रविवार, 9 फ़रवरी 2020

भक्ति भरम है सो जान : विद्रोही संत रविदास

विद्रोही ‘संत रविदास’ जी की 622वें जयन्ती पर हार्दिक शुभेच्छाएं 
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संत रविदास का लम्बा काव्य है ‘‘भक्ति भरम है सो जान’’ यह दोहा अवधी भाषा में है. इसमें भक्ति को भ्रम कहा गया है. प्रोफेसर अहिरवार बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी साहित्य के प्रोफेसर हैं. रविदास के साहित्य के ऊपर अलग-अलग प्रकार का जो रिचर्स साहित्य लिखा गया है, इन रिसर्च साहित्यों का सम्पादन किया गया है. जब इन रिसर्च साहित्यों का संपादन किया गया तो सम्पादन के बाद एक लम्बा काव्य बना, जिसका शिर्षक है ‘‘भक्ति भरम है सो जान’’ शुद्ध हिन्दी में भ्रम कहते है, मगर अवधी में भरम कहते हैं. संत रविदास जी के समय में लोग भक्ति करते थे, तो भक्ति कई प्रकार से करते थे और जितने प्रकार से लोग भक्ति करते थे, वो सारे प्रकार रविदास जी ने उस काव्य में रिकॉर्ड करके रखा है.
जब मैं पहली बार उसको पढ़ा तो मालूम पड़ा कि भक्ति कितने प्रकार के होते हैं,  नहीं तो मुझे भी मालूम नहीं था. संत रविदास जी 100 प्रकार से भी ज्यादा भक्ति की गिनतियाँ की है कि कैसे-कैसे लोग भक्ति करते थे? जैसे उस काव्य में एक जगह लिखा हुआ है कि एक पेड़ है और पेड़ में से लताएं निकली हुई हैं, उस लता से भक्ति करने वाले व्यक्ति ने अपने पैरों को बांधा और पेड़ से उल्टा लटक गया. जैसे सर नीचे और पैर ऊपर करके लटक गया, तो उससे पूछा कि क्या चल रहा है? तो उसने कहा कि भक्ति चल रहा है. इस तरह से सौ से ज्यादा प्रकार हैं. 
अगर आप पढ़ोगे तो पता चलता है कि कितने प्रकार से लोग उस समय भक्ति करते थें. कुछ लोग तो सीधा खड़ा होकर एक पैर को अपने दूसरे पैर के ठेहुने पर चढ़ाकर और दोनों हाथ जोड़कर भक्ति करते थे. बहुत सारे प्रकार से लोग भक्ति करते थे. एक भक्ति तो ऐसा है किएक भक्त नदी के पानी में डूबकी मारकर बैठा हुआ है, ये भी एक प्रकार की भक्ति है. ये भी उस किताब में लिखा हुआ है.


रविदास जी ने इन भक्ति के प्रकारों के नाम लेकर उस काव्य में लिखा कि ये सारे भक्ति भरम हैं. यह वाक्य रविदास जी लोगों को कहते थे. जब वे प्रवचन करते थें और लोगों को जागरण करते थे, तब उसमें वे ये बाते कहते थे कि ‘‘भक्ति भरम है सो जान’’ अर्थात भक्ति भरम है, इसे तुम जान लो. इसका मतलब है कि भक्ति भरम है, अगर आप जान लोगे तो आप ऐसा काम कभी करोगे ही नहीं, ये उसका अर्थ है. रविदास जी ने उस काव्य में बहुत लम्बी लिस्ट बनाकर लिखी हुई है कि भक्ति करने के जो ये सारे तरीके लिखे हुए हैं, ये सारे के सारे तरीके भरम हैं. इसमें सच्चाई और वास्तविकता नहीं है. इसका मतलब है कि रविदास जी भक्ति के विरोध में थे.
दूसरी बात कि रविदास जी चमार जाति के थे, तो कुछ चमार जाति के लोगों ने रविदास जी की मूर्ति बनाई और उनके नाम पर मन्दिर बनाया. मैंने दो चार जगह पूछा कि रविदास जी मन्दिर में जाते थे क्या? तो उन्होंने कह कि कभी इस तरह का सवाल ही नहीं पूछा गया था. रविदास जी अछूत थे और जिन मन्दिरों पर ब्राह्मणों का कब्जा था, ब्राह्मण अछूतों को मन्दिरों में आने ही नहीं देते थे. एक रहस्य यह है कि अगर मन्दिरों का ऐतिहासिक पार्श्वभूमि अगर देखा जाए कि मन्दिर कबसे बनाना शुरू हुआ? जब बृहद्रथ की हत्या ब्राह्मणों ने कि और बौद्ध भिक्षुओं का सामुहिक कत्लेआत किया गया तो वे जो बड़े-बड़े विहार और महाविहार थे. वे सारे विहार और महाविहार खाली हो गए. उस महाविहारों में ब्राह्मण घुस गए और उसमें घुसने के बाद, विहार को अगर विहार ही रखते तो लोगों को मालूम होता कि ये बुद्ध की विहार है, इसलिए ब्राह्मणों ने उन विहारों को मन्दिर नाम दिया. 

भारत के प्राचीन इतिहास में बृहद्रथ के हत्या के पहले मन्दिर शब्द उपलब्ध ही नहीं है. बृहद्रथ की हत्या करने के बाद में मन्दिर शब्द शुरू होता है और मन्दिर का निर्माण नहीं किया गया था, बल्कि उस समय जो विहार और महाविहार थे, उन्हीं का मन्दिर नामकरण करके, उस पर ब्राह्मणों ने कब्जा किया. जो बौद्धिस्ट थे, उनके खिलाफ में ब्राह्मणों ने घृणा अभियान चलाया, जैसा आज के तारीख में ब्राह्मण  मुसलमानों के विरोध में चला रहे हैं. बौद्धिस्टों के विरोध में ब्राह्मणों ने जो घृणा अभियान चलाया नतीता यह हुआ कि सारे बुद्धिस्ट लोगों के नजरों में अछूत हो गए. जैसे आज किसी दाढ़ी और टोपी वाले मुसलमान को अगर कोई गैर मुसलमान देखता है तो उसकी भृकुटी तन जाती है. ब्राह्मणों द्वारा मुसलमानों के खिलाफ जो घृणा फैलाई गई है, उसके चेहरे पर उसका भाव प्रतिबिम्बित होता है. इस बात को समझना होगा. फिर क्या हुआ? जो ब्राह्मणों के समर्थक लोग थे, उनके मन में बौद्धिस्ट लोगों के प्रति घृणा भाव पैदा हुआ और जब घृणा भाव पैदा हुआ तो जो बौद्धिस्ट थे, उनके साथ अछूतों के जैसा व्यवहार शुरू कर दिया गया और उनका सामुहिक रूप से बहिस्कार किया गया. ठीक वहीं चीज आज हो रहा है. 
अब सवाल है कि रविदास जी अछूत थे और अछूतों की परछाई छू जाने से जब ब्राह्मण अपवित्र हो जाते थे तो क्या एक अछूत को अपने बनाए मंदिरों में जाने देते थे? जबकि एक सच्चाई यह भी है कि आज भी अनुसूचित जाति के लोगों को मंदिरों में प्रवेश वर्जित है. दूसरा सवाल, अगर रविदास जी ब्राह्मणों द्वारा बनाए गये भगवान के भक्त थे, भक्ति करते थे तो इस तरह से वे ब्राह्मणवाद को और ज्यादा मजबूत बना रहे. अगर, रविदास जी ब्राह्मणवाद को मतबूत बना रहे थे तो ब्राह्मणों ने रविदास की हत्या क्यों की? इससे अपने आप ही साबित हो जाता है कि संत रविदास किसी भी भगवान, देवी-देवता के भक्त नहीं थे. संत रविदास जी किसी की भक्ति नहीं करते थे, बल्कि वे ब्राह्मणों की गुलामी से मूलनिवासी बहुजनों को मुक्त कराने के लिए मुक्ति का आंदोलन चला रहे थे. संत रविदास ब्राह्मणवाद के घोर विरोधी थे और ब्राह्मण के खिलाफ आंदोलन चला रहा थे. संत रविदास ने अपने आंदोलन से ब्राह्मणवाद की नींव हिला दी थी. इस बात का अांदाजा उनकी वाणी से लगाया जा सकता है. 
रैदास न ब्राह्मण पूजिए, जऊ होवे गुणहीन।
पूजे चरण चंडाल के, जऊ होवे गुण परवीन।।
जात-पांत में जात है, जो केलन की पात।
रविदास न मानुष जुड सकै, जो लौ जात न जात।।
रैदास जन्म के कारनै, होत न कोऊ नीच।
नर कूं नीच करि डारी है, ओछे करम की कीच।।
संत रैदास द्वारा यह पद सुनाने के बाद उनकी हत्या हुई थी. 
जीवन चारि दिवस का मेला रे।
बांभन झूठा, वेद भी झूठा, झूठा ब्रह्म अकेला रे।
मंदिर भीतर मूरति बैठी, पूजति बाहर चेला रे।।
लड्डू भोग चढावति जनता, मूरति के ढोंग केला रे।
पत्थर मूरति कछु न खाती, खाते बांभन चेला रे।।
जनता लूटति बांभन सारे, प्रभु जी देति न धेला रे।
पुन्य पाप या पुनर्जन्म का, बांभन दीन्हा खेला रे।।
स्वर्ग नरक बैकुंठ पधारो, गुरु शिष्य या चेला रे।
जितना दान देव गे जैसा, वैसा निकरै तेला रे।।
बांभन जाति सभी बहकावे, जन्ह तंह मचै बवेला रे।
छोड़ि के बांभन आ संग मेरे, कह विद्रोहि अकेला रे।।
यही कारण रहा कि ब्राह्मणों ने संत रविदास की हत्या की. 

इतिहास के पन्नों में नारायण मेघाजी लोखंडे


‘‘रविवार की छुट्टी पर मेरा नहीं समाज का हक है. इसलिए रविवार की छुट्टी के दिन समाज को जागृत करने चाहिए, समाज को बामसेफ द्वारा चलाये जा रहे आंदोलन के लिए तैयार करना चाहिए और इस आंदोलन के माध्यम से मूलनिवासी बहुजन संत महापुरूषों के सपनों को साकार करने के लिए संकल्प लेना चाहिए.’’
09 फरवरी 2020 को मूलनिवासी बहुजनों को ब्राह्मणों की गुलामी से मुक्त कराने के लिए विद्रोही आंदोलन चलाने वाले क्रांतिकारी संत ‘‘रविदास’’ की जयन्ती थी. हर साल की भांति इस साल भी संत रविदास की जयन्ती बड़े धूमधाम से मनाई गई. छुट्टी होने की वजह से लोगों ने रविदास जयंती में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. लेकिन, 09 फरवरी को एक और महापुरूष का स्मृति दिन था, जिन्हें बहुत कम लोग जानते हैं. संयोग की बात देखिए कि 09 फरवरी को ‘रविवार’ का दिन था. यह तो सभी लोग जानते होंगे कि हर रविवार को छुट्टी रहती है. परन्तु, यह बात बहुत कम लोग जानते होंगे कि रविवार की छुट्टी के जनक कौन हैं? रविवार की छुट्टी किस लिए लागू की गई? रविवार की छुट्टी के पीछे क्या मकसद है? बात आगे बढ़ने से पहले बता देना चाहता हूँ कि 09 फरवरी को जिस महापुरूष का स्मृति दिन था वही महापुरूष रविवार की छुट्टी के जनक हैं. उसी महापुरूष के अथक संघर्ष के बदौलत रविवार को छुट्टी घोषित हुआ, जिनका नाम है ‘‘नारायण मेघाजी लोखंडे’’

130 साल पहले 10 जून 1890 से रविवार की छुट्टी नारायण मेघाजी लोखंडे के अथक प्रयासों से शुरू हुई थी. नारायण मेघाजी लोखंडे का जन्म महाराष्ट्र के ठाणे जिले में 08 फरवरी 1848 को हुआ था, किन्तु इनका पैतृक गाँव सासवड जनपद पुणे था. वे राष्ट्रपिता महात्मा ज्योतिबा फुले के सत्यशोधक आन्दोलन के कर्मठ कार्यकर्ता थे. उन्हें रविवार की छुट्टी और भारत में श्रमिक आंदोलन का जनक कहा जाता है. भारत सरकार ने उनके सम्मान में 03 मई 2005 को 05 रुपये का एक डाक टिकट जारी किया था. अगर, इतिहास का बारिकीपूर्वक अध्ययन करें तो पता चलेगा कि ब्रिटिश शासन के दौरान मिल मजदूरों को सातों दिन काम करना पड़ता था और उन्हें कोई छुट्टी नहीं मिलती थी. उस समय मजदूरों का काफी शोषण होता था. ब्रिटिश अधिकारी प्रार्थना के लिए हर रविवार को चर्च जाया करते थे. लेकिन, मजदूरों के लिए ऐसी कोई परंपरा नहीं थी. ऐसे में जब मजदूरों ने भी रविवार की छुट्टी की मांग की तो उन्हें डरा-धमकाकर शांत करा दिया गया. उस समय मिल मजदूरों के नेता लोखंडे ने 1881 में अंग्रेजों के सामने साप्ताहिक छुट्टी का प्रस्ताव रखा और कहा कि हम लोग खुद के लिए और अपने परिवार के लिए सातों दिन काम करते हैं, अतः हमें एक दिन की छुट्टी अपने देश की सेवा करने के लिए मिलनी चाहिए और हमें अपने समाज के लिए कुछ विकास के कार्य करने चाहिए.

इसके साथ ही उन्होंने मजदूरों से कहा कि रविवार देवता ‘‘खंडोबा’’ का दिन है और इसलिए इस दिन को साप्ताहिक छुट्टी के रूप में घोषित किया जाना चाहिए. लेकिन, उनके इस प्रस्ताव को ब्रिटिश अधिकारियों ने अस्वीकार कर दिया. लोखंडे जी यहीं नहीं रुके, उन्होंने अवकाश की मांग को लेकर एक लंबी लड़ाई जारी रखी. आखिरकार 09 साल के लम्बे संघर्ष के बाद पहली बार 10 जून 1890 को ब्रिटिश सरकार ने रविवार को छुट्टी का दिन घोषित किया. हैरानी की बात यह है कि भारत सरकार ने कभी भी इसके बारे में कोई आदेश जारी नहीं किए हैं. इसके बाद दोपहर में आधा घंटा खाना खाने की छुट्टी और हर महीने की 15 तारीख को मासिक वेतन दिया जाने लगा. यही नहीं लोखंडे जी की वजह से मिलों में कार्य प्रारंभ के लिए प्रातः 6ः30 बजे का और कार्य समाप्ति के लिए सूर्यास्त का समय निर्धारित किया गया.

अधिकांश मूलनिवासी लोग रविवार की छुट्टी का दिन मौजमस्ती करने में बिता देते हैं. उन्हें लगता है, हम इस छुट्टी के हकदार हैं. परन्तु, क्या हमें यह बात पता है कि रविवार की छुट्टी हमें क्यों मिली या यह छुट्टी लोखंडेजी ने हमें क्यों दिलायी या इसके पीछे उस महान व्यक्ति का मकसद क्या था? लोखंडे जी का मानना था कि सप्ताह के सातों दिन हम अपने परिवार के लिए काम करते है, किन्तु जिस समाज की बदौलत हमें नौकरी मिली उस समाज की समस्या का समाधान करने के लिए हमें एक दिन की छुट्टी मिलनी चाहिए. इस भावना के साथ उन्होंने 09 वर्षों तक निरंतर आंदोलन किया तब जाकर हमें यह रविवार की छुट्टी मिली.

अनपढ़ लोगों को तो छोड़ो क्या पढ़े लिखे लोग भी इस बात को जानते हैं? यदि जानते हैं तो क्या समझते भी हैं? जहाँ तक हमारी जानकारी है, पढ़े लिखे लोग भी इस बात को नहीं जानते/समझते हैं.अगर जानकारी होती तो वे रविवार के दिन मौज मस्ती नहीं, बल्कि समाज का काम करते और अगर समाज का काम ईमानदारी से काम किया होता तो समाज में बेरोजगारी, बलात्कार, लाचारी आदि समस्यायें नहीं होती. रविवार की छुट्टी पर मेरा नहीं समाज का हक है. इसलिए रविवार की छुट्टी के दिन समाज को जागृत करने चाहिए, समाज को बामसेफ द्वारा चलाये जा रहे आंदोलन के लिए तैयार करना चाहिए और इस आंदोलन के माध्यम से मूलनिवासी बहुजन संत महापुरूषों के सपनों को साकार करने के लिए संकल्प लेना चाहिए.
राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)

शनिवार, 8 फ़रवरी 2020

‘‘मन चंगा तो व्यर्थ है गंगा : संत रविदास’’


मूलनिवासी बहुजन मुक्ति आंदोलन के जुझारु नायक ‘संत रविदास’

राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)
यह बात अब तक मिले कई गुरूवाणी, तथ्यों, दस्तावेजी सबूतों और तर्क के आधार पर प्रमाणित हो चुका है कि मुनवादियों ने ही छल-कपट और धोखे से क्रांतिकारी संत रैदास (रविदासजी) की हत्या की है. सतनाम सिंह द्वारा लिखित पुस्तक ‘गुरू रविदास की हत्या के प्रमाणिक दस्तावेज’ के अनुसार, संत रविदास की हत्या राजस्थान के चित्तौड़गढ़ में राणा सांगा ने की. अब सवाल यह है कि मनुवादियों ने संत रविदास की हत्या क्यों की? जबकि, ब्राह्मणों के द्वारा बताया जाता है कि संत रविदास भक्ति आंदोलन चला रहे थे. संत रविदास भगवान के भक्त थे, उनके अंदर अदभूत शक्ति थी, वे चमत्कारिक संत थे. अगर, यह बात सही है तो पुनः सवाल खड़ा होता है कि जब संत रविदास खुद ब्राह्मणवाद को मजबूत करने का काम कर रहे थे तो फिर ब्राह्मणों को उनकी हत्या करने की क्या जरूरत पड़ी?  इससे साबित होता है कि ब्राह्मणों द्वारा संत रविदास के विषय में कही गई हर बात निराधार एवं कोरा बकवास है.

असल में हकीकत यह है कि देश के मध्ययुगीन, महानतम, सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक, क्रांतिकारी संत रविदास ‘भक्ति आंदोलन’ नहीं, वे मूलनिवासी बहुजनों को ब्राह्मणों की गुलामी से मुक्त कराने के लिए ‘मुक्ति आंदोलन’ चला रहे थे. संत रविदास एक क्रांतिकारी संत थे, वे अपनी वाणी के माध्यम से छुआछूत, असमानता, पाखंडवा, जातिवाद, निम्नवर्णों की शिक्षा, सुरक्षा और संपत्ति के अधिकार पर प्रतिबंध व इनपर किए जाने वाले अत्याचार, शोषण, भेदभाव, प्रताड़ना, शोषण और मनमानी के सिद्धांतों पर ब्राह्मणों द्वारा बनाई गई व्यवस्था का न केवल घोर विरोध किया, बल्कि ब्राह्मणवाद पर करारा हमला भी किया था. जिससे कारण ब्राह्मणों में खलबली मच गई. 

संत रविदास ने भी वहीं किया जो तथागत बुद्ध ने किया था. संत रविदास के अनुसार किसी बात को ठीक से सोच विचार कर बुद्धि की कसौटी पर परख कर ही मानना चाहिए. उन्होंने श्रम की महत्ता पर अत्यधिक बल दिया और आजीवन वैज्ञानिक-मानववाद के प्रचार में सक्रिय रहे. अतः वे इस समता मिशन के नायक बन चुके थे. वास्तव में संत रविदास जी गैरब्राह्मण धर्म चेतना की एक महत्वपूर्ण कड़ी रहे हैं. क्योंकि, यह जनक्रांति यक्षों, नागों, नास्तिकों, बौद्धों, सिद्धों, नाथों, वीरों, विनायकों, पीरों से होती हुई निर्गुणियां संतो तक चली आयी थी. लाजिमी है कि वे मनुवादियों की आंखों में खटक रहे थे. संत रविदास के इस हमले से ब्राह्मणवाद खतरे में पड़ गया. इसलिए ब्राह्मणों द्वारा संत रविदास की हत्या करने का षड्यंत्र करने लगे.

संत रविदास की हत्या का दूसरा सबसे बड़े कारण चित्तौड़गढ़ के राणा सांगा की पत्नी रानी झालीबाई और मीराबाई द्वारा संत रविदास को अपना गुरू स्वीकार करना साबित हुआ है. 1509 से 1527 तक मेवाड़ पर शासन करने वाले राणा सांगा की पत्नी रानी झाली और मीरा बाई ने 1567-68 में काशी जाकर संत रविदास को अपना गुरू स्वीकार किया. मध्ययुग के इस शक्तिशाली राजा की पत्नी द्वारा एक अछूत संत को अपना गुरू बना लेना मनुवाद के लिए सबसे बड़ा चुनौती बन गया था. उस समय राजस्थान के ब्राह्मणों ने संत रविदास का कड़ा विरोध किया. ब्राह्मणों को सबसे ज्यादा धक्का तो तब लगा जब रानी झाली के निवेदन के पश्चात संत रविदास मेवाड़ आए. इस पर ब्राह्मण और ज्यादा बौखला गये और रोकने लगे. परन्तु, रानी झाली पर इसका कोई असर नहीं हुआ, बल्कि रानी झाली ने पालकी पर संत रविदास का स्वागत किया. यहां तक की संत रैदास की उपस्थिति में ही रानी झाली ने अपने बेटे कुंवर भोजराज की शादी मीराबाई से कर दी थी. जब संत रैदास ने शादी के वक्त महल में बतौर अतिथि प्रवेश किया तो राजस्थान के ब्राह्मणों ने इनका विरोध किया. यह दृश्य देखकर ब्राह्मणों ने कहा कि यदि तुम्हारे गुरू में शक्ति है तो अपनी शक्ति का प्रमाण दें. इस तरह धोखे से राणा सांगा और ब्राह्मणों ने 1527 को चित्तौड़गढ़, किले में उनकी हत्या कर दी.  चित्तौड़गढ़ के किले में आज भी उनकी समाधि मौजूद है. बाद में झूठा प्रचार किया कि संत रविदास में अलौकिक शक्ति है. हालांकि, राणा सांगा की मृत्यु के बाद विधवा रानी झाली का जीवन किस प्रकार बीता, यह अभी भी शोध का विषय है.

मीरा को यातनाएं उसकी भक्ति भावना के कारण नहीं दी जाती थी, बल्कि उसे यातनाएं इस बात के लिए दी जाती थी कि वह एक अछूत संत के पास उनकी बस्ती में क्यों जाती थी? मीरा के गुरु का चमार होना ही उसकी यातनाओं का मुख्य कारण था. मीरा ने अपनी वाणी में भी इसका उल्लेख किया है. मनुवादियों को यह गवारा नहीं था, अतः मीरा अपने गुरु की हत्या का सबसे बड़ा कारण बनी, इसमें कोई शक नहीं रह जाता है. यही कारण है कि मीरा को जान से मारने के प्रयास दो बार किए गए. संत रविदास जी के मिशन के सहयोगी रहे संत पलटू साहिब को ब्राह्मणों ने उनकी झोपड़ी में आग लगाकर मार डालने का प्रयास किया। मीरा और पलटू जी की हत्या के प्रयासों को देखते हुए साबित हो जाता है कि मनुवादी अपने विरोधियों की हत्याएं तक करने पर उतर आए थे। ऐसे में उनके लिए संत रविदास जी की हत्या कोई बड़ी बात नहीं थी. उनकी हत्या करने के बाद संत रविदास के अनुयायी इसका विरोध न करें, इसलिए ब्राह्मणों ने उनके बारे में तमाम अनर्गल झूठा प्रचार किया. ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा, ‘गढ़ तो चित्तौड़गढ़ बाकी सभी गढ़ैया’ जैसे मुहावरे भी ब्राह्मणों ने उसी जघन्य हत्याकांड के बाद रचे, क्योंकि उसी चित्तौड़गढ़ में जनचेतना की एक प्रचंड ज्योति को षड्यंत्र के तहत बुझाया गया था. असल में संत रविदास ने कहा था कि ‘‘मन चंगा तो व्यर्थ है गंगा’’


संत रैदास द्वारा यह पद सुनाने के बाद उनकी हत्या हुई थी. 
जीवन चारि दिवस का मेला रे।
बांभन झूठा, वेद भी झूठा, झूठा ब्रह्म अकेला रे।
मंदिर भीतर मूरति बैठी, पूजति बाहर चेला रे।
लड्डू भोग चढावति जनता, मूरति के ढोंग केला रे।
पत्थर मूरति कछु न खाती, खाते बांभन चेला रे।
जनता लूटति बांभन सारे, प्रभु जी देति न धेला रे।
पुन्य पाप या पुनर्जन्म का, बांभन दीन्हा खेला रे।
स्वर्ग नरक बैकुंठ पधारो, गुरु शिष्य या चेला रे।
जितना दान देव गे जैसा, वैसा निकरै तेला रे।
बांभन जाति सभी बहकावे, जन्ह तंह मचै बवेला रे।
छोड़ि के बांभन आ संग मेरे, कह विद्रोहि अकेला रे।

शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2020

बहुजनों की माता रमाबाई अम्बेडकर

राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)
माता रमाबाई अम्बेडकर वह महिला थी, जिसके त्याग, समर्पण ने ‘भीमा’ को डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर बना दिया. ऐसे त्याग, समर्पण की प्रतिमूर्ति ‘‘माता रमाबाई अम्बेडकर’’ के 122वीं जयन्ती के अवसर पर देश के 85 प्रतिशत मूलनिवासी बहुजन समाज को दैनिक मूलनिवासी नायक परिवार की ओर से हार्दिक शुभेच्छाएं।

भारतीय संविधान के निर्माता और भारत के पहले कानून मंत्री, डॉ. बाबासाहब भीमराव अम्बेडकर ने अपने जीवन में हर कदम पर चुनौतियों का सामना किया. लेकिन, वे कभी नहीं रुके. उनके इस सफर में बहुत से लोगों ने उनका साथ दिया. कभी उनके स्कूल के शिक्षक ने उनसे प्रभावित होकर उनको अपना उपनाम दे दिया तो कभी शाहूजी महाराज ने उन्हें उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड भेज दिया था. लेकिन, इन सब लोगों के बीच एक और नाम था, जिनके जिक्र के बगैर डॉ.बाबासाहब अम्बेडकर की सफलता की कहानी अधूरी है. वह नाम है उनकी पत्नी रमाबाई आम्बेडकर.

माता रमाबाई अम्बेडकर का जन्म 7 फरवरी 1898 को एक गरीब परिवार में हुआ था. उनके पिता का नाम भिकु धुत्रे (वलंगकर) व माता का नाम रुक्मिणी था. माता रमाबाई अम्बेडकर अपने माता-पिता, दो बहनों व एक भाई के साथ दाभोल के पास वंणदगांव में नदी किनारे महारपुरा बस्ती में रहती थी. रमाबाई के माता-पिता का देहांत बचपन में ही हो गया था. रामी की दो बहनें और एक भाई था, जिसका नाम शंकर था. बचपन में ही माता-पिता की मृत्यु हो जाने के कारण रामी और उसके भाई-बहन अपने मामा और चाचा के साथ मुंबई में रहने लगे थे.
वर्ष 1906 में माता रमाबाई की उम्र महज 9 वर्ष थी. 9 वर्ष की उम्र में ही उनकी शादी बॉम्बे (अब मुंबई) के बायकुला मार्केट में 14 वर्षीय भीमराव से हो गई. माता रमाबाई को भीमराव प्यार से ‘रामू’ बुलाते थे और वो उन्हें ‘साहेब’ कहकर पुकारतीं थीं. शादी के तुरंत बाद से ही रमाबाई को समझ में आ गया था कि पिछड़े तबकों का उत्थान करना ही बाबासाहब के जीवन का लक्ष्य है और यह तभी संभव था, जब वे खुद इतने शिक्षित हों कि पूरे देश में शिक्षा की मशाल जला सकें. इसके लिए माता रमाबाई ने डॉ.बाबासाहब के इस संघर्ष में अपनी आखिरी सांस तक उनका साथ दिया. डॉ. बाबासाहब ने भी अपने जीवन में रमाबाई के योगदान को बहुत महत्वपूर्ण माना है.

इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि दिसंबर 1940 में डॉ.बाबासाहब अम्बेडकर ने ‘थॉट्स ऑफ पाकिस्तान“ पुस्तक लिखी और यह पुस्तक उन्होंने अपनी पत्नी ‘रमो’ को ही भेंट की.  डॉ.बाबासाहब अम्बेडकर ने अपनी किताब ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान’ को माता रमाबाई को समर्पित करते हुए लिखा कि ‘‘मैं यह पुस्तक रमो को उसके मन की सात्विकता, मानसिक सदवृत्ति, त्याग समर्पण की भावना, सदाचार की पवित्रता और मेरे साथ दुःख झेलने में, अभाव व परेशानी के दिनों में जबकि हमारा कोई सहायक न था सहनशीलता और सहमति दिखाने की प्रशंसा स्वरुप भेंट करता हूं“ उपरोक्त शब्दों से स्पष्ट है कि माता रमाबाई ने डॉ.बाबासाहब अम्बेडकर का किस प्रकार संकटों के दिनों में साथ दिया और बाबासाहब के दिल में उनके लिए कितना सत्कार और प्रेम था. बाबासाहब भी ऐसे ही महापुरुषों में से एक थे, जिन्हें रमाबाई जैसी बहुत ही नेक जीवन साथी मिली. सच में ‘‘उन्हें मामूली भीमा से डॉ.अम्बेडकर बनाने का श्रेय रमाबाई को ही जाता है’’ हर एक परिस्थिति में रमाबाई, बाबासाहब का साथ देती रहीं.

डॉ.बाबासाहब अम्बेडकर वर्षों अपनी शिक्षा के लिए बाहर रहे और इस समय में लोगों की बातें सुनते हुए भी रमाबाई ने घर को सम्भाले रखा. कभी वे घर-घरजाकर उपले बेचतीं, तो बहुत बार दूसरों के घरों में काम करती थीं. वे हर छोटा-बड़ा कामकर, आजीविका कमाती थीं और साथ ही बाबासाहब की शिक्षा का खर्च जुटाने में भी मदद करती रहीं. जबकि, उनके जीवन का हर क्षण मुसिबतों से ही भरा रहा. माता रमाई ने 5 संतानों को जन्म दिया था. जिसमें यशवंतराव जीवित रहे. बाकी गंगाधर, रमेश, इंदू नाम की लड़की और राज रत्न की मौत हो गई. जिस माँ के जीते जी पैसे और इलाज के अभाव में, उनके चार बच्चों की मौत हो जाय और कफन तक भी नसीब न हो उस समय उस माँ के दिल पर क्या गुजरा होगा? धन अभाव के कारण जब भोजन ही भरपेट नहीं मिलता था, तब ऐसे समय में दवा के लिए पैसे कहाँ से आते. इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि यशवंतराव के अलावा सभी बच्चे अकाल ही काल कलवित हो गए.

दूसरे पुत्र गंगाधर के निधन की दर्दभरी कहानी खुद डॉ. बाबासाहब अंबेडकर ने बताई थी जो इस प्रकार थी. दूसरा लड़का गंगाधर हुआ, जो देखने में बहुत सुंदर था. वह अचानक बीमार हो गया, जबकि दवा के लिए पैसा नही था. उसकी बीमारी से तो एक बार मेरा मन भी डावांडोल हो गया कि मैं सरकारी नौकरी लूं, फिर मुझे विचार आया कि अगर मैंने नौकरी कर ली तो उन करोड़ो बच्चें का क्या होगा जो गंगाधर से ज्यादा बीमार हैं. ठीक प्रकार से इलाज ना होने के कारण वह नन्हा सा बच्चा ढाई साल की आयु में चल बसा. गम में शामिल हुए लोगों ने मृत बच्चे के शरीर को ढकने के लिए नया कपड़ा लाने के लिए पैसे मांगे, लेकिन मेरे पास इतने पैसे नहीं थे कि मैं कफन खरीद सकूँ. अंत में मेरी प्यारी पत्नी ‘रामू’ ने अपनी साड़ी में से एक टुकड़ा फाड़कर दिया. उसी में ढंककर उसे श्मशान पर लोग लेकर गए हैं और दफना आये. ऐसी थी मेरी आर्थिक स्थिति.

पांचवा बच्चा राज रत्न बहुत प्यारा था. रमाई ने उसकी देखरेख में कोई कमी नहीं आने दी. अचानक जुलाई 1926 में उसे डबल निमोनिया हो गया. काफी इलाज करने पर भी 19 जुलाई 1926 को दोनों को बिलखते छोड़ वह भी चल बसा. माता रमाबाई के जीते जी उनके चार बच्चों की मौत से बहुत सदमा पहुंचा और वह बीमार रहने लगी. धीरे-धीरे पुत्र शोक कम हुआ तब तक डॉ. बाबासाहब अंबेडकर महाड सत्याग्रह में जुट गये. महाड में विरोधियों ने षडयंत्र कर डॉ.बाबासाहब अम्बेडकर को मार डालने की योजना बनाई. यह सुनकर माता रमाई ने महाड़ सत्याग्रह में अपने पति के साथ रहने की अभिलाषा व्यक्त की. इस तरह से 29 साल तक माता रमाबाई ने असहनीय दर्द सहते हुए भी डॉ.बाबासाहब का साथ दिया. 29 साल बाद 27 मई 1935 को उन पर शोक और दुःख का पर्वत ही टूट पड़ा. उस दिन नृशंस मृत्यु ने उनसे उनकी पत्नी रमाबाई को छीन लिया. उस समय डॉ.बाबासाहब के पूरे जीवन में उतना दुःख नहीं हुआ, जितना माता रमाबाई के मृत्यु को लेकर हुआ था.

क्या यह बात किसी को पता है कि एक ऐसी नारी के त्याग समर्पण और समाज के प्रति निष्ठा की बदौलत मूलनिवासी बहुजन समाज और सर्व समाज की नारी शक्ति को भारत वर्ष में न केवल सम्मान मिला, बल्कि सम्मान से जीने का हर मानवीय अधिकार भी मिला. वो कोई और नहीं, परमपूज्यनीय त्याग, भावना की मूर्ति माता रमाई अंबेडकर थी. परमपूज्य बोधिसत्व बाबासाहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर जी को विश्वविख्यात महापुरुष बनाने में रमाई का ही साथ था. आज सभी महिलाओं को (चाहे वे किसी भी धर्म या जाति समुदाय से हो) को माता रमाबाई अंबेडकर पर गर्व होना चाहिए कि किन परिस्थितियों में उन्होंने डॉ.बाबासाहब अम्बेडकर का मनोबल बढ़ाये रखा और उनके हर फैसले में उनका साथ देती रहीं. यही नहीं जब पता चलता है कि उन्होंने खुद अपना जीवन घोर कष्ट में बिताया और बाबासाहब की मदद करती रहीं. सोचो उन पर क्या गुजरा होगा?