दैनिक मूलनिवासी नायक, मूलनिवासी शूरवीरों के शौर्य की उस कहानी को बता रहा है जो आज से दो सौ साल पहले घटित हुई थी। जब आज के ही दिन यानि 01 जनवरी 1818 को पूरी दुनिया भर में मूलनिवासी बहुजन समाज के शूरवीरों के शौर्य की गाथा लिखी गई थी। यहीं नहीं यह घटना जहां मूलनिवासियों की शौर्य गाथा है तो वहीं, मनुवादियों के मुँह पर जोरदार तमाचा भी है। इस ऐतिहासिक दिन को याद करते हुए डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर हर साल 01 जनवरी को उस महान स्थान पर जाकर उन शूरवीर मूलानिवासियों को नमन किया करते थे। मगर यूरेशियन ब्राह्मणों ने इस महाक्रांति का इतिहास मिटाने के लिए नया साल (नववर्ष) आयोजन का षड्यंत्र किया, जिसकी वजह से इतिहास के पन्नों से भीमाकोरेगांव महाक्रांति के शौर्य का गौरवशाली इतिहास मिट गया और देश का मूलनिवासी नये साल के नशे में ऐसे डूबा कि आज तक उसके बाहर नहीं निकल सका।
आपको बताते चलें कि ब्राह्मणवादी इतिहासकारों ने भीमाकोरेगांव महाक्रांति के शौर्य का गौरवशाली इतिहास को मिटाने के लिए नया साल (नववर्ष) का नया इतिहास लिखा और इसे प्राचीन कैलेंडर से जोड़ दिया। यदि ब्राह्मणवादी इतिहासकारों द्वारा नववर्ष के झूठे इतिहास पर गौर करें तो पता चलता है कि नव वर्ष का इतिहास कोरा बकवास है। क्योंकि ब्राह्मणों ने बताया है कि 01 जनवरी को मनाया जाने वाला नववर्ष ग्रेगोरियन कैलेंडर पर अधारित है। जबकि इसकी शुरूआत रोमन कैलेंडर से बताई गई है। मगर पारंपरिक रोमन कैलैंडर का नववर्ष 01 मार्च से शुरू होता है। जबकि प्रसिद्ध रोमन सम्राट जूलियस ने 47 ईसा. पूर्व में इस कैलेंडर में परिवर्तन किया और इसमें जुलाई माह जोड़ दिया। इसके बाद उसके भतीजे के नाम से इसमें अगस्त माह जोड़ दिया। दुनिया भर में आज जो केलेंडर प्रचलित है उसे पोप ग्रेगोरी अष्टम ने 1582 में तैयार किया था। ग्रेगोरी ने इमें लीप ईयर का प्रवधान किया था। इस कैलेंडर के अनुसार नया साल 14 जनवरी को मनाया जात है। इसी कैलेंडर के अनुसार जॉर्जिया, रूस, यरूशलम, सर्बिया आदि मे भी नववर्ष 14 जनवरी को ही मनाया जाता है। यानी विश्व स्तर ग्रेगोरी कैलेंडर में भी 01 जनवरी को नववर्ष नहीं मनाया जाता है। यदि हम अपने देश के इतिहास पर नजर डालते हैं तो पता चलता है कि भारत में आज भी अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग तारीख पर नव वर्ष मनाया जाता है। भारत में यदि देखा जाए तो भी कई कैलेंडर हैं। विक्रम संवत, शक संवत, हिजरी संवत, फसली संवत, बांग्ला संवत, बौद्ध संवत, जैन संवत, खालसा संवत, तलि संवत, मलयालम संवत, तेलगु संवत आदि प्रचलित हैं। इसमें हर एक कैलेंडर में अलग-अलग नव वर्ष हैं। देश में सबसे ज्यादा शक संवत और विक्रम संवत प्रचलित है। माना जाता है कि विक्रम संवत गुप्त सम्राट विक्रमादित्य ने उज्जयनी में शकों को पराजित करने की याद में शुरू किया था। विक्रम संवत चैत्र माह के शुल्क पक्ष की प्रतिपदा से शुरू होता है। तैत्र शुल्क प्रतिपदा के दिन उŸार भारत में गुड़ी पड़वा और उगादी के रूप में विभिन्न हिस्सों में नववर्ष मनाया जाता है। शक संवत को शालीवाहन शक संवत के रूप में भी जाना जात है। माना जाता है इसे शक सम्राट कनिष्क ने 78 ई.पूर्व में शुरू किया था। स्वतंत्रा के बाद भारत सरकार ने इसी शक संवत में फेरबदल करते हुए इसे राष्ट्रीय संवत के रूप में अपना लिया। मगर राष्ट्रीय संवत का नववर्ष भी 01 जनवरी नहीं बल्कि 22 मार्च है। इसके अलावा पंजाब मे नया साल बैशाखी नाम से 13 अप्रैल मनाई जाती है। इसी के आस-पास बंग्ला तथा तमिल नववर्ष भी आता है। आंध्र प्रदेश में इसे उगादी के रूप में मनाते हैं और कश्मीरी कैलेंडर नवरेह 19 मार्च को होता है।
यदि भारत के पड़ोसी देशों पर दृष्टि डाले तो देश और देश की पुरानी सभ्यताओं में से एक चीन में भी एक अलग अपना कैलेंडर है। तकरीबन सभी पुरानी सभ्यताओं के अनुसार चीन का कैलेंडर भी चंद्रमा गणना पर आधारित है। इसका नया साल 21 जनवरी से 21 फरवरी के बीच पड़ता है। जापानी नववर्ष ‘गनतन-साई’ या योत्सोंगु के नाम से जाना जाता है। महायान बौद्ध 07 जनवरी, प्राचीन स्कॉट में 11 जनवरी, वेल्स के इवान वैली में नववर्ष 12 जनवरी, सोबियत रूस के चर्चों और रोम में नववर्ष 14 जनवरी को होता है। वहीं सेल्टिक, कोरिया, वियतनाम, तिब्बत, लेबनान और चीन में 21 जनवरी को प्रारंभ होता है। इसके अतिरिक्त ईरान और प्राचीन रूस का 21 मार्च, ब्रिटेन 25 मार्च और फ्रांस में 01 अप्रैल में नववर्ष मनाया जाता है। थाईलैंड, बर्मा, श्रीलंका, कम्बेडिया और लाओं के लोग 07 अप्रैल को बौद्ध नववर्ष मनाते हैं। भारत के बौद्ध अनुयायी बुद्ध पूर्णिमा के दिन 17 अपै्रल को नववर्ष मनाते हैं। वहीं प्राचीन ग्रीक में 21 जून, प्राचीन जर्मनी 29 जून और प्रचीन अमेरिका में 01 जुलाई को मनाया जाता है। भारत सहित विश्व के अन्य देशों के इतिहास से पता चलता है कि 01 जनवरी को कहीं भी नववर्ष नहीं मनाया जाता है। अब सबसे अहम सवाल यह है कि केवल वर्तमान भारत में ही 01 जनवरी को ही नववर्ष क्यों मनाया जा रहा है? इसका मुख्य कारण यही है कि जो आज से दो सौ साल पहले जो घटना घटित हुई थी। यानि 01 जनवरी 1818 को पूरी दुनिया भर में मूलनिवासी बहुजन समाज के शूरवीरों के शौर्य की गाथा लिखी गई थी। ब्राह्मणवादी इतिहासकारों ने भीमाकोरेगांव महाक्रांति के शौर्य का गौरवशाली इतिहास को मिटाने के लिए नया साल (नववर्ष) आयोजन का भारी षड्यंत्र किया है।
भीमाकोरेगांव महाक्रांति के शौर्य का गौरवशाली इसतिहास क्या है? आइए इसका इतिहास जानते हैं। कोरेगांव भीमा नदी के तट पर महाराष्ट्र के पुणे के पास स्थित है। 01 जनवरी 1818 को सर्द मौसम में एक ओर कुल 28 हजार सैनिक जिनमें 20000 हजार घुड़सवार और 8000 पैदल सैनिक थे, जिनकी अगुवाई पेशवा बाजीराव कर रहे थे तो दूसरी ओर बाम्बे नेटिव लाइट इन्फेंट्री के 500 महार सैनिक, जिसमें महज 250 घुड़सवार सैनिक ही थे। आप सोच सकते हैं कि सिर्फ 500 महार सैनिकों ने किस जज्बे से लड़ाई की होगी कि उन्होंने 28 हजार पेशवाओं को धूल चटा दिया। यदि इसको दूसरे शब्दों में कहें तो एक ओर ब्राह्मण राज बचाने की फिराक में पेशवा थे तो दूसरी ओर पेशवाओं के पशुवत अत्याचारों से बदला चुकाने की फिराक में गुस्से से तमतमाए महार। आखिरकार इस घमासान युद्ध में पेशवा की शर्मनाक पराजय हुई। 500 लड़ाकों की छोटी सी सेना ने हजारों सैनिकों के साथ 12 घंटे तक वीरतापूर्वक लड़ाई लड़ी। भेदभाव से पीड़ित अछूतों की इस युद्ध के प्रति दृढ़ता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि महार रेजिमेंट के ज्यादातर सिपाही बिना पेट भर खाने और पानी के लड़ाई के पहले की रात 43 किलोमीटर पैदल चलकर युद्ध स्थल तक पहुंचे। यह वीरता की मिशाल है। संसार के इतिहास में पहली बार हमारे पुरखों द्वारा एक ऐसा घमासान युद्ध लड़ा गया, जिसमेें बाप और बेटा एक साथ जंग लड़े और जंग जीती है। महारों की पैदल फौज अपनी योजना के अनुसार 31 दिसम्बर 1817 ई. की रात को कैप्टन स्टाटन शिरूर गांव से पूना के लिए अपनी फौज के साथ निकला। उस समय उनकी फौज सेकेंड बटालियन फसर्ट रेजीमेंट में मात्र 500 महार थे। 260 घुड़सवार और 25 तोप चालक थे। उन दिनों भयंकर सर्दियों के दिन थे। यह फौज 31 दिसम्बर 1817 ई.की रात में 25 मील पैदल चलकर दूसरे दिन प्रातः 08 बजे कोरेगांव भीमा नदी के एक किनारे जा पहुंची। 01 जनवरी सन 1818 ई.को बम्बई की नेटिव इंफैन्टरी फौज (पैदल सेना) अंग्रेज कैप्टन स्टाटन के नेत्रत्व में नदी के एक तरफ थी। वहीं दूसरी तरफ बाजीराव पेशवा की विशाल फौज दो सेनापतियों रावबाजी और बापू गोखले के नेत्रत्व लगभग 28 हजार सैनिकों के साथ जिसमें दो हजार अरब सैनिक भी थे, सभी नदी के दूसरे किनारे पार काफी दूर-दूर तक फैले हुए थे। प्रातः 9.30 बजे युद्ध शुरू हुआ, भूखे-थके महार अपने सम्मान के लिए बिजली की गति से लड़े। अपनी वीरता और बुद्धि बल से ‘करो या मरो’ का संकल्प के साथ समय-समय पर ब्यूह रचना बदल कर बड़ी कड़ाई के साथ उन्होंने पेशवा सेना का मुकाबला किया। कैप्टन स्टाटन ने पेशवाओं की विशाल सेना को देखते हुए अपनी सेना को पीछे हटने के लिए याचना की। महार सेना ने अपने कैप्टन के आदेश की कठोर शब्दों में भर्तसना करते हुए कहा हमारी सेना पेशवाओं से लड़कर ही मरेगी, किन्तु उनके सामने आत्म समर्पण नहीं करेगी, न ही पीछे हटेगी। हम पेशवाओं को पराजित किए बिना नहीं हटेंगे, मर जायेंगे। यह महारों का आपसे वादा है। महार सेना अल्पतम में होते हुए भी पेशवा सेनिकों पर टूट पड़े, तबाही मच गयी। लगभग सांय 06 बजे महार सैनिक नदी के दूसरे किनारे पेशवाओं को खदेड़ते-खदेड़ते पहुंच गये और पेशवा फौज लगभग 09 बजे मैदान छोड़कर भागने लगी। इस लड़ाई में मुख्य सेनापति रावबाजी भी मैदान छोड़ कर भाग गया, परन्तु दूसरा सेनापति बापू गोखले को भी मैदान छोड़कर भागते हुए महारों ने पकड़ कर मार गिराया। इस प्रकार लड़ाई एक दिन और उसी रात लगभग 9.30 बजे लगातार 12 घंटे तक लड़ी गयी जिसमें महारों ने अपनी शूरता और वीरता का परिचय देकर विजय हांसिल की। महारों की इस विजय ने इतिहास में जुल्म करने वाले पेशवाओं के पेशवाई शासन का हमेशा के लिए खात्मा कर दिया। लेकिन ब्राह्मणों ने इस गौरवशाली इतिहास को मिटाने के लिए नया साल का जश्न मनाना शुरू किया और हमारे लोगे अपना इतिहास भूलकर नया साल के नशे में डूब गये हैं। आज वक्त आ गया है कि हम नया साल का जश्न मनाना छोड़कर अपने गौरवशाली इतिहास भीमाकोरेगांव को शौर्य दिवस के रूप में मनाएं।
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