मंगलवार, 11 जून 2019

रविवार की छुट्टी का प्रारंभ : ‘‘रविवार की छुट्टी और श्रमिक आंदोलन के जनक नारायण मेघाजी लोखंडे’’



राजकुमार (संपादक-दैनिक मूलनिवासी नायक)
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आज से 129 साल पहले आज के ही दिन अर्थात 10 जून 1890 से रविवार की छुट्टी नारायण मेघाजी लोखंडे के अथक प्रयासों से शुरू हुई थी. नारायण मेघाजी लोखंडे का जन्म जनपद ठाणे महाराष्ट्र में 08 फरवरी 1848 को हुआ था, किन्तु इनका पैतृक गाँव सासवड जनपद पुणे था. वे राष्ट्रपिता महात्मा ज्योतिबा फुले के सत्यशोधक आन्दोलन के कर्मठ कार्यकर्ता थे. उन्हें रविवार की छुट्टी और भारत में श्रमिक आंदोलन का जनक कहा जाता है. भारत सरकार ने उनके सम्मान में 03 मई 2005 को 05 रुपये का एक डाक टिकट जारी किया था.

बताते चलें कि ब्रिटिश शासन के दौरान मिल मजदूरों को सातों दिन काम करना पड़ता था और उन्हें कोई छुट्टी नहीं मिलती थी. उस समय मजदूरों का काफी शोषण होता था. ब्रिटिश अधिकारी प्रार्थना के लिए हर रविवार को चर्च जाया करते थे. लेकिन, मजदूरों के लिए ऐसी कोई परंपरा नहीं थी. ऐसे में जब मजदूरों ने भी रविवार की छुट्टी की मांग की तो उन्हें डरा-धमकाकर शांत करा दिया गया. उस समय मिल मजदूरों के नेता लोखंडे ने 1881 में अंग्रेजों के सामने साप्ताहिक छुट्टी का प्रस्ताव रखा और कहा कि हम लोग खुद के लिए और अपने परिवार के लिए सातों दिन काम करते हैं, अतः हमें एक दिन की छुट्टी अपने देश की सेवा करने के लिए मिलनी चाहिए और हमें अपने समाज के लिए कुछ विकास के कार्य करने चाहिए.

 इसके साथ ही उन्होंने मजदूरों से कहा कि रविवार देवता ‘‘खंडोबा’’ का दिन है और इसलिए इस दिन को साप्ताहिक छुट्टी के रूप में घोषित किया जाना चाहिए. लेकिन, उनके इस प्रस्ताव को ब्रिटिश अधिकारियों ने अस्वीकार कर दिया. लोखंडे जी यहीं नहीं रुके, उन्होंने अवकाश की मांग को लेकर एक लंबी लड़ाई जारी रखी. आखिरकार 09 साल के लम्बे संघर्ष के बाद पहली बार 10 जून 1890 को ब्रिटिश सरकार ने रविवार को छुट्टी का दिन घोषित किया. हैरानी की बात यह है कि भारत सरकार ने कभी भी इसके बारे में कोई आदेश जारी नहीं किए हैं. इसके बाद दोपहर में आधा घंटा खाना खाने की छुट्टी और हर महीने की 15 तारीख को मासिक वेतन दिया जाने लगा. यही नहीं लोखंडे जी की वजह से मिलों में कार्य प्रारंभ के लिए प्रातः 6ः30 बजे का और कार्य समाप्ति के लिए सूर्यास्त का समय निर्धारित किया गया.

अधिकांश मूलनिवासी लोग रविवार की छुट्टी का दिन मौजमस्ती करने में बिताते हैं. उन्हें लगता है, हम इस छुट्टी के हकदार हैं. क्या हमें यह बात पता है कि रविवार की छुट्टी हमें क्यों मिली या यह छुट्टी लोखंडेजी ने हमें क्यों दिलायी या इसके पीछे उस महान व्यक्ति का मकसद क्या था? लोखंडे जी का मानना था कि सप्ताह के सातों दिन हम अपने परिवार के लिए काम करते है, किन्तु जिस समाज की बदौलत हमें नौकरी मिली उस समाज की समस्या का समाधान करने के लिए हमें एक दिन की छुट्टी मिलनी चाहिए. इस भावना के साथ उन्होंने 09 वर्षों तक निरंतर आंदोलन किया तब जाकर हमें यह रविवार की छुट्टी मिली. 

अनपढ़ लोगों को तो छोड़ो क्या पढ़े लिखे लोग भी इस बात को जानते हैं? यदि जानते हैं तो क्या समझते भी हैं? जहाँ तक हमारी जानकारी है, पढ़े लिखे लोग भी इस बात को नहीं जानते/समझते हैं.अगर जानकारी होती तो वे रविवार के दिन मौज मस्ती नहीं समाज का काम करते और अगर समाज का काम ईमानदारी से काम किया होता तो समाज में बेरोजगारी, बलात्कार, लाचारी आदि समस्यायें नहीं होती. रविवार की छुट्टी पर मेरा नहीं समाज का हक है. इसलिए रविवार की छुट्टी के दिन समाज को जागृत करने चाहिए, समाज को बामसेफ द्वारा चलाये जा रहे आंदोलन के लिए तैयार करना चाहिए और इस आंदोलन के माध्यम से मूलनिवासी बहुजन संत महापुरूषों के सपनों को साकार करने के लिए संकल्प लेना चाहिए.

सोमवार, 3 जून 2019

दो जून की रोटी


‘‘अर्जुन सेन गुप्ता की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 83 करोड़ लोग गरीबी के चलते भुखमरी की कगार पर पहुँचा दिये गये हैं. इसी तरह एक और चौंका देने वाला तथ्य यह भी है कि नोवेल विजेता विश्वप्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो.डेटान ने एक शोध में कहा था कि भारत में जो गरीबी और भुखमरी है इसका मुख्य कारण ‘‘जाति’’ है. इसका मतलब यह है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों ने भारत में जाति का निर्माण किया और जाति के आधार पर मूलनिवासी बहुजनों को गरीबी और भुखमरी का शिकार बनाया है.’’

 राजकुमार (संपादक-दैनिक मूलनिवासी नायक)
‘‘दो जून की रोटी’’ बड़ी मुश्किल से मिलती है.....आज 2 जून 2019 है और आपने अपने बचपन में बड़े बुजुर्गों से ये कहावत जरूर सुनी होगी कि ‘‘2 जून की रोटी’’ किस्मत वालों को ही नसीब होती है. लेकिन, क्या आप जानते है ऐसा क्यों कहा जाता है? बता दें कि इस मुहावरे का जून महीने से कोई लेना देना नहीं है. बल्कि, पुराने समय में ‘‘दो जून की रोटी’’ से आशय दो समय (सुबह-शाम) का खाना से है. सीधे और सरल शब्दों में कहें तो कठिन परिश्रम के बाद दो समय का खाना नसीब नहीं होना. ‘‘दो जून’’ अवधि भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ वक्त या समय होता है.


कथित आजादी के 71 वर्ष बाद भी भारत जैसे महान देश भारत में जहाँ हर दिन करोड़ों लोगों को ‘दो जून की रोटी’ नसीब नहीं होती है तो वहीं दूसरी तरफ भारत जैसे देश में दोनों हाथों से खाने की बर्बादी हो रही है. ताजा रिपोर्ट कहती है कि भारत में जितना एक साल में अनाज बर्बाद कर दिये जाते हैं, उतना ब्रिटेन पैदा भी नहीं कर पाता है. अगर भारत में खाने और अनाजों की बर्बादी की बात करें तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं. 

वर्ल्ड हंगर इंडेक्स की रिपोर्ट एक भयावह तस्वीर पेश करती है. आइए कुछ आंकड़े देखते हैं कि भारत में कितना भोजन और अनाज बर्बाद होता है और कितने लोग भोजन के लिए तरस रहे हैं. वर्ल्ड हंगर इंडेक्स के अनुसार दुनिया के करीब 79.5 फीसदी लोगों के पास खाने के लिए कुछ भी नहीं है. जहाँ तक भारत का प्रश्न है तो भारत में तकरीबन 20 करोड़ से ज्यादा लोग हर रोज भूखे पेट सोने के लिए मजबूर हैं. इसका मतलब है कि भारत में हर 4 में से एक बच्चा भूखा रहता है.



वर्ल्ड हंगर इंडेक्स रिपोर्ट के ही मुताबिक भारत में हर दिन 244 करोड़ रूपये का खाना बर्बाद होता है. यदि पूरे एक साल का आंकड़ा निकाले तो भारत में एक साल में 87840 करोड़ रूपये का केवल खाना बर्बाद किया जाता है. जब बात अनाजों की बर्बादी की करते हैं तो इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर साल 23 करोड़ टन दाल, 12 करोड़ टन फल और 21 करोड़ टन सब्जियाँ वितरण प्रणाली में खामियों के कारण खराब हो जाती हैं. देश में हर साल उतना गेहूँ बर्बाद होता है जितना आस्ट्रेलिया की कुल पैदावार होती है. नष्ट हुए गेहूँ की कीमत लगभग 50 हजार करोड़ होती है और इससे 30 करोड़ लोगों को साल भर भरपेट खाना दिया जा सकता है. 

विश्व खाद्य कार्यक्रम द्वारा जारी एक सनसनीखेज खबर के मुताबिक भारत में 12 करोड़ लोग ऐसे भुखमरी के शिकार हैं जिनको जल्द ही भोजन नहीं मिला तो इनकी मौत होने का खतरा प्रबल हो सकता है. संयुक्त राष्ट्र में मानवतावाद प्रमुख मार्क लोकोक ने कहा कि भारत की स्थिति और ज्यादा बेहद खतरनाक है. उन्होंने कृषि उत्पादन और उत्पादकता में हुए विस्तार और गरीबी का आंकलन करते हुए कहा कि एक तरफ करोड़ों लोग दाने-दाने को मोहताज हैं, कुपोषण के शिकार हैं, वहीं रोज लाखों टन खाना बर्बाद किये जा रहे हैं. दुनिया भर में हर वर्ष जितना भोजन तैयार होता है उसका एक तिहाई यानी लगभग 1 अरब 30 करोड़ टन बर्बाद हो जाता है. बर्बाद होने वाला भोजन इतना होता है कि उससे दो अरब लोगों की खाने की जरूरत पूरी हो सकती है. 

विश्व खाद्य संगठन के मुताबिक भारत में हर साल 87840 करोड़ का भोजन बर्बाद हो जाता है, जो कि देश के कुल खाद्य उत्पादन का लगभग 75 फीसद है. आज देश पानी की कमी से जूझ रहा है, लेकिन अपव्यय किए जाने वाले इस भोजन को पैदा करने में इतना ही पानी व्यर्थ चला जाता है जिससे 10 करोड़ से ज्यादा लोगों की प्यास बुझाई जा सकती है. एक आकलन के मुताबिक अपव्यय के बराबर की धनराशि से 05 करोड़ बच्चों की जिंदगी संवारी जा सकती है. 50 लाख से ज्यादा लोगों को गरीबी के चंगुल से मुक्त किया जा सकता है और 10 से 15 करोड़ लोगों को आहार सुरक्षा की गारंटी दी जा सकती है. हैरानी की बात तो यह है कि सरकार बड़े-बड़े दावे करती है, इसके बाद भी 7.08 लाख परिवार कूड़ा बिनकर तो 9.68 लाख परिवार भीख मांगकर अपना गुजारा करते हैं.

एक रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि भारत में बढ़ती संपन्नता के साथ खाना भी फेंकने की प्रवृत्ति बढ़ रही है. विश्व खाद्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत की जनसख्या की उदरपूर्ति करने के लिए हर साल लगभग 230 मिलियन टन अनाज की आवश्यकता होती है, लेकिन 270 मिलियन टन अनाज का उत्पादन होने के बाद भी 20 करोड़ से ज्यादा लोग भूखे पेट सोते हैं. इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर साल 23 करोड़ टन दाल, 12 करोड़ टन फल और 21 करोड़ टन सब्जियाँ वितरण प्रणाली में खामियों के कारण खराब हो जाती हैं.

आपको बता दें कि 2.1 करोड़ टन अनाज केवल इसलिए बर्बाद हो जाता है, क्योंकि उसे रखने के लिए उचित भंडारण की सुविधा नहीं है. देश के कुल उत्पादित 40 फीसदी फल-सब्जी समय पर मंडी तक नहीं पहुँच पाने के कारण सड़-गल जाते हैं. औसतन हर भारतीय एक साल में 07 से 13 किलो अन्न बर्बाद करता है. देश में जितना अन्न एक साल में बर्बाद होता है उसकी कीमत से ही कई सौ कोल्ड स्टोरेज बनाए जा सकते हैं जो फल-सब्जी को सड़ने से बचा सकें. एक साल में जितना सरकारी खरीद का धान व गेहूँ खुले में पड़े होने के कारण नष्ट हो जाता है, उससे ग्रामीण अंचलों में 07 हजार गोदाम बनाए जा सकते हैं. 

भोजन का फेंका जाना पहली निगाह में भले ही मामूली-सी बात प्रतीत हो या फिर एक बड़े कार्यक्रम की जरूरत बताकर इससे पल्ला झाड़ लिया जाए, लेकिन यह एक गंभीर मसला है. इस संदर्भ में विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन द्वारा जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि खाद्य अपव्यय को रोके बिना खाद्य सुरक्षा संभव नहीं है. भोजन के अपव्यय से जल, जमीन और जलवायु के साथ साथ जैव-विविधता पर भी बेहद नकारात्मक असर पड़ता है. रिपोर्ट के मुताबिक उत्पादित भोजन, जिसे खाया नहीं जाता, उससे प्रत्येक वर्ष रूस की वोल्गा नदी के जल के बराबर जल की बर्बादी होती है. अपव्यय किए जाने वाले इस भोजन की वजह से तीन अरब टन से भी ज्यादा मात्रा में खतरनाक ग्रीनहाउस गैसें उत्सर्जित होती हैं. दुनिया की लगभग 28 फीसद भूमि, जिसका क्षेत्रफल 1.4 अरब हेक्टेयर है, ऐसे खाद्यान्न को उत्पन्न करने में व्यर्थ जाती है. 

एक सर्वे के मुताबिक, अकेले बंगलुरु में एक साल में होने वाली शादियों में 943 टन पका हुआ खाना बर्बाद कर दिया जाता है. आपको बता दें कि इस खाने से लगभग 2.6 करोड़ लोगों को एक समय का खाना खिलाया जा सकता है. अब आप ही सोचिये कि ये तो सिर्फ एक शहर की बात है और हमारे देश में 29 राज्य और 7 केंद्र शासित प्रदेश हैं. अब आप खुद ही अंदाजा लगा सकते हैं कि हर साल होने वाली ‘अन्न की बर्बादी’ का आंकड़ा क्या होगा? ऐसे में क्या देश के 85 प्रतिशत मूलनिवासी बहुजन समाज को ‘‘दो जून की रोटी’’ नसीब होगी?

भविष्य के साथ खिलवाड़

भविष्य के साथ खिलवाड़
राजकुमार (संपादक-दैनिक मूलनिवासी नायक)
देश में हर साल पचास हजार चिकित्सक महाविद्यालयों से डिग्री लेकर निकलते है. दुनिया की सबसे बड़ी चिकित्सा शिक्षा प्रणाली भी भारत में है. इसके बावजूद हमारे मेडिकल कॉलेजों में नए शोध नहीं हो रहे हैं. स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों की सीटें भी बड़ी संख्या में हर साल खाली रह जाती हैं. इन कमियों का खुलासा चिकित्सकों की महत्त्वपूर्ण संस्था एसोसिएशन ऑफ डिप्लोमैट नेशनल बोर्ड ने किया है. देश के कुल 576 चिकित्सा संस्थानों में से 332 ने एक भी शोध-पत्र प्रकाशित नहीं किया है. नए शोध अनुसंधान, नवाचार एवं अध्ययन-प्रशिक्षण का आधार होते हैं. यदि आधे से ज्यादा कॉलेजों में अनुसंधान नहीं हो रहे हैं, तो क्या इनसे पढ़कर निकलने वाले चिकित्सकों की योग्यता व क्षमता विश्वसनीय रह जाएगी? 


अब तक सरकारी चिकित्सा संस्थानों की शैक्षिक गुणवत्ता पर सवाल उठते रहे हैं, लेकिन ध्यान रहे कि लगभग साठ प्रतिशत मेडिकल कॉलेज निजी क्षेत्र में हैं. ये संस्थान छात्रों से भारी-भरकम शुल्क तो वसूलते ही हैं, कैपीटेशन फीस लेकर प्रबंधन के कोटे में छात्रों की सीधी भर्ती करते हैं. ऐसे में छात्रों को शोध का अवसर नहीं देना चिकित्सा शिक्षा और छात्र के भविष्य के साथ खिलवाड़ है. दूसरी तरफ चिकित्सकों को उपचार की विशेषज्ञता हासिल कराने वाले स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में सैकड़ों सीटें खाली रह जाती हैं. चिकित्सा से इतर विषयों के डिग्रीधारियों के लिए नौकरियों में कमी की बात तो समझ में आती है, कोई एमबीबीएस बेरोजगार हो, यह जानकारी नहीं मिलती! फिर क्या पीजी पाठ्यक्रमों में सीटें खाली रह जाना, निपुण छात्रों के अभाव का सूचक है या फिर छात्र स्वयं गंभीर पाठ्यक्रमों से दूर भाग रहे हैं? या फिर चिकित्सकों के सम्मान में जो कमी आई है और अस्पतालों में उन पर इलाज में लापरवाही का आरोप लगा कर जो हमले हो रहे हैं, उस भय की वजह से छात्र पीछे हट रहे हैं? अथवा भारतीय चिकित्सा परिषद के विधान में संशोधन कर वैकल्पिक चिकित्सा से जुड़े चिकित्सकों को एक सेतु-पाठ्यक्रम के जरिए ऐलोपैथी चिकित्सा करने की जो छूट दिए जाने की कवायद चल रही है, उसकी वजह से सीटें रिक्त रह जाती हैं?

2016 में राष्ट्रीय चिकित्सा परिषद बनाने का मकसद चिकित्सा शिक्षा के गिरते स्तर को सुधारना, इस पेशे को भ्रष्टाचार मुक्त बनाना और निजी चिकित्सा महाविद्यालयों के अनैतिक गठजोड़ को तोड़ना था. लेकिन, जब एनएमसी विधेयक का प्रारूप तैयार हुआ और उसका विशेषज्ञों ने मूल्याकंन किया तो आभास हुआ कि कालांतर में यह विधेयक कानूनी रूप ले लेता है तो इससे आधुनिक ऐलोपैथी चिकित्सा ध्वस्त हो जाएगी. इसकी खामियों को देखते हुए ही एमबीबीएस चिकित्सक इसके विरोध में खड़े हो गए. इस विधेयक की सबसे प्रमुख खामी है कि आयुर्वेद, होम्योपैथी और यूनानी चिकित्सक भी सरकारी स्तर पर एक छोटा कोर्स करके वैधानिक रूप से ऐलोपैथी चिकित्सा करने के हकदार हो जाएंगे. ऐसे में चार-छह माह की पढ़ाई करके कोई भी वैकल्पिक चिकित्सक ऐलोपैथी का डॉक्टर नहीं हो सकता?

एमबीबीएस और इससे जुड़े विषयों में पीजी में प्रवेश बहुत कठिन होता है. एमबीबीएस में कुल 67,218 सीटें हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन 1000 की आबादी पर एक डॉक्टर की मौजदूगी अनिवार्य मानता है, लेकिन हमारे यहाँ यह अनुपात 0.62.1000 है. 2015 में राज्यसभा में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने बताया था कि 14 लाख ऐलोपैथ चिकित्सकों की कमी है. अब यह कमी 20 लाख हो गई हैं. इसी तरह 40 लाख नर्सों की कमी है. इसके बावजूद एमबीबीएस शिक्षा के साथ कई तरह के खिलवाड़ हो रहे हैं. कायदे से उन्हीं छात्रों को मेडिकल कॉलेज में प्रवेश मिलना चाहिए जो सीटों की संख्या के अनुसार नीट परीक्षा से चयनित हुए हैं. लेकिन, आलम है कि जो छात्र दो लाख से ऊपर की रैंक में हैं, उन्हें भी धन के बूते प्रवेश मिल जाता है. यह स्थिति इसलिए बनी हुई है कि जो मेधावी छात्र निजी कॉलेज की फीस अदा करने में सक्षम नहीं हैं, वे मजबूरीवश अपनी सीट छोड़ देते हैं. बाद में इसी सीट को बेच दिया जाता है. 

इस सीट की कीमत 60 लाख से एक करोड़ तक होती है. मतलब यह कि जो छात्र एमबीबीएस में प्रवेश की पात्रता नहीं रखते हैं, वे अपने अभिभावकों की अनैतिक कमाई के बूते इस पवित्र और जिम्मेवार पेशे के पात्र बन जाते हैं. ऐसे में इनकी अपने दायित्व के प्रति कोई नैतिक प्रतिबद्धता कितनी होगी यह समझा जा सकता है. अपने बच्चों को हर हाल में मेडिकल और आईटी कॉलेजों में प्रवेश दिलाने की यह महत्त्वाकांक्षा रखने वाले अभिभावक यही तरीका अपनाते हैं. देश के सरकारी कॉलेजों का एक साल का शुल्क महज चार लाख है, जबकि निजी विश्वविद्यालय और महाविद्यालयों में यही शुल्क 64 लाख है. यही धांधली एनआरआई और अल्पसंख्यक कोटे के छात्रों के साथ बरती जा रही है. एमडी में प्रवेश के लिए निजी संस्थानों में जो प्रबंधन के अधिकार क्षेत्र और अनुदान आधारित सीटें हैं, उनमें प्रवेश शुल्क की राशि दो करोड़ से पांच करोड़ है. इसके बावजूद सामान्य प्रतिभाशाली छात्र के लिए एमबीबीएस परीक्षा कठिन बनी हुई है.

बता दें कि 10-20 साल पहले एक गरीब और आम परिवार भी अपने बच्चे को डॉक्टर बना देता था. क्योंकि उस वक्त एमबीबीएस की फीस महज 20-25 हजार रूपये थी. आज क्या है? आज एमबीबीएस की फीस ही तकरीबन 50-60 लाख हो गयी है. यही नहीं वर्तमान सरकार ने मडिकल कॉलेजों में नीट लागू कर दिया है. इससे क्या होगा? इससे यही होगा कि भले ही कोई भावी छात्र एमबीबीएस की परीक्षा पास कर लिया है और उसे एमबीबीएस की डिग्री भी मिल चुकी है, इसके बाद भी वह डॉक्टर नहीं बन सकता है. क्योंकि इतना करके बाद भी उसे नीट की परीक्षा देना होगा. अगर वह नीट एग्जाम में पास होगा, तक वह डॉक्टर बन सकता है अन्यथा नहीं. 

इसका मतलब साफ है कि देश के 85 प्रतिशत मूलनिवासी बहुजन समाज से निर्माण होने वाले डॉक्टरों को रोकने का षड्यंत्र मनुवादी सरकारों द्वारा किये गये हैं. डॉ.बाबासाहब अम्बेडकर का कथन था कि ‘‘जिस समाज में 10 डॉक्टर, 20 वकील और 30 इंजीनियर होंगे, उस समाज की तरफ कोई आँख भी उठाकर नहीं देख सकता है’’ इसलिए शासक जातियों ने मूलनिवासी बहुजन समाज में डॉक्टर, वकील और इंजीनियर निर्माण होने से रोका जा रहा है.