सोमवार, 3 जून 2019

भविष्य के साथ खिलवाड़

भविष्य के साथ खिलवाड़
राजकुमार (संपादक-दैनिक मूलनिवासी नायक)
देश में हर साल पचास हजार चिकित्सक महाविद्यालयों से डिग्री लेकर निकलते है. दुनिया की सबसे बड़ी चिकित्सा शिक्षा प्रणाली भी भारत में है. इसके बावजूद हमारे मेडिकल कॉलेजों में नए शोध नहीं हो रहे हैं. स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों की सीटें भी बड़ी संख्या में हर साल खाली रह जाती हैं. इन कमियों का खुलासा चिकित्सकों की महत्त्वपूर्ण संस्था एसोसिएशन ऑफ डिप्लोमैट नेशनल बोर्ड ने किया है. देश के कुल 576 चिकित्सा संस्थानों में से 332 ने एक भी शोध-पत्र प्रकाशित नहीं किया है. नए शोध अनुसंधान, नवाचार एवं अध्ययन-प्रशिक्षण का आधार होते हैं. यदि आधे से ज्यादा कॉलेजों में अनुसंधान नहीं हो रहे हैं, तो क्या इनसे पढ़कर निकलने वाले चिकित्सकों की योग्यता व क्षमता विश्वसनीय रह जाएगी? 


अब तक सरकारी चिकित्सा संस्थानों की शैक्षिक गुणवत्ता पर सवाल उठते रहे हैं, लेकिन ध्यान रहे कि लगभग साठ प्रतिशत मेडिकल कॉलेज निजी क्षेत्र में हैं. ये संस्थान छात्रों से भारी-भरकम शुल्क तो वसूलते ही हैं, कैपीटेशन फीस लेकर प्रबंधन के कोटे में छात्रों की सीधी भर्ती करते हैं. ऐसे में छात्रों को शोध का अवसर नहीं देना चिकित्सा शिक्षा और छात्र के भविष्य के साथ खिलवाड़ है. दूसरी तरफ चिकित्सकों को उपचार की विशेषज्ञता हासिल कराने वाले स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में सैकड़ों सीटें खाली रह जाती हैं. चिकित्सा से इतर विषयों के डिग्रीधारियों के लिए नौकरियों में कमी की बात तो समझ में आती है, कोई एमबीबीएस बेरोजगार हो, यह जानकारी नहीं मिलती! फिर क्या पीजी पाठ्यक्रमों में सीटें खाली रह जाना, निपुण छात्रों के अभाव का सूचक है या फिर छात्र स्वयं गंभीर पाठ्यक्रमों से दूर भाग रहे हैं? या फिर चिकित्सकों के सम्मान में जो कमी आई है और अस्पतालों में उन पर इलाज में लापरवाही का आरोप लगा कर जो हमले हो रहे हैं, उस भय की वजह से छात्र पीछे हट रहे हैं? अथवा भारतीय चिकित्सा परिषद के विधान में संशोधन कर वैकल्पिक चिकित्सा से जुड़े चिकित्सकों को एक सेतु-पाठ्यक्रम के जरिए ऐलोपैथी चिकित्सा करने की जो छूट दिए जाने की कवायद चल रही है, उसकी वजह से सीटें रिक्त रह जाती हैं?

2016 में राष्ट्रीय चिकित्सा परिषद बनाने का मकसद चिकित्सा शिक्षा के गिरते स्तर को सुधारना, इस पेशे को भ्रष्टाचार मुक्त बनाना और निजी चिकित्सा महाविद्यालयों के अनैतिक गठजोड़ को तोड़ना था. लेकिन, जब एनएमसी विधेयक का प्रारूप तैयार हुआ और उसका विशेषज्ञों ने मूल्याकंन किया तो आभास हुआ कि कालांतर में यह विधेयक कानूनी रूप ले लेता है तो इससे आधुनिक ऐलोपैथी चिकित्सा ध्वस्त हो जाएगी. इसकी खामियों को देखते हुए ही एमबीबीएस चिकित्सक इसके विरोध में खड़े हो गए. इस विधेयक की सबसे प्रमुख खामी है कि आयुर्वेद, होम्योपैथी और यूनानी चिकित्सक भी सरकारी स्तर पर एक छोटा कोर्स करके वैधानिक रूप से ऐलोपैथी चिकित्सा करने के हकदार हो जाएंगे. ऐसे में चार-छह माह की पढ़ाई करके कोई भी वैकल्पिक चिकित्सक ऐलोपैथी का डॉक्टर नहीं हो सकता?

एमबीबीएस और इससे जुड़े विषयों में पीजी में प्रवेश बहुत कठिन होता है. एमबीबीएस में कुल 67,218 सीटें हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन 1000 की आबादी पर एक डॉक्टर की मौजदूगी अनिवार्य मानता है, लेकिन हमारे यहाँ यह अनुपात 0.62.1000 है. 2015 में राज्यसभा में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने बताया था कि 14 लाख ऐलोपैथ चिकित्सकों की कमी है. अब यह कमी 20 लाख हो गई हैं. इसी तरह 40 लाख नर्सों की कमी है. इसके बावजूद एमबीबीएस शिक्षा के साथ कई तरह के खिलवाड़ हो रहे हैं. कायदे से उन्हीं छात्रों को मेडिकल कॉलेज में प्रवेश मिलना चाहिए जो सीटों की संख्या के अनुसार नीट परीक्षा से चयनित हुए हैं. लेकिन, आलम है कि जो छात्र दो लाख से ऊपर की रैंक में हैं, उन्हें भी धन के बूते प्रवेश मिल जाता है. यह स्थिति इसलिए बनी हुई है कि जो मेधावी छात्र निजी कॉलेज की फीस अदा करने में सक्षम नहीं हैं, वे मजबूरीवश अपनी सीट छोड़ देते हैं. बाद में इसी सीट को बेच दिया जाता है. 

इस सीट की कीमत 60 लाख से एक करोड़ तक होती है. मतलब यह कि जो छात्र एमबीबीएस में प्रवेश की पात्रता नहीं रखते हैं, वे अपने अभिभावकों की अनैतिक कमाई के बूते इस पवित्र और जिम्मेवार पेशे के पात्र बन जाते हैं. ऐसे में इनकी अपने दायित्व के प्रति कोई नैतिक प्रतिबद्धता कितनी होगी यह समझा जा सकता है. अपने बच्चों को हर हाल में मेडिकल और आईटी कॉलेजों में प्रवेश दिलाने की यह महत्त्वाकांक्षा रखने वाले अभिभावक यही तरीका अपनाते हैं. देश के सरकारी कॉलेजों का एक साल का शुल्क महज चार लाख है, जबकि निजी विश्वविद्यालय और महाविद्यालयों में यही शुल्क 64 लाख है. यही धांधली एनआरआई और अल्पसंख्यक कोटे के छात्रों के साथ बरती जा रही है. एमडी में प्रवेश के लिए निजी संस्थानों में जो प्रबंधन के अधिकार क्षेत्र और अनुदान आधारित सीटें हैं, उनमें प्रवेश शुल्क की राशि दो करोड़ से पांच करोड़ है. इसके बावजूद सामान्य प्रतिभाशाली छात्र के लिए एमबीबीएस परीक्षा कठिन बनी हुई है.

बता दें कि 10-20 साल पहले एक गरीब और आम परिवार भी अपने बच्चे को डॉक्टर बना देता था. क्योंकि उस वक्त एमबीबीएस की फीस महज 20-25 हजार रूपये थी. आज क्या है? आज एमबीबीएस की फीस ही तकरीबन 50-60 लाख हो गयी है. यही नहीं वर्तमान सरकार ने मडिकल कॉलेजों में नीट लागू कर दिया है. इससे क्या होगा? इससे यही होगा कि भले ही कोई भावी छात्र एमबीबीएस की परीक्षा पास कर लिया है और उसे एमबीबीएस की डिग्री भी मिल चुकी है, इसके बाद भी वह डॉक्टर नहीं बन सकता है. क्योंकि इतना करके बाद भी उसे नीट की परीक्षा देना होगा. अगर वह नीट एग्जाम में पास होगा, तक वह डॉक्टर बन सकता है अन्यथा नहीं. 

इसका मतलब साफ है कि देश के 85 प्रतिशत मूलनिवासी बहुजन समाज से निर्माण होने वाले डॉक्टरों को रोकने का षड्यंत्र मनुवादी सरकारों द्वारा किये गये हैं. डॉ.बाबासाहब अम्बेडकर का कथन था कि ‘‘जिस समाज में 10 डॉक्टर, 20 वकील और 30 इंजीनियर होंगे, उस समाज की तरफ कोई आँख भी उठाकर नहीं देख सकता है’’ इसलिए शासक जातियों ने मूलनिवासी बहुजन समाज में डॉक्टर, वकील और इंजीनियर निर्माण होने से रोका जा रहा है.

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