रविवार, 9 फ़रवरी 2020

इतिहास के पन्नों में नारायण मेघाजी लोखंडे


‘‘रविवार की छुट्टी पर मेरा नहीं समाज का हक है. इसलिए रविवार की छुट्टी के दिन समाज को जागृत करने चाहिए, समाज को बामसेफ द्वारा चलाये जा रहे आंदोलन के लिए तैयार करना चाहिए और इस आंदोलन के माध्यम से मूलनिवासी बहुजन संत महापुरूषों के सपनों को साकार करने के लिए संकल्प लेना चाहिए.’’
09 फरवरी 2020 को मूलनिवासी बहुजनों को ब्राह्मणों की गुलामी से मुक्त कराने के लिए विद्रोही आंदोलन चलाने वाले क्रांतिकारी संत ‘‘रविदास’’ की जयन्ती थी. हर साल की भांति इस साल भी संत रविदास की जयन्ती बड़े धूमधाम से मनाई गई. छुट्टी होने की वजह से लोगों ने रविदास जयंती में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. लेकिन, 09 फरवरी को एक और महापुरूष का स्मृति दिन था, जिन्हें बहुत कम लोग जानते हैं. संयोग की बात देखिए कि 09 फरवरी को ‘रविवार’ का दिन था. यह तो सभी लोग जानते होंगे कि हर रविवार को छुट्टी रहती है. परन्तु, यह बात बहुत कम लोग जानते होंगे कि रविवार की छुट्टी के जनक कौन हैं? रविवार की छुट्टी किस लिए लागू की गई? रविवार की छुट्टी के पीछे क्या मकसद है? बात आगे बढ़ने से पहले बता देना चाहता हूँ कि 09 फरवरी को जिस महापुरूष का स्मृति दिन था वही महापुरूष रविवार की छुट्टी के जनक हैं. उसी महापुरूष के अथक संघर्ष के बदौलत रविवार को छुट्टी घोषित हुआ, जिनका नाम है ‘‘नारायण मेघाजी लोखंडे’’

130 साल पहले 10 जून 1890 से रविवार की छुट्टी नारायण मेघाजी लोखंडे के अथक प्रयासों से शुरू हुई थी. नारायण मेघाजी लोखंडे का जन्म महाराष्ट्र के ठाणे जिले में 08 फरवरी 1848 को हुआ था, किन्तु इनका पैतृक गाँव सासवड जनपद पुणे था. वे राष्ट्रपिता महात्मा ज्योतिबा फुले के सत्यशोधक आन्दोलन के कर्मठ कार्यकर्ता थे. उन्हें रविवार की छुट्टी और भारत में श्रमिक आंदोलन का जनक कहा जाता है. भारत सरकार ने उनके सम्मान में 03 मई 2005 को 05 रुपये का एक डाक टिकट जारी किया था. अगर, इतिहास का बारिकीपूर्वक अध्ययन करें तो पता चलेगा कि ब्रिटिश शासन के दौरान मिल मजदूरों को सातों दिन काम करना पड़ता था और उन्हें कोई छुट्टी नहीं मिलती थी. उस समय मजदूरों का काफी शोषण होता था. ब्रिटिश अधिकारी प्रार्थना के लिए हर रविवार को चर्च जाया करते थे. लेकिन, मजदूरों के लिए ऐसी कोई परंपरा नहीं थी. ऐसे में जब मजदूरों ने भी रविवार की छुट्टी की मांग की तो उन्हें डरा-धमकाकर शांत करा दिया गया. उस समय मिल मजदूरों के नेता लोखंडे ने 1881 में अंग्रेजों के सामने साप्ताहिक छुट्टी का प्रस्ताव रखा और कहा कि हम लोग खुद के लिए और अपने परिवार के लिए सातों दिन काम करते हैं, अतः हमें एक दिन की छुट्टी अपने देश की सेवा करने के लिए मिलनी चाहिए और हमें अपने समाज के लिए कुछ विकास के कार्य करने चाहिए.

इसके साथ ही उन्होंने मजदूरों से कहा कि रविवार देवता ‘‘खंडोबा’’ का दिन है और इसलिए इस दिन को साप्ताहिक छुट्टी के रूप में घोषित किया जाना चाहिए. लेकिन, उनके इस प्रस्ताव को ब्रिटिश अधिकारियों ने अस्वीकार कर दिया. लोखंडे जी यहीं नहीं रुके, उन्होंने अवकाश की मांग को लेकर एक लंबी लड़ाई जारी रखी. आखिरकार 09 साल के लम्बे संघर्ष के बाद पहली बार 10 जून 1890 को ब्रिटिश सरकार ने रविवार को छुट्टी का दिन घोषित किया. हैरानी की बात यह है कि भारत सरकार ने कभी भी इसके बारे में कोई आदेश जारी नहीं किए हैं. इसके बाद दोपहर में आधा घंटा खाना खाने की छुट्टी और हर महीने की 15 तारीख को मासिक वेतन दिया जाने लगा. यही नहीं लोखंडे जी की वजह से मिलों में कार्य प्रारंभ के लिए प्रातः 6ः30 बजे का और कार्य समाप्ति के लिए सूर्यास्त का समय निर्धारित किया गया.

अधिकांश मूलनिवासी लोग रविवार की छुट्टी का दिन मौजमस्ती करने में बिता देते हैं. उन्हें लगता है, हम इस छुट्टी के हकदार हैं. परन्तु, क्या हमें यह बात पता है कि रविवार की छुट्टी हमें क्यों मिली या यह छुट्टी लोखंडेजी ने हमें क्यों दिलायी या इसके पीछे उस महान व्यक्ति का मकसद क्या था? लोखंडे जी का मानना था कि सप्ताह के सातों दिन हम अपने परिवार के लिए काम करते है, किन्तु जिस समाज की बदौलत हमें नौकरी मिली उस समाज की समस्या का समाधान करने के लिए हमें एक दिन की छुट्टी मिलनी चाहिए. इस भावना के साथ उन्होंने 09 वर्षों तक निरंतर आंदोलन किया तब जाकर हमें यह रविवार की छुट्टी मिली.

अनपढ़ लोगों को तो छोड़ो क्या पढ़े लिखे लोग भी इस बात को जानते हैं? यदि जानते हैं तो क्या समझते भी हैं? जहाँ तक हमारी जानकारी है, पढ़े लिखे लोग भी इस बात को नहीं जानते/समझते हैं.अगर जानकारी होती तो वे रविवार के दिन मौज मस्ती नहीं, बल्कि समाज का काम करते और अगर समाज का काम ईमानदारी से काम किया होता तो समाज में बेरोजगारी, बलात्कार, लाचारी आदि समस्यायें नहीं होती. रविवार की छुट्टी पर मेरा नहीं समाज का हक है. इसलिए रविवार की छुट्टी के दिन समाज को जागृत करने चाहिए, समाज को बामसेफ द्वारा चलाये जा रहे आंदोलन के लिए तैयार करना चाहिए और इस आंदोलन के माध्यम से मूलनिवासी बहुजन संत महापुरूषों के सपनों को साकार करने के लिए संकल्प लेना चाहिए.
राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)

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