विद्रोही ‘संत रविदास’ जी की 622वें जयन्ती पर हार्दिक शुभेच्छाएं
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संत रविदास का लम्बा काव्य है ‘‘भक्ति भरम है सो जान’’ यह दोहा अवधी भाषा में है. इसमें भक्ति को भ्रम कहा गया है. प्रोफेसर अहिरवार बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी साहित्य के प्रोफेसर हैं. रविदास के साहित्य के ऊपर अलग-अलग प्रकार का जो रिचर्स साहित्य लिखा गया है, इन रिसर्च साहित्यों का सम्पादन किया गया है. जब इन रिसर्च साहित्यों का संपादन किया गया तो सम्पादन के बाद एक लम्बा काव्य बना, जिसका शिर्षक है ‘‘भक्ति भरम है सो जान’’ शुद्ध हिन्दी में भ्रम कहते है, मगर अवधी में भरम कहते हैं. संत रविदास जी के समय में लोग भक्ति करते थे, तो भक्ति कई प्रकार से करते थे और जितने प्रकार से लोग भक्ति करते थे, वो सारे प्रकार रविदास जी ने उस काव्य में रिकॉर्ड करके रखा है.
जब मैं पहली बार उसको पढ़ा तो मालूम पड़ा कि भक्ति कितने प्रकार के होते हैं, नहीं तो मुझे भी मालूम नहीं था. संत रविदास जी 100 प्रकार से भी ज्यादा भक्ति की गिनतियाँ की है कि कैसे-कैसे लोग भक्ति करते थे? जैसे उस काव्य में एक जगह लिखा हुआ है कि एक पेड़ है और पेड़ में से लताएं निकली हुई हैं, उस लता से भक्ति करने वाले व्यक्ति ने अपने पैरों को बांधा और पेड़ से उल्टा लटक गया. जैसे सर नीचे और पैर ऊपर करके लटक गया, तो उससे पूछा कि क्या चल रहा है? तो उसने कहा कि भक्ति चल रहा है. इस तरह से सौ से ज्यादा प्रकार हैं.
अगर आप पढ़ोगे तो पता चलता है कि कितने प्रकार से लोग उस समय भक्ति करते थें. कुछ लोग तो सीधा खड़ा होकर एक पैर को अपने दूसरे पैर के ठेहुने पर चढ़ाकर और दोनों हाथ जोड़कर भक्ति करते थे. बहुत सारे प्रकार से लोग भक्ति करते थे. एक भक्ति तो ऐसा है किएक भक्त नदी के पानी में डूबकी मारकर बैठा हुआ है, ये भी एक प्रकार की भक्ति है. ये भी उस किताब में लिखा हुआ है.
रविदास जी ने इन भक्ति के प्रकारों के नाम लेकर उस काव्य में लिखा कि ये सारे भक्ति भरम हैं. यह वाक्य रविदास जी लोगों को कहते थे. जब वे प्रवचन करते थें और लोगों को जागरण करते थे, तब उसमें वे ये बाते कहते थे कि ‘‘भक्ति भरम है सो जान’’ अर्थात भक्ति भरम है, इसे तुम जान लो. इसका मतलब है कि भक्ति भरम है, अगर आप जान लोगे तो आप ऐसा काम कभी करोगे ही नहीं, ये उसका अर्थ है. रविदास जी ने उस काव्य में बहुत लम्बी लिस्ट बनाकर लिखी हुई है कि भक्ति करने के जो ये सारे तरीके लिखे हुए हैं, ये सारे के सारे तरीके भरम हैं. इसमें सच्चाई और वास्तविकता नहीं है. इसका मतलब है कि रविदास जी भक्ति के विरोध में थे.
दूसरी बात कि रविदास जी चमार जाति के थे, तो कुछ चमार जाति के लोगों ने रविदास जी की मूर्ति बनाई और उनके नाम पर मन्दिर बनाया. मैंने दो चार जगह पूछा कि रविदास जी मन्दिर में जाते थे क्या? तो उन्होंने कह कि कभी इस तरह का सवाल ही नहीं पूछा गया था. रविदास जी अछूत थे और जिन मन्दिरों पर ब्राह्मणों का कब्जा था, ब्राह्मण अछूतों को मन्दिरों में आने ही नहीं देते थे. एक रहस्य यह है कि अगर मन्दिरों का ऐतिहासिक पार्श्वभूमि अगर देखा जाए कि मन्दिर कबसे बनाना शुरू हुआ? जब बृहद्रथ की हत्या ब्राह्मणों ने कि और बौद्ध भिक्षुओं का सामुहिक कत्लेआत किया गया तो वे जो बड़े-बड़े विहार और महाविहार थे. वे सारे विहार और महाविहार खाली हो गए. उस महाविहारों में ब्राह्मण घुस गए और उसमें घुसने के बाद, विहार को अगर विहार ही रखते तो लोगों को मालूम होता कि ये बुद्ध की विहार है, इसलिए ब्राह्मणों ने उन विहारों को मन्दिर नाम दिया.
भारत के प्राचीन इतिहास में बृहद्रथ के हत्या के पहले मन्दिर शब्द उपलब्ध ही नहीं है. बृहद्रथ की हत्या करने के बाद में मन्दिर शब्द शुरू होता है और मन्दिर का निर्माण नहीं किया गया था, बल्कि उस समय जो विहार और महाविहार थे, उन्हीं का मन्दिर नामकरण करके, उस पर ब्राह्मणों ने कब्जा किया. जो बौद्धिस्ट थे, उनके खिलाफ में ब्राह्मणों ने घृणा अभियान चलाया, जैसा आज के तारीख में ब्राह्मण मुसलमानों के विरोध में चला रहे हैं. बौद्धिस्टों के विरोध में ब्राह्मणों ने जो घृणा अभियान चलाया नतीता यह हुआ कि सारे बुद्धिस्ट लोगों के नजरों में अछूत हो गए. जैसे आज किसी दाढ़ी और टोपी वाले मुसलमान को अगर कोई गैर मुसलमान देखता है तो उसकी भृकुटी तन जाती है. ब्राह्मणों द्वारा मुसलमानों के खिलाफ जो घृणा फैलाई गई है, उसके चेहरे पर उसका भाव प्रतिबिम्बित होता है. इस बात को समझना होगा. फिर क्या हुआ? जो ब्राह्मणों के समर्थक लोग थे, उनके मन में बौद्धिस्ट लोगों के प्रति घृणा भाव पैदा हुआ और जब घृणा भाव पैदा हुआ तो जो बौद्धिस्ट थे, उनके साथ अछूतों के जैसा व्यवहार शुरू कर दिया गया और उनका सामुहिक रूप से बहिस्कार किया गया. ठीक वहीं चीज आज हो रहा है.
अब सवाल है कि रविदास जी अछूत थे और अछूतों की परछाई छू जाने से जब ब्राह्मण अपवित्र हो जाते थे तो क्या एक अछूत को अपने बनाए मंदिरों में जाने देते थे? जबकि एक सच्चाई यह भी है कि आज भी अनुसूचित जाति के लोगों को मंदिरों में प्रवेश वर्जित है. दूसरा सवाल, अगर रविदास जी ब्राह्मणों द्वारा बनाए गये भगवान के भक्त थे, भक्ति करते थे तो इस तरह से वे ब्राह्मणवाद को और ज्यादा मजबूत बना रहे. अगर, रविदास जी ब्राह्मणवाद को मतबूत बना रहे थे तो ब्राह्मणों ने रविदास की हत्या क्यों की? इससे अपने आप ही साबित हो जाता है कि संत रविदास किसी भी भगवान, देवी-देवता के भक्त नहीं थे. संत रविदास जी किसी की भक्ति नहीं करते थे, बल्कि वे ब्राह्मणों की गुलामी से मूलनिवासी बहुजनों को मुक्त कराने के लिए मुक्ति का आंदोलन चला रहे थे. संत रविदास ब्राह्मणवाद के घोर विरोधी थे और ब्राह्मण के खिलाफ आंदोलन चला रहा थे. संत रविदास ने अपने आंदोलन से ब्राह्मणवाद की नींव हिला दी थी. इस बात का अांदाजा उनकी वाणी से लगाया जा सकता है.
रैदास न ब्राह्मण पूजिए, जऊ होवे गुणहीन।
पूजे चरण चंडाल के, जऊ होवे गुण परवीन।।
जात-पांत में जात है, जो केलन की पात।
रविदास न मानुष जुड सकै, जो लौ जात न जात।।
रैदास जन्म के कारनै, होत न कोऊ नीच।
नर कूं नीच करि डारी है, ओछे करम की कीच।।
संत रैदास द्वारा यह पद सुनाने के बाद उनकी हत्या हुई थी.
जीवन चारि दिवस का मेला रे।
बांभन झूठा, वेद भी झूठा, झूठा ब्रह्म अकेला रे।
मंदिर भीतर मूरति बैठी, पूजति बाहर चेला रे।।
लड्डू भोग चढावति जनता, मूरति के ढोंग केला रे।
पत्थर मूरति कछु न खाती, खाते बांभन चेला रे।।
जनता लूटति बांभन सारे, प्रभु जी देति न धेला रे।
पुन्य पाप या पुनर्जन्म का, बांभन दीन्हा खेला रे।।
स्वर्ग नरक बैकुंठ पधारो, गुरु शिष्य या चेला रे।
जितना दान देव गे जैसा, वैसा निकरै तेला रे।।
बांभन जाति सभी बहकावे, जन्ह तंह मचै बवेला रे।
छोड़ि के बांभन आ संग मेरे, कह विद्रोहि अकेला रे।।
यही कारण रहा कि ब्राह्मणों ने संत रविदास की हत्या की.
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