मंगलवार, 26 सितंबर 2017

डॉ अम्बेडकर महान


“कोई समुदाय स्वयं को केवल तभी गतिमान रख सकता है जब वह राजसत्ता पर अपना नियंत्रणकारी प्रभाव रख सकने लायक हो। राजसत्ता पर  नियंत्रणकारी प्रभाव रख कर मामुली से मामुली जनसंख्या वाला अल्पमत समुदाय भी किस तरह समाज मेँ अपनी सर्वोच्च हैसियत बरकरार रख सकता है, भारत मेँ ब्राह्मणोँ की वर्चस्वपूर्ण स्थिति इस की जीती – जागती मिसाल है। राजसत्ता पर.नियंत्रणकारी प्रभाव निहायत जरुरी है क्योँकि इसके बिना राज्य की नीति को एक दिशा देना संभव नही है, और प्रगती का सारा दारोमदार तो राज्य की नीति पर ही होता है।” — ङाँ. बाबासाहब आंबेङकर ….
julm sahna
“बहुजनों (SC/ST/OBC/Converted Minorities)  के सम्पन्न वर्ग का आंबेडकर मिशन के लिए अज्ञानता,अरुचि और नीरसता ही वो कारण हैं जिसकी वजह से न केवल बहुजनों का बल्कि समस्त भारत का भविष्य दुखमय नज़र आता है|इसका एक कारन ये भी है की विरोधी मीडिया आंबेडकर विचारधारा को बाकी बहुजनों से दूर रखकर केवल एस०सी० तक ही सीमित रखना चाहती है| एस०सी० वर्ग में भी जो लोग शिक्षित और सम्पन्न है उन्हें संगर्ष की जरूरत नहीं लगती और जो दुखी है उसके पास संगर्ष करने को पहले तो समय नहीं और अगर समय हो भी जाये तो धन के आभाव में उनकी आवाज़ कहीं नहीं पहुचती|चंद लोग संगर्ष कर रहे हैं और बाकि लोग कब तक केवल मूक दर्शक बने रहेंगे|  ध्यान रहे भविष्य उसका होता है जो वर्तमान में संगर्ष करता है|”…समयबुद्धा (Baujan/Buddhist preacher and Philosopher)
इंग्लंड कि विश्व प्रसिद्ध ऑक्सफर्ड युनिव्हर्सिटी मे मेन दरवाजे के अंदर कि ओर डॉक्टर बाबासाहाब आंबेडकर का फोटो लागाया हुआ है !वहा ऐसा लिखा है ,”हमे गर्व है कि ,ऐसा छात्र हमारे युनिवर्सिटी से पढकर गया है और उसने भारत का संविधान लिखकर उस देशपर बडा उपकार किया है !”
कोलंबिया युनिवर्सिटी को ३०० साल पुरे होने के उपलक्ष मे ,इतने सालो मे इस युनिवर्सिटी से सबसे हुशार छात्र कौन ? इसका सर्वे किया गया ! उस सर्वे मे ६ नाम सामने आए ,उसमे नं १ पर नाम था डॉक्टर बाबासाहाब आंबेडकर का ! डॉक्टर बाबासाहाब आंबेडकर के सम्मान मे युनिवर्सिटी कि मेन दरवाजे पर उनकी ब्राँझ कि मूर्ती लगायी गयी ,उस मूर्ती का अनावरण अमेरिकन राष्ट्रपती बराक ओबामा के करकमलो से किया गया ! उस मूर्ती के नीचे लिखा गया है ,”सिम्बॉल ऑफ नॉलेज ” याने ज्ञान का प्रतिक ! कितना आदर सम्मान …..और हमारा देश …जहा बाबासाहाब ने अपना पुरा जिवन समर्पित किया वहा उनके नाम को जगह जगह विरोध का होता है ! उधर मानसम्मान दिया जाता है ,मूर्ती बिठाई जाती है और इधर मुर्तीया तोडकर अपमानित किया जाता है ! अमेरिका डॉक्टर बाबासाहाब आंबेडकर इकॉनॉमी से चलकर आगे गयी और हमे ये तक मालूम नही कि बाबासाहाब महान अर्थशास्त्र ज्ञानी थे ! कितना दुर्भाग्य ……..!!!
‎2000 वर्ष तक कोई भी भगवान हमारी मदद करने को नहीं आया | किसी भी भगवान ने ये नहीं सोचा कि ये भी इन्सान है इनको भी जीने का अधिकार है | किसी भी भगवान ने ये नहीं सो…चा कि इनको भी मैंने बनाया है फिर मै इनको मंदिर में प्रवेश करने से क्यों रोकूँ ? किसी भी भगवान ने ये नहीं सोचा कि इनकी भी आवश्यकताए है, इनको भी सुविधापूर्वक, सरल जीवन जीने का अधिकार है | किसी भी भगवान ने ये नहीं सोचा जिस पानी को पशु पी सकते है वो पानी इन इंसानों के पीने से कैसे अपवित्र हो सकता है ? किसी भी भगवान ने ये नहीं सोचा इनकी भी जरूरते है इसलिए इनको भी भविष्य के लिए धन और संपत्ति संचय करने का अधिकार है | किसी भी भगवान ने ये नहीं सोचा जो लोग गाय का मूत्र पीकर अशुद्ध नहीं होते है वो किसी इन्सान की छाया पड़ने से कैसे अपवित्र हो सकते है ? किसी भी भगवान ने ये नहीं सोचा कि इनको भी ऊपर उठने का अधिकार है और इनको भी शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार है ? किसी भी भगवान ने ये नहीं सोचा कि जब ये धरती पशु पक्षियों और इन तथाकथित उच्च वर्ण के लोगो के मलमूत्र से अपवित्र नहीं होता है तो फिर इन लोगो के थूक और पदचाप से कैसे अपवित्र हो सकती है ? फिर उस भगवान को मै क्यों मानु जिस भगवान ने इंसानों में ही फर्क किया और इंसानों को ६७४३ से अधिक श्रेणियों यानि कि जातियों में बाँट दिया | जिस भगवान ने ये नहीं सोचा सभी को समानता का अधिकार है और सबको आजादी से जीने का अधिकार है, उस भगवान को मै क्यों मानू ? मै उस इन्सान को मानता हूँ जिसने इन सभी बातो को जाना और हमको हर तरह की से मुक्ति दिलाने के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया | उन्होंने सारा जीवन हमको पशु से इन्सान बनाने के लिए बलिदान कर दिया और हमको इन्सान बना कर ही दम लिया |
मेरे भगवान तो वही बाबा साहब है जिनकी वजह से मै आज आजाद हूँ | जिनकी वजह से मैंने शिक्षा प्राप्त की, वही मेरे भगवान है | जिनकी वजह से मै आज सिर उठाकर चल सकता हूँ वही बाबा साहब मेरे भगवान है और मै उन बाबा साहब को नमन करता हूँ|
ambedkar sandesh
 डाक्टर भीमराव रामजी आंबेडकर ( १४ अप्रैल , १८९१  ६ दिसंबर , १९५६ ) एक भारतीय विधिवेत्ता थे। वे एक बहुजन राजनीतिक नेता, और एक बौद्ध पुनरुत्थानवादी होने के साथ साथ, भारतीय संविधान के मुख्य वास्तुकार भी थे। उन्हें बाबासाहेब के नाम से भी जाना जाता है। इनका जन्म एक गरीब अस्पृश्य परिवार मे हुआ था। बाबासाहेब आंबेडकर ने अपना सारा जीवन हिंदू धर्म की चतुवर्ण प्रणाली, और भारतीय समाज में सर्वव्यापित जाति व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष में बिता दिया। हिंदू धर्म में मानव समाज को चार वर्णों में वर्गीकृत किया है। उन्हें बौद्ध महाशक्तियों के दलित आंदोलन को प्रारंभ करने का श्रेय भी जाता है। बाबासाहेब अम्बेडकर को भारत रत्न से भी सम्मानित किया गया है, जो भारत का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार है।कई सामाजिक और वित्तीय बाधाएं पार कर, आंबेडकर उन कुछ पहले अछूतों मे से एक बन गये जिन्होने भारत में कॉलेज की शिक्षा प्राप्त की। आंबेडकर ने कानून की उपाधि प्राप्त करने के साथ ही विधि, अर्थशास्त्र  राजनीतिक विज्ञान में अपने अध्ययन और अनुसंधान के कारण कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स से कई डॉक्टरेट डिग्रियां भी अर्जित कीं। आंबेडकर वापस अपने देश एक प्रसिद्ध विद्वान के रूप में लौट आए और इसके बाद कुछ साल तक उन्होंने वकालत का अभ्यास किया। इसके बाद उन्होंने कुछ पत्रिकाओं का प्रकाशन किया, जिनके द्वारा उन्होंने भारतीय अस्पृश्यों के राजनैतिक अधिकारों और सामाजिक स्वतंत्रता की वकालत की। डॉ. आंबेडकर को भारतीय बौद्ध भिक्कू ने बोधिसत्व की उपाधि प्रदान की है।———————————————————————————————————————————————————————————————–प्रारंभिक जीवनभीमराव रामजी आंबेडकर का जन्म ब्रिटिशों द्वारा केन्द्रीय प्रांत ( अब मध्य प्रदेश में ) में स्थापित नगर व सैन्य छावनी मऊ में हुआ था।[1] वे रामजी मालोजी सकपाल और भीमाबाई मुरबादकर की १४ वीं व अंतिम संतान थे।[2] उनका परिवार मराठी था और वो अंबावडे नगर जो आधुनिक महाराष्ट्र के रत्नागिरीजिले मे है, से संबंधित था। वे हिंदू महार जाति से संबंध रखते थे, जो अछूत कहे जाते थे और उनके साथ सामाजिक और आर्थिक रूप से गहरा भेदभाव किया जाता था। अम्बेडकर के पूर्वज लंबे समय तक ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में कार्यरत थे, और उनके पिता,भारतीय सेना की मऊ छावनी में सेवा में थे और यहां काम करते हुये वो सूबेदार के पद तक पहुँचे थे। उन्होंने मराठी और अंग्रेजी में औपचारिक शिक्षा की डिग्री प्राप्त की थी। उन्होने अपने बच्चों को स्कूल में पढने और कड़ी मेहनत करने के लिये हमेशा प्रोत्साहित किया।कबीर पंथ से संबंधित इस परिवार में, रामजी सकपाल, अपने बच्चों को हिंदू ग्रंथों को पढ़ने के लिए, विशेष रूप से महाभारत और रामायण प्रोत्साहित किया करते थे। उन्होने सेना मे अपनी हैसियत का उपयोग अपने बच्चों को सरकारी स्कूल से शिक्षा दिलाने मे किया, क्योंकि अपनी जाति के कारण उन्हें इसके लिये सामाजिक प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा था। स्कूली पढ़ाई में सक्षम होने के बावजूद आंबेडकर और अन्य अस्पृश्य बच्चों को विद्यालय मे अलग बिठाया जाता था और अध्यापकों द्वारा न तो ध्यान ही दिया जाता था, न ही कोई सहायता दी जाती थी। उनको कक्षा के अन्दर बैठने की अनुमति नहीं थी, साथ ही प्यास लगने प‍र कोई ऊँची जाति का व्यक्ति ऊँचाई से पानी उनके हाथों पर पानी डालता था, क्योंकि उनको न तो पानी, न ही पानी के पात्र को स्पर्श करने की अनुमति थी। लोगों के मुताबिक ऐसा करने से पात्र और पानी दोनों अपवित्र हो जाते थे। आमतौर पर यह काम स्कूल के चपरासी द्वारा किया जाता था जिसकी अनुपस्थिति में बालक आंबेडकर को बिना पानी के ही रहना पड़ता था। १८९४ मे रामजी सकपाल सेवानिवृत्त हो जाने के बाद सपरिवार सतारा चले गए और इसके दो साल बाद, अम्बेडकर की मां की मृत्यु हो गई। बच्चों की देखभाल उनकी चाची ने कठिन परिस्थितियों में रहते हुये की। रामजी सकपाल के केवल तीन बेटे, बलराम, आनंदराव और भीमराव और दो बेटियाँ मंजुला और तुलासा ही इन कठिन हालातों मे जीवित बच पाये। अपने भाइयों और बहनों मे केवल अम्बेडकर ही स्कूल की परीक्षा में सफल हुए और इसके बाद बड़े स्कूल मे जाने में सफल हुये। अपने एक देशस्त ब्राह्मण शिक्षक महादेव अम्बेडकर जो उनसे विशेष स्नेह रखते थे के कहने पर अम्बेडकर ने अपने नाम से सकपाल हटाकर अम्बेडकर जोड़ लिया जो उनके गांव के नाम “अंबावडे” पर आधारित था।रामजी सकपाल ने १८९८ मे पुनर्विवाह कर लिया और परिवार के साथ मुंबई (तब बंबई )चले आये। यहाँ अम्बेडकर एल्फिंस्टोन रोड पर स्थित गवर्न्मेंट हाई स्कूल के पहले अछूत छात्र बने।[3] पढा़ई में अपने उत्कृष्ट प्रदर्शन के बावजूद, अम्बेडकर लगातार अपने विरुद्ध हो रहे इस अलगाव और, भेदभाव से व्यथित रहे। १९०७ में मैट्रिक परीक्षा पास करने के बाद अम्बेडकर ने बंबई विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया और इस तरह वो भारत में कॉलेज में प्रवेश लेने वाले पहले अस्पृश्य बन गये। उनकी इस सफलता से उनके पूरे समाज मे एक खुशी की लहर दौड़ गयी , और बाद में एक सार्वजनिक समारोह उनका सम्मान किया गया इसी समारोह में उनके एक शिक्षक कृषणजी अर्जुन केलूसकर ने उन्हें महात्मा बुद्ध की जीवनी भेंट की, श्री केलूसकर, एक मराठा जाति के विद्वान थे। अम्बेडकर की सगाई एक साल पहले हिंदू रीति के अनुसार दापोली की, एक नौ वर्षीय लड़की, रमाबाई से तय की गयी थी।[3]१९०८ में, उन्होंने एलिफिंस्टोन कॉलेज में प्रवेश लिया और बड़ौदा के गायकवाड़ शासक सहयाजी राव तृतीय से संयुक्त राज्य अमेरिका मे उच्च अध्धयन के लिये एक पच्चीस रुपये प्रति माह का वजीफा़ प्राप्त किया। १९१२ में उन्होंने राजनीतिक विज्ञान और अर्थशास्त्र में अपनी डिग्री प्राप्त की, और बड़ौदा राज्य सरकार की नौकरी को तैयार हो गये। उनकी पत्नी ने अपने पहले बेटे यशवंत को इसी वर्ष जन्म दिया। अम्बेडकर अपने परिवार के साथ बड़ौदा चले आये पर जल्द ही उन्हें अपने पिता की बीमारी के चलते बंबई वापस लौटना पडा़, जिनकी मृत्यु २ फरवरी १९१३ को हो गयी।

छुआछूत के विरुद्ध संघर्ष

भारत सरकार अधिनियम १९१९, तैयार कर रही साउथबोरोह समिति के समक्ष, भारत के एक प्रमुख विद्वान के तौर पर अम्बेडकर को गवाही देने के लिये आमंत्रित किया गया। इस सुनवाई के दौरान, अम्बेडकर ने दलितों और अन्य धार्मिक समुदायों के लिये पृथक निर्वाचिका (separate electorates) और आरक्षण देने की वकालत की। १९२० में, बंबई में, उन्होंने साप्ताहिक मूकनायक के प्रकाशन की शुरूआत की। यह प्रकाशन जल्द ही पाठकों मे लोकप्रिय हो गया, तब्, अम्बेडकर ने इसका इस्तेमाल रूढ़िवादी हिंदू राजनेताओं व जातीय भेदभाव से लड़ने के प्रति भारतीय राजनैतिक समुदाय की अनिच्छा की आलोचना करने के लिये किया। उनके दलित वर्ग के एक सम्मेलन के दौरान दिये गये भाषण ने कोल्हापुर राज्य के स्थानीय शासक शाहू चतुर्थ को बहुत प्रभावित किया, जिनका अम्बेडकर के साथ भोजन करना रूढ़िवादी समाज मे हलचल मचा गया। अम्बेडकर ने अपनी वकालत अच्छी तरह जमा ली, और बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना भी की जिसका उद्देश्य दलित वर्गों में शिक्षा का प्रसार और उनके सामाजिक आर्थिक उत्थान के लिये काम करना था। सन् १९२६ में, वो बंबई विधान परिषद के एक मनोनीत सदस्य बन गये। सन १९२७ में डॉ. अम्बेडकर ने छुआछूत के खिलाफ एक व्यापक आंदोलन शुरू करने का फैसला किया। उन्होंने सार्वजनिक आंदोलनों और जुलूसों के द्वारा, पेयजल के सार्वजनिक संसाधन समाज के सभी लोगों के लिये खुलवाने के साथ ही उन्होनें अछूतों को भी हिंदू मंदिरों में प्रवेश करने का अधिकार दिलाने के लिये भी संघर्ष किया। उन्होंने महड में अस्पृश्य समुदाय को भी शहर की पानी की मुख्य टंकी से पानी लेने का अधिकार दिलाने कि लिये सत्याग्रह चलाया।
१ जनवरी १९२७ को डॉ अम्बेडकर ने द्वितीय आंग्ल – मराठा युद्ध, की कोरेगाँव की लडा़ई के दौरान मारे गये भारतीय सैनिकों के सम्मान में कोरेगाँव विजय स्मारक मे एक समारोह आयोजित किया। यहाँ महार समुदाय से संबंधित सैनिकों के नाम संगमरमर के एक शिलालेख पर खुदवाये। १९२७ में, उन्होंने अपना दूसरी पत्रिका बहिष्कृत भारत शुरू की, और उसके बाद रीक्रिश्टेन्ड जनता की। उन्हें बाँबे प्रेसीडेंसी समिति मे सभी यूरोपीय सदस्यों वाले साइमन आयोग १९२८ में काम करने के लिए नियुक्त किया गया। इस आयोग के विरोध मे भारत भर में विरोध प्रदर्शन हुये, और जबकि इसकी रिपोर्ट को ज्यादातर भारतीयों द्वारा नजरअंदाज कर दिया गया, डॉ अम्बेडकर ने अलग से भविष्य के संवैधानिक सुधारों के लिये सिफारिशों लिखीं।

पूना संधि


कुछ लोगो को गांधी और बाबासाहब के बिच हुए ‘पूना पैक्ट’ के बारे में जानकारी नहीं है ,मै आप लोगो को संछेप में थोड़ी सी जानकारी देना चाहता हूँ ,१)बाबासाहब चाहते थे की SC के लोगो को भारत में ”पृथक निर्वाचन छेत्र” मिले ,जहा से SC ही उमीदवार हो और उसे केवल SC ही वोट दे२)बाबासाहब SC के लिए दो बार वोटिंग का अधिकार भी चाहते थेउदहारण के लिए ,अगर आप का विधानसभा SC रिज़र्व सीट है तो वहा SC को दो बार वोट देने का अधिकार मिलता ,एक बार वहा से खड़े होनेवाले SC नेता को सिर्फ SC जनता ही वोट दे सकती थी ,और दूसरी तरफ किसी भी जात का नेता खडा हो सकता था और SC जनता फिर से उसको वोट देने के अधिकारी होतेबाबासाहब की इन दोनों मांगो को अंग्रेजो ने मान लिया थापर इसके विरोध में गांधी ने उपवास शुरू कर डालाऔर उपवास के दौरान SC लोगो पर हमले होने लगे ,इस कारन बाबासाहब ने मजबूर होकर गांधी से समझौता किया और अपनी दोनों मांगे रद्द कर दी ,उसकी जगह पर ‘संयुक्त चुनाव प्रणाली “‘ लागू हो गयी ,जो आज भी चल रही है ,जहा SC के रिज़र्व सीट से, खडा तो SC होता है पर उसे वोट सभी लोगो का (सवर्णोंका, ओबीसी का ,मुस्लिमो का ) लेना पड़ता है ,और वो SC नेता SC को कम अन्य जातियों को ज्यादा खुश करने के चक्कर में अपने SC समाज का ही सत्यानाश कर डालता हैसीधी भाषा में = बाबासाहब चाहते से घोड़े की दौड़ घोड़े से हो ,गधे की दौड़ गधे से हो ,हाथी की दौड़ हाथी से ही हो ,पर गांधी ने घोड़े की दौड़ गधे से लगाकर गधो के साथ अन्याय कियापरिणाम ,सभी पार्टी से SC सीट से जीते SC विधायक ,खुद SC के ही विरोध के ही कामो का संसद और विधानसभा में खुलकर विरोध नहीं करते ,क्यों की उनको SC से जयादा बाकी लोगो को खुश करना होता हैअगर SC को डबल वोटिंग और पृथक निर्वाचन छेत्र मिल जाता तो आगे चलकर ST OBC, मुसलमान ,सिख ,जैन ,बुद्धिस्ट ,एंग्लो इंडियन ,इत्यादि सब यही मांग करते और ब्राह्मणों से सब कट जाते और ब्राह्मणों के विरोध में काम करते ,जैसे आज ओबीसी रिजर्वेशन के मुद्दे पर ब्राह्मणों से कटते जा रहे है ,पर बाबासाहब का यह सपना गांधी ने ख़तम कर डाला
अब तक डॉ अम्बेडकर आज तक की सबसे बडी़ अछूत राजनीतिक हस्ती बन चुके थे। उन्होंने मुख्यधारा के महत्वपूर्ण राजनीतिक दलों की जाति व्यवस्था के उन्मूलन के प्रति उनकी कथित उदासीनता की कटु आलोचना की। अम्बेडकर ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और उसके नेता मोहनदास गांधी(महात्मा गांधी) की आलोचना की, उन्होने उन पर अस्पृश्य समुदाय को एक करुणा की वस्तु के रूप मे प्रस्तुत करने का आरोप लगाया। अम्बेडकर ब्रिटिश शासन की विफलताओं से भी असंतुष्ट थे, उन्होने अस्पृश्य समुदाय के लिये एक ऐसी अलग राजनैतिक पहचान की वकालत की जिसमे कांग्रेस और ब्रिटिश दोनों का ही कोई दखल ना हो। 8 अगस्त1930 को एक शोषित वर्ग के सम्मेलन के दौरान अम्बेडकर ने अपनी राजनीतिक दृष्टि को दुनिया के सामने रखा, जिसके अनुसार शोषित वर्ग की सुरक्षा उसके सरकार और कांग्रेस दोनों से स्वतंत्र होने मे है।
हमें अपना रास्ता स्वयँ बनाना होगा और स्वयँ … राजनीतिक शक्ति शोषितो की समस्याओं का निवारण नहीं हो सकती, उनका उद्धार समाज मे उनका उचित स्थान पाने मे निहित है। उनको अपना रहने का बुरा तरीका बदलना होगा…. उनको शिक्षित होना चाहिए …. एक बड़ी आवश्यकता उनकी हीनता की भावना को झकझोरने, और उनके अंदर उस दैवीय असंतोष की स्थापना करने की है जो सभी उँचाइयों का स्रोत है।[2]
इस भाषण में अम्बेडकर ने कांग्रेस और गांधी द्वारा चलाये गये नमक सत्याग्रह की शुरूआत की आलोचना की। अम्बेडकर की आलोचनाओं और उनके राजनीतिक काम ने उसको रूढ़िवादी हिंदुओं के साथ ही कांग्रेस के कई नेताओं मे भी बहुत अलोकप्रिय बना दिया, यह वही नेता थे जो पहले छुआछूत की निंदा करते थे और इसके उन्मूलन के लिये जिन्होने देश भर में काम किया था। इसका मुख्य कारण था कि ये “उदार” राजनेता आमतौर पर अछूतों को पूर्ण समानता देने का मुद्दा पूरी तरह नहीं उठाते थे। अम्बेडकर की अस्पृश्य समुदाय मे बढ़ती लोकप्रियता और जन समर्थन के चलते उनको 1931 मे लंदन में दूसरे गोलमेज सम्मेलन में, भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया। यहाँ उनकी अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने के मुद्दे पर तीखी बहस हुई। धर्म और जाति के आधार पर पृथक निर्वाचिका देने के प्रबल विरोधी गांधी ने आशंका जताई, कि अछूतों को दी गयी पृथक निर्वाचिका, हिंदू समाज की भावी पीढी़ को हमेशा के लिये विभाजित कर देगी।
1932 मे जब ब्रिटिशों ने अम्बेडकर के साथ सहमति व्यक्त करते हुये अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने की घोषणा की,[4][5] तब गांधी ने इसके विरोध मे पुणे की यरवदा सेंट्रल जेल में आमरण अनशन शुरु कर दिया। गाँधी ने रूढ़िवादी हिंदू समाज से सामाजिक भेदभाव और अस्पृश्यता को खत्म करने तथा, हिंदुओं की राजनीतिक और सामाजिक एकता की बात की। गांधी के अनशन को देश भर की जनता से घोर समर्थन मिला और रूढ़िवादी हिंदू नेताओं, कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं जैसे पवलंकर बालू और मदन मोहन मालवीयने अम्बेडकर और उनके समर्थकों के साथ यरवदा मे संयुक्त बैठकें कीं। अनशन के कारण गांधी की मृत्यु होने की स्थिति मे, होने वाले सामाजिक प्रतिशोध के कारण होने वाली अछूतों की हत्याओं के डर से और गाँधी जी के समर्थकों के भारी दवाब के चलते अंबेडकर ने अपनी पृथक निर्वाचिका की माँग वापस ले ली। इसके एवज मे अछूतों को सीटों के आरक्षण , मंदिरों में प्रवेश/पूजा के अधिकार एवं छूआ-छूत ख़तम करने की बात स्वीकार कर ली गयी । गाँधी ने इस उम्मीद पर की बाकि सभी स्वर्ण भी पूना संधि का आदर कर , सभी शर्ते मान लेंगे अपना अनशन समाप्त कर दिया।
आरक्षण सिस्टम में पहले दलित अपने लिए संभावित उमीदवारों में से चुनाव द्वारा (केवल दलित) चार संभावित उमीदवार चुनते । इन चार उमीदवारों में से फिर संयुक्त निर्वाचन चुनाव (सभी धर्म \ जाती) द्वारा एक विजेता चुना जाता । इस आधार पर सिर्फ एक बार सन 1937 में चुनाव हुए । आंबेडकर 20-25 साल के लिया आरक्षण चाहते थे लेकिन गाँधी के अड़े रहने के कारण आरक्षण केवल 5 साल के लागु हुआ।
पृथक निर्वाचन में दलित दो वोट देता एक जनरल कास्ट के उम्मीदवार को ओर दूसरा दलित(पृथक) उम्मीदवार को। ऐसी स्थिति में दलितों द्वारा चुना गया दलित उम्मीदवार दलितों की समस्या को अच्छी तरह से तो रख सकता था किन्तु गैर उम्मीदवार के लिए यह जरूरी नहीं था कि उनकी समस्याओं के समाधान का प्रयास भी करता। बाद मे अम्बेडकर ने गाँधी जी की आलोचना करते हुये उनके इस अनशन को अछूतों को उनके राजनीतिक अधिकारों से वंचित करने और उन्हें उनकी माँग से पीछे हटने के लिये दवाब डालने के लिये गांधी का खेला एक नाटक करार दिया। असली महात्मा तो ज्योति राव फुले थे ।

राजनीतिक जीवन

13 अक्टूबर 1935, को येओला नासिक मे अम्बेडकर एक रैली को संबोधित करते हुए.
13 अक्टूबर 1935 को,अम्बेडकर को सरकारी लॉ कॉलेज का प्रधानचार्य नियुक्त किया गया और इस पद पर उन्होने दो वर्ष तक कार्य किया। इसके चलते अंबेडकर बंबई में बस गये, उन्होने यहाँ एक बडे़ घर का निर्माण कराया, जिसमे उनके निजी पुस्तकालय मे 50000 से अधिक पुस्तकें थीं।[6] इसी वर्ष उनकी पत्नी रमाबाई की एक लंबी बीमारी के बाद मृत्यु हो गई। रमाबाई अपनी मृत्यु से पहले तीर्थयात्रा के लिये पंढरपुर जाना चाहती थीं पर अंबेडकर ने उन्हे इसकी इजाज़त नहीं दी। अम्बेडकर ने कहा की उस हिन्दु तीर्थ मे जहाँ उनको अछूत माना जाता है, जाने का कोई औचित्य नहीं है इसके बजाय उन्होने उनके लिये एक नया पंढरपुर बनाने की बात कही। भले ही अस्पृश्यता के खिलाफ उनकी लडा़ई को भारत भर से समर्थन हासिल हो रहा था पर उन्होने अपना रवैया और अपने विचारों को रूढ़िवादी हिंदुओं के प्रति और कठोर कर लिया। उनकी रूढ़िवादी हिंदुओं की आलोचना का उत्तर बडी़ संख्या मे हिंदू कार्यकर्ताओं द्वारा की गयी उनकी आलोचना से मिला। 13 अक्टूबर को नासिक के निकट येओला मे एक सम्मेलन में बोलते हुए अम्बेडकर ने धर्म परिवर्तन करने की अपनी इच्छा प्रकट की। उन्होने अपने अनुयायियों से भी हिंदू धर्म छोड़ कोई और धर्म अपनाने का आह्वान किया।[6] उन्होने अपनी इस बात को भारत भर मे कई सार्वजनिक सभाओं मे दोहराया भी।
1936 में, अम्बेडकर ने स्वतंत्र लेबर पार्टी की स्थापना की, जो 1937 में केन्द्रीय विधान सभा चुनावों मे 15 सीटें जीती। उन्होंने अपनी पुस्तक जाति के विनाश भी इसी वर्ष प्रकाशित की जो उनके न्यूयॉर्क मे लिखे एक शोधपत्र पर आधारित थी। इस सफल और लोकप्रिय पुस्तक मे अम्बेडकर ने हिंदू धार्मिक नेताओं और जाति व्यवस्था की जोरदार आलोचना की। उन्होंने अस्पृश्य समुदाय के लोगों को गाँधी द्वारा रचित शब्द हरिजनपुकारने के कांग्रेस के फैसले की कडी़ निंदा की।[6] अम्बेडकर ने रक्षा सलाहकार समिति और वाइसराय की कार्यकारी परिषद के लिए श्रम मंत्री के रूप में सेवारत रहे।
1941 और 1945 के बीच में उन्होंने बड़ी संख्या में अत्यधिक विवादास्पद पुस्तकें और पर्चे प्रकाशित किये जिनमे ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान’ भी शामिल है, जिसमें उन्होने मुस्लिम लीग की मुसलमानों के लिए एक अलग देश पाकिस्तान की मांग की आलोचना की। वॉट कॉंग्रेस एंड गांधी हैव डन टू द अनटचेबल्स (काँग्रेस और गान्धी ने अछूतों के लिये क्या किया) के साथ, अम्बेडकर ने गांधी और कांग्रेस दोनो पर अपने हमलों को तीखा कर दिया उन्होने उन पर ढोंग करने का आरोप लगाया।[7] उन्होने अपनी पुस्तक ‘हू वर द शुद्राज़?’( शुद्र कौन थे?) के द्वारा हिंदू जाति व्यवस्था के पदानुक्रम में सबसे नीची जाति यानी शुद्रों के अस्तित्व मे आने की व्याख्या की. उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि किस तरह से अछूत, शुद्रों से अलग हैं। अम्बेडकर ने अपनी राजनीतिक पार्टी को अखिल भारतीय अनुसूचित जाति फेडरेशन मे बदलते देखा, हालांकि 1946 में आयोजित भारत के संविधान सभा के लिए हुये चुनाव में इसने खराब प्रदर्शन किया। 1948 में हू वर द शुद्राज़? की उत्तरकथा द अनटचेबलस: ए थीसिस ऑन द ओरिजन ऑफ अनटचेबिलिटी (अस्पृश्य: अस्पृश्यता के मूल पर एक शोध) मे अम्बेडकर ने हिंदू धर्म को लताड़ा।
हिंदू सभ्यता …. जो मानवता को दास बनाने और उसका दमन करने की एक क्रूर युक्ति है और इसका उचित नाम बदनामी होगा। एक सभ्यता के बारे मे और क्या कहा जा सकता है जिसने लोगों के एक बहुत बड़े वर्ग को विकसित किया जिसे… एक मानव से हीन समझा गया और जिसका स्पर्श मात्र प्रदूषण फैलाने का पर्याप्त कारण है?
अम्बेडकर इस्लाम और दक्षिण एशिया में उसकी रीतियों के भी आलोचक थे। उन्होने भारत विभाजन का तो पक्ष लिया पर मुस्लिम समाज मे व्याप्त बाल विवाह की प्रथा और महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहार की घोर निंदा की। उन्होंने कहा,
बहुविवाह और रखैल रखने के दुष्परिणाम शब्दों में व्यक्त नहीं किये जा सकते जो विशेष रूप से एक मुस्लिम महिला के दुःख के स्रोत हैं। जाति व्यवस्था को ही लें, हर कोई कहता है कि इस्लाम गुलामी और जाति से मुक्त होना चाहिए, जबकि गुलामी अस्तित्व में है और इसे इस्लाम और इस्लामी देशों से समर्थन मिला है। हालाँकि कुरान में वर्णित ग़ुलामों के साथ उचित और मानवीय व्यवहार के बारे में पैगंबर के विचार प्रशंसायोग्य हैं लेकिन, इस्लाम में ऐसा कुछ नहीं है जो इस अभिशाप के उन्मूलन का समर्थन करता हो। अगर गुलामी खत्म भी हो जाये पर फिर भी मुसलमानों के बीच जाति व्यवस्था रह जायेगी।[8]
उन्होंने लिखा कि मुस्लिम समाज मे तो हिंदू समाज से भी अधिक सामाजिक बुराइयाँ हैं और मुसलमान उन्हें ” भाईचारे ” जैसे नरम शब्दों के प्रयोग से छुपाते हैं। उन्होंने मुसलमानो द्वारा अर्ज़ल वर्गों के खिलाफ भेदभाव जिन्हें ” निचले दर्जे का ” माना जाता था के साथ ही मुस्लिम समाज में महिलाओं के उत्पीड़न की दमनकारी पर्दा प्रथा की भी आलोचना की। उन्होंने कहा हालाँकि पर्दा हिंदुओं मे भी होता है पर उसे धर्मिक मान्यता केवल मुसलमानों ने दी है। उन्होंने इस्लाम मे कट्टरता की आलोचना की जिसके कारण इस्लाम की नातियों का अक्षरक्ष अनुपालन की बद्धता के कारण समाज बहुत कट्टर हो गया है और उसे को बदलना बहुत मुश्किल हो गया है। उन्होंने आगे लिखा कि भारतीय मुसलमान अपने समाज का सुधार करने में विफल रहे हैं जबकि इसके विपरीत तुर्की जैसे देशों ने अपने आपको बहुत बदल लिया है।[8]
“सांप्रदायिकता” से पीड़ित हिंदुओं और मुसलमानों दोनों समूहों ने सामाजिक न्याय की माँग की उपेक्षा की है।[8]
हालांकि वे मोहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग की विभाजनकारी सांप्रदायिक रणनीति के घोर आलोचक थे पर उन्होने तर्क दिया कि हिंदुओं और मुसलमानों को पृथक कर देना चाहिए और पाकिस्तान का गठन हो जाना चाहिये क्योकि एक ही देश का नेतृत्व करने के लिए, जातीय राष्ट्रवाद के चलते देश के भीतर और अधिक हिंसा पनपेगी। उन्होंने हिंदू और मुसलमानों के सांप्रदायिक विभाजन के बारे में अपने विचार के पक्ष मे ऑटोमोन साम्राज्य और चेकोस्लोवाकिया के विघटन जैसी ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख किया।
उन्होंने पूछा कि क्या पाकिस्तान की स्थापना के लिये पर्याप्त कारण मौजूद थे? और सुझाव दिया कि हिंदू और मुसलमानों के बीच के मतभेद एक कम कठोर कदम से भी मिटाना संभव हो सकता था। उन्होंने लिखा है कि पाकिस्तान को अपने अस्तित्व का औचित्य सिद्ध करना चाहिये। कनाडा जैसे देशों मे भी सांप्रदायिक मुद्दे हमेशा से रहे हैं पर आज भी अंग्रेज और फ्रांसीसी एक साथ रहते हैं, तो क्या हिंदु और मुसलमान भी साथ नहीं रह सकते। उन्होंने चेताया कि दो देश बनाने के समाधान का वास्तविक क्रियान्वयन अत्यंत कठिनाई भरा होगा। विशाल जनसंख्या के स्थानान्तरण के साथ सीमा विवाद की समस्या भी रहेगी। भारत की स्वतंत्रता के बाद होने वाली हिंसा को ध्यान मे रख कर यह भविष्यवाणी कितनी सही थी||

संविधान निर्माण
AMBEDKAR ON NARI UTTHAN

अपने विवादास्पद विचारों, और गांधी और कांग्रेस की कटु आलोचना के बावजूद अम्बेडकर की प्रतिष्ठा एक अद्वितीय विद्वान और विधिवेत्ता की थी जिसके कारण जब, 15 अगस्त, 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद, कांग्रेस के नेतृत्व वाली नई सरकार अस्तित्व मे आई तो उसने अम्बेडकर को देश का पहले कानून मंत्री के रूप में सेवा करने के लिए आमंत्रित किया, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। 29 अगस्त 1947 को, अम्बेडकर को स्वतंत्र भारत के नए संविधान की रचना कि लिए बनी के संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष पद पर नियुक्त किया गया। अम्बेडकर ने मसौदा तैयार करने के इस काम मे अपने सहयोगियों और समकालीन प्रेक्षकों की प्रशंसा अर्जित की। इस कार्य में अम्बेडकर का शुरुआती बौद्ध संघ रीतियों और अन्य बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन बहुत काम आया।
संघ रीति मे मतपत्र द्वारा मतदान, बहस के नियम, पूर्ववर्तिता और कार्यसूची के प्रयोग, समितियाँ और काम करने के लिए प्रस्ताव लाना शामिल है। संघ रीतियाँ स्वयं प्राचीन गणराज्यों जैसे शाक्य और लिच्छवि की शासन प्रणाली के निदर्श (मॉडल) पर आधारित थीं। अम्बेडकर ने हालांकि उनके संविधान को आकार देने के लिए पश्चिमी मॉडल इस्तेमाल किया है पर उसकी भावना भारतीय है।
अम्बेडकर द्वारा तैयार किया गया संविधान पाठ मे संवैधानिक गारंटी के साथ व्यक्तिगत नागरिकों को एक व्यापक श्रेणी की नागरिक स्वतंत्रताओं की सुरक्षा प्रदान की जिनमें, धार्मिक स्वतंत्रता, अस्पृश्यता का अंत और सभी प्रकार के भेदभावों को गैर कानूनी करार दिया गया। अम्बेडकर ने महिलाओं के लिए व्यापक आर्थिक और सामाजिक अधिकारों की वकालत की, और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों के लिए सिविल सेवाओं, स्कूलों और कॉलेजों की नौकरियों मे आरक्षण प्रणाली शुरू के लिए सभा का समर्थन भी हासिल किया, भारत के विधि निर्माताओं ने इस सकारात्मक कार्यवाही के द्वारा दलित वर्गों के लिए सामाजिक और आर्थिक असमानताओं के उन्मूलन और उन्हे हर क्षेत्र मे अवसर प्रदान कराने की चेष्टा की जबकि मूल कल्पना मे पहले इस कदम को अस्थायी रूप से और आवश्यकता के आधार पर शामिल करने की बात कही गयी थी. 26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा ने संविधान को अपना लिया। अपने काम को पूरा करने के बाद, बोलते हुए, अम्बेडकर ने कहा :
मैं महसूस करता हूं कि संविधान, साध्य (काम करने लायक) है, यह लचीला है पर साथ ही यह इतना मज़बूत भी है कि देश को शांति और युद्ध दोनों के समय जोड़ कर रख सके। वास्तव में, मैं कह सकता हूँ कि अगर कभी कुछ गलत हुआ तो इसका कारण यह नही होगा कि हमारा संविधान खराब था बल्कि इसका उपयोग करने वाला मनुष्य अधम था।
1951 मे संसद में अपने हिन्दू कोड बिल के मसौदे को रोके जाने के बाद अम्बेडकर ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया इस मसौदे मे उत्तराधिकार, विवाह और अर्थव्यवस्था के कानूनों में लैंगिक समानता की मांग की गयी थी। हालांकि प्रधानमंत्री नेहरू, कैबिनेट और कई अन्य कांग्रेसी नेताओं ने इसका समर्थन किया पर संसद सदस्यों की एक बड़ी संख्या इसके खिलाफ़ थी। अम्बेडकर ने 1952 में लोक सभा का चुनाव एक निर्दलीय उम्मीदवार के रूप मे लड़ा पर हार गये। मार्च 1952 मे उन्हें संसद के ऊपरी सदन यानि राज्य सभा के लिए नियुक्त किया गया और इसके बाद उनकी मृत्यु तक वो इस सदन के सदस्य रहे।
 बौद्ध धर्म मे परिवर्तन
दीक्षा भूमि ,नागपुर; जहां अम्बेडकर अपने अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म मे परिवर्तित हुए।
सन् 1950 के दशक में अम्बेडकर बौद्ध धर्म के प्रति आकर्षित हुए और बौद्ध भिक्षुओं व विद्वानों के एक सम्मेलन में भाग लेने के लिए श्रीलंका(तब सीलोन) गये। पुणे के पास एक नया बौद्ध विहार को समर्पित करते हुए, अम्बेडकर ने घोषणा की कि वे बौद्ध धर्म पर एक पुस्तक लिख रहे हैं, और जैसे ही यह समाप्त होगी वो औपचारिक रूप से बौद्ध धर्म अपना लेंगे।[9] 1954 में अम्बेडकर ने बर्मा का दो बार दौरा किया; दूसरी बार वो रंगून मे तीसरे विश्व बौद्ध फैलोशिप के सम्मेलन में भाग लेने के लिए गये। 1955 में उन्होने भारतीय बुद्ध महासभा या बौद्ध सोसाइटी ऑफ इंडिया की स्थापना की। उन्होंने अपने अंतिम लेख, द बुद्ध एंड हिज़ धम्म को 1956 में पूरा किया। यह उनकी मृत्यु के पश्चात प्रकाशित हुआ। 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में अम्बेडकर ने खुद और उनके समर्थकों के लिए एक औपचारिक सार्वजनिक समारोह का आयोजन किया. अम्बेडकर ने एक बौद्ध भिक्षु से पारंपरिक तरीके से तीन रत्न ग्रहण और पंचशील को अपनाते हुये बौद्ध धर्म ग्रहण किया। इसके बाद उन्होने एक अनुमान के अनुसार लगभग 500000 समर्थको को बौद्ध धर्म मे परिवर्तित किया।[9] नवयानलेकर अम्बेडकर और उनके समर्थकों ने हिंदू धर्म और हिंदू दर्शन की स्पष्ट निंदा की और उसे त्याग दिया। इसके बाद वे नेपाल में चौथे विश्व बौद्ध सम्मेलन मे भाग लेने के लिए काठमांडू गये। उन्होंने अपनी अंतिम पांडुलिपि बुद्ध या कार्ल मार्क्स को 2 दिसंबर 1956 को पूरा किया।
डा बी.आर. अम्बेडकर ने दीक्षा भूमि, नागपुर, भारत में ऐतिहासिक बौद्ध धर्मं में परिवर्तन के अवसर पर,15 अक्टूबर 1956 को अपने अनुयायियों के लिए 22 प्रतिज्ञाएँ निर्धारित कीं.800000 लोगों का बौद्ध धर्म में रूपांतरण ऐतिहासिक था क्योंकि यह विश्व का सबसे बड़ा धार्मिक रूपांतरण था.उन्होंने इन शपथों को निर्धारित किया ताकि हिंदू धर्म के बंधनों को पूरी तरह पृथक किया जा सके.ये 22 प्रतिज्ञाएँ हिंदू मान्यताओं और पद्धतियों की जड़ों पर गहरा आघात करती हैं. ये एक सेतु के रूप में बौद्ध धर्मं की हिन्दू धर्म में व्याप्त भ्रम और विरोधाभासों से रक्षा करने में सहायक हो सकती हैं.इन प्रतिज्ञाओं से हिन्दू धर्म,जिसमें केवल हिंदुओं की ऊंची जातियों के संवर्धन के लिए मार्ग प्रशस्त किया गया, में व्याप्त अंधविश्वासों, व्यर्थ और अर्थहीन रस्मों, से धर्मान्तरित होते समय स्वतंत्र रहा जा सकता है.
———————————————————————————————————————————————————————————– == मृत्यु / महापरिनिर्वाण ==1948 से, अम्बेडकर मधुमेह से पीड़ित थे। जून से अक्टूबर 1954 तक वो बहुत बीमार रहे इस दौरान वो नैदानिक अवसाद और कमजोर होती दृष्टि से ग्रस्त थे। राजनीतिक मुद्दों से परेशान अम्बेडकर का स्वास्थ्य बद से बदतर होता चला गया और 1955 के दौरान किये गये लगातार काम ने उन्हें तोड़ कर रख दिया। अपनी अंतिम पांडुलिपि बुद्ध और उनके धम्म को पूरा करने के तीन दिन के बाद 6 दिसंबर 1956 को अम्बेडकर की मृत्यु नींद में दिल्ली में उनके घर मे हो गई। 7 दिसंबर को चौपाटी समुद्र तट पर बौद्ध शैली मे अंतिम संस्कार किया गया जिसमें सैकड़ों हजारों समर्थकों, कार्यकर्ताओं और प्रशंसकों ने भाग लिया।मृत्युपरांत अम्बेडकर के परिवार मे उनकी दूसरी पत्नी सविता अम्बेडकर रह गयी थीं जो, जन्म से ब्राह्मण थीं पर उनके साथ ही वो भी धर्म परिवर्तित कर बौद्ध बन गयी थीं। विवाह से पहले उनकी पत्नी का नाम शारदा कबीर था। सविता अम्बेडकर की एक बौद्ध के रूप में सन 2002 में मृत्यु हो गई, अम्बेडकर के पौत्र, प्रकाश यश्वंत अम्बेडकर, भारिपा बहुजन महासंघ का नेतृत्व करते है और भारतीय संसद के दोनों सदनों मे के सदस्य रह चुके है।कई अधूरे टंकलिपित और हस्तलिखित मसौदे अम्बेडकर के नोट और पत्रों में पाए गए हैं। इनमें वैटिंग फ़ोर ए वीसा जो संभवतः 1935-36 के बीच का आत्मकथानात्मक काम है, और अनटचेबल, ऑर द चिल्ड्रन ऑफ इंडियाज़ घेट्टो जो 1951 की जनगणना से संबंधित है।एक स्मारक अम्बेडकर के दिल्ली स्थित उनके घर 26 अलीपुर रोड में स्थापित किया गया है। अम्बेडकर जयंती पर सार्वजनिक अवकाश रखा जाता है। 1990 में उन्हें मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया है। कई सार्वजनिक संस्थान का नाम उनके सम्मान में उनके नाम पर रखा गया है जैसे हैदराबाद, आंध्र प्रदेश का डॉ. अम्बेडकर मुक्त विश्वविद्यालय, बी आर अम्बेडकर बिहार विश्वविद्यालय- मुजफ्फरपुर , डॉ. बाबासाहेब् अम्बेडकर अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा नागपुर में है, जो पहले सोनेगांव हवाई अड्डे के नाम से जाना जाता था। अम्बेडकर का एक बड़ा आधिकारिक चित्र भारतीय संसद भवन में प्रदर्शित किया गया है।मुंबई मे उनके स्मारक हर साल लगभग पाँच लाख लोग उनकी वर्षगांठ (14 अप्रैल) पुण्यतिथि (6 दिसम्बर) और धम्म चक्र परिवर्तन् दिन 14 अक्टूबर नागपुर में, उन्हे अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए इकट्ठे होते हैं। सैकड़ों पुस्तकालय स्थापित हो गये हैं, और लाखों रुपए की पुस्तकें बेची जाती हैं। ====================================================================================बात ३१ जुलाई १९५६ की हैं जब बाबासाहब ने अपने दुःख का कारन बताया .
बाबासाहब श्याम के समय अपने २६ अलीपुर रोड मैं बैठे हुवे थे , और काफी उदास थे ये बात नानक चंद रत्तू जी ने पूछा तब बाबासाहब ने अपने दुःख का कारन बताने लगे“मुझे किस बात का दुःख हैं ये तुम लोग नहीं समझोगे , मुझे इस बात का बहुत दुःख हैं की अपने जीवन काल मैं अपना कार्य पूरा नहीं कर पाया | और मेरी ये इच्छा थी मैं अपने लोगो को बाकि समाज के साथ साथ राजनैतिक सत्ता के हिस्सेदार बनते देखू | मैं अभी इस पलंग पर बीमार के कारन बैठा रहता हूँ | मैंने जो कुछ सुविधाए लोगो के दी हैं उसका फायदा समाज के कुछ ही लोग ले पाए और पडने लिखने ने बाद उन्होने समाज के तरफ अपना मुह मोड लिया ऐसे लोगो का समाज के प्रति रवैया विश्वासघातकी हैं , मैंने जैसा सोचा था उससे कई जादा वो लोग स्वार्थी निकले, वो केवल अपने लिए जीने लगे ऐसा जीना समाज के लिए आत्मघातकी साबित होगा|मैं हजारों लाखो लोगो तक मेरा काम पहुचना चाहता था जो आज भी भारतभर देहातों-गावो मैं रहते हैं , जिन की आज भी आर्थिक और सामाजिक वैसेही हैं जो हजारों सालो से रही हैं पर , अभी मेरी जिंदगी कुछ जादा नहीं बची | मुझे मेरे जीतेजी मेरी किताबे “बुद्ध अंड हिस् धम्मा” (BUDDHA AND HIS GOSPIL ) “REVOLUTION AND COUNTER REVOLUTION IN ANCIENT INDIA “ , “ RIDDLES OF HINDUSIM “ का प्रकाशन करना था मगर मेरे जीतेजी ऐसा मुन्किन नहीं लगता मुझे ऐसा लगा था की मेरी जिंदा रहते मेरे समाज मैं से कोई आगे आ कर इस मिसन को आगे ले जायेगा मगर ऐसा कोई मुझे अभी दिखता नहीं , जिन के उप्पर मुझे भरोसा था विश्वास था वो लोग सत्ता के लिए आपस मैं ही लड़ रहे हैं वो लोग ये नहीं समझ रहे की कितनी बड़ी जिमेदारी उनके उप्पर हैं | मुझे और कुछ साल इस देश और इस समाज के लिए काम करने की इच्छा थी मगर अब जिंदगी जादा बची नहीं |मौजूदा हालत मैं देश के विकास अपना मत रखना बहोत ही मुश्किल हो रहा हैं जहा पर लोग प्रधानमंत्री के विचारों के खिलाफ जाने को तैयार नहीं हैं फिर वो देश और समाज हित के लिए कितना ही फायदेमंद क्यों ना हो | मैंने जो कुछ हासिल किया हैं वो खुद की बदौलत हासिल किया हैं ऐसा करते वक्त मुझे ढेर सारे लोगो के विरोध का खासतौर पर समाचार पत्रों का खासा विरोध सहन करना पड़ा , और आज जो ये काफिला यहाँ तक आया हैं वो काफी संघर्ष और मेहनत से मैंने लाया हैं अगर ये कारवा उन्हें आगे ले जाना हैं तो उन्हें कई समस्याओँ उअर कठिनाइयों का सामना कारण पड़ेगा अगर मेरे समाज को आत्मसन्मान से जीना हैं तो ये संघर्ष जरी रखना पड़ेगा |अगर उनलोगों से ये संघर्ष नहीं होगा तो उन लोगो से कह देना की ये काफिले को यही छोड दे इसे किसी भी हालत मैं पीछे नहीं जाने दे , हो सकता हैं ये मेरे जीवन का आखरी संदेश हो पर मेरे इस संदेश को मेरा समाज नजरअंदाज नहीं करेगा ऐसी मैं आशा करता हूँ , जाओ नानक जाओ मेरा ये संदेश मेरे समाज के लोगो को पंहुचा दो जाओ जाओ जाओ==========================XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX=================================
QUOTES of BABA SAHAB AMBEDKAR THE GREAT
Quote 1: A great man is different from an eminent one in In that he is ready to be the servant of the society.
In Hindi: एक  महान  आदमी  एक  प्रतिष्ठित  आदमी  से  इस  तरह  से  अलग  होता  है  कि  वह  समाज  का  नौकर  बनने  को  तैयार  रहता  है .
Quote 2: People and their religion must be judged by social standards based on social ethics. No other standard would have any meaning if religion is held to be necessary good for the well-being of the people.
In Hindi: लोग  और  उनके  धर्म  सामाजिक मानकों  द्वारा;  सामजिक  नैतिकता  के  आधार  पर  परखे  जाने  चाहिए . अगर  धर्म  को  लोगो  के  भले  के  लिए  आवशयक  मान  लिया  जायेगा तो  और    किसी  मानक  का  मतलब  नहीं  होगा .
Quote 3: Cultivation of mind should be the ultimate aim of human existence.
In Hindi: बुद्धि  का   विकास  मानव  के  अस्तित्व  का  अंतिम  लक्ष्य   होना  चाहिए .
Quote 4: Every man who repeats the dogma of Mill that one country is no fit to rule another country must admit that one class is not fit to rule another class.
In Hindi: हर  व्यक्ति  जो  मिल  के  सिद्धांत  कि  एक  देश  दूसरे  देश  पर  शाशन  नहीं  कर  सकता  को  दोहराता  है  उसे  ये  भी स्वीकार  करना  चाहिए  कि  एक  वर्ग  दूसरे  वर्ग  पर  शाशन  नहीं  कर  सकता .
Quote 5: For a successful revolution it is not enough that there is discontent. What is required is a profound and thorough conviction of the justice, necessity and importance of political and social rights.
In Hindi: एक  सफल  क्रांति  के लिए  सिर्फ  असंतोष  का  होना  पर्याप्त  नहीं  है .जिसकी  आवश्यकता   है  वो  है  न्याय  एवं   राजनीतिक  और  सामाजिक  अधिकारों  में  गहरी  आस्था.
Quote 6: History shows that where ethics and economics come in conflict, victory is always with economics. Vested interests have never been known to have willingly divested themselves unless there was sufficient force to compel them.
In Hindi: इतिहास  बताता  है  कि  जहाँ  नैतिकता  और  अर्थशाश्त्र   के  बीच  संघर्ष  होता  है  वहां  जीत  हमेशा  अर्थशाश्त्र   की  होती  है . निहित  स्वार्थों   को  तब  तक  स्वेच्छा  से  नहीं  छोड़ा   गया  है  जब  तक  कि  मजबूर  करने  के  लिए  पर्याप्त  बल  ना  लगाया  गया  हो .
Quote 7: I like the religion that teaches liberty, equality and fraternity.
In Hindi: मैं  ऐसे  धर्म  को  मानता  हूँ  जो  स्वतंत्रता , समानता , और  भाई -चारा  सीखाये .
Quote 8: I measure the progress of a community by the degree of progress which women have achieved.
In Hindi: मैं  किसी  समुदाय  की  प्रगति  महिलाओं  ने  जो  प्रगति  हांसिल  की  है  उससे  मापता  हूँ .
Quote 9: In Hinduism, conscience, reason and independent thinking have no scope for development.
In Hindi: हिंदू धर्म में, विवेक, कारण, और स्वतंत्र सोच के विकास के लिए कोई गुंजाइश नहीं है.
Quote 10: Indians today are governed by two different ideologies. Their political ideal set in the preamble of the Constitution affirms a life of liberty, equality and fraternity. Their social ideal embodied in their religion denies them.
In Hindi: आज  भारतीय  दो  अलग -अलग  विचारधाराओं  द्वारा  शाशित  हो  रहे  हैं . उनके  राजनीतिक  आदर्श  जो  संविधान  के  प्रस्तावना  में  इंगित  हैं  वो  स्वतंत्रता  , समानता , और  भाई -चारे  ko स्थापित  करते  हैं . और  उनके  धर्म  में  समाहित  सामाजिक  आदर्श  इससे  इनकार  करते  हैं .
Quote 11: Law and order are the medicine of the body politic and when the body politic gets sick, medicine must be administered.
In Hindi: क़ानून  और  व्यवस्था  राजनीतिक  शरीर  की  दवा  है  और  जब  राजनीतिक  शरीर  बीमार  पड़े  तो  दवा  ज़रूर  दी  जानी  चाहिए .
Quote 12: Life should be great rather than long.
In Hindi: जीवन  लम्बा  होने  की  बजाये  महान  होना  चाहिए .
Quote 13: Men are mortal. So are ideas. An idea needs propagation as much as a plant needs watering. Otherwise both will wither and die.
In Hindi: मनुष्य  नश्वर  है . उसी  तरह  विचार  भी  नश्वर  हैं . एक  विचार  को  प्रचार -प्रसार  की   ज़रुरत  होती  है , जैसे  कि  एक  पौधे  को  पानी  की . नहीं  तो  दोनों  मुरझा  कर  मर  जाते हैं .
Quote 14: Political tyranny is nothing compared to the social tyranny and a reformer who defies society is a more courageous man than a politician who defies Government.
In Hindi: राजनीतिक  अत्याचार  सामाजिक  अत्याचार  की  तुलना  में  कुछ  भी  नहीं  है  और  एक  सुधारक  जो  समाज  को  खारिज  कर  देता  है  वो   सरकार  को  ख़ारिज  कर  देने  वाले   राजनीतिज्ञ  से  कहीं अधिक  साहसी  हैं .
Quote 15: So long as you do not achieve social liberty, whatever freedom is provided by the law is of no avail to you.
In Hindi: जब  तक  आप  सामाजिक  स्वतंत्रता  नहीं  हांसिल  कर  लेते  , क़ानून  आपको  जो भी  स्वतंत्रता  देता  है  वो  आपके  किसी  काम  की  नहीं .
Quote 16: The relationship between husband and wife should be one of closest friends.
In Hindi: पति- पत्नी  के  बीच  का  सम्बन्ध   घनिष्ट  मित्रों  के  सम्बन्ध   के  सामान  होना  चाहिए .
Quote 17: The sovereignty of scriptures of all religions must come to an end if we want to have a united integrated modern India.
In Hindi: यदि  हम  एक   संयुक्त  एकीकृत  आधुनिक  भारत  चाहते  हैं  तो  सभी  धर्मों  के  शाश्त्रों  की  संप्रभुता  का  अंत  होना  चाहिए .
Quote 18: Unlike a drop of water which loses its identity when it joins the ocean, man does not lose his being in the society in which he lives. Man’s life is independent. He is born not for the development of the society alone, but for the development of his self.
In Hindi: सागर  में  मिलकर  अपनी  पहचान  खो  देने  वाली  पानी  की  एक  बूँद  के  विपरीत , इंसान  जिस  समाज  में  रहता  है  वहां  अपनी  पहचान  नहीं  खोता . इंसान  का  जीवन  स्वतंत्र  है . वो  सिर्फ  समाज  के  विकास  के  लिए  नहीं  पैदा  हुआ   है , बल्कि  स्वयं  के  विकास  के  लिए  पैदा  हुआ   है  .
Quote 19: We are Indians, firstly and lastly.
In Hindi: हम  भारतीय  हैं , पहले  और   अंत  में .
Quote 20: What are we having this liberty for? We are having this liberty in order to reform our social system, which is full of inequality, discrimination and other things, which conflict with our fundamental rights.
In Hindi: हमारे  पास  यह  स्वतंत्रता  किस  लिए  है ? हमारे  पास  ये  स्वत्नत्रता  इसलिए  है  ताकि  हम  अपने  सामाजिक  व्यवस्था , जो  असमानता , भेद-भाव  और  अन्य   चीजों  से  भरी  है , जो  हमारे  मौलिक  अधिकारों  से  टकराव  में  है  को  सुधार  सकें.
बात ३१ जुलाई १९५६ की हैं जब बाबासाहब ने अपने दुःख का कारन बताया .
बाबासाहब श्याम के समय अपने २६ अलीपुर रोड मैं बैठे हुवे थे , और काफी उदास थे ये बात नानक चंद रत्तू जी ने पूछा तब बाबासाहब ने अपने दुःख का कारन बताने लगे

“मुझे किस बात का दुःख हैं ये तुम लोग नहीं समझोगे , मुझे इस बात का बहुत दुःख हैं की अपने जीवन काल मैं अपना कार्य पूरा नहीं कर पाया | और मेरी ये इच्छा थी मैं अपने लोगो को बाकि समाज के साथ साथ राजनैतिक सत्ता के हिस्सेदार बनते देखू | मैं अभी इस पलंग पर बीमार के कारन बैठा रहता हूँ | मैंने जो कुछ सुविधाए लोगो के दी हैं उसका फायदा समाज के कुछ ही लोग ले पाए और पडने लिखने ने बाद उन्होने समाज के तरफ अपना मुह मोड लिया ऐसे लोगो का समाज के प्रति रवैया विश्वासघातकी हैं , मैंने जैसा सोचा था उससे कई जादा वो लोग स्वार्थी निकले, वो केवल अपने लिए जीने लगे ऐसा जीना समाज के लिए आत्मघातकी साबित होगा|
मैं हजारों लाखो लोगो तक मेरा काम पहुचना चाहता था जो आज भी भारतभर देहातों-गावो मैं रहते हैं , जिन की आज भी आर्थिक और सामाजिक वैसेही हैं जो हजारों सालो से रही हैं पर , अभी मेरी जिंदगी कुछ जादा नहीं बची | मुझे मेरे जीतेजी मेरी किताबे “बुद्ध अंड हिस् धम्मा” (BUDDHA AND HIS GOSPIL ) “REVOLUTION AND COUNTER REVOLUTION IN ANCIENT INDIA “ , “ RIDDLES OF HINDUSIM “ का प्रकाशन करना था मगर मेरे जीतेजी ऐसा मुन्किन नहीं लगता मुझे ऐसा लगा था की मेरी जिंदा रहते मेरे समाज मैं से कोई आगे आ कर इस मिसन को आगे ले जायेगा मगर ऐसा कोई मुझे अभी दिखता नहीं , जिन के उप्पर मुझे भरोसा था विश्वास था वो लोग सत्ता के लिए आपस मैं ही लड़ रहे हैं वो लोग ये नहीं समझ रहे की कितनी बड़ी जिमेदारी उनके उप्पर हैं | मुझे और कुछ साल इस देश और इस समाज के लिए काम करने की इच्छा थी मगर अब जिंदगी जादा बची नहीं |
मौजूदा हालत मैं देश के विकास अपना मत रखना बहोत ही मुश्किल हो रहा हैं जहा पर लोग प्रधानमंत्री के विचारों के खिलाफ जाने को तैयार नहीं हैं फिर वो देश और समाज हित के लिए कितना ही फायदेमंद क्यों ना हो | मैंने जो कुछ हासिल किया हैं वो खुद की बदौलत हासिल किया हैं ऐसा करते वक्त मुझे ढेर सारे लोगो के विरोध का खासतौर पर समाचार पत्रों का खासा विरोध सहन करना पड़ा , और आज जो ये काफिला यहाँ तक आया हैं वो काफी संघर्ष और मेहनत से मैंने लाया हैं अगर ये कारवा उन्हें आगे ले जाना हैं तो उन्हें कई समस्याओँ उअर कठिनाइयों का सामना कारण पड़ेगा अगर मेरे समाज को आत्मसन्मान से जीना हैं तो ये संघर्ष जरी रखना पड़ेगा |
अगर उनलोगों से ये संघर्ष नहीं होगा तो उन लोगो से कह देना की ये काफिले को यही छोड दे इसे किसी भी हालत मैं पीछे नहीं जाने दे , हो सकता हैं ये मेरे जीवन का आखरी संदेश हो पर मेरे इस संदेश को मेरा समाज नजरअंदाज नहीं करेगा ऐसी मैं आशा करता हूँ , जाओ नानक जाओ मेरा ये संदेश मेरे समाज के लोगो को पंहुचा दो जाओ जाओ जाओ
AMBEDKAR best photo
डॉ. बी आर अंबेडकर द्वारा 25 नवंबर, 1949 को संविधान सभा में दिए गए आख़िरी भाषण के अंश अपने इस ऐतिहासिक भाषण में बाबा साहब ने न स़िर्फ भारतीय संविधान के बारे में बताया है, बल्कि भविष्य की चुनौतियों पर भी गहराई से प्रकाश डाला है. बाबा साहब के इस भाषण का एक-एक शब्द आज के समय में प्रासंगिक है.महाशय , 9 दिसंबर, 1946 की पहली बैठक के बाद हम लोगों को संविधान सभा पर काम करते हुए 2 वर्ष, 11 माह और 17 दिन हो जाएंगे. इस अवधि के दौरान संविधान सभा के कुल 11 सत्र बुलाए गए. 11 में से पहले 6 सत्र मूल अधिकार, संघ के संविधान, संघ की शक्ति, प्रांतीय संविधान, अल्पसंख्यक, अनुसूचित क्षेत्रों एवं अनुसूचित जनजाति जैसे मुद्दों पर समिति की रिपोर्ट पर विचार करने और उद्देश्यों को पारित कराने में बीत गए. 7, 8, 9, 10 और 11वें सत्र में प्रारूप संविधान पर विचार करने पर विशेष ध्यान दिया गया था. संविधान सभा के इन 11 सत्रों में कुल 165 दिनों का समय लगा. इसके अतिरिक्त संविधान के प्रारूप पर विचार करने में सभा को 114 दिनों का समय लगा.प्रारूप समिति 29 अगस्त, 1947 को संविधान सभा द्वारा चुनी गई थी. प्रारूप समिति की पहली बैठक 30 अगस्त को हुई. 30 अगस्त से अगले 141 दिनों तक यह समिति प्रारूप संविधान बनाने में व्यस्त रही. संवैधानिक सलाहकार द्वारा बनाया गया प्रारूप संविधान प्रारूप समिति के लिए एक ऐसा विषय था, जिस पर प्रारूप समिति को काम करना था. इसमें 243 अनुच्छेद और 13 अनुसूचियां थीं. प्रारूप समिति द्वारा संविधान सभा के लिए बनाए गए पहले प्रारूप संविधान में 315 अनुच्छेद और 8 अनुसूचियां थीं. अंत में प्रारूप संविधान में अनुच्छेदों की संख्या बढ़ाकर 386 कर दी गई, लेकिन जब प्रारूप संविधान पूर्ण रूप से बनकर तैयार हुआ, तो इसमें 395 अनुच्छेद और 8 अनुसूचियां थीं. प्रारूप संविधान जब सामने लाया गया, तो इसमें लगभग 7,635 संशोधन हुए थे, लेकिन वास्तव में इन संशोधनों में से 2,473 को ही लिया गया था.मैं इन तथ्यों को इसलिए बता रहा हूं, क्योंकि इसके बारे में कहा जा रहा था कि सभा ने इस कार्य को करने में न केवल बहुत अधिक समय लिया, बल्कि जनता का धन भी खर्च किया. मैं अन्य देशों की संविधान सभाओं के कुछ उदाहरण दे रहा हूं, जिनका उस देश के संविधान निर्माण के लिए गठन किया गया था. संविधान निर्माण के लिए अमेरिकी सभा की 25 मई, 1787 की बैठक के बाद चार महीने लगे और उसने अपना काम 17 सितंबर, 1787 को पूरा किया. कनाडा की संविधान सभा की बैठक 10 अक्टूबर, 1867 को हुई और संविधान क़ानून के रूप में सामने आया मार्च, 1867 में. इसमें कुल 2 साल और पांच महीने लगे. ऑस्ट्रेलिया की संविधान सभा का गठन मार्च, 1891 में हुआ और संविधान क़ानून के रूप में सामने आया 9 जुलाई, 1900 को. इसमें नौ साल लग गए. दक्षिण अफ्रीकी संविधान सभा का गठन 20 सितंबर, 1908 को हुआ और संविधान क़ानून के रूप में सामने आया 20 सितंबर, 1909 को. इसमें एक साल लगा. यह सत्य है कि हमने अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका की संविधान सभा की तुलना में अधिक समय लिया, लेकिन इस सत्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि संविधान के निर्माण में हमने कनाडा और ऑस्ट्रेलिया की संविधान सभाओं से काफी कम समय लिया. संविधान निर्माण में समय की खपत की बात हो रही है, तो इसमें दो बातें बहुत ही महत्वपूर्ण हैं. पहली यह कि अमेरिका, कनाडा, दक्षिण अफ्रीका एवं ऑस्ट्रेलिया के संविधान हमारे संविधान से काफी छोटे हैं और दूसरी यह कि हमारे संविधान में 395 अनुच्छेद हैं, जबकि अमेरिका के संविधान में मात्र 7 अनुच्छेद हैं. अमेरिका के संविधान के पहले 4 अनुच्छेद विभिन्न भागों में विभाजित हैं, जिससे उनकी संख्या बढ़कर 21 हो जाती है. कनाडा के संविधान में 147, ऑस्ट्रेलिया के संविधान में 128 और दक्षिण अफ्रीका के संविधान में 153 भाग हैं. एक और बात, जो इस मामले में ध्यान देने वाली है, वह यह कि अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया एवं दक्षिण अफ्रीका के संविधानों में संशोधनों की समस्या नहीं है. उन्हें उसी रूप में पारित कर दिया गया है. दूसरी तरफ़ देखा जाए, तो हमारी संविधान सभा को 2,473 संशोधनों पर काम करना पड़ा. इन सारे तथ्यों को देखने के बाद संविधान सभा पर लगने वाले सारे आरोप निराधार हैं. संविधान सभा के लोगों को कम से कम समय में यह जटिल कार्य पूरा करने के लिए बधाई देनी चाहिए.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें