मंगलवार, 26 सितंबर 2017

अम्बेडकर विदेशों में डाक्टरेट की डिग्री पूरा करने वाले पहले भारतीय थे





वर्ष 2016 बाबा साहब अम्बेडकर की 125 जन्म वर्ष का जश्न

1.इंसानों को गुलाम बनाकर हज़ारों बादशाह बने हैं, लेकिन जो गुलामों को इंसान बनाए वो हैं देश 

2.अम्बेडकर विदेशों में डाक्टरेट की डिग्री पूरा करने वाले पहले भारतीय थे

3.कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय, इंग्लैंड के अनुसार आंबेडकर 64 से अधिक विषयों में महारत रखते थे जो आज तक विशव रिकॉर्ड है ,और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय, इंग्लैंड ने सन् 2011 में उन्हें विशव का सबसे प्रतिभाशाली व्यकति घोषित किया

4.डॉ बाबासाहब अंबेडकर 9 भाषाएँ जानते थे, मराठी (मातृभाषा),हिन्दी, संस्कृत, गुजराती, अंग्रेज़ी,पारसी,जर्मन, फ्रेंच, पाली उन्होंने पाली व्याकरण और शब्दकोष (डिक्शनरी) भी लिखी थी, जो महाराष्ट्र सरकार ने " डॉ बाबासाहेब आंबेडकर राइटिंग एंड स्पीचेस वॉल्यूम .16 "में प्रकाशित की हैं।

5.आंबेडकर दक्षिण एशिया में अर्थशास्त्र में पीएचडी करने वाले पहले व्यकति थे और साथ ही दक्षिण एशिया अर्थशास्त्र में डबल डॉक्टरेट करने वाले भी वह पहले व्यकति थे

6.एक मात्र भारतीय जिनका फोटो ब्रिटेन स्थित लंदन संग्रहालय में कार्ल मार्क्स के साथ लगा है

7.आंबेडकर अर्थशास्त्र में डॉक्ट्रेट ऑफ़ साइंस करने वाले पहले भारतीय थे

8.यूनाइटेड नेशन ने आंबेडकर के जन्म दिन को विशव ज्ञान दिवस के रूप में मानाने का निर्णय लिया है

9.आंबेडकर के पास 21 विषयों में डिग्री थी जो आज तक रिकॉर्ड है,जिस में उन्होंने 9 डिग्री विदेश में और 12 डिग्री भारत में प्राप्त की है

10.आंबेडकर ने वायसराय की कार्यकारी परिषद में श्रम सदस्य रहते हुए डॉ. आंबेडकर ने पहली बार महिलाओं के लिए प्रसूति अवकाश (मैटरनल लिव) की व्यवस्था की थी उन्होंने महिलाओ को तलाक का अधिकार भी दिलवाया

11.भारतीय रिज़र्व बैंक की स्थापना सन् 1925 में डा अम्बेडकर द्वारा "हिल्टन –यंग कमीशन" को प्रस्तुत दिशा निर्देशों के आधार पर की गयी थी ,इस कमीशन का आधार आंबेडकर की किताब "रूपये की समस्या- उस का उदगम और निदान " को आधार बना के ब्रिटिश सरकार द्वारा की गयी थी ,जो उस समय पहले विशव युद्ध के बाद आर्थिक परेशानियों का सामना कर रही थी

12.प्रोफेसर अमर्त्य सेन, 6 वे भारतीय जिन्हे नोबल पुरुस्कार मिला अर्थशास्त्री में उन्होंने कहा था "डॉ बी आर अम्बेडकर अर्थशास्त्र में मेरे पिता है।"

13.13 वे वित्त आयोग की सभी रिपोर्ट के संदर्भ के मूल स्रोत,1923 में लिखित डा अम्बेडकर पीएचडी थीसिस,"ब्रिटिश भारत में प्रांतीय वित्त विकास" पर आधारित थे

14.यह आंबेडकर ही थे जिन्होंने 7 वें भारतीय श्रम सम्मेलन में यह कानून लागु करवाया की भारत में मजदूर 14 घंटे की बजाये केवल 8 घंटे काम करेंगे

15.दामोदर घाटी परियोजना और हीराकुंड परियोजना और सोन नदी परियोजना के निर्माता :- डॉ बाबासाहेब आंबेडकर ने ही अमेरिका के टेनेसी वैली परियोजना की तर्ज पर दामोदर घाटी परियोजना की शुरवाती रुपरेखा तैयार की ,केवल दामोदर घाटी परियोजना ही नहीं लेकिन हीराकुंड परियोजना इतना ही नहीं, सोन नदी घाटी परियोजना भी उनके द्वारा तैयार की गयी। 1945 में, डॉ बाबासाहेब अम्बेडकर की अध्यक्षता में,श्रम के सदस्याें, द्वारा महानदी के प्रवाह को नियंत्रित करने के लिए एक बहुउद्देशीय परियोजना में निवेश का निर्णय लिया गया था

16.आंबेडकर की मूर्ति जापान के कोयासन यूनिवर्सिटी में , कोलंबिया यूनिवर्सिटी अमेरिका में भी लगाई गयी है

17.आंबेडकर यह चाहते थे की भारत की नदियों को एक साथ जोड़ दिया जाये ,जिस की वजह थी की बाढ़-और सूखे की समस्या ने निबटा जा सके उन्होंने जल नीति के बारे में अनुछेद 239और 242को समझते हुए कहा था की अन्तर्राज्यीय नदी को जोड़ना और नदी घाटी को विकसित करना जनहित में अनिवार्य है जिस का दायित्व शासन का है

18.आंबेडकर जम्मू और कश्मीर के लिए अलग संविधान के पक्ष में नहीं थे और उन्होंने जम्मू और कश्मीर के लिए 370 धारा नहीं लिखने का फैसला लिया जिसे बाद में और किसी से लिखवाया गया

19.अंबेडकर ने महिलाओं के लिए एक विवाह अधिनियम , गोद लेने,का अधिकार तलाक, शिक्षा का अधिकार आदि बनाया जिस का रूढ़िवादी समाज द्वारा विरोध किया गया लिकेन बाद में अलग अलग हिस्सों में आंबेडकर ने बनाये कानूनो को पास किया गया और लागु किया गया ,यह अम्बेकर का भारत की महिलो के लिए योगदान था

20.डॉ अम्बेडकर ने राज्यों के बेहतर विकास के लिए मध्यप्रदेश को उत्तरी और दक्षिणी भाग में बाटने का और बिहार को भी दो हिस्सों में बटाने का सुझाव सन 1955 में दिया था ,जिस पर लगभग 45सालो बाद आमाल किया गया और मध्यप्रदेश को छत्तीसगढ़ में ,और बिहार को झारखंड में बाटा गया यह थी अम्बेकर की दूरदर्शिता

21.संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रतिष्ठित कोलंबिया विश्वविद्यालय से 2004 में अपनी स्थापना के 250 वर्ष पूरे कर लिए,और इस बात के जशन ने कोलंबिया विश्वविद्यालय ने अपने 100अग्रणी छात्रों की सूची जारी की जिस में आंबेडकर का नाम भी है इस के साथ ही साथ इस सूची में 6 अलग अलग देशों के पूर्व राष्ट्पति ,3 पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपतियों और कुछ नोबेल पुरस्कार विजेताओं का नाम भी है

21.बेल्जियम के सबसे प्रतिष्ठित और सबसे पुराने विश्वविद्यालय में से एक के यू लिउवेन ने भी भारत के संविधान दिवस के दिन 2015 में आंबेडकर का सम्मान किया और उनके नाम से पुरुस्कार देने की घोषणा की 

22.अम्बेकर की मूर्ति यॉर्क यूनिवर्सिटी , कनाडा में भी लगाई गई है

23.डॉ अम्बेडकर को भारत का प्रथम कानून मंत्री होने का श्रेय भी प्रपात है

24.डॉ बाबासाहेब आंबेडकर के द्वारा ही सरकारी क्षेत्र में कौशल विकास पहल शुरू की गयी

25.कर्मचारी राज्य बीमा (ईएसआई):ईएसआई श्रमिकों को चिकित्सा देखभाल,मेडिकल लीव ( बीमार हो जाने पर मिलने वाली छुट्टी ),काम के दौरान शारीरिक रूप से अक्षम हो जाने पर विभिन्न सुविधाएं प्रदान करने के लिए क्षतिपूर्ति बीमा प्रदान करता है। डॉ अम्बेडकर ने ही इस अधिनियम को बनाया था और लागु करवाया ,औरपूर्व एशियाई देशों में मजदूरो के लिए 'बीमा अधिनियम' लागु करने वाला भारत पहला देेश बना यह डॉ बाबासाहेब आंबेडकर ही संभव हो सका

26.डॉ बाबासाहेब आंबेडकर ने श्रम विभाग में रहते हुए भारत में " ग्रिड सिस्टम" के महत्व और आवश्यकता पर बल दिया,जो आज भी सफलतापूर्वक काम कर रहा है,

27.डॉ बाबासाहेब आंबेडकर के मार्गदर्शन में श्रम विभाग ही था जिसने "केंद्रीय तकनीकी विद्युत बोर्ड" (CTPB) की स्थापना करने का निर्णय लिया बिजली प्रणाली के विकास, जल विद्युत स्टेशन साइटों, हाइड्रो-इलेक्ट्रिक सर्वेक्षण ,बिजली उत्पादन और थर्मल पावर स्टेशन की जांच पड़ताल की समस्याओं का विश्लेषण इस का प्रमुख काम थे ,

28.बिजली इंजीनियरों जो प्रशिक्षण के लिए विदेश जा रहे हैं,इसका श्रेय भी डॉ बाबासाहेब अम्बेडकर को जाता है जिन्होंने श्रम विभाग के एक नेता के रूप में अच्छे सबसे अच्छा इंजीनियराें को विदेश में प्रशिक्षण देने की नीति तैयार की

29.1942 में, डॉ बाबासाहेब आंबेडकर भारतीय सांख्यिकी अधिनियम पारित करवाया । जिस के बाद डीके पैसेंड्री ((पूर्व उप प्रधान, सूचना अधिकारी, भारत सरकार) ने अपनी किताब में लिखा की डा अम्बेडकर के भारतीय सांख्यिकी अधिनियम के बिना मैं देश में मजदूरो की स्तिथि, उनके श्रम की स्थिति,उनकी मजदूरी दर, अन्य आय, मुद्रास्फीति, ऋण, आवास, रोजगार, जमा और अन्य धन, श्रम विवाद का आकलन नहीं कर पाता।

30.भारतीय श्रम अधिनियम 1926 में अधिनियमित किया गया था। यह केवल ट्रेड यूनियनों रजिस्टर करने के लिए मदद करता था , लेकिन यह सरकार द्वारा अनुमोदित नहीं किया गया था, 8 नवंबर 1943 को डॉ भीमराव अम्बेडकर ट्रेड यूनियनों की अनिवार्य मान्यता के लिए इंडियन ट्रेड यूनियन (संशोधन) विधेयक लाया।

31.डॉ आंबेडकर ने देश में महिलाओ की स्थिति सुधरने के लिए सन् 1951 में उन्होंने 'हिंदू कोड बिल' संसद में पेश कियाडॉ. आंबेडकर प्राय: कहा करते थे कि मैं हिंदू कोड बिल पास कराकर भारत की समस्त नारी जाति का कल्याण करना चाहता हूं। मैंने हिंदू कोड पर विचार होने वाले दिनों में पतियों द्वारा छोड़ दी गई अनेक युवतियों और प्रौढ़ महिलाओं को देखा। उनके पतियों ने उनके जीवन-निर्वाह के लिए नाममात्र का चार-पांच रुपये मासिक गुजारा बांधा हुआ था। वे औरतें ऐसी दयनीय दशा के दिन अपने माता-पिता, या भाई-बंधुओं के साथ रो-रोकर व्यतीत कर रही थीं।उनके अभिभावकों के हृदय भी अपनी ऐसी बहनों तथा पुत्रियों को देख-देख कर शोकसंतप्त रहते थे।

32.विश्व में सबसे अधिक पुतले बाबासाहब अंबेडकर जी के हैं।

33.लंदन विश्वविद्यालय मे डी.एस्.सी.यह उपाधी पानेवाले पहले और आखिरी भारतीय

34.लंदन विश्वविद्यालय का 8 साल का पाठ्यक्रम 3 सालों मे पूरा
करनेवाले महामानव

35.बाबा साहेब द्वारा स्थापित शैक्षणिक संघटन, डिप्रेस क्लास एज्युकेशन सोसायटी- 14 जून 1928,, पीपल्स एज्युकेशन सोसायटी- 8 जुलै 1945,सिद्धार्थ काॅलेज, मुंबई- 20 जून 1946,मिलींद काॅलेज, औरंगाबाद- 1 जून 1950

36.बाबासाहब अंबेडकर जी ने संसद में पेश किए हुए विधेयक,महार वेतन बिल,हिन्दू कोड बिल,जनप्रतिनिधि बिल, खोती बिल, मंत्रीओं का वेतन बिल, मजदूरों के लिए वेतन (सैलरी) बिल, रोजगार विनिमय सेवा, पेंशन बिल,भविष्य निर्वाह निधी (पी.एफ्.)

37.तीनो गोल मेज़ परिषद में भाग लेने वाले एक मात्र नेता

38.आंबेडकर ने वायसराय की कार्यकारी परिषद में श्रम सदस्य रहते हुए डॉ. आंबेडकर ने पहली बार महिलाओं के लिए प्रसूति अवकाश (मैटरनल लिव) की व्यवस्था की थी उन्होंने महिलाओ को तलाक का अधिकार भी दिलवाया

39.लंदन विश्वविद्यालय के पुरे लाईब्ररी के किताबों की छानबीन कर उसकी
जानकारी रखनेवाले एकमात्र आदमी

40.बाबासाहब अंबेडकर को प्राप्त सम्मान,भारत रत्न, कोलंबिया यूनिवर्सिटी की और से उन्हें द ग्रेटेस्ट मैन इन द वर्ल्ड कहा गया ,ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी द्वारा उन्हें द यूनिवर्स मेकर कहा गया ,सीएनएन आईबीएन, आउटलुक मैगज़ीन और हिस्ट्री (टीवी चैनल)द्वारा कराये गए एक सर्व में आज़ादी के बाद आंबेडकर को बाद देश का सबसे महान व्यकति चुना गया,

41.आंबेडकर ने 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर की दीक्षाभूमि अपने 600,000 अनुयायियों के साथ हिन्दू धर्म की जाति प्रथा से तंग आकर बौद्ध धर्म अपनाया जो विशव इतिहास में आज तक का स्वय इच्छा से किया गया सबसे बड़ा धर्म परिवर्तन है

42.बाबासाहब अंबेडकर जी इनकी निजी किताबो के कलेक्शन में अंग्रेजी साहित्य की 1300 किताबें,राजनितीकी 3,000 किताबें, युद्धशास्त्र की 300 किताबें, अर्थशास्त्र की 1100 किताबें,इतिहास की 2,600 किताबें, धर्म की 2000 किताबें,कानून की 5,000 किताबें ,संस्कृत की 200 किताबें,मराठी की 800 किताबें , हिन्दी की 500 किताबें,तत्वज्ञान (फिलाॅसाफी) की 600 किताबें,रिपोर्ट की 1,000, संदर्भ साहित्य (रेफरेंस बुक्स) की 400 किताबें, पत्र और भाषण की 600,जिवनीयाँ (बायोग्राफी) की 1200, एनसाक्लोपिडिया ऑफ ब्रिटेनिका- 1 से 29 खंड,एनसाक्लोपिडिया ऑफ सोशल सायंस- 1 से 15 खंड,कैथाॅलिक एनसाक्लोपिडिया- 1 से 12 खंड,एनसाक्लोपिडिया ऑफ एज्युकेशन,हिस्टोरियन्स् हिस्ट्री ऑफ दि वर्ल्ड- 1 से 25 खंड,दिल्ली में रखी गई किताबें-बुद्ध धम्म, पालि साहित्य, मराठी साहित्य की 2000 किताबें और बाकी विषयों की 2305 किताबें थी बाबासाहब जब अमेरिका से भारत लौट आए तब एक बोट दुर्घटना में उनकी 32 बक्से किताबें समंदर मे डूबी।

डॉ. अम्बेडकर की राइटिंग पर सरकार का पहरा



नई दिल्ली। Sorry for the inconvenience. भारत सरकार के विदेश मंत्रालय की वेबसाइट पर बाबासाहेब की राइटिंग और स्पीच पढ़ने की कोशिश के दौरान ये शब्द आपको 19 बार लगातार पढ़ने को मिलेगा. और हर एक क्लिक के साथ ये खेद बाबासाहेब की राइटिंग औऱ स्पीच को पढ़ने के लिए मंत्रालय की वेबसाइट पर जाने वालों के लिए खीज पैदा कर सकता है. ऐसा कब से हो रहा है ये तो नहीं पता, लेकिन हाल ही में नागपुर के यश वासनिक (दलित दस्तक के पाठक) के जरिए यह मामला सामने आया है.
सरकार द्वारा डॉ. अम्बेडकर के विचारों पर पहरा लगाने की इस कवायद से डॉ. अम्बेडकर को पढ़ने में रुचि रखने वाले शोधार्थियों एवं अन्य लोगों को तमाम मुश्किलों का सामना करना पर रहा है. इससे सरकार की मंशा पर भी सवाल उठने लगे हैं. माना जा रहा है कि बाबासाहेब के मानवतावादी विचार हिन्दुत्व के पोषकों के खिलाफ जाता है, इसलिए सरकार नहीं चाहती है कि बाबासाहेब के विचार लोगों तक पहुंचे. बाबासाहेब की राइटिंग और स्पीच को सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी खूब पढ़ा जाता है.
बदलते वक्त में वो डॉ. अम्बेडकर ही हैं, जिन्हें आज सबसे ज्यादा खोजा और पढ़ा जा रहा है. लेकिन संघ समर्थित भारतीय जनता पार्टी की सरकार में यह सच्चाई सामने आने के बाद यह साफ माना जा रहा है कि ऐसा जानबूझ कर किया गया है, क्योंकि इस लिंक के अलावा वेबसाइट पर मौजूद तमाम लिंक आसानी से खुल रहे हैं. इसे नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार का भारत रत्न डॉ. अम्बेडकर को लेकर दोहरा चरित्र भी उजागर हुआ है. क्योंकि बीते अप्रैल माह में इसी सरकार ने अम्बेडकर जयंती को धूमधाम से मनाने का खूब ढोंग रचा. जहां-जहां भाजपा की सरकार थी; वहां अम्बेडकर जयंती को लेकर खूब प्रपंच रचा गया. बाबासाहेब को हिन्दुवादी प्रतीकों से जोड़ने की भी खूब कोशिश की गई. इससे अम्बेडकरवादी संगठनों में केंद्र और भाजपा शासित राज्य सरकारों को लेकर काफी नाराजगी भी रही.
भाजपा सरकार पर इसलिए भी सवाल उठ रहा है क्योंकि वह बाबासाहेब को खुद से जोड़ने की कोशिश तो कर रही है लेकिन उनके विचारों पर प्रतिबंध लगा रही है. यही नहीं कई जगहों पर बाबासाहेब के विचारों को हिन्दुत्ववादी साफे में लपेट कर परोसने की कोशिश हो रही है और उन्हें जबरन हिन्दुत्व से जोड़ा जा रहा है, जबकि हकीकत यह है कि बाबासाहेब ने सालों पहले हिन्दू धर्म में मौजूद जाति व्यवस्था के खिलाफ मानवतावादी बौद्ध धम्म की शरण ले ली थी. बाबासाहेब चाहते थे कि उनके विचारों का ज्यादा से ज्यादा प्रचार हो, लेकिन यह सरकार अपना राजनैतिक हित साधने के लिए सिर्फ बाबासाहेब का नाम तो ले रही है लेकिन उनके विचारों पर पहरा लगा रही है

सन्त कबीर


हमने अक्सर सुना होगा की संत कबीर को मुसलमान मुसलमान मानते हैं और हिन्दू हिन्दू मानते हैं, इस बात पर विवाद रहा है |पर जब हम बहुजन/बौद्ध/मूलनिवासी विचारधारा और कबीर की विचारधारा की तुलना करते हैं तो इस विवाद का सही उत्तर पाते हैं|
संत कबीर ने धर्म और ईश्वर दोनों के पक्ष में भी लिखा है तो विपक्ष में भी लिखा है, ये गौर करने वाली बात है ऐसा क्यों|गुरु कबीर ने उस ज़माने में प्रचलित ईश्वरीय नामों के पक्ष में कुछ साहित्य रचा था, पर लगता है वो साहित्य उनके शुरुआती दिनों का होगा| कोई भी विचारक जब अध्यात्म की खोज शुरू करता है तब वो उस समय की प्रचलित भक्ति में शांति खोजने लगता है, शुरुआत यहीं से होती है|पर जब कहीं भी शांति नहीं मिलती तब अंततः वो सत्य या धम्म को पा ही लेता है| इसीलिए बाद में जब वो जागे होंगे तब उन्होंने जो साहित्य रचा उसे पढ़ने पर हम जान सकते हैं की वो राम और अल्लाह दोनों के विरोध में है अर्थात धर्म और ईश्वरवाद के विरोध में है और मानवता के पक्ष में है|यही कारन हो सकता है की कबीर के साहित्य में धर्म के पक्ष और विपक्ष दोनों के स्वर मिलते हैं |
वास्तव में न हिन्दू थे न मुसलमान, वो तो धर्म मुक्त थे, धर्म को ही मानवता विरोधी मानते थे, उनकी विचारधारा तो बहुजन/बौद्ध/मूलनिवासी विचारधारा थी, उनकी विचारधारा बौद्ध थी पर वो बौद्ध थे ऐसा भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि जब रविदास, कबीरदास जैसे संत मौजूद थे उन सदियों में भारत से बौद्ध विचारधारा और बौद्ध संस्कृति का दमन किया जा चुका था, तो ऐसे में बौद्ध विचारधारा इन तक कैसे पहुचती, पर ये निश्चित है की अगर बौद्ध विचारधारा उपलब्ध होती तो ये संत बौद्ध ही कहलाये गए होते |भक्ति काल से लेकर जब अंग्रेजों ने भारत में खुदाई कर के बौद्ध अवशेषों को निकला नया पांच रंगी झंडा बनाया तब तक सात सौ साल बौद्ध धम्म भारत में सोया रहा था| ऐसे में  संत कबीर संत रविदास और उस ज़माने के अन्य संतों तक  बुद्ध का सन्देश नहीं पहुंच पाया, पर ये भी तय है की असल बौद्ध विचारधारा और बहुजन संतों की विचारधारा एक ही दिशा में है,मानवतावाद के पक्ष में और धर्म के विरोध में है| जो जानेगा वो महसूस करेगा और वो मानेगा|बहुजन विचारधारा को अगर एक वाकये में कहूँ तो इसका मतलब है जिओ और जीने दो, ईश्वरवाद से भी बड़ा है न्याय, न्याय से बड़ा कुछ भी नहीं ..
असल में ये जिंदगी का नियम है की “बात का मतलब कोई नहीं समझता  मतलब की बात सभी समझ लेते हैं|” कबीर के साहित्य  में से ऐसा कुछ भी जो हिन्दुओं के हित की बात है वो हिन्दुओं ने चुन ली जो मुस्लिमों के हित की बात है वो मुस्लिमों ने चुन ली और वही बाजार में उपलब्ध है | और जो उनके हित की बात नहीं वो छोड़ दी|जब दोनों पक्षों का कबीर साहित्य जोड़ कर पड़ते हैं तो हम पाते हैं की कबीर न हिन्दू थे न मुस्लमान वो तो मानवतावादी थे| ..
नीचे दिए हुए कबीर के लेखन से हम जान सकते हैं की उनकी विचारधारा राम और अल्लाह दोनों से अलग है|

कबीरा कुआं एक है और पानी भरें अनेक
भांडे ही में भेद है, पानी सबमें एक ।।

भला हुआ मोरी गगरी फूटी,
kabeer
मैं पनियां भरन से छूटी
मोरे सिर से टली बला… ।।

भला हुआ मोरी  माला टूटी,
मैं तो राम भजन से छूटी
मोरे सिर से टली बला… ।।

माला कहे है है काठ की ,कबीरा तू का फेरत मोहे
मन का मनका फेर दे तो तुरत मिला दूँ तोहे
भला हुआ मोरी  माला टूटी
मैं तो राम भजन से छूटी
मोरे सिर से टली बला… ।।

माला जपु न कर जपूं और मुख से कहूँ न राम
राम हमारा हमें जपे रे कबीरा हम पायों विश्राम
मोरे सिर से टली बला… ।।

कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई बनाय।
ता चढि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय॥
कबीरा बहरा हुआ खुदाय

हद हद करते सब गए बेहद गयो न कोई
अरे अनहद के मैदान में कबीरा रहा कबीरा सोये
हद हद जपे सो औलिये, बेहद जपे सो पीर
हद(बौंडर) अनहद दोनों जपे सो वाको नाम फ़कीर
कबीरा वाको नाम फ़कीर….

दुनिया कितनी बाबरी जो पत्थर पूजन जाए
घर की जाकी कोई न पूजे कबीरा जका पीसा खाए
चाकी चाकी…..
चलती चाकी देखकर दिया कबीरा रोए
दो पाटन के बीच यार साबुत बचा ना कोए ।।
चाकी चाकी सब कहें और कीली कहे ना कोए
जो कीली से लाग रहे, बाका बाल ना बीका होए ।।

हर मरैं तो हम मरैं, और हमरी मरी बलाए
साचैं उनका बालका कबीरा, मरै ना मारा जाए ।

माटी कहे कुम्‍हार से तू का रोधत मोए
एक दिन ऐसा आयेगा कि मैं रौंदूगी तोय ।।
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।

अर्थ : कबीर कहते हैं कि हिन्दू राम के भक्त हैं और तुर्क (मुस्लिम) को रहमान प्यारा है. इसी बात पर दोनों लड़-लड़ कर मौत के मुंह में जा पहुंचे, तब भी दोनों में से कोई सच को न जान पाया।
कबीर – एक महान क्रन्तिकारी – कबीर साहब के आश्रम के पास एक मंदिर था। एक दिन कबीर साहब की बकरी मंदिर के अन्दर प्रवेश कर गयी। मंदिर का पुजारी ब्राम्हण कबीर साहब के पास पहुंचा और कहा ‘कबीर’! तुम्हारी बकरी मंदिर में प्रवेश कर गयी है जो ठीक नहीं है। कबीर साहब ने जवाब दिया – पंडित! जानवर है, प्रवेश कर गयी होगी, मै तो नहीं गया। जवाब सुनकर मंदिर का पुजारी ब्राह्मण निरुत्तर हो गया।
बहुजन/बौद्ध/मूलनिवासी  विचारधारा न ब्राह्मणवादी/हिंदूवादी है न ही इस्लाम समर्थित है |धर्म वही फलता फूलता है जिसको राजनैतिक सरक्षण प्राप्त होता है,बहुजन विचारधारा को राजनैतिक सरक्षण केवल बौद्ध राजाओं ने ही दिया था जबकि पिछली सदियों में राजनीती या तो ब्राह्मणवादी/हिंदूवादी रही या इस्लामवादी|  | इन तथ्यों से आप समाज सकते हो की क्यों बौद्ध सामाजिक और आर्थिक दृस्टि से पिछड़ गए| अपनी सुरक्षा के लिए बहुजन दो भागों में बंट गए कुछ मुसलमान हो गए कुछ हिन्दू हो गए, पर जो हिन्दू हो गए उनको वर्णव्यस्था में सबसे नीचे जगह मिली, वो शूद्र कहलाये, मतलब उनको संसाधनों में कोई भागीदारी नहीं दी गयी, उल्टा जानवरों से बत्तर जीवन बनाया गया| अब जो हिन्दू बहुजन भारतवासी हैं उनमे डॉ आंबेडकर की वजह से खुद को पहचानने और बौद्ध धम्म में लौटने की चेतना जगी है पर जो बहुजन मुसलमान हो गए वो कट्टरता की वजह से तुलनात्मक अध्ययन नहीं करते, इकतरफा सोच और इस्लाम से बहार न झाकने की आदत के चलते उन तक बहुजन विचारधारा नहीं पहुंच सकती|जो बौद्ध धम्म सात सौ सालों तक भारत में सोया रहा, अब जब विज्ञानं और शिक्षा के दरवाजे  सबके लिए खोल दिए गए हैं तब कैसे तेजी से बौद्ध धम्म खड़ा होता जा रहा है, कितना भी रौंदों पर समय सबका आता है| इसीलिए नाम चुना है= समय + बुद्धा …//समयबुद्धा//…केवल समय ही सर्व शक्ति समर्थ है , और बुद्ध मार्ग से ही मानवता ख़ुशाल हो सकती है|आज के समय जिस तरह धर्म राजनैतिक खेमे या गुटों में तब्दील हो गए हैं, इससे मानवता के लिए खतरा हो चला है, ये बारूद इकठ्ठा करने वाली बात है जो कभी न कभी फटेगा और तब भले ही हुंिड मरे या मुसलमान लेकिन असल में मरेगा इंसान, और जो इनको लड़वाएंगे वो अपने महलों में अपने सेना के बीच सुरक्षित रहेंगे|

संत कबीर प्रतिदिन स्नान करने के लिए गंगा तट पर जाया करते थे. एक दिन उन्होंने देखा की पानी काफी गहरा होने के कारण कुछ ब्राह्मणों को जल में घुसकर स्नान करने का साहस नहीं हो रहा है. उन्होंने अपना लोटा मांज धोकर एक व्यक्ति को दिया और कहा की जाओ ब्राह्मणों को दे आओ ताकि वे भी सुविधा से गंगा स्नान कर लें.
कबीर का लोटा देखकर ब्राह्मण चिल्ला उठे–अरे जुलाहे के लोटे को दूर रखो. इससे गंगा स्नान करके तो हम अपवित्र हो जायेंगे.
कबीर आश्चर्यचकित होकर बोले–इस लोटे को कई बार मिट्टी से मांजा और गंगा जल से धोया, फिर भी साफ़ न हुआ तो दुर्भावनाओं से भरा यह मानव शरीर गंगा में स्नान करने से कैसे पवित्र होगा?
सदा ध्यान रखें :
“भारत के बहुजन लोग 6000 से भी ज्यादा जातियों में बिखरे हैं,और अपनी जाती को अपना झंडा मानकर अलग अलग शोषित होते रहते हैं, जब एक जाती पर आपत्ति आती है तो दूसरी चुप बैठती है|इसका एक ही समाधान है की सभी जाती तोड़ो और एक ही पहचान “बौद्ध” हो जाओ|क्योंकि ‘धर्म’ मानव संगठन का एक स्थाई झंडा है, बाकि के झंडे जैसे कोई राजा,कोई दार्शनिक,कोई पंचायत,कोई देवता,राजनेतिक पार्टी अदि समय गुजरने के साथ अपना महत्व खो देते हैं|लोहिया जी न सही कहा है “राजनीती अल्पकालीन धर्म है पर धर्म दीर्घकालिक राजनीती|”.

उरझि-पुरझि करि मरि रह्या, चारिउ वेदा माँहि।।
(क.ग्र. पृष्ठ 28)
कहु पाँडे कैसी सुचि कीजै।
        सुचि कीजै तौ जनम न लीजै।।
(वही, पृष्ठ 129)
ब्राह्मण के साथ कबीर का अत्यन्त तीखा संवाद है। उसे देखकर ऐसा लगता है, जैसे एक महासंग्राम था कबीर और ब्राह्मण के बीच। क्या यह महासंग्राम नेतृत्व को लेकर था? यदि हाँ, तो नेतृत्व की यह लड़ाई किस क्षेत्र में थी? ब्राह्मण हिन्दू धर्म, समाज और सत्ता तीनों का अगुवा था। क्या कबीर उससे यह अगुवाई छीनना चाहते थे? अवश्य ही ऐसा नहीं था। ‘ना हिन्दू और ना मुसलमान’ चेतना के कबीर को ब्राह्मण के हिन्दुओं का नेतृत्व करने पर कोई ऐतराज नहीं था। वह शाक्तों, शैवों, वैष्णवों, सिद्ध – योगियों का भी नेतृत्व कर रहा था, इससे भी उन्हें कोई समस्या नहीं थी। उन्हें समस्या इस बात को लेकर थी कि ब्राह्मण दलित जातियों का भी नेता बन रहा था। ब्राह्मण का ‘हिन्दू देव’ बना रहना ठीक था, पर कबीर उसे ‘भू-देव’ नहीं बनने देना चाहते थे। आठवीं-नौवीं सदी में शंकराचार्य हुए, जिन्हें ब्राह्मणों ने ‘जगदगुरु’ की पदवी दी। यह पदवी उनके बाद भी चलती रही, न केवल कबीर के समय में, बल्कि वह आज भी चल रही है। ब्राह्मण उन्हें सम्पूर्ण जगत का गुरु मानते थे, जिनमें सम्पूर्ण हिन्दुओं के साथ-साथ दलित जातियों को भी उसमें शामिल कर लिया गया था। इसलिये कबीर ने सबसे पहला प्रहार इसी धरणा पर किया।
उन्होंने कहा-
ब्राह्मण गुरु जगत का, साधु का गुरु नाहिं।
उरझि-पुरझि करि मरि रह्या, चारिउ वेदा माँहि।।
(वही, पृष्ठ 28)
यहाँ ‘साधु’ कबीर ने अपने निर्गुणधर्मी साध्ुओं को कहा है। यह साखी ‘जगदगुरु’ की पदवी का भी खण्डन करती है। यद्यपि 15वीं सदी में किसी जगदगुरु शंकराचार्य की उपस्थिति का पता नहीं चलता, पर यह एक धारणा थी, जिसे मनु ने हिन्दुओं के मनों में स्थापित किया था कि ब्राह्मण सारे संसार का गुरु है। कबीर पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने ब्राह्मण की विश्व गुरु की धारणा को खण्डित कर दिया था। यहाँ यह सवाल उठाया जा सकता है कि बुद्ध और सिद्धों ने भी ब्राह्मण का खण्डन किया है। इस प्रसंग में दो बातें समझने की हैं। पहली, यह कि बुद्ध द्विज श्रेणी में आते हैं और सिद्धों में केवल सरहपाद ने ब्राह्मण का खण्डन किया है, जिनके ‘ब्राह्मण’ वर्ण का होने पर विवाद है। बुद्ध ने ब्राह्मण का खण्डन क्षत्रिय को उसके स्थान पर स्थापित करने के लिये किया था। उन्होंने वर्ण व्यवस्था का खण्डन नहीं किया था, बल्कि उसे गुण-कर्म के आधार पर स्वीकार किया था। ‘धम्मपद’ में ‘ब्राह्मण बग्ग’ में कहा गया है कि ‘‘माता की योनि से उत्पन्न होने के कारण किसी को मैं ब्राह्मण नहीं कहता। यदि वह धन सम्पन्न है, तो केवल ‘भो-वादी’ है। मैं ब्राह्मण उसे कहता हूँ, जो अपरिग्रही और त्यागी है।’’ (26/14) किन्तु, इसी ‘वग्ग’ में बुद्ध, ठीक मनु के शब्दों में यह भी कहते हैंµ ‘‘ब्राह्मण पर प्रहार नहीं करना चाहिये। जो ब्राह्मण को मारता है, उसे धिक्कार है।’’ (26/7) अतः बुद्ध और ब्राह्मण का संघर्ष ‘वर्ण-संघर्ष’ के सिवा कुछ नहीं था। क्षत्रिय और ब्राह्मणों के बीच ऐसे वर्ण-संघर्ष को डा. आंबेडकर ने अपनी रचनाओं में काफी रेखांकित किया है। (वाघमय, खण्ड-7, अ.-11) यद्यपि सरह का ब्राह्मण होना प्रमाणित नहीं होता, पर विद्वान उन्हें ब्राह्मण ही मानते हैं। ब्राह्मण के खण्डन में उनका यह दोहा मिलता हैµ
ब्रम्हणेति य जानन्तहि भेउ।
एवइ पढिअउ ए च्चड वेउ।।
(दो.को., पृष्ठ 2)
अर्थात्- ब्राह्मण चारों वेद यों ही पढ़ लेता है, उसका अर्थ नहीं जानता।
यह ब्राह्मण का खण्डन नहीं है, बल्कि इसमें सरह यह कहते हैं कि ब्राह्मण वेदों को अर्थ के साथ नहीं पढ़ता, इसलिये धर्म-अधर्म को नहीं जानता। अतः न तो बुद्ध और न सिद्ध सरह ही ब्राह्मण की सर्वश्रेष्ठता, सर्वोच्चता और गुरुता का खण्डन करते हैं। यह कबीर ही हैं, जो जन्मना ही नहीं, कर्मणा भी, ब्राह्मण की गुरुता को स्वीकार नहीं करते। कबीर के ठीक पाँच सौ साल बाद इतिहास अपने को दोहराता है, जब कबीर की भाषा में डाॅ. आंबेडकर ब्राह्मण की श्रेष्ठता को चुनौती देते हैं। (वाघमय, खण्ड-14, दे. प्रस्तावना)
क्हा जाता है कि कबीर के समय में हिन्दुओं के नेता रामानन्द थे। वे बनारस मंे भक्ति आन्दोलन के अगुवा थे। उनके सम्बन्ध में हिन्दी के विद्वानों ने खूब कहानियाँ गढ़ी हैं, यथा वे जाति-पाँति नहीं मानते थे और जाति का ख्याल किये बिना उन्होंने शूद्रों को भी भक्ति-साधना में दीक्षित किया था। ऐसी कहानियाँ इन विद्वानों ने कबीर को उनका शिष्य बताने के लिये गढ़ी हैं। हकीकत यह थी कि रामानन्द जाति-पांति के न केवल कट्टर समर्थक थे, वरन् उसका पालन भी करते थे। वे अछूत की छाया से भी बचकर रहते थे। इसका प्रमाण हमें ‘भक्त कल्पद्रुम’ में ही मिलता है, (पृष्ठ 316) जिसमें कहा गया है कि जब रामानन्द ने यह सुना कि कबीर स्वयं को उनका चेला बता रहा है, तो उन्होंने उसे पकड़वा कर बुलाया और परदा डलवा कर कबीर से बात की कि उन्होंने कब उसे अपना चेला बनाया है? (प्रवर, पृष्ठ 31)
दरअसल ब्राह्मण के रूप में कबीर का संवाद रामानन्द से ही हुआ है। यह उसी तरह का विचारोत्तेजक संवाद है, जैसा कि बीसवीं सदी मंे गाँधी के साथ डाॅ. आंबेडकर का हुआ था। यदि हम कबीर-ब्राह्मण संवाद को दृष्टि में रखकर आंबेडकर गाँधी विवाद का अध्ययन करेंगे, तो सचमुच हमें इतिहास की पुनरावृत्ति होती हुई प्रतीत होती है।
कबीर ने रामानन्द को गुरु मानने से इनकार किया था। इसका अर्थ है, कबीर ने दलित जातियों की ओर से उनके नेतृत्व को चुनौती दी थी। इस तथ्य को समझने के लिये कबीर की इस साखी पर विचार करने की जरूरत हैµ
साषत ब्राम्हण जिनि मिलै, बैसनौ मिलौ चंडाल।
अंक माल दै भेंटिये, मानूँ मिलै गोपाल।।
(क.ग्र., पृष्ठ 28)
डा. युगेश्वर के ‘कबीर समग्र’ में यह साखी कुछ परिवर्तन के साथ इस प्रकार मिलती हैµ
साकट ब्रह्मण मत मिलौ, वैष्णव मिलौ चंडाल।
अंग भरे भरि भेंटिये, मानो मिलै दयाल।।
(क.स., पृष्ठ 492)
इन दोनों साखियों में, शब्दान्तर के बावजूद अर्थ में भिन्नता नहीं है। कबीर कहते हैं, शाक्त ब्राह्मण से मत मिलो, पर यदि वैष्णव चण्डाल मिल जाये, तो उसे गले लगालो। यहाँ शाक्त ब्राह्मण और वैष्णव चाण्डाल दो अलग-अलग व्यक्ति हैं, अर्थात् वह ब्राह्मण, जो शाक्त हो गया है और वह चाण्डाल, जो वैष्णव हो गया है। शाक्त के साथ कबीर की कोई सहानुभूति नहीं है, पर उस वैष्णव के साथ है, जो मूलतः चाण्डाल है। उसे गले लगाना है, उसे बदलना है, क्योंकि वह नाम का वैष्णव है, उसकी जाति और संस्कृति चाण्डाल की ही है। उसके साथ व्यवहार भी चाण्डाल जैसा होता है।
वैष्णव चाण्डाल की पृष्ठभूमि यह थी कि कबीर की निर्गुणधारा के विरुद्ध रामानन्द ने सगुण को ही निर्गुण और निर्गुण को ही सगुण बनाकर नयी धारा चलायी और यह दिखाने के लिये कि वह जात-पांत नहीं मानते हैं, उन्होंने कुछ चाण्डालों को वैष्णव बनाया। उन्हें दीक्षा देने की उनकी विधि भी विचित्र थी। वह ब्राह्मणों को तो विधि पूर्वक मन्दिर में मंत्रोच्चार के साथ दीक्षा देते थे, पर चाण्डालों को उन्होंने मन्दिर के बाहर खड़ा कर के एक फर्लांग दूर से कहा, बोलो ‘राम-राम’, जब चाण्डालों ने बोल दिया, ‘राम-राम’ तो रामानन्द ने कहा, जाओ, तुम्हारी दीक्षा हो गयी, तुम वैष्णव हो गये। लेकिन, समाज में वे चाण्डाल ही बने रहे और वही सामाजिक स्तर बना रहा, जो पहले था। वैष्णव चाण्डाल की इस व्याख्या के लिये मैं इतिहासविद प्रो. ओमराज का ऋणी हूँ, जिसे उन्होंने अपने ग्रन्थ ‘कबीर और समकालीन इतिहास’ के दूसरे खंड में प्रस्तुत किया है।
यदि आधुनिक उदाहरण देना हो, तो ‘वैष्णव चाण्डाल’ की तुलना बीसवीं सदी की उस घटना से की जा सकती है, जिसमें गाँधी ने दलित जातियों को ‘हरिजन’ बनाने का उपक्रम किया था। ‘वैष्णव चाण्डाल’ और ‘हिन्दू हरिजन’ दोनों ही प्रतिक्रान्ति की घटनाएँ हैं। ये दोनों घटनाएँ दलितों को हिन्दू फोल्ड में रखने के उपक्रम थे, वैष्णव के रूप में भी और हरिजन के रूप में भी। दलित नायकों ने इन दोनों का ही खण्डन किया। कबीर ने दलितों को धोखा देने वाले ऐसे कपटी गुरुओं की पोल खोली। उन्होंने ऐसे गुरुओं से दलितों को सावधन किया। उन्होंने कहा कि गुरु तो वह है, जो (चाण्डाल को भी) ब्रह्म बना दें। यथाµ
जा गुरु ते भ्रम ना मिटै, भ्रांति न जीव की जाय।
गुरु तो ऐसा चाहिए, देई ब्रह्म बनाय।।
(वही, पृष्ठ 227)
जैसे बीसवीं सदी में अज्ञानता वश दलित गाँधी के बहकावे के आकर ‘हरिजन’ बन गये थे, उसी प्रकार पन्द्रहवीं सदी में रामानन्द के अज्ञानता के प्रचार में आकर बहुत से शूद्र उनके शिष्य होकर पत्थर पूजने लगे थे। पर कबीर की दृष्टि में वह दलितों की मुक्ति का मार्ग नहीं था। उन्होंने कहा-
गुरु को तो गम्य नहीं, पाहन दिया बताय।
सिख सोधे बिन सेइया, पारि न पहुँचा जाय।।
(वही)
कबीर ने ऐसे गुरुओं से सावधान किया था, जो एजेन्ट के रूप में घर-घर दीक्षा देने के लिये घूम रहे थे। यथाµ
गुरुवा तो घर घर फिरै दीक्षा हमारी लेहु।
कै बूडो कै ऊछलौ, टका पर्दनी देहु।।
(वही, पृष्ठ 228)
ये घर-घर घूमने वाले ब्राह्मण वैसे ही थे, जैसे बीसवीं सदी में दयानन्द और गाँधी के एजेन्ट दलितों को हिन्दू और गाँधी-भक्त बनाने के लिये उनकी बस्तियों में घूमते थे। डाॅ. आंबेडकर ने, दलितों को इन एजेन्टों से सावधान किया था। (वाघमय, खण्ड-16) कबीर कहते हैं कि ये गुरु दलितों को आवागमन का भय दिखाते थे और उससे मुक्ति के लिये उन्हें अपने पंथ की दीक्षा देते थे। कबीर ने उन्हें झूठा गुरु कहा। यथा –
झूठे गुरु के पक्ष को तजत न कीजै बार।
पार न पावै शब्द का भरमें बारम्बार।।
साँचे गुरु के पक्ष में, मन को दे ठहराय।
चंचलते निश्चल भया, नहिं आवै नहिं जाय।।
(वही)
कबीर ने ब्राह्मण से पहला संवाद इसी आवागमन को लेकर किया। ब्राह्मण जनता को वैकुण्ठ के नाम से भ्रमित करता था। कबीर ने उनसे पूछाµ क्या तुम खुद भी जानते हो, बैकुण्ठ कहाँ है? वह कितने योजन दूर है, यह तक तो तुम्हें मालूम नहीं। सिर्फ बातों में ही बैकुण्ठ बखानते हो। कहने-सुनने से कैसे विश्वास हो, पहले वहाँ स्वयं जाकर तो दिखाइए? यथा –
चलन चलन सबको कहत है, नाँ जानौं बैकुंठ कहाँ है?
जोजन एक प्रमिति नहिं जानै, बातन ही बैकुंठ बखानै।।
कहै सुनें कैसे पतिअइये, जब लग तहाँ आप नहिं जइये।।
(वही, पृष्ठ 536)
शूद्रों को दूर से ‘राम’ बोलकर दीक्षा देने का दिखावा करने वाले पंडितों की कबीर खूब खबर लेते हैं। जब उन्हें ब्राह्मणों के इस पाखण्ड की खबर मिली, तो उन्होंने अपने ‘साध-सत्संग’ में कहा- पंडित झूठी बहस करते हैं, जैसे खांड़ कहने से मुँह मीठा नहीं हो जाता, वैसे ही राम कहने मात्र से दुनिया को मुक्ति नहीं मिल जाती है। केवल आग कहने से पैर नहीं जलता, जल कहने से प्यास नहीं बुझ जाती, भोजन कहने से भूखे का पेट नहीं भर जाता हैµ अगर ऐसा होने लगता, हर कोई मुक्त हो जाता। आदमी के साथ तोता भी हरि का नाम बोलता है, पर वह हरि का प्रताप नहीं जानता है और यदि एक बार वह पिंजड़े से निकलकर जंगल में उड़ जाये, तो दुबारा हरि भी नहीं बोलता। ऐसे पंडितों को शूद्रों से रंच मात्र भी प्रेम नहीं है, मनुष्यों से प्रेम किये बिना कोई सन्त नहीं हो सकता। वे एंसे सन्तों का उपहास करते हैं। यथाµ
पंडित वाद बदंते झूठा।
राम कह्याँ दुनियाँ गति पावै, खाँड कह्याँ मुख मीठा।।
पावक कह्याँ पाव जे दाझैं, जल कहि त्रिषा बुझाई।
भोजन कह्याँ भूष जे भाजै, तौ सब कोई तिरि जाई।।
नर कै साथि सूवा हरि बोलै, हरि परताप न जानै।
जो कबहूँ उडि़ जाई जंगल में, बहुरि न सूरतै आनै।।
साची प्रीति बिषै माया सूँ, हरि भगतानि सूँ हासी।
कहै कबीर प्रेम नहीं उपज्यौ, बाँध्यो जमपुरि जासी।।
(वही, पृष्ठ 542)
रामानन्दी ब्राह्मण की कथनी और करनी में अन्तर था। वह दोमुही था, एक मुँह से राम-नाम जपता था, तो दूसरे मुँह से वर्णव्यवस्था का समर्थन करता था। इस प्रकार, उसके मुँह में राम था, तो बगल में छुरी थी। वह स्वयं को ऊँचे कुल और वर्ण का पूज्य प्राणी मानता था, शरीर और मस्तक पर तरह-तरह के तिलक लगाकर अन्य मनुष्यों से भिन्न भेष बनाए रहता था और शेष सभी को अपने से निम्न कुल और वर्ण का मानकर अहंकार में अकड़ा रहता था। ऐसे ब्राह्मणों से कबीर का तीखा संवाद हुआ। उन्होंने इन ब्राह्मणों से तर्क करते हुए सवाल कियाµ ‘तुम किस आधार पर वर्ण के सिद्धान्त को मानते हो? यदि यह ईश्वर ने बनाया है, तो जन्म से ही तुम्हारे माथे पर तीन डंडियाँ (रेखाएँ) बनी हुई क्यों नहीं हैं ? ये डंडियाॅं तो तुम स्वयं अपने हाथ से खींचते हो। जिस वीर्य से मनुष्य की उत्पत्ति होती है, वह कहाँ से आया? उसमें वर्ण-अवर्ण (माया, भ्रम) कैसे और कहाँ से आ गया? फिर, कबीर ही जवाब देते हैं, जिसने शरीर (पिण्ड) दिया है, उसी ने वीर्य दिया है। इसलिये न कोई उच्च है और न कोई नीच। उन्होंने सवाल किया- अगर तुम ब्राह्मण हो और यह समझते हो कि ब्राह्मणी के गर्भ से पैदा हुए हो, तो फिर अन्य मार्ग से पैदा क्यों नहीं हुए? यह ब्राह्मण को निरुत्तर कर देने वाला तर्क था। इसलिये कबीर ने कहा, कोई छोटा नहीं है, छोटा वह है, जिसके मुँह में राम नहीं है। ये ऐसे प्रश्न हैं, जो कबीर से पहले किसी ने ब्राह्मण से नहीं पूछे थे। यथा –
जै पै करता बरण बिचारै, तौ जनमत तीनि डांडि किन सारै।।
उतपति ब्यंद कहाँ थैं आया, तो धरी अरु लागी माया।।
नहिं को ऊँचा नहिं को नीचा, जाका प्यंड ताही का सींचा।।
जे तूँ बाभन बभनी जाया, तो आँन बाट ह्नै काहै न आया।
कहै कबीर मधिम नहीं कोई, जो मधिम जा मुखि राम न होई।।
(वही, पृष्ठ 542)
यह संवाद यहीं नहीं रुका, बल्कि ब्राह्मणों के धर्म, दर्शन, सामाजिक व्यवहार और आचरण तक जाता है। ब्राह्मण वेदान्ती और सनातनी दोनों थे, किन्तु वर्णाश्रम को दोनों मानते थे। वे केवल वर्ण-विचार से ही नहीं, जाति-विचार से भी ग्रस्त थे। वे स्वयं को शुद्ध और दूसरों को अशुद्ध समझते थे, जबकि दलित जातियाँ तो उनके लिये अछूत हीं थीं। वे ब्राह्मण धर्म-शास्त्रों के हवाले से वर्णव्यवस्था और जातिवाद को न्यायोचित ठहराते थे। बीसवीं सदी में इसी आधार पर महात्मा गाँधी ने वर्णव्यवस्था को धर्म सम्मत और न्याय संगत ठहराया था। इसके खंडन में डाॅ. आंबेडकर ने महात्मा गाँधी से लम्बा संवाद (पत्राचार) किया था। कबीर ने भी यह खण्डन ब्राह्मण को सम्बोधित करके किया था। उन्होंने शुद्धता पर सवाल उठाया –
कहु पाँडे सुचि कवन ठाँव, जिहि घरि भोजन बैठि खाऊँ।
माता जूठा पिता पुनि जूठा, जूठे पफल चित लागे।।
जूठा आंगन जूठा जाँनाँ, चेतहु क्यूँ न अभागे।।
अन्न जूठा पाँनी पुनि जूठा, जूठे बैठि पकाया।
जूठी कड़छी अन्न परोस्या, जूठे जूठा खाया।।
चैका जूठा गोबर जूठा, जूठी का ढोकारा।
कहै कबीर तेई जन सूचे, जे हरि भजि तजहिं विकारा।।
(वही, पृष्ठ 627)
कबीर ने बहुत ही सटीक सवाल ब्राह्मण से पूछा था कि वह कौन सी जगह है, जो शुद्ध है, सारी जगहें जूठी हैं, जहाँ तक कि माता-पिता, अन्न और पानी तक। इसी तरह कबीर ने ‘छोति-विचार’ पर भी ब्राह्मण को फटकारा-
काहे को कीजै पाँडे छोति विचारा।
छोतिही तै उपजा संसारा।।
हमारे कैसे लोहू तुम्हारै कैसे दूध।
तुम्ह कैसे ब्राँम्हण पाँडे हम कैसे सूद।।
छोति छोति करता तुम्ह हीं जाय।
तौ ग्रभवास काहै को आय।।
जनमत छोति मरत ही छोति।
कहै कबीर हरि की विमल जोति।।
(क.स., पृष्ठ 79)
पन्द्रहवीं सदी में कबीर का यह सबसे आधुनिक चिन्तन है। ब्राह्मण अपने ‘छोति-विचार’ में एकदम अवैज्ञानिक और मूढ़ दृष्टिकोण का था। कबीर उसे बता रहे थे कि ‘छूति’ से कोई नहीं बच सकता। गर्भ में आने के समय से ही ‘छूति’ शुरु हो जाती है। ब्राह्मण भी उसी प्रक्रिया से गर्भ से पैदा होता है, जैसे सब पैदा होते हैं। ब्राह्मण को भी दाई ही गर्भ से बाहर निकालती है। तब, क्या यह ‘छूति’ नहीं है? मरने के बाद भी चार लोग उठाकर ही उसे श्मशान लेकर जाते हैं। क्या यह ‘छूति’ नहीं है? इस आधार पर, ब्राह्मण किस आधार पर अपने को इतना पवित्र मानता है कि दूसरों के छूने से अपवित्र हो जाता है। कबीर एकदम वैज्ञानिक बात कह रहे हैं कि क्या ब्राह्मण के शरीर में खून की जगह दूध होता है? यदि नहीं, तो किस आधार पर वह ब्राह्मण है और किस आधर पर हम शूद्र हैं?
पवित्रता का मिथ्या ख्याल ही ब्राह्मण को जाति पूछकर पानी पीने को कहता है। सनातनी ब्राह्मण आज भी इसे अपना पवित्र धर्म मानते हैं। इसी इक्कीसवीं सदी में हिन्दी के कर्म काण्डी पंडित और ‘नवभारत टाइम्स’ के सम्पादक विद्या निवास मिश्र इसी पवित्राता के ख्याल से रसोई की लकडि़यों को भी धोकर इस्तेमाल करते थे। बहरहाल, कबीर अपने समय के ऐसे ब्राह्मणों को अज्ञानी मानते थे, जिनके मस्तिष्क को वेद-शास्त्रों ने इस कदर कुन्द कर दिया था कि उनमें सोचने-समझने की शक्ति ही समाप्त हो गयी थी। ऐसे अज्ञानी ब्राह्मणों को चेताने के लिये कबीर ने उनसे यह संवाद किया था –
पाँड़े बूझि पियहु तुम पानी।
जिहि मिटिया के घर मँह बैठे, तामँह सिस्ट समानी।।
छपन कोटि जादव जहँ भींजे, मुनिजन सहस अठासी।
पैग पैग पैगम्बर गाड़े, सो सब सरि भौ माँटि।।
तेहि मिटिया के भाँडे पाँडे, बूझि पियहु तुम पानी।
मच्छ कच्छ घरियार बियाने, रुधिर नीर जल भरिया।।
नदिया नीर नरक बहि आवै, पसु-मानस सब सरिया।
हाड़ झरी झरि गूद गरी गरि, दूध कहाँ तैं आया।।
सो ले पाँड़े, जेंवन बैठे, मटियहि छूति लगाया।
बेद-कितेब छाँडि़ देऊ पाँड़े, ई सब मन के भरमा।।
कहहिं कबीर सुनहु हो पाँड़े, ई तुम्हरे हैं करमा।
(कबीर, पद 150)
कबीर के तर्क अद्भुत हैं, जिस मिट्टी के घर में हम रहते हैं उसी मिट्टी में, ऋषि, मुनि, पीर, पैगम्बर गढ़कर, सड़कर मिट्टी हो गये। उसी मिट्टी के बर्तनों में दिया गया पानी ब्राह्मण को अपवित्र लगता है, जाति पूछ कर पानी पी रहे हो। क्या पानी और बर्तन की भी जाति होती है। जिस नदी को पवित्रा मानते हो, उसी में मछली, कछुवे और घडि़याल बच्चे जनते हैं, उसी में पशु और मनुष्य के शव सड़ते रहते हैं, हाड़-माँस झर-झर कर नदी में मिलते रहते हैं। वह पानी क्या दूध हो गया? उस पानी में तुम ‘छूति-विचार’ करते हो। इसलिये कबीर कहते हैं कि पाण्डे, वेद-शास्त्र में विश्वास करना छोड़ दो- यही तुम्हें भ्रमित करते हैं और तुम्हें ऐसा अवैज्ञानिक कर्म करने को कहते हैं।
कबीर अपने समय के ब्राह्मण के ज्ञान और कर्म को देखकर बहुत हैरान थे। ब्राह्मण को ईश्वर का भी सही ज्ञान नहीं था। वह कर्मकाण्डी बना हुआ था। प्रेम और समता की जगह वह घृणा और विषमता फैला रहा था। वह जनता को अवतारांे और देवताओं की पूजा में ही नहीं उलझा रहा था, वरन् उनके नाम पर पशुओं की हत्याएँ भी करवा रहा था। इस पर भी वह स्वयं को कुलीन कहता था और धार्मिक सभाओं में अकड़ कर बैठता था। हर कोई उससे दीक्षा माँगने को आतुर रहता था, जिसे देखकर कबीर को हँसी आती थी। लेकिन कबीर के लिये यह ब्राह्मण ‘निपुन कसाई’ था। यथा-
साधो, पाँड़े निपुन कसाई
बकरी मारि भेडि़ को धाए दिल में दरद न आई।
करि अस्नान तिलक दै बैठे, बिधि सों देवि पुजाई।
आतम मारि पलक में बिनसे, रुधिर की नदी बहाई।
अति पुनीत ऊँचे कुल कहिये, सभा माँहि अधिकाई।
इनसे दिच्छा सब कोई माँगे, हँसि आवै मोहि भाई।
(वही, पद 151)
यह पद कबीर ने अपने ‘साधु-संगत’ को सम्बोधित किया है। यह सम्भवतः प्रतिदिन के होने वाले सत्संग में साधुओं द्वारा पूछे गये प्रश्नों को ध्यान में रखकर कहा गया होगा। वे इस बात से भी हैरान थे कि पंडितों पर उनकी कोई बात असर नहीं करती थी। कबीर उन्हें यह समझाने की कोशिश करते थे कि ईश्वर अपिंडी (देहरहित) है, उसे देखा नहीं जा सकता, वह सभी प्राणियों में निवास करता है। कबीर को आश्चर्य होता था कि इतनी सीधी-सी बात भी ब्राह्मणों और सन्तों की समझ में नहीं आती थी। यथा –
पंडित सेती कहि रहे, कह्या न मानै कोइ।
ओ अगाध ए का कहै, भारी अचरज होइ।।
बसै अपिंडी पिंड में, ता गति लषै न कोइ।
कहै कबीर संत हौ, बड़ा अचम्भा मोहि।।
(क.स., पृष्ठ 252)
कबीर ब्राह्मण से अपने वाद-विवाद और संवाद में इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि वह सुधरना नहीं चाहता और शास्त्रों के कूप में ही मेढक बनकर रहना चाहता है। कबीर ब्राह्मण की पोथियों को तीतर का ज्ञान कहते थे। वह तीतर, जो दूसरों का शगुन बताता था, पर अपना पफन्दा नहीं जानता था। वे कहते थे, पोथी लेकर चलने वाला पंडित और मशाल लेकर चलने वाला मशालची दोनों एक जैसे हैं, जिन्हें दिखायी नहीं देता है। वह पोथी पढ़-पढ़ कर पत्थर हो गया है, उसकी संवेदनाएँ मर गयी हैं और लिख-लिख कर चोर हो गया है, क्योंकि उसमें अपना कुछ भी मौलिक नहीं होता है। यही नहीं, कबीर ने ब्राह्मण की तुलना गधे से की। उन्होंने कहा कि ब्राह्मण संसार का वह गधा है, जो अपने ऊपर तीर्थों को लादे हुए है। वह यजमान को ‘पुण्य’ का पाठ पढ़ाता है और उसी से अपनी जीविका चलाता है। यथाµ
पंडित केही पोथियाँ, ज्यों तीतर का ज्ञान।
औरन शकुन बतावहीं, अपना पफंद न जान।।
पंडित और मसालची, दोनू सूझै नाहिं।
औरन को करै चाँदना, आप अंधेरा माँहि।।
पढि़ पढि़ तो पत्थर भया, लिखि लिखि भया जो चैर।
जिस पढ़ते साहब मिलै, तो पढ़ना कछु और।।
ब्राह्मण गदहा जगत का, तीरथ लादा जाय।
यजमान कहै मैं पुनि किया, वह मिहनत का खाय।।
(वही, पृष्ठ 434-35)
अन्तिम साखी में कबीर का व्यंग्य है कि तीरथों पर बैठा ब्राह्मण सुबह से शाम तक अपने पेट के लिये कितनी मेहरत करता है, जैसे गधा, जिसे दिन-भर भार लादने के बाद ही घास मिलती है। और, व्यवसाय के रूप में तीर्थों की रचना करने वाले ऐसे ब्राह्मणों के बारे में उनका मत हैµ
कबिरा ब्राह्मण की कथा, सो चारों की नाव।
सब अंधा मिलि बैठहीं, भावै तहाँ ले जाव।।
(वही, पृष्ठ 435)
कबीर कहते हैं, ब्राह्मण की कहानी उन चार अन्धों की नाव है, जिसमें सब अंधे मिलकर बैठे हुए हैं और जिधर चाहते हैं, उसे ले जाते हैं। उनका कोई लक्ष्य नहीं है।
क्या यह सम्वाद आज भी प्रासंगिक नहीं है

सन्त रविदास

sant ravidas

























हमारे भारत देश की पावन भूमि पर अनेक साधु-सन्तों, ऋषि-मुनियों, योगियों-महर्षियों और महामानवों  ने जन्म लिया है और अपने अलौकिक ज्ञान से समाज को अज्ञान, अधर्म एवं अंधविश्वास के अनंत अंधकार से निकालकर एक नई स्वर्णिम आभा प्रदान की है। चौदहवीं सदी के दौरान देश में जाति-पाति, धर्म, वर्ण, छूत-अछूत, पाखण्ड, अंधविश्वास का साम्राज्य स्थापित हो गया था। हिन्दी साहित्यिक जगत में इस समय को मध्यकाल कहा जाता है। मध्यकाल को भक्तिकाल कहा गया। भक्तिकाल में कई बहुत बड़े सन्त एवं भक्त पैदा हुए, जिन्होंने समाज में फैली कुरीतियों एवं बुराइयों के खिलाफ न केवल बिगुल बजाया, बल्कि समाज को टूटने से भी बचाया। इन सन्तों में से एक थे, सन्त कुलभूषण रविदास, जिन्हें रैदास के नाम से भी जाना जाता है।
सन्त रविदास का जन्म सन् 1398 में माघ पूर्णिमा के दिन काशी के निकट माण्डूर नामक गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम संतोखदास (रग्घु) और माता का नाम कर्मा (घुरविनिया) था। सन्त कबीर उनके गुरु भाई थे, जिनके गुरु का नाम रामानंद था। सन्त रविदास बचपन से ही दयालु एवं परोपकारी प्रवृति के थे। उनका पैतृक व्यवसाय चमड़े के जूते बनाना था। लेकिन उन्होंने कभी भी अपने पैतृक व्यवसाय अथवा जाति को तुच्छ अथवा दूसरों से छोटा नहीं समझा।
सन्त रविदास अपने काम के प्रति हमेशा समर्पित रहते थे। वे बाहरी आडम्बरों में विश्वास नहीं करते थे। एक बार उनके पड़ौसी गंगा स्नान के लिए जा रहे थे तो उन्होंने सन्त रविदास को भी गंगा-स्नान के लिए चलने के लिए कहा। इस पर सन्त रविदास ने कहा कि मैं आपके साथ गंगा-स्नान के लिए जरूर चलता लेकिन मैंने आज शाम तक किसी को जूते बनाकर देने का वचन दिया है। अगर मैं तुम्हारे साथ गंगा-स्नान के लिए चलूंगा तो मेरा वचन तो झूठा होगा ही, साथ ही मेरा मन जूते बनाकर देने वाले वचन में लगा रहेगा। जब मेरा मन ही वहां नहीं होगा तो गंगा-स्नान करने का क्या मतलब। इसके बाद सन्त रविदास ने कहा कि यदि हमारा मन सच्चा है तो इस कठौती में भी गंगा होगी अर्थात् ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’।  उसने सन्त रविदास के चरण पकड़ लिए और उसका शिष्य बन गया। धीरे-धीरे सन्त रविदास की भक्ति की चर्चा दूर-दूर तक फैल गई और उनके भक्ति के भजन व ज्ञान की महिमा सुनने लोग जुटने लगे और उन्हें अपना आदर्श एवं गुरु मानने लगे।
सन्त रविदास समाज में फैली जाति-पाति, छुआछूत, धर्म-सम्प्रदाय, वर्ण विशेष जैसी भयंकर बुराइयों से बेहद दुखी थे। समाज से इन बुराइयों को जड़ से समाप्त करने के लिए सन्त रविदास ने अनेक मधुर व भक्तिमयी रसीली कालजयी रचनाओं का निर्माण किया और समाज के उद्धार के लिए समर्पित कर दिया। सन्त रविदास ने अपनी वाणी एवं सदुपदेशों के जरिए समाज में एक नई चेतना का संचार किया। उन्होंने लोगों को पाखण्ड एवं अंधविश्वास छोड़कर सच्चाई के पथ पर आगे बढऩे के लिए प्रेरित किया।
सन्त रविदास के अलौकिक ज्ञान ने लोगों को खूब प्रभावित किया, जिससे समाज में एक नई जागृति पैदा होने लगी। सन्त रविदास कहते थे कि राम, कृष्ण, करीम, राघव आदि सभी नाम परमेश्वर के ही हैं और वेद, कुरान, पुरान आदि सभी एक ही परमेश्वर का गुणगान करते हैं।
कृष्ण, करीम, राम, हरि, राघव, सब लग एकन देखा।
वेद कतेब, कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा।।
सन्त रविदास का अटूट विश्वास था कि ईश्वर की भक्ति के लिए सदाचार, परोपकार तथा सद्व्यवहार का पालन करना अति आवश्यक है। अभिमान त्यागकर दूसरों के साथ व्यवहार करने और विनम्रता तथा शिष्टता के गुणों का विकास करके ही मनुष्य ईश्वर की सच्ची भक्ति कर सकता है। सन्त रविदास ने अपनी एक अनूठी रचना में इसी तरह के ज्ञान का बखान करते हुए लिखा है :
कह रैदास तेरी भगति दूरी है, भाग बड़े सो पावै।
तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै।।
एक ऐतिहासिक उल्लेख के अनुसार, चित्तौड़ की कुलवधू राजरानी मीरा रविदास के दर्शन की अभिलाषा लेकर काशी आई थीं। सबसे पहले उन्होंने रविदास को अपनी भक्तमंडली के साथ चौक में देखा। मीरा ने रविदास से श्रद्धापूर्ण आग्रह किया कि वे कुछ समय चित्तौड़ में भी बिताएं। संत रविदास मीरा के आग्रह को ठुकरा नहीं पाए। वे चित्तौड़ में कुछ समय तक रहे और अपनी ज्ञानपूर्ण वाणी से वहां के निवासियों को भी अनुग्रहीत किया। सन्त रविदास की भक्तिमयी व रसीली रचनाओं से बेहद प्रभावित हुईं और वो उनकीं शिष्या बन गईं। इसका उल्लेख इस पद में इस तरह से है :
वर्णाश्रम अभिमान तजि, पद रज बंदहिजासु की।
सन्देह-ग्रन्थि खण्डन-निपन, बानि विमुल रैदास की।।
संत रविदास मानते थे कि हर प्राणी में ईश्वर का वास है।
इसलिए वे कहते थे :
सब में हरि है, हरि में सब है, हरि आप ने जिन जाना।
अपनी आप शाखि नहीं दूजो जानन हार सयाना।।

इसी पद में सन्त रविदास ने कहा है :
मन चिर होई तो कोउ न सूझै जानै जीवनहारा।
कह रैदास विमल विवेक सुख सहज स्वरूप संभारा।

सन्त रविदास ने मथुरा, प्रयाग, वृन्दावन व हरिद्वार आदि धार्मिक एवं पवित्र स्थानों की यात्राएं कीं। उन्होंने लोगों से सच्ची भक्ति करने का सन्देश दिया।
सन्त रविदास ने मनुष्य की मूर्खता पर व्यंग्य कसते हुए कहा कि वह नश्वर और तुच्छ हीरे को पाने की आशा करता है लेकिन जो हरि हरि का सच्चा सौदा है, उसे प्राप्त करने की चेष्टा नहीं करता है।
हरि सा हीरा छांड कै, करै आन की आस।
ते नर जमपुर जाहिंगे, सत आषै रविदास।।

कुलभूषण रविदास ने सामाजिक, धार्मिक एवं राष्ट्रीय एकता के लिए भी समाज में जागृति पैदा की। उन्होंने कहा:
रैदास कनक और कंगन माहि जिमि अंतर कछु नाहिं।
तैसे ही अंतर नहीं हिन्दुअन तुरकन माहि।।
हिन्दु तुरक नहीं कछु भेदा सभी मह एक रक्त और मासा।
दोऊ एकऊ दूजा नाहीं, पेख्यो सोइ रैदासा।।
सन्त रविदास ने इसी सन्दर्भ में ही कहा है :
मुसलमान सो दोस्ती हिन्दुअन सो कर प्रीत।
रैदास जोति सभी राम की सभी हैं अपने मीत।।
सन्त रविदास ने लोगों को समझाया कि तीर्थों की यात्रा किए बिना भी हम अपने हृदय में सच्चे ईश्वर को उतार सकते हैं।
का मथुरा का द्वारिका का काशी हरिद्वार।
रैदास खोजा दिल आपना तह मिलिया दिलदार।।
सन्त रविदास ने जाति-पाति का घोर विरोध किया। उन्होंने कहा :
रैदास एक बूंद सो सब ही भयो वित्थार।
मूरखि है जो करति है, वरन अवरन विचार।।
सन्त रविदास अपने उपदेशों में कहा कि मनुष्य को साधुओं का सम्मान करना चाहिए, उनका कभी भी निन्दा अथवा अपमान नहीं करना चाहिए। वरना उसे नरक भोगना पड़ेगा। वे कहते हैं :
साध का निंदकु कैसे तरै।
सर पर जानहु नरक ही परै।।
सन्त रविदास ने जाति-पाति और वर्ण व्यवस्था को व्यर्थ करार दिया और कहा कि व्यक्ति जन्म के कारण ऊंच या नीच नहीं होता। सन्त ने कहा कि व्यक्ति के कर्म ही उसे ऊंच या नीच होता है।
रैदास जन्म के कारणों, होत न कोई नीच।
नर को नीच करि डारि है, ओहे कर्म की कीच।।
इस प्रकार कुलभूषण रविदास ने समाज को हर बुराई, कुरीति, पाखण्ड एवं अंधविश्वास से मुक्ति दिलाने के लिए ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया और असंख्य मधुर भक्तिमयी कालजयी रचनाएं रचीं। उनकीं भक्ति, तप, साधना व सच्चे ज्ञान ने समाज को एक नई दिशा दी और उनके आदर्शों एवं शिक्षाओं का मानने वालों का बहुत बड़ा वर्ग खड़ा हो गया, जोकि ‘रविदासी’ कहलाते हैं। ।

सन्त रविदास द्वारा रचित ‘रविदास के पद’, ‘नारद भक्ति सूत्र’, ‘रविदास की बानी’ आदि संग्रह भक्तिकाल की अनमोल कृतियों में गिनी जाती हैं।  स्वामी रामानंद के ग्रन्थ के आधार पर संत रविदास का जीवनकाल संवत् 1471 से 1597 है। उन्होंने यह 126 वर्ष का दीर्घकालीन जीवन अपनी अटूट योग और साधना के बल पर जीया।
संत रविदास जी की जो बात मुझे सबसे अच्छी लगी वह यही है की उन्होंने अपनी आजीविका कमाते कमाते ही अपना दर्शन विकसित किया और संत का जीवन व्यतीत किया, उन्होंने भिक्षा का सहारा नहीं लिया|
“मेरे अध्ययन के मुताबिक भारत देश के संतों ने कभी भी जात और छुआ-छुत को मिटाने के लिए आन्दोलन नहीं चलाया। वो मनुष्यों के बीच के संघर्ष के लिए चिंतित नहीं थे। बल्कि वो (ज्यादा) चिंतित थे मनुष्य और ईश्वर के बीच के सम्बन्ध के लिए। “~डॉ बी .आर. आंबेडकर~ सन्दर्भ:-Annihilation of castes – P-127. Author:- Dr. B.R.Ambedkar
आज हम देख रहे हैं की हमारे बहुत से लोग बहुजन  गुरुओं  ………..तक ही अपने को सीमित रखना चाहते हैं| मैं अपने ऐसे लोगों से अनुरोध करूंगा की बहुजन गुरुओं के दर्शन से थोडा आगे बढिए और  बौद्ध दर्शन को भी समझिये| मानना न मानना बाद की बात है पर खुद को सीमित मत करिए|
जरा सोचिये अगर डॉ आंबेडकर ने बौद्ध धम्म में वापस लौटने को चुना है तो जरूर कोई भला ही होगा|बाबा साहब ने धम्म इसलिए चुन था ताकि उनकी अनुपस्थिथि में उनका काम धम्म करता रहेगा उनके जाने के बाद बहुजनों की तरक्की का सिलसिला नहीं रुकेगा|
हमारे लोगों की भी क्या गलती उसे तो जो मीडिया ने बता दिया वही मान लिए वो तो  मान कर बैठे हैं की अनीश्वर वाद और अहिंसा ही धम्म की शिक्षा है|
आप खुद सोचो की क्या सिर्फ अहिंसा से दुःख दूर किया जा सकता है अरे हमारे लोग तो पहले ही पिछड़े हैं कमजोर हैं और कमजोर तो पहले ही शील ,करुणा, मैत्री और अहिंसा के मार्ग पर चल रहा है वो चाहकर भी इनके विरुद्ध नहीं जा सकता|भगवान् बुद्ध एक क्रन्तिकारी हैं वो विश्व के पहले क्रन्तिकारी हैं जिन्होंने दुख का मूल कारन गलत सरकारी नीतियाँ, धार्मिक आडम्बर और आर्थिक विषमता (unequal distribution of national income) के खिलाफ न केवल आवाज़ उठाई बल्कि बड़े ही सुनियोजित तरीके से दर्शन ज्ञान और मार्ग खोज जिसके प्रचार प्रसार के लिए बौद्ध भिक्खुओं की फ़ौज खड़ी की| धम्म पूंजीपतियों और शोषकों के के खिलाफ क्रांति है|
सदा ध्यान रहे मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या आर्थिक विषमता (unequal distribution of national income) के खिलाफ जुझने वालों में पहला नाम गौतम बुद्ध का है|यह भारी दुःख का विषय है कि गौतम बुद्ध की छवि एक ऐसे व्यक्ति के रूप चित्रित की गयी है जिसने अहिंसा के धर्मोपदेश के साथ पंचशील का दर्शन दिया है,जबकि सचाई यह है कि वे दुनिया के पहले ऐसे क्रांतिकारी पुरुष थे जिन्होंने आर्थिक विषमता को इंसानियत की सबसे बड़ी समस्या चिन्हित करते हुए समतामूलक समाज निर्माण का युगांतरकारी अध्याय रचा|
बौद्ध धम्म का मकसद बहुत ज्यादा विस्तृत है जिसमें से एक है बहुजन हिताए बहुजन सुखाय है बहुजन का दुःख दूर करना है|पता नहीं हमारे लोग क्यों नहीं समझ रहे की विरोधी धम्म के कमजोर पक्ष को उजागर कर रहे हैं और शक्तिशाली पक्ष को दबा रहे हैं|महामानव बुद्ध और बहुजन गुरुओ दोनों ने जातिवाद और वर्णव्यस्था की बुराई की है और मानव कल्याण को प्राथमिकता दी| हम सभी जानते हैं की बहुजनों का ही नहीं समस्त भारतवर्ष का समस्त मानवता है भला जाती भेद नस्ल भेद और वर्णव्यस्था का दमन करने में हैं| सभी बहुजन गुरुओं ने भी अपने सरे जीवन इसी जातिवाद और वर्णव्यस्था और मनुवाद की खिलाफत की, अपने लेखन या दर्शन में मानव कल्याण के बातें की| बौद्ध धम्म मार्ग में भी जातिवाद और वर्णव्यस्था और मनुवाद की न केवल खिलाफत की बल्कि उसके मुकाबले सम्पूर्ण व्यस्था और कामयाब क्रांति खड़ी की| धम्म ने जीवन की हर पहलों पर व्यस्था दी| हमारे समस्या ये है की धम्म को ठीक से मीडिया में समझाने नहीं दिया जा रहा|
भारत की 80% बहुजन असल में बौध जनता है जिसे विरोधियों ने षडियंत्र के तहत अलग अलग महापुरुष देकर अलग अलग खूंटे से बांध दिया है|इसे हमारे लोग समझ नहीं पा रहे हैं, जब हम बुद्धा की बात करते हैं तो वे वाल्मीकि, रविदास, कबीर अदि की बात करते हैं, निसन्देह ये भी बुद्धा के समतुल्य हैं, पर जब तक हम एक सर्वमान्य सिद्धांत को नहीं पकड़ेंगे एक झंडे के नीचे नहीं आ पाएंगे|आपसे प्रार्थना है की मानो या न मानो पर धम्म को जानो तो सही|
हमारी मुक्ति केवल मानव और इश्वर के सम्बन्ध की चर्चा से नहीं होगी|क्या आप कभी ये नहीं सोचते की बौद्ध साम्राज्य के पतन से लेकर आंबेडकर क्रांति के बीच के लगभग दो हजार सालों में कोई भी इश्वर बहुजनों को बचने क्यों नहीं आया, क्यों उस इश्वर ने इतनी सदियों तक अपने मानवों की सुध नहीं ली| इश्वर का सिद्धांत निसंदेह व्यावहारिक रूप से जरूरी है आम जनता कभी ईश्वरवाद को नहीं छोड़ पायेगी पर बौध धम्म में ईश्वरवाद का प्रश्न तो अव्याकृत प्रश्न है| आप मनो या न मानो ये आपकी इच्छा है बौध धम्म मार्ग में इस प्रश्न का कोई महत्व नहीं| इसके आलावा बौध धम्म में बाकि की बहुत से बातें ऐसी हैं जो बहुजन गुरुओं से कहीं ज्यादा आगे का दर्शन ज्ञान और मार्ग उपलब्ध करते हैं| बहुजन गुरुओं को छोड़ना नहीं है बल्कि हमें बस इतना समझना है की उनका ज्ञान जिस भी बिंदु पर संशयात्मक स्तिथि पैदा करता है वहां बुद्धा धम्म ज्ञान हर संशय का संतुस्ठ उत्तर उपलब्ध करता है|बहुजन गुरुओं और बौध धम्म दोनों एक दुसरे के पूरक हैं दोनों ही हमारा मार्गदर्शन करवाते हैं |
अपने आप को कहीं भी सीमित न करो, अगर वाकई अपना उद्धार करना है तो सारा दर्शन खंगाल डालो यहाँ तक की सभी अन्य धर्म के सभी ग्रन्थ भी और तभी आप फैसला कर पाओगे की क्या सही है क्या गलत|