बुधवार, 13 सितंबर 2017

बाबासाहब की नजर में बुद्ध

 बुद्ध की मूर्ति को लेकर डा.अम्बेडकर और भन्ते आनंद कौशल्यायन जी के बीच हुए वार्तालाप का एक महत्वपूर्ण वाकिया भन्ते आनंद कौसल्यायन जीने अपनी किताब में दिया है। वह वाकिया ऐसा है कि, एक बार भन्ते आनंद कौशल्यायन जी बाबासाहब डा.अम्बेडकर को दादर (मुंबई) में एक कार्यक्रम में लेकर गये। दोनों के बीच धर्म के विषय पर चर्चा चल रही थी कि तभी बाबासाहब ने
भन्ते आनंद कौशल्यायन जी से एक सवाल किया कि, ‘भन्ते! आपको बुद्ध की कौन-सी मूर्ति पसंद है?’

    तब भन्ते आनंद कौशल्यायन जी ने बड़े ही श्रद्धाभाव से जवाब दिया कि ‘ध्यान साधना में लीन बुद्ध की मूर्ति मुझे अधिक पसंद है।’ तब डा.अम्बेडकर ने भन्ते जी से अपने दिल की बात बताते हुए कहा कि, ‘भन्ते! मुझे ध्यान साधना में लीन बुद्ध की मूर्ति बिल्कुल पसंद नहीं है। मैं उस बुद्ध की मूर्ति को अधिक पसंद करता हूँ जो हाथ में भिक्षापात्र लेकर चारिका कर रहे हैं’ और इसके पीछे के कारण को स्पष्ट करते हुए डा.अम्बेडकर ने भन्ते जी को तथागत बुद्ध का वह महत्वपूर्ण संदेश याद दिलाया जिसमें बुद्ध अपने पहले प्रवचन में पंचवग्गीय भिक्खुओं से कहते हैं कि ‘चरथं भिक्खव्वे चारिकं, बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय। लोकानु कंपाय, अत्तानु हिताय, आदि कल्याण, मध्य कल्याण, अंत कल्याण’ अर्थात, जो बहुजनों  के कल्याण के लिए, बहुजनों के सुख के लिए तथा बहुजनों का प्रारंभ कल्याणकारी हो, मध्ये कल्याणकारी हो और अंत भी कल्याणकारी हो इसके लिए प्रतिदिन चारिका करता है, प्रतिदिन मार्गदर्शन करता है, ऐसा प्रतिदिन भ्रमण करनेवाला प्रचारक बुद्ध मुझे अधिक पसंद है। 
    इस उदाहरण से हमें यह ध्यान में आएगा कि बाबासाहब डा.अम्बेडकर कोई भी बात श्रद्धावान उपासक बनकर स्वीकार नहीं करते थे, बल्कि उसकी छानबीन  कर योजनाबद्ध तरिके से अपनाते थे। जो विचार स्वीकार करने योग्य है, जो विचार कालसंगत है वह विचार बाबासाहब ने स्वीकार किया। साथ ही जो कालबाह्य विचार है उसे कदापि स्वीकार नहीं किया। हमेशा उस विचार पर असहमति जतायी। बाबासाहब डा.अम्बेडकर ने ऐसा इसलिए किया, क्योंकि तथागत बुद्ध को भी यही सिद्धांत मान्य था। 
    बाबासाहब डा.अम्बेडकर लिखते हैं, “बुद्ध के संबंध में लिखनेवालो में से अधिकांश लोगों ने न केवल इसी कल्पना का प्रचार किया है कि बुद्ध ने सिर्फ एक ही शिक्षा दी है और वह है अहिंसा की शिक्षा। यह बहुत बड़ी गलती है। यह सच है कि बुद्ध ने अहिंसा की शिक्षा दी है। मैं उसके महत्व को कम नहीं करना चाहता हूँ। क्योंकि वह एक महान सिद्धान्त है। उस पर अमल किए बगैर संसार को बचाया नहीं जा सकता। मैं जिस बात पर बल देना चाहता हूँ वह यह कि अहिंसा के अतिरिक्त बुद्ध ने और बहुत-सी बातों की शिक्षा दी है। अपने धर्म के अंग के तौर पर उन्होंने सामाजिक, आर्थिक, बौद्धिक, राजनैतिक स्वतंत्रता की शिक्षा दी है। उन्होंने समानता की शिक्षा दी। न केवल पुरुष के बीच समानता की बल्कि पुरुष और स्त्री के बीच समानता की भी शिक्षा दी। बुद्ध की तुलना में अन्य कोई ऐसे धर्म संस्थापक को खोजना कठिन होगा कि जिसकी शिक्षा लोगों के सामाजिक जीवन के इतने सारे पहलुओं को स्पर्श करती हो और जिसके सिद्धान्त इतने आधुनिक हो और जिसका मुख्य उद्देश्य इंसान को इसी धरती पर इसी जीवन में विमुक्ति दिलाना हो, न कि मृत्यु के बाद स्वर्ग का वादा करना।”
    तर्कसंगत और अनुभव पर आधारित धम्म के संबंध में डा.अम्बेडकर लिखते हैं, “महानिर्वाणसुत्त” मेें आनंद को संबोधित कर तथागत बुद्ध ने बताया कि, उनका धर्म तर्कसंगत और अनुभव पर आधारित है और उनके अनुयायियों को चाहिए कि वे इस शिक्षा को केवल इस कारण सही और स्वीकारणीय माने कि वह उन (बुद्ध) से प्राप्त हुई है। यह शिक्षा तर्कसंगत और अनुभव पर आधारित होने से यदि किसी समय और किसी विशेष स्थिति में वह लागू नहीं होती हो, तो वे (अनुयायी) चाहे तो उसमें सुधार कर सकते हैं, या गैर लागू शिक्षा को त्याग भी सकते हैं। बुद्ध चाहते थे कि उनके धम्म पर भूतकाल के मूर्दा बोझ न लादे जाए। वे चाहते थे कि उनका धम्म सदाबहार रहे और सभी समय काम आये। यही कारण था कि जरुरत पड़ने पर अपने अनुयायियों को उन्होंने अपनी शिक्षा में समयानुकूल काट-छाँट करने की स्वतंत्रता दे रखी है। ऐसा करने का साहस अन्य किसी भी धर्म-संस्थापक ने नहीं दिखाया। वे ऐसी स्वतंत्रता देने से ड़रते थे। क्योंकि उन्हें इस बात का डर था कि अनुयायियों को अपनी शिक्षा में सुधार करने की स्वतंत्रता देने से कहीं वे उसका इस्तेमाल अपने बने-बनाये ढ़ाँचे को गिराने में न करे। बुद्ध को ऐसा ड़र नहीं था। उन्हें अपनी शिक्षा की नींव पर पूरा भरोसा था। वे भलि-भाँति जानते थे कि सबसे भयंकर मूर्तिभंजक भरी उनके धम्म के आंतरिक हिस्से को नष्ट नहीं कर पाएगा।”
    चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था के संबंध में विश्‍लेषण करते हुए बाबासाहब डा.अम्बेडकर लिखते हैं, “हिन्दू धर्म का अधिकृत दर्शन असमानता पर आधारित है, क्योंकि हिन्दू धर्म का चातुर्वर्ण्य का सिद्धान्त इस असमानता का ठोस रुप है। इसके विपरीत बुद्ध समानता के समर्थक थे। वे चातुर्वर्ण्य के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने न केवल उसके विरुद्ध प्रचार किया और न ही केवल उसके खिलाफ संघर्ष छेड़ा, बल्कि उसे जड़ से उखाड़ फेंकने की हमेशा कोशिश की। हिन्दू धर्म की शिक्षा के अनुसार न केवल शूद्र को, परंतू नारी को भी धर्मोपदेशक बनन का अधिकार नहीं था। न वे सन्यास ले सकते थे और न उन्हें ईश्‍वर बनने का कोई अधिकार था। न वे सन्यास ले सकते थे और न ईश्‍वर तक पहुँच सकते थे। बुद्ध ने दूसरी ओर शूद्रों को भी भिक्खु संघ में शामिल किया। उन्होंने नारी को भिक्खुनी बनने की अनुज्ञा दी। उन्होंने ऐसा क्यों किया? लगता है कि बुद्ध के द्वारा उठाये गये इन कदमों का वास्तविक महत्व बहुत कम लोग समझ पाये हैं। इसका उत्तर यही है कि असमानता की शिक्षा को नष्ट करने के लिए बुद्ध बिल्कुल ठोस कदम उठाना चाहते थे। बुद्ध द्वारा किये गये इन आघातों के कारण ही हिन्दू धर्म को अपने सिद्धान्तों में काफी परिवर्तन करने पड़े। हिन्दू धर्म ने हिंसा का त्याग किया। वह वेदों के अपौरुषेय होने का दावा भी छोड़ देने पर राजी था। चातुर्वर्ण्य के मामले में दोने में से कोई भी झुकने के लिए तैयार नहीं था। बुद्ध चातुर्वर्ण्य की शिक्षा के खिलाफ अपना दावा छोडने के लिए तैयार नहीं थे। यही कारण है कि ब्राह्मण जैन धर्म की अपेक्षा बुद्ध धम्म के विरुद्ध अधिक घृणा और शत्रुता जताता है। हिन्दू धर्म को चातुर्वर्ण्य के खिलाफ किए गये बुद्ध के तर्कों का लोहा मानना ही पड़ा। वह, चातुर्वर्ण्य ने बुद्ध धम्म की दलीलों की शक्ति के सामने झुककर नहीं माना, बल्कि चातुर्वर्ण्य के लिए एक नया दार्शनिक तर्क ढ़ूँढकर माना। यह नया दार्शनिक तर्क ‘भगवद गीता’ में मिलता है। कोई भी व्यक्ति भरोसे के साथ यह नहीं कह सकता कि भगवद् गीता की शिक्षा क्या है? लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि ‘भगवद् गीता’ चातुर्वर्ण्य के सिद्धान्त का समर्थन करती है। वास्तविकता को मद्देनजर रखते हुए ऐसा लगता है कि इसके लिखे जाने का यही प्रमुख कारण होगा और भगवद् गीता इसका समर्थन कैसे करती है? ‘भगवद् गीता’ में कृष्ण ने कहा है कि ईश्‍वर के होने के नाते उसने चातुर्वर्ण्य का निर्माण गुण-कर्म के अनुसार किया है। इसका अर्थ यह है कि यह सिद्धान्त नया है। पुराना सिद्धान्त विभिन्न था। पुराने सिद्धान्त के अनुसार चातुर्वर्ण्य का सिद्धान्त वेदों पर आधारित था। चूँकि वेद अपौरुषेय यानी अपतनशील थे, इसलिए उनपर आधारित चातुर्वर्ण्य होने के इस सिद्धान्त को बुद्ध के हमलों ने तोड़ देने के कारण चातुर्वर्ण्य की पुरानी नींव टूट चुकी थी। यह बहुत स्वाभाविक बात है कि हिन्दू धर्म, जो चातुर्वर्ण्य के सिद्धान्त को त्यागना नहीं चाहता था, क्योंकि वह उसे अपनी आत्मा मानता था। अपने सिद्धान्त को न्याय संगत बनाने हेतू किसी नये और अधिक प्रभावशाली आधार की तलाश करें, जैसा कि भगवद् गीता सुझाती है। लेकिन भगवद् गीता में चातुर्वर्ण्य के न्याय संगत होने के लिए कृष्ण ने दिया हुआ यह नया तर्क कहा तक ठिक है? लगभग सभी हिन्दुओं का यह तर्क बिल्कुल न्याय संगत नजर आता है। इसलिए वे उसे खंडन करने योग्य नहीं समझते। यदि चातुर्वर्ण्य केवल वेदों पर टिका होता, तो मुझे विश्‍वास है कि वह कब का समाप्त हो चुका होता। स्पष्ट है कि ‘गीता’ के इस झुठे और शरारतपूर्ण सिद्धान्त ने चातुर्वर्ण्य को, जो जाति-व्यवस्था की जड़ है, हमेशा जिन्दा रहने का मौका दिया। गीता के इस सिद्धान्त की मूल कल्पना सांख्य दर्शन से ली गयी है। उसमें कोई असलियत नहीं है। चातुर्वर्ण्य को न्याय ठहराने में उसका इस्तेमाल करने के श्रीकृष्ण का असली कौशल छिपा हुआ है।”
    बुद्ध कहते थे कि यह दुनिया परिवर्तनशील है। दुनिया परिवर्तनशील है और यदि मनुष्य परिवर्तनशिल नहीं होगा तो दुनिया मनुष्य के लिए रुकनेवाली नहीं है। दुनिया आगे निकल जाएगी। जिन्हें परिवर्तन अमान्य होगा वह पीछे छूट जाएगा। इसलिए जो लोग पीछे नहीं रहना चाहते उन्हें परिवर्तन के साथ अपना कदम आगे बढ़ाना होगा। यह सिद्धांत बाबासाहब डा.अम्बेडकर ने निर्धारित किया और इसे लागू करने की उन्होेंने योजना बनायी। इस बात को वे स्वयं तक सिमित नहीं रखना चाहते थे बल्कि समूचे समाज के लिए लागू करना चाहते थे

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