शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2020

बहुजनों की माता रमाबाई अम्बेडकर

राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)
माता रमाबाई अम्बेडकर वह महिला थी, जिसके त्याग, समर्पण ने ‘भीमा’ को डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर बना दिया. ऐसे त्याग, समर्पण की प्रतिमूर्ति ‘‘माता रमाबाई अम्बेडकर’’ के 122वीं जयन्ती के अवसर पर देश के 85 प्रतिशत मूलनिवासी बहुजन समाज को दैनिक मूलनिवासी नायक परिवार की ओर से हार्दिक शुभेच्छाएं।

भारतीय संविधान के निर्माता और भारत के पहले कानून मंत्री, डॉ. बाबासाहब भीमराव अम्बेडकर ने अपने जीवन में हर कदम पर चुनौतियों का सामना किया. लेकिन, वे कभी नहीं रुके. उनके इस सफर में बहुत से लोगों ने उनका साथ दिया. कभी उनके स्कूल के शिक्षक ने उनसे प्रभावित होकर उनको अपना उपनाम दे दिया तो कभी शाहूजी महाराज ने उन्हें उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड भेज दिया था. लेकिन, इन सब लोगों के बीच एक और नाम था, जिनके जिक्र के बगैर डॉ.बाबासाहब अम्बेडकर की सफलता की कहानी अधूरी है. वह नाम है उनकी पत्नी रमाबाई आम्बेडकर.

माता रमाबाई अम्बेडकर का जन्म 7 फरवरी 1898 को एक गरीब परिवार में हुआ था. उनके पिता का नाम भिकु धुत्रे (वलंगकर) व माता का नाम रुक्मिणी था. माता रमाबाई अम्बेडकर अपने माता-पिता, दो बहनों व एक भाई के साथ दाभोल के पास वंणदगांव में नदी किनारे महारपुरा बस्ती में रहती थी. रमाबाई के माता-पिता का देहांत बचपन में ही हो गया था. रामी की दो बहनें और एक भाई था, जिसका नाम शंकर था. बचपन में ही माता-पिता की मृत्यु हो जाने के कारण रामी और उसके भाई-बहन अपने मामा और चाचा के साथ मुंबई में रहने लगे थे.
वर्ष 1906 में माता रमाबाई की उम्र महज 9 वर्ष थी. 9 वर्ष की उम्र में ही उनकी शादी बॉम्बे (अब मुंबई) के बायकुला मार्केट में 14 वर्षीय भीमराव से हो गई. माता रमाबाई को भीमराव प्यार से ‘रामू’ बुलाते थे और वो उन्हें ‘साहेब’ कहकर पुकारतीं थीं. शादी के तुरंत बाद से ही रमाबाई को समझ में आ गया था कि पिछड़े तबकों का उत्थान करना ही बाबासाहब के जीवन का लक्ष्य है और यह तभी संभव था, जब वे खुद इतने शिक्षित हों कि पूरे देश में शिक्षा की मशाल जला सकें. इसके लिए माता रमाबाई ने डॉ.बाबासाहब के इस संघर्ष में अपनी आखिरी सांस तक उनका साथ दिया. डॉ. बाबासाहब ने भी अपने जीवन में रमाबाई के योगदान को बहुत महत्वपूर्ण माना है.

इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि दिसंबर 1940 में डॉ.बाबासाहब अम्बेडकर ने ‘थॉट्स ऑफ पाकिस्तान“ पुस्तक लिखी और यह पुस्तक उन्होंने अपनी पत्नी ‘रमो’ को ही भेंट की.  डॉ.बाबासाहब अम्बेडकर ने अपनी किताब ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान’ को माता रमाबाई को समर्पित करते हुए लिखा कि ‘‘मैं यह पुस्तक रमो को उसके मन की सात्विकता, मानसिक सदवृत्ति, त्याग समर्पण की भावना, सदाचार की पवित्रता और मेरे साथ दुःख झेलने में, अभाव व परेशानी के दिनों में जबकि हमारा कोई सहायक न था सहनशीलता और सहमति दिखाने की प्रशंसा स्वरुप भेंट करता हूं“ उपरोक्त शब्दों से स्पष्ट है कि माता रमाबाई ने डॉ.बाबासाहब अम्बेडकर का किस प्रकार संकटों के दिनों में साथ दिया और बाबासाहब के दिल में उनके लिए कितना सत्कार और प्रेम था. बाबासाहब भी ऐसे ही महापुरुषों में से एक थे, जिन्हें रमाबाई जैसी बहुत ही नेक जीवन साथी मिली. सच में ‘‘उन्हें मामूली भीमा से डॉ.अम्बेडकर बनाने का श्रेय रमाबाई को ही जाता है’’ हर एक परिस्थिति में रमाबाई, बाबासाहब का साथ देती रहीं.

डॉ.बाबासाहब अम्बेडकर वर्षों अपनी शिक्षा के लिए बाहर रहे और इस समय में लोगों की बातें सुनते हुए भी रमाबाई ने घर को सम्भाले रखा. कभी वे घर-घरजाकर उपले बेचतीं, तो बहुत बार दूसरों के घरों में काम करती थीं. वे हर छोटा-बड़ा कामकर, आजीविका कमाती थीं और साथ ही बाबासाहब की शिक्षा का खर्च जुटाने में भी मदद करती रहीं. जबकि, उनके जीवन का हर क्षण मुसिबतों से ही भरा रहा. माता रमाई ने 5 संतानों को जन्म दिया था. जिसमें यशवंतराव जीवित रहे. बाकी गंगाधर, रमेश, इंदू नाम की लड़की और राज रत्न की मौत हो गई. जिस माँ के जीते जी पैसे और इलाज के अभाव में, उनके चार बच्चों की मौत हो जाय और कफन तक भी नसीब न हो उस समय उस माँ के दिल पर क्या गुजरा होगा? धन अभाव के कारण जब भोजन ही भरपेट नहीं मिलता था, तब ऐसे समय में दवा के लिए पैसे कहाँ से आते. इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि यशवंतराव के अलावा सभी बच्चे अकाल ही काल कलवित हो गए.

दूसरे पुत्र गंगाधर के निधन की दर्दभरी कहानी खुद डॉ. बाबासाहब अंबेडकर ने बताई थी जो इस प्रकार थी. दूसरा लड़का गंगाधर हुआ, जो देखने में बहुत सुंदर था. वह अचानक बीमार हो गया, जबकि दवा के लिए पैसा नही था. उसकी बीमारी से तो एक बार मेरा मन भी डावांडोल हो गया कि मैं सरकारी नौकरी लूं, फिर मुझे विचार आया कि अगर मैंने नौकरी कर ली तो उन करोड़ो बच्चें का क्या होगा जो गंगाधर से ज्यादा बीमार हैं. ठीक प्रकार से इलाज ना होने के कारण वह नन्हा सा बच्चा ढाई साल की आयु में चल बसा. गम में शामिल हुए लोगों ने मृत बच्चे के शरीर को ढकने के लिए नया कपड़ा लाने के लिए पैसे मांगे, लेकिन मेरे पास इतने पैसे नहीं थे कि मैं कफन खरीद सकूँ. अंत में मेरी प्यारी पत्नी ‘रामू’ ने अपनी साड़ी में से एक टुकड़ा फाड़कर दिया. उसी में ढंककर उसे श्मशान पर लोग लेकर गए हैं और दफना आये. ऐसी थी मेरी आर्थिक स्थिति.

पांचवा बच्चा राज रत्न बहुत प्यारा था. रमाई ने उसकी देखरेख में कोई कमी नहीं आने दी. अचानक जुलाई 1926 में उसे डबल निमोनिया हो गया. काफी इलाज करने पर भी 19 जुलाई 1926 को दोनों को बिलखते छोड़ वह भी चल बसा. माता रमाबाई के जीते जी उनके चार बच्चों की मौत से बहुत सदमा पहुंचा और वह बीमार रहने लगी. धीरे-धीरे पुत्र शोक कम हुआ तब तक डॉ. बाबासाहब अंबेडकर महाड सत्याग्रह में जुट गये. महाड में विरोधियों ने षडयंत्र कर डॉ.बाबासाहब अम्बेडकर को मार डालने की योजना बनाई. यह सुनकर माता रमाई ने महाड़ सत्याग्रह में अपने पति के साथ रहने की अभिलाषा व्यक्त की. इस तरह से 29 साल तक माता रमाबाई ने असहनीय दर्द सहते हुए भी डॉ.बाबासाहब का साथ दिया. 29 साल बाद 27 मई 1935 को उन पर शोक और दुःख का पर्वत ही टूट पड़ा. उस दिन नृशंस मृत्यु ने उनसे उनकी पत्नी रमाबाई को छीन लिया. उस समय डॉ.बाबासाहब के पूरे जीवन में उतना दुःख नहीं हुआ, जितना माता रमाबाई के मृत्यु को लेकर हुआ था.

क्या यह बात किसी को पता है कि एक ऐसी नारी के त्याग समर्पण और समाज के प्रति निष्ठा की बदौलत मूलनिवासी बहुजन समाज और सर्व समाज की नारी शक्ति को भारत वर्ष में न केवल सम्मान मिला, बल्कि सम्मान से जीने का हर मानवीय अधिकार भी मिला. वो कोई और नहीं, परमपूज्यनीय त्याग, भावना की मूर्ति माता रमाई अंबेडकर थी. परमपूज्य बोधिसत्व बाबासाहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर जी को विश्वविख्यात महापुरुष बनाने में रमाई का ही साथ था. आज सभी महिलाओं को (चाहे वे किसी भी धर्म या जाति समुदाय से हो) को माता रमाबाई अंबेडकर पर गर्व होना चाहिए कि किन परिस्थितियों में उन्होंने डॉ.बाबासाहब अम्बेडकर का मनोबल बढ़ाये रखा और उनके हर फैसले में उनका साथ देती रहीं. यही नहीं जब पता चलता है कि उन्होंने खुद अपना जीवन घोर कष्ट में बिताया और बाबासाहब की मदद करती रहीं. सोचो उन पर क्या गुजरा होगा? 

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