मंगलवार, 26 सितंबर 2017

गौतम बुद्ध और उनका धम्म


बौद्ध धम्म साहित्य में एक तरफ तो लिखा है फलां बात ऐसे है वहीँ कहीं दूसरी तरफ लिखा है फलां बात ऐसे नहीं ऐसे है|आज बौद्ध धम्म की तरफ अग्रसर लोगों की सबसे बड़ी परेशानी ये है की वो किसको सही माने किसको गलत,किसको अपनाएं किसको छोड़ें|बौद्ध धम्म के पतन के लिए न केवल दमन से बल्कि विरोधियों ने भिक्षु बन कर बौद्ध साहित्य में बहुत ज्यादा मिलावट कर दी थी| वही मिलावट का साहित्य आज मार्किट में उपलब्ध है जिसका सार यही बनता है जी जीवन नीरस है कुछ मत करो या ये बनता है की भगवान् बुद्धा एक इश्वरिये शक्ति थे उनकी पूजा करो और कृपा लाभ मिलेगा |असल में बौद्ध धम्म मनुवादी षडियन्त्र और अन्याय द्वारा व्याप्त दुःख को मिटने वाली क्रांति है ये इश्वरिये सिद्धांत को नकारता है|इस सबसे बचने का यही इलाज है की आप अन्यत्र किसी धम्म साहित्य ज्यादा ध्यान मत दो| युगपुरुष महाज्ञानी बहुजन मसीहा एव आधुनिक भारत के उत्क्रिस्ट शिल्पकार बाबा साहेब डॉ आंबेडकर की निम्न तीन पुस्तकों को शुरुआती ज्ञान से लेकर अंतिम रेफरेंस तक मनो :
१. भगवन बुद्धा और उनका धम्म
२. भगवन बुद्धा और कार्ल मार्क्स
३. प्राचीन भारत में क्रांति और प्रतिक्रांति
ये बात स्वेव बाबा साहब की है वे खुद बौध धम्म को सही मायेने में समझाना चाहते थे न की आम धर्म की तरह| इन तीनो पुस्तकों से आगे जाना असल में अपने को धम्म विरोधी मिलावट में फ़साना होगा|इन तीन पुस्तकों की रचना डॉ आंबेडकर ने इसी भटकाव को रोकने के लिए किया है और ये बात उन्होंने खुद कही है|हमें आखिर कहीं किसी बिन्दु पर तो एक मत होना ही होगा वरना विरोधी अपनी चाल चल जायेंगे और हम सही गलत की बहस ही करते रह जायेंगे,अब फैसला आपके हाथ में है|”…..समयबुद्धा


अगर आप पढ़ने की बजाये रिकॉर्डिंग सुनना पसंद करेंगे तो निम्न लिंक देखें :
dhyan do buddh par
बौद्ध धम्म को आस्था से मानने कि जरूरत नहीं पहले खुद जानो तब ही मानो  
बुद्ध कहते हैं:
“तुम सिर्फ मेरा निमंत्रण स्वीकार करो मानना या न मानना बाद की बात है। इस भवन में दीया जला है, तुम भीतर आओ। और यह भवन तुम्हारा ही है, यह तुम्हारी ही अंतर्मन का भवन है।”

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गौतम बुद्ध वास्तव में कौन हैं, उनकी शिक्षा क्या है, उनका मकसद और उपलब्धि क्या है अदि समझने के लिए उनके बारे में ओशो द्वारा बताई प्रस्तुत  सात प्रमुख बातें जरूर पढ़ें या विडियो सुने |मूल लेख “भगवान् बुद्ध मेरी दृस्टि में – ओशो” वाकई बाबा साहब आंबेडकर को छोड़कर अब तक के सभी भारतीय विद्वानों में बुद्धा को ओशो ने ही सही से समझा पाया है|
नोट: हम ओशो के सभी बातों के लिए समर्थक नहीं किन्तु ओशो जी ने जो भी सही और जायज बात बौद्ध धम्म के लिए कही है हम उसके लिए उनके आभारी हैं
पहली, गौतम बुद्ध दार्शनिक नहीं, द्रष्टा हैं।:   
दार्शनिक वह, जो सोचे। द्रष्टा वह, जो देखे। सोचने से दृष्टि नहीं मिलती। सोचना अज्ञात का हो भी नहीं सकता। जो ज्ञात नहीं है, उसे हम सोचेंगे भी कैसे? सोचना तो ज्ञात के भीतर ही परिभ्रमण है। सोचना तो ज्ञात की ही धूल में ही लोटना है। सत्य अज्ञात है। ऐसे ही अज्ञात है जैसे अंधे को प्रकाश अज्ञात है। अंधा लाख सोचे, लाख सिर मारे, तो भी प्रकाश के संबंध में सोचकर क्या जान पाएगा! आंख की चिकित्सा होनी चाहिए। आंख खुली होनी चाहिए। अंधा जब तक द्रष्टा न बनें, तब तक सार हाथ नहीं लगेगा।
तो पहली बात बुद्ध के संबंध में स्मरण रखना, उनका जोर द्रष्टा बनने पर है। वे स्वयं द्रष्टा हैं। और वे नहीं चाहते कि लोग दर्शन के ऊहापोह में उलझें।
दार्शनिक ऊहापोह के कारण ही करोड़ों लोग दृष्टि को उपलब्ध नहीं हो पाते हैं। प्रकाश की मुफ्त धारणाएं मिल जाएं, तो आंख का महंगा इलाज कौन करे! सस्ते में सिद्धान्त मिल जाएं, तो सत्य को कौन खोजे! मुफ्त, उधार सब उपलब्ध हो, तो आंख की चिकित्सा की पीड़ा से कौन गुजरे! और चिकित्सा कठिन है। और चिकित्सा में पीड़ा भी है।बुद्ध ने बार-बार कहा है कि मैं चिकित्सक हूं। उनके सूत्रों को समझने में इसे याद रखना। बुद्ध किसी सिद्धांत का प्रतिपादन नहीं कर रहे हैं।

वे किसी दर्शन का सूत्रपात नहीं कर रहे हैं। वे केवल उन लोगों को बुला रहे हैं जो अंधे हैं और जिनके भीतर प्रकाश को देखने की प्यास है। और जब लोग बुद्ध के पास गए, तो बुद्ध ने उन्हें कुछ शब्द पकड़ाए, बुद्ध ने उन्हें ध्यान की तरफ इंगित और इशारा किया। क्योंकि ध्यान से है खुलती आंख, ध्यान से खुलती है भीतर की आंख।विचारों से तो पर्त की पर्त तुम इकट्ठी कर लो, आंख खुली भी हो तो बंद हो जाएगी। विचारों के बोझ से आदमी की दृष्टि खो जाती है। जितने विचार के पक्षपात गहन हो जाते हैं, उतना ही देखना असंभव हो जाता है। फिर तुम वही देखने लगते हो जो तुम्हारी दृष्टियां होती है। फिर तुम वह नहीं देखते, जो है। जो है, उसे देखना हो तो सब दृष्टियों से मुक्त हो जाना जरूरी है।इस विरोधाभास को खयाल में लेना, दृष्टि पाने के लिए सब दृष्टियांे से मुक्त हो जाना जरूरी है। जिसकी कोई भी दृष्टि नहीं, जिसका कोई दर्शनशास्त्र नहीं, वही सत्य को देखने में समर्थ हो पाता है।
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=> दूसरी बात, गौतम बुद्ध पारंपरिक नही, मौलिक हैं।: 
गौतम बुद्ध किसी परंपरा, किसी लीक को नहीं पीटते हैं। वे ऐसा नहीं कहते हैं कि अतीत के ऋषियों ने ऐसा कहा था, इसलिए मान लो। वे ऐसा नहीं कहते हैं कि वेद में ऐसा लिखा है, इसलिए मान लो। वे ऐसा नहीं कहते हैं कि मैं कहता हूं, इसलिए मान लो। वे कहते हैं, जब तक तुम न जान लो, मानना मत। उधार श्रद्धा दो कौड़ी की है। विश्वास मत करना, खोजना। अपने जीवन को खोज में लगाना, मानने में जरा भी शक्ति व्यय मत करना। अन्यथा मानने में ही फांसी लग जाएगी। मान-मानकार ही लोग भटक गए हैं।
तो बुद्ध न तो परंपरा की दुहाई देते, न वेद की। न वे कहते हैं कि हम जो कहते हैं, वह ठीक होना ही चाहिए। वे इतना ही कहते हैं, ऐसा मैंने देखा। इसे मानने की जरूरत नहीं है। इसको अगर परिकल्पना की तरह ही स्वीकार कर लो, तो काफी है।परिकल्पना का अर्थ होता है, हाइपोथीसिस। जैसे कि मैंने कहा कि भीतर आओ, भवन में दीया जल रहा है। तो मैं तुमसे कहता हूं कि यह मानने की जरूरत नहीं है कि भवन में दीया जल रहा है। इसको विश्वास करने की जरूरत नहीं। इस पर किसी तरह की श्रद्धा लाने की जरूरत नहीं है। तुम मेरे साथ आओ और दीए को जलता देख लो। दीया जल रहा है तो तुम मानो या न मानो, दीया जल रहा है। और दीया जल रहा है तो तुम मानते हुए आओ कि न मानते हुए आओ, दीया जलता ही रहेगा। तुम्हारे न मानने से दीया बुझेगा नहीं, तुम्हारे मानने से जलेगा नहीं।
इसलिए बुद्ध कहते हैं, तुम सिर्फ मेरा निमंत्रण स्वीकार करो। इस भवन में दीया जला है, तुम भीतर आओ। और यह भवन तुम्हारा ही है, यही तुम्हारी ही अंतरात्मा का भवन है। तुम भीतर आओ और दीए को जलता देख लो। देख लो, फिर मानना।
और खयाल रहे जब देख ही लिया तो मानने की कोई जरूरत नहीं रह जाती है। हम जो देख लेते हैं, उसे थोड़े ही मानते हैं। हम तो जो नहीं देखते, उसी को मानते हैं। तुम पत्थर-पहाड़ को तो नहीं मानते, परमात्मा को मानते हो। तुम सूरज-चांद-तारों को तो नहीं मानते, वे तो हैं। तुम स्वर्गलोक, मोक्ष, नर्क को मानते हो। जो नहीं दिखाई पड़ता, उसको हम मानते हैं। जो दिखायी पड़ता है, उसको तो मानने की जरूरत ही नहीं रह जाती है, उसका यथार्थ तो प्रगट है।
तो बुद्ध कहते हैं, मेरी बात पर भरोसा लाने की जरूरत नहीं, इतना ही काफी है कि तुम मेरा निमंत्रण स्वीकार कर लो। इतना पर्याप्त है। इसको वैज्ञानिक कहते हैं, हाइपोथीसिस, परिकल्पना। एक वैज्ञानिक कहता है, सौ डिग्री तक पानी गर्म करने से पानी भाप बन जाता है। मानने की कोई जरूरत नहीं, चूल्हा तुम्हारे घर में है, जल उपलब्ध है, आग उपलब्ध है, चढ़ा दो चूल्हे पर जल को, परीक्षण कर लो। परीक्षण करने के लिए जो बात मानी गयी है, वह परिकल्पना। अभी स्वीकार नहीं कर ली है कि यह सत्य है, लेकिन एक आदमी कहता है, शायद सत्य हो, शायद असत्य हो, प्रयोग करके देख लें, प्रयोग ही सिद्ध करेगा-सत्य है या नहीं?
तो बुद्ध पारंपरिक नहीं हैं, मौलिक हैं। विचार की परंपरा होती है, दृष्टि की मौलिकता होती है। विचार अतीत के होते हैं, दृष्टि वर्तमान में होती है। विचार दूसरों के होते हैं, दृष्टि अपनी होती है।

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=> तीसरी बात, गौतम बुद्ध शास्त्रीय नहीं हैं। पंडित नहीं हैं, वैज्ञानिक हैं। :

बुद्ध ने धर्म को पहली दफे वैज्ञानिक प्रतिष्ठा दी। बुद्ध ने धर्म को पहली दफे विज्ञान के सिंहासन पर विराजमान किया। इसके पहले तक धर्म अंधविश्वास था। बुद्ध ने उसे बड़ी गरिमा दी। बुद्ध ने कहा, अंधविश्वास की जरूरत ही नहीं है। धर्म तो जीवन का परम सत्य है। एस धम्मो सनंतनो। यह धर्म तो शाश्वत और सनातन है। तुम जब आंख खोलोगे तब इसे देख लोगे।
इसलिए बुद्ध ने यह नहीं कहा कि नरक के भय के कारण मानो, और यह भी नहीं कहा कि स्वर्ग के लोभ के कारण मानो। और इसलिए यह भी नहीं कहा कि परमात्मा सताएगा अगर न माना, और परमात्मा पुरस्कार देगा अगर माना। नही, ये सब व्यर्थ की बातें बुद्ध ने नहीं कहीं।
बुद्ध ने तो सारसूत्र कहा। बुद्ध ने तो कहा, यह धर्म तुम्हारा स्वभाव है। यह तुम्हारे भीतर बह रहा है, अहर्निश बह रहा है। इसे खोजने के लिए आकाश में आंखें उठाने की जरूरत नहीं है, इसे खोजने के लिए भीतर जरा सी तलाश करने की जरूरत है। यह तुम हो, तुम्हारी नियति है, यह तुम्हारा स्वभाव है। एक क्षण को भी तुमने इसे खोया नहीं, सिर्फ विस्मरण हुआ है।

तो बुद्ध ने चैतन्य की सीढ़ियां कैसे पार की जाएं, मूर्छा से कैसे आदमी अमूर्छा में जाए, बेहोशी कैसे टूटे और होश कैसे जगे, इसका विज्ञान थिर किया। और जो उनके साथ भीतर गए, उन्हें निरपवाद रूप से मान लेना पड़ा कि बुद्ध जो कहते हैं, ठीक कहते हैं।
यह अपूर्व क्रांति थी। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। बुद्ध मील के पत्थर हैं मनुष्य-जाति के इतिहास में। संत तो बहुत हुए, मील के पत्थर बहुत थोड़े लोग होते हैं। महावीर भी मील के पत्थर नहीं हैं। क्योंकि महावीर ने जो कहा, वह तेईस तीर्थंकर पहले कह चुके थे। कृष्ण भी मील के पत्थर नहीं हैं। क्योंकि कृष्ण ने जो कहा, वह उपनिषद और वेद सदा से कहते रहे थे। बुद्ध मील के पत्थर हैं, जैसे लाओत्सू मील का पत्थर है। कभी-कभार, करोड़ों लोगों में एकाध संत होता है, करोड़ों संतों में एकाध मील का पत्थर होता है। मील के पत्थर का अर्थ होता है, उसके बाद फिर मनुष्य-जाति वही नहीं रह जाती। सब बदल जाता है, सब रूपांतरित हो जाता है। एक नयी दृष्टि और एक नया आयाम और एक नया आकाश बुद्ध ने खोल दिया।

इस प्रवचन में ओशो भगवान बुद्ध की विशेषताओं पर प्रकाश डालते है,इस प्रवचन को सुनने के बाद यही प्रतीत होता है की , बुद्ध को अगर कोई ठीक से समझ पाया है तो वोह एक मात्र ओशो है|बुद्ध के साथ धर्म अंधविश्वास न रहा, अंतर्खोज बना। बुद्ध के साथ धर्म ने बड़ी छलांग लगा ली। आस्तिक को ही धर्म में जाने की सुविधा न रही, नास्तिक को भी सुविधा हो गयी। ईश्वर को नहीं मानते, कोई हर्ज नहीं, बुद्ध कहते ही नहीं कि मानना जरूरी है। कुछ भी नहीं मानते, बुद्ध कहते हैं, तो भी कोई चिंता की बात नहीं। कुछ मानने की जरूरत ही नहीं है। बिना कुछ माने अपने भीतर तो जा सकते हो। भीतर जाने के लिए मानने की आवश्यकता क्या है! न तो ईश्वर को मानना है, न आत्मा को मानना है, न स्वर्ग-नर्क को मानना है। इसे तो नास्तिक भी इनकार न कर सकेगा कि मेरा भीतर है। इसे तो नास्तिकों ने भी नहीं कहा है कि भीतर नहीं है। भीतर तो है ही। नास्तिक कहते हैं, यह भीतर शाश्वत नहीं है। बुद्ध कहते हैं, फिकर छोड़ो, पहले यह जितना है उसे जान लो, उसी जानने से अगर शाश्वत का दर्शन हो जाए तो फिर मानने की जरूरत न होगी; तुम मान ही लोगे।
बुद्ध ने नास्तिकों को धार्मिक बनाने का महत कार्य पूरा किया। इसलिए बुद्ध के पास जो लोग आकर्षित हुए, बड़े बुद्धिमान लोग थे। आमतौर से धार्मिक साधु-संतों के पास बुद्धिहीन लोग इकट्ठे होते हैं। जड़, मूर्छित, मुर्दा। बुद्ध ने मनुष्य-जाति की जो श्रेष्ठतम संभावनाएं हैं, उनको आकर्षित किया। बुद्ध के पास नवनीत इकट्ठा हुआ चैतन्य का। ऐसे लोग इकट्ठे हुए जो और किसी तरह तो धर्म को मान ही नहीं सकते थे, उनके पास प्रज्वलित तर्क था। इसलिए बुद्ध दार्शनिक हैं, लेकिन बुद्ध के पास इस देश के सबसे बड़े से बड़े दार्शनिक इकट्ठे हो गए। बुद्ध अकेले एक व्यक्ति के पीछे इतना दर्शनशास्त्र पैदा हुआ, जितना मनुष्य-जाति के इतिहास में किसी दूसरे व्यक्ति के पीछे नहीं हुआ। और बुद्ध के पीछे इतने महत्वपूर्ण विचारक हुए कि जिनकी तुलना सारी पृथ्वी पर कहीं भी खोजनी मुश्किल है।
कैसे यह घटित हुआ? बुद्ध ने महानास्तिकों को आकर्षित किया। आस्तिक को बुला लेना मंदिर में तो कोई खास बात नहीं, नास्तिक को बुला लेने में कुछ खास बात है। बुद्ध वैज्ञानिक हैं, इसलिए नास्तिक भी उत्सुक हुआ। विज्ञान को तो नास्तिक ठुकरा न सकेगा। बुद्ध ने कहा, संदेह है, चलो, संदेह की ही सीढ़ी बनाएंगे। संदेह से और शुभ क्या हो सकता है! संदेह के पत्थर को लेंगेी बना लेंगेे। संदेह से ही तो खोज होती है। इसलिए संदेह को फेंको मत।
इस बात को समझना। जिसके पास जितनी विराट दृष्टि होती है, उतना ही वह हर चीज का उपयोग कर लेना चाहता है। सिर्फ क्षुद्र दृष्टि के लोग काटते हैं। क्षुद्र दृष्टि का आदमी कहेगा, संदेह नहीं चाहिए, श्रद्धा चाहिए। काटो संदेह को। लेकिन संदेह तुम्हारा जीवंत अंग है, काटोगे तो तुम अपंग हो जाओगे। संदेह का रूपांतरण होना चाहिए, खंडन नहीं। संदेह ही श्रद्धा बन जाए, ऐसी कोई प्रक्रिया होनी चाहिए।
कोई कहता है, काटो कामवासना को। लेकिन काटने से तो तुम अपंग हो जाओगे। कुछ ऐसा होना चाहिए कि कामवासना राम की वासना बन जाए। ऊर्जा का अधोगमन ऊर्ध्वगमन बन जाए। तुम ऊर्ध्वरेतस बन जाओ। कुछ ऐसा होना चाहिए कि तुम्हारे कंकड़-पत्थर भी हीरों में रूपांतरित हो जाएं। कुछ ऐसा होना चाहिए कि तुम्हारे जीवन की कीचड़ कमल बन सके।बुद्ध ने वह कीमिया दी।

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= > चौथी बात, गौतम बुद्ध वायवी, एब्सट्रेक्ट नहीं, अत्यंत व्यावहारिक हैं।

ऊंचे से ऊंची छलांग ली है उन्होंने, लेकिन पृथ्वी को कभी नहीं छोड़ा। जड़ें जमीन में जमाए रखीं। वह सिर्फ हवा में ही पंख नहीं मारते रहे।
एक बहुत प्राचीन कथा है कि ब्रह्मा ने जब सृष्टि बनायी और सब चीजें बनायीं, तभी उसने यथार्थ और स्वप्न भी बनाया। बनते ही झगड़ा शुरू हो गया। यथार्थ और स्वप्न का झगड़ा तो प्राचीन है। पहले दिन ही झगड़ा शुरू हो गया। यथार्थ ने कहा, मैं श्रेष्ठ हूं; स्वप्न ने कहा, मैं श्रेष्ठ हूं, तुझमे रखा क्या है! झगड़ा यहां तक बढ़ गया कि कौन महत्वपूर्ण है दोनों में कि दोनों झगड़ते हुए ब्रह्मा के पास गए। ब्रह्मा हंसे और उन्होंने कहा, ऐसा करो, सिद्ध हो जाएगा प्रयोग से। तुममें से जो भी जमीन पर पैर गड़ाए रहे और आकाश को छूने में समर्थ हो जाए, वही श्रेष्ठ है।
दोनों लग गये। स्वप्न ने तो तत्क्षण आकाश छू लिया, देर न लगी, लेकिन पैर उसके जमीन तक न पहुंच सके। टंग गया आकाश में। हाथ तो लग गए आकाश से, लेकिन पैर जमीन से न लगे-स्वप्न के पैर होते ही नहीं। यथार्थ जमीन में पैर गड़ाकर खड़ा हो गया, जैसे कि कोई वृक्ष हो, लेकिन ठूंठ की तरह, आकाश तक उसके हाथ न पहुंचे।
ब्रह्मा ने कहा, समझे कुछ? स्वप्न अकेला आकाश में अटक जाता है, यथार्थ अकेला जमीन पर भटक जाता है। कुछ ऐसा चाहिए कि स्वप्न और यथार्थ का मेल हो जाए।
तो बुद्ध वायवी नहीं हैं। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि उन्होंनें आकाश नहीं छुआ। उन्होंने आकाश छुआ, लेकिन यथार्थ के आधार पर छुआ।
इस फर्क को समझना।
बुद्ध ने अपने पैर तो जमीन पर रोके, बुद्ध ने यथार्थ को तो जरा भी नहीं भुलाया, यथार्थ में बुनियाद रखी; भवन उठा, मंदिर ऊंचा उठा, मंदिर पर स्वर्णकलश चढ़े। लेकिन मंदिर के स्वर्णकलश टिकते तो जमीन में छिपे हुए पत्थरों पर हैं, भूमि के भीतर छिपे हुए बुनियाद के पत्थरों पर टिकते हैं। बुद्ध ने एक मंदिर बनाया, जिसमें बुनियाद भी है और शिखर भी।
बहुत लोग हैं, जिनको हम नास्तिक कहते हैं, वे जमीन पर अटके रह जाते हैं। वे ठूंठ की तरह हैं। यथार्थ का ठूंठ। मार्क्सवादी हैं या चार्वाकवादी हैं, वे यथार्थ का ठूंठ। वे जमीन में तो पैर गड़ा लेते हैं, लेकिन उनके भीतर आकाश तक उठने की कोई अभीप्सा नहीं है, आकाश तक उठने की कोई क्षमता नहीं है। और चूंकि वे सपने को काट डालते हैं बिलकुल और कह देते हैं, आदर्श है ही नहीं जगत में। बस यही सब कुछ है, मिट्टी ही सब कुछ है। उनके जीवन में कमल नहीं फूलता, कमल नहीं उठता। कमल का उपाय ही नहीं रह जाता। जिसको इनकार कर दिया आग्रहपूर्वक, उसका जन्म नहीं होता।
और फिर दूसरी तरफ सिद्धांतवादी हैं: एब्सट्रेक्ट, वायवी विचारक है; वे आकाश में ही पर मारते रहते हैं, वे कभी जमीन पर पैर नहीं रोकते हैं। वे आदर्श में जीते हैं, यथार्थ से उनका कभी कोई मिलन ही नहीं होता। उनकी आंखों में आकाश-कुसुम खिलते हैं, असली कुसुम नहीं।
बुद्ध स्वप्नवादी नहीं हैं, परम व्यावहारिक हैं। लेकिन चार्वाक जैसे व्यवहारवादी भी नहीं हैं। उनका व्यवहारवाद अपने भीतर आदर्श की संभावना छिपाए हुए है। लेकिन वे कहते हैं, शुरू तो करना होगा जमीन पर पैर टेकने से। जिसके पैर जमीन में जितनी मजबूती से टिके हैं, वह उतनी ही आसानी से आकाश को छूने में समर्थ हो पाएगा। मगर यात्रा तो शुरू करनी पड़ेगी जमीन में पैर टेकने से।
इसलिए जब कोई बुद्ध के पास आता है और ईश्वर की बात पूछता है, वे कहते हैं, व्यर्थ की बातें मत पूछो। अनेकों को तो लगा कि बुद्ध अनीश्वरवादी हैं, इसलिए ईश्वर के बाबत जवाब नहीं देते। यह बात सच नहीं है। बुद्ध कहते हैं, पहले जमीन में तो पैर गड़ा लो, पहले ध्यान में तो उतरो, पहले अंतस चेतना में तो जड़ें फैला लो, पहले तुम जो हो उसको तो पहचान लो, फिर यह पीछे हो लेगा। यह अपने से हो लेगा। यह एक दिन अचानक हो जाता है। जब जमीन में वृक्ष की जड़े खूब मजबूती से रुक जाती हैं, तो वृक्ष अपने आप आकाश की तरफ उठने लगता है। एक दिन आकाश में उठे वृक्ष में फूल भी खिलते हैं, वसंत भी आता है। मगर वह अपने से होता है। असली बात जड़ की है।
तो बुद्ध बहुत गहरे में यथार्थवादी हैं, लेकिन उनका यथार्थ आदर्श को समाहित किए हुए है। वह आदर्श समन्वित है यथार्थ में।

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=>पांचवी बात, गौतम बुद्ध विधिवादी नहीं, मानवीय हैं।:
एक तो विधिवादी होता है, जैसे मनु। सिद्धांत महत्वपूर्ण हैं, मनुष्य महत्वपूर्ण नहीं है। ऐसा लगता है मनु में, जैसे मनुष्य सिद्धांत के लिए बना है। मनुष्य की आहुति चढ़ायी जा सकती है सिद्धांत के लिए, लेकिन सिद्धांत में फेर-बदल नहीं की जा सकती।
बुद्ध अति मानवीय हैं, ह्ययूमनिस्ट। मानववादी हैं। वे कहते हैं, सिद्धांत का उपयोग है मनुष्य की सेवा में तत्पर हो जाना। सिद्धांत मनुष्य के लिए है, मनुष्य सिद्धांत के लिए नहीं। इसलिए बुद्ध के वक्तव्यों में बड़े विरोधाभास हैं। क्योंकि बुद्ध एक-एक व्यक्ति की मनुष्यता को इतना मूल्य देते, इतना चरम मूल्य देते हैं कि अगर उन्हें लगता है इस आदमी को इस सिद्धांत से ठीक नहीं पड़ेगा, तो वे सिद्धांत बदल देते हैं। अगर उन्हें लगता है कि थोड़े से सिद्धांत में फर्क करने से इस आदमी को लाभ होगा, तो उन्हें फर्क करने में जरा भी झिझक नहीं होती। लेकिन मौलिक रूप से ध्यान उनका व्यक्ति पर है, मनुष्य पर है। मनुष्य परम है। मनुष्य मापदंड है। सब चीजें मनुष्य पर कसी जानीं चाहिए।

इसलिए बुद्ध वर्ण-व्यवस्था को न मान सके। इसलिए बुद्ध आश्रम-व्यवस्था को भी न मान सके। क्योंकि ये जड़ सिद्धांत हैं। बुद्ध ने कहा, ब्राह्मण वही जो ब्रह्म को जाने। ब्राह्मण-घर में पैदा होने से कोई ब्राह्मण नहीं होता। और शूद्र वही जो ब्रह्म न जाने। शूद्र-घर में पैदा होने से कोई शूद्र नहीं होता। तो अनेक ब्राह्मण शूद्र हो गए, बुद्ध के हिसाब से, और अनेक शूद्र बाह्मण हो गए। सब अस्तव्यस्त हो गया। मनु के पूरे शास्त्र को बुद्ध ने उखाड़ फेंका।
हिंदू अब तक भी बुद्ध से नाराजगी भूले नहीं हैं। वर्ण-व्यवस्था को इस बुरी तरह बुद्ध ने तोड़ा। यह कुछ आकस्मिक बात नहीं थी कि डाक्टर अंबेडकर ने ढाई हजार साल बाद फिर शूद्रों को बौद्ध होने को निमंत्रण दिया। इसके पीछे कारण है। अंबेडकर ने बहुत बातें सोची थीं। पहले उसने सोचा कि ईसाई हो जाएं, क्योंकि हिंदुओ ने तो सता डाला है, तो ईसाई हो जाएं। फिर सोचा कि मुसलमान हो जाएं। लेकिन यह कोई बात जमीं नही, क्योंकि मुसलमानों में भी वही उपद्रव है। वर्ण के नाम से न होगा तो शिया-सुन्नी का है।
अंततः अंबेडकर की दृष्टि बुद्ध पर पड़ी और तब बात जंच गयी अंबेडकर को कि शूद्र को सिवाय बुद्ध के साथ और कोई उपाय नहीं है। क्योंकि शूद्र के लिए भी अपने सिद्धांत बदलने को अगर कोई आदमी राजी हो सकता है तो वह गौतम बुद्ध हैं-और कोई राजी नहीं हो सकता-जिसके जीवन में सिद्धांत का मूल्य ही नहीं, मनुष्य का चरम मूल्य है।
यह आकस्मिक नहीं है कि अंबेडकर बौद्ध हुए। पच्चीस सौ साल के बाद शूद्रों का फिर बौद्धत्व की तरफ जाना, या बौद्धत्व के मार्ग की तरफ जाना, बौद्ध होने की आकांक्षा, बड़ी सूचक है। इससे बुद्ध के संबंध में खबर मिलती है।
बुद्ध ने वर्ण की व्यवस्था तोड़ दी और आश्रम की व्यवस्था भी तोड़ दी। जवान, युवकों को संन्यास दे दिया। हिंदू नाराज हुए। संन्यस्त तो आदमी होता है आखिरी अवस्था में, मरने के करीब। अगर बचा रहा, पचहत्तर साल के बाद उसे संन्यस्त होना चाहिए। तो पहले तो पचहत्तर साल तक लोग बचते नहीं। अगर बच गए, तो पचहत्तर साल के बाद ऊर्जा नहीं बचती जीवन में। तो हिंदुओं का संन्यास एक तरह का मुर्दा संन्यास है, जो आखिरी घड़ी में कर लेना है। मगर इसका जीवन से कोई बहुत गहरा संबंध नहीं है।
बुद्ध ने युवकों को संन्यास दे दिया, बच्चों को संन्यास दे दिया और कहा कि यह बात मूल्यवान नहीं है, लकीर के फकीर होकर चलने से कुछ भी न चलेगा। अगर किसी व्यक्ति को युवावस्था में भी परमात्मा को खोजने की, सत्य को खोजने की, जीवन के यथार्थ को खोजने की प्रबल आकांक्षा जगी है, तो मनु महाराज का नियम मानकर रुकने की कोई जरूरत नहीं है। वह अपनी आकांक्षा को सुने, वह अपनी आकांक्षा से जाए। प्रत्येक व्यक्ति अपनी आंकाक्षा को सुने। प्रत्येक व्यक्ति अपनी आकांक्षा से जीए। उन्होंनें सब सिद्धांत एक अर्थ में गौण कर दिए, मनुष्य प्रमुख हो गया।
तो वे सैद्धांतिक नहीं हैं, विधिवादी नहीं हैं। लीगल नहीं है उनकी पकड़, उनकी पकड़ मानवीय है। कानून इतना मूल्यवान नहीं है, जितना मनुष्य मूल्यवान है। और हम कानून बनाते ही इसीलिए हैं कि मनुष्य के काम आए। मनुष्य कानून के काम आने के लिए नहीं है। इसलिए जब जरूरत हो, कानून बदला जा सकता है। जब मनुष्य के हित में हो, ठीक है, जब अहित में हो जाए तोड़ा जा सकता है। जो-जो मनुष्य के अहित में हो जाए, तोड़ देना है। कोई कानून शाश्वत नहीं है, सब कानून उपयोग के लिए हैं।

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=> और छठवीं बात, गौतम बुद्ध नियमवादी नहीं है, बोधवादी हैं।
अगर बुद्ध से पूछो, क्या अच्छा है, क्या बुरा है, तो बुद्ध उत्तर नहीं देते। बुद्ध यह नहीं कहते कि यह काम बुरा है और यह काम अच्छा है। बुद्ध कहते हैं, जो बोधपूर्वक किया जाए, वह अच्छा; जो बोधहीनता से किया जाए, बुरा।
इस फर्क को खयाल में लेना। बुद्ध यह नहीं कहते कि हर काम हर स्थिति में भला हो सकता है। या कोई काम हर स्थिति में बुरा हो सकता है। कभी कोई बात पुण्य हो सकती है, और कभी कोई बात पाप हो सकती है-वही बात पाप हो सकती है, भिन्न परिस्थति में वही बात पाप हो सकती है। इसलिए पाप और पुण्य कर्मो के ऊपर लगे हुए लेबिल नहीं हैं। अभी जो तुमने किया, पुण्य है; और सांझ को दोहराओ तो शायद पाप हो जाए। भिन्न परिस्थिति।
तो फिर हमारे पास शाश्वत आधार क्या होगा निर्णय का? बुद्ध ने एक नया आधार दिया। बुद्ध ने आधार दिया-बोध, जागरूकता। इसे खयाल में लेना। जो मनुष्य जागरूकतापूर्वक कर पाए, जो भी जागरूकता में ही किया जा सके, वही पुण्य है। और जो बात केवल मूर्छा में ही की जा सके, वही पाप है। जैसे, तुम पूछो, क्रोध पाप है या पुण्य? तो बुद्ध कहते हैं, अगर तुम क्रोध जागरूकतापूर्वक कर सको, तो पुण्य है। अगर क्रोध तुम मूर्छित होकर ही कर सको, तो पाप है।
अब फर्क समझना। इसका मतलब यह हुआ कि हर क्रोध पाप नहीं होता और हर क्रोध पुण्य नहीं होता। कभी मां जब अपने बेटे पर क्रोध करती है, तो जरूरी नहीं है कि पाप हो। शायद पुण्य भी हो, पुण्य हो सकता है। शायद बिना क्रोध के बेटा भटक जाता। लेकिन इतना ही बुद्ध का कहना है, होशपूर्वक किया जाए।
मैंने एक झेन कहानी सुनी है। एक समुराई, एक क्षत्रिय के गुरु को किसी ने मार दिया। और जापान में ऐसी व्यवस्था है, अगर किसी का गुरु मार डाला जाए, तो शिष्य का कर्तव्य है कि बदला ले। और जब तक वह मारने वाले को न मार दे, तब तक चैन न ले। ये समुराई तो बड़े भयानक योद्धा होते हैं। गुरु को किसी ने मार डाला, तो उसका जो शिष्य था, वह तो सब कुछ छोड़कर बस इसी में लग गया।

दो साल बाद उसका पीछा करते-करते एक जंगल में, एक गुफा में उसको पकड़ लिया। बस उसकी छाती में छुरा भोंकने को था ही कि उस आदमी ने उस समुराई के ऊपर थूक दिया। जैसे ही उसने थूका, उसने छुरा वापस रख लिया अपनी म्यान में और वापस गुफा के बाहर निकल आया।
उस आदमी ने कहा, क्यों भाई, क्या हो गया? दो साल से मेरे पीछे पड़े हो, बमुश्किल तुम मुझे खोज पाए, मैं जंगल-जंगल भागता रहा, आज तुम्हें मिल गया, आज क्या बात हो गयी कि छुरा निकाला हुआ वापस रख लिया?

उसने कहा कि मुझे क्रोध आ गया। तुमने थूक दिया, मुझे क्रोध आ गया। मेरे गुरु का उपदेश था, मारो भी अगर किसी को, तो मूर्छा में मत मारना। तो मारने में भी कोई पाप नहीं है। लेकिन तुमने जो थूक दिया, दो साल तक मैंने होश रखा-यह तो सिर्फ एक व्यवस्था की बात थी कि गुरु को मेरे तुमने मारा तो मैं तुम्हें मार रहा था, मेरा इसमें कुछ वैयक्तिक लेना-देना नहीं था-लेकिन तुमने थूक क्या दिया मुझ पर, मैं भूल ही गया गुरु को और मेरे मन में भाव उठा कि मार डालूं इस आदमी को, इसने मेरे ऊपर थूका! मैं बीच में आ गया, मूर्छा आ गयी। अहंकार बीच में आ गया, मूर्छा आ गयी। इसलिए अब जाता हूं। अब फिर जब यह मूर्छा हट जाएगी तब सोचूंगा। लेकिन मूर्छा में कुछ किया नहीं जा सकता।
बुद्ध ने कहा है, जो तुम मूर्छा में करो, वही पाप; जो जागरूकता में करों, वही पुण्य है। यह पाप और पुण्य की बड़ी नयी व्यवस्था थी। और इसमें व्यक्ति को परम स्वतंत्रता है। कोई दूसरा तय नहीं कर सकता कि क्या पाप है, क्या पुण्य है। तुमको ही तय करना है। बुद्ध ने व्यक्ति को परम गरिमा दी।

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और सातवीं बात, गौतम बुद्ध असहज के पक्षपाती नहीं, सहज के उपदेष्टा हैं।
गौतम बुद्ध कहते हैं, कठिन के ही कारण आकर्षित मत होओ। क्योंकि कठिन में अहंकार का लगाव है।
इसे तुमने देखा कभी? जितनी कठिन बात हो, लोग करने को उसमें उतने ही उत्सुक होते हैं। क्योंकि कठिन बात में अहंकार को रस आता है, मजा आता है-करके दिखा दूं। अब जैसे पूना की पहाड़ी पर कोई चढ़ जाए, तो इसमें कुछ मजा नहीं है, एवरेस्ट पर चढ़ जाऊं तो कुछ बात है। पूना की पहाड़ी पर चढ़कर कौन तुम्हारी फिकर करेगा, तुम वहां लगाए रहो झंडा, खड़े रहो चढ़कर! न अखबार खबर छापेंगे, न कोई वहां तुम्हारा चित्र लेने आएगा। तुम बड़े हैरान होओगे कि फिर यह हिलेरी पर और तेनसिंग पर इतना शोरगुल क्यों मचाया गया! आखिर इन ने भी कौन सी बड़ी बात की थी, जाकर हिमालय पर झंडा गाड़ दिया था, मैंने भी झंडा गाड़ दिया! लेकिन तुम्हारी पहाड़ी छोटी है। इस पर कोई भी चढ़ सकता है। जिस पहाड़ी पर कोई भी चढ़ सकता है, उसमें अहंकार को तृप्ति का उपाय नहीं है।
तो बुद्ध ने कहा कि अहंकार अक्सर ही कठिन में और दुर्गम में उत्सुक होता है। इसलिए कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि जो सहज और सुगम है, जो हाथ के पास है, वह चूक जाता है और दूर के तारों पर हम चलते जाते हैं।
देखते हैं, आदमी चांद पर पहुंच गया। अभी अपने पर नहीं पहुंचा! तुमने कभी देखा, सोचा इस पर? चांद पर पहुंचना तकनीक की अदभुत विजय है। गणित की अदभुत विजय है। विज्ञान की अदभुत विजय है। जो आदमी चांद पर पहुँच गया, यह अभी छोटी-छोटी चीजें करने में सफल नहीं हो पाया है। अभी एक ऐसा फाउंटेनपेन भी नहीं बना पाया जो लीकता न हो। और चांद पर पहुँच गए! छोटी-सी बात भी, अभी सर्दी-जुखाम का इलाज नहीं खोज पाए, चांद पर पहुंच गए! अब ऐसे फाउंटेनपेन को बनाने में उत्सुक भी कौन है जो लीके न! छोटी-मोटी बात है, इसमें रखा क्या है!
फाउंटेनपेन सदा लीकेंगे। कोई आशा नहीं दिखती कि कभी ऐसे फाउंटेनपेन बनेंगे जो लीकें न। और सर्दी-जुखाम सदा रहेगी, इससे छुटकारे का उपाय नहीं है। क्योंकि चिकित्सक कैंसर में उत्सुक हैं, सर्दी-जुखाम में नहीं। बड़ी चीज अहंकार की चुनौती बनती है। आदमी अपने भीतर नहीं पहुंचा जो निकटतम है और चांद पर पहुंच गया। मंगल पर भी पहुंचेगा, किसी दिन और तारों पर भी पहुंचेगा, बस, अपने को छोड़कर और सब जगह पहुंचेगा।
तो बुद्ध असहजवादी नहीं हैं। बुद्ध कहते है, सहज पर ध्यान दो। जो सरल है, सुगम है, उसको जीओ। जो सुगम है, वही साधना है। इसको खयाल में लेना। तो बुद्ध ने जीवनचर्या को अत्यंत सुगम बनाने के लिए उपदेश दिया है। छोटे बच्चे की भांति सरल जीओ। साधु होने का अर्थ बहुत कठिन और जटिल हो जाना नहीं, कि सिर के बल खड़े हैं, कि खड़े हैं तो खड़े ही हैं, बैठते नहीं, कि भूखों मर रहे हैं, कि लंबे उपवास कर रहे हैं, कि कांटों की शय्या बिछाकर उस पर लेट गए हैं, कि धूप में खड़े हैं, कि शीत में खड़े हैं, कि नग्न खड़े हैं। बुद्ध ने इन सारी बातों पर कहा कि ये सब अहंकार की ही दौड़ हैं। जीवन तो सुगम है, सरल है। सत्य सुगम और सरल ही होगा। तुम नैसर्गिक बनो और अहंकार के आकर्षणों में मत उलझो।

-ओशो
रहस्यदर्शियों पर ओशो
एस धम्मो सनंतनो, भाग 9
(प्रवचन नं. 82 से संकलित)


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भगवान् बुद्ध  का जीवन परिचय 
 भगवान् बुद्ध  के बारे में कुछ भी कहना सूरज को दिया दिखाने जैसाहै,उनके व्यक्तित्व और सिद्धांत के आगे कोई नहीं टिक सकताजो एक बार बौध धम्म कोठीक से समझ लेता है वो फिर कहीं नहीं जा सकता|बौद्ध धर्म को पैंतीस करोड़ से अधिक लोग मानते हैं और यह दुनिया का चौथा सबसे बड़ा धर्म है।  भगवान् बुद्ध  को गौतम बुद्ध ‘, ‘ महात्मा बुद्ध ‘ आदि नामों से भी जाना जाता है। वे संसार प्रसिद्ध बौद्ध धर्म के संस्थापक हैं। बौद्ध धर्म भारत की श्रमण परम्परा से निकला धर्म और दर्शन है। आज बौद्ध धर्म सारे संसार के चार बड़े धर्मों में से एक है। इसके अनुयायियों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। इस धर्म के संस्थापक भगवान् बुद्ध  राजा शुद्धोदन के पुत्र थे और इनका जन्म स्थान लुम्बिनी नामक ग्राम था। वे छठवीं से पाँचवीं शताब्दी ईसा पूर्व तक जीवित थे। उनके गुज़रने के बाद अगली पाँच शताब्दियों मेंबौद्ध धर्म पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फ़ैला गया और अगले दो हज़ार सालों में मध्यपूर्वी और दक्षिण-पूर्वी जम्बू महाद्वीप में भी फैल गया। आज बौद्ध धर्म में तीन मुख्य सम्प्रदाय हैं- थेरवाद‘, ‘महायान और वज्रयान
जन्म – भगवान् बुद्ध  का मूल नाम सिद्धार्थ था। सिंहलीअनुश्रुतिखारवेल के अभिलेखअशोक के सिंहासनारोहण की तिथिकैण्टन के अभिलेख आदि के आधार पर  भगवान् बुद्ध  की जन्म तिथि 563 ई.पूर्व स्वीकार की गयी है। इनका जन्म शाक्यवंश के राजा शुद्धोदन की रानी महामाया के गर्भ से लुम्बिनी में वेशाक पूर्णिमा के दिन हुआ था। शाक्य गणराज्य की राजधानी कपिलवस्तु के निकट लुम्बिनी में उनका जन्म हुआ। सिद्धार्थ के पिता शाक्यों के राजा शुद्धोधन थे। भगवान् बुद्ध  को शाक्य मुनि भी कहते हैं। सिद्धार्थ की माता मायादेवी उनके जन्म के कुछ देर बाद मर गई थी। कहा जाता है कि फिर एक ऋषि ने कहा कि वे या तो एक महान राजा बनेंगेया फिर एक महान साधु। लुम्बिनी मेंजो दक्षिण मध्य नेपाल में है, सम्राट अशोक ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में भगवान् भगवान् बुद्ध  के जन्म की स्मृति में एक स्तम्भ बनवाया था। मथुरा में अनेक बौद्ध कालीन मूर्तियाँ मिली हैं। जो मौर्य काल और कुषाण काल में मथुरा की अति उन्नत मूर्ति कला की अमूल्य धरोहर हैं। भगवान् बुद्ध  की जीवन-कथाओं में वर्णित है कि सिद्धार्थ ने कपिलवस्तु को छोड़ने के पश्चात् अनोमा नदी को अपने घोड़े कंथक पर पार किया था और यहीं से अपने परिचारक छंदक को विदा कर दिया था।
 लुंबिनीग्राम-कपिलवस्तु के पास ही लुम्बिनी ग्राम स्थित थाजहाँ पर भगवान् बुद्ध  का जन्म हुआ था। इसकी पहचान नेपाल की 
तराई में स्थित रूमिनदेई नामक ग्राम से की जाती है। बौद्ध धर्म का यह एक प्रमुख केन्द्र माना जाने लगा। महान सम्राट अशोक अपने राज्य-काल के बीसवें वर्ष धर्मयात्रा करते हुए लुम्बिनी पहुँचे  थे । उन्होंने इस स्थान के चारों ओर पत्थर की दीवाल खड़ी कर दी। वहाँ उन्होंने एक स्तंभ का निर्माण भी कियाजिस पर उनका  एक लेख ख़ुदा हुआ है। यह स्तंभ अब भी अपनी जगह पर विद्यमान है। विद्वानों का ऐसा अनुमान है कि महान सम्राट अशोक की यह लाट ठीक उसी जगह खड़ी हैजहाँ भगवान् बुद्ध  का जन्म हुआ था। अशोक ने वहाँ के निवासियों को कर में भारी छूट दे दी थी। जो तीर्थयात्री वहाँ आते थेउन्हें अब यहाँ यात्रा-कर नहीं देना पड़ता था। वह कपिलवस्तु भी आये  हुए थे भगवान् गौतम भगवान् बुद्ध  के जिस स्तूप का निर्माण शाक्यों ने किया थाउसे उन्होंने आकार में दुगुना करा दिया था। लुम्बिनी में जन्म लेने वाले भगवान् भगवान् बुद्ध  को काशी में धर्म प्रवर्त्तन करना पड़ा। त्रिपिटक तथा जातकों से काशी के तत्कालीन राजनीतिक महत्त्व की सहज ही कल्पना हो जाती है। प्राचीन बौद्ध ग्रंथों में भगवान् भगवान् बुद्ध  काल में (कम से कम पाँचवी शताब्दि ई.पूर्व) काशी की गणना चम्पाराजगृहश्रावस्तीसाकेत एवं कौशाम्बी जैसे प्रसिद्ध नगरों में होती थी। भगवान् बुद्ध  (सिद्धार्थ) के जन्म से पहले उनकी माता ने विचित्र सपने देखे थे।शुद्धोदन ने सिद्धार्थ को चक्रवर्ती सम्राट बनाना चाहाउसमें क्षत्रियोचित गुण उत्पन्न करने के लिये समुचित शिक्षा का प्रबंध कियाकिंतु सिद्धार्थ सदा किसी चिंता में डूबे दिखाई देते थे। अंत में पिता ने उन्हें विवाह बंधन में बांध दिया। एक दिन जब सिद्धार्थ रथ पर शहर भ्रमण के लिये निकले थे तो उन्होंने मार्ग में जो कुछ भी देखा उन्होंने उनके जीवन की दिशा ही बदल डाली। एक बार एक दुर्बल वृद्ध व्यक्ति कोएक बार एक रोगी को और एक बार एक शव को देख कर वे संसार से और भी अधिक विरक्त तथा उदासीन हो गये। पर एक अन्य अवसर पर उन्होंने एक प्रसन्नचित्त संन्यासी को देखा। उसके चेहरे पर शांति और तेज़ की अपूर्व चमक विराजमान थी। सिद्धार्थ उस दृश्य को देख-कर अत्यधिक प्रभावित हुए।

गृहत्याग – बालक  सिद्धार्थ के मन में निवृत्ति मार्ग के प्रति नि:सारता तथा निवृति मर्ण की ओर संतोष भावना उत्पन्न हो गयी। जीवन का यह सत्य सिद्धार्थ के जीवन का दर्शन बन गया। विवाह के उपरान्त उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। पुत्र जन्म का समाचार मिलते ही उनके मुँह से सहसा ही निकल पड़ा- राहु‘- अर्थात बंधन। उन्होंने पुत्र का नाम राहुल‘ रखा। इससे पहले कि सांसारिक बंधन उन्हें छिन्न-विच्छिन्न करेंउन्होंने सांसारिक बंधनों को छिन्न-भिन्न करना प्रारंभ कर दिया और गृहत्याग करने का निश्चय किया। एक महान रात्रि को 29 वर्ष के युवक सिद्धार्थ ज्ञान प्रकाश की तृष्णा को तृप्त करने के लिये घर से बाहर निकल पड़े। कुछ विद्वानों का मत है कि गौतम ने यज्ञों में हो रही हिंसा के कारण गृहत्याग किया। कुछ अन्य विद्वानों के अनुसार गौतम ने दूसरों के दुख को न सह सकने के कारण घर छोड़ा था।
ज्ञान की प्राप्ति – गृहत्याग करने के बाद सिद्धार्थ ज्ञान की खोज में भटकने लगे। बिंबिसारउद्रकआलार एवम् कालाम नामक सांख्योपदेशकों से मिलकर वे उरुवेला की रमणीय वनस्थली में जा पहुँचे। वहाँ उन्हें कौंडिल्य आदि पाँच साधक मिले। उन्होंने ज्ञान-प्राप्ति के लिये घोर साधना प्रारंभ कर दी। किंतु उसमें असफल होने पर वे गया के निकट एक वटवृक्ष के नीचे आसन लगा कर बैठ गये और निश्चय कर लिया कि भले ही प्राण निकल जाएमैं तब तक समाधिस्त रहूँगाजब तक ज्ञान न प्राप्त कर लूँ। सात दिन और सात रात्रि व्यतीत होने के बाद,आठवें दिन वैशाख पूर्णिमा को उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ और उसी दिन वे तथागत हो गये। जिस वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ वह आज भी बोधिवृक्ष‘ के नाम से विख्यात है। ज्ञान प्राप्ति के समय उनकी अवस्था 35 वर्ष थी। ज्ञान प्राप्ति के बाद तपस्सु‘ तथा काल्लिक‘ नामक दो शूद्र उनके पास आये। भगवान् बुद्ध  नें उन्हें ज्ञान दिया और बौद्ध धर्म का प्रथम अनुयायी बनाया। बोधगयाबिहार से चल कर वे सारनाथ पहुँचे तथा वहाँ अपने पूर्वकाल के पाँच साथियों को उपदेश देकर अपना शिष्य बना दिया। बौद्ध परंपरा में यह उपदेश धर्मचक्र प्रवर्त्तननाम से विख्यात है।  भगवान् बुद्ध  ने कहा कि इन दो अतियों से सदैव बचना चाहिये-
-काम,मोह,धन,विलास आदि सुखों में अधिक लिप्त होना तथा
-शरीर से कठोर साधना करना। उन्हें छोड़ कर जो मध्यम मार्ग मैंने खोजा हैउनका अनुसरण  करना चाहिये।

यही उपदेश इनका धर्मचक्र प्रवर्तन‘ के रूप में पहला उपदेश था। अपने पाँच अनुयाइयों के साथ वे वाराणसी पहुँचे। यहाँ उन्होंने एक श्रेष्ठि पुत्र को अपना अनुयायी बनाया तथा पूर्णरुप से धर्म प्रवर्त्तन‘ में जुट गये। अब तक उत्तर भारत में इनका काफ़ी नाम हो गया था और अनेक अनुयायी बन गये थे। कई वर्षों बाद महाराज शुद्धोदन ने इन्हें देखने के लिये कपिलवस्तु बुलवाना चाहालेकिन जो भी इन्हें बुलाने आता वह स्वयं इनके उपदेश सुन कर इनका अनुयायी बन जाता था। इनके शिष्य घूम-घूम कर इनका प्रचार करते थे।
भगवान् बुद्ध  की शिक्षा-मनुष्य जिन दु:खों से पीड़ित हैउनमें बहुत बड़ा हिस्सा ऐसे दु:खों का हैजिन्हें मनुष्य ने अपने अज्ञानग़लत ज्ञान या मिथ्या दृष्टियों से पैदा कर लिया हैं उन दु:खों का प्रहाण अपने सही ज्ञान द्वारा ही सम्भव हैकिसी के आशीर्वाद या वरदान, देवपूजा,यग,ब्रह्मणि कर्मकांडों, ज्योतिष आदि  से उन्हें दूर नहीं किया जा सकता। सत्य या यथार्थता का ज्ञान ही सम्यक ज्ञान है। हम अपने जन्म से मरण तक जो भी करते हैं उस सबका एक ही अंतिम मकसद होता है-स्थाई खुशी या निर्वाण  अत: सत्य की खोज- ‘निर्वाण या स्थाई ख़ुशी’ के लिए परमावश्यक है। खोज अज्ञात सत्य की ही की जा सकती है,यदि सत्य किसी शास्त्रआगम या उपदेशक द्वारा ज्ञात हो गया है तो उसकी खोज नहीं। अत: बुद्ध ने अपने पूर्ववर्ती लोगों द्वारा या परम्परा द्वारा बताए सत्य को और वेद पुराण जैसे हर काल्पनिक धर्म ग्रंथों को नकार दिया और अपने लिए नए सिरे से सत्य की खोज की। बुद्ध स्वयं कहीं प्रतिबद्ध नहीं हुए और न तो अपने शिष्यों को उन्होंने कहीं बांधा। उन्होंने कहा कि मेरी बात को भी इसलिए चुपचाप न मान लो कि उसे बुद्ध ने कही है। उस पर भी सन्देह करो और विविध परीक्षाओं द्वारा उसकी परीक्षा करो। जीवन की कसौटी पर उन्हें परखोअपने अनुभवों से मिलान करोयदि तुम्हें सही जान पड़े तो स्वीकार करोअन्यथा छोड़ दो। यही कारण था कि उनका धर्म रहस्याडम्बरों से मुक्तमानवीय संवेदनाओं से ओतप्रोत एवं हृदय को सीधे स्पर्श करता था। संसार में केवल गौतम बुद्ध का सिद्धांत ही ऐसा है तो हर युग में हर परिस्थिथि में एक सा ही लाभकारी  है जबकि अन्य धर्मों के सिद्धांत वैज्ञानिक  तरक्की और समय गुजरने के बाद झूठे साबित होते जाते हैं | ऐसा इसलिए है क्योंकि बौध धम्म में ऐसा कुछ भी स्वीकार नहीं होता जिसका प्रमाण उपलब्ध न हो यही बौध धम्म का सार है |
त्रिविध धर्मचक्र प्रवर्तन- भगवान बुद्ध प्रज्ञा व करुणा की मूर्ति थे। ये दोनों गुण उनमें उत्कर्ष की पराकाष्ठा प्राप्त कर समरस होकर स्थित थे। इतना ही नहींभगवान बुद्ध अत्यन्त उपायकुशल भी थे। उपाय कौशल बुद्ध का एक विशिष्ट गुण है अर्थात वे विविध प्रकार के विनेय जनों को विविध उपायों से सन्मार्ग पर आरूढ़ करने में अत्यन्त प्रवीण थे। वे यह भलीभाँति जानते थे कि किसे किस उपाय से सन्मार्ग पर आरूढ़ किया जा सकता है। फलत: वे विनेय जनों के विचाररूचिअध्याशयस्वभावक्षमता और परिस्थिति के अनुरूप उपदेश दिया करते थे। भगवान बुद्ध की दूसरी विशेषता यह है कि वे सन्मार्ग के उपदेश द्वारा ही अपने जगत्कल्याण के कार्य का सम्पादन करते हैंन कि वरदान या ऋद्धि के बल सेजैसे कि शिव या विष्णु आदि के बारे में अनेक कथाएँ पुराणों में प्रचलित हैं। उनका कहना है कि तथागत तो मात्र उपदेष्टा हैंकृत्यसम्पादन तो स्वयं साधक व्यक्ति को ही करना है। वे जिसका कल्याण करना चाहते हैंउसे धर्मों (पदार्थों) की यथार्थता का उपदेश देते थे। भगवान बुद्ध ने भिन्न-भिन्न समय और भिन्न-भिन्न स्थानों में विनेय जनों को अनन्त उपदेश दिये थे। सबके विषय,प्रयोजन और पात्र भिन्न-भिन्न थे। ऐसा होने पर भी समस्त उपदेशों का अन्तिम लक्ष्य एक ही था और वह था विनेय जनों को दु:खों से मुक्ति की ओर ले जाना। निर्वाण ही उनके समस्त उपदेशों का रस है।
अंतिम उपदेश एवं परिनिर्वाण- बौद्ध धर्म का प्रचार बुद्ध के जीवन काल में ही काफ़ी हो गया थाक्योंकि उन दिनों कर्मकांड का ज़ोर काफ़ी बढ़ चुका था और पशुओं की हत्या बड़ी संख्या में हो रही थी। इन्होंने इस निरर्थक हत्या को रोकने तथा जीव मात्र पर दया करने का उपदेश दिया। प्राय: 44 वर्ष तक बिहार तथा काशी के निकटवर्त्ती प्रांतों में धर्म प्रचार करने के उपरांत अंत में कुशीनगर के निकट एक वन में शाल वृक्ष के नीचे वृद्धावस्था में इनका परिनिर्वाण अर्थात शरीरांत हुआ। मृत्यु से पूर्व उन्होंने कुशीनारा के परिव्राजक सुभच्छ को अपना अन्तिम उपदेश दिया। कुशीनगर बुद्ध के महापरिनिर्वाण का स्थान है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर ज़िले से 51 किमी की दूरी पर स्थित है। बौद्ध ग्रंथ महावंश में कुशीनगर का नाम इसी कारण कुशावती भी कहा गया है। बौद्ध काल में यही नाम कुशीनगर या पाली में कु
सीनारा हो गया। एक अन्य बौद्ध किंवदंती के अनुसार तक्षशिला के इक्ष्वाकु वंशी राजा तालेश्वर का पुत्र तक्षशिला से अपनी राजधानी हटाकर कुशीनगर ले आया था। उसकी वंश परम्परा में बारहवें राजा सुदिन्न के समय तक यहाँ राजधानी रही। इनके बीच में कुश और महादर्शन नामक दो प्रतापी राजा हुए जिनका उल्लेख गौतम बुद्ध ने किया था।

मुख से निकले अंतिम शब्द-भगवान बुद्ध ने जो अंतिम शब्द अपने मुख से कहे थेवे इस प्रकार थे-
“हे भिक्षुओंइस समय आज तुमसे इतना ही कहता हूँ कि जितने भी संस्कार हैंसब नाश होने वाले हैंप्रमाद रहित हो कर अपना कल्याण करो।” यह 483 ई. पू. की घटना है। वे अस्सी वर्ष के थे। 
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बुद्ध अवतार नहीं, एक महा मानव थे

हिंदू धर्म में अवतारवाद एक महत्वपूर्ण मान्यता है। इसके अनुसार विष्णु सज्जनों के उद्धार, पापकर्मों के विनाश व धर्म की स्थापना के लिए अवतार लेते हैं। हिंदुओं के धर्म ग्रंथ गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है, ‘जब-जब धर्म की हानि व अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं अपने रूप को रचता हूं एवं साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूं। साधु पुरुषों का उद्धार करने व पाप-कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए व धर्म की स्थापना हेतु मैं प्रकट होता हूं।’
अवतारवाद के इस सिद्धांत का आश्रय लेकर कुछ लोग बुद्ध को विष्णु का नौवां अवतार बताते हैं। जब भारत में बौद्ध धर्म का बोलबाला था, उस समय पुराणों की रचना करने वाले बुद्ध की उपेक्षा नहीं कर सके। उस समय के धार्मिक और सामाजिक वातावरण ने पुराणों के निर्माताओं को, बुद्ध को विष्णु का नौवां अवतार मानने के लिए बाध्य कर दिया।
यहां यह बताना आवश्यक है कि कुछ ही पुराण बुद्ध को विष्णु का अवतार मानते हैं, बाकी सब दत्तात्रेय को नौवां अवतार स्वीकार करते हैं। विष्णु के नौवें अवतार की अनसुलझी मान्यता एक विरोधाभास उत्पन्न करती है।
स्वामी विवेकानंद, बुद्ध के प्रति अपार श्रद्धा रखते थे, इसलिए उन्होंने बुद्ध को अवतार ही नहीं, बल्कि ईश्वर तक कह डाला, जबकि अवतार और ईश्वर में जमीन-आसमान का अंतर होता है। स्वामी विवेकानंद का बुद्ध को ईश्वर कहना इतिहास एवं बौद्ध धर्म की मान्यताओं के विरुद्ध है।
महर्षि दयानंद ने ईश्वर की परिभाषा की है, ‘ईश्वर सच्चिदानंद स्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, अजन्मा, न्यायकारी, दयालु, अनंत, निर्विकार, अनादि, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है।’ बुद्ध मनुष्य होने के कारण चार भौतिक तत्वों -पृथ्वी, जल, तेज व वायु से बने थे। ईश्वर के लिए बताए गए गुणों में से बुद्ध पर केवल न्यायकारी, दयालु, निर्विकार, अभय व पवित्र जैसे विशेषण ही लागू होते हैं। लेकिन वे निराकार, अजन्मा, अनादि, अनंत, अजर, अमर, नित्य एवं सृष्टिकर्ता नहीं थे। इसलिए भी बुद्ध को ईश्वर कहना युक्तिसंगत नहीं होगा।
भारत के पुरातात्विक एवं ऐतिहासिक प्रमाण यह सिद्ध करते हैं कि बुद्ध पौराणिक अवतार नहीं, बल्कि ऐतिहासिक पुरुष थे। बुद्ध ने स्वयं को श्रीकृष्ण की तरह न तो ईश्वर ही कहा और न विष्णु का अवतार ही बताया। उन्होंने अपने को शुद्धोदन व महामाया के प्राकृतिक-पुत्र होने के अतिरिक्त कभी और कोई दावा नहीं किया।
बुद्ध ने कोई करिश्मा कभी भी अपने शिष्यों को नहीं दिखाया था। उन्होंने कभी खुद को ईश्वर का पैगाम लाने वाला पैगंबर या खुदा का बेटा नहीं बताया। इतना ही नहीं, बुद्ध ने अपने भिक्खुओं को भी करिश्मे व जादू-टोने दिखाकर लोगों को भ्रमित करने से मना किया था। बुद्ध के उपदेश प्रज्ञा, शील, समाधि पर निर्भर करते हैं, जिनका आधार विशुद्ध वैज्ञानिक है।
बुद्ध ने अपने ‘धम्म-शासन’ में प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से कभी ईश्वरीय होने का दावा नहीं किया था। उनका धर्म ईश्वरीय उपदेश नहीं, बल्कि मनुष्यों के हित व सुख के लिए मनुष्य द्वारा आविष्कृत धर्म था। यह अपौरुषेय नहीं है। जो धर्म अवतारवाद के सिद्धांत को मानते हैं, वे परा-प्रकृति (ब्रह्मा आदि) में विश्वास करते हैं। लेकिन बुद्ध अवतारवाद पर विश्वास नहीं करते थे। इसलिए उन्होंने परा-प्रकृति में विश्वास को अधर्म कहा था। उदाहरण के लिए जगत में जब कोई घटना घटती है, तो परा-प्रकृति पर विश्वास करने वाले उसे हरि-इच्छा कहते हैं, लेकिन बुद्ध के अनुसार इन घटनाओं के समुचित प्राकृतिक कारण होते हैं। ये सभी घटनाएं कारण-कार्य के नियम से घटती रहती हैं।
आज विश्व के जितने भी प्रसिद्ध वैज्ञानिक व महान दार्शनिक हैं, वे बुद्ध को विष्णु का अवतार नहीं, बल्कि महामानव मानते हैं। प्रसिद्ध वैज्ञानिक आंइस्टीन, पंडित राहुल सांकृत्यायन, डॉ. भदंत आनंद कौसल्यायन, कामरेड लेनिन, डॉ. अंबेडकर, पंडित जवाहर लाल नेहरू आदि जैसे लोग व दुनिया के सभी इतिहासकार बुद्ध को अन्य मनुष्यों की भांति मनुष्य ही मानते हैं। चूंकि वे मनुष्यों में सर्वश्रेष्ठ, पुरुषोत्तम एवं महानतम प्रज्ञावान, शीलवान, मैत्रीवान एवं करुणा के सागर थे, इसलिए उन्हें महामानव कहा जाता है।
श्रीलंका, म्यांमार, थाईलैंड, कंबोडिया, जापान, कोरिया, विएतनाम, मंगोलिया, चीन, ताइवान, तिब्बत व भूटान आदि बौद्ध देशों के लोग बुद्ध को ईश्वर एवं विष्णु का अवतार नहीं मानते। भारत के हिंदुओं को छोड़ कर शेष विश्व बुद्ध को महा मानव ही कहता है।
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मज्झिम निकाय तथा निदान कथा से महात्मा बुद्ध के जन्म की कथा का बोध होता है। गौतम बुद्ध का जन्म 563 ई.पू. में कपिलवस्तु की लुबिनी नामक वाटिका में हुआ था। उनके पिता का नाम शुद्धोदन और माता का नाम महामाया था। शुद्धोदन कपिलवस्तु के शाक्य गण के प्रधान थे। गौतम बुद्ध के बचपन का नाम सिद्धार्थ था। बौद्ध श्रुतियों के अनुसार, जन्म होने पर वे खड़े हो गए। सात डग भरे और कहा, यह मेरा अंतिम जन्म है, इसके बाद मेरा कोई जन्म नहीं होगा।
उनके जन्म के सातवें दिन ही उनकी माता महामाया का देहावसान हो गया। इसलिए उनका लालन-पालन उनकी मौसी महा प्रजापति गौतमी ने किया। उनके गोत्र का नाम गौतम था इसलिए उन्हें गौतम भी कहा गया है। सिद्धार्थ बचपन से ही मननशील थे। कहा जाता है कि एक बार बचपन में ही एक वृद्ध, एक रोगी, एक मृतक तथा बाद में एक सन्यासी को देख कर चिन्तामग्न हो गए थे। वृद्ध, रोगी और मृतक को देख कर उन्होंने मन में यह धारणा बना ली कि संसार में सर्वत्र दु:ख है। इन दु:खों से मुक्ति की चिन्ता उन्हें परेशान करने लगी। वे घंटों एकान्त में बैठकर चिन्तन में डूबे रहते। उनकी सांसारिकता की ओर से विरक्ति की भावना और प्रवृत्ति से उनके पिता चिन्तित रहने लगे। उन्हें सांसारिकता में प्रबल करने की दृष्टि से उनके पिता ने उनका विवाह यशोधरानामक एक अत्यन्त सुन्दर कन्या से कर दिया। यशोधरा रामग्राम की कोतिय राजकुमारी थी। सिद्धार्थ ने लगभग 12 वर्षों तक गृहस्थ जीवन बिताया। इसी बीच उनके एक पुत्र हुआ। वे पुत्र जन्म से और भी क्षुब्ध हो गए और कहा कि राहु आ गया। इसी से उसका नाम राहुल पड़ गया। उस प्रकार जन्म, जरा, रोग, मृत्यु, दु:ख और अपवित्रता ने उन्हें संसार त्याग और निवृत्ति की ओर उत्प्रेरित किया। उन्होंने 29 वर्ष की अवस्था में गृहत्याग दिया। अपने प्रिय साईस (छन्न) की सहायता से एवं अपने प्रिय घोड़े थक पर चढ़कर उन्होंने गृह त्याग किया।
बौद्ध अनुश्रुतियों के अनुसार वे उरुबेला नामक ग्राम में तपस्या करने बैठ गये। किन्तु इससे पूर्व उन्हें दो गुरुओं का संरक्षण मिला। अलार कलाम ने उन्हें सांख्य दर्शन की शिक्षा दी परन्तु वे इस शिक्षा से संतुष्ट नहीं हुए। उनके दूसरे गुरू रुद्रक राम पुत्र थे। माना जाता है कि 35 वर्ष की अवस्था में गया में उरूवेला नामक स्थान पर निरंजना नदी के तट पर पीपल वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान (बोध) प्राप्त हुआ। वैशाख पूर्णिमा के दिन उन्हें निर्वाण प्राप्त हुआ।
अनुश्रुतियों के अनुसार कि सबसे पहले उन्होंने तपस्सु और मल्लिक नाम दो बनजारों को दीक्षा दी। निर्वाण का शाब्दिक अर्थ है – बुझ जाना या कामना का अन्त कर देना। फलत: इसका अर्थ दुख का अन्त कर देना भी है। परन्तु यह केवल अन्त नहीं है यह मस्तिष्क की शांत अवस्था है। निर्वाण प्राप्त करने के बाद गौतम बुद्ध ने सारनाथ में अपने पूर्व के पाँच साथियों को पहली बार बौद्ध धर्म में दीक्षित किया। यह इतिहास मेंधर्मचक्र प्रवर्तन के नाम से जाना जाता है। सारनाथ के लिए एक और नाम आया है, वह है ऋषिपत्तन। इसके पश्चात् महात्मा बुद्ध काशी पहुँचे। वहाँ एक धनी व्यक्ति यश महात्मा बुद्ध का शिष्य बन गया। काशी के बाद बुद्ध उरूवेला पहुँचे। वहाँ कश्यप के नेतृत्व में अनेक ब्राह्मण पुरोहित बुद्ध के शिष्य बन गए। उरूवेला बिम्बिसार अपने अनुचरों के साथ बुद्ध के दर्शन एवं उनके उपदेश सुनने के लिए स्वंय उपस्थित हुआ। उसी समय सारिपुत्र एंव मौद्गल्यायन भी बुद्ध के शिष्य बन गए। बौद्ध धर्म के प्रचार कार्य में इन ब्राह्मण विद्वानों का उल्लेखनीय हाथ रहा। फिर बुद्ध अपनी जन्मभूमि कपिलवस्तु पहुँचे। वहाँ उनका भव्य स्वागत हुआ। उसी समय उनका पुत्र राहुल एंव परिवार के अन्य सदस्य उनके शिष्य बन गए। यहाँ से तथागत वैशाली पहुँचे। वैशाली की विख्यात नगर वधू आम्रपाली बुद्ध की शिष्या बन गई और उसने भिक्षुओं के निवास के लिए अपनी आम्रवाटिका प्रदान की। यहीं पर महात्मा बुद्ध ने प्रजापति गौतमी के विशेष आग्रह पर स्त्रियों को संघ में प्रवेश की स्वीकृति प्रदान की। इसके पश्चात् वे कोसल जनपद की राजधानी श्रावस्ती पहुँचे। वहाँ एक अत्यन्त धनी सेठ अनाथपिण्डकबुद्ध का अनुयायी बन गया। उसने राजकुमार जेत से बहुमूल्य जेतवन विहार खरीदा और इसे बौद्ध संघ को प्रदान किया। कोशल नरेश प्रसेनजित भी महात्मा बुद्ध की शरण में आ गया और उसने संघ के लिए पूरा पूर्वाराम नामक विहार बनवाया। कोशल जनपद में ही अगुलीमाल नामक दुर्दांत डाकू उनका शिष्य बन गया। सबसे अधिक समय उन्होंने श्रावस्ती में बिताया। अवन्ति वे स्वंय नहीं जा सके परन्तु वहाँ उन्होंने अपने शिष्य महाकच्चायन के नेतृत्व में अपने शिष्यों का एक दल भेजा था। आनंद बुद्ध का प्रिय शिष्य था। उसने सुत्तपिटक का वाचक किया था। आनंद को बुद्ध की छाया भी कहा जाता है।
यहाँ यह ध्यातव्य है कि बालक गौतम को देखकर कालदेव तथा ब्राह्मण कौण्डिन्य ने भविष्यवाणी की थी कि यह चक्रवतीं राजा या सन्यासी होगा। माणवक्कु ने इस भविष्यवाणी को स्पष्ट रूप से बतलाते हुए कहा था कि बालक गौतम केवल बुद्ध ही होगा तथा इसका प्रवर्जन मृत, रोगी, वृद्ध तथा परिव्राजक इन चार चिन्हों को देखकर होगा। महाप्रजापति गौतमी प्रथम महिला थी जिसे बौद्ध संघ में प्रवेश दिया गया। आगे चलकर वैशाली की नगरवधू आम्रपाली भी बुद्ध की शिष्या बनी। इसी के तर्क-वितर्क के कारण बुद्ध के संघ में नर्त्तकी और रूपाजीवन को प्रवेश देना पड़ा। वर्षा के दिनों में बौद्ध भिक्षु एक निश्चित स्थान पर ठहर जाते थे। उन्हीं की सुविधाओं को ध्यान में रखकर बेलवन एवं जेतवन नामक बाग का निर्माण करवाया गया। 80 वर्ष की आयु में 483 ई.पू. में कुशीनगर में महात्मा बुद्ध ने अपना शरीर त्याग किया। यह घटनामहापरिनिर्वाण के नाम से जानी जाती है। मृत्यु से पहले महात्मा बुद्ध का अन्तिम वर्षा काल वैशाली था।
उनके भस्म और अवशेष का विभाजन आठ भागों में किया गया। यह भस्म निम्नलिखित शासको को प्राप्त हुई – (1) वैशाली के लिच्छवि, (2) कपिलवस्तु के शाक्य, (3) रामग्राम के कोलिय, (4) वेट्ठदीप के ब्राह्मण, (5) कुशीनारा के मल्ल, (6) अलकप्पा के बुलीगण, (7) पिप्लीवन के मौर्य और (8) मगध का अजातशत्रु।
बौद्ध धर्म ने सामान्य जनों के बीच प्रचलित चैत्य की अवधारणा को अपना लिया। महात्मा बुद्ध के अवशेष पर प्रारंभ में आठ स्तूपों का निर्माण हुआ। प्रारंभ में हम एक स्तंभ की परिकल्पना देखते हैं जो शैव धर्म की लिंग पूजा पर आधारित था, किन्तु बाद में वह लुप्त हो गया। उनके लिए कई, उपाधियों का प्रयोग किया जाता है। बुद्ध (इंलाइटेंड) तथागत (वह जिसने पा लिया हो), शाक्यमुनि (शाक्यों का गुरू)। बुद्ध को आत्मा का अस्तित्व नहीं स्वीकारने के कारण अनत्ता, कामदेव (मार) को पराजित करने के कारण मारजीत, सम्पूर्ण लोक को जीतने वाला अर्थात् लोकजीत कहा गया है। बुद्ध का कनकमुनि नाम पूर्व जन्म से संबंधित था तथा इसी नाम पर कीनकमान स्तूप बना। बौद्ध धर्म के बारे में विस्तृत चर्चा ग्रन्थों में की गई है।
बौद्ध धर्म के सिद्धान्त
विद्वानों ने बौद्ध ग्रन्थों के आधार पर बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों एवं दार्शनिक पक्ष की विवेचना की है। इनके आधार पर बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों की चर्चा की जा सकती है।
कारण सिद्धान्त- महात्मा बुद्ध की मान्यता थी कि प्रत्येक कार्य एक कारण पर निर्भर होता है, अर्थात् संसार का कोई भी कार्य अकारण नहीं है। सृष्टि की समस्त घटनायें एक क्रम में हो रही हैं तथा एक घटना अथवा कार्य दूसरे कार्य के लिए कारण बन जाता है। इसे प्रतीत्य समुत्पाद(पतिच्च समुत्पाद) मध्यमा प्रतिपदा का नाम दिया गया। यह विचार आस्तिकता (शाश्वतता का सिद्धान्त) एवं नास्तिकता (उच्छेदवाद) के बीच का मार्ग हैं। आस्तिकता के नियम के अनुसार कुछ वस्तुयें नित्य हैं। उनका कोई आदि या अन्त नहीं है। ये किसी कारण का परिणाम नहीं है, आत्मा एवं ब्रह्म इसी कोटि में आते हैं। दूसरी ओर नास्तिकतावादी, चार्वाक एवं लोकायत यह मानते हैं कि वस्तुओं के नष्ट हो जाने पर कुछ भी शेष नहीं रहता। बुद्ध ने दोनों मतों को छोड़कर मध्यम मार्ग अपनाया जिसके अनुसार वस्तुओं का अस्तित्व है किन्तु वे नित्य नहीं हैं। उनकी उत्पत्ति कुछ कारणों पर निर्भर है। वस्तुओं का पूर्ण विनाश नहीं होता बल्कि उनका परिणाम शेष रह जाता है।
बुद्ध के हृदय में ज्ञान प्राप्ति से पूर्व अनेक शकायें उत्पन्न हुई थीं। उन्होंने विचार किया कि मनुष्य ऐसी दु:खपूर्ण स्थिति में क्यों है, जन्म, मृत्यु एवं दु:ख से मुक्ति का मार्ग, अन्तत: उन्हें ज्ञात हुआ जिसे आर्य सत्य चतुष्टय अथवा चत्वारि आर्य सत्यानि कहा गया। चार आर्य सत्य बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों की आधारशिला हैं- दु:ख, दु:ख समुदाय, दु:ख निरोध एवं दु:ख निरोध का मार्ग।
दु:ख- महात्मा बुद्ध सम्पूर्ण संसार को दु:खमय मानकर चलते हैं। जरा, रोग, मृत्यु के दु:खमय दृश्यों को देखकर ही सिद्धार्थ ने सन्यास धारण किया था। ज्ञान प्राप्ति के बाद वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि मानव जाति दु:ख से ग्रसित है। जरा, रोग, मृत्यु, अप्रिय का संयोग, प्रिय का वियोग, इच्छित वस्तु की अप्राप्ति आदि सभी आसक्ति से उत्पन्न होते हैं, अत: सभी दु:ख हैं। क्षणिक विषयों में आसक्ति ही पुनर्जन्म तथा बन्धन का कारण है, सांसारिक सुखों को यथार्थ सुख समझना केवल अदूरदर्शिता है। मनुष्य मिथ्या धारणा से अपना तादाम्य अपने शरीर या मन से कर लेता है जिसके परिणामस्वरूप उसे विविध प्रकार के भौतिक सुखों की तृष्णा होती है। तृष्णा के वशीभूत होकर मनुष्य अहंभाव से विभिन्न प्रकार के स्वार्थपूर्ण कार्य करता है एवं तृष्णा सम्पूर्ति न होने पर दु:ख का अनुभव करता है। बुद्ध ने अपने शिष्यों को एक उदाहरण देते हुए बताया था कि दु:ख की इस व्यापक वेदना से जितने आंसू बहाये हैं वे ही अधिक हैं, इन चारों समुद्रों का जल नहीं।
दु:ख समुदाय- इस सन्दर्भ में सवाल यह उठता है कि दु:ख का कारण क्या है। बुद्ध ने प्रतीत्य समुत्पाद के माध्यम से दु:ख का कारण जानने का प्रयास किया। सिद्धान्त के अनुसार सभी वस्तुएँ कारणों एवं परिस्थितियों पर निर्भर करती हैं अत: दु:ख का भी कारण है। दु:ख अथवा जरा, मृत्यु तब ही संभव है जबकि जन्म (शरीर धारण) हो अर्थात् दु:ख जन्म (या जाति) पर निर्भर है। जन्म का होना तब ही संभव माना गया जबकि जन्म से पूर्व कोई अस्तित्व हो जिसे  भव (भाव) नाम दिया है। कहा जा सकता है कि भव का कारण है। भव से अभिप्राय कर्म से है जिसके कारण पुनर्जन्म होता है। प्रक्रिया में वह कौन सा कारण है जिसके होने से भव की उत्पत्ति होती है। भव का आधार  उपादान  माना गया। यदि मनुष्य कामना के वशीभूत होकर कर्म करे तो जन्म नहीं होता अर्थात् सकाम कर्म अथवा मोह को उपादान नाम दिया गया।  उपादान का हेतु तृष्णा (वासना) को माना है। यह उत्कृष्ट इच्छा करना कि जिन भोड़ों से हमें परितृप्ति होती है उनसे हमारा कभी वियोग न हो, इसको तृष्णा कहा गया। रूप, शब्द, स्पर्श, रस एवं गंध से तृष्णा सम्बद्ध होती है। तृष्णा का आधार वेदना है। पूर्व विषय भोग या सहानुभूति से हमारी तृष्णा जाग उठती है अर्थात् इन्द्रिय-जन्य अनुभूति को वेदना की संज्ञा दी गई। वेदना की अनुभूति के लिए ज्ञानेन्द्रिय का सम्पर्क आवश्यक है। ज्ञानेन्द्रिय के सम्पर्क (इन्द्रिय जन्य चेतना) को स्पर्श कहा गया। इद्रिय जन्य चेतना के अभाव में अनुभूति संभव नहीं है। स्पर्श हेतु पाँच इन्द्रिय एवं मन आवश्यक है। इसे षडायतन कहकर सम्बोधित किया है। इन छ: आयतनों (षडायतन) के लिए बुद्धि (या मन) एवं शरीर होना आवश्यक है। षडचेतनायें मनुष्य के शरीर एवं बुद्धि के समन्वय के कारण उत्पन्न हुई, मन:स्थिति पर आश्रित हैं। इसी मानस् तात्विक स्थिति को नामरूप कहा गया है जो शरीर एवं बुद्धि के साथ कार्य करने की शक्ति को स्पष्ट करता है। चेतना के बिना नामरूप नहीं हो सकते अर्थात्चेतना (विज्ञान) ही नामरूप का हेतु है। चेतना से तात्पर्य किसी वस्तु विशेष के बारे में सोचने वाली विचारधारा है और चेतना का आधारसंस्कार माना गया। कर्म के अनुसार निर्मित संस्कार से विज्ञान या चेतना संभव होती है। संस्कार की उत्पत्ति के विषय में बुद्ध की धारणा थी कि इसका एकमात्र कारण अविद्या (अविज्जा) है। क्षणिक विषयों को सुखद समझ लेना ही अविद्या है। अविद्या के नाश से ही संस्कार नष्ट होंगे। इसी क्रम से मनुष्य की जन्म, मृत्यु या दु:ख से मुक्ति संभव मानी गई।
प्रतीत्य समुत्पाद प्रक्रिया के अन्तर्गत यदि दु:ख के कारण को नष्ट कर दिया जाये तो दु:ख निरोध संभव है। अविद्या के निरोध से दु:ख को नष्ट किया जा सकता है क्योंकि अविद्या से ही तृष्णा उत्पन्न होती है और तृष्णा जिसके फलस्वरूप पुनर्जन्म होता है एवं नवीन चेष्टायें उत्पन्न होती हैं। इसको संसार का दुश्चक्र (भव चक्र) कहा गया।
दु:ख निरोध का मार्ग- संसार में दु:ख है, दु:ख समुदाय है। उसी प्रकार दु:ख से मुक्ति का मार्ग भी है। अविद्या एवं तृष्णा से उत्पन्न मनोवृत्तियों के निरोध का विधान भी है। तृष्णा से ही आसक्ति तथा राग का उद्भव होता है। रूप, शब्द, गंध, रस तथा मानसिक तर्क-वितर्क आसक्ति के मौलिक कारण हैं। दु:ख के निवारण के लिए तृष्णा का उन्मूलन आवश्यक है। धम्मपद में कहा गया है कि तृष्णा से शोक उत्पन्न होता है, भय की बात ही क्या। बुद्ध ने भिक्षुओं को निर्देशित किया है कि रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार एवं विज्ञान का निरोध ही दु:ख का निरोध है। कहा गया है कि इच्छाओं का परित्याग ही मुक्ति का मार्ग है एवं इच्छाओं का परित्याग अष्टांगिक मार्ग द्वारा किया जा सकता है। अष्टागिक मार्ग को दु:ख निरोधगामिनी प्रतिपदा भी कहा जाता है। अष्टांगिक मार्ग को तीन स्कन्ध में विभक्त किया जाता है – प्रथम प्रज्ञा स्कन्ध में सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प एवं सम्यक् वाक सम्मिलित किये गये हैं। सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् आजीव शील स्कन्ध के अन्तर्गत रखे गये हैं। समाधि स्कन्ध में सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति एवं सम्यक् समाधि आते हैं।
सत्य एवं असत्य तथा सदाचार एवं दुराचार का विवेक द्वारा चार आर्य सत्यों का सही परीक्षण करना सम्यक् दृष्टि है। इसे नीर-क्षीर विवेक भी कहा जा सकता है। अविद्या के कारण मिथ्या दृष्टि उत्पन्न हो जाती है जिसे समाप्त किया जाना होता है। सब वस्तुएँ अनित्य हैं, इस तरह जब प्रज्ञा से मनुष्य देखता है तो वह दु:खों से विरक्ति को प्राप्त होता है, यही विशुद्धि का मार्ग है। इच्छा एवं हिंसा की भावना से मुक्त संकल्प कोसम्यक् संकल्प कहा गया। आर्य सत्यों के अभिज्ञान मात्र से लाभ नहीं होता जब तक उनके अनुसार जीवन यापन करने का दृढ़ संकल्प न किया जाये। धम्मपद में विवेचन मिलता है कि युवा होकर भी जो आलसी हैं जिसके मन और संकल्प निर्बल हैं ऐसा व्यक्ति प्रज्ञा के मार्ग को प्राप्त नहीं करता।
सत्य, विनम्र एवं मृदुता से समन्वित वाणी को सम्यक् वाक् कहा गया। उल्लेख मिलता है कि मिथ्यावादिता, निद्रा, अप्रिय वचन तथा वाचालता से बचना चाहिए। वाणी की रक्षा करने, मन से संयमी बनने एवं शरीर से बुरा कार्य न करने को शुद्धि का मार्ग बताया है।
सम्यक् सकल्प को वचन में ही नहीं वरन् कर्म में भी परिणत करना चाहिए अर्थात् सत्कर्मों में संलग्न होना ही सम्यक् कर्मान्त है। दूसरे शब्दों में अहिंसा, अस्तेय, इन्द्रिय संयम ही सम्यक् कर्म है। किया हुआ वह कर्म अच्छा होता है जिसको करके मनुष्य को सन्ताप नहीं होता। जीवन-यापन की विशुद्ध प्रणाली को सम्यक् आजीव कहा है अर्थात् मन, वचन एवं कर्म के शुद्ध उपाय से जीविकोपार्जन करना है। किन्तु इसका अभिप्राय भिक्षु एवं गृहस्थ के लिए अलग-अलग था।
सम्यक् व्यायाम के बारे में विवरण मिलता है कि व्यक्ति को पुराने बुरे भावों का नाश, नवीन बुरे भावों का अनाविभाव, मन को उत्तम कायों में लगाना एवं शुभ विचारों को धारण करने की चेष्टा करनी चाहिए। सम्यक् व्यायाम से तात्पर्य विशुद्ध एवं विवेकपूर्ण प्रयत्न है।
सम्यक् स्मृति से मनुष्य सभी विषयों से विरक्त हो जाता है एवं सांसारिक बन्धनों में नहीं पड़ता। बौद्ध व्यवस्था में स्मृति के चार रूप माने गये हैं। प्रथम कायानुपश्यना से तात्पर्य शरीर की प्रत्येक चेष्टा को समझते रहना। दूसरी चितानुपश्यना है अर्थात् चित्त के राग-द्वेष आदि पहचानना। तीसरी वेदनानुपश्यना से अभिप्राय दु:ख एवं सुख दोनों ही अनुभूतियों के प्रति सजग रहना। चतुर्थ धरमानुपश्यना अर्थात् शरीर, मन, वचन की प्रत्येक चेष्टा को समझना।
चित्त की एकाग्रता को समाधि कहा गया है। समाधि द्वारा पुराने क्लेश जड्-मूल से नष्ट हो जाते हैं और तृष्णा एवं वासनाओं से मुक्ति मिलती है तथा सत्वगुण की वृद्धि होती है। इसमें मनुष्य को अपने मन को नियन्त्रित करने का अभ्यास करना होता है। मन की चंचलता पर संयम पा लेने पर ज्ञान में एकाग्रता बढ़ती है। बौद्ध दर्शन में समाधि के कुछ स्तरों का उल्लेख मिलता है उग्रचार समाधि एवं अप्यना समाधि आदि।
निर्वाण- बुद्ध ने उनके उपदेशों को विचारपूर्वक ग्रहण करने की आज्ञा दी थी, क्योंकि प्रत्येक मनुष्य को अपना निर्वाण स्वयं को प्राप्त करना होता है। ज्ञान को आन्तरिक अवस्था में परिणत करने के लिए प्रज्ञा, शील, समाधि आवश्यक है एवं सत्य का साक्षात्कार तब तक नहीं हो सकता जब तक विचार एवं कर्म का संयम न हो। शील एवं समाधि की अवस्था को स्पष्ट करते हुए दासगुप्त ने लिखा है– हम अन्तर और बाहर से तृष्णा के पाश से जकड़े हुए हैं (तन्हाजटा) और इससे छुटकारा पाने का उपाय केवल यह है कि हम जीवन में उचित (शील) के ध्यान, समाधिज्ञान (प्रज्ञा) को स्थान दें। संक्षेप में शील का अर्थ है पाप कमों से दूर रहना। अत: सर्वप्रथम शील को धारण करना आवश्यक है। शील का धारण करने से दुर्वासनाओं से उत्पन्न दुष्कमों से दूर रहने के कारण भय और चिन्ता से मुक्ति होती है। शील के पश्चात् समाधि की क्रिया प्रारम्भ होती है। समाधि के द्वारा पुराने क्लेश जड़मूल से नष्ट हो जाते हैं और तृष्णा और वासनाओं से मुक्ति मिलती है एवं सत्त्वगुण की वृद्धि होती है। इसके द्वारा ज्ञान की प्राप्ति होती है और ज्ञान से मुक्ति प्राप्ति होती है जिसको अर्हत् कहते हैं। बौद्ध धर्म का एक मात्र लक्ष्य निर्वाण प्राप्त करना है। सामान्यत: इसका अभिप्राय जीवन-मृत्यु के चक्र से विमुक्ति माना है। हिरियन्ना ने निर्वाण की व्याख्या करते हुए लिखा है कि यह वास्तव में किसी मरणोत्तर अवस्था का सूचक नहीं है। यह तो उस अवस्था का सूचक है जो व्यक्ति के जीवित रहते हुए पूर्णता की प्राप्ति के बाद आती है। यह ऐसी अवस्था है जिसमें सामान्य जीवन की संकीर्ण रूचियाँ समाप्त हो गई होती हैं और व्यक्ति पूर्ण शान्ति और समत्व का जीवन बिताता है। यह मन की एक विशेष वृत्ति का सूचक है और वह जो इस वृत्ति को प्राप्त कर चुका है, अहत् कहलाता है, इसका अर्थ है योग्य या पावन।
निर्वाण का तात्पर्य परमज्ञान भी माना जाता है, यह तृष्णा या आसक्ति से मुक्त होने का अभिज्ञान है, जिसे पूर्ण विशुद्धि भी कहा है। निर्वाण की प्राप्ति इस जीवन में भी संभव है, जैसा हिरियन्ना ने लिखा है कि कुछ विद्वान् इस अवस्था को अनिर्वचनीय मानते हैं तथा इसके अस्तित्व के विषय में मौन हैं तथा इसका शाब्दिक अर्थ दु:ख से मुक्ति माना गया। थॉमस ने निर्वाण तथा परिनिर्वाण में भेद किया तथा निर्वाण इसी जीवन काल में तथा परिनिर्वाण मृत्यु के बाद संभव माना गया। निर्वाण की प्राप्ति के बाद पुनर्जन्म एवं उत्पन्न होने वाले दुःख संभव नहीं होते क्योंकि जन्म ग्रहण करने के लिए आवश्यक कारण नष्ट हो जाते हैं। बौध धर्मावलम्बन हेतु व्यक्ति भिक्षु बनकर (संघ में प्रवेश) या गृहस्थ साधक के रूप में रह सकता है। किन्तु निर्वाण सामान्यतः भिक्षु बनने पर ही संभव माना है। अरहत्  की अवस्था का विवेचन धम्मपद में मिलता है, जिसका मार्ग समाप्त जो शोक रहित तथा सर्वथा विमुक्त है, सब ग्रन्थियों से छूट चुका सन्ताप नहीं। उसका मन शान्त एवं वाणी तथा कर्म शान्त होते हैं।
कर्म- बौद्ध दर्शन में कर्म सिद्धान्त को स्वीकार किया है। मिलिन्दपन्हो में नागसेन कहते हैं कि मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार सुख-दु:ख का भोग करते हैं। कर्म-फल से ही मनुष्य कुछ दीर्घजीवी एवं कुछ अल्पजीवी, स्वस्थ-अस्वस्थ, -कुरूप, धनी-निर्धन होते हैं दीन। सब अपने कर्मों का ही फल प्राप्त कर रहे हैं। परन्तु कर्म-फल इस जीवन में अथवा अन्य जीवन में तभी प्राप्त होता है जब मनुष्य राग, द्वेष एवं मोह-बन्धन में फंसा रहता है। लोभ एवं मोह का परित्याग कर मनुष्य जब अपरिग्रह का मार्ग ग्रहण करते हुए निष्काम कार्य करता है तब कर्म स्वत: समूल नष्ट हो जाते हैं। तृष्णा के अभाव में स्वयं कर्म विकसित नहीं हो सकता। तृष्णा के प्रति विरक्त होने एवं इसका परित्याग करने पर ही दु:ख से मुक्ति संभव मानी गई। वासना का नाश होने पर अहत् पद प्राप्त होता है और उसके पश्चात् उसके किये हुए कर्मों का फल प्राप्त नहीं होता, उसके कर्म नष्ट हो जाते हैं। पूर्व जन्म के कर्म-शेष रहने पर भी अरहत् तृष्णा हो जाता है क्योंकि कामना के कारण ही कर्म फल मिलता है। वासना के नष्ट हो जाने पर अज्ञान, राग द्वेष एवं लोभ का भी नाश हो जाता है। कर्म 3 प्रकार के कहे गए हैं- मानसिक, शारीरिक (कायिक) तथा वाचिक (वाणी द्वारा किए गए कार्य)। अर्हत पद प्राप्त होने पर कोई कामना शेष नहीं रह जाती है उसके शरीर एवं वाणी से किये कर्म का कोई फल नहीं होता। बुद्ध ने कर्म के आधार पर ही चरों वर्णों के लिए मुक्ति का प्रतिपादन किया। उनकी धरना थी की मनुष्य चाहे वह ब्राहमण हो, क्षत्रिय हो, वैश्य हो अथवा शूद्र हो, सम्यक कर्म करने से मोक्ष का अधिकारी होगा।
अनात्मवाद- बुद्ध ने आत्मा को अनावश्यक कल्पना मानकर उसका निषेध करते हुए मात्र चेतना की अवस्था को स्वीकार किया। बुद्ध की मान्यता थी कि संसार अनित्य, क्षणिक एवं दु:ख रूप है जो दु:ख रूप है वह आत्मा नहीं हो सकती। इस तथ्य को अन्य लोगों (अबौद्धों) ने भी मान लिया कि पृथ्वी, जल, तेजस तथा वायु अर्थात् चार भूतों से निर्मित देह आत्मा नहीं है और अपनी आत्मा को चित्त के रूप में स्वीकार किया गया। तथापि विद्वानों की धारणा है अप्रत्यक्ष रूप से बुद्ध संभवत: आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करते थे किन्तु इस तथ्य को अभिव्यक्त नहीं करना चाहते थे। आत्मा सम्बन्धी प्रश्न पूछे जाने पर बुद्ध मौन रहे, तदुपरान्त आनन्द को कहा कि- आत्मा की अस्वीकृति से भौतिक वादियों के नास्तिकवाद का समर्थन होता है और आत्मा की स्वीकृति से शाश्वतवाद का, वस्तुत: दोनों ही मिथ्या धारणाये हैं। इस सन्दर्भ में हिरियन्ना ने लिखा है कि बौद्ध धर्म आत्मा का ऐसी स्थायी सत्ता के रूप में, जो बदलती हुई शारीरिक और मानसिक अवस्थाओं के बीच स्वयं अपरिवर्तित बनी रहे, अवश्य निषेध करता है, पर उसके स्थान पर एक तरल आत्मा को स्वीकार करता है, जिसे अपने तरलत्व के कारण ही परस्पर बिल्कुल पृथक और असमान अवस्थाओं की सन्तान नहीं माना जा सकता। इस प्रकार बुद्ध इस दृष्टि से भी मध्यमा प्रतिपदा का अनुगमन करते हुए आत्मा की स्वीकृति एवं अस्वीकृति पर सामान्यत: मौन रहे। जगत् नश्वर है अत: अनात्मवाद के विवेचन का अभिप्राय है कि सम्पूर्ण अनुभूत जगत् में आत्मा नहीं है। आत्मा को स्वीकार नहीं किये जाने के कारण का उल्लेख करते हुए कुछ विद्वानों ने लिखा है कि बुद्ध आत्मवाद का प्रचार करते तो संभवत: जनता में अपने प्रति आसक्ति उत्पन्न होती जो दुःख का मूल कारण है। इसके विरुद्ध अनात्मवाद का प्रचार करने पर मृत्योपरांत कुछ शेष नहीं रहना मानव के मानसिक त्रास का कारण बनता है। डॉ. राधाकृष्णन की मान्यता थी कि महात्मा बुद्ध आत्मा में विश्वास करते थे।
पुनर्जन्म- बौद्ध धर्म पुनर्जन्म में विश्वास करता है, किन्तु इसमें नित्य आत्मा अस्तित्व स्वीकार नहीं किया है। अत: यह विचार परस्पर विरोधी है। कहा गया है कि कर्ता के बिना कर्म हो सकता है तो आत्मा के बिना भी पुनर्जन्म हो सकता है। बौद्ध धर्म में न केवल जीवन समाप्ति के बाद पुनर्जन्म माना गया बल्कि प्रतिक्षण पुनर्जन्म को स्वीकार किया है। पुनर्जन्म मृतव्यक्ति का नहीं होता बल्कि उसी के संस्कार वाले दूसरे व्यक्ति का जन्म हो सकता है। मृत्यु के बाद व्यक्ति का चरित्र बना रहता है एवं अपनी मानसिक शक्ति से अन्य व्यक्ति को जन्म देता है अर्थात् आत्मा का पुनर्जन्म न होकर चरित्र का होता है। यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक कि तृष्णा पर विजय प्राप्त न कर ली जाये। हिरियन्ना ने कहा है जो भी हो बुद्ध ने इस सिद्धान्त को एक बड़ी सीमा तक तर्क संगत बना दिया–  इससे जुड़े हुए अलौकिक और भौतिकवाद के तत्त्व बिल्कुल निकाल दिये। बुद्ध ने इन दोनों मतों को अस्वीकार कर दिया और कर्म को नैतिकता के क्षेत्र में अपनी ही प्रकृति के अनुसार स्वतंत्रतापूर्वक काम करने वाला एक अपौरुषेय नियम माना।
अनीश्वरवाद- सृष्टि कर्ता के रूप में बुद्ध ने ईश्वर को स्वीकार नहीं किया क्योंकि ऐसा करने पर ईश्वर को दु:ख का सर्जक भी मानना होगा। यद्यपि कुछ विद्वान् बुद्ध को नितान्त अनीश्वरवादी नहीं मानते बल्कि नितान्त कर्मवादी होने के कारण एवं मानव जाति को जटिल सवालों से दूर रखने के लिए ईश्वर सम्बन्धी प्रश्नों का विवेचन अनावश्यक समझा। डॉ. राधाकृष्णन की मान्यता है कि- ईश्वर को अनिर्वचनीय परम तत्त्व के रूप में स्वीकार किया जाये तो चार्वाक को छोड़कर किसी भी भारतीय दर्शन को अनीश्वरवादी नहीं कहा जा सकता।
प्रयोजनवाद- यथार्थवादी बुद्ध ने जीवन के ठोस तथ्यों को स्वीकार करने के लिए प्रेरित किया। यद्यपि उनके उपदेशों में परलोक का विवेचन मिलता है। ऐसा करना संभवतः कर्म सिद्धान्त की स्वीकृति हेतु अपेक्षित था, तथापि बुद्ध जिस वस्तु के विषय में प्रत्यक्ष रूप से ज्ञान न हो उसका बहिष्कार करना उचित समझते थे। उन्होंने वेद प्रमाण्य एवं यज्ञ प्रक्रिया को भी अस्वीकार किया अर्थात् वे प्रत्यक्ष एवं तर्क के दायरे के बाहर किसी भी तथ्य की स्वीकृति के लिए सहमत नहीं थे। इस दृष्टि से बुद्ध को प्रयोजनवादी भी कहा जाता है, क्योंकि उनके उपदेश उन्हीं विषयों से सम्बद्ध थे जिन्हें मानव कल्याण के लिए आवश्यक समझा गया। महात्मा बुद्ध ने लोक, जीव, परमात्मा, आत्मा सृष्टि सम्बन्धी अनेक विवादों को अप्रयोज्य मानते हुए दस अकथनीय सिद्धान्तों का विवेचन किया। लोक से सम्बन्धित तथ्य है- क्या लोक नित्य है; अनित्य है, शान्त है, अनन्त है? इसी प्रकार जीव से सम्बद्ध तथ्य है- क्या जीव एवं शरीर एक हैं अथवा- भिन्न हैं, क्या मृत्यु के बाद तथागत होते हैं या नहीं होते हैं? वस्तुतः बौद्ध में आदर्शवाद एवं यथार्थवाद का व्यवहारपरक संयोजन देखा जाता है। बुद्ध जीवन को दु:खमय पाया। अत: उससे बचना आवश्यक है साथ ही दु:ख से बचने के उपायों की चर्चा की। किन्तु बुद्ध के उपदेशों को दु:खवादी कहने का तात्पर्य यह नहीं कि वे निराशावाद की ओर उन्मुख करने वाले हैं क्योंकि अहत् की अवस्था इस लोक एवं जीवन में शान्ति की संभावना को स्वीकार करती है।
बुद्ध ने सर्वप्रथम अपने साथी पाँच ब्राह्मणों को उपदेश दिया एवं अपना शिष्य बनाया – कोडन्नवप्पभद्दियमहानाम एवं अस्सजि। तदनन्तर बनारस के धनी व्यापारी के पुत्र यश ने बौद्धत्व स्वीकार किया। ऋषिपतन के भद्र ने भी 30 युवाओं के साथ दीक्षा ग्रहण की थी। अन्य प्रमुख शिष्यों में कस्सप, राहुल (बुद्ध का पुत्र), नन्द (मौसेरा भाई), अनुरुद्ध, आनन्द, उपालि, अनुप्रिय, देवदत्त, सुदत्त (अनाथपिण्डक) आदि। अनाथपिण्डक जो श्रावस्ती का श्रेष्ठी था, ने राजगृह में आकर दीक्षा ग्रहण की थी। उसने श्रावस्ती में लौटकर राजकुमार जेत के एक सम्पूर्ण उद्यान में बिछायी जाने की तादाद में मुद्रायें तेज कुमार को प्रदान कर उसका उद्यान खरीद लिया था और वह उद्यान महात्मा बुद्ध को उसने भेंट किया था। आनन्द के आग्रह पर मौसी महाप्रजापति, भट् कच्चाना (यशोधरा) आदि महिलाओं को कुछ प्रतिबन्ध के साथ, भिक्षुओं से कम महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान करते हुए, संघ में प्रवेश की स्वीकृति प्रदान की थी।
बौद्ध अनुयायी दो प्रकार के थे- गृहस्थ एवं भिक्षु। संघ में 15 वर्ष से ऊपर के स्त्री, पुरुषों के लिए प्रवेश बिना किसी जातीय भेदभाव के खुला था। किन्तु दण्डापराधी, कोढ़ी, रोगी एवं दास इससे वंचित थे। प्रवेश पाने के इच्छुक व्यक्ति को अपना एक गुरू बनाना होता था जो उसे संघ में प्रवेश दिलाने हेतु भिक्षुओं के अधिवेशन में प्रस्ताव रखता था। सभा से स्वीकृति मिलने पर उसे दीक्षा दी जाती थी एवं सदाचार पूर्ण जीवनचर्या के नियम समझाये जाते थे। इसके साथ ही उसे बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन भी अपने गुरू के निर्देशन में करना होता था। भिक्षुओं के दैनिक कार्य धर्म के निश्चित अध्यादेशों से नियंत्रित थे। संघ के विधान की अवज्ञा के लिए दण्ड का प्रावधान था। बौद्ध संघ के नियम बनाये जाने का अधिकार संस्थापक को दिया गया। बौद्ध संघ में अनेक स्थानीय संघ थे किन्तु उनका कोई केन्द्रीय संगठन नहीं था। परस्पर स्थानीय संघों में मत-वैभिन्य की अवस्था में समस्त संघों का अधिवेशन आमन्त्रित किया जाता था जिसे संगीति कहा जाता था। बुद्ध के निधन के पश्चात् राजगृह में प्रथम संगीति का आयोजन हुआ जिसमें उनकी शिक्षाओं का संग्रह किया गया। एक संघ के सदस्य को दूसरे संघ में स्वत: सदस्य मान लिया जाता था। संघ के समस्त महत्त्वपूर्ण निर्णय मतदान द्वारा किये जाते थे अर्थात् संघ का संचालन लोकतान्त्रिक सिद्धान्तों से संचालित होता था। समस्त सदस्यों के अभाव में सभा का आयोजन नहीं किया जाता था। किसी भी भिक्षु को संघ में अनुपस्थित रहने की स्थिति में अपना मत व्यक्त करके जाना होता था। परिषद् प्रत्येक भिक्षुक को उसके पापों के लिए दण्डित करने के लिए अधिकृत थी। संघ के दैनिक कायों के संचालन के लिए अनेक अधिकारियों की नियुक्ति की जाती थी।
भिक्षुणियों का अलग वर्ग होता था, जिसे भिक्षुओं के संघ के अधीन समझा जाता था। महात्मा बुद्ध की मान्यता थी कि महिलाओं के संघ में प्रवेश से धर्म अधिक काल तक जीवित नहीं रह सकता और संघ में भिक्षुणियों को निम्न स्थान प्रदान किया गया।
बौद्ध दर्शन- महात्मा बुद्ध ने बहुत ही व्यावहारिक दर्शन देने की कोशिश की है। वे आत्मा एवं ब्रह्म से संबंधित विवाद में नहीं उलझना चाहते थे। उन्होंने आत्मा की सत्ता को अस्वीकार कर दिया। भारतीय धर्म के इतिहास में यह एक क्रांतिकारी कदम था। सृष्टि के विषय में बौद्ध धर्म की अलग मान्यता है। वह यह कि सृष्टि दुखमय है, यह सृष्टि क्षणिक है और सृष्टि आत्माविहीन है। बौद्ध धर्म का मानना है कि आत्मा नहीं है और जिसे हम एक व्यक्ति के रूप में जानते हैं वस्तुत: वह भौतिक एवं मानसिक तत्वों के पाँच स्कधों से निर्मित है। जो निम्नलिखित हैं- 1. रूप, 2. संज्ञा, 3. वेदना, 4. विज्ञान और 5. संस्कार।
बौद्ध, धर्म, कर्म एवं पुनर्जन्म के सिद्धांत में विश्वास करता है। बौद्ध धर्म के अनुसार, प्रत्येक कार्य का एक कारण होता है और प्रत्येक कारण का एक कार्य। महात्मा बुद्ध ने कार्य-कारण श्रृंखला के 12 तत्वों को उद्घाटित किया है- 1. अविद्या, 2. संस्कार, 3. विज्ञान, 4. नामरूप, 5. षडायतन (अर्थात् मन सहित पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ), 6. स्पर्श, 7. वेदना, 8. तृष्णा, 9. उपादान, 10. भव, 11. जाति और 12. जरा-मरण।
प्रत्युतसमुत्पाद- इस दर्शन की मान्यता है कि जिस तरह दुख का कारण जन्म है, उसी तरह जन्म का कारण कर्म-फल रूपी चक्र है। बौद्ध दर्शन में नैरात्मवाद एवं क्षणभंगवाद भी महत्वूर्ण है। महात्मा बुद्ध ने चार आर्य सत्यों पर बल दिया है-
दुख है, दुख का कारण है, दुख का निदान है और दुख के निदान के उपाय हैं। वह निदान है आष्टांगिक मार्ग, जो निम्नलिखित हैं-
आष्टांगिक मार्ग
1. सम्यक दृष्टि
2. सम्यक संकल्प
3. सम्यक वाणी
4. सम्यक कर्म
5. सम्यक निर्वाह या आजीव
6. सम्यक व्यायाम (सम्मा वायाम)
7. सम्यक स्मृति
8. सम्यक् ध्यान या समाधि
बौद्ध दर्शन में यह सृष्टि विभिन्न चक्रों में विभाजित है। उसमें एक बुद्ध चक्र होता है तो दूसरा शून्य चक्र। हम भाग्यशाली हैं कि हम बुद्ध चक्र में हैं। इनमें चार बुद्धों ने उपदेश दिया– 1. क्रकच्छन्दा, 2. कनक मुनि, 3. कश्यप, 4. शाक्य मुनि, 5. मैत्रेय (आने वाले बुद्ध)। बौद्ध धर्म में त्रिरत्न हैं – बुद्ध, संघ और धर्म। बौद्ध धर्म में दस शील भिक्षुओं के लिए तथा पाँच गृहस्थों के लिए हैं।
ये दस शील इस प्रकार हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, नृत्य गान का त्याग, श्रृंगार-प्रसाधनों का त्याग, समय पर भोजन करना, कोमल शय्या का व्यवहार नहीं करना एवं कामिनी कांचन का त्याग
प्रथम बौद्ध संगीति- यह बुद्ध की मृत्यु के बाद राजगृह में अजातशत्रु के काल में हुई। इसकी अध्यक्षता महाकस्सप नामक आचार्य ने की। इस संगीति में उपालि ने विनयपिटक का पाठ किया और आनन्द ने सुतपिटक का।
दूसरी बौद्ध संगीति- यह लगभग बुद्ध की मृत्यु के 100 साल बाद वैशाली में हुई। उस समय वैशाली का शासक कालाशोक था। इसकी अध्यक्षता स्थविर यश या सर्वकामिनी ने की। इस सम्मेलन में दो गुटों के बीच तीव्र मतभेद उभरा।
पूर्वी गुट और पश्चिमी गुट के बीच। पूर्वी गुट में वैशाली तथा मगध के भिक्षु थे पश्चिम गुट में अवन्ति के भिक्षु थे। पूर्वी गुट वज्जिपुतक कहलाए। अनुशासन के दस नियमों पर मतभेद उभरा। पूर्वी गुट महासंघिक या आचार्य वाद कहलाने लगा। पश्चिमी गुट थेरवादी। अंत में तहरवाद 11 पंथों में साहसिक और महासंघिक 7 पंथों में विभाजित हो गए। ये मूल रूप में हीनयानी पंथी थे किन्तु उनमें से कुछ ने कुछ इस प्रकार के सिद्धांतों को अपनाया जो महायान के उत्थान के लिए उत्तरदायी सिद्ध हुआ। महासांघिक संप्रदाय के अनुयायी यह स्वीकार करते थे कि प्रत्येक व्यक्ति में बुद्धत्व प्राप्ति की स्वामानिक शक्ति है। समय और संयोग से सभी को बुद्धत्व मिल सकता है। वस्तुत: प्राप्ति के नौ भेद माने गए- मूल महासंघिक, एक व्यवहारिक, लोकोत्तरवाद, कौरू कुत्लका, बहुश्रुतीय, प्रज्ञातिवाद, चैत्य-शैल, अवर शैल, और उत्तर शैल। तिब्बती परंपरा के अनुसार महकच्चायन ने थेरवाद संप्रदाय की स्थापना की। राहुलभद्र नामक आचार्य ने थेरवाद के एक उपसंप्रदाय, सर्वास्तिवादी की स्थापना की। सर्वास्तिवादी संप्रदाय को बाद में वैभेषिक के नाम से जाना जाने लगा। महासंघिका संप्रदाय प्रारंभ में वैशाली में और फिर समस्त उत्तर भारत में फैल गया। बाद में इसका प्रसार आंध्रप्रदेश में हुआ और इसका महत्वपूर्ण केद्र अमरावती और नागर्जुनकोंडा हो गया।
तीसरी बौद्ध संगीति- यह अशोक के समय पाटलिपुत्र में हुई। इसकी अध्यक्षता मोगालिपुत्त तिस्स ने की। तीसरे बौद्ध संगीति को थेरवादियों की सभा विचारों का मोगालिपुत्त तिस्स ने महासांघिक मतों का खण्डन करते हुए अपने ही सिद्धान्तों को बुद्ध के मौलिक सिद्धान्त घोषित किया। उन्होंने कथावत्थु नामक ग्रन्थ का संकलन किया जो अभिधम्म पिटक के अंतर्गत आता है। इस प्रकार बुद्ध की शिक्षाओं के तीन भाग हो गए- सत्त, विनय तथा अभिधम्म। इन्हें लिपिटक की संख्या दी जाती है। इस सम्मेलन की प्रामाणिकता संदिग्ध मानी जाती है क्योंकि अशोक के किसी अभिलेख में इसकी चर्चा नहीं है।
चौथी बौद्ध संगीति- यह कश्मीर के कुंडलवन में हुई। इसके लिए पार्श्व नामक विद्वान् ने कनिष्क को परामर्श किया। वसुमित्र इसका अध्यक्ष था जबकि उपाध्यक्ष अश्वघोष था। ह्वेनसांग और लामा तारानाथ ने भी इस सम्मेलन की चर्चा की है। माना जाता है कि एक सर्वास्तिवादी संप्रदाय के भिक्षु कात्यायन पुत्र ने कश्मीर जाकर 500 बोधिसत्व की सहायता से महाविभाष नामग ग्रंथ की रचना की। इसी सम्मेलन में हीनयान और महायान में विभाजन हुआ। हीनयान के कुछ महत्वपूर्ण उपसंप्रदाय-
  1. स्थविरवादी संप्रदाय (थेरवादी) – परंपरागत धर्म।
  2. सांची का बौद्ध विहार इस संप्रदाय से जुड़ा है।
  3. सर्वास्तिवादी- यह मथुरा और कश्मीर क्षेत्र में लोकप्रिय था। इसका सिद्धांत संस्कृत में है। यह स्थविरवादियों से इस रूप में भिन्न है कि इसका यह मानना है कि दृश्य जगत के धर्म पूर्णतः क्षणिक हैं। प्रत्युत सदा अन्तर्निहित रूप में विद्यमान रहते हैं।
  4. सौत्रान्तिक- इसकी धारणा है कि बाह्य जगत संबंधी हमारा ज्ञान एक संभव अनुमान मात्र है। इस सम्प्रदाय का मुख्य आधार सूत्र (सुत्त) चिटक है। सौत्रान्तिक चित्त तथा बाह्य जगत दोनों में विश्वास करते है। किन्तु वे यह नहीं मानते कि वस्तुओं का ज्ञान प्रत्यक्ष रूप से होता है।
  5. समित्या- इसने यहाँ तक प्रगति की कि उसने आत्माभाव के सिद्धांत को अस्वीकार कर दिया और शरीर में एक ऐसी आत्मा की परिकल्पना की कि जो एक जीवन से दूसरे जीवन में चली जाती है।
महायान बौद्ध धर्म
महात्मा बुद्ध अपने सिद्धांतों का अधिकाधिक प्रचार करना चाहते थे। उन्होंने अपने अनुयायियों को विभिन्न दिशाओं में बौद्ध धर्म के प्रचार का निर्देश दिया था। स्वयं बुध ने भी ज्ञान प्राप्ति के बाद आजीवन अपने सिद्धांतों का प्रचार किया। बुद्ध की प्रेरणा एवं बौद्ध धर्मानुयायियों के सदस्य उत्साह, अपूर्व लगन एवं निष्ठा से बौद्ध धर्म का प्रचार सभी दिशाओं में तेजी से होने लगा और बौद्ध धर्म की अत्यंत द्रुत गति से न केवल भारत बल्कि विदेशों में भी फैल गया। बौद्ध धर्म के प्रचार और विकास में बौद्ध संघ व्यवस्था और संगीतियों का विशिष्ट योगदान रहा। तत्कालीन गणराज्यों में प्रचलित संघ व्यवस्था को ही महात्मा बुद्ध ने अपनाया था। बौद्ध धर्म के विकास और विस्तार में चार सभाओं (संगीतियों) का महत्वपूर्ण योगदान रहा। इस सभा के बाद बौद्ध धर्म के प्रचारार्थ विभिन्न देशों में भिक्षुओं को भेजा गया। सम्राट् अशोक के प्रयासों एवं सहयोग से बौद्ध धर्म का प्रसार पश्चिमी और दक्षिणी एशिया में संभव हुआ। चतुर्थ संगीति सम्राट् कनिष्क के समय में आयोजित की गई। इसमें त्रिपिटकों पर विभाषाशास्त्र (महाविभाषा) की संस्कृत में रचना की गई। कनिष्क की मुद्राओं पर बुद्ध तथा अन्य देवताओं की आकृतियों का अंकन इस तथ्य को इंगित करता है कि बौद्ध धर्म अब अपने मौलिक विचारों से दूर होता जा रहा था। प्राचीन बौद्ध मत के अनुसार, बुद्ध मानव जगत के पथ प्रदर्शक मात्र थे। परन्तु धीरे-धीरे उनका स्थान देवपरक हो चला था। वे (बुद्ध) देवरूप माने जाने लगे, जिन्हें उपासना द्वारा प्राप्त किया जा सकता था। उनके चतुर्दिक बोधिसत्वों एवं अन्य देव परिवार का आविर्भाव हुआ। इसमें संदेह नहीं कि आवागमन के बन्धन से मुक्ति प्राप्ति के प्रयास का प्राचीन आदर्श अब भी जीवित था। इस विचार का भी आविर्भाव हो चला था कि प्रत्येक मनुष्य अपना लक्ष्य बुद्धत्व प्राप्ति कर सकता है और संसार को दु:ख से मुक्त करने के लिए बुद्धत्व प्राप्त कर सकता है।
हीनयान और महायान में अन्तर-
  1. हीनयान की मानता है कि सभी को अपनी मुक्ति का मार्ग स्वयं ढूंढना होगा और अधिक से अधिक निर्वाण के मार्ग में हम दूसरों की उदाहरण या उपदेश के द्वारा सहायता कर सकते हैं। महायान गुणों के हस्तांतरण में विश्वास करता है।
  2. हीनयान बुद्ध की ऐतिहासिकता में विश्वास करता है जबकि महायान बोधिसत्व में।
  3. रूढ़िवादी हीनयान संप्रदाय ने अंर्हत (बोधिसत्व) पद की प्राप्ति के लिए नौचर्याओं एवं दस अनुशासनों का पालन आवश्यक बताया है। किन्तु महायान बौद्ध संप्रदाय ने यह स्थापित किया कि सभी लोगों को बुद्धत्व की प्राप्ति हो सकती है।
  4. हीनयानियों ने इस संसार को दु:खमय माना है किन्तु महायान आशावादी दृष्टिकोण रखता है। उसके विचार में सभी जीव निर्वाण प्राप्त करेंगे।
  5. हीनयान स्वयं के प्रयत्नों पर बल देता है, परन्तु महायान बुद्ध के प्रति विश्वास एवं भक्ति पर बल देता है।
  6. हीनयान बौद्ध धर्म का साहित्य पाली भाषा में है जबकि महायान बौद्ध धर्म का साहित्य संस्कृत भाषा में है। अपवाद मिलिन्दपन्हो नामक ग्रंथ है जो महायान ग्रंथ होकर भी पाली भाषा में है।
हीनयान बौद्ध संप्रदाय में बुद्ध के जीवन से 4 पशु जुड़े हुए हैं-
बुद्ध के जीवन से जुड़े 4 पशु
हाथीबुद्ध के गर्भ में आने का प्रतीक
सांडयौवन का प्रतीक
घोड़ागृह त्याग का प्रतीक
शेरसमृद्धि का प्रतीक
बौद्ध धर्म में आठ महास्थान या अष्टमहास्थान हैं-
बौद्ध धर्म में आठ महास्थान
1. लुम्बनी5. श्रावस्ती
2. बोधगया6. सांकस्य
3. सारनाथ7. राजगृह
4. कुशीनारा8. वैशाली
इनके अतिरिक्त बौद्ध धर्म के कुछ अन्य महत्वपूर्ण केद्र आंध्रप्रदेश में अमरावती और नागार्जुन कोंड हैं।
  • बिहार – नालन्दा
  • गुजरात – जूनागढ़ और वल्लभी
  • मध्यप्रदेश – सांची और भरहुत
  • महाराष्ट्र – एलोरा और अजंता
  • उडीसा – धौला
  • उत्तर प्रदेश – कन्नौज, कौशांबी और मथुरा
  • पं. बंगाल – जगदल और सोमपुरी
प्रतीक- हीनयानियों के लिए महात्मा बुद्ध शिक्षक थे, देवता नहीं। हीनयान में उनका प्रतिनिधित्व निम्नलिखित प्रतीकों के माध्यम से किया जाता था–
बुद्ध से सम्बंधित प्रतीक
1. बोधि वृक्ष और नीचे में वज्रासनज्ञान प्राप्ति
2. माला चढ़ाया हुआ चक्रधर्मचक्र प्रवर्तन
3. चक्रमपदयात्रा का प्रतीक
4. स्तूपमृत्यु का प्रतीक
जबकि महायान बौद्ध धर्म में उन्हें मानव रूप में चित्रित किया गया है।
महायान बौद्ध धर्म का विकास- महायान बौद्ध धर्म का विकास के श्रेय नागार्जुन को दिया जाता है। इसमें बौद्ध धर्म में अनेक बोधिसत्व की परिकल्पना की गई है। भौतिक दृष्टि से उनमें सबसे महत्वपूर्ण अवलोकितश्वर है इन्हें पदम्पाणि के नाम से भी जाना जाता है। इसका विशेष गुण दया है और इसकी सहायता का हाथ अविषीतक पहुँचता है, जो बौद्ध धर्म के शुद्ध स्थलों में सर्वाधिक गहन एवं अप्रिय है।
मंजूश्री- दूसरा महत्वपूर्ण बोधिसत्व मंजूश्री है। इसका विशेष कार्य बुद्धि को प्रखर करना है और इसके एक हाथ में नग्न खड्ग एवं दूसरे हाथ में पुस्तक है जिसमें 10 पारमिताओं (आध्यात्मिक पूर्णता) का विवरण है जो बोधिसत्व द्वारा विकसित मूल सद्गुण है। दस पारमिताएँ- 1. दान, 2. शिला, 3. वीर्य, 4. शांति, 5. ध्यान, 6. प्रज्ञा, 7. उपकौशल, 8. परमिद्यान, 9. बल और 10. ज्ञान।
बज्रपाणि- यह अपेक्षाकृत एक कठोर बोधिसत्व है जो पाप एवं असत्य का शत्रु है और इन्द्र देवता की भांति अपने हाथ में वज्र रखता है।
क्षितिगर्भ- यह बोधिसत्व शुद्धि स्थानों का अभिभावक है और एक आदर्श कारागृह का शासन करने वाला माना जाता है।
मैत्रेय- यह आने वाला बोधिसत्व है। इस तरह बुद्ध की कल्पना बोधिसत्व में बदल गई।
सामंतभद्र और भेषैज्यराज भी बोधिसत्व ही हैं लेकिन इनकी कोई विशेषता नहीं है। महायान बौद्ध धर्म में गौतम बुद्ध केवल मनुष्य ही नहीं थे वरन् एक महान अलौकिक प्राण सत्ता की पार्थिव अभिव्यक्ति हैं। उनके तीन शरीर हैं-
  1. सार का शरीर (धर्मकाया)
  2. आनन्द का शरीर (संभोग काया)
  3. सृजित शरीर (निर्वाण काया)
धर्मकाया आदि बुद्ध है, जो संपूर्ण विश्व में व्याप्त है। संभोग काया का स्थल स्वर्ग है। महायान बौद्ध धर्म में उस स्वर्ग को सुखावति कहा गया है। इस स्वर्गिक बुद्ध को अमिताभ या अमितायुष कहा जाता है। आदि बुद्ध (धर्मकाया) को शून्य तत्व बोध अथवा तथागत गर्भ भी कहा जाता है। महायान बौद्ध धर्म के अन्तर्गत दर्शन के दो संप्रदाय विकसित हुए।
शून्यवाद या माध्यमिक दर्शन- इसके प्रणेता नागार्जुन थे। इस सिद्धांत का मानना है कि चूंकि प्रत्येक वस्तु किसी कारण से बनी है, इसलिए वह शून्य है। शून्यवाद दर्शन सापेक्षिकता के सिद्धांत से समानता रखता है। इस दर्शन से संबंधित महत्वपूर्ण ग्रंथ है – माध्यमिकारिका।
विज्ञानवाद या योगाचार- इसके प्रणेता मैत्रयनाथ थे। उसके शिष्य असंग ने इस विचारधारा को स्पष्टता दी। आगे वसुबंधु, दिगनाग और धर्मकींती इस दर्शन से जुड़ गए। असंग द्वारा लिखित सूत्रालंकार इस धर्म से संबंधित प्राचीनतम ग्रंथ है और सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ लंकावतार सूत्र है। इस दर्शन का मानना है कि संसार का निर्माण चेतना ने किया है जो स्वप्न से अधिक वास्तविक नहीं है।
दिगनाग (दार्शनिक)- दिगनाग ने पाँचवी में बौद्ध न्याय का विकास किया। उसके कुछ महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं- 1. प्रमाण समुच्चय, 2. न्यायप्रवेश और 3. आलम्बर परीक्षा। धर्मकीर्ति को भारत का कॉण्ट कहा गया है। महायान बुद्ध में एक देव कुल बना जिसमें 5 ध्यानी बुद्ध की कल्पना की गई है। ये हैं- वैरोचन, अक्षोस्य, रत्नसभव, अमिताभ और अमोघ सिद्धि (देवता)। इसमें से प्रत्येक बुद्ध का संबंध एक बोधिसत्व और एक देवी से रहा है जिसका नाम तारा है। महायानी लोग तारा (प्रज्ञा पारमिता) संजूश्री और अवलोकितेश्वर की पूजा करते थे। चीनी तीर्थयात्री इत्सिग ने उन जुलूसों को देखा था जिसमें बुद्ध और बोधिसत्वों की प्रतिमाएँ ले जाई जाती थीं।
वज़यान संप्रदाय- यह तंत्रवाद से प्रभावित था। हीनयान बौद्ध संप्रदाय आत्मनियंत्रण और आत्मविकास के द्वारा निर्वाण की बातें करता था। महायान बौद्ध संप्रदाय बोधिसत्व की कृपा पर बल देता है जबकि वज़यान जादुई शक्ति को प्राप्त करके मुक्त होने की कल्पना करता था। आठवीं शताब्दी में कश्मीर के सर्वज्ञमित्र नामक व्यक्ति ने तंत्रवाद को बौद्ध संप्रदाय में अपनाया था। जादुई शक्ति को वज्र कहा जाता है और इस संप्रदाय को वज्रयान कहा जाने लगा। पुरुष के साथ स्त्री की कल्पना जुड़ गई। अवलोकितेश्वर के साथ प्रज्ञापरमिता और बुद्ध के साथ तारा जुड् गई। निचले स्तर पर कुछ अन्य स्त्रियाँ भी थीं, यथा मातंगी, पिशाची, योगिनी, डाकनी आदि। वज्रयानी साधु गुह्य साधना पञ्चमकारहैं, की साधना करने लगे। पञ्चमकार के अन्तर्गत मांस, मदिरा, मैथुन मत्स्य और मुद्रा। वज्रयान संप्रदाय के अंतर्गत ही 10वीं शताब्दी में एक अन्य संप्रदाय काल चक्रायन अस्तित्व में आया। इसमें सर्वोच्च देवता कालचक्र को माना गया। बंगाल में ही सहजयान पंथ का भी विकास हुआ। नालंदा, विक्रमशीला, सोमपुरी और जगदल्ल् वज्रयान संप्रदाय के महत्वपूर्ण केद्र थे।
वज्रयान उपसंप्रदाय के देवगण- हेरुक एक वज्रयानि देवता हैं जो जो शिव के रौद्र रूप से मिलते हैं। हेरूक के पैर के नीचे शव है। दूसरे देवता यमारी हैं। यह हिंदू देवता यम से समानता रखते हैं जिनका वाहन भैंसा है। एक देवता जम्भल हैं जो हिंदू देवता कुबर से मिलते-जुलते हैं। इनकी पत्नी वसुंधरा है। इसके अतिरिक्त कुछ देवियों की भी चर्चा है यथा, तारा, सरस्वती, अपराजिता, गृहमातृका और छिन्नमस्तिका है। इस काल तक बौद्धों के कतिपय उप-संप्रदाय कुछ उन्नति पर थे। नासिक एवं कन्हेरी में भदियानीय तथा कालें में महासंघिका, सोपारा एवं जुन्नार में धर्मतरीय उपसंप्रदाय था कि तथा अमरावती में चैतकीय था|
बौद्ध संघ- बुद्ध ने अपना उत्तराधिकारी मनोनीत नहीं किया था। उन्होंने घोषणा की कि धर्म और संघ के निर्धारित नियम ही उनके उत्तराधिकारी हैं। बौद्ध संघ की सदस्यता सभी जातियों को सुलभ थी और उसके लिए 15 वर्ष या उससे अधिक उम्र अनिवार्य थी। परन्तु चोरों, अपराधियों, दासों, राजा के सेवकों, कर्जदारों और रोगियों को संघ का सदस्य नहीं बनाया जा सकता था। स्त्रियों के लिए पृथक बौद्ध संघों की स्थापना हुई। बौद्ध धर्म को मानने वाले दो तरह के थे- 1. भिक्षु और 2. उपासक। भिक्षु सन्यासी जीवन व्यतीत करता था और उपासक गृहस्थ जीवन। बौद्ध संघ में 10 प्रकार के नियमों का पालन करना अनिवार्य है। ये दस नियम इस प्रकार है-
बौद्ध संघ के दस नियम
1. दूसरे के धन की इच्छा न करना।6. संगीत एवं नृत्य में भाग नहीं लेना।
2. हिंसा नहीं करना।7. सुगधित द्रव्यों का उपयोग नहीं करना।
3. असत्य नहीं बोलना।8. कुसमय में भोजन नहीं करना।
4. मादक द्रव्यों का सेवन नहीं करना।9. सुखप्रद बिस्तर पर नहीं सोना।
5. व्यभिचार नहीं करना।10. द्रव्य का संचय नहीं करना।
पहले बौद्ध संघ में श्रमण के रूप में सदस्यता प्राप्त होती थी, फिर दस वर्षों के पश्चात् अगर योग्यता स्वीकृत कर ली जाती थी तो उसे भिक्षु का दर्जा दिया जाता था।
उपसम्पदा- बौद्ध संघ में प्रवेश को उपसंपदा कहा जाता था। बौद्ध संघ का यह सिद्धांत था कि संस्थापक के अतिरिक्त कोई अन्य नियम नहीं बना सकता था। दूसरे लोग केवल इसकी व्याख्या कर सकते थे। नये नियम नहीं बना सकते थे। संघ का लोकतांत्रिक स्वरूप था। एक स्थान पर रहने वाले सभी भिक्षुओं की परिषद् सर्वोच्च सत्ता समझी जाती थी और सारी बातें मतदान पर निश्चित होती थी। गुप्त मतदान के आधार पर (शलाका पद्धति) बहुमत प्रस्ताव को स्वीकार या अस्वीकार किया जाता था। भिक्षुओं को तीन महीने तक वर्षा के दिनों में एक ही जगह पर स्थिर रहना पड़ता था जिसे वस्सा (Vassa) कहा जाता था। हर 15वें दिन भिक्षुओं को उपोसथ में अपनी अपराध संहिता (पतिमुख) पढ़नी पड़ती थी और उसके अनुसार अपना अपराध स्वीकार करना पड़ता था। वस्स की समाप्ति पर पवारणा के समय भी सभा में सभी भिक्षुओं से यह पूछा जाता था कि उनसे कोई गलती तो नहीं हुई है।
बौद्ध साहित्य
बौद्ध साहित्य
हीनयान- सिंहली परंपरागत कथा के अनुसार, स्थविरवादी संप्रदाय का पाली साहित्य राजा वत्तागामिनी के समय श्रीलंका में लिपीबद्ध हुआ था।
त्रिपटक साहित्य- सुत्तपिटक, विनयपिटक और अभिधम्मपिटक
विनयपिटक- संघ से संबंधित नियम हैं
अभिधम्मपिटक- दर्शन संकलित हैं
सुत्तपिटक इसमें बुद्ध के उपदेश संकलित हैं। यह सर्वाधिक विस्तृत एवं प्रमुख है। इसका विभाजन पाँच निकायों में हुआ है।
दीर्घनिकाय- बुद्ध से संबंधित लंबे उपदेशों का संग्रह।
मज्झिम निकाय- समें छोटे-छोटे उपदेश संग्रहीत हैं
संयुक्तनिकाय- इसमें संक्षिप्त घोषणा है
अंगुत्तरनिकाय- 2000 से अधिक संक्षिप्त कथनों का संग्रह है।
खुद्दक निकाय- इसमें धम्मपद, सुत्तनिपात, थेरागाथा, थेरीगाथा और जातक कथा है।
विनय पिटक- इसमें संघ से संबंधित नियम हैं। इसके चार भाग हैं- 1. सुतविभग, 2. खद्यका, 3. परिवार और 4. परिवार पाठ
अभिधम्मपिटक- यह उच्च धर्म एवं उच्च ज्ञान से संबंधित है। यह प्रश्नोत्तर की शैली में लिखा गया है। विषयवस्तु सुत्तपिटक एवं विनयपिटक ली गई हैं
आगमेतर बौद्ध साहित्य- आगमों के अतिरिक्त पाली में अन्य ग्रंथ भी लिखे गए हैं। उनमें प्रसिद्ध हैं- मिलिन्दपन्हो। आगमों का सबसे बड़ा टीकाकार बुद्धघोष था। उसने विशुद्धिमग्ग की रचना की। सिंहल द्वीप के महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं, दीपवंश और महावंश। ये क्रमश: चौथी एवं पाँचवीं सदी में लिखे गये। यह सिंहल द्वीप का इतिहास ग्रंथ भी है।
महावस्तु- यह लोकोत्तरवादियों का विनय पिटक से संबद्ध ग्रंथ है। लोकोत्तरवादी वैशाली की संगीति में अलग होने वाले महासघिका की एक शाखा है।
महायान संप्रदाय का साहित्य- महायान संप्रदाय से संबंधित वैपुल्यसूत्र है। आरंभिक पुस्तक में ललितविस्तरमहत्वपूर्ण है। इसमें बुद्ध के जीवन की कहानी है। यह प्रारंभ में हीनयान संप्रदाय से संबद्ध था। किन्तु आगे चलकर इसकी गणना वैपुल्यसूत्र या महायान सूत्र में होने लगी। वैपुल्य सूत्र महायानियों का आगम है। इसके अंतर्गत निम्नलिखित ग्रंथ हैं- 1. अष्ट सहास्त्रिका प्रज्ञा पारमिता, 2. सधमपुण्डरिक, 3. ललितविस्तर, 4. लकावतार या सधमलकावतार, 5. सुवण प्रभास, 6. गण्डव्यूह, 7. तथागत गुणज्ञान, 8. समाधिराज और 9. दशभुमिश्वरा इन सभी ग्रंथों में सबसे महत्वपूर्ण सधर्म पुंडरिक है। इसमें महायान संप्रदाय की सबसे उल्लेखनीय विशेषता निहित हैं। महायान संप्रदाय की सबसे महत्वपूर्ण दार्शनिक पुस्तक  प्रज्ञापारमिता है। पारमिता शब्द का अर्थ, उन गुणों की परम प्राप्ति है जो बुधत्व प्राप्ति के लिए आवश्यक है। महायान साहित्य में दंतकथाओं का बहुत बड़ा भंडार है। इन कथाओं को अवदान कहते हैं। कुछ महत्वपूर्ण अवदान निम्नलिखित हैं- अवदान शतक, दिव्यावदान और क्षेमेन्द्र द्वारा लिखित अवदान कल्पता। कुछ महान् लेखक- अश्वघोष कृत बुद्धचरित सौन्दरानंद, सुत्रालंकार, वज्रसूची, महायन क्षदोत्पाद इस युग की मुख्य रचनाएँ हैं। सारिपुत्र प्रकरण-पहली नाट्यकृति है जो अधूरी है। इसका अंश मध्य एशिया में मिला है।
  • नागार्जुन- सहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता, आर्यदेव चतुष्टिक
  • वसुवन्धु- अमिधर्मकोष
हीनयान और महायान का प्रसार
  1. हीनयान- श्रीलंका, बर्मा, शयाम, कबोडिया, लाओस।
  2. महायान- मध्य एशिया और चीन।
  3. वज्रयान संप्रदाय- चीन, तिब्बत, जापान।
महात्मा बुद्ध की राजनैतिक-सामाजिक दृष्टि- बुद्ध जाति-पाति के विरोधी थे। उनका मानना था कि व्यक्ति कर्म से बड़ा और छोटा होता है। वे ऐसे राजशासन के पक्षधर थे जो बिना दंड और शस्त्र के शासन करता हो। वे संपूर्ण भूमि राजा के अधीन देखना चाहते थे। उनका मानना था कि राजा केवल शांति-व्यवस्था के लिए ही उत्तरदायी नहीं है वरन् आर्थिक विकास भी उसका लक्ष्य होना चाहिए।
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गौतम बुद्ध के कुछ कथन
पुष्प की सुगंध वायु के विपरीत कभी नहीं जाती लेकिन मानव के सदगुण की महक सब ओर फैल जाती है। ~ गौतम बुद्ध
तीन चीजों को लम्बी अवधि तक छुपाया नहीं जा सकता, सूर्य, चन्द्रमा और सत्य। ~ गौतम बुद्ध
हज़ार योद्धाओं पर विजय पाना आसान है, लेकिन जो अपने ऊपर विजय पाता है वही सच्चा विजयी है। ~ गौतम बुद्ध
हमारा कर्तव्य है कि हम अपने शरीर को स्वस्थ रखें, अन्यथा हम अपने मन को सक्षम और शुद्ध नहीं रख पाएंगे। – बुद्ध
हम आपने विचारों से ही अच्छी तरह ढलते हैं; हम वही बनते हैं जो हम सोचते हैं| जब मन पवित्र होता है तो ख़ुशी परछाई की तरह हमेशा हमारे साथ चलती है। ~ गौतम बुद्ध
हजारों दियो को एक ही दिए से, बिना उसके प्रकाश को कम किये जलाया जा सकता है | ख़ुशी बांटने से ख़ुशी कभी कम नहीं होती। ~ गौतम बुद्ध
मनुष्य क्रोध को प्रेम से, पाप को सदाचार से लोभ को दान से और झूठ को सत्य से जीत सकता है। ~ गौतम बुद्ध
मनुष्य का दिमाग ही सब कुछ है, जो वह सोचता है वही वह बनता है। ~ गौतम बुद्ध
आत्मदीपो भवः। (अपना दीपक स्वयं बनो।) ~ गौतम बुद्ध
अप्रिय शब्द पशुओं को भी नहीं सुहाते हैं। ~ गौतम बुद्ध
अराजकता सभी जटिल बातों में निहित है| परिश्रम के साथ प्रयास करते रहो। ~ गौतम बुद्ध
आप को जो भी मिला है उसका अधिक मूल्याङ्कन न करें और न ही दूसरों से ईर्ष्या करें. वे लोग जो दूसरों से ईर्ष्या करते हैं, उन्हें मन को शांति कभी प्राप्त नहीं होती। ~ गौतम बुद्ध
आप चाहे कितने भी पवित्र शब्दों को पढ़ या बोल लें, लेकिन जब तक उनपर अमल नहीं करते उसका कोई फायदा नहीं है। ~ गौतम बुद्ध
अतीत पर ध्यान केन्द्रित मत करो, भविष्य का सपना भी मत देखो, वर्तमान क्षण पर ध्यान केंद्रित करो। ~ गौतम बुद्ध
अपने उद्धार के लिए स्वयं कार्य करें. दूसरों पर निर्भर नहीं रहें। ~ गौतम बुद्ध
एक सुराही बूंद-बूंद से भरता है। ~ गौतम बुद्ध
एक निष्ठाहीन और बुरे दोस्त से जानवरों की अपेक्षा ज्यादा भयभीत होना चाहिए ; क्यूंकि एक जंगली जानवर सिर्फ आपके शरीर को घाव दे सकता है, लेकिन एक बुरा दोस्त आपके दिमाग में घाव कर जाएगा। ~ गौतम बुद्ध
एक हजार खोखले शब्दों से एक शब्द बेहतर है जो शांति लता है। ~ गौतम बुद्ध
उदार मन वाले विभिन्न धर्मों में सत्य देखते हैं। संकीर्ण मन वाले केवल अंतर देखते हैं। ~ गौतम बुद्ध
द्वेष को द्वेष से नहीं बल्कि प्रेम से ही समाप्त किया जा सकता है; यह नियम अटल है। – बुद्ध
दुनिया में तीन चीज़ें कभी लम्‍बे समय तक छिपी नहीं रह सकती, पहली है सूर्य, दूसरी चन्‍द्रमा और तीसरी है सत्‍य। ~ गौतम बुद्ध
जो बीत गया है उसकी परवाह न करें, जो आने वाला है उसके स्वप्न न देखें, अपना ध्यान वर्तमान पर लगाएँ। – बुद्ध
जो अपने ऊपर विजय प्राप्त करता है वही सबसे बड़ा विजयी हैं। ~ गौतम बुद्ध
जिस तरह उबलते हुए पानी में हम अपना, प्रतिबिम्‍ब नहीं देख सकते उसी तरह क्रोध की अवस्‍था में यह नहीं समझ पाते कि हमारी भलाई किस बात में है। ~ गौतम बुद्ध
जीभ एक तेज चाकू की तरह बिना खून निकाले ही मार देता है। ~ गौतम बुद्ध
जिसने स्‍वयं को वश में कर लिया है, संसार की कोई शक्ति उसकी विजय, को पराजय में नहीं बदल सकती। ~ गौतम बुद्ध
जिसने अपने को वश में कर लिया है, उसकी जीत को देवता भी हार में नहीं बदल सकते – भगवान बुद्ध
चतुराई से जीने वाले लोगों को मौत से भी डरने की जरुरत नहीं है। ~ गौतम बुद्ध
झूठ सबसे बड़ा पाप है, झूठ की थैली में अन्‍य सभी पाप समा सकते हैं, झूठ को छोड़ दो तो तुम्‍हारे अन्‍य पाप कर्म धीरे-धीरे स्‍वत: ही छूट जाएंगे। ~ गौतम बुद्ध
वही काम करना ठीक है, जिसे करने के बाद पछताना न पड़े और जिसके फल को प्रसन्‍न मन से भोग सकें। ~ गौतम बुद्ध
वह व्यक्ति समर्थ है जो यह मानता है कि वह समर्थ है। – बुद्ध
वह व्यक्ति जो 50 लोगों को प्यार करता है, 50 दुखों से घिरा होता है, जो किसी से भी प्यार नहीं करता है उसे कोई संकट नहीं है। ~ गौतम बुद्ध
यह व्यक्ति की स्वयं सोच ही होती है जो उस बुराईयों की तरफ ले जाती हैं न कि उसके दुश्मन। – बुद्ध
शारीर को स्वस्थ रखना हमारा कर्त्तव्य है, नहीं तो हम अपने दिमाग को मजबूत अवं स्वच्छ नहीं रख पाएंगे। ~ गौतम बुद्ध
सभी ग़लत कार्य मन से ही उपजाते हैं | अगर मन परिवर्तित हो जाय तो क्या ग़लत कार्य रह सकता है। ~ गौतम बुद्ध
स्वास्थ्य सबसे महान उपहार है, संतोष सबसे बड़ा धन तथा विश्वसनीयता सबसे अच्छा संबंध है। ~ गौतम बुद्ध
सत्य के रस्ते पर कोई दो ही ग़लतियाँ कर सकता है, या तो वह पूरा सफ़र तय नहीं करता या सफ़र की शुरुआत ही नहीं करता। ~ गौतम बुद्ध
किसी जंगली जानवर की तुलना में निष्ठाहीन तथा बुरी प्रवृतियों वाले मित्र से अधिक डरना चाहिए क्योंकि जंगली जानवर आपके शरीर को चोट पहुंचाएगा लेकिन बुरा मित्र तो आपके मन-मस्तिष्क को घायल करेगा। – बुद्ध
क्रोधित रहना, किसी और पर फेंकने के इरादे से एक गर्म कोयला अपने हाथ में रखने की तरह है, जो तुम्ही को जलती है। ~ गौतम बुद्ध
कोई शत्रु नहीं, बल्कि मनुष्य का मन ही है जो उसे पथभ्रष्ट करता है। – बुद्ध
घृणा, घृणा करने से कम नहीं होती, बल्कि प्रेम से घटती है, यही शाश्वत नियम है। ~ गौतम बुद्ध

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