बुधवार, 31 जुलाई 2019

बहादुरी का यह कैसा इनाम....?



‘‘उधर इसरो के वैज्ञानिक बेचारे चाँद पर तिरंगा लहराने में व्यस्त थे, इधर मनुवादी सरकार ने बेचारों की तनख्वाह में कटौती कर दी. मोदी सरकार ने इन वैज्ञानिकों को इनकी काबलियत का क्या ख़ूब इनाम दिया है. ये हाल तब है जब इसरो के वैज्ञानिकों की उपलब्धि पर पूरे देश को गर्व है’’


चन्द्रयान-2 की लॉन्चिंग के बाद जहाँ पूरा देश इसरो के वैज्ञानिकों की उपलब्धि पर नाज़ कर रहा है, तो वहीं केंद्र की मनुवादी मोदी सरकार ने देश को गौर्वांवित करने वाले इन वैज्ञानिकों के वेतन में भारी कटौती कर उनको उनकी बहादुरी का इनाम दे दिया है. इस कटौती के खिलाफ़ वैज्ञानिकों ने इसरो के चेयरमैन को पत्र लिखा है. इसरो के वैज्ञानिकों के संगठन स्पेस इंजीनियर्स एसोसिएशन (सीईए) ने इसरो के चेयरमैन डॉ. के सिवन को पत्र लिखकर मांग की है कि वे इसरो वैज्ञानिकों की तनख्वाह में कटौती करने वाले केंद्र सरकार के आदेश को रद्द कराने में उनकी मदद करें. क्योंकि हम वैज्ञानिकों के पास तनख्वाह के अलावा कमाई का कोई अन्य जरिया नहीं है. 

बता दें कि उधर इसरो के वैज्ञानिक बेचारे चाँद पर तिरंगा लहराने में व्यस्त थे, इधर मनुवादी सरकार ने बेचारों की तनख्वाह में कटौती कर दी. मोदी सरकार ने इन वैज्ञानिकों को इनकी काबलियत का क्या ख़ूब इनाम दिया है. ये हाल तब है जब इसरो के वैज्ञानिकों की उपलब्धि पर पूरे देश को गर्व है. मोदी सरकार ने 12 जून को एक आदेश जारी कर कहा था कि इसरो वैज्ञानिकों और इंजीनियरों को साल 1996 से मिलने वाले दो अतिरिक्त वेतन वृद्धि को बंद कर दिया जायेगा. इस आदेश में कहा गया है कि 1 जुलाई 2019 से यह प्रोत्साहन राशि बंद हो जाएगी. इस आदेश के बाद डी, ई, एफ और जी श्रेणी के वैज्ञानिकों को यह प्रोत्साहन राशि अब नहीं मिलेगी. यह भी बता दें कि इसरो में करीब 16 हजार वैज्ञानिक और इंजीनियर हैं. 

केंद्र सरकार की ओर से जारी आदेश में कहा गया है कि छठें वेतन आयोग की सिफारिशों के आधार पर वित्त मंत्रालय और व्यय विभाग ने अंतरिक्ष विभाग को सलाह दी है कि वह इस प्रोत्साहन राशि को बंद करे. इसकी जगह अब सिर्फ परफॉर्मेंस रिलेटेड इंसेंटिव स्कीम लागू की गई है. अब तक इसरो अपने वैज्ञानिकों को प्रोत्साहन राशि और पीआरआईएस स्कीम दोनों सुविधाएं दे रहा था. लेकिन अब केंद्र सरकार ने निर्णय किया है कि अतिरिक्त वेतन के तौर पर दी जाने वाली यह प्रोत्साहन राशि 1 जुलाई से मिलनी बंद हो जाएगी. इस सरकारी आदेश से इसरो के करीब 85 से 90 फीसदी वैज्ञानिकों और इंजीनियरों की तनख्वाह में 8 से 10 हजार रुपए का नुकसान होगा. क्योंकि, ज्यादातर वैज्ञानिक इन्हीं श्रेणियों में आते हैं. इसे लेकर इसरो वैज्ञानिक नाराज हैं.

गौरतलब है कि इसरो वैज्ञानिकों के लिए दो अतिरिक्त वेतन वृद्धि की अनुमति राष्ट्रपति ने दी थी. ताकि, देश में मौजूद बेहतरीन टैलेंट्स को इसरो वैज्ञानिक बनने का प्रोत्साहन मिले. ये अतिरिक्त वेतन वृद्धि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद 1996 में अंतरिक्ष विभाग ने लागू किया था. सुप्रीम कोर्ट के आदेश में कहा था कि इस वेतन वृद्धि को स्पष्ट तौर पर ‘तनख्वाह’ माना जाए. छठें वेतन आयोग में भी इस वेतन वृद्धि को जारी रखने की सिफारिश की गई थी. साथ ही कहा गया था कि इसका लाभ इसरो वैज्ञानिकों को मिलते रहना चाहिए. दो अतिरिक्त वेतन वृद्धि इसलिए लागू किया गया था कि इसरो में आने वाले युवा वैज्ञानिकों को नियुक्ति के समय ही प्रेरणा मिल सके और वे इसरो में लंबे समय तक काम कर सकें. केंद्र सरकार के आदेश में परफॉर्मेंस रिलेटेड इंसेंटिव स्कीम (पीआरआईएस) का जिक्र है. हम यह बताना चाहते हैं कि अतिरिक्त वेतन वृद्धि और पीआरआईएस दोनों ही पूरी तरह से अलग-अलग हैं. एक इंसेंटिव है, जबकि दूसरा तनख्वाह है. दोनों एकदूसरे की पूर्ति किसी भी तरह से नहीं करते. सरकारी कर्मचारी की तनख्वाह में किसी भी तरह की कटौती तब तक नहीं की जा सकती, जब तक बेहद गंभीर स्थिति न खड़ी हो जाए. 

लेकिन, ब्राह्मणवादी मानसिकता से ओत-प्रोत मनुवादी सरकार ने इस आदेश को रद्द कर अपनी जाहिल मानसिकता का परिचय दे दिया. जबकि, सीईए के अध्यक्ष ए.मणिरमन ने पत्र में कहा है कि सरकारी कर्मचारी की तनख्वाह में किसी भी तरह की कटौती तब तक नहीं की जा सकती, जब तक बेहद गंभीर स्थिति न खड़ी हो जाए. क्यांकि, तनख्वाह में कटौती होने से वैज्ञानिकों के उत्साह में कमी आएगी. अब सवाल यह है कि क्या इसरो के वैज्ञानिकों ने चन्द्रयान-2 की लॉचिंग कर बेहद गंभीर स्थिति खड़ा कर दिया है, जिससे उनकी तनख्वाह में कटौती की गयी है? वास्तव में वैज्ञानिक केंद्र सरकार के इस अनर्गल फैसले से बेहद हैरत दुखी हैं.

"महान साहित्यरत्न लोकशाहीर अण्णाभाऊ साठे के 99वें जन्म दिवस के अवसर पर दैनिक मूलनिवासी नायक परिवार की ओर से आर्दिक शुभेच्छाएं "


‘‘ये आजादी झूठी है, देश की जनता भूखी है’’ 
साहित्यरत्न लोकशाहीर अण्णाभाऊ साठे के शब्दों और आवाज में वो करश्मिई जादू था, जिसे सुनने के बाद आम लोगों के रगों में लहर दौड़ पड़ती थी. अण्णाभाऊ साठे का जन्म 1 अगस्त 1920 में महाराष्ट्र के सांगली जिले के वाटेगाँव में एक अनुसूचित जाति में हुआ था. उनके पिताजी भाऊ साठे मुंबई में अंग्रजों के घर माली का काम करते थे. गाँव मे अण्णा के साथ उनके भाई-बहन और माँ रहती थी. दूसरे बच्चों की तुलना में अण्णा काफी होशियार और नटखट थे. अण्णा के पिताजी जब छुट्टी के दौरान एक बार गाँव आयें तो उनकी माँ ने अण्णा का स्कूल में दाखिला कराने की सलाह दी. अण्णा का स्कूल में दखिला हुआ, लेकिन अनुसूचित जाति होने के कारण उनके साथ भेदभाव शुरू हो गया. पहले दिन ही उनके गुरूजी ने जमकर डांट लगा दी. जैसे-तैसे वे दूसरे दिन स्कूल गए, लेकिन दूसरे दिन भी डांट मिलने पर वापस स्कूल से वापस आ गये और उसके बाद उन्होंने स्कूल का कभी मुँह नहीं देखा.



इधर देशभर में अंग्रजों के खिलाफ आंदोलन तीव्र होता जा रहा था. दूसरी ओर अंग्रज भी अपने घरों में काम कर रहे भारतीय नौकरों को हटाने लगे थे. इसके चलते अण्णा के पिताजी भाऊ की नौकरी छुट गई. भाऊ वापस वाटेगाँव लौटे तो उस साल गाँव में सूखा पड़ा था. परिवार पहले ही सूखे के कारण दुःख की मार झेल रहा था, उसमें भाऊ की नौकरी भी छिन गई थी. अण्णा के पिताजी ने परिवार के सभी सदस्यों को लेकर मुंबई जाने की ठान ली. जेब में पैसे नही थे, गाँव-दर-गाँव में रूक-रूककर जो भी काम मिलता उस काम को करते हुए परिवार आगे की राह पकड़ता. ऐसे भटकते हुए पूरा परिवार पूना तक आ पहुँचा. पूना के बाहरी इलाकों में इस समय पत्थर तोड़ने के काम में काफी मजदूर लगते थे. किसी ठेकेदार ने उन्हें यह कहकर लेकर गया कि पत्थर तोड़ने के काम में ज्यादा पैसा मिलता है. दिनभर पत्थर तोड़ने के बाद रात को भर पेट खाना भी नसीब नहीं होता था. 

एक रात पूरा परिवार इस जगह को छोड़कर जैसे तैसे मुबंई पहुँचा. यहाँ पर भी उन्हें एक जल्लाद ठेकेदार ने पत्थर तोड़ने के काम पर लगा दिया. परन्तु, यहाँ एक पठान से उनकी मुलाकात हुई और कुछ दिन काम करने के बाद इस पठान से अण्णा की दोस्ती हो गई. साठे परिवार पुनः यहाँ से दूसरी जगह जाने की सोचने लगा. पठान ने साठे परिवार की काफी मदद की. वाटेगाँव से लेकर मुंबई की इस भयानक यातनामय यात्रा ने अण्णा के मन पर गहरी चोट की. उसके बाद मुंबई में चेंबुर, मांटुगा, कुर्ला, दादर, की झुग्गियों में स्थानांतरित हुए. काम की तलाश में घुमते रहे, उसके बाद रिश्तेदार के साथ कपड़े बेचने के काम की शुरूआत की. अण्णा के गाँव से ही ताल्लुक रखने वाले अनुसूचित जाति के व्यक्ति से परिचय बढ़ा. उसे पढ़ना लिखना आता था, यह जानकर अण्णा को बहुत आश्चर्य हुआ. इसके बाद अण्णा ने भी ठान लिया कि मुझे भी पढ़ना है. वे रोज काम के बाद दोस्त के घर कॉपी-कलम लेकर जाया करते थे. एक ही महीने में उन्होंने काफी कुछ सीख लिया.

1942 के आस-पास मुंबई में कहीं, स्वातंत्र्य आंदोलन की लड़ाई चल रही थी, तो कहीं जाति-भेद की लड़ाई चल रही थी. इस सभी माहौल में हमेशा से ही कामगार, मजदूर, गरीब, पीड़ित लोग पीसे जाते थे. इन सारी घटनाओं का असर भी अण्णा पर हो रहा था. इस समय वह कपड़ा मील में काम किया करते थे. कपड़ा मील में मजदूर यूनियन से भी उन्हें काफी नई-नई विचारधारा की जानकारी मिल रही थी. जिसमें समता, बंधुत्व की भी बात कही जाती थी. मिल यूनियन में काफी एकजुटता दिखाई पड़ती थी. इस सब बात का चिंतन-मनन दिमाग में चलता रहता था. अण्णा के मौसरे भाई की नाटक मंडली थी. अण्णा कभी-कभी इस मंडली में भी काम कर लिया करते थे. मुंबई में अण्णा साठे तथा दो और लोक गायकों ने मिलकर ‘लालबटवा’ नामक कलापथक शुरू किया था. इस पथक के तहत उन्होंने कई कार्यक्रम पेश किये. 1945 में मुंबई के शिवाजी पार्क पर लोगों को जागृति करने का बड़ा जलसे का कार्यक्रम आयोजित किया गया था. इस कार्यक्रम में साहित्यरत्न लोकशाहीर अण्णाभाऊ साठे के शब्दों और आवाज ने वो करश्मिई जादू किया, जिसे सुन आम लोगों के रगों में लहर दौड़ पड़ी. इस तरह उन्होंने लोगों के दिलों में घर बना लिया और यही से वे लोक नाटक के जनक बन गये.

1947 में देश में तथाकथित आजादी का आंदोलन चल रहा था. 15 अगस्त 1947 को देश को तथाकथित आजादी मिली और 16 अगस्त को लोकशाहीर अण्णभाऊ साठे ने इस तथाकथित आजादी का विरोध करते हुए मुंबई के आजाद मैदान में लाखों लोगों की रैली निकाली. इस रैली में उन्होंने एक नारा दिया ‘‘ये आजादी झूठी है, देश की जनता भूखी है’’ इस तरह से उन्होंने कथित आजादी का जोरदार विरोध किया. भारत-पाकिस्तान विभाजन के वक्त ‘पंजाब-दिल्ली दंगा’ पर एक प्रदीर्घ लोकगीत की रचना की. देश भर के तत्कालीन महत्वपूर्ण मुददों पर उन्होंने लोकगीत लिखा. अण्णा भाऊ साठे ने अपने लेखन की अमिट छाप समाज पर छोड़ी. साथ ही उन्होंने कथा लेखन, नाटक, प्रवासवर्णन, सिनेमा की कथा, उपन्यास लिखकर साहित्यरत्न की उपाधि हाशिल कर ली. केवल दो दिन स्कूल जाने वाले अण्णा भाऊ साठे ने अपनी अद्वितिय बुद्धि कौशल, तथा स्वअनुभव से नया इतिहास गढ़ दिया. उनके इस काम की कद्र महाराष्ट्र शासन ने भी उन्हें कई पुरस्कारों से सम्मानित करके दिया. 01 अगस्त 2002 में भारत सरकार ने उनके नाम का डाक टिकट जारी किया. इसके अलावा उनके लिखे गये लोक गीत रशियन भाषा मे भी प्रसिद्ध हुए. उनका रशिया में खास सत्कार किया गया. ऐसे महान साहित्यरत्न लोकशाहीर अण्णाभाऊ साठे के 99वें जन्म दिवस के अवसर पर दैनिक मूलनिवासी नायक परिवार की ओर से आर्दिक शुभेच्छाएं

लोकशाहीर अण्णाभाऊ साठे द्वारा लिखे गये साहित्य....

उपन्यासः फकीरा, वारण का शेर (वारणेचा वाघ), अलगुज, आवडी, केवडे का भुट्टा (केवडयाचे कणीस), कुरूप, चंदन, जिंदा काडतुस (जिवंत काडतुसं), धुंद, मंगला, बंदरिया की माला (माकडीचा माळ), मूर्ति, रानगंगा, रूपा, वैजयंता, तारा, संघर्ष, आग, आघात, अहंकार, अग्निदिव्य, गुलाम, कीचड़ के कमल (चिखलातले कमल), भरी हुई बंदुके (ठासलेल्या बंदुका), आँखे मटकाती राधा चले (डोळे मोडित्‍ राधाचाले), तितली (फुलपाखरू), मधुरा, शिक्षक (मास्तर), रत्ना, रानबोका, चित्रा, वारणानदी के किनारे (वारणेच्या खो-यात), वैर, सरनौबत, पाझर.


कथा संग्रहः चिराग नगर के भूत (चिरागनगरची भुतं), कृष्णा किनारे की कथा (कृष्णाकाठाच्या कथा), जेल में (गजाआड), नई-नवेली (नवती), पागल मानुष्य (पिसाळलेला माणूस), फरारी, भानामती, लाडी, खुळंवाडी, निखारा, बरबाघ्या कंजारी, गु-हाळ, आबी
नाटक लेखनः इनामदार, पेग्यां की शादी (पेग्यांचे लगीन), सूलतान,

लोकनाटकः तमाशा (नौटंकी), दिमाग की काहणी (अकलेची गोष्ट), खाप-या चोर, देशभक्त घोटाले (देशभक्त घोटाळे), नेता मिल गया (पुढारी मिळाला), बिलंदर पैसे खाने वाले (बिलंदर बुडवे), मौन मोर्चा (मूक मिरवणूक), मेरी मुंबई (माझी मुंबई), शेटजी का इलेक्शन (शेटजीचे इलेक्शन), सुखे में तेरवा महिलना (दुष्काळात तेरावा), कायदे के बिना (बेकायदेशीर), लोकमंत्री, महाराष्ट्र की लोक कला लावणी (लावणी), गीत, महाराष्ट्र में लोक गायन का प्रकार पोवाडा (पोवाडे),

प्रवासवर्णनः मेरा रशिया की यात्रा (माझा रशियाचा प्रवास) 

मराठी फिल्मी (चित्रपट) कथाः फकीरा, ऐसी यें सातारा की करामत (अशी ही साता-याची त-हा), तिलक लागती हू रक्त से (टिळा लाविते मी रक्ताचा), पहाडों की मैना (डोंगराची मैना), मुरळी मल्हारी रायाची, वारणे का बाघ (वारणेचा वाघ), बारा गाव का पाणी (बारागावे पाणी)
राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)

देशद्रोही मीडिया का दोगला चरित्र


जिस मीडिया को देश और जनता की सच्ची आवाज बनकर हकीकत को जनता से सरकार को सरकार से जनता को रूबरू कराना चाहिए, आज वही मीडिया यूरेशियन ब्राह्मणों और सत्ता पक्ष की चाटुकारिता करने में गर्व महसूस कर रहा है. यह बात कहने में जरा भी अतिश्योक्ति नहीं है कि आजकल मीडिया पत्रकारिता छोड़कर चाटुकारिता करने लगा है. 


आप लोगों को याद होगा, जम्मू कश्मीर के पुलवामा ज़िले के अवंतिपुरा में 14 फरवरी 2019 को सीआरपीएफ के जवानों पर आतंकी हमला हुआ. हमले में सीआरपीएफ के तकरीबन 40 जवान शहीद हो गए थे. इसके 12 दिन बाद ही भारत ने पाकिस्तान पर सर्जिकल स्ट्राइट-2 किया. लेकिन, सर्जिकल स्ट्राइक-2 में इस मीडिया की क्या भूमिका रही शायद यह किसी ने नहीं देखा होगा. हम आपको बता रहे हैं कि सर्जिकल स्ट्राइक-2 में मीडिया की क्या भूमिका थी. सर्जिकल स्ट्राइक-2 में धमाका किसी विमान का नहीं, मिग-21 का नहीं, एफ-16 का नहीं और 1000 किलों बम का नहीं, बल्कि चाटुकार मीडिया का रहा. यानी मीडिया को जो काम करना चाहिए वो नहीं कर रहा था वो दो देशों के बीच माहौल को भड़का रहे थे सरल शब्दों में मीडिया जंग लड़ रहा था. अगर जंग लड़ने का इतना ही शौक है तो देश की सरहद पर जाओ और जंग लड़ो? इसी तरह 23 मई 2019 के लोकसभा चुनाव का परिणाम घोषित हो रहा था. भारतीय जनता पार्टी ईवीएम में घोटाला करके हर सीट जीत रही थी, और हर मीडिया दफ्तर में बीजेपी के जीत की मिठाईयाँ बांटकर चाटुकार पत्रकार जश्न मना रहे थे. उस दौरान चाटुकार मीडिया के चाटुकार पत्रकार ऐसे खुश हो रहे थे जैसे चुनाव नरेन्द्र मोदी नहीं चाटुकार पत्रकारों के रिस्तेदार जीत रहे हों. 

यही नहीं अगर देश में उन्माद फैलाना है तो मीडिया से सीखा जा सकता है कि किस तरह से देश में उन्माद फैलाये जाते हैं. इसका एक बानगी दिखाना चाहता हूँ. इससे पहले यह जान लेने की जरूरत है कि आज देश में चारों तरफ जय श्रीराम के नाम पर भीड़ द्वारा हत्या करने का सिलसिला बहुत ही तेजी से चल रहा है. देश में हिन्दू-मुसलमान के नाम पर जानबूझकर उन्माद, दंगा-फसाद फैलाया जा रहा है. ऐसे में मीडिया झूठी खबर फैलाकर आग में घी डालने का काम कर रहा है. बता दें कि 29 जून 2019 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी से सटे चंदौली जिले में रविवार सुबह एक मुस्लिम युवक को मिट्टी का तेल छिड़क कर जलाए जाने का सनसनीखेज मामला सामने आया. मैं चन्दौली जिले का रहने वाला हूँ इसलिए इस घटना को बारीकी से जानता हूँ. चंदौली जिले के सैयदराजा इलाके में रहने वाला 18 वर्षीय खलील अंसारी रविवार सुबह घर से घूमने के लिए निकला. खलील के बताने के अनुसार जब वह छतेम गाँव के पास पहुँचा तभी मुंह पर कपड़ा बांधे चार युवकों ने उसको पकड़ लिया. कुछ दूर खेत में ले जाकर उसके ऊपर मिट्टी का तेल छिड़ककर आग लगा दी और मौके से फरार हो गए. गंभीर रूप से झुलसे युवक को देख लोगों ने इसकी सूचना पुलिस और परिजनों को दी. 


मौके पर पहुंची पुलिस और परिजनों ने खलील को इलाज के लिए जिला अस्पताल में भर्ती कराया. प्राथमिक उपचार के बाद डॉक्टरों ने उसे वाराणसी रेफर कर दिया. एसपी संतोष कुमार सिंह ने अस्पताल जाकर पीड़ित का हाल जाना और घटना के बारे में उससे जानकारी ली. सैयदराजा थाना प्रभारी एसपी सिंह ने बताया कि छानबीन के दौरान जिस जगह घटना होने की बता कही गयी थी व वहाँ से काफी दूर एक मजार के पास खलील के कपड़े और चप्पल बरामद हुए. अधिकारियों ने कहा कि इससे लगता है कि मजार पर तंत्र-मंत्र के चक्कर में आग लगने से युवक झुलसा है. लेकिन गाँव के पुराने विवाद को लेकर भी घटना को अंजाम दिया गया हो. यह भी पता चला कि स्कूल में कुछ लड़कों से उसका झगड़ा हो गया था हो सकता है इस घटना में उन्हीं लड़कों का हाथ हो. हालांकि इसकी जाँच चल रही है.

हद तो तब हो गयी जब टीवी चैनल, समाचार पत्र और वेबसाइटों पर यह खबर चलाई गयी कि चन्दौली में मुस्लिम युवक से जबरन ‘जय श्रीराम बुलवाया गया’ मुस्लिम युवक द्वारा नहीं बोलने पर उसको जिंदा लगाने की कोशिश की गयी. जबकि, इस घटना में इस बात का रत्तीभर भी जिक्र नहीं है कि पीड़ित युवक से जय श्रीराम बुलवाया गया और उसके न बोलने पर आग लगा दी गयी. चन्दौली के आसपास के सभी समाचार पत्रों में भी इसका जिक्र नहीं है. यानी इस तरह की झूठी खबर फैलाने का मतलब साफ है कि मीडिया हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर देश में दंगा फैलाने का काम कर रहा है. अब ऐसे मीडिया को दलाल, भड़वा और ब्राह्मणवादी सरकरों की चाटुकारिता करने वाला आदि जैसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया जाय तो क्या कहा जाय?

दूसरी बात अगर भारतीय मीडिया को, पाकिस्तान की छोटी से भी छोटी खबर मिल जाय तो उसमें मसाला लगाकर उसे ऐसा पेश करेंगे जैसे वहाँ जाकर उस खबर की खुद रिर्पोटिंग की हो वहीं जब पाकिस्तानी या अन्य देशों की मीडिया मोदी सरकार या सरकार के अन्य नेताओं पर आरोप लगाते हैं, तो भले ही वह आरोप सच क्यों न हो मगर, यही भारतीय मीडिया उसे मानने के लिए राजी नहीं होता है. बल्कि उस सच्ची खबर को सीधे खारिज करते हुए विदेशी मीडिया पर हमला शुरू कर देते हैं. हाल ही में भारतीय मीडिया ने पाकिस्तान के बारे में एक खबर छापते हुए लिखा था कि पाकिस्तान में पचास फीसदी परिवार ऐसे हैं जिन्हें दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं हो रही है और चालीस फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं. एक कहावत है कि ‘‘दूसरों के गिरेवान पर हाथ डालने से पहले अपने गिरेवान में झांक लेना चाहिए’’ यही हाल भारतीय मीडिया का है. भारत में बेरोजगारी, गरीबी, भुखमरी, हत्या, बलात्कार, दंगा-फसाद, मॉब लिंचिंग, नक्सलवाद, आतंकवाद और भ्रष्टाचार की बाढ़ आ गयी है. यही नहीं भारत में ईवीएम के माध्यम से जनता के वोटों की चोरी हो रही है. इतनी बड़ी खबर भारतीय मीडिया से गायब है. और भारतीय मीडिया इस सच्चाई को बताने के बजाय दूसरे देशों की बातों को  बता रहा है. भारतीय मीडिया का यह रवैया ही बता रहा है कि भारतीय मीडिया मौजूदा सरकार की दलाली करने में कोई परहेज नहीं कर रहा है.

इसकी एक और बानगी देखी जा सकती है. जहाँ एक तरफ लाखों लोगों के लिए बाढ़ त्रासदी बनकर आई है. इस बाढ़ में लाखों लोगों का जीवन अस्त-व्यस्त हो गया है तो वहीं दूसरी तरफ मीडिया के दलाल पत्रकारों ने ‘बाढ़ क्षेत्र’ को एक पिकनिक स्पॉट बना दिया है. पानी की जिस धारदार बहाव से असम, बिहार और मुंबई के कई हिस्सों में लोग मौत के मुँह में समाते जा रहे हैं और उसी को पूल समझकर ये पत्रकार तैरते हुई रिकॉर्डिंग कर रहे हैं. यह मामला यही नहीं रूका, ऐसा करने के लिए भी खुद कष्ट नहीं उठा रहे हैं. बल्कि, पहले से ही असुविधा में जी रहे ग्रामीणों से अपना बोझा उठवा रहे हैं या दूसरे शब्दों में कहें तो ग्रामीणों की इस बदहाली का मजाक उड़ा रहे हैं.

इस बात का नजारा दलाल मीडिया के दलाल एंकरों की सोशिल मीडिया पर वायरल इन तस्वीरों में आसानी से देखी जा सकती है. हालांकि, इनकी घिनौती हरकत से सोशल मीडिया पर जमकर आलोचना हो रही है. जरा गौर से देखिए वायरल इन तस्वीरों को कि कैसे बाढ़ त्रासदी में भी मजे ले रहे हैं.  वायरल तस्वीर में साफ दिख रहा है कि कैसे ‘इंडिया टुडे’ समूह की एंकर चित्रा त्रिपाठी अपने माईक के साथ केले के थम पर बैठकर रिपोर्टिंग कर रही हैं और तीन चार लोग इस थम का बोझा उठाए हुए हैं ताकि एंकर पानी में न चली जाएं. हद तब और ज्यादा हो गयी जब हाथ को हवा में उठाकर ऐसे बॉय-बॉय का संकेत दे रहे हैं जैसे अब वो इस दुनिया से जा रहे हैं. चले भी जाते तो अच्छा ही होता कम से कम बाढ़ त्रासदी से जूझ रहे बाढ़ पीडितों का मजाक तो नहीं उड़ाया जाता! 

मजेदार बात यह है कि बाढ़ की विभीषिका दिखाने के लिए तैरने और उतराने की जरूरत ही क्या है? लेकिन, नहीं लोगों की बदहाली का मज़ाक उड़ाते इन बेशर्म पत्रकारों को इसकी कोई फिक्र नहीं है. जिन ग्रामीणों की हर संभव मदद की जानी चाहिए थी उनको ही अपने इस ‘विशेष शूटिंग’ में लगा दिया गया है. दल्ला मीडिया की इन हरकतों से नाराज़ तमाम लोग सोशल मीडिया पर आलोचनात्मक प्रतिक्रिया दे रहे हैं. इस वायरल तस्वीर को फेसबुक पर शेयर करते हुए एक ने लिखा कि ‘कुछ दिन पहले पत्रकारिता आई.सी.यू में थी, अब केले के थम पर आ गई है. बेशर्म पत्रकार चित्रा त्रिपाठी की हरकत यही नहीं रूकी. चित्रा की ही एक अन्य तस्वीर भी है जिसका जिक्र मैने ऊपर किया है. जिसमें वह एक नाव पर सैर करती नजर आ रही है. इन तस्वीरों को देखकर क्या लगता है कि इन बेशर्मों को बाढ़ त्रासदी से जूझ रहे पीड़ितों की रत्तीभर भी चिंता है? मेरे हिसाब से इन बेशर्मों के लिए ‘बाढ़’ त्रासदी नही, महज मनोरंजन मात्र है और पीड़ित एक मजाक बन गये हैं.

अब सवाल यह है कि इसका कारण क्या है? इसका यही कारण है कि भारत की मीडिया पर ब्राह्मण और बनियों का पूर्ण रूप से कब्जा है. 234-235 सालों में देश में तकरीबन 3840 टीवी चैनल और 5170 से ज्यादा समाचार पत्र हैं. लेकिन, इन सभी समाचार पत्रों, टीवी चैनलों के मालिक बनिया हैं और संपादक ब्राह्मण हैं. टाईम्स ऑफ इंडिया का मालिक जैन बनिया, दैनिक जागरण का मालिक गुप्ता बनिया, दैनिक भाष्कर का अग्रवाल बनिया, गुजरात समाचार का शाह बनिया, लोकमत का दरिणा बनिया, राजस्थान पत्रिका का कोठारी बनिया, नव भारत का जैन बनिया और अमर उजाला का मालिक महेश्वरी बनिया है. अगर टीवी चैनलों की बात करें तो लोकसभा टीवी के सीईओ राजिव मिश्रा, राज्य सभा टीवी के सीईओ राजेश बादल, डीडी दूरदर्शन के त्रिपुरारी शर्मा, प्रसार भारती के चेयरमैन एस सूर्य प्रकाश, पीटीआई के चेयरमैन एमएम गुप्ता, टाईम्स ग्रुप के सीईओ रविन्द्र धारीवाल, एक्सप्रेस ग्रुप के विवेक गोयंका और हिन्दू के सीईओ राजीव लोचन हैं. इस तरह से मीडिया पर पूरी तरह से ब्राह्मणों और बनियों का कब्जा हो गया है. जबकि एससी, एसटी, ओबीसी और मायनॉरिटी की संख्या जीरो है. यही सबसे बड़ा कारण है कि देश की चाटुकार मीडिया ब्राह्मणों और सरकारों की चाटुकारिता कर रहा है.
राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)

रविवार, 28 जुलाई 2019

वाह रे मीडिया...........! भारतीय मीडिया का रवैया





अगर भारतीय मीडिया को, पाकिस्तान की छोटी से भी छोटी खबर मिल जाय तो उसमें मसाला लगाकर उसे ऐसा पेश करेंगे जैसे वहाँ जाकर उस खबर की खुद रिर्पोटिंग की हो और जब पाकिस्तान या अन्य देशों की मीडिया मोदी या भाजपा सरकार के अन्य नेताओं पर आरोप लगाते हैं, तो भले ही वह सच क्यों न हो मगर, यही भारतीय मीडिया उसे मानने के लिए राजी नहीं होता है. बल्कि उस सच्ची खबर को सीधे खारिज करते हुए विदेशी मीडिया पर हमला शुरू कर देते हैं. कुछ ऐसा ही भारतीय मीडिया में देखने को मिला है.

हाल ही में भारतीय मीडिया ने पाकिस्तान के बारे में एक रिपोर्ट जारी किया है, जिसमें बताया जा रहा है कि पाकिस्तान में पचास फीसदी परिवार ऐसे हैं जिन्हें दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं हो रही है वहीं चालीस फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं. बलूचिस्तान और सिंध के बच्चों में कुपोषण की समस्या इस कदर है कि उनका पूरा विकास रूक गया है. और उनका कद भी कम है.

मजेदार बात तो यह है कि भारतीय मीडिया को खुद के देश की बेरोजगारी, गरीबी, भुखमरी, कुपोषण, हत्या, बलात्कार आदि दिखाई नहीं दे रही है. जबकि, भारतीय मीडिया को पाकिस्तान या अन्य देशों की गरीबी आदि बड़ी आसानी से दिख जाती है. पाकिस्तान के एक अखबार का हवाला देते हुए बताया गया है कि यह जानकारियाँ राष्ट्रीय पोषण सर्वेक्षण-2018 के तहत जारी की गई हैं. यह सर्वेक्षण पूरे पाकिस्तान में कराया गया था. इससे पता चला कि पाकिस्तान के हालात चिंताजनक हैं. सवाल तो यह है कि क्या भारत इस मामले में अच्छा है? यह तस्वीर भारतीय मीडिया को क्यों नहीं दिखाई दे रही है?


बता दें एक कहावत है कि ‘‘दूसरों के गिरेवान पर हाथ डालने से पहले अपने गिरेवान में झांक लेना चाहिए’’ यही हाल भारतीय मीडिया का है. भारत में बेरोजगारी, गरीबी, भुखमरी, हत्या, बलात्कार, दंगा-फसाद, मॉब लिंचिंग, नक्सलवाद, आतंकवाद और भ्रष्टाचार की बाढ़ आ गयी है. यही नहीं भारत में ईवीएम के माध्यम से जनता के वोटों की चोरी हो रही है. इतनी बड़ी खबर भारतीय मीडिया से गायब है. और भारतीय मीडिया इस सच्चाई को बताने के बजाय दूसरे देशों की बातों को उजागर कर रहा है. खासकर पाकिस्तान के मामलों में तो और ज्यादा आक्रामक हो जाते है. भारतीय मीडिया का यह रवैया बता रहा है कि भारतीय मीडिया मौजूदा सरकार की दलाली करने से कोई परहेज नहीं कर रहा है.

वादा तेरा वादा............

‘‘तीन दर्जन से ज्यादा वादा मोदी सरकार-2 के लिए मुसिबत’’


क्या हुआ तेरा वादा.......मोदी सरकार ने बीते पाँच सालों में वादे पर वादा करने में रत्तीभर भी कसर नहीं छोड़ी, आज वही वादा मोदी सरकर-2 के लिए सिर दर्द बन गया है. मोदी सरकार ने देश की जनता से कई सारे वादे किए और इन वादों को पूरा करने की के लिए 2022 तक डेडलाइन भी दी गई. इसी डेडलाइन के तहत मोदी सरकार को दो साल के भीतर तीन दर्जन से ज्यादा वादे पूरे करने हैं. 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोगों से ‘अच्छे दिन’ का वादा किया था. इसके बाद 2017 में ‘न्यू इंडिया, डिजिटल इंडिया, रिसर्जेंट इंडिया, स्कील इंडिया जैसे तमाम वादे किये. यही नहीं 2019 में फिर से सत्ता पर काबिज होने के बाद सरकार ने सरकार ने हर शख्स को घर, हर खेत को पानी, जीडीपी दर 9 से 10 प्रतिशत करना, हर परिवार को एलपीजी सिलिंडर जैसे तकरीबन तीन दर्जन से ज्यादा वादे किये. अब देखना तो यह है कि क्या इसी 2022 तक की डेडलाइन के तहत मोदी सरकार महज दो साल के भीतर तीन दर्जन से ज्यादा वादे पूरा कर सकती है? 

मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के 50 दिन पूरे होने पर केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कामकाज का रिपोर्ट कार्ड भी पेश किया. रिपोर्ट कार्ड पेश करते हुए कई और कामों का भी लेखा-जोखा सामने रखा. मजेदार बात तो यह है कि सरकार के 50 दिन के कामकाज की रिपोर्ट कार्ड के बाद भी अभी कई ऐसे वादे हैं जिन्हें सरकार को कथित आजादी की 75वीं वर्षगाठ 15 अगस्त 2022 तक पूरा करना है. यह भी जान लें कि मोदी सरकार द्वारा इस डेडलाइन तक किए गए वे कौन-कौन से वादे हैं, जिन पर सरकार को खरा उतरना है. ‘स्ट्रैटेजी फॉर न्यू इंडिया एट 75’ शीर्षक से जारी किए गए इस दस्तावेज में नीति आयोग ने इन वादों को सूचीबद्ध कर विकास की रणनीति सुझायी है. आयोग ने यह दस्तावेज केंद्र, राज्य और जिला स्तर पर विभन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों से परामर्श के आधार पर तैयार किया है.सरकार का वादा है कि 2022 तक भारत की जीडीपी विकास दर 9-10 प्रतिशत होगी. 2017-18 में निवेश दर 29 प्रतिशत से बढ़कर 2022-23 में 36 प्रतिशत हो जाएगी. प्रत्येक भारतीय के पास 2022 तक एक बैंक खाता, जीवन बीमा, दुर्घटना बीमा, पेंशन और सेवानिवृत्ति योजना सेवाएं मुहैया कराना. 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करना. मानसून पर खेती की निर्भरता कम करने के उद्देश्य से सरकार ने हर खेत को पानी पहुँचाने के लिए प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना की स्वीकृति.

एयर पॉल्यूशन को कम करने के लिए फसल अवशेष प्रबंधन करना. कणिका तत्व (पीएम 2.5) को 2022 तक 50 से कम करना. हर घर में एक एलपीजी सिलिंडर. 2022 तक रेल में सुरक्षा के ऐसे मापदंड तैयार करना जिससे यात्रा के दौरान किसी की मौत न हो. मुंबई-अहमदाबाद बुलेट ट्रेन को संचालित करना. विनिर्माण क्षेत्र की विकास दर को 2022 तक दोगुनी करना. हर भारतीय को 2022 तक अपना घर देना. हर भारतीय के पास 2022 तक अपना शौचालय. प्रत्येक भारतीय को 24/7 बिजली की आपूर्ति देना. प्रत्येक ग्राम पंचायत (हर घर में नहीं) के पास 2022 तक ब्रॉडबैंड इंटरनेट कनेक्शन देना. सरकार 2022 तक ‘100 प्रतिशत डिजिटल साक्षरता’ सुनिश्चित करेगी. हर भारतीय को 2022 तक पानी का कनेक्शन देना. भारत को कुपोषण से मुक्त करना. सात सौ जिला मुख्यालयों के अस्पतालों को ‘चिकित्सा केंद्र’ में बदलना. प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में सुधार और हेल्थ केयर प्रोफेशनल को प्रशिक्षित करने करने के लिए प्राइवेट अस्तपतालों के साथ मिलकर स्वास्थ्य स्तर में सुधार करना.

मेडिकल टूरिज्म के लिए 20 ‘मेडिकल फ्री जोन’ का निर्माण करना. विकसित क्षेत्रों में सौ से अधिक नए पर्यटन स्थल बनाना. विदेशी टूरिस्ट्स को आकर्षित करने के लिए वैश्विक अंतर्राष्ट्रीय पर्यटक आगमन में भारत की हिस्सेदारी 1.18 प्रतिशत से बढ़ाकर 3 प्रतिशत करना. एंटरप्रेन्योरशिप, बिजनेस, स्टार्टअप, तकनीक को बढ़ावा देने के लिए इनोवेशन डिस्ट्रिक्ट तैयार करना. हाथ से मैला ढोने (मैनुअल स्कैवेंजिंग) को खत्म करना. बच्चों को कुशल बनाने के लिए छठी कक्षा से स्किल स्कूल के तहत प्रशिक्षित करना. कुल कार्यबल के मौजूदा कुशल श्रम को 5.4 फीसदी से बढ़ाकर 15 फीसदी करना. हेल्थ सेक्टर में दो से तीन मिलियन नौकरी, टूरिज्म से 40 मिलियन नौकरी का लक्ष्य. ‘सिंगल यूज प्लासिटक’ को 2022 तक पूरी तरह प्रतिबंधित करना. 

अक्षय उर्जा से 175 गीग वॉट उर्जा पैदा करना. ऑयल और गैस के आयात को 2022-23 तक 10 प्रतिशत कम करना. माइनिंग सेक्टर की औसत ग्रोथ को 2018-23 के बीच 8.5 फीसदी करना. नेशनल हाइवे की लंबाई बढ़ाकर 2022 तक 2 लाख किलो मीटर करना. 2017 तक के उन सभी इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स को पूरा करना जो दशकों से पूरे नहीं हो सके. महिला मजदूरों के कुल कार्यबल भागीदारी दर को 30 फीसदी करना. भारत के वर्तमान वन आवरण को 21 प्रतिशत से बढ़कर 33 प्रतिशत करना. दसवीं कक्षा से पहले किसी भी छात्र को ड्रॉप-आउट नहीं करना. सरकार ने 2022 तक सभी सरकारी स्कूलों में सौ फीसदी एनरोलमेंट का लक्ष्य रखा है. 

मरीजों और डॉक्टरों का अनुपात 1ः1400 करना. 2016-17 में उच्च शिक्षा में सकल नामांकन अनुपात (जीईआर) को 2022-23 तक 25 प्रतिशत से बढ़ाकर 35 प्रतिशत करना. सकल नामांकन अनुपात (जीईआर) का अर्थ है कि 18 से 23 आयु वर्ग के कितने प्रतिशत युवाओं ने उच्च शिक्षा प्राप्ति के लिए देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों से संबंद्ध कॉलेजों में दाखिला लिया और 2021-22 तक भारत माला प्रोजेक्ट के पहले चरण के लक्ष्य के तहत 24,800 किलोमीटर रोड का निर्माण करना सहित तीन दर्जन से ज्यादा वादा है जिसे 2022 तक पूरा करना है. यह बात भी अच्छी तरह से जान लेने की जरूरत है कि इनमें से तकरीबन दो दर्जन से ज्यादा वादे मोदी सरकार के बीते कार्यकाल के हैं. चौंकाने वाली बात तो यह है कि मोदी सरकार अपने पूरे पाँच साल में इन वादों को पूरा नहीं कर सकी, पाँच साल केवल वादे करने में ही बिता दिया तो क्या अब भरोसा है कि मोदी सरकार-2 2022 तक इन वादों को पूरा कर सकती है?

शनिवार, 27 जुलाई 2019

जापान में बैलेल पेपर से चुनाव


जापान में बैलेल पेपर से चुनाव



भारत में जहाँ इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) का उपयोग बड़े पैमाने पर हो रहा है, वहीं जापान ने भले ही ईवीएम का आविष्कार किया हो, परन्तु वहाँ ईवीएम के बजाय बैलेट पेपर से चुनाव होता है. इसका जीता जागता उदाहरण एक बार फिर से जपान में देखने को मिला है जहाँ रविवार को ऊपरी सदन के लिए मतदान शुरू हो गया. इसके लिए वहाँ बैलेट बाक्स का इस्तेमाल किया गया. बताया जा रहा है कि ऊपरी सदन के चुनाव परिणाम से यह पता चलेगा कि प्रधानमंत्री शिंजो आबे के साढ़े छह वर्ष के कार्यकाल से लोग कितने संतुष्ट हैं? जापान के अधिकतर हिस्सों में मतदान केंद्र स्थानीय समयानुसार रात आठ बजे बंद हो जाएंगे और मतदान समाप्त होने के बाद मतगणना शुरू हो जाएगी.

गौरतलब है कि ऊपरी सदन के सदस्यों का कार्यकाल छह वर्ष का होता है और इसकी करीब आधी सीटें प्रत्येक तीन वर्ष में खाली हो जाती हैं. रविवार को ऊपरी सदन के 124 सीटों पर मतदान हो रहा है जिसमें तीन नई सीटें जोड़ी गई हैं और इसके लिए कुल 370 उम्मीदवार चुनावी मैदान में हैं. श्री आबे ने कहा है कि उनकी लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी और इसकी गठबंधन सहयोगी कमेटी का 245 सीटों वाले ऊपरी सदन में बहुमत बरकरार रहेगा.

बता दें कि 22 अक्टूबर 2017 को जापान का 48वाँ आम चुनाव हुआ था, जिसमें बैलेट बाक्स का प्रयोग किया गया था. मतदाताओं ने बैलेट पेपर से चुनाव संपन्न कराया. दिलचस्प बात तो यह है कि मतदाताओं को दो बार वोट डालने का अधिकार है. एक वोट चुनाव क्षेत्र के उम्मीदवार के लिए और दूसरा वोट पार्टी सूची के लिए. जापान का कोई भी नागरिक जो 18 वर्ष या उससे बड़ा हो मतदान कर सकता है. जापान का संविधान वयस्क मताधिकार और गुप्त मतदान का अधिकार देता है. साथ ही वह निर्धारित करता है कि चुनाव कानून, नस्ल, जाति, लिंग, सामाजिक स्थिति, पारिवारिक मूल, शिक्षा, जायदाद या आय से भेदभाव नहीं कर सकता.

अगर भारत की बात करें तो भारत में ईवीएम पर रार होने के बाद भी बैलेट पेपर से चुनाव नहीं किया जा रहा है. जबकि बीते फरवरी 2019 को इंडोनेशिया में राष्ट्रपति का चुनाव संपन्न हुआ. जिसमें ईवीएम की जगह बैलेट पेपर का इस्तेमाल किया गया है. इंडोनेशिया में ईवीएम पर लंबे समय से बहस जारी थी, जिसके बाद सभी दलों में राजनीतिक सहमति नहीं बन सकी और वापस बैलेट पेपर पर लौटना तय हुआ. इंडोनेशिया दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा लोकतंत्र है, जहाँ अमेरिका की तरह ही राष्ट्रपति सिस्टम लागू है. सबसे ज्यदा चौंकाने वाली बात तो यह है कि इंडोनेशियाई चुनाव दुनिया के सबसे जटिल चुनावों में से एक है. क्योंकि, यहाँ एक ही दिन में 20,000 पोस्ट के लिए 2,45,000 उम्मीदवारों में से चुनाव के लिए 8,00,000 मतदान केंद्रों पर 19 करोड़ से अधिक मतदाताओं को वोट देना होता है. हैरान करने वाली बात यह भी है कि 19 करोड़ से ज्यादा मतदाता बैलेट पेपर पर मतदान करते हैं. मगर, दुःखद बात यह है कि भारत में चुनाव आयोग द्वारा कहा जा रहा है कि बैलेट पेपर से चुनाव कराने में देरी होगी? अब सवाल यह है कि क्या इंडोनेशिया में देर नहीं हो रहा है? दूसरा सवाल यह है कि चुनाव आयोग का काम निष्पक्ष, पारदर्शी और स्वतंत्र रूप से चुनाव कराने का काम दिया गया है या चुनाव जल्दी कराने का काम दिया गया है?

चौंका देने वाली बात तो यह है कि वोटिंग मशीन में गड़बड़ी की आशंका की वजह से दुनिया के अत्यंत विकसित देशों में इंडोनेशिया सहित कई देशों ने ईवीएम पर पाबंदी लगायी है. जर्मनी, इटली, नीदरलैंड, अमेरिका और जापान जैसे देशों में वोटिंग मशीन से वोट नहीं पड़ते हैं, चुनाव बैलेट पेपर से होते हैं. जर्मनी कोर्ट ने ईवीएम के प्रयोग को असंवैधानिक करार दिया है. 2008 में नीदरलैंड की सरकार ने ईवीएम का इस्तेमाल नहीं करने का फैसला किया. करोड़ों रुपए खर्च करने के बाद आयरलैंड नें ईवीएम से चुनाव कराने से इनकार कर दिया. ब्रिटेन दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र में से एक है, पर उसकी संसद ने 2016 में तय किया कि वह वोटिंग मशीन का इस्तेमाल नहीं करेगी. फ्रांस में भी ईवीएम से चुनाव नहीं होता है. इटली में आज भी बैलेट पेपर ही लोकप्रिय है. अमेरिका के कुछ राज्यों में ईवीएम का इस्तेमाल होता है, पर राष्ट्रीय चुनाव पेपर पर ही होते हैं. यही नहीं जापान में जहाँ बैलेट पेपर से चुनाव होता है वहीं एक मतदाता दो बार वोट भी देता है.
राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)

26 जुलाई आरक्षण दिवस

26 जुलाई आरक्षण दिवस



"  भारत, दुनिया का एक मात्र ऐसा देश है जहाँ पर धार्मिक ठेकेदारों के व्यवहार में ही नहीं. बल्कि, उनके धर्मशास्त्रों में भी भारत की बहुसंख्यक आबादी को उनके मूलभूत अधिकारों जैसे, शिक्षा, संपत्ति, शास्त्र, स्वाभिमान, सम्मान आदि से वंचित रखने को जायज माना गया है " 

आज से 115 साल पहले 26 जुलाई 1902 को कोल्हापुर नरेश छत्रपति शाहूजी महाराज द्वारा पहली बार आधिकारिक शासनादेश के रूप में शुद्रों तथा अतिशूद्रों सहित सभी गैर ब्राह्मणों के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण का ऐलान किया गया था. राष्ट्रपिता ज्योतिराव फुले के ‘आनुपातिक आरक्षण’ से प्रेरणा लेते हुए सामाजिक परिवर्तन के महानायक एवं आरक्षण के जनक छत्रपति शाहूजी महाराज कोल्हापुर नरेश रहते हुए साल 1902 में कोल्हापुर के अंतर्गत शासन-प्रशासन के 50 प्रतिशत पद पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षित करने के आदेश दिए और इसे ‘करवीर गजट’ में प्रकाशित कराया. यही से वर्णवादी व्यवस्था से शोषित समाज के दबे, कुचले, पिछड़े मूलनिवासी बहुजन समाज को भागीदारी मिलने का सिलसिला शुरू हुआ. मूलनिवासी बहुजन समाज को छत्रपति शाहूजी महाराज द्वारा पहली बार शिक्षा, संपत्ति तथा आत्म सम्मान का अवसर मिला.


जानकारी के लिए बता देना चाहता हूँ की ऐसा भी नहीं है कि 1902 से पहले आरक्षण के क्रांति नहीं हुई? सबसे पहले सामाजिक क्रांति के अग्रदूत राष्ट्रपिता ज्योतिराव फुले ने 1869 में आरक्षण की चिंगारी जलाई थी. 1882 में जब हंटर कमीशन भारत आया उस वक्त राष्ट्रपिता जोतिराव फुले ने निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा के साथ सरकारी नौकरियों में सभी के लिए आनुपातिक आरक्षण (प्रतिनिधित्व) की मांग की. हमें एक बात ध्यान में रखने की जरूरत है कि आरक्षण की चिंगारी राष्ट्रपिता ज्योतिबा फुले ने जलाई थी. इससे प्रेरणा लेकर शाहूजी महाराज ने 26 जुलाई 1902 को कोल्हापुर में 50 प्रतिशत आरक्षण लागू किया था. फुले साहब का मानना था कि आनुपातिक आरक्षण का मांग अपने आप में सामाजिक न्याय को स्थापित करने की दिशा में बहुत ही क्रांतिकारी कदम है. यह प्रकृति का नैसर्गिक सिद्धांत है कि हर व्यक्ति को उसकी अनुपातिक हिस्सेदारी मिले. यह न्याय की सबसे सरल तथा सहज अवधारणा भी है.

अवसर में समानता के सिद्धांत को स्वीकार करते हुए ब्रिटिश सरकार ने 1908 में भारत की अनेक जातियों को आरक्षण उपलब्ध कराने का निर्णय लिया. बाद में इस आरक्षण को राष्ट्रीय स्तर पर लागू करते हुए भारत सरकार अधिनियम 1909 में आरक्षण को विधिवत कानूनी जामा पहनाया गया. इस तरह क्रियान्वयन में सुधार करते हुए भारत सरकार अधिनियम 1919 में आरक्षण का प्रावधान किया गया. गोलमेज सम्मेलन में बाबासाहब अंबेडकर ने अछूतों के लिए पृथक निर्वाचक की मांग की थी. लेकिन, गाँधीजी ने बाबासाहब अंबेडकर की इस मांग का कड़ा विरोध करते हुए यह ऐलान किया कि हम मर जायेंगे पर, अछूतों को पृथक निर्वाचक क्षेत्र नहीं देंगे. गाँधीजी द्वारा आमरण अनशन का ऐलान किए जाने पर बाबासाहब अंबेडकर को पूना पैक्ट पर 24 सितंबर 1932 को हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया गया. पूना पैक्ट में राजनीतिक आरक्षण का प्रावधान कर दिया गया. हक और अधिकारों की इस कड़ी में भारत सरकार अधिनियम 1935 में दिए गए आरक्षण तथा कैबिनेट मिशन 1946 की अनुपातिक आरक्षण संबंधित सिफारिश भी उल्लेखनीय है. अंततः अवसर मिलने पर बाबासाहब डॉ.अंबेडकर ने भारतीय संविधान में स्पष्ट रूप से अनुसूचित जाति, जनजाति, सामाजिक तथा शैक्षणिक दृष्टि से अन्य पिछड़ा वर्ग एवं अल्पसंख्यक वर्ग के लिए आनुपातिक आरक्षण का प्रावधान किया.

यह भी बता दें कि संवैधानिक प्रावधान के बावजूद भी तथाकथित आजादी के 42 साल बाद तक अन्य पिछड़ा वर्ग तथा अल्पसंख्यक वर्ग के संवैधानिक आरक्षण को दबाया गया था. अंततः इसका भी पर्दाफाश हो ही गया. 1978 में गठित मंडल कमीशन का मुख्य काम सामाजिक तथा शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों का मूल्यांकन करना था. मंडल कमीशन ने 1930-31 की जनसंख्या के आधार पर शोध करके अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) की जनसंख्या 52 प्रतिशत माना. मंडल कमीशन द्वारा प्रस्तुत 1980 की रिपोर्ट में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 49.50 प्रतिशत आरक्षण लागू करने की शिफारिश की. उधर मान्यवर कांशीराम साहब द्वारा जनचेतना तथा जनजागृति का आंदोलन धीरे-धीरे पूरे देश में छा चुका था. जिनके बदौलत मूलनिवासी बहुजन समाज आबादी के हिसाब से अपने हक की मांग करने लगा. इसके दवाब में प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग लागू करने की आड़ में बहुजनों को 85 प्रतिशत से घटाकर 50 प्रतिशत आरक्षण में समेट कर रख दिया. इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 16 नवंबर 1992 को 50 प्रतिशत आरक्षण की मर्यादा को अदालती बाध्यता बना दिया और 52 प्रतिशत ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण क्रीमीलेयर के साथ देने का प्रावधान किया. तब से लेकर आज तक प्रत्येक मामलों में अदालतों का रवैया बदलता रहता है. इस तरह से मूलनिवासी बहुजनों के साथ धोखेबाजी की गयी. 

सरकारों द्वारा जब आरक्षण पर सीधा हमला करना असंभव हो गया तो वह निजीकरण का रास्ता अपनाकर सरकारी नौकरियों को निजी कंपनियों के हवाले करने लगे. लिहाजा आरक्षण का कोई मतलब नहीं रह गया और आरक्षण पूरी तरह से खत्म हो गया. क्योंकि, निजी क्षेत्र में आरक्षण का कोई उपबंध ही नहीं है. हालांकि संविधान में संशोधन के द्वारा निजी क्षेत्र में आरक्षण की सुविधा दी गई है. परन्तु, इसे भी रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया है. क्योकि, केन्द्र से लेकर राज्यों की सरकारों तक पूँजीपतियों तथा कुबेरपतियों के दामन में बैठी हुई हैं. छत्रपति शाहूजी महाराज का मानना था कि आरक्षण केवल नौकरी का मामला नहीं है. बल्कि, आरक्षण प्रतिनिधित्व का मामला है. यही वजह है कि छत्रपति शाहूजी महाराज अनुपातिक प्रतिनिधित्व की वकालत करते हुए 26 जुलाई 1902 को 50 प्रतिशत अनुपातिक आरक्षण लागू किया. लेकिन, मनुवादी सरकारें उस संवैधानिक न्याय को समाप्त कर रही है. 

इसलिए संवैधानिक न्याय को सुनिश्चित करने के लिए हमें कोल्हापुर नरेश छत्रपति शाहूजी महाराज द्वारा 26 जुलाई 1902 को शुरू किये गये इस आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए जान की बाजी तक लगा देनी होगी तभी हम अपने अधिकारों को हासिल कर सकते हैं और सुरक्षा कर सकते हैं. आज बामसेफ और उसके सभी ऑफसूट संगठन वामन मेश्राम के नेतृत्व में इस दिशा में विगत कई सालों से संघर्ष कर रहा है. महापुरूषों के इस आंदोलन को सफल करने के लिए 85 प्रतिशत मूलनिवासी बहुजन समाज को ‘‘बुद्धि, पैसा, समय, श्रम और हुनर’’ देकर सहयोग करने की सख्त जरूरत है.

गुरुवार, 18 जुलाई 2019

मीडिया की करतूत


‘‘सत्य बात बोलना, सत्य बातों का प्रचार प्रसार करना ही मीडिया का बुनियादी उसूल है’’

भारत की मीडिया पर ब्राह्मण बनियों का पूर्ण रूप से कब्जा हो गया है. मीडिया को चालू हुए तकरीबन 234-35 साल हो रहे हैं. आज पूरे देश में तकरीबन 3840 टीवी चैनल और 5170 से ज्यादा समाचार पत्र हैं. लेकिन इन सभी समाचार पत्रों, टीवी चैनलों के मालिक बनिया हैं और संपादक ब्राह्मण हैं. टाईम्स ऑफ इंडिया का मालिक जैन बनिया, दैनिक जागरण का मालिक गुप्ता बनिया,  दैनिक भाष्कर का अग्रवाल बनिया, गुजरात समाचार का शाह बनिया, लोकमत का दरिणा बनिया, राजस्थान पत्रिका का कोठारी बनिया, नव भारत का जैन बनिया और अमर उजाला का मालिक महेश्वरी बनिया है. अगर टीवी चैनलों की बात करें तो लोकसभा टीवी के सीईओ राजिव मिश्रा, राज्य सभा टीवी के सीईओ राजेश बादल, डीडी दूरदर्शन के त्रिपुरारी शर्मा, प्रसार भारती के चेयरमैन एस सूर्य प्रकाश, पीटीआई के चेयरमैन एमएम गुप्ता, टाईम्स ग्रुप के सीईओ रविन्द्र धारीवाल, एक्सप्रेस ग्रुप के विवेक गोयंका और हिन्दू के सीईओ राजीव लोचन हैं. इस तरह से मीडिया पर पूरी तरह से ब्राह्मणों और बनियों का कब्जा हो गया है. जबकि एससी, एसटी, ओबीसी और मायनॉरिटी की संख्या जीरो है.


सत्य बात बोलना, सत्य बातों का प्रचार प्रसार करना ही मीडिया का बुनियादी उसूल है. परन्तु, भारतीय मीडिया, अपनी बुनियादी उसूलों से भटककर दलाली करने को ही अपना उसूल बना लिया है. असल में मीडिया चाटुकारिता का मार्ग प्रसस्त कर लिया है. या यूँ कहें कि किसी की चाटुकारिता करना मीडिया का दिनचर्या बन गया है. जिस मीडिया को देश की आवाज बनकर हकीकत को जनता से रूबरू कराना चाहिए, आज वही मीडिया विशेष वर्ग या सत्ता पक्ष की दलाली अथवा चाटुकारिता करने में गर्व महसूस कर रहा है. यह बात कहने में जरा भी अतिश्योक्ति नहीं है कि आजकल मीडिया पत्रकारिता छोड़कर चाटुकारिता करने लगा है. असल चीजों को छोड़कर गलत बातों का ही प्रचार-प्रसार करने में व्यस्त हो चुका है.

‘फ्रीडम ऑफ स्पीच’ अभिव्यक्ति की आजादी सबसे पहले तथागत बुद्ध ने बिहार में आर्य अष्टांगिक मार्ग के रूप में दिया. आर्य अष्टांगिक मार्ग में सम्यक वाणी का जिक्र है. यह सम्यक वाणी तथागत बुद्ध की ‘फ्रीडम ऑफ स्पीच’ का हिस्सा है. इसके बाद डॉ.बाबासाहब अम्बेडकर ने भारतीय संविधान के आर्टिकल 19 के तहत ‘फ्रीडम ऑफ स्पीच’ का अधिकार दिया. यह भी बता देना चाहता हूँ कि ‘फ्रीडम ऑफ स्पीच’ का मनोविज्ञान से गहरा नाता भी है. जैसे कोई ऑफिस में जाता है और उसे उसका बॉस डांट देता है, मगर व वहाँ कुछ भी नहीं बोलता है. लेकिन जैसे ही वह घर आता है गुस्सा उतारने लगता है. क्योंकि कोई भी चीज व्यक्ति के विचार में आती है. उसके बाद उसे अनुभूति होती है फिर उसे आचरण में उतारता है. इस तरह से ‘फ्रीडम ऑफ स्पीच’ का मनोविज्ञान से गहरा संबंध है. बाबासाहब ने हमें ‘फ्रीडम ऑफ स्पीच’ का एक महत्वपूर्ण हथियार दिया है. हमें इसका सही और बुद्धिमता से इसका उपयोग करना चाहिए. 

‘फ्रीडम ऑफ स्पीच’ हमारे महापुरूषों की देन है. इसी वाणी के हथियार को हमारे सभी संतों एवं महापुरूषों ने इस्तेमाल किया, जिसकी वजह से समाज में बड़े पैमाने पर जागृति आई. इसको लागू करने को लिए उनको बड़ा संघर्ष करना पड़ा. इसे लागू करने के लिए उन्होंने अपनी जानें तक गवां दी. क्योंकि ‘फ्रीडम ऑफ स्पीच’ को दबाने के लिए ब्राह्मणों ने महापुरूषों की हत्याएं कर दी. मगर, आज जो इसका साधन मीडिया है उसपर ब्राह्मणों का पूर्ण रूप से कब्जा हो गया है. 

मीडिया की ताकत बहुत बड़ी ताकत है. मीडिया चार प्रकार का है. प्रिंट मीडिया, इलेक्टा्रॅनिक मीडिया, वोकल मीडिया और ट्रेडिशनल मीडिया. मीडिया में बहुत बड़ी ताकत होती है. जिसके जरिए देश की हजारों साल व्यवस्था को बदला जा सकता है. इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि जिसकी कीमत टकाभर भी नहीं है वह आज मीडिया के जरिए महात्मा और बापू बने हुए हैं. यानी मीडिया का हमारे देश में सबसे ज्यादा दुरूपयोग हो रहा है. इसके बारे में हम आपको संक्षेप में बता रहे हैं. मीडिया को इधर चार-पाँच सालों से एक फोर्थ स्टेट कहा जाने लगा है. फोर्ट स्टेट का मतलब है सरकार को चलाने वाला चौथा अंग. जैसे पहला है विधायिका (संसद) जहाँ जनता द्वारा प्रतिनिधि चुनकर जाते हैं. दूसरा है कार्यपालिका, तीसरा है न्यायपालिका और चौथा मीडिया है.

आजाद भारत में ब्राह्मणों द्वारा ब्राह्मण-बनिया प्रचार माध्यमों का निर्माण किया गया. गुलाम भारत में गाँधी जी ने ऐसे ही तंत्र का निर्माण करने के लिए विशेष अभियान चलाया था जिसका नाम था स्वदेशी आंदोलन. इस आंदोलन के पीछे एक ही मकशद था कि ब्राह्मण और बनिया का साँठ-गाँठ बनाकर व्यवस्था पर नियंत्रण किया जाय. गाँधी जी ने स्वदेशी वस्त्रों का आंदोलन चलाया और विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया.  इससे भारत के बनियों को गाँधी ने बढ़ावा दिया और ये पूँजीपति के रूप में बनियों को सामने लाया जो बाद में यही टाटा, बिड़ला आदि नामों से जाने लगे. ब्राह्मणों को खुश करने के लिए गाँधी ने स्वदेशी शिक्षा अभियान चलाया, जिसकी वजह से वाराणसी में पं.मदनमोहन मालवीय ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का शिलान्यास गाँधीजी के हाथ से करवाया था. यह वही मदनमोहन मालवीय है जब बाबासाहब मजदूर मंत्री रहते हुए कहा था कि ‘‘एससी, एसटी ओबीसी और अल्पसंख्यकों को शिक्षा लेनी चाहिए’’ तब मालवीय ने इसका सबसे ज्यादा घोर विरोध किया था. तब बाबासाहब ने उसके मुँह पर ही कहा था कि ‘‘तुम्हारे विश्वविद्यालय में जो ज्ञान दिया जाता है वह पोंगापंथी ज्ञान है’’ 

ब्राह्मणों ने स्वदेशी के नाम पर बहुत सारे गोरखधंधा किया जिसमें से मीडिया भी है, जिस पर ब्राह्मणों ने पूर्ण रूप से कब्जा कर लिया. काका कालेलकर नाम के ब्राह्मण ने अपने जीवनी में बड़े गर्व से मीडिया औश्र पूरे तंत्रों को लेकर लिखा है कि ‘‘जनता को अपने प्रभाव के नीचे रखने का सामर्थ्य जिन लोगों के हाथों में होता है उनको अगर हम कोई पुराना नाम देना चाहते हैं तो उसे ‘ब्राह्मण’ ही कह सकते हैं’’ 


अरबों की संपत्ति किस काम की.....?



"सरकार कहती है कि विदेश में छुपे कालेधन को बाहर लाया जायेगा. क्या सरकार को इस बात की जानकारी नहीं है कि जितना ज्यादा विदेशों में कालाधन है उससे ज्यादा भारत में उपरोक्त मंदिरों में छिपाकर रखा गया है? सरकार इन मंदिरों की संपत्ति को क्यों नहीं ‘‘राष्ट्र की संपत्ति’’ घोषित कर देती है. अगर सरकार मंदिरों की संपत्ति को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर दे चंद मिनटों में भारत से गरीबी खत्म हो जायेगी, लेकिन सरकार ही नहीं चाहती है. क्योंकि सरकार ने देश में जानबूझकर बेरोजगारी, गरीबी और भुखमरी पैदा करके देश के 85 प्रतिशत मूलनिवासी बहुजनों का नरसंहार कर रही है और इन मंदिरों की अकूत संपत्ति से ब्राह्मणवादी व्यवस्था को मजबूत कर रही है"

एक तरफ देश में जहाँ बेरोजगारी, गरीबी और भुखमरी से हाहाकार मचा है तो वहीं दूसरी तरफ मंदिरों में अकूत संपत्ति का पहाड़ खड़ा हो रहा है. हाल ही में यूएन की रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि भारत में अनु.जनजाति और अनु.जाति गरीबी का दंश झेल रहें हैं. इसके साथ ही मुस्लिमों की भी हालत बद से बद्तर बन चुकी है. युनो की रिपोर्ट मे कहा हैं की भारत में 33 फिसदी एससी, 50 फिसदी एसटी और 33 फिसदी मुस्लिम वैश्विक स्तर पर बहुआयामी गरीबी का सबसे ज्यादा दंश झेल रहे हैं. इसके बाद भी देश के मंदिरों की संपत्ति में बेतहासा बढ़ोत्तरी हो रही है. आखिर मंदिरों में रखे अकूत संपत्ति किस काम की है...?

बता दें कि पूर्ववर्ती वसुंधरा सरकार ने राजस्थान के पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए टैग लाइन दी थी. लेकिन, पूर्ववर्ती वसुंधरा सरकार राजस्थान के बाहर स्थित देवस्थान विभाग की अरबों रुपयों की अचल संपदा का लेखा-जोखा नहीं जुटा सकीं. यह हाल केवल राजस्थान की ही नहीं, बल्कि पूरे देश के मंदिरों की है. इस बात खुलासा तब हुआ जब प्रदेश के पर्यटन, देवस्थान मंत्री विश्वेंद्र सिंह ने प्रदेश के बाहर स्थित देवस्थान विभाग के मंदिरों की जानकारी मांगी, तो पता चला कि अरबों रुपयों की देवस्थान विभाग की संपत्ति का कोई लेखा-जोखा विभाग के पास नहीं है. देवस्थान मंत्री विश्वेंद्र सिंह ने बताया कि विभाग के पास प्रदेश के बाहर स्थित मंदिरों की जानकारी तो है, लेकिन अचल संपत्ति का ब्यौरा नहीं है. उन्होंने कहा कि इसी तरह प्रदेश के अंदर भी देवस्थान विभाग की संपत्ति का यही हाल है. वहीं देवस्थान विभाग के अधीन मंदिरों में सबसे पहले बात करें दिल्ली की, तो यहाँ जंतर-मंतर स्थित भैरूजी का मंदिर देवस्थान विभाग के अधीन आता है और 2066 वर्गमीटर भूमि पर स्थित है. लेकिन, आय-व्यय, दुकानों आदि की जानकारी विभाग के पास नहीं है.

अब बात करें महाराष्ट्र की तो यहाँ अमरावती में हनुमानजी और छत्री राजा मान सिंह प्रथम अचलपुरा में स्थित है. औरंगाबाद में हनुमान जी का मंदिर पडे़गाँव में स्थित है. इस मंदिर के पास 1.27 एकड़ कृषि भूमि है. औरंगाबाद में ही बेगमपुरा में विठ्ठलदास जी, कर्णपुरा में तुलजा माता का मंदिर है. यही पर बाला जी का मंदिर स्थित है और इस मंदिर के पास 2.24 एकड़ कृषि भूमि है. वहीं वैष्णव बालाजी, हनुमानजी का मंदिर भी स्थित है. लेकिन, कितनी कृषि भूमि है, कितनी खुली भूमि है, क्या लेखा-जोखा है, यह देवस्थान विभाग के पास नहीं है. गुजरात में द्वरका में श्री मुरली मनोहर जी का मंदिर देवस्थान विभाग की संपत्ति है. यहाँ पर एक आवासीय मकान है, लेकिन अन्य ब्यौरा विभाग के पास नहीं है. उत्तर प्रदेश की बात करें तो यहाँ मथुरा के वृंदावन में श्री राधामाधव जी जयपुर मंदिर स्थित है. यहां पर 12 मकान है. श्री राधाकांत जी मंदिर, श्री कुल बिहारी मंदिर बरसाना में भी स्थित है. यहां पर 1 आवासीय मकान है और 4 एकड़ कृषि भूमि है. लेकिन, आय-व्यय और अन्य अचल संपदा का ब्यौरा विभाग के पास नहीं है. एटा में मंदिर श्री बलदेवजी सोराघाट सोरो में स्थित है, लेकिन अचल संपदा का लेखा-जोखा विभाग के पास नहीं है. वहीं वाराणसी में श्री रामेवर जी जयपुर मंदिर, श्री महादेव जी (अलवर) मंदिर की संपत्ति का ब्यौरा नहीं है. वहीं वाराणसी के मंदिर श्री आदि विवे वरनाथ जी के यहां 1 आवासीय और 3 तीन दुकाने है. लेकिन, श्री डूंगरे वरजी बीकानेर मंदिर श्री दिवाने वरीज उदयपुर मंदिर, श्री अन्नपूर्णा जी जयपुर मंदिर की अचल संपत्ति का ब्यौरा देवस्थान विभाग के पास नहीं है.

यूपी के मथुरा में श्री मदनमोहन जी उदयपुर मंदिर, स्वामी घाट, मंदिर श्री चतुरशिरोणी जी जयपुर, श्री हरि शिरोमणी जी करौली, श्री गोकलानंद जी वृंदावन, श्री कुंज पार्वती जी भरतपुर मंदिर, श्री कुंज बदन सिंह भरतपुर मंदिर, श्री अजब मनोहर जी बीकानेर मंदिर, श्री रूपकिशोर जी बीकानेर मंदिर, श्री लक्ष्मण जी भरतपुर मंदिर, श्री बिहारी जी भरतपुर मंदिर, श्री किशोर याम जी भरतपुर मंदिर, श्री कुंजलाल दास भरतपुर मंदिर, श्री जुगल किशोर जी भरतपुर मंदिर स्थित है. वाराणसी में श्री डूंगेश्वर जी बीकानेर मंदिर, धर्मशाला डूंगेश्वर जी मय मंदिर, मंदिर श्री गोरखनाथ जी गोरखटीला जोधपुर मंदिर स्थित है. यवतमाल में श्री ऋशभदेव जी धुलेव उदयपुर मंदिर स्थित है. यहाँ पर इस मंदिर के पास 29.18 एकड़ कृषि भूमि है. लेकिन, आय-व्यय और अचल संपत्ति का लेखा-जोखा नहीं है. जबकि, उत्तराखंड में श्री गंगा मंदिर हरिद्वार में 10 आवासीय संपति है. उत्तरकाशी में श्री एकाद रूद्रजी व अंबिका जी मंदिर. यहाँ पर 11 आवासीय मकान, 18 व्यावसायिक दुकानें, श्री जयपुर धर्मशाला, जयपुर धर्मशाला धरौली, जयपुर धर्मशाला गंगोत्री स्थित है. वहीं नैनीताल में श्री लल्ली स्मारक बाग भुवाली में मंदिर स्थित है. मगर, एक भी मंदिरों की अकूत संपत्ति का सरकार के पास कोई भी लेखा-जोखा नहीं है. 

सरकार कहती है कि विदेश में छुपे कालेधन को बाहर लाया जायेगा. क्या सरकार को इस बात की जानकारी नहीं है कि जितना ज्यादा विदेशों में कालाधन है उससे ज्यादा भारत में उपरोक्त मंदिरों में छिपाकर रखा गया है? सरकार इन मंदिरों की संपत्ति को क्यों नहीं ‘‘राष्ट्र की संपत्ति’’ घोषित कर देती है. अगर सरकार मंदिरों की संपत्ति को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर दे चंद मिनटों में भारत से गरीबी खत्म हो जायेगी, लेकिन सरकार ही नहीं चाहती है. क्योंकि सरकार ने देश में जानबूझकर बेरोजगारी, गरीबी और भुखमरी पैदा करके देश के 85 प्रतिशत मूलनिवासी बहुजनों का नरसंहार कर रही है और इन मंदिरों की अकूत संपत्ति से ब्राह्मणवादी व्यवस्था को मजबूत कर रही है.

सोमवार, 1 जुलाई 2019

बालश्रम की बेड़ियों में जकड़ा भारत : भारत में काम करने वाले हर 10 में से छह बच्चे खेतों में करते हैं मजदूरी :सर्वे


बालश्रम की चपेट में 12 करोड़ से ज्यादा बच्चे

संपादकः राजकुमार (दैनिक मूलनिवासी नायक)


 विगत पाँच सालों से केन्द्र की मोदी सरकार देश की तरक्की का ढोल पीट रही है. सरकार का दावा है कि उसने देश की तरक्की का पूरी दुनिया में झण्डा में गाड़ दिया है. लेकिन, भारत की तस्वीर देखने के बाद रूह काँप उठती है. मोदी सरकर के बीते पाँच सालों में यह देश की तरक्की ही है कि पाँच साल बाद भी भारत बालश्रम की बेड़ियों में बुरी तरह से जड़का हुआ है. जिसकी चपेट में 12 करोड़ से ज्यादा वो बच्चें हैं. जिनके हाथों में किताबें और होठों पर मुस्कानें होनी चाहिए थी आज उनके हाथों में हथौड़े, फावड़े और उनकी आँखों में आँसूओं के साथ होठों से दर्द भरी सिसकारियाँ फूट रही है. यह मोदी सरकार के बीते पाँच सालों का ही कमाल है कि भारत में काम करने वाले हर 10 में से 6 बच्चे खेतों में काम करते हैं.


आपको यह जानकर हैरानी होगी कि भारत में बाल मजदूरी करने वाले ज्यादातर बच्चे किसी फैक्टरी या वर्कशॉप में तो काम करते ही हैं. साथ ही शहरी क्षेत्रों में घरेलू नौकर या गलियों में सामान बेचने के अलावा ज्यादातर बच्चे खेतों में भी काम करते हैं. ये बच्चे फसलों की बुवाई, कटाई, फसलों पर कीटनाशक छिड़कना, खाद डालना, पशुओं और पौधों की देखभल करना, जैसे काम भी करते हैं. बाल मजदूरी निषेध दिवस 12 जून को ‘क्राई-चाइल्ड राईट्स एंड यू’ द्वारा जारी एक रिपोर्ट में यह बात कही गई है. साल 2016 में जारी 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार 18 वर्ष से कम उम्र के 62.5 फीसदी बच्चे खेती या इससे जुड़े अन्य व्यवसायों में काम करते हैं. यदि आंकड़ों की बात करें तो काम करने वाले 4 करोड़ 3 लाख 40 हजार बच्चों और किशोरों में से 2 करोड़ 52 लाख 30 हजार बच्चे कृषि क्षेत्र में काम कर रहे हैं.


हाल ही में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार, भारत में लगभग 15 करोड़ 20 लाख बच्चे बाल मजदूरी करते हैं. मजदूरी करने वाले इन 10 बच्चों में से 7 बच्चे खेती का काम करते हैं. भारत के मौजूदा रूझानों से भी कुछ ऐसी ही तस्वीर सामने आई है कि यहाँ 60 फीसदी से अधिक बच्चे खेती या इससे संबंधित अन्य गतिविधियों में काम कर रहे हैं. अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन का कहना है कि खेती दुनिया भर में दूसरा सबसे खतरनाक व्यवसाय है.

कुछ राज्यों में बच्चों के जो आंकड़े सामने आए हैं, वे भारतीय औसत की तुलना में अधिक हैं. हिमाचल प्रदेश में खेती करने वाले बच्चों की संख्या बहुत अधिक यानी 86.33 फीसदी बताई गई है. छत्तीसगढ़ और नागालैंड में यह प्रतिशत क्रमशः 85.09 एवं 80.14 फीसदी है. बड़े राज्यों की बात करें तो मध्यप्रदेश में यह संख्या 78.36 फीसदी, राजस्थान में 74.69 फीसदी, बिहार में 72.35 फीसदी, उड़ीसा में 69 फीसदी और असम में 62.42 फीसदी है. कुल मिलाकर भारत में 5-19 वर्ष के 4 करोड़ 3 लाख 40 हजार बच्चे और किशोर काम करते हैं. इनमें से 62 फीसदी लड़के और 38 फीसदी लड़कियाँ शामिल हैं. 

क्राई-चाइल्ड राईट्स एंड यू द्वारा 2011 की जनगणना के आंकड़ों के विश्लेषण से पता चला कि खेतों में मजदूरी करने वाले ज्यादातर बच्चे पढ़ाई नहीं कर पाते हैं. 5-19 वर्ष के 4 करोड़ 3 लाख 40 हजार काम करने वाले बच्चों और किशोरों में से मात्र 99 लाख बच्चे ही स्कूल जा पाते हैं, यानी काम करने वाले 24.5 फीसदी बच्चे ही स्कूल जाते हैं. आसान शब्दों में कहें तो काम करने वाले हर चार में तीन बच्चों से उनकी शिक्षा का अधिकार छीन लिया जाता है. 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार शिक्षा के अधिकार के प्रावधान के बावजूद खेतों में मजदूरी करने वाले बहुत कम बच्चे ही अपनी पढ़ाई जारी रख पाते हैं. 

पॉलिसी एडवोकेसी एंड रिसर्च की निदेशक प्रीति महारा के मुताबिक, बाल मजदूरी के कानूनों के अनुसार 14 साल से कम उम्र के बच्चे स्कूल के बाद ही अपने परिवार के कारोबार में मदद कर सकते हैं. बच्चों के इस परिप्रेक्ष्य से देखा जाए तो खेतों में मजदूरी करना बच्चों के लिए खतरनाक है. वजह, इस क्षेत्र की अपनी कई चुनौतियाँ हैं, जैसे कीटनाशकों का स्प्रे और खेती कार्यों में उपकरणों का इस्तेमाल, आदि से बच्चों के विकास में बाधा आती है. उनके शरीर पर बुरा असर पड़ता है. पिछले चार दशकों के अनुभव बताते हैं कि हमारे देश में खेती का ज्यादातर काम ऐसी परिस्थितियों में किया जाता है, जब काम और जीवन के बीच विशेष सीमा नहीं होती है. खेतों में काम करने वाले बच्चे खतरनाक कीटनाशकों तथा इनकी वजह से प्रदूषित हुए पानी एवं भोजन के संपर्क में रहते हैं. खेतों में लंबे समय तक काम करने के दौरान बच्चों को कम उम्र में बहुत ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है, जैसे लंबे समय तक खड़े रहना, झुकना और भारी बोझ उठाना. यही नहीं विगत पाँच सालों में देश का इतना ज्यादा विकास हुआ है कि भारत, दुनिया के विकसित देशों की सूची से बाहर हो गया है.