मंगलवार, 31 मार्च 2020

जिंदगी का लॉकडाउन, भारत की रूह कंपा देने वाली तस्वीरें

लॉकडाउन से पूरे देश में हाहाकार, भारत के मूलनिवासी बहुजन समाज के लोगों का ये हाल कर दिया है, जानवर से भी बदतर जिंदगी बनाकर छोड़ दिया है.

आज पूरे देश में लॉकडाउन से हाहाकार मच गया है. इस लॉकडाउन ने तो जिंगदी का ही लॉकडाउन कर दिया है. देश में कोरोना का कहर है तो सड़कों पर गांवों का शहर बन गया है. एक भी मुख्य सड़क बची नहीं है जहां पर गांव जाने वाले गरीबों का रेला नहीं लगा है. हर सड़क पर गरीबी और लाचारी ही बिखरी पड़ी है. देश को लॉकडाउन करने से पहले गरीबों को गांवों तक पहुंचा दिया गया होता या फिर उनमें भरोसा जगा दिया गया होता कि आप जहां हैं, वही रहें, सरकार किसी को भूखा नहीं सोने देगी. तो क्या तब हालात अलग होते? लेकिन ऐसा नहीं किया गया. हां सरकार ने ऐलान तो बड़े पैकेज का किया लेकिन तब तक देर हो चुकी थी और उसका असर नाकाफी रहा. 
अब पूरे देश में लॉकडाउन होने के कारण सैकड़ों प्रवासी पैदल ही अपने घरों की ओर लौटने को मजबूर हैं. इन लौटने वालों में भारत के मस्तक से गुजरती तकलीफ और वेदना की लकीरें दिखती हैं. भूख और गरीबी की अटूट जंजीरें, बिलखते बच्चे, तड़पती माताएं और छटपटाते पिता इस भीड़ का हिस्सा हैं. यह इसलिए है क्योंकि ना हम और ना हमारा शासन-प्रशासन ये सब देखने के लिए तैयार है. जिन्होंने गरीबों के लिए नीतियां बनाई, उनकी कल्पना से परे कहीं ज्यादा गरीबी हमारे भारत की माटी में गड़ी हुई थी. कोरोना की बीमारी तो हवाई जहाज के रास्ते रईस ले आए, लेकिन अब चलते-चलते गरीबों के हवाई चप्पल घिस रही हैं.
बता दें कि आज देश की जनता का जो ये हाल किया जा रहा है इसका मूलकारण भारत का शासक विदेशी अर्थात ब्राह्मण है. देश की सत्ता पर ब्राह्मणा का कब्जा है. अगर देश का शासक भारत का मूलनिवासी होता, देश की सत्ता पर मूलनिवासी बहुजनां का कब्जा होता है तो आज ऐसा दिन नहीं देखने को मिलता. देश की सत्ता पर ब्राह्मणों का पूर्ण रूप से कब्जा होने के नाते शासक जातियों के लोग भारत के मूलनिवासियों पर जुल्म ढा रहे हैं. परन्तु, अब यही मौका है कि जनता को इन घटनाओं से सबक ले लेनी चाहिए और इन विदेशियों के खिलाफ आंदोलन शुरू कर देना चाहिए. अगर आज का यह दर्द जनता भूल गई आने वाले समय में इससे ज्यादा दर्द झेलना होगा. समय है लॉकडाउन के दौरान घर में रहकर मूलनिवासी बहुजनों को आंदोलन के लिए तैयार करें.

73 साल बाद भी वहीं तस्वीर...

ये तस्वीरें चीख-चीखकर गवाही दे रही है कि सड़कों पर लगी गरीबों, मजदूरां की कतारें सामाजिक और आर्थिक विभाजन का मार्मिक आभास कराती हैं और बताती हैं कि जैसे तस्वीरें भारत ने 1947 में विभाजन के वक्त देखी थी, उसमें और आज के कोरोना काल में तनिक भी अंतर रह नहीं गया है. अंतर केवल यही है कि उस वक्त यही तस्वीरें ब्लैक एंड वाइट देखी गयी थी आज कलर में देखी जा रही है. देश की सड़कों पर खींची जा चुकी मुफलिसी की तमाम लकीरें ये बताती हैं कि खूबसूरत और चमकते-धमकते शहरों के अंदर कितना अंधेरा है. शायद इसीलिए ये लोग जिनका शरीर भी ठीक से साथ नहीं दे रहा, इनको अब अपने गांव की झोपड़ी के अंधकार में ही जिदंगी का आफताब नजर आने लगा है.

जिंदगी जीने के लिए आये शहर, जिंदगी बचाने के लिए जा रहे गांव...
मजदूरों को कोरोना वायरस से ज्यादा भूख का डर है. जिंदगी जीने के लिए शहरों में आये थे, लेकिन अब उनका जीना मुश्किल हो गया. इसलिए वे अपनी जिंदगी बचाने के लिए गांव जा रहे हैं. लॉकडाउन में कोई साधन नहीं है, इसलिए वे अपनी जान बचाने के लिए जान को दांव पर लगाकर सैकड़ों किमी पैदल ही अपने गांव के लिए निकल पड़े हैं. आनंद विहार में बसों की सूचना मिली तो शनिवार को सुबह से ही लोनी रोड, गोल चक्कर के पास से लोगों के काफिले निकलते नजर आए. घर जाने लिए निकले इन लोगों में इटावा, लखनऊ, मैनपुरी, हरदोई, आजमगढ़ जैसे क्षेत्रों के लोग है. जो परिवहन निगम की बस नहीं मिलने की स्थिति में पैदल ही 300-400 किलोमीटर के सफर पर निकले थे.

माँ अभी और कितना चलना है....?

अब तक शहरों में भूखे बच्चे आसमान ओढ़कर सोते थे, मां पत्थरों को तोड़कर रोटी कमाती थी और उसी से इन मासूमों को कभी एक वक्त तो कभी दो वक्त की रोटी मिलती थी. लेकिन लॉकडाउन ने जब उस रोटी पर भी कर्फ्यू लगा दिया है तो ये शहरों में रहकर क्या करें, जिएं तो जिएं कैसे. हर किसी का कलेजा फट जाता है जब इस विभत्स तस्वीरों को देखता है. एक मां के सिर से लेकर कंधे और पीट पर बोझ है, आखों में आंसूं के अलावा कुछ भी नहीं है. हाथ में रोती विलखती दो साल के मासूम बच्ची का हाथ और पीछे लंगड़ाती हुई चल रही चार साल की बेटी है. माँ अपने बच्चों के हसहनीय दर्द को पी-पीकर आगे बढ़ रही है, माँ तो ये भी भूल गई है कि दिल्ली से कानपुर की दूरी 470 किमी है.

अब और नहीं चला जाता माँ...

ऐसी ही विचलित कर देने वाली एक और विभत्स तस्वीर गोरखपुर से आई है. यूपी के बस्ती जिले में रहकर पेट पालने वाली एक बेघर माँ अपने छोटे बच्चे के साथ देवरिया पैदल ही निकल पड़ी. जब पूरा शहर अपने घरों में रहने को मजबूर है तो ये माँ-बेटे सड़कें नाप रहे थे. जबकि, बस्ती से गोरखपुर 80 किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद बच्चा बीच सड़क पर अपनी माँ का पैर पकड़ कर बैठ गया. मानों बच्च अपनी माँ से कह रहा हो ‘बस माँ अब, मैं थक गया हूं और नहीं चल सकता.

सफर में छूट गया जीवनसाथी का साथ...

लॉकडाउन के चलते मोपेड पर पत्नी व दो बच्चों के साथ दिल्ली से सिद्धार्थनगर के लिए निकले युवक की अचानक तबीयत बिगड़ी और बाद में मौत हो गई. 32 वर्षीय युवक दिल्ली की नवीन विहार कॉलोनी में अपनी पत्नी व दो बच्चों के साथ किराए के मकान में रहता था, जहां वह बिस्कुट व कुरकुरे सामान की सेल्समैनी करके अपने परिवार का भरण पोषण कर रहा था. लॉकडाउन के बाद काम बंद होने से आय का साधन समाप्त हुआ तो युवक शुक्रवार की देर रात्रि पत्नी व दो बच्चों को मोपेड पर बिठाकर घर के लिए चल दिया. सुबह 10 बजे के लगभग वह सिकंदराराऊ (अलीगढ़) जीटी रोड पर नगर पालिका के समीप पहुंचा तभी उसकी तबीयत बिगड़ गई. मोपेड रोकते ही वह जमीन पर गिर पड़ा. उसके साथ दूसरी मोपेड पर सवार भाई ने उपचार के लिए एंबुलेंस को फोन लगाया. लेकिन, एंबुलेंस की मदद एक घंटे तक नहीं मिली और विनोद ने दम तोड़ दिया.

4 साल के बेटे की लाश गोद मे लेकर पैदल जा रही महिला...

देश में जितना कोरोनावायरस का डर नहीं उससे कहीं ज्यादा लॉकडाउन का खौफ है. लॉकडाउन ने देश के 83 करोड़ गरीबों को भुखमरी की कगार पर खड़ा कर दिया है. अब तो नौबत उनके मरने की आ रही और कुछ मर भी रहे हैं. इस बीच एक और तस्वीर आई जिसे असम का बताया जा रहा है. इसमें दिखाया गया है कि एक माँ अपने 4 साल के बच्चे की लाश को लेकर पैदल अपने घर जा रही है. बताया जा रहा है कि लॉकडाउन में कोई साधन नहीं मिल रहा है. उस माँ पर क्या गुजरी होगी जो अपने बच्चे की लाश को लेकर कई मीलों तक पैदल चली होगी.

घरों में रामायण और सड़कों पर भूख से महाभारत
एक तफ जहां देश की सड़कों पर भूख की महाभारत नजर आ रही है तो वहीं देश के नेता घरों में बैठकर टीवी पर रामायण देख रहे हैं. सरकार शायद देखने में देर कर चुकी है तो सवाल यही कि क्या सरकार इस स्थिति से बेखबर थी. क्या सरकार और उसके अधिकारियों को ये नहीं पता था कि देश में 83 करोड़ लोग गरीबी के चलते भुखमरी के शिकार हैं? क्या सरकार यह नहीं जानती थी कि  देश में हर रोज 20 करोड़ लोग भूखे पेट सोते हैं? सरकार ने क्यों नहीं पहले ही सोच लिया कि भूखे लोगों को रोटी नहीं मिलेगी और हाल यही होगा. अब सरकारें किराया माफ करवाएं या फिर बसें चलवाएं, फर्क क्या पड़ता है. अब तो राहत के सारे ऐलान भी बेमानी से लगते हैं क्योंकि हर तरफ अफरा तफरी का माहौल है. दिल्ली बॉर्डर से बस चलने की सूचना क्या मिली, पूरी की पूरी सड़क पट गई. तिल रखने तक की जगह नहीं बची है. जब ये पता है कि कोरोना छूने से फैलता है, तब इससे खतरनाक और क्या हो सकता है.

बस अड्डों पर मजदूरों का हुजूम

बगैर तैयारी लॉकडाउन करके मोदी सरकार ने मजबूर और गरीबों का नरसंहार करने का खाका खींच दी है. पूरे देश में लॉकडाउन होने के बाद दिल्ली-एनसीआर से बिहार, यूपी और झारखंड के मजदूर, कामगार घर जाने का बैचेन हैं. लेकिन उनको इस संकट के दौर में भी कोई साधन नहीं मिल रहा है. दिल्ली का आनंद विहार बस अड्डा, गाजियाबाद बस अड्डा और कौशांबी इस वक्त अपने-अपने घर जाने वाले मजदूरों के हुजूम से अटे पड़े हैं. इतनी बड़ी भीड़ की वजह से यहां संक्रमण का खतरा पैदा हो गया है. इकसे लिए जिम्मेदार कौन होगा? जबकि, सरकार को पहले ही इन गरीबों और मजदूरों के लिए तैयारी करनी चाहिए थी. लेकिन, सरकार ने नहीं किया, उनको उनकी हालत पर ही छोड़ दिया.


भूख से बचें या कोराना से...?
बिना तैयारी ही लॉकडाउन करके मोदी सरकार ने गरीब, मजदूरों को हजारों किलोमीटर पैदल चलने के लिए मजबूर कर दिया है. लॉकडाउन में कामकाज बंद, कंपनियां बंद हो चुकी है. ऐसे में लोगों के पास कुछ भी खाने के लिए नहीं बचा है. ऐसे लाखों लोग दिल्ली, गुजरात, महाराष्ट्र, बिहार आदि शहरों से कई दिन से खायेपीये बगैर ही अपने घरों के लिए पैदल रवाना हो गये हैं. पैदल चल रहे लोगां में असंख्य बच्चे हैं, बूढ़े हैं, गर्भवती महिलाएं हैं, बीमार लोग हैं, गोद में छोटे से बच्चे को लेकर पैदल चल रही माएं हैं, भीख मांग कर पेट भरने वाले हैं, फुटपाथ पर सोकर मजूरी करने वाले हैं. उनके पास रहने को घर नहीं हैं. रैन बसेरे में जगह नहीं है. उनके पास खाने को नहीं है. पुलिस सड़कों पर नहीं रहने दे रही है, लोग घरों में जगह नहीं दे रहे हैं. ऐसे में वे कहां, कैसे रहेंगे. क्या मध्यवर्ग भी कभी ऐसी यात्रा किया है 1000 किलोमीटर पैदल बिना खाए पिए चलता रहे?

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