाल
है।
आशंकाएं और
सवाल
यूआईएडीएआई ने
यह
स्वीकार
किया
है
कि
सरकारी
सेवाओं
के
साथ
आधार
लिंकिंग
की
असफलता
दर
12 फीसदी
है,
टेक्निकल
एरर
अलग
से
है।
यदि
वोटिंग
सिस्टम
में
भी
बायोमेट्रिक
वेरिफिकेशन
अपनाया
जाता
है
(जैसे
अभी
वोट
करने
से
पहले
वोटर
कार्ड
मिलान
और
हस्ताक्षर
आदि
करवाए
जाते
है,
स्याही
लगाई
जाती
है)
तो
जाहिर
है
कि
उसमें
भी
वेरिफिकेशन
का
सक्सेस
रेट
घट-बढ़
सकता
है।
ऐसे
में
जिनका
भी
बायोमेट्रिक
वेरिफिकेशन
नहीं
हो
पाएगा,
वो
वोटिंग
से
वंचित
भी
किए
जा
सकते
हैं।
कई
ऐसी
घटनाएं
भी
सामने
आई
हैं,
जिनमें
जिस
व्यक्ति
का
आधार
कार्ड
बना
है,
बाद
में
उसके
अंगूठे
का
निशान
या
आंख
की
पुतली
मेल
नहीं
खाती
है।
ऐसे
मतदाताओं
का
क्या
होगा?
क्या
वे
फिर
भी
वोट
दे
सकेंगे?
फिर
किसी
भी
संभावित
टेक्निकल
एरर
(कनेक्शन
फेल
होने
या
अन्य
तकनीकी
दिक्कत)
के
कारण
भी
कोई
मतदाता
वोट
देने
से
वंचित
हो
सकता
है।
क्या
वोटर
प्रोफाइल
में
हेरफेर
की
आशंका
से
इंकार
किया
जा
सकता
है,
जिसका
अनुचित
लाभ
उठाया
जा
सके?
यदि
इस
पूरी
योजना
के
क्रियान्वयन
में
कहीं
कोई
तकनीकी
खामी
रह
जाती
है
तो
क्या
उसका
गलत
फायदा
कोई
नहीं
उठा
सकता
है?
ऐसे
में
मतदाता
की
संवेदनशील
पूर्ण
जानकारी
क्या
गलत
तत्वों
के
हाथ
नहीं
लग
सकती
या
फिर
कैंब्रिज
एनालिटिका
के
तर्ज
पर
इसका
अनुचित
तरीके
से
राजनीतिक
लाभ
नहीं
उठाया
जा
सकता
है?
जाहिर
है,
जब
वोटर
कार्ड
को
आधार
से
जोड़ा
जाएगा,
तब
हमारी
चुनाव
प्रणाली
पूरी
तरह
से
हैकप्रूफ
और
सुरक्षित
होनी
चाहिए।
दूसरी तरफ,
गौर
करने
वाली
बात
यह
भी
है
कि
यूआईडीआईए
ने
आधार
कार्ड
बनाने
के
लिए
कुछ
निजी
कंपनियों
(विदेशी
कंपनियां
भी)
के
साथ
समझौते
किए
हैं।
जब
आरटीआई
के
तहत
जानकारी
लेने
की
कोशिश
कुछ
लोगों
ने
की
तो
उन्हें
आधी-अधूरी
सूचनाएं
दी
गईं।
यूआईडीआईए
ने
यह
कभी
नहीं
बताया
कि
इसने
एल-1
आईडेंटिटी
सोल्युशन,
एसेंचर
और
दूसरी
विदेशी
कंपनियों
के
साथ
क्या
समझौता
किया
है।
इसके
अलावा,
ईवीएम
चिप
आदि
बनाने
का
काम
करने
वाली
कंपनियों
को
लेकर
भी
सवाल
उठते
रहे
हैं।
बहरहाल,
आए
दिन
पाकिस्तान
और
चीन
के
हैकर्स
द्वारा
भारतीय
मंत्रालयों
के
संवेदनशील
वेबसाइट्स
के
हैक
होने
और
अंतरराष्ट्रीय
स्तर
पर
हैकिंग
की
अन्य
घटनाओं
को
देखते
हुए
यह
आशंका
और
भी
बढ़
जाती
है
कि
हम
कैसे
अपने
मतदाताओं
की
सूचना
सुरक्षित
रख
पाएंगे?
पांच सवाल,
जिनका
जवाब
चुनाव
आयोग
को
देना
चाहिए
2012 से
जब
आधार
का
मामला
सुप्रीम
कोर्ट
में
था,
तब
चुनाव
आयोग
ने
क्यों
मतदाताओं
से
आधार डेटा
लिया?
क्या
इसके
लिए
केंद्र
सरकार
की
तरफ
से
कोई
सलाह
मिली
थी
या
चुनाव
आयोग
ने
स्वयं
यह
निर्णय
लिया?
ऐसा
निर्णय
लेने
का
आधार
क्या
था?
क्या
इसके
लिए
कोई
एक्सपर्ट
कमेटी
बनाई
गई
थी?
क्या वोटर
कार्ड-आधार
कार्ड
लिंकिंग
(अगर
अब
तक
कर
दिया
गया
है
तो)
का
काम
चुनाव
आयोग
ने
खुद
किया
या
आउटसोर्सेड
कर्मचारियों
और
तकनीक
के
जरिए
कराया?
सिर्फ पांच
महीने
में
ही
चुनाव
आयोग
ने
32 से
38 करोड़
मतदाताओं
के
आधार
डेटा
कैसे
और
किस
तरीके
से
इकट्ठा
कर
लिया?
इस
डेटा
की
सुरक्षा
के
लिए
क्या
कदम
उठाए
गए?
क्यों खतरनाक
है
आधार?
चौथी दुनिया, दैनिक मूलनिवासी
नायक
पिछले
कई
सालों
से
लगातार
आधार
से
जुड़े
खतरों
को
लेकर
सवाल
उठाता
रहा
है
कि
कैसे
विभिन्न
संस्थाओं
ने
तकनीकी
खामियां
गिना
कर
उन
सारे
दावों
की
पोल
खोल
दी
थी
जो
नंदन
नीलेकणी
अब
तक
करते
आ
रहे
थे
और
अब
भी
नई
सरकार
ऐसे
ही
दावे
कर
रही
है।
यह
देश
का
अकेला
ऐसा
कार्यक्रम
है
जिसे
संसद
में
पेश
करने
से
पहले
ही
लागू
करा
दिया
गया
था।
मोदी
सरकार
ने
इसे
मनी
बिल
बना
कर
पास
करवाया,
तब
तक
इसे
विभिन्न
योजनाओं
के
लिए
अनिवार्य
बना
दिया
गया।
संसदीय
कमेटी
तक
ने
इस
योजना
पर
सवाल
खड़े
किए
हैं।
संसदीय
कमेटी
के
मुताबिक,
आधार
योजना
तर्कसंगत
नहीं
है,
इसके
अलावा
सुप्रीम
कोर्ट
में
भी
मामला
लंबित
है
जिस
पर
अब
फैसला
हो
चुका
है
और
फैसला
कभी
भी
आ
सकता
है।
आधार के
खिलाफ
केस
करने
वाले
स्वयं
कर्नाटक
हाईकोर्ट
के
जज
रहे
हैं।
जस्टिस
के
एस
पुत्तुस्वामी
ने
सुप्रीम
कोर्ट
में
एक
रिट
पिटीशन
दायर
की
है।
इस
पिटीशन
पर
देश
के
सुप्रीम
कोर्ट
और
हाईकोर्ट
के
कई
जजों
ने
सहमति
दिखाई
है।
सबसे
महत्वपूर्ण
सवाल
यह
है
कि
आखिर
क्यों
जनता
का
बायोमेट्रिक
डेटा
इकट्ठा
किया
गया?
सुप्रीम
कोर्ट
ने
यह
निर्देश
भी
दे
दिया
है
कि
यूआईडीएआई
जनता
के
बायोमेट्रिक
डाटा
किसी
को
नहीं
दे
सकता
है।
यह
जनता
की
अमानत
है
और
इसे
दूसरी
एजेंसियों
के
साथ
शेयर
करना
मौलिक
अधिकारों
का
हनन
है,
लेकिन
अभी
कुछ
दिन
पहले
खबर
आई
कि
जनता
के
आधार
डेटा
लीक
हो
रहे
हैं।
क्या
इन
जानकारियों
को
यूआईडीएआई
ने
अन्य
संस्थाओं
(निजी,
अर्द्ध
निजी
संस्थाओं)
के
साथ
शेयर
किया
है?
क्या
ये
जानकारियां
विदेशी
कंपनियों
के
हाथ
लग
चुकी
हैं?
चौथी दुनिया, दैनिक मूलनिवासी
नायक
शुरू
से
लोगों
को
आधार
के
खतरे
के
बारे
में
बता
रहा
है।
आधार
कार्ड
नागरिकों
के
मौलिक
अधिकार
(निजता
का
अधिकार)
का
हनन
करता
है।
दुनिया
के
किसी
भी
लोकतांत्रिक
देश
में
इस
तरह
की
योजना
नहीं
चलाई
जा
सकती
है।
पाकिस्तान
अकेला
ऐसा
देश
है,
जिसने
यह
गलती
की
है।
क्या
हम
पाकिस्तान
की
तरह
बनना
चाहते
हैं?
क्या
भारत
इस
तथ्य
को
कभी
नहीं
समझेगा?
आखिर
क्यों,
अमेरिका,
ब्रिटेन,
ऑस्ट्रेलिया,
चीन,
कनाडा
और
जर्मनी
जैसे
देशों
में
भी
इस
तरह
की
योजना
शुरू
करने
के
बाद
बंद
कर
दी
गई?
आधार
कार्ड
बनाने
और
उसके
ऑपरेशन
में
डिजिटल
डाटा
का
इस्तेमाल
होता
है।
इस
कार्ड
को
बनाने
के
लिए
लोगों
की
आंखों
की
पुतलियों
और
अंगूठे
का
निशान
जैसे
बायोमेट्रिक
डाटा
लिए
जाते
हैं,
फिर
उसे
पासपोर्ट,
बैंक
एकाउंट
और
फोन
से
जोड़
दिया
जाता
है।
लोगों
की
व्यक्तिगत
जानकारियां
एक
सर्वर
में
एकत्र
की
जाती
हैं,
जाहिर
है
उस
सर्वर
पर
कभी
भी
हैकर्स
अटैक
कर
उसे
हैक
कर
सकते
हैं
और
हो
रहे
हैं।
सरकार को
जनता
को
यह
बताना
चाहिए
कि
सुप्रीम
कोर्ट
में
मामला
लंबित
रहते
हुए
भी
क्यों
सरकारी
एजेंसियों
ने
इसे
अनिवार्य
बनाया?
आखिर
इस
योजना
पर
कितना
पैसा
खर्च
हुआ?
लोकसभा
चुनाव
2014 से
पहले
भाजपा
इस
योजना
पर
पुनर्विचार
करने
की
बात
कहती
रही,
फिर
चुनाव
के
बाद
भाजपा
का
स्टैंड
क्यों
बदल
गया?
भाजपा
ने
चुनाव
से
पहले
कहा
था
कि
आधार
योजना
को
लेकर
सुरक्षा
का
मुद्दा
चिंता
का
विषय
है,
क्या
उस
चिंता
का
समाधान
कर
लिया
गया
है
और
हां
तो
कैसे?
पार्लियामेंट्री
स्टैंडिंग
कमेटी
ऑन
इन्फॉर्मेशन
टेक्नोलॉजी
की
साइबर
सिक्योरिटी
रिपोर्ट
के
मुताबिक,
क्या
आधार
योजना
राष्ट्रीय
सुरक्षा
से
समझौता
और
नागरिकों
की
संप्रभुता
और
निजता
के
अधिकार
पर
हमला
नहीं
है?
संदर्भ नं.
1-रविशंकर
प्रसाद,
आईटी
मिनिस्टर
(2 अप्रैल
2018 को
बंगलुरू
आईटी
ग्लोबलरू
रोड
अहेड
में)
मैं
यह
बात
आईटी
मिनिस्टर
नहीं,
बल्कि
व्यक्तिगत
तौर
पर
कह
रहा
हूं
कि
आधार
को
वोटर
कार्ड
से
लिंक
नहीं
करना
चाहिए।
अगर
हम
ऐसा
करेंगे
तो
हमारे
विरोधी
कहेंगे
कि
मोदी
सरकार
लोगों
की
जिंदगी
में
ताकझांक
कर
रही
है
कि
लोग
क्या
खा
रहे
हैं,
क्या
देख
रहे
हैं।
संदर्भ नं.
2- पीपी
चौधरी,
तत्कालीन
आईटी
राज्य
मंत्री
(अगस्त
2017 में
लोकसभा
में
एक
लिखित
प्रश्न
का
जवाब
देते
हुए)
केस
का
नतीजा
क्या
आता
है,
उसे
देखते
हुए
चुनाव
आयोग
उचित
समय
पर
वोटर
सर्विस
को
आधार
से
लिंक
करने
पर
विचार
करेगा।
यानी
हर
तरह
से
प्रूफ
होता
है
कि
आधार
देश
व
जनता
के
लिए
बेहद
खतरना
है।
साभार
(चौथी
दुनिया)
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