मंगलवार, 30 जनवरी 2018

संत रैदास की हत्या

संत रैदास की हत्या 

संत रविदास समता मिशन की लड़ाई लड़ते-लड़ते शहीद हुए थे। मैंने विभिन्न कोणों से इस जघन्य हत्याकांड की गुत्थी सुलझाने का प्रयत्न किया है। पाठकगण मेरे इस प्रयास को किस हद तक स्वीकार करेंगे यह तो उन्हीं के विवेक पर निर्भर करता है। मैं यह जरूरी समझता हूँ कि अपने इस शोधकार्य के अंत में उन तमाम बिंदुओं पर निष्कर्ष रूप में पुनः चर्चा कर ली जाए जो चीख-चीखकर संत रविदास जी की हत्या की गवाही देते हैं। ये मेरे मत को पुख्ता करने वाले सहायक तत्व हैं। निष्कर्ष रूप में इन पर मनन-चिंतन करने से पाठकगण अपनी राय सुगमता से बना सकेंगे। वैसे मैं अपना मत किसी पर थोपने का आदी नहीं हूँ। लेकिन मुझे पूर्ण विश्वास है कि निष्पक्ष भाव से इन बिंदुओं पर विचार करने पर पाठकगण मेरे इस मत से सहमत हुए बिना नहीं रह पाएंगे- शुरू के अध्ययन में हमने देखा कि संत रविदास जी गैर ब्राह्मण धर्म चेतना की एक महत्वपूर्ण कड़ी रहे हैं। यह जनक्रांति, यक्षों, नागों, नास्तिकों, बोद्धों,  सिद्धों, नाथों, वीरों, विनायकों, पीरों से होती हुई निर्गुणियां संतो तक चली आती है। अतः संत रविदास जी इसी मिशन के जुझारु नायक थे। इस अध्ययन में हमने यह भी देखा की जनक्रांति (गैर ब्राह्मण धर्म परंपरा) के सभी नायक शोषक संस्कृति द्वारा न केवल विकृत किए गए, बल्कि शहीद भी किये गए। स्वयं संत रविदास जी भी इसी दायरे में आते हैं। जो उनसे पूर्व के जननायकों के साथ हुआ, वही उनके साथ भी हुआ। अतः अब इस मत में शक की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती कि संत रविदास जी गैर ब्राह्मण धर्म चेतना नामक समता मिशन की भेंट चढ़े थे।
पूर्व पृष्ठों पर हमने यह भी देखा कि संत रविदास जी बौद्ध मत के प्रचारक थे। वे सहजिया संप्रदाय में दीक्षित थे, जो कि बौद्ध परंपरा की एक कड़ी रही है। ब्राह्मण बौद्धों के चिर परिचित शत्रु रहे हैं। जिसका इतिहास में जिक्र भी है कि ब्राह्मणों ने बौद्धों को गाजर मूली की तरह काटा है, जिंदा जलाया है। अतः अपनी इसी चिर-परिचित शत्रुता का निर्वाह उन्होंने बोधिसत्व संत रविदास जी से भी किया। ब्राह्मणों के कर्मकांडों का विरोध यदि एक जूते गांठने वाला चमार करे, तो यह बात आज भी बहुत बड़ी है। उस युग के डिब्बे बंद समाज के लिए यह बात कितनी बड़ी रही होगी, आसानी से समझा जा सकता है। रविदास जी यही सब कर रहे थे। अतरू वे ऊपर के दो प्रमुख वर्णों ब्राह्मणों और क्षत्रियों-दोनों की आंखों में खटक रहे थे। उच्च वर्ण आज भी देहातों में छोटी-छोटी बातों के लिए एस सी की हत्या कर देते हैं। तब की कठोर मनुवादी व्यवस्था में संत रविदास जी की हत्या एक मामूली बात रही होगी, क्योंकि इसमें ब्राह्मणों के साथ-साथ क्षत्रियों की भी सहमति रही होगी।
मीरा को यातनाएं उसकी भक्ति भावना के कारण नहीं दी जाती थी, बल्कि उसे यातनाएं इस बात के लिए दी जाती थी कि वह नित्य एक नीच संत के पास नीचों की बस्ती में क्यों जाती थी? मीरा के गुरु का चमार होना ही उसकी यातनाओं का मुख्य कारण था है। मीरा ने अपनी वाणी में भी इसका उल्लेख किया है। मनुवादियों को यह गवारा नहीं था। अतः मीरा अपने गुरु की हत्या का सबसे बड़ा कारण बनी, इसमें कोई शक नहीं रह जाता।
मीरा को जान से मारने के प्रयास दो बार किए गए। संत रविदास जी के मिशन के सहयोगी रहे संत पलटू साहिब को ब्राह्मणों ने उनकी झोपड़ी में आग लगाकर मार डालने का प्रयास किया। मीरा और पलटू जी की हत्या के प्रयासों को देखते हुए साबित हो जाता है कि मनुवादी अपने विरोधियों की हत्याएं तक करने पर उतर आए थे। ऐसे में उनके लिए संत रविदास जी की हत्या कोई बड़ी बात नहीं थी। मीरा के पदों में मृत्यु के प्रतीकों का होना, जिन्हें मैंने ‘मीरा का विलाप’ शीर्षक से दिया है। यह दर्शाता है कि संत रविदास जी की हत्या ही हुई थी। मीरा ने महल छोड़ने का निर्णय भी इसी कारण किया। जिस महल में उसके गुरु की हत्या हुई हो, वह वहाँ एक पल को भी नहीं रुक सकती थी। मीरा जैसी संस्कारवान हिंदू नारी ने अपने पति का घर यूं ही तो नहीं छोड़ दिया होगा। संत रविदास जी के चित्तौड़ में निर्वाण पर लगभग सभी विद्वान सहमत है। इससे भी चित्तौड़गढ़ में उनकी हत्या होने की बात को बल मिलता है।
संत रविदास जी चमत्कारवाद, पाखंडवाद के प्रबल विरोधी थे। उन्होंने अपना सीना चीर कर जनेऊ दिखाने का चमत्कार दिखाया होगा, यह बात सभी विद्वानों ने नकारी है। अतः इससे भी साबित होता है कि उनका सीना मनुवादियों द्वारा ही चीरा गया था। राणा के दरबार में घटी घटना (जिसे ब्राह्मणों ने चमत्कार कहा है) के बाद कहीं पर भी संत रविदास जी का उल्लेख नहीं मिलता है, इससे स्पष्ट हो जाता है कि वहीं वे निर्वाण को प्राप्त हो गए थे। काशी के राजा के दरबार में जो ब्राह्मणों और संत रविदास जी में वाद-विवाद हुआ था, उसके संकेत संत रविदास जी की वाणी में भी है। इसी प्रकार यदि राणा के दरबार में उन्होंने अपना सीना चीर कर जनेऊ दिखाए होते और वे इस घटना के बाद जिंदा रहे होते, तो वे इस घटना का जिक्र वाणी में भी जरूर करते। स्पष्ट है कि उनकी हत्या हो चुकी थी।
अपना सीना चीरने के लिए संत रविदास जी के पास हथियार-औजार (रंबी) कहां से आई? वे राजा के दरबार में कोई चमड़ा काटने तो नहीं गए थे। वे वहां अपने साथ रंबी क्यों ले जाते? स्पष्ट है कि यह एक कुप्रचार है कि उन्होंने अपना सीना स्वयं ही रंबी से चीर डाला। वास्तव में उनका सीना मनुवादियों ने ही चीरा था। राणाओं के किले में एक चमार का स्मारक कैसे बना? यह एक विचारणीय प्रश्न है। आज भी वहाँ के मनुवादी किसी एससी को शादी में घोड़ी पर नहीं बैठने देते। जब छुआछूत चरम सीमा पर थी, तब वहाँ एक चमार का स्मारक कैसे बना? यह प्रश्न उनकी हत्या की उलझी हुई गुत्थी को सुलझाने में बड़ा मददगार है, जिसका पूरा विवेचन मैंने पूर्व पृष्ठों में कर दिया है। इस आधार पर तो स्पष्ट है कि उनकी चित्तौड़गढ़ में हत्या हुई थी।
‘गढ़ तो चित्तौड़गढ़ बाकी सभी गढ़ैया’ जैसे मुहावरे भी ब्राह्मणों ने उसी जघन्य हत्याकांड के बाद रचे, क्योंकि उसी चित्तौड़गढ़ में जनचेतना की एक प्रचंड ज्योति को षड्यंत्र के तहत बुझाया गया था। कबीर साहेब के निर्वाण के बाद निर्गुणवाद की कमान संत रविदास जी के हाथ में आ गई थी। अतः वे इस समता मिशन के नायक बन चुके थे। लाजिमी है कि वे मनुवादियों की आंखों में खटक रहे थे। उनके प्रति कटुता बढ़ती ही जा रही थी, जिसकी परिणति उनकी हत्या के रूप में हुई।
संत रविदास जी के विषय में ‘रविदास रामायण’ में प्रसंग है ‘संदेह गुप्त’। ब्राह्मणों ने उनकी हत्या को जनेऊ दिखाने का चमत्कार घोषित कर दिया था, लेकिन आम जनता को इस ब्राह्मणवादी प्रचार-प्रपंच में कुछ न कुछ संदेह अर्थात शंका रही होगी। यह ‘संदेह गुप्त’ बाद में ‘सदेह गुप्त’ में परिवर्तित हुआ है। यह तथ्य भी उनकी हत्या की तरफ संकेत करता है। इसके अतिरिक्त अधिकांश दलित विचारक भी इस मत का समर्थन करते हैं कि संत रविदास जी की हत्या हुई थी।
राजकुमार, चन्दौली
मो.9506833426
(साभार -‘गुरु रविदास की हत्या के प्रमाणिक दस्तावेज’ के पृष्ठ 78, 79, 80 से)

1 टिप्पणी:

  1. बहुत ही विवेचनात्मक।
    उपरोक्त पुस्तक कहां से और कैसे मिलेगी सर।
    कृपया मार्गदर्शन करें।
    जय भीम, जय भारत।

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