मंगलवार, 31 मार्च 2020

जिंदगी का लॉकडाउन, भारत की रूह कंपा देने वाली तस्वीरें

लॉकडाउन से पूरे देश में हाहाकार, भारत के मूलनिवासी बहुजन समाज के लोगों का ये हाल कर दिया है, जानवर से भी बदतर जिंदगी बनाकर छोड़ दिया है.

आज पूरे देश में लॉकडाउन से हाहाकार मच गया है. इस लॉकडाउन ने तो जिंगदी का ही लॉकडाउन कर दिया है. देश में कोरोना का कहर है तो सड़कों पर गांवों का शहर बन गया है. एक भी मुख्य सड़क बची नहीं है जहां पर गांव जाने वाले गरीबों का रेला नहीं लगा है. हर सड़क पर गरीबी और लाचारी ही बिखरी पड़ी है. देश को लॉकडाउन करने से पहले गरीबों को गांवों तक पहुंचा दिया गया होता या फिर उनमें भरोसा जगा दिया गया होता कि आप जहां हैं, वही रहें, सरकार किसी को भूखा नहीं सोने देगी. तो क्या तब हालात अलग होते? लेकिन ऐसा नहीं किया गया. हां सरकार ने ऐलान तो बड़े पैकेज का किया लेकिन तब तक देर हो चुकी थी और उसका असर नाकाफी रहा. 
अब पूरे देश में लॉकडाउन होने के कारण सैकड़ों प्रवासी पैदल ही अपने घरों की ओर लौटने को मजबूर हैं. इन लौटने वालों में भारत के मस्तक से गुजरती तकलीफ और वेदना की लकीरें दिखती हैं. भूख और गरीबी की अटूट जंजीरें, बिलखते बच्चे, तड़पती माताएं और छटपटाते पिता इस भीड़ का हिस्सा हैं. यह इसलिए है क्योंकि ना हम और ना हमारा शासन-प्रशासन ये सब देखने के लिए तैयार है. जिन्होंने गरीबों के लिए नीतियां बनाई, उनकी कल्पना से परे कहीं ज्यादा गरीबी हमारे भारत की माटी में गड़ी हुई थी. कोरोना की बीमारी तो हवाई जहाज के रास्ते रईस ले आए, लेकिन अब चलते-चलते गरीबों के हवाई चप्पल घिस रही हैं.
बता दें कि आज देश की जनता का जो ये हाल किया जा रहा है इसका मूलकारण भारत का शासक विदेशी अर्थात ब्राह्मण है. देश की सत्ता पर ब्राह्मणा का कब्जा है. अगर देश का शासक भारत का मूलनिवासी होता, देश की सत्ता पर मूलनिवासी बहुजनां का कब्जा होता है तो आज ऐसा दिन नहीं देखने को मिलता. देश की सत्ता पर ब्राह्मणों का पूर्ण रूप से कब्जा होने के नाते शासक जातियों के लोग भारत के मूलनिवासियों पर जुल्म ढा रहे हैं. परन्तु, अब यही मौका है कि जनता को इन घटनाओं से सबक ले लेनी चाहिए और इन विदेशियों के खिलाफ आंदोलन शुरू कर देना चाहिए. अगर आज का यह दर्द जनता भूल गई आने वाले समय में इससे ज्यादा दर्द झेलना होगा. समय है लॉकडाउन के दौरान घर में रहकर मूलनिवासी बहुजनों को आंदोलन के लिए तैयार करें.

73 साल बाद भी वहीं तस्वीर...

ये तस्वीरें चीख-चीखकर गवाही दे रही है कि सड़कों पर लगी गरीबों, मजदूरां की कतारें सामाजिक और आर्थिक विभाजन का मार्मिक आभास कराती हैं और बताती हैं कि जैसे तस्वीरें भारत ने 1947 में विभाजन के वक्त देखी थी, उसमें और आज के कोरोना काल में तनिक भी अंतर रह नहीं गया है. अंतर केवल यही है कि उस वक्त यही तस्वीरें ब्लैक एंड वाइट देखी गयी थी आज कलर में देखी जा रही है. देश की सड़कों पर खींची जा चुकी मुफलिसी की तमाम लकीरें ये बताती हैं कि खूबसूरत और चमकते-धमकते शहरों के अंदर कितना अंधेरा है. शायद इसीलिए ये लोग जिनका शरीर भी ठीक से साथ नहीं दे रहा, इनको अब अपने गांव की झोपड़ी के अंधकार में ही जिदंगी का आफताब नजर आने लगा है.

जिंदगी जीने के लिए आये शहर, जिंदगी बचाने के लिए जा रहे गांव...
मजदूरों को कोरोना वायरस से ज्यादा भूख का डर है. जिंदगी जीने के लिए शहरों में आये थे, लेकिन अब उनका जीना मुश्किल हो गया. इसलिए वे अपनी जिंदगी बचाने के लिए गांव जा रहे हैं. लॉकडाउन में कोई साधन नहीं है, इसलिए वे अपनी जान बचाने के लिए जान को दांव पर लगाकर सैकड़ों किमी पैदल ही अपने गांव के लिए निकल पड़े हैं. आनंद विहार में बसों की सूचना मिली तो शनिवार को सुबह से ही लोनी रोड, गोल चक्कर के पास से लोगों के काफिले निकलते नजर आए. घर जाने लिए निकले इन लोगों में इटावा, लखनऊ, मैनपुरी, हरदोई, आजमगढ़ जैसे क्षेत्रों के लोग है. जो परिवहन निगम की बस नहीं मिलने की स्थिति में पैदल ही 300-400 किलोमीटर के सफर पर निकले थे.

माँ अभी और कितना चलना है....?

अब तक शहरों में भूखे बच्चे आसमान ओढ़कर सोते थे, मां पत्थरों को तोड़कर रोटी कमाती थी और उसी से इन मासूमों को कभी एक वक्त तो कभी दो वक्त की रोटी मिलती थी. लेकिन लॉकडाउन ने जब उस रोटी पर भी कर्फ्यू लगा दिया है तो ये शहरों में रहकर क्या करें, जिएं तो जिएं कैसे. हर किसी का कलेजा फट जाता है जब इस विभत्स तस्वीरों को देखता है. एक मां के सिर से लेकर कंधे और पीट पर बोझ है, आखों में आंसूं के अलावा कुछ भी नहीं है. हाथ में रोती विलखती दो साल के मासूम बच्ची का हाथ और पीछे लंगड़ाती हुई चल रही चार साल की बेटी है. माँ अपने बच्चों के हसहनीय दर्द को पी-पीकर आगे बढ़ रही है, माँ तो ये भी भूल गई है कि दिल्ली से कानपुर की दूरी 470 किमी है.

अब और नहीं चला जाता माँ...

ऐसी ही विचलित कर देने वाली एक और विभत्स तस्वीर गोरखपुर से आई है. यूपी के बस्ती जिले में रहकर पेट पालने वाली एक बेघर माँ अपने छोटे बच्चे के साथ देवरिया पैदल ही निकल पड़ी. जब पूरा शहर अपने घरों में रहने को मजबूर है तो ये माँ-बेटे सड़कें नाप रहे थे. जबकि, बस्ती से गोरखपुर 80 किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद बच्चा बीच सड़क पर अपनी माँ का पैर पकड़ कर बैठ गया. मानों बच्च अपनी माँ से कह रहा हो ‘बस माँ अब, मैं थक गया हूं और नहीं चल सकता.

सफर में छूट गया जीवनसाथी का साथ...

लॉकडाउन के चलते मोपेड पर पत्नी व दो बच्चों के साथ दिल्ली से सिद्धार्थनगर के लिए निकले युवक की अचानक तबीयत बिगड़ी और बाद में मौत हो गई. 32 वर्षीय युवक दिल्ली की नवीन विहार कॉलोनी में अपनी पत्नी व दो बच्चों के साथ किराए के मकान में रहता था, जहां वह बिस्कुट व कुरकुरे सामान की सेल्समैनी करके अपने परिवार का भरण पोषण कर रहा था. लॉकडाउन के बाद काम बंद होने से आय का साधन समाप्त हुआ तो युवक शुक्रवार की देर रात्रि पत्नी व दो बच्चों को मोपेड पर बिठाकर घर के लिए चल दिया. सुबह 10 बजे के लगभग वह सिकंदराराऊ (अलीगढ़) जीटी रोड पर नगर पालिका के समीप पहुंचा तभी उसकी तबीयत बिगड़ गई. मोपेड रोकते ही वह जमीन पर गिर पड़ा. उसके साथ दूसरी मोपेड पर सवार भाई ने उपचार के लिए एंबुलेंस को फोन लगाया. लेकिन, एंबुलेंस की मदद एक घंटे तक नहीं मिली और विनोद ने दम तोड़ दिया.

4 साल के बेटे की लाश गोद मे लेकर पैदल जा रही महिला...

देश में जितना कोरोनावायरस का डर नहीं उससे कहीं ज्यादा लॉकडाउन का खौफ है. लॉकडाउन ने देश के 83 करोड़ गरीबों को भुखमरी की कगार पर खड़ा कर दिया है. अब तो नौबत उनके मरने की आ रही और कुछ मर भी रहे हैं. इस बीच एक और तस्वीर आई जिसे असम का बताया जा रहा है. इसमें दिखाया गया है कि एक माँ अपने 4 साल के बच्चे की लाश को लेकर पैदल अपने घर जा रही है. बताया जा रहा है कि लॉकडाउन में कोई साधन नहीं मिल रहा है. उस माँ पर क्या गुजरी होगी जो अपने बच्चे की लाश को लेकर कई मीलों तक पैदल चली होगी.

घरों में रामायण और सड़कों पर भूख से महाभारत
एक तफ जहां देश की सड़कों पर भूख की महाभारत नजर आ रही है तो वहीं देश के नेता घरों में बैठकर टीवी पर रामायण देख रहे हैं. सरकार शायद देखने में देर कर चुकी है तो सवाल यही कि क्या सरकार इस स्थिति से बेखबर थी. क्या सरकार और उसके अधिकारियों को ये नहीं पता था कि देश में 83 करोड़ लोग गरीबी के चलते भुखमरी के शिकार हैं? क्या सरकार यह नहीं जानती थी कि  देश में हर रोज 20 करोड़ लोग भूखे पेट सोते हैं? सरकार ने क्यों नहीं पहले ही सोच लिया कि भूखे लोगों को रोटी नहीं मिलेगी और हाल यही होगा. अब सरकारें किराया माफ करवाएं या फिर बसें चलवाएं, फर्क क्या पड़ता है. अब तो राहत के सारे ऐलान भी बेमानी से लगते हैं क्योंकि हर तरफ अफरा तफरी का माहौल है. दिल्ली बॉर्डर से बस चलने की सूचना क्या मिली, पूरी की पूरी सड़क पट गई. तिल रखने तक की जगह नहीं बची है. जब ये पता है कि कोरोना छूने से फैलता है, तब इससे खतरनाक और क्या हो सकता है.

बस अड्डों पर मजदूरों का हुजूम

बगैर तैयारी लॉकडाउन करके मोदी सरकार ने मजबूर और गरीबों का नरसंहार करने का खाका खींच दी है. पूरे देश में लॉकडाउन होने के बाद दिल्ली-एनसीआर से बिहार, यूपी और झारखंड के मजदूर, कामगार घर जाने का बैचेन हैं. लेकिन उनको इस संकट के दौर में भी कोई साधन नहीं मिल रहा है. दिल्ली का आनंद विहार बस अड्डा, गाजियाबाद बस अड्डा और कौशांबी इस वक्त अपने-अपने घर जाने वाले मजदूरों के हुजूम से अटे पड़े हैं. इतनी बड़ी भीड़ की वजह से यहां संक्रमण का खतरा पैदा हो गया है. इकसे लिए जिम्मेदार कौन होगा? जबकि, सरकार को पहले ही इन गरीबों और मजदूरों के लिए तैयारी करनी चाहिए थी. लेकिन, सरकार ने नहीं किया, उनको उनकी हालत पर ही छोड़ दिया.


भूख से बचें या कोराना से...?
बिना तैयारी ही लॉकडाउन करके मोदी सरकार ने गरीब, मजदूरों को हजारों किलोमीटर पैदल चलने के लिए मजबूर कर दिया है. लॉकडाउन में कामकाज बंद, कंपनियां बंद हो चुकी है. ऐसे में लोगों के पास कुछ भी खाने के लिए नहीं बचा है. ऐसे लाखों लोग दिल्ली, गुजरात, महाराष्ट्र, बिहार आदि शहरों से कई दिन से खायेपीये बगैर ही अपने घरों के लिए पैदल रवाना हो गये हैं. पैदल चल रहे लोगां में असंख्य बच्चे हैं, बूढ़े हैं, गर्भवती महिलाएं हैं, बीमार लोग हैं, गोद में छोटे से बच्चे को लेकर पैदल चल रही माएं हैं, भीख मांग कर पेट भरने वाले हैं, फुटपाथ पर सोकर मजूरी करने वाले हैं. उनके पास रहने को घर नहीं हैं. रैन बसेरे में जगह नहीं है. उनके पास खाने को नहीं है. पुलिस सड़कों पर नहीं रहने दे रही है, लोग घरों में जगह नहीं दे रहे हैं. ऐसे में वे कहां, कैसे रहेंगे. क्या मध्यवर्ग भी कभी ऐसी यात्रा किया है 1000 किलोमीटर पैदल बिना खाए पिए चलता रहे?

लॉकडाउन में फंसे गरीबों, मजदूरों की दुर्दशामहामारी से ज्यादा लॉकडाउन का खौफ

बगैर खाये पीये ही हजारों किमी पैदल निकल पड़े अपने-अपने गांव


हम तेरे शहर में आये थे, मुसाफिर...आज इस गीत को लॉकडाउन ने सच में चरितार्थ कर दिया है. देश में जितना ज्यादा कोरोना वायरस का खौफ नहीं है उससे कहीं ज्यादा खौफ 21 दिन के अचानक लॉकडाउन का है. इस 21 दिन के अचानक लॉकडाउन के खौफ की गवाही सुनी सड़कें और ये जगह-जगह की तस्वीरें दे रही हैं कि गरीबों और मजदूरों को जितना ज्यादा वायरस का खौफ नहीं है उससे कहीं ज्यादा खौफ लॉकडाउन का है. 

बता दें कि सड़कों पर सन्नाटा पसरा है, लेकिन कुछ मजबूर कदम सामान लादे एक लंबे सफर पर निकल चुके हैं. यह सफर कितने दिनों में पूरा होगा, यह उन्हें भी नहीं पता है. लेकिन, शहर में रोटी के लिए जूझते इन मजदूरों ने लॉकडाउन में भी अपने घर जाने का फैसला कर लिया है. सफर लंबा है, कोई दिल्ली से अलीगढ़ जा रहा है, तो कोई बिहार या फिर झारखंड, वो भी पैदल. उनके इरादे मजबूत हैं. साथ बच्चे और महिलाएं भी हैं. सब इस उम्मीद में शहर से निकल रहे हैं कि अपने गांव जाकर कम से कम भूखे नहीं मरेंगे.
इस 21 दिन के लॉकडाउन का खौफ सबसे ज्यादा उन लोगों को है जो अपना शहर छोड़कर दूसरे शहरों में रोजी रोटी के लिए गये थे. वो आज 21 दिन के इस लॉकडाउन में बुरी तरह से फंसे हुए हैं. कंपनियों के बंद हो जाने से उनके ऊपर आर्थिक संकट आ गया है, जिससे भूखों मरने की नौबत आ गई है. ऐसे में अगर वे अपने घर लौट जाते हैं तो कम से कम भूख से नहीं मरेंगे. लेकिन, इस लॉकडाउन ने उनको कहीं का नहीं छोड़ा है. आवागमन पूरी तरह से ठप है, ऐसे में दूसरे शहरों में काम करने वाले गरीब, मजदूर अपने छोटे-छोटे बच्चों सहित पूरे परिवार के साथ पैदल ही अपने घरों के लिए निकल पड़े हैं.

बुधवार, 25 मार्च 2020

देश में कोरोना वायरस के मामले बढ़ते रहे और सरकार स्वास्थ्य सुरक्षा उपकरणों का निर्यात करती रही


भारत सरकार के पास मास्क, दास्ताने से लेकर कोई सुरक्षा उपकरण नहीं
हॉस्पिटल कर्मचारी सेफ्टी किट के अभाव में डस्टबिन में यूज होने वाली पॉलीथिन पहनकर इस भयंकर महामारी से जूझ रहे हैं.

कोरोना वायरस जैसी महामारी से न केवल भारत, बल्कि पूरी दुनिया खतरे में पड़ गई है. लेकिन चौंका देने वाली खबर है कि भारत में इस भयंकर महामारी से जनता और उनको बचाने वाले डाक्टर दोनां की जान के साथ मोदी सरकार खिलवाड़ कर रही है. जिससे मरीज और डाक्टर दोनां को खतरा पैदा हो गया है. क्योंकि, सरकार इस महामारी के विषय में पहले से ही जानते हुए भी भारत में निर्माण होने वाले बॉडी कवर कीट (पीपीई) सर्जिकल मास्क, डिस्पोजेबल मास्क, एनबीआर के अलावा सभी तरह के दस्ताने, सर्जिकल ब्लेड्स, शू-कवर, गैस मास्क, प्लास्टिक तारपोलीन, सांस लेने वाले मेडिकल सुरक्षा उपकरणों को अन्य देशों को ज्यारा पैसों में बेचती रही. जबकि, देशभर के डॉक्टर अपनी सुरक्षा के लिए बेहद जरूरी इन बुनियादी चीजों को लेकर चिन्तित हैं. उनके होश उड़े हैं कि वे कैसे संक्रमित मरीजों के पास जायेंगे. वैसे ही पहले से देश में डॉक्टर, नर्स की संख्या बेहद कम हैं. हाली में जारी स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, देश में 84,000 भारतीयों पर एक आइसोलेशन बिस्तर है और 36,000 भारतीयों पर एक क्वारंटीन बिस्तर है. कोरोना के बढ़ते कोहराम के बीच जो आंकड़ा जुटाया गया उसके मुताबिक 11,600 भारतीयों पर एक डॉक्टर और 1,826 भारतीयों पर अस्पताल में एक बिस्तर है. वहीं नेशनल हेल्थ प्रॉफिट 2019 के मुताबिक देश में अभी 11,54,686 रजिस्टर एलोपैथिक डॉक्टर हैं और 7,39,024 सरकारी अस्पतालों में बिस्तर है. इस पूरी रिपोर्ट में एक बात जो ज्यादा ध्यान आकर्षित करती है कि कोरोना से लड़ने के लिए प्रशासन की ओर से कोई तैयारी नहीं जिससे सवंमित मरीजों का सही से इलाज हो सके.

दूसरी सबसे बड़ी बात है आज हमारे डॉक्टरों के पास मास्क से लेकर बॉडी कवर कीट तक नहीं है. हमारे डॉक्टर डस्टबीन में डालने वाले बड़े प्लास्टिक को बॉडी कवर बनाकर पहनने को मजबूर हैं. लानत है ऐसी सरकार पर जो जनता और डॉक्टर दोनों के जान के साथ खिलवाड़ कर रही है. और जनता को भी सरकार से सवाल पूछना चाहिए भारत में इस वक्त कितने बॉडी कवर कीट (पीपीई) उपलब्ध हैं? क्या आपको पता है कि भारत को हर दिन पांच लाख पीपीई की जरूरत है? एक कारवां नामक पत्रिका में दावा किया गया है कि सरकार ने इसके लिए सरकारी कंपनी एचएलएल को मई 2020 तक साढ़े सात लाख पीपीई, 60 लाख एन-95 मास्क और एक करोड़ तीन लाख थ्री प्लाई मास्क का निर्माण करने का आर्डर कर दिया था. सवाल यह है कि क्या सरकार इस महामारी के विषय में पहले से ही जानती थी? अगर, सरकार पहले ही जान चुकी थी तो यह संकट देश से क्यों छुपाया?

एक खबर के अनुसार, दिल्ली के एम्स के रेजिडेंट डॉक्टर एसोसिएशन ने अपने निदेशक को पत्र लिखकर अस्पताल में सुरक्षा उपकरणों जैसे कि सर्जिकल मास्क, दस्ताने इत्यादि की कमी पर चिंता जताई थी. आज एक बार फिर से एम्स के डॉक्टरों ने मास्क, दस्ताने की कमी को लेकर शिकायत की है. यीह नहीं लखनऊ के किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज का है, जहां के रेजिडेंट डॉक्टर एसोसिएशन ने भी पत्र लिखकर सुरक्षा उपकरणों की कमी पर चिंता जताई है. अब यहां बड़ा सवाल ये उठता है कि आखिर क्यों इस तरह की कमी अस्पतालों में हो रही है और ऐसा करके क्यों सरकार डॉक्टरों, नर्सों, वॉर्डबॉय समेत अन्य स्वास्थ्यकर्मियों की सुरक्षा के साथ खिलवाड़ कर रही है?

बता दें कि कारवां नामक पत्रिका की रिपोर्ट के अनुसार, 18 मार्च को प्रधानमंत्री राष्ट्र के नाम संबोधन करते हैं. जिसमें 22 मार्च 2020 को जनता कर्फ्यू लगाने की घोषणा करते हैं और 19 मार्च को सरकार जो भारत में पहले से निर्माण हो रही बॉडी कवर कीट (पीपीई) सर्जिकल मास्क, डिस्पोजेबल मास्क, एनबीआर के अलावा सभी तरह के दस्ताने, सर्जिकल ब्लेड्स, शू-कवर, गैस मास्क, प्लास्टिक तारपोलीन, सांस लेने वाले मेडिकल सुरक्षा उपकरणों को दूसरे देशों को बेचती रही और 19 मार्च को उपरोक्त निर्माण उपकरणों के निर्यात (बेचने) पर रोक लगाती है. इसके तीन हफ्ते पहले तक यानि 27 फरवरी को विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने दिशानिर्देश जारी करते हुए पहले ही बता दिया था कि दुनियाभर में पीपीई का भंडारण पर्याप्त नहीं है और लगता है कि जल्द ही गाउन और गुगल (चश्में) की आपूर्ति भी कम पड़ जाएगी. इसके बाद भी मोदी सरकार भारत में निर्माण हो चुके सुरक्षा उपकरणों को दूसरे देशों को बेचती रही. आखिर 31 जनवरी से लेकर 19 मार्च 2020 तक निर्यात की अनुमति क्यों दी गई? क्योंकि, देश में पहला कोविड-19 का केस 31 जनवरी को आया और अगले दिन 1 फरवरी को विदेश व्यापार के डाइरेक्टर जनरल ने डाक्टरों, नर्सो द्वारा प्रयोग किये जाने वाले उपकरणों में जैसे पीपीई, सर्जिकलमास्क, डिस्पोजेबल मास्क, एनबीआर के अलावा सभी तरह के दस्ताने, सर्जिकल ब्लेड्स, शू-कवर, गैस मास्क, प्लास्टिक तारपोलीन, सांस लेने वाले एवं गाउन इत्यादि के निर्यात पे बैन लगा दिया. परन्तु, एक हफ्ते बाद मोदी सरकार ने फिर से दस्ताने और एन-95 मास्क का निर्यात खोल दिया. वहीं पीपीई बनाने के रॉ मेटेरियल पे किसी तरह का बैन नहीं लगाया. इसके चलते दूसरे देशों ने इन उपकरणों के रॉ मेटेरियल को खरीद कर अपने यहां इमरजेंसी के लिए स्टोर करना शुरू कर दिया.

प्राइवेट वेयर मैन्यूफैचर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया के चेयरमैन संजीव कुमार ने 7 फरवरी को ही भारत सरकार से स्वास्थ्य कर्मियों के लिए जरुरी पीपीई के रॉ मेटेरियल निर्यात पे रोक लगाने की मांग की थी, लेकिन भारत सरकार ने अनसुना कर दिया और इटली जर्मनी हमसे उपकरण बनाने का कच्चा माल खरीद के भंडारण करते रहे. इस से भारत में थ्री प्लाई मास्क बनाने का कच्चा माल 250 रुपये प्रति किलो से बढ़कर 3000 प्रति किलो हो गया. जबकि, 25 फरवरी तक इटली में वायरस से 11 मरने और 200 से ज्यादा केस मिलने के बाद भी भारत सरकार ने ग्लव्स और मास्क के आलावा 8 और नये पीपीई के निर्यात को खोल दिया. कारवाँ पत्रिका ने एक और खुलासा किया है. कारवां के अनुसार, भारत सरकार ने इस महामारी के समय में हर कंपनी को आपूर्ति करने की छूट देने के बजाय सिर्फ एक सरकारी कंपनी एचएलएल को एकाधिकार दिया. जबकि रिपोर्ट में दावा किया गया है कि सरकारी कंपनी एचएलएल खुद पीपीई नहीं बनाती है, बल्कि छोटी कंपनियों से लेकर असेम्बिल करके बढ़ाये हुए दाम 1000 प्रति किट बेच रही, जबकि, वो कंपनियां अपने मुनाफे के साथ 400-500 प्रति किट बेचने को तैयार थी, लेकिन सरकार इसमें मुनाफा कमाती रही.

इसका नतीजा यह निकला कि आज जब देश में वायरस दूसरे स्टेज में है तब भारत के डॉक्टर, नर्स, वार्डब्याय एवं अन्य स्वास्थ्यकर्मियों के पास सुरक्षा के उपकरण नहीं हैं? आज भारत के ही डाक्टर असुरक्षित हैं. स्वास्थ्य विभाग के ऑल इंडिया ड्रग्स एक्शन नेटवर्क का कहना है कि भारत को 5 लाख कवरेल (गाउन) प्रतिदिन की जरूरत पड़ने वाली है. इस संकट में डाक्टर, नर्स और स्वास्थकर्मी अपनी जान हथेली पर लेकर इस महामारी पर काबू पाने की कोशिश कर हैं. क्या सरकार को ताली, थाली बजाने के लिए आदेश देने की जरूरत थी या देश में चिकित्सा उपकरणों का निर्माण करने जी जरूरत थी? लेकिन, भारत में की स्थिति यह है कि आज हॉस्पिटल कर्मचारी सेफ्टी किट के अभाव में डस्टबिन में यूज होने वाली पॉलीथिन पहनकर इस भयंकर महामारी से जूझ रहे हैं.

भारत सरकार ने क्यों नहीं मानी डब्ल्यूएचओ की सलाह?
डब्ल्यूएचओ की चेतावनी के बावजूद भारत ने नहीं किया सुरक्षा सामग्री का भंडारण
27 फरवरी 2020 को डब्ल्यूएचओ ने बता दिया था कि विश्व में पीपीई आपूर्ति में कमी आने वाली है सारे देश इसका बंदोबस्त करें. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दिशानिर्देश जारी करते हुए बताया था कि दुनियाभर में पीपीई का भंडारण पर्याप्त नहीं है और लगता है कि जल्द ही गाउन और गुगल (चश्में) की आपूर्ति भी कम पड़ जाएगी. लेकिन भारत सरकार ने अनसुना करते हुए घरेलू पीपीई के निर्यात पर रोक लगाने में 19 मार्च तक का समय लगा दिया. क्योंकि, 31 जनवरी को भारत में कोविड-19 का पहला मामला सामने आने के बाद, विदेश व्यापार निदेशालय ने सभी पीपीई के निर्यात पर रोक लगा दी थी, लेकिन 8 फरवरी को सरकार ने इस आदेश पर संशोधन कर सर्जिकल मास्क और सभी तरह के दस्तानों के निर्यात की अनुमति दे दी. 25 फरवरी तक जब इटली में 11 मौतें हो चुकी थीं और 200 से अधिक मामले सामने आ चुके थे, सरकार ने उपरोक्त रोक को और ढीला करते हुए 8 नए आइटमों के निर्यात की मंजूरी दे दी. यह बिलकुल साफ है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के चेतावनी के बाद भी भारत सरकार ने पीपीई की मांग का आंकलन नहीं किया. और अपनी कमाई के लिए भारत सरकार भारत में निर्मित उपकरणों को दूसरे देशों में बेचती रही. आज स्थिति यह है कि भारतीय डॉक्टरों और कर्मियों के पास सुरक्षा कीट नहीं है, जिससे उनके जान को खतरा पैदा हो गया है.


राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)