गुरुवार, 28 नवंबर 2019

क्रांतिसूर्य राष्ट्रपिता ज्योतिराव फुले


भारत में सर्वप्रथम विद्यालय खोलकर शिक्षा की अलख जगाने वाले, भारतीय शिक्षा आयोग 1882 (हण्टर कमीशन) के समक्ष सर्वप्रथम नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा के साथ ही सरकारी नौकरियों में भी सभी के लिए आनुपातिक प्रतिनिधित्व की मांग करने वाले व्यवस्था परिवर्तक क्रांति ज्योति राष्ट्रपिता जोतिबा फुले को उनके 129वें स्मृतिदिन पर सादर नमन!


राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)
ज्योतिराव गोविंदराव फुले का जन्म 11 अप्रेल 1827 को पुणे में महाराष्ट्र की एक ‘माली’ जाति में हुआ था. ज्योतिबा के पिता का नाम गोविन्द राव तथा माता का नाम विमला बाई था. एक साल की उम्र में ही ज्योतिबा फुले की माता का देहान्त हो गया. पिता गोविन्द राव जी ने आगे चल कर सुगणा बाई नामक विधवा जिसे वे अपनी मुह बोली बहिन मानते थे, उन्हें बच्चों की देख-भाल के लिए रख लिया. ज्योतिबा को पढ़ाने की ललक से पिता ने उन्हें पाठशाला में भेजा था. मगर, स्वर्णों ने उन्हें स्कूल से वापिस बुलाने पर मजबूर कर दिया. अब ज्योतिबा अपने पिता के साथ माली का कार्य करने लगे. काम के बाद वे आस-पड़ोस के लोगों से देश-दुनिया की बातें करते और किताबें पढ़ते थे. उन्होंने मराठी शिक्षा सन् 1831 से 1838 तक प्राप्त की. सन् 1840 में तेरह साल की छोटी सी उम्र में ही जोतिबा का विवाह नो वर्षीय सावित्री बाई (1831-1897) से हुआ. आगे जोतिबा का नाम स्काटिश मिशन नाम के स्कूल (1841-1847) में लिखा दिया गया, जहाँ पर उन्होंने थामसपेन की किता ‘राइट्स ऑफ मेन’ एवं ‘दी एज ऑफ रीजन’ पढ़ी, जिसका उनपर काफी असर पड़ा.

एक बार ज्योतिबा स्कूल के अपने एक ब्राह्मण मित्र की शादी में गये थे, उन्हें वहाँ पर अपमानित होना पड़ा था. बड़े होने पर उन्होंने इन रूढ़ियों के प्रतिकार का विचार पक्का किया. 1848 में उन्होंने अछूतों के लिए पहला स्कूल पुणे में खोला. यह भारत के तीन हजार साल के इतिहास में ऐसा पहला स्कूल था जो अछूतो और शुद्रो के लिए था. 1848 में यह स्कूल खोलकर महात्मा फुले ने उस वक्त के समाज के ठकेदारों को नाराज कर दिया था. ज्योतिबा के पिता गोविन्द राव जी भी उस वक्त के सामंती समाज के बहुत ही महत्वपूर्ण व्यक्ति थे. इस कारण उनके पिता पर काफी दबाव पड़ा तो उनके पिता ने उनसे आकर कहा कि या तो स्कूल बंद करो या घर छोड़ दो. तब जोतिबा फुले एवं उनकी पत्नि साबित्री बाई ने सन् 1849 में घर छोड़ दिया. सामाजिक बहिष्कार का जवाब महात्मा फुले ने 1851 में दो और स्कूल खोलकर दिया. सन् 1855 में उन्होंने पुणे में भारत की प्रथम रात्रि प्रौढ़शाला और 1852 में मराठी पुस्तकों के प्रथम पुस्तकालय की स्थापना की.

ज्योतिबा ने भारत का पहला लड़कियों की शिक्षा के लिए स्कूल खोला, जिसमें पढ़ाने के लिए कोई भी तैयार नहीं हुआ. तब ज्योतिबा ने अपनी पत्नी सावित्रीबाई को पढ़ाया और सावित्री ने ही स्वयं यह जिम्मेदारी उठाकर लड़कियों के स्कूल मे पढ़ाना आरंभ किया. इस तरह सावीत्रीबाई देश की पहली महिला शिक्षिका थीं.।उन्हें तंग करने के लिए शुरू में उनपर गोबर और पत्थर फेंके जाते थे, पर वे पीछे नहीं हटीं. जब 1868 में उनके पिताजी का देहान्त हुआ तो ज्योतिबा ने अपने परिवार के पीने के पानी वाले तालाब को अछूतों के लिए खोल दिया. मुम्बई सरकार के अभिलेखों में ज्योतिबा फुले द्वारा पुणे एवं उसके आस-पास के क्षेत्रों में शुद्र बालक-बालिकाओं के लिए कुल 18 स्कूल खोले जाने का उल्लेख मिलता है. अपने समाज सुधारों के लिए पुणे महाविद्यालय के प्राचार्य ने अंग्रेज सरकार के निर्देश पर उन्हें पुरस्कृत किया और वे चर्चा में आए. इससे चिढ़कर कुछ अछूतों को ही पैसा देकर उनकी हत्या कराने की कोशिश की गई, पर वे उनके शिष्य बन गए.

सितम्बर 1873 में इन्होने महाराष्ट्र में ‘सत्य शोधक समाज’ नामक संगठन का गठन किया और इसी वर्ष उनकी पुस्तक ‘गुलाम गिरी’ का प्रकाशन हुआ. महात्मा फुले एक समता मूलक और न्याय पर आधारित समाज की बात करते थे. इसलिए उन्होंने अपनी रचनाओं में किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए विस्तृत योजना का उल्लेख किया है. पशुपालन, खेती, सिंचाई व्यवस्था सबके बारे में उन्होंने विस्तार से लिखा है. गरीबों के बच्चों की शिक्षा पर उन्होंने बहुत जोर दिया. उन्होंने आज के 150 साल पहले कृषि शिक्षा के लिए विद्यालयों की स्थापना की बात की थी. जानकार बताते हैं कि 1875 में पुणे और अहमद नगर जिलों का जो किसानों का आंदोलन था, वह महात्मा फुले की प्रेरणा से ही हुआ था. उस दौर के समाज सुधारकों में किसानों के बारे में विस्तार से सोच-विचार करने का रिवाज़ नहीं था. लेकिन, महात्मा फुले ने इस सबको अपने आंदोलन का हिस्सा बनाया. वहीं स्त्रियों के बारे में महात्मा फुले के विचार क्रांतिकारी थे. मनु की व्यवस्था में सभी वर्णों की औरतें शूद्र वाली श्रेणी में गिनी गयी थीं.लेकिन, फुले ने स्त्री पुरुष को बराबर समझा. उन्होंने औरतों की आर्य भट्ट यानी ब्राह्मणवादी व्याख्या को गलत बताया. फुले ने विवाह प्रथा में बड़े सुधार की बात की. प्रचलित विवाह प्रथा के कर्मकांड में स्त्री को पुरुष के अधीन माना जाता था. लेकिन, महात्मा फुले का दर्शन हर स्तर पर गैरबराबरी का विरोध करता था.

एक बार स्वामी दयानंद ने जब मुम्बई में आर्य समाज की स्थापना की तो सनातनियों के विरोध को देखते हुए उन्हें ज्योतिबा की मदद लेनी पड़ी. ज्योतिबा ने शराब बंदी के लिए भी काम किया था. एक गर्भवती ब्राह्मण विधवा को आत्महत्या करने से रोक उन्होंने उसके बच्चे को गोद ले लिया. जिसका नाम यशवंत रखा गया. अपनी वसीयत ज्योतिबा ने यशवंत के नाम कर दी थी. सन् 1890 में ज्योतिबा के दांए अंगों को लकवा मार गया तब भी वे बाएं हाथ से सार्वजानिक सत्य धर्म नामक किताब लिखी. 28 नवम्बर 1890 में राष्ट्रपिता महात्मा ज्योतिराव फुले नाम का सूरज हमेशा-हमेशा के लिए डूब गया. डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर तो महात्मा फुले के व्यक्तित्व-कृतित्व से अत्यधिक प्रभावित थे. वे महात्मा फुले को अपने सामाजिक आंदोलन की प्ररेणा का स्रोत मानते थे. 28 अक्टूबर 1954 को पुरूंदर स्टेडियम, मुम्बई में भाषण देते हुए उन्होंने महात्मा बुद्ध तथा कबीर के बाद महात्मा फुले को अपना तीसरा गुरू माना. डॉ.बाबासाहब अम्बेडकर ने अपने भाषण में कहा मेरे तृतीय गुरू ज्योतिबा फुले हैं. केवल उन्होंने ही मानवता का पाठ पढाया. प्रारम्भिक राजनीतिक आन्दोलन में हमने ज्योतिबा के पथ का अनुसरण किया, मेरा जीवन उनसे प्रभावित हुआ है. डॉ.बाबासाहब अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक ‘‘शूद्र कौन थे?’’ को 10 अक्टूबर 1946 को महात्मा फुले को समर्पित करते हुए लिखा ‘‘जिन्होंने हिन्दू समाज की छोटी जातियों को, उच्च वर्णो के प्रति उनकी गुलामी की भावना के सम्बंध में जागृत किया और जिन्होंने विदेशी शासन से मुक्ती पाने से भी सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना अधिक महत्वपूर्ण है, इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया, उस आधुनिक भारत के महान महात्मा फुले की स्मृति में सादर समर्पित.’’ भारत सरकार ने 28 नवंबर1977 को उनके 87वें स्मृति दिन पर 25पैसे का डाक टिकट जारी किया था।

रविवार, 3 नवंबर 2019

भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने पर उतावली मोदी सरकार


राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)
यह बात कई बार साबित हो चुकी है कि संघ संचालित मोदी सरकार, देश को ‘हिन्दू राष्ट्र’ घोषित करने के लिए ही ‘तीन तलाक’ को खत्म किया था. क्योंकि, जब तक देश में ‘तीन तलाक’ लागू रहेगा, तब तक ‘एक देश, एक कानून’ (यूनिफार्म सिविल कोड) लागू नहीं हो सकता है और जब तक यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू नहीं होगा तब देश को हिन्दू राष्ट्र घोषित करना शासक जातियों के लिए टेढ़ी खीर साबित होगा. यही कारण है कि संघ के इशारे पर मोदी सरकार ने सबसे पहले ‘तीन तलाक’ को खत्म किया और हिन्दू राष्ट्र बनाने का रास्ता आसान कर लिया. अब मोदी सरकार बड़ी ही आसानी से देश में ‘यूनिफार्म सिविल कोड’ लागू करने की तैयारी कर रही है. बता दें कि तीन तलाक और जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 के अधिकतर प्रावधानों को खत्म करने के बाद संघ संचालित केंद्र की मोदी सरकार दिसंबर, 2019 में यूनिफॉर्म सिविल कोड बिल संसद में पेश कर सकती है.

एक अंग्रेजी वेबसाइट ने सूत्रों के हवाले से यह जानकारी दी गई है. टाइम्स नाऊ ने सूत्रों के हवाले से बताया कि कॉमन सिविल कोड (यूसीसी) का मसौदा तैयार किया जा रहा है. यह भी बता दें कि यूनिफॉर्म सिविल कोड बिल आरएसएस के एजेंडे का प्रमुख हिस्सा रहा है. खास तौर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी कानून के रूप में इसे लागू करने की मांग कर रहा है. न्यायमूर्ति बीएस चौहान की अध्यक्षता वाले लॉ कमिशन की ओर से कानून मंत्रालय को भेजे परामर्श पत्र में कहा कि यूसीसी की अभी जरुरत नहीं है. संविधान सभा मे हुई बहस से पता चलता है कि यूसीसी को लेकर सभा में भी सर्वसम्मति नहीं थी. कई लोगों का मानना है कि यूसीसी और पर्सनल लॉ सिस्टम साथ-साथ रहना चाहिए, जबकि कुछ का मानना था कि यूसीसी को पर्सनल लॉ की जगह लाया जाना चाहिए.बहस के दौरान कुछ का यह भी मानना था कि यूसीसी का मतलब धर्म की आजादी को खत्म करना है.

अब सवाल यह है कि यूनिफॉर्म सिविल कोड क्या है और इसे आरएसएस क्यों लागू करवाना चाहता है? असल में यूनिफॉर्म सिविल कोड, समान नागरिक संहिता है. देश के सभी नागरिकों पर एक ही कानून लागू होगा, चाहे वह किसी जाति या धर्म का हो. इसे डॉ.बाबासाहब अम्बेडकर अपने जीतेजी लागू करना चाहते थे. मगर, कांग्रेस और नेहरू ने इसका विरोध किया. क्योंकि, कांग्रेस, नेहरू और उनकी पूरी मंडली जानती थी कि अगर डॉ.अम्बेडकर के अनुसार कॉमन सिविल कोड लागू हो गया तो सभी को समान अधिकार देने होंगे. इसलिए कॉमन सिविल कोड का उस समय विरोध किया और अब उसे लागू करना चाहते हैं. ऐसा करने के पीछे उनकी मंशा है कि हिन्दुओं के आधार पर कॉमन सिविल कोड को रूप दे सकें. यदि देखा जाए तो तीन तलाक को खत्म करने के पीछे शासन-प्रशासन पर कब्जा करने वाले यूरेशियन ब्राह्मणों की एक बहुत ही भयंकर साजिश थी जो अब उभर कर सामने आ गई है. असल में तीन तलाक के माध्यम से निशाना मुसलमानों पर लगाया गया. लेकिन, शिकार एससी, एसटी और ओबीसी बने. क्योंकि, तीन तलाक को इसलिए खत्म किया गया है ताकि ‘‘कॉमन सिविल कोड’’ को आसानी से लागू किया जा सके. इसलिए सबसे पहले तीन तलाक को खत्म करने के लिए ब्राह्मणों ने षड्यंत्र किया.

षड्यंत्र यह था कि अक्टूबर 2015 में कर्नाटक की रहने वाली ब्राह्मणवादी हिन्दू महिला फूलवंती उसके पति प्रकाश के बीच शादी को लेकर झगड़ा हुआ और उसके पति प्रकाश ने फूलवंती को तलाक अर्थात रिस्ता तोड़ दिया. फूलवंती ने हिन्दू उत्तराधिकारी कानून के तहत पैतृक संपत्ति में अपना हिस्सा पाने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. 16 अक्टूबर 2016 को सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने हिन्दू उत्तराधिकारी के बारे में कमियों को दशार्ते हुए टिप्पणी की. हिन्दू कमियों पर बात उठते ही प्रतिवादी ब्राह्मण वकील शासक वर्ग द्वारा बनाए गये प्लान के अनुसार हिन्दू के मामलों को मुस्लिमों के तीन तलाक से जोड़ दिया. फिर ब्राह्मण वकील ने कहा कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड में भी बहुत से ऐसे कानून हैं जो महिलाओं के खिलाफ हैं. यह सुनते ही सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने तलाक के मामलों में मुस्लिम महिलाओं के साथ हो रहे भेदभाव की पड़ताल करने के लिए देश के मुख्य न्यायाधीश को एक खास बेंच गठित करने का आदेश दे दिया. बस यहीं से प्रकाश व फूलवंती की सुनवाई हमेशा-हमेशा के लिए बंद कर दिया और मुस्लिमों में तीन तलाक का नया मुद्दा बनाकर अंततः उसे खत्म कर दिया.

इसी प्लान के अनुसार ही फरवरी 2016 में ही उत्तराखण्ड की मुस्लिम महिला शायरा बानों ने अपने पति द्वारा दिए गए तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट में अर्जी लगा चुकी थी. तब से ब्राह्मणवादी वकील, जज और सरकार तीन तलाक को खत्म करने के लिए समय-समय पर मुद्दा बनाकर उछालते रहे. अब यहाँ पर गौर करने वाली बात है कि सुप्रीम कोर्ट में जब केस हिन्दू उत्तराधिकारी कानून के तहत हिन्दू का मामला चल रहा था तो सुप्रीम कोर्ट या प्रतिवादी को मुस्लिमों ने तीन तलाक का मामला क्यों उठाया? यह मामला इसलिए उठाया ताकि तीन तलाक को खत्म कर कॉमन सिविल कोड को आसानी से लागू किया जा सके. यदि सुप्रीम कोर्ट में मामला हिन्दू का चल रहा था तो फैसला हिन्दू के पक्ष या विरोध में होना चाहिए था, लेकिन फैसला मुसलमानों में तीन तलाक को लेकर न केवल जानबूझकर मामला उठाया गया बल्कि मुस्लिम महिलाओं के साथ भेदभाव जांच कमेटि भी गठित किया गया.

दूसरा सवाल यह है कि तीन तलाक को खत्म कर कॉमन सिविल कोड क्यों लागू करना चाहते हैं? इसका जवाब है कि कॉमन सिविल कोड पर सरकार का मानना है कि देश में सभी धर्मों पर केवल एक ही कानून लागू होगा. वह चाहे हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईशाई, बौद्ध और जैन ही क्यों न हो. जबकि, देश में अलग-अलग जाति, अलग-अलग धर्म के लोग निवास करते हैं. साथ ही उनकी अलग-अलग कस्टमरी लॉ, परम्पराएं, व्यवस्था और रिवाज हैं. यदि कॉमन सिविल कोड लागू होगा तो देश के अलग-अलग जाति, समूह, सांस्कृति, धर्म के लोगों पर एक ही कानून लागू हो जायेगा. इससे न केवल उनकी पहचान खत्म हो जाएगी, बल्कि उनका इतिहास भी मिट जायेगा. यही कारण है कि यूरेशियन ब्राह्मण देश में कॉमन सिविल कोड लागू करके देश के 85 प्रतिशत मूलनिवासी बहुजनों के इतिहास और पहचान को खत्म करना चाहते हैं. क्योंकि, अगर कॉमन सिविल कोड लागू होगा तो लोकतंत्र के चारों स्तम्भों पर कब्जा करने वाले यूरेशियन ब्राह्मण कॉमन सिविल कोड को 100 प्रतिशत हिन्दू और हिन्दू धर्म के आधार पर कानूनी रूप देंगे और सभी धर्म के ऊपर जबरन थोपेंगे. जो कानून हिन्दुओं पर लागू होगा, वही कानून मुसलमान, बौद्ध, सिक्ख, ईसाई और क्रिश्चियनों पर भी लागू होगा.

इसका मतबल यह है कि जो ब्राह्मण धर्म (हिन्दू धर्म) में कर्मकाण्ड, पाखण्डवाद, अंधविश्वास और देवी-देवताओं की पूजा होती है, इसी को सभी धर्म के लोगों के ऊपर जबरन थोपेंगे. जबकि, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध, जैन और लिंगायत धर्म में हिन्दू धर्म की एक भी मान्यताएं स्वीकार नहीं है. जब उपरोक्त धर्म के लोग हिन्दू धर्म के नियमों को मानने या उनके कर्मकाण्डों को करने से इनकार केरेंगे तो यूरेशियन ब्राह्मण उन्हें एक देश, एक कानून (कॉमन सिविल कोड) का उलंघन करने का आरोप लगाते हुए उन्हें देशद्रोही घोषित करेंगे और उनके ऊपर ज्यादा अन्याय और अत्याचार करेंगे. यही कारण है कि यूरेशियन ब्राह्मण एक देश, एक कानून अर्थात कॉमन सिविल कोड लागू करना चाहते हैं. 

देश को लूटने वाले दस लूटेरे



वो लूटेरे, वो लूटेरे......इस गीत को चरितार्थ करने में भारतीय जनता पार्टी ने कोई कसर नहीं छाड़ी है. एक तरफ प्रधानमंत्र नरेन्द्र मोदी चौकीदार होने का ढिंढोरा पीटती रही और दूसरी तरफ देश को लूटने वाले लूटेरे देश को न केवल लूटते रहे, बल्कि चौकीदार के सामने देश छोड़कर भागते रहे. यानी चौकीदार ही चोर है जिसके कारण भारत में करोड़ों-अरबों की धोखाधड़ी कर गायब हो जाने वाले गुरुघंटालों की संख्या साल दर साल बढ़ती रही. साल 2010 के बाद से ऐसे अपराधियों की संख्या में जबरदस्त बढ़ोत्तरी हुई है. बता दें कि विजय माल्या को भारत में ‘आर्थिक अपराधों का पोस्टर ब्वॉय’ कहा जा सकता है. उसपर धोखाधड़ी, अरबों रुपये की मनी लॉन्ड्रिंग जैसे आरोप हैं. माल्या के पीछे आयकर विभाग और सीबीआई की टीमें लगी हैं, मगर माल्या का अभी तक बाल बांका भी नहीं हो सका है. भारत के 17 बैंक सुप्रीम कोर्ट जाकर गुहार लगा चुके हैं कि माल्या ने कर्ज के रूप में जो 9,000 करोड़ रुपये लिए थे, वो उन्हें वापस दिलाए जाएं. कभी ‘किंग ऑफ गुड टाइम्स’ कहे जाने वाले माल्या का बुरा वक्त 2012 से शुरू हुआ. मार्च, 2016 में माल्या ने भारत छोड़ ब्रिटेन में शरण ले ली थी. तब से वो वहीं पर रह रहा है. माल्या की पावर सर्किल्स में पहुंच का अंदाजा इस बात से लगाइए कि जब वह विदेश भागा, उस समय वह राज्यसभा सांसद था. अप्रैल 2016 में विदेश मंत्रालय ने उसका पासपोर्ट रद्द कर दिया. 2 मई, 2016 को माल्या ने सांसद पद से इस्तीफा दिया.

इसी तरह से हीरों का सौदागर नीरव मोदी पर 13,500 करोड़ रुपये का कर्ज लेकर भाग जाने का आरोप है. मजेदार बात तो यह है कि बताया जा रहा है कि वह ब्रिटिश जेल में कैद है और भारत प्रत्यर्पित किए जाने की कोशिशें चल रही हैं. यह किसी हास्यापद से कम नहीं है. मोदी पर आरोप है कि उसने अपने मामा मेहुल चोकसी संग मिलकर पंजाब नेशनल बैंक से फ्रॉड किया. इसमें बैंक के कुछ कर्मचारियों ने भी उसका साथ दिया. मोदी के खिलाफ सीबीआई और ईडी जांच कर रहे हैं. उसपर मनी लॉन्ड्रिंग और इकॉनमिक ऑफेंसेज एक्ट के तहत केस दर्ज हैं. केवल केस ही दर्ज है बाकी कुछ होने वाला नहीं है. मोदी और चोकसी दोनों जनवरी 2018 में पीएनबी फ्रांड का खुलासा होने से पहले भारत से भाग गए थे.

नीरव मोदी के मामा मेहुल चोकसी को भारत ‘भगोड़ा’ घोषित कर चुका है. इस समय एंटीगा एंड बरबूडा में रह रहे चोकसी को भारतीय एजेंसियाँ यहाँ लाने की तैयारी कर रही हैं. हालांकि, यह तैयारी पहले से चल रही है. चोकसी उसी गीतांजलि ग्रुप का मालिक है जिसपर पीएनबी से फर्जी दस्तावेजों के आधार पर करोड़ों का कर्ज लेने का आरोप है. 2013 में चोकसी पर स्टॉक मार्केट से छेड़छाड़ का भी आरोप लगा था. ललित मोदी उन शुरुआती बड़े नामों में से हैं जो आर्थिक अपराधों के लिए जांच एजेंसियों के निशाने पर आए. वह इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) के पहले चेयरमैन और कमिश्नर थे और 2010 तक इस पद पर रहे. आईपीएल की एक फ्रेंचाइजी ने मोदी पर परेशान करने का आरोप लगाया तो बीसीसीआई ने उन्हें हटा दिया. इसके बाद मोदी लंदन चले गए. जांच शुरू हुई और 2013 में उन्हें वित्तीय अनियमितताओं, अनुशासनहीनता का दोषी पाया गया. मोदी पर बीसीसीआई ने लाइफटाइम बैन लगा दिया था. 2014 में केंद्र सरकार ने मोदी का पासपोर्ट रद्द कर दिया. अदालत से मोदी को राहत मिली. प्रवर्तन निदेशालय ने ललित मोदी के खिलाफ ग्लोबल वारंट इश्यू करने की रिक्वेस्ट की थी, हालांकि 2017 में यह दरख्वास्त खारिज कर दी गई.

सिंह ब्रदर्स को रेलिगेयर फिनवेस्ट लिमिटेड (आरएफएल) को धरातल पर लाने का क्रेडिट जाता है. दोनों भाइयों पर आरोप है कि इन्होंने जान-बूझकर परिवार की कंपनी का बकाया नहीं चुकाया. दोनों ने अपने शेयर्स बेचकर पैसा जुटाना चाहा मगर कर्ज नहीं चुका सके. इसी साल फरवरी में मलविंदर ने शिविंदर पर आरोप लगाया था कि उन्होंने बिना बताए 740 करोड़ रुपये आरएफएल से डायवर्ट किए. दोनों भाई फिलहाल प्रवर्तन निदेशालय की गिरफ्त में हैं. कर्ज लेकर ना चुकाने वालों में रोटोमैक के डायरेक्टर विक्रम कोठारी का भी नाम शामिल है. अपनी कंपनी के जरिए उन्होंने 7 नेशनल बैंक्स से 2,919 करोड़ रुपये के लोन लिए. कोठारी ने कई फर्जी कंपनियाँ बनाकर कर्ज लिया. ब्याज वगैरह मिलाकर यह रकम साल 2018 तक करीब 3,695 करोड़ रुपये हो चुकी थी. सीबीआई की एफआईआर के मुताबिक, कोठारी ने कई किश्तें नहीं चुकाईं. कोठारी की कई प्रॉपर्टीज सीज की जा चुकी हैं.

नीरव मोदी, मेहुल चोकसी जैसा एक और हीरा व्यापारी. विनसम डायमंड्स एंड जूलरी के डायरेक्टर के रूप में मेहता पर 7000 करोड़ रुपये लेकर फरार हो जाने का आरोप है. साल 2012 से उनकी कोई पता नहीं है. एफआईआर में मेहता पर आपराधिक साजिश, धोखाधड़ी और सरकारी कर्मचारियों के दुरुपयोग का मामला दर्ज है. इसी साल जून में, सीबीआई ने दो और एफआईआर दर्ज की जिनमें जतिन मेहता पर बैंक ऑफ महाराष्ट्र और यूनियन बैंक ऑफ इंडिया से 587.55 करोड़ रुपये का लोन फ्रॉड करने का आरोप है. स्टर्लिंग बायोटेक (एसबीएल) के प्रमोटर्स नितिन संदेसरा और चेतन संदेसरा नाम के दो भाइयों पर भारतीय बैंकों से करीब 14,500 करोड़ रुपए का फ्रॉड करने का आरोप है. 

सीबीआई ने 2017 में संदेसरा बंधुओं और दीप्ति संदेसरा के खिलाफ 5,383 करोड़ रुपए के बैंक फ्रॉड का केस दर्ज किया था. फिर ईडी ने जांच की तो पता चला कि संदेसरा ग्रुप की कंपनीज ने भारतीय बैंकों की विदेश में स्थित शाखाओं से करीब 9 हजार रुपये का कर्ज लिया. जिस बात के लिए कर्ज लिया गया, पैसा उससे अलग काम में लगाया गया. अब ईडी इस ग्रुप की प्रॉपर्टीज अटैच करने की कवायद में जुटा हुआ है. यही नहीं गुजरात के आशीष जोबनपुत्र की फर्म पर दो सरकारी बैंकों को 804 करोड़ रुपये का चूना लगाने का आरोप है. सीबीआई के मुताबिक, इस साजिश में बैंक के अधिकारी भी मिले हुए थे. कंपनी पर फर्जी इंपोर्ट दिखाकर करोड़ों रुपये का गोलमाल करने का आरोप है. यह सारे अवैध ट्रांजेक्शन करने के बाद आशीष अपने परिवार को लेकर भारत से भाग गया था.

और तो और कोलकाता की श्री गणेश जूलरी हाउस इंडिया लिमिटेड पर 25 बैंकों से 2,762 करोड़ रुपये की धोखाधड़ी का आरोप है. कंपनी के चीफ प्रमोटर्स-कमलेश पारेख, नीलेश पारेख और उमेश पारेख के खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय ने केस दर्ज कर रखा है. इन लोगों ने भारत में कई कंपनियाँ खड़ी कीं और उनके जरिए विदेशों में खूब पैसा भेजा. मामला खुलने से पहले ही सबके सब विदेश भाग गए. बैंकों से जो कर्ज लिया गया, उसे लौटाने की दिशा में कोई काम नहीं हुआ. ईडी फिलहाल इस फर्म की संपत्तियों को अटैच कर नुकसान की भरपाई कर रही है. यानी एक तरफ देश के लूटेरे देश को लूटते रहे और देश का चौकीदार उन लूटेरों को विदेश भगाने में मदद करता रहा.
राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)

1956 की अशोक विजयादश्मी



अभी हाल ही में लोगों ने विजयदशमी और दशहरा दोनों मनाया. लेकिन, बहुताय लोगों को  विजयदशमी और दशहरा के बारे में जानकारी नहीं है. विजयदश्मी का वास्तविक नाम सम्राट, अशोक विजयादश्मी है. इसलिए अशोक विजयादश्मी और दशहरा में जमीन-आसमान का फर्क है. जहाँ अशोक विजयादश्मी मूलनिवासी बहुजन समाज का बड़ा पर्व है तो वहीं मूलनिवासी बहुजनों के अशोक विजयदश्मी पर्व को खत्म करने के लिए ब्राह्मणों ने दशहरा नाम का त्योहार शुरू किया. ब्राह्मणों ने अशोक विजयादश्मी से अशोक शब्द हटाकर केवल विजयदश्मी कर दिया और उसे विजयदश्मी के नाम से कम दशहरा के नाम से ज्यादा प्रचारित किया. इतिहास गवाह है कि सम्राट अशोक ने कलिंग युद्ध के बाद बौद्ध धम्म स्वीकार किया और क्रोध पर विजय प्राप्ति के प्रतीक स्वरुप विजय दशमी की नींव डाली. लेकिन, उसी तिथि पर पुष्यमित्र शुंग ब्राह्मण ने बृहद्रथ मौर्य की हत्या करके प्रतिक्रांति की और दस मौर्य सम्राटों को प्रतीक मानते हुए दशहरे की नींव डाल दी. यही नहीं, शुंग की प्रतिक्रांति को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से ब्राह्मणों ने उसी तिथि पर 1925 में आरएसएस की स्थापना की. जबकि, डॉ.बाबासाहब अम्बेडकर ने भी तथागत गौतम बुद्ध और सम्राट अशोक की धम्मक्रांति को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से उसी तिथि पर 1956 में धर्म परिवर्तन किया. अशोक विजयादशमी और दशहरे का यह मात्र एक शाब्दिक अंतर ही नहीं है, बल्कि यह सदियों से चला आ रहा मूलनिवासियों एवं ब्राह्मणों के वर्चस्व का संघर्ष है. उपरोक्त बातें लगभग सभी लिखे-पढ़े लोग जानते हैं किन्तु मानते कतई नहीं हैं.

बता दें कि विजयादश्मी (दशहरा) का संबंध रामायण से भी नहीं है. बल्कि, विजयादश्मी का संबंध चक्रवर्ती सम्राट अशोक से है. ऊपर बताया जा चुका है कि विजयादश्मी (दशहरा) का वास्तविक नाम अशोक विजयादश्मी है. क्योंकि, रामायण का राम कोई और नहीं, पुष्यमित्र शुंग है ब्राह्मणों ने और राजा बृहद्रथ मौर्य को रावण के रूप में पेश कर दिया है. दशहरा का वास्तविक नाम सम्राट अशोक विजयादशमी है. भारत में ‘सम्राट अशोक विजयादशमी’ के बौद्धों के पवित्र त्योहार को खत्म करने के लिए ब्राह्मणों ने षडयंत्र किया और विजयदश्मी (दशहरा) का नाम दे दिया. इस तरह से पराजित करने वाले दिन को ‘दशहरा’ नाम दिया गया और सम्राट अशोक विजयादशमी को गायब कर दिया गया. रावण का जो प्रतीक है उसमें रावण को 10 मुख का बताया गया. जबकि बौद्ध धम्म में दस परमिताओं, दस शीलों का बहुत अधिक महत्व है. इसके साथ मौर्य वंश के दशवें शासक सम्राट बृहद्रथ मौर्य को रावण के रूप में दस मुख वाला बता दिया. 8, 9 या 11 मुख का क्यों नहीं बताया? यही कारण है कि सम्राट अशोक विजयादशमी के त्योहार को समाप्त करने के लिए आर्यों ने दशहरा नामक त्योहार शुरू किया.

आर्यों के इस षडयंत्र को डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर खत्म करना चाहते थे. इसलिए वे सोच समझकर, योजना बनायी और 1956 में अशोक विजयादश्मी के दिन धम्म दीक्षा ली. 1956 में जिस दिन अशोक विजयादश्मी के 2,500 साल पूरे हो रहे थे उस दिन 14 अक्टूबर था. यानी 1956 में 14 अक्टूबर को 2,500वीं सम्राट अशोक विजयादशमी आ रही थी. इसलिए बाबासाहब ने उस दिन को निर्धारित किया और लाखों अनुयायियों के साथ धम्म दीक्षा ली. इसके बाद लोगों को पता चला कि बाबासाहब ने जो 14 अक्टूबर 1956 को धम्म दीक्षा ली, वह सम्राट अशोक विजयादशमी के साथ जुड़ा हुआ है. इसका मतलब है यह कतई नहीं है कि डॉ.बाबासाहब अम्बेडकर 14 अक्टूबर को ध्यान में रखकर धम्म दीक्षा ली. नहीं, बल्कि 1956 में अशोक विजयादश्मी के 2,500वें साल को ध्यान में रखते हुए धम्म दीक्षा ली और मूलनिवासी बहुजनों की विरासत को पूर्नजीवित कर उसे बड़े पैमाने पर खड़ा कर दिया. लेकिन, मूलनिवासी बहुजन समाज के बहुताय लोग 14 अक्टूबर को महान बताते हैं, जो यह सर्वथा गलत है. मूलनिवासी बहुजन समाज पहले के अपेक्षा अब जागृत हो गया है और इस समाज में बुद्धिजीवी वर्ग का निर्माण हो गया है. इसलिए मूलनिवासी बहुजन के बुद्धिजीवी वर्ग को अपने इतिहास की सही जानकारी अपने समाज के लोगों को देकर उन्हें जागृत करनी चाहिए, ताकि मूलनिवासी बहुजन समाज का जन-जन अपने इतिहास को जान सके और वक्त आने पर अपने इतिहास रूपी विरासत की रक्षा कर सके.
राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)

मौत का मुआवजा



1993 से साल 2019 तक महाराष्ट्र में सीवर सफाई के दौरान हुई 25 लोगों की मौत के मामले में किसी भी पीड़ित परिवार को 10 लाख रुपये का मुआवज़ा नहीं दिया गया. वहीं, गुजरात में सीवर में 156 लोगों की मौत के मामले में सिर्फ़ 53 और उत्तर प्रदेश में 78 मौत के मामलों में सिर्फ़ 23 में ही 10 लाख का मुआवज़ा दिया गया. 1993 से लेकर 2019 तक में देश भर में सीवर सफाई के दौरान जितनी मौतें हुई हैं, उसमें से करीब 50 फीसदी पीड़ित परिवारों को पूरे दस लाख रुपये का मुआवजा दिया गया है.

 कई मामलों में मुआवजे के रूप में 10 लाख रुपये से कम की राशि दी जा रही है. सूचना का अधिकार (आरटीआई) आवेदन के जरिये ये जानकारी सामने आई है. सुप्रीम कोर्ट ने साल 2014 के अपने ऐतिहासिक फैसले में कहा था कि अगर किसी व्यक्ति की सीवर सफाई के दौरान मौत होती है तो पीड़ित परिवार को 10 लाख का मुआवजा देना होगा. हालांकि केंद्र के राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग (एनसीएसके) ने आरटीआई के तहत बताया कि राज्यों द्वारा दी गई जानकारी के मुताबिक देश के 20 राज्यों ने 1993 से लेकर अब तक के सीवर सफाई के दौरान कुल 814 लोगों की मौत होने की जानकारी दी है और इसमें से सिर्फ 455 मामलों में ही पूरे 10 लाख का मुआवजा दिया गया है. हालांकि, ये आंकड़ा अभी काफी अधूरा है और आयोग ये जानकारी जुटाने के लिए राज्यों को लगातार पत्र लिख रहा है.

मालूम हो कि 27 मार्च 2014 को सुप्रीम कोर्ट ने सफाई कर्मचारी आंदोलन बनाम भारत सरकार मामले में आदेश दिया था कि साल 1993 से सीवरेज कार्य (मैनहोल, सेप्टिक टैंक) में मरने वाले सभी व्यक्तियों के परिवारों की पहचान करें और उनके आधार पर परिवार के सदस्यों को 10-10 लाख रुपये का मुआवजा प्रदान किया जाए. लेकिन, दस्तावेज के मुताबिक कई सारे मामलों में पीड़ित परिवारों को दस लाख रुपये के बजाय इससे कम जैसे कि चार लाख रुपये, पाँच लाख रुपये, यहाँ तक कि दो लाख रुपये तक का मुआवजा दिया जा रहा है. मुआवजा देने की जिम्मेदारी संबंधित व्यक्ति जैसे कि कॉन्ट्रैक्टर, नगर निगम, जिला प्रशासन, राज्य सरकार पर होती है.

आयोग द्वारा दिए गए आंकड़ों के मुताबिक सीवर में दम घुटने से सबसे ज्यादा 206 मौतें तमिलनाडु में हुई हैं. लेकिन, इसमें से सिर्फ 162 मामलों में ही पीड़ित परिवार को पूरे 10 लाख का मुआवजा दिया गया है. इस मामले में गुजरात की हालत काफी खराब है. गुजरात में अब तक कुल 156 लोगों की मौत सीवर सफाई के दौरान होने की पहचान की गई है. लेकिन, सिर्फ 53 मामलों में यानी कि करीब 34 फीसदी पीड़ित परिवारों को ही पूरे 10 लाख का मुआवजा दिया गया है. इसी तरह से उत्तर प्रदेश की भी हालत कुछ ऐसी ही है. यहाँ पर कुल 78 लोगों की मौत सीवर सफाई के दौरान होने की पहचान की गई है और सिर्फ 23 मामलों यानी कि करीब 30 फीसदी पीड़ित परिवारों को ही 10 लाख रुपये का मुआवजा दिया गया है. वहीं देश की राजधानी में पाँच जुलाई 2019 तक सीवर मौतों के कुल 49 मामले सामने आए थे, जिसमें से सिर्फ 28 मामलों में ही 10 लाख का मुआवजा दिया गया. सीवर सफाई के दौरान होने वाली मौतों का मामला कितना गंभीर है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि दिल्ली में बीते दो सालों में ही 38 सफाईकर्मियों की सीवर सफाई के दौरान मौत हो चुकी है.

अन्य राज्यों को अगर देखें तो हरियाणा में अब तक कुल सीवर सफाई के दौरान 70 लोगों की मौत हुई है, जिसमें से 51 पीड़ित परिवारों को ही 10 लाख का मुआवजा दिया गया है. वहीं कर्नाटक में 73 लोगों की मौत हुई है, जिसमें से 64 मामलों में ही पूरे 10 लाख का मुआवजा दिया गया. महाराष्ट्र राज्य का मामला काफी चौंकाने वाला है. यहाँ पर अब तक कुल 25 लोगों की मौत सीवर सफाई के दौरान हुई, लेकिन एक भी पीड़ित परिवार को 10 लाख का मुआवजा नहीं दिया गया है. मध्य प्रदेश में इस तरह के कुल सात मामले आए हैं और सातों मामलों में 10 लाख रुपये दिए गए हैं. पंजाब में कुल 35 लोगों की मौत सीवर सफाई के दौरान हुई और सिर्फ 25 मामलों में ही 10 लाख का मुआवजा दिया गया है. वहीं राजस्थान में कुल 38 लोगों की मौत के मामले सीवर सफाई के दौरान आए हैं लेकिन सिर्फ 8 पीड़ित परिवारों को ही पूरे 10 लाख का मुआवजा दिया गया है. इसके अलावा तेलंगाना में चार, त्रिपुरा में दो, उत्तराखंड में छह और पश्चिम बंगाल में 18 लोगों की मौत सीवर सफाई के दौरान सामने आई है, लेकिन इन राज्यों में क्रमशः दो, शून्य, एक और 13 मामलों में ही पूरे 10 लाख का मुआवजा दिया गया.
चौंकाने वाली बात तो यह है कि केंद्र ने इसकी पुष्टि की है कि इन मामलों में किसी व्यक्ति पर कोई कार्रवाई हुई है या नहीं, इसकी उन्हें जानकारी नहीं है. सरकार ने लोकसभा में बताया कि मैनुअल स्कैवेंजर्स को काम पर रखने के लिए किसी भी व्यक्ति को दोषी ठहराने या सजा देने के संबंध में कोई जानकारी नहीं है. बता दें कि हाल ही में सीवर सफाई के दौरान होने वाली मौतों को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को कड़ी फटकार लगाते हुए कहा, ‘दुनिया के किसी देश में लोगों को मरने के लिए गैस चैंबर्स में नहीं भेजा जाता है. हर महीने मैला ढोने के काम में लगे चार से पाँच लोग की मौत हो रही है. सीवर से संबंधित मौतों से जुड़े आंकड़े इकट्ठा करने को लेकर भी सवाल उठते रहे हैं. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 1993 से लेकर अब तक में कुल 814 सफाईकर्मियों की सीवर सफाई के दौरान मौत हुई है. जबकि, सफाई कर्मचारी संगठनों का दावा है कि करीब 1870 मौतें सीवर सफाई के दौरान हुई हैं. उनके पास 1096 मौतों के साक्ष्य हैं और उन्होंने इससे संबंधित सारी जानकारी मंत्रालय को दे दी है.

राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)

नई मुसिबत बनी पीएम आवास योजना




देश में जब-जब चुनाव आया है तब-तब राजनीतिक पार्टियाँ गरीब जनता को उल्लू बनाने से पीछे नहीं हटी हैं. बात चाहे कांग्रेस सरकार की हो या बीजेपी सरकार की. कांग्रेस-बीजेपी दोनों इन मामलों में एक दूसरे से दस कदम आगे हैं. यही करते-करते तकरीबन 72 साल हो गया. इन 72 सालों में सरकारें कई योजनाएं गरीबों के नाम पर शुरू की मगर गरीबों को केवल एक सरकारी योजनाएं लेने में पूरा पाँच बीत गया. अगर, बमुश्किल मिल भी गया तो यही योजनाएं गरीबों के लिए मुसिबत साबित होने लगते हैं. जैसे मोदी सरकार में प्रधानमंत्री आवास योजना गरीबों के लिए मुसिबत बनी हुई है.

केन्द्र की मोदी सरकार ने जब 2015 में प्रधानमंत्री आवास योजना की घोषणा की तो गरीबों को लगा था कि उनका पक्का मकान बनाने का सपना पूरा हो जाएगा. पर सरकार का एक कार्यकाल खत्म हो गया और सरकार की अनदेखी, योजना की कछुआ चाल, नेताओं और अफसरों द्वारा किए गए भ्रष्टाचार ने साबित कर दिया कि साल 2022 तक देश के सभी गरीबों को पक्का मकान देने का मोदी सरकार का वादा पूरा होने वाला नहीं है. साल 2015 में नरेंद्र मोदी ने ऐलान किया था कि साल 2022 तक सभी के सिर पर छत होगी. इस के लिए यह भी योजना बनी थी कि सरकारी विभागों से घर बनाकर देने के बजाय खुद जरूरतमंद के खाते में पैसे जमा कराया जाए.

‘प्रधानमंत्री आवास योजना’ के तहत गांवदेहात के इलाकों में एक लाख, 60 हजार की रकम और शहरी इलाकों में 2 लाख, 40 हजार की रकम सीधे जरूरतमंद के बैंक खाते में जमा करने का काम किया गया था. इस रकम से एक कमरा, एक रसोई, एक स्टोररूम का नक्शा भी दिया गया था. पर हुआ यह कि जिन लोगों के पास पहले से मकान थे, उन्हें रकम मिल गई और जो लोग बिना छत के प्लास्टिक की पन्नी तानकर अपना आशियाना बनाकर रह रहे थे, उन्हें पक्का मकान देने के बजाय झुनझुना पकड़ा दिया गया. ग्राम पंचायतों के सरपंच, सचिव और नगरपालिकाओं की अध्यक्ष, सीएमओ की मिलीभगत से जरूरतमंदों से 10,000 से 20,000 रुपए लेकर योजना की रकम की बंदरबांट कुछ इस तरह हुई कि बिना नक्शे और बिना सुपरविजन के योजना की रकम खर्च कर ली गई. ‘प्रधानमंत्री आवास योजना’ के तहत साल 2022 तक देश में सभी लोगों को छत देने की बात कही जा रही है. इस के लिए लक्ष्य और उस के पूरा होने के आंकड़े भी पेश किए जा रहे हैं, लेकिन हकीकत देख कर आप दंग रह जाएंगे.

मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले की नगरपरिषद साईंखेड़ा के वार्ड नंबर 14 के एक लाभार्थी की दास्तान ‘प्रधानमंत्री आवास योजना’ की असलियत को उजागर करती है. लाभार्थी को मई, 2018 में पक्का घर बनाने के लिए पहली किस्त के रूप में एक लाख की रकम मिली थी. उन्होंने अपने कच्चा मकान तोड़कर जून महीने में ही पक्का मकान बनाने का काम शुरू कर दिया था. एक महीने में एक लाख रुपए खर्च में छत तक का काम पूरा हो गया था. लेकिन, दूसरी किस्त की रकम उन्हें नहीं दी गई. लाभार्थी के परिवार के लोग पूरी बरसात, ठंड और भीषण गरमी में प्लास्टिक की पन्नी तानकर अपना गुजारा कर रहे हैं. मगर, एक साल के बाद भी उन्हें दूसरी किस्त की रकम नहीं मिली है. लाभार्थी ने कई बार इसकी शिकायत सरकारी अफसरों के साथसाथ चुने हुए जनप्रतिनिधियों से की, मगर कोई समाधान नहीं निकला. वोट का सौदा करने वाली सरकार के नुमाइंदे भी अब चुप्पी साध कर बैठे हैं.

इसी तरह रायसेन जिले के पटना गाँव के लाभार्थी ने अपना पक्का मकान बनाने के लिए पुराने खपरैल के मकान को तोड़ दिया था. यह सोच कर के वे किराए के मकान में रहने लगे थे कि 4 महीने बाद अपने मकान में वापस रहने लगेंगे. लेकिन, उन्हें भी सालभर बीत जाने के बाद दूसरी किस्त का पैसा नहीं मिला है और उनका पैसा किराए के मकान में खर्च हो रहा है. लोगों का मानना है कि ‘प्रधानमंत्री आवास योजना’ के जमीनी हकीकत पर सही न उतरने से यह योजना कामयाब होती नजर नहीं आ रही है.

यही नहीं खिरका टोला वार्ड नंबर 8 के दो और लाभार्थियों के साथ हुआ. उन्हें भी जून, 2018 में पहली किस्त की रकम मिल चुकी है, पर दूसरी किस्त की रकम के लिए नगरपरिषद के अधिकारी और पार्षद और रुपयों की मांग कर रहे हैं. पीड़ित परिवार के छोटे-छोटे बच्चों ने पूरी गरमी खुले आसमान के नीचे बिताई है और अब बरसात का मौसम है. ऐसे में उनकी मुश्किलें और ज्यादा बढ़ गई हैं. जनता की सेवा के नाम पर चुने गए पार्षद दूसरी किस्त दिलाने के लिए दलाली कर लाभार्थियों से 10,000 से ले कर 20,000 रुपए की रकम खुलेआम मांग रहे हैं. जो लोग पैसे दे देते हैं, उन्हें दूसरी किस्त का पैसा आसानी से मिल जाता है. प्रधानमंत्री आवास योजना’ का फायदा किसी को मिला हो या न मिला हो, पर ग्राम पंचायतों के सरपंच सचिव की दुकानदारी खूब चल निकली है. सरपंच सचिव ने गरीबों को रकम दिलाने के एवज में पैसे वसूल तो किए ही हैं, साथ ही मिल कर गांवगांव में अपनी ईंट, गिट्टी, लोहा, सीमेंट की दुकानें खोल ली हैं. अगर इन की दुकान से सामान खरीदा तो समय पर किस्त मिल जाती है, नहीं तो सालों तक दूसरी किस्त की रकम नहीं मिलती है. कई सरपंचों ने नेताओं के इशारों पर गांव की रेत खदानों पर गैरकानूनी कब्जा कर के करोड़ों रुपए की रेत साफ कर दी है. गांव देहात के इलाकों में 500 रुपए प्रति ट्रौली मिलने वाली रेत आज 2,000 रुपए प्रति ट्रौली मिल रही है. बता दें कि प्रधानमंत्री आवास योजना’ में नेता से लेकर अधिकारी, कर्मचारी तब बड़े पैमाने पर गड़बड़झाला कर रहे हैं.
राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)

चावल घोटाले की खिचड़ी


देश में जब भी कोई घोटाला होता है तो इन घोटालों के लिए केवल वर्तमान सरकार ही दोषी नहीं है, बल्कि पूर्वर्ती सरकार भी दोषी है. कुल मिलाकर कहने का मतलब साफ है कि देश में कांग्रेस और बीजेपी की ही सरकारें रही हैं और ये दोनों पार्टियाँ अपने-अपने समय में जमकर घोटाला किया. कुछ ऐसा ही मामला बिहार के नीतीश और बीजेपी मिलीजुली सरकार में भी देखने को मिला जहाँ चावल घोटाले की खिचड़ी काफी दिनों से पक रही थी. पिछले 8 सालों से चल रहे करोड़ों अरबों रुपए के चावल घोटाले को लेकर अब सरकार की नींद टूटी है.

अब तक रामदास एग्रो इंडस्ट्री के पुरुषोत्तम जैन, प्रीति राइस मिल के पंकज कुमार, मौडर्न राइस मिल के राजेश लाल और पावापुरी राइस मिल के दिनेश गुप्ता की तकरीबन 8 करोड़ की जायदाद जब्त की जा चुकी है. बिहार राज्य खाद्य आपूर्ति निगम हर साल चावल मिलों को चावल निकालने के लिए सरकारी धान देता है. निगम द्वारा दिए गए कुल धान से निकलने वाले चावल का 67 फीसदी चावल निगम को लौटाना होता है. आरोपी मिल मालिकों ने निगम को चावल नहीं लौटाया और खुले बाजार में उसे बेच दिया. यह भी साफ कर दें कि इस घोटाले में खुद सरकार भी शामिल है. वर्ना इतना बड़ा घोटाला बगैर सरकार की मिलीभगत से करना संभव नहीं है. यही कारण है कि बिहार में चावल मिल मालिकों की धांधली पर रोक लगाने में सरकार नाकाम रही है.

इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 5 सालों से चावल मिल मालिकों के पास बिहार राज्य खाद्य निगम के 1,200 करोड़ रुपए बकाया हैं. राज्य में 1,300 चावल मिलें ऐसी हैं, जिन्होंने धान लेकर सरकार को चावल नहीं लौटाया, इसके बाद भी धान कुटाई के लिए उन मिलों को दोबारा धान दिया जा रहा है. बता दें कि पटना की 64 चावल मिलों पर 55.61, नालंदा की 84 मिलों पर 55.34, सीतामढ़ी की 52 मिलों पर 55.83, मुजफ्फरपुर की 33 मिलों पर 66.51, भोजपुर की 90 मिलों पर 72.05, पूर्वी चंपारण और पश्चिमी चंपारण की 153 मिलों पर 63, बक्सर की 152 मिलों पर 101, औरंगाबाद की 207 मिलों पर 62.15, कैमूर की 357 मिलों पर 220, रोहतास की 191 मिलों पर 111, गया की 49 मिलों पर 40, वैशाली की 25 मिलों पर 23.66, दरभंगा की 34 मिलों पर 39.83, शिवहर की 8 मिलों पर 17.78, नवादा की 23 मिलों पर 20.48 करोड़ रुपए की रकम बकाया है. इसके अलावा सिवान, अरवल, शेखपुरा, मधुबनी, सारण, समस्तीपुर, लखीसराय, गोपालगंज सहित कई जिलों की सैकड़ों छोटी-मोटी चावल मिलों पर तकरीबन 90 करोड़ रुपए बकाया हैं.

असलियत में चावल घोटाले का यह खेल पिछले 8 सालों से चल रहा था. साल 2011-12 में राज्य खाद्य निगम ने 17 लाख, 6 हजार टन धान किसानों से खरीदा था. सारा धान चावल मिलों को दे दिया गया था. चावल मिलों से 14 लाख, 47 हजार टन चावल सरकार को मिलना था, पर उन्होंने केवल 8 लाख, 56 हजार टन चावल ही लौटाया है. बाकी चावल चावल मिलों ने आज तक नहीं लौटाया. उस चावल की कीमत 1,200 करोड़ रुपए है. बिहार महालेखाकार ने पिछले साल की अपनी रिपोर्ट में कहा था कि धान को लेकर मिलरों ने सरकार को 434 करोड़ रुपए का चूना लगाया था. इस के बाद भी राइस मिल मालिकों पर कानूनी नकेल कसने में सरकार पता नहीं क्यों सुस्त रही?

बिहार राज्य खाद्य निगम के सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक, केवल 50 हजार रुपए की गारंटी रकम पर ही 3 से 6 करोड़ रुपए के धान चावल मिलों को सौंप दिए जाते रहे. चावल मिलों को धान देने के बारे में नियम यह है कि भारतीय खाद्य निगम मिलों से एग्रीमैंट करता है, जिसके तहत मिलर पहले निगम को 67 फीसदी चावल देते हैं, जिसके बदले में उन्हें रसीद मिलती है. उस रसीद को दिखाने के बाद ही निगम द्वारा मिलों को 100 फीसदी धान दिया जाता है. इस मामले में हेराफेरी के बाद भी राइस मिलों को सरकारी धान कुटाई के लिए मिलता रहा और वे घोटाले का खेल साल दर साल खेलते रहे.
राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)

दीपावली और दिवाली



दीपावली और दिवाली में बहुत बड़ा अंतर है. इस अंतर को समझने के लिए सबसे पहले यह समझना होगा कि ‘हरिजन और दलित’ में क्या अंतर है? क्योंकि, हरिजन और दलित में जो अंतर है ठीक वही अंतर दीपावली और दिवाली में है. हरिजन शब्द को गंदी गाली के रूप में बनियाँ गाँधी ने दिया और दलित शब्द को हमारे ही समाज के बाबू जगजीवन राम ने दिया. बामसेफ की वजह से अब लोगों में यह जागृति आ गई ही हरिजन शब्द गाली है. इसलिए यदि कोई हरिजन शब्द का प्रयोग करता है तो लोगों को बुरा लगता है क्यों? क्योंकि हरिजन शब्द एक बनियाँ ने गाली के रूप में दिया था.

लेकिन, वहीं जब कोई दलित शब्द का प्रयोग करता है तो लोगों में गर्व होता है क्यों? क्योंकि उन लोगों को दलित शब्द का अर्थ पता नहीं है. असल में दलित शब्द असंवैधानिक शब्द है, इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने दलित शब्द पर रोक लगा दी है. लेकिन, कुछ लोग शायद इसलिए दलित शब्द पर गर्व करते होंगे कि दलित शब्द एक एससी वर्ग के बाबू जगजीवन राम ने दिया है. लेकिन, दलित शब्द का अर्थ नीच और गुलाम होता है. गाँधी और कांग्रेस ने बाबू जगजीवन राम के सहारे चार वर्णों में दलित नाम पर पाँचवा वर्ण बनाने की कोशिश की थी. अगर, अब भी दलित शब्द का प्रयोग हमारे समाज के लोग बंद नहीं किए तो आने वाले समय में ब्राह्मण दलित को पाँचवां वर्ण बना देगा. जिस तरह से हरिजन और दलित शब्द में अंतर है ठीक ऐसा ही अंतर दीपावली और दिवाली में है. असल में दीपावली का दूसरा नाम ही दिवाली है. दीपावली का त्योहार बनियों का त्योहार है. किन्तु दीपदानोत्सव का पर्व सम्राट अशोक ने शुरू किया था.

बता दें कि जब तथागत बुद्ध ज्ञान प्राप्ति के बाद कपिलवस्तु में वापस लौट रहे थे तो उनके आने की खबर कपिलवस्तु में आग की तरह फैल गई. पता चलता है कि उनके पिता शुद्धोदन ने कपिलवस्तु को बुद्ध के स्वागत के लिए सजा दिया था. यही नहीं बुद्ध के कपिलवस्तु आने पर अच्छे-अच्छे मिष्ठान बनवाए गये और रात को दीप जलाकर पूरी नगरी को रोशन कर दिया गया था. उसके बाद हर साल इसी दिन को कपिलवस्तु के लोग दीप जलाकर पर्व के रूप में मनाने लगे. प्राचीन इतिहास से पता चलता है कि इसी दिन को सम्राट अशोक ने बुद्ध की विरासत को यादगार बनाने के लिए 84000 स्तूप का निर्माण किया और इसी दिन 84000 स्तूपों में एक साथ दीपक जलाया. तब से बुद्धिस्ट लोग इसे दीपदानोत्सव के रूप में मनाने लगे. लेकिन, आर्य ब्राह्मणों और बनियों ने षड्यंत्र किया और दीपदानोत्सव के पर्व को दीपावली के रूप में रूपांतरित कर दिया. 

दीपावली के नाम पर ब्राह्मणों ने कपोलकाल्पित कहानियाँ बनाई कि इस दिन भगवान राम अयोध्या वापस आये थे, जिनकी खुशी में अयोध्याविसियों ने दीपक जलाकर खुशियाँ मनाई थी. इस कपोलकल्पित कहानी का इतना ज्यादा प्रचार प्रसार किया और हमारे लोगों के दिमाग में भर दिया कि हमारे लोग अपना पर्व छोड़कर ब्राह्मण, बनियों के पर्व को त्योहार के रूप में मनाने लगे. जैसे-जैसे समय गुजरता गया वैसे-वैसे ब्राह्मण बनियाँ दीपावली के नाम में भी परिवर्तन करता गया. अभी वर्तमान में दीपावली से दिवाली कहा जाने लगा है.
राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)

ब्राह्मणवाद को बचाने के चक्कर में मारी गई इंदिरा गाँधी : भारत मुक्ति मोर्चा



भले ही लोग इंदिरा गाँधी की मौत को लेकर तमाम तरह की किंवदंतियाँ गढ़ रखी हों. लेकिन, हकीकत यही है कि इंदिरा गाँधी ब्राह्मणवाद को बचाने के चक्कर में मारी गई थी. बहुत सारे लोगों को जानकारी ही नहीं है कि 1984 को इंदिरा गाँधी ने ऑपरेशन ब्लू स्टार क्यों किया? असल में इंदिरा गाँधी को 1984 का चुनाव लड़ना था. उस दौरान ओबीसी की जागृती में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही थी, ओबीसी समाज, शासक जातियों की चाल को समझने लगा था. उस दौरान इंदिरा गाँधी ने धार्मिक ध्रुविकरण करने का निर्णय लिया. उसके लिए उसने 25 जून, 1984 को ऑपरेशन ब्लू स्टार को अंजाम दिया.

उस समय कुमार सिन्हा कमांडर के चीफ थे. दरअसल, कुमार सिन्हा बिहार के भूमीहार थे. इंदिरा गाँधी ने कुमार सिन्हा को हटाकर पूना के अरुण कुमार वैद्य को कमांडर का चीफ बनाया. जबकि, अरुण कुमार वैद्य, कुमार सिन्हा से भी जूनियर था. वह डिप्टी भी नही था. इसके बाद भी इंदिरा गाँधी ने अरूण कुमार वैद्य को चीफ ऑफ कमांडर बनाया. इसके पीछे इंदिरा गाँधी की सोच थी कि इंदिरा गाँधी ने जो पूर्व प्लान बनाकर ऑपरेशन ब्लू स्टार को अंजाम देना चाहती थी. इसके लिए कुमार सिन्हा पर उसको जरा भी विश्वास नहीं था. क्योंकि, कुमार सिन्हा शुद्र वर्ण का था, इसलिए इंदिरा गाँधी का उस पर भरोसा नही था. जबकि, अरुण कुमार वैद्य पूना ब्राह्मण था, इसलिए उस पर उसका पक्का विश्वास था. इसलिए अपने विश्वासी अरूण कुमार वैद्य को जूनियर होने के बाद भी चीफ ऑफ कमांडर बनाया. इस षड्यंत्र को समझना होगा.

डॉ. बाबासाहब अंबेडकर पूना के ब्राह्मणों के संदर्भ में‘‘ पूना ब्राह्ममिंस’’ ऐसा लिखते थे. इंदिरा गाँधी ने इस पूना के ब्राह्मणों को चीफ ऑफ कमांडर बनाया और अमृतसर में सिखों के पवित्र धर्म स्थल स्वर्ण मंदिर पर हमला करने का आदेश दिया. इंदिरा गाँधी का आदेश अंतिम आदेश मानकर अरुण कुमार वैद्य ने जनरल सुंदरजी को अमृतसर भेजकर स्वर्ण मंदिर पर लश्करी कार्यवाही करने का जो आदेश दिया उसे ही ऑपरेशन ब्लू स्टारा कहते हैं.

बता दें कि जनरल सुंदरजी ने शिखों के पवित्र धर्म स्थल अर्थात मंदिर में सैन्य भेजने के कारण सिख समुदाय में गुस्से का माहौल बन गया. जबकि, मिलीट्री में 17 फीसदी से अधिक सिख सैनिक थे. इंदिरा गाँधी की इस कार्यवाही की वजह से सैन्य में भी गुटबाजी निर्माण हो गया. यह भारत के इतिहास में पहली बार हुआ है. इंदिरा गाँधी द्वारा ऑपरेशन ब्लू स्टार के नाम पर सिखों के पवित्र धर्म स्थल स्वर्ण मंदिर पर हमला आज भी सिख समुदाय भुले नही हैं. यह सबके पीछे इंदिरा गाँधी का उद्देश केवल ओबीसी की सामाजिक जागृती को रोकना था. और ओबीसी का मंडल कमीशन की ओर से ध्यान स्वर्ण मंदिर की तरफ ले जाना था. जिसे इंदिरा गाँधी ने प्लान बनाकर किया था. यह बात बहुत कम लोगां को जानकारी है कि इंदिरा गाँधी ब्राह्मणवाद को बचाने के लिए अपनी जान गवां दी.

धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने की वजह से सिख समुदाय में गुस्से का वातावरण निर्माण हुआ. नतीजन 31 अक्टूबर 1984 को उसके ही बॉड़ीगार्ड़ ने उसे गोलियों से भून दिया. इंदिरा गाँधी को गोली मारने वालों में सतवंत सिंह और बेअंत सिंह शामिल थे. स्वर्ण मंदिर पर लश्करी कार्यवाही करने वाले अरुण कुमार वैद्य को भी पूना आकर गोली मार दी गई. यानी इंदिरा गाँधी के मौत के पीछे केवल मंडल कमीशन, जाति आधारित गिनती और आरक्षण की चर्चा को हमेशा के लिए दबा देना ही मूल कारण था. 
राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)

मौत के आंकड़ों में इजाफा...


राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)
दिल्ली-एनसीआर में स्मॉग के दमघोंटू माहौल में राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रोफाइल-2019 की रिपोर्ट में सांस से जुड़ी बीमारियों को लेकर बड़ा खुलासा हुआ है. इसके मुताबिक पिछले कुछ वर्षों में सांस की बीमारी से मरने वालों की तादाद लगातार बढ़ रही है. वर्ष 2018 में एक्यूट रेस्पिरेटरी इंफेक्शन (तीव्र श्वसन संक्रमण) से 3,740 मरीजों की मौत हुई. इनमें पश्चिम बंगाल के 732, यूपी के 699, दिल्ली के 492, उत्तराखंड के 86, हिमाचल के 145, हरियाणा के 8 और पंजाब के 24 लोगों की जान सांस संबंधी बीमारी से गई है. देश में 4.19 करोड़ लोग सांस की बीमारियों की चपेट में हैं. केंद्रीय स्वास्थ्य बुद्धिमत्ता ब्यूरो (सीबीएचआई) की इस रिपोर्ट के मुताबिक, 2018 में सबसे ज्यादा 69.47 फीसदी मरीज सांस से जुड़ी बीमारियों के मिले. डायरिया के 21.83, टाइफाइड के 3.82, टीबी के 1.76, मलेरिया के 0.66 और निमोनिया के 1.54 फीसदी मरीज मिले. इस दौरान 57.86 फीसदी मरीजों की मौत निमोनिया और सांस की बीमारियों से हुई.

वहीं दिल्ली एम्स के डॉक्टरों के मुताबिक सांस से जुड़े रोगों में सीओपीडी (काला दमा) सबसे ज्यादा जानलेवा साबित हो रहा है. दिल्ली एम्स में सालाना इसके दो से तीन लाख मरीज ओपीडी में पहुंचते हैं. डॉक्टरों का कहना है कि वायु प्रदूषण सांस के रोगियों के लिए जहर जैसा है. रिपोर्ट के अनुसार प्रति एक हजार लड़कों पर बेटियों की संख्या के मामले में सबसे बेहतर प्रदर्शन केरल का है जहाँ बेटियों की संख्या 1084 है. जबकि, चंडीगढ़ में यह आंकड़ा 818, दिल्ली में 868, हरियाणा में 879, जम्मू-कश्मीर में 889, पंजाब में 895 और सिक्किम में 890 है. वहीं, वर्ष 2017 में देश में प्रति हजार पर जन्मदर 20.2 और मृत्युदर 6.3 रही. इसके अलावा शहरी क्षेत्रों की तुलना में ग्रामीण इलाकों में जन्म और मृत्युदर ज्यादा है. वर्ष 1970-75 की तुलना में जीवन प्रत्याशा 49.7 से बढ़कर 2012-16 में 68.7 रही है. साथ ही पुरुषों की 67.4 और महिलाओं की जीवन प्रत्याशा 70.2 वर्ष आंकी गई.

बता दें कि देश में साक्षरता दर 73 फीसदी है. जबकि, केरल में 94 और मिजोरम में 91.3 फीसदी साक्षरता है. वहीं, बिहार में 61.8 फीसदी साक्षरता दर पर स्थिर है. रिपोर्ट के अनुसार, देश में लोगों की जीवन प्रत्याशा वर्ष 1970-1975 में 49.7 से बढ़कर 2012-16 के लिए 68.7 हो गई है. इस अवधि में महिलाओं के लिए जीवन प्रत्याशा 70.2 वर्ष और पुरुषों के लिए 67.4 वर्ष है. इसका मतलब है कि महिलाएं पुरुषों की तुलना में ज्यादा उम्र तक जी रही हैं. वहीं, वर्ष 2016 में राष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं की वैवाहिक उम्र 22.2 साल रही. लेकिन, ग्रामीण इलाकों में जहाँ यह आंकड़ा 21.7 तो शहरों में 23.1 दर्ज की गई वहीं पश्चिम बंगाल में यह 21.2 तो जम्मू-कश्मीर में 24.7 साल रही.

रिपोर्ट के अनुसार, पिछले साल देश में 6.51 करोड़ लोग गैर संचारी रोगों से पीड़ित पाए गए. इनमें से 4.45 फीसदी को मधुमेह, 6.19 फीसदी को हाई बीपी, 0.30 फीसदी लोग दिल की बीमारी, 0.26 प्रतिशत कैंसर और 0.10 फीसदी स्ट्रोक के मरीज मिले. एक सर्वे के अनुसार, देश की राजधानी दिल्ली में जनसंख्या घनत्व सर्वाधिक है. यहाँ प्रति वर्ग किलोमीटर 11,320 लोगों का जनसंख्या घनत्व है. जबकि, अरुणाचल प्रदेश में सबसे कम जनसंख्या घनत्व 17 है. बताते चलें कि इस सर्वे में युवा और आर्थिक रूप से सक्रिय आबादी से जुड़ी कई बातों का पता चला है. 

वर्ष 2016 की कुल अनुमानित जनसंख्या में 27 प्रतिशत लोग 14 वर्ष से कम के थे. जबकि, 64.7 प्रतिशत लोग 15-59 वर्ष आयु वर्ग में पाये गये. आर्थिक रूप से सक्रिय जनसंख्या 8.5 प्रतिशत है, जो 60 से लेकर 85 वर्ष की आयु वर्ग में है. चौंकानो वाली बात तो यह है कि कम संसाधनों की पहुंच वाले गरीबों की स्थिति ज्यादा खराब है. हालांकि, एडीज मच्छरों से होने वाली बीमारी डेंगू और चिकनगुनिया सबसे बड़ी चिंता की वजह है. यानी सरकार देश में हर साल कई घातक बीमारियों की रोकथाम के लिए कई योजनाएं चलाती है. इसके बाद भी घातक बीमारियों से मरने वालों की संख्या दिन व दिन बढ़ती जा रही है.

बीजेपी का बहुमत से घोटाला...



मानो या ना मानों! लेकिन, महाराष्ट्र और हरियाणा में बीजेपी को पूर्ण बहुमत ना मिलना भी ईवीएम घोटाला है. भले ही यह बात आम लोगों को पता नहीं है, लेकिन यह बात अनुमान और बयान के आधार पर 100 प्रतिशत सही है. क्योंकि, बीजेपी ही नहीं, बल्कि कांग्रेस भी शासक जातियों की ओरिजनल पार्टी है. शासक जातियों में एक खासियत होती है. वह यह कि शासक जातियों के लोग कोई भी काम बगैर प्लान बनाएं नहीं करते हैं. जब भी वे कोई काम करते हैं तो उसके पीछे उनका मकसद केवल शासक बनने का ही होता है. शासक बनने के लिए शासक जाति के लोग हर तरह के हथकंडे अपनाते हैं. हर किसी को जानकर हैरानी होगी कि उनके कुछ हथकंडे खुद के ही विरोध में होते हैं. इस वजह से मूलनिवासी बहुजन समाज के लोगों को लगता है कि शासक जाति के लोग खुद के विरोध में हथकंडे नहीं अपना सकते हैं. जबकि, ऐसा सोचना खुद को धोखा देने के समान है.
उदाहरण के लिए जैसे जम्मू-कश्मीर में मंदिर तोड़े जाने के विरोध में विहिप, अपने ही सरकार के खिलाफ आंदोलन करने की चेतावनी दे रहा है. इसी तरह से संघ की अनुसंगिक किसान संगठन सरकार के खिलाफ कई बार प्रदर्शन कर चुका है. जबकि, संगठन और सरकार दोनों उन्हीं लोगों के हैं. इसके बाद भी अपनी ही सरकार के खिलाफ धरना-प्रदर्शन करके भोलेभाले लोगों को बेवकूफ बना रहे हैं, ऐसे कई उदाहरण हैं. ठीक यही रवैया ईवीएम घोटाले को दबाने के लिए महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव में किया गया है. भले ही महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव में भाजपा को बहुमत ना मिलने का कारण भाजपा नेताओं की मनमानी या अन्य कारण बताए जा रहे हैं. लेकिन, हकीकत कुछ अलग है. हकीकत यही है कि ईवीएम घोटाले के मुद्दे को दबाने के लिए जानबूझकर बीजेपी महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव में बहुमत से दूर रही. इस षड्यंत्र को मूलनिवासी बहुजन समाज के लोगों को समझना होगा.

बता दें कि ईवीएम में घोटाला होता है, यह बात स्वयं सुप्रीम कोर्ट भी मान चुका है. सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को ईवीएम में वीवीपीएटी मशीन लगाने के लिए 08 अक्टूबर 2013 को आदेश देते हुए कहा था कि ‘‘ईवीएम में बगैर वीवीपीएटी मशीन लगाए, निष्पक्ष, पारदर्शी और स्वतंत्र रूप से चुनाव नहीं हो सकता है’’ इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने यह भी आदेश दिया था कि वीवीपीएटी से निकले वाली कागजी मतपत्रों की 100 प्रतिशत गिनती करनी होगी. लेकिन, चुनाव आयोग, कांग्रेस और बीजेपी की मिलीभगत ने वीवीपीएटी से निकले वाली कागजी मतपत्रों की 100 प्रतिशत गिनती पर रोक लगाने के लिए 56-डी, 56-सी और 49-एमए रूल बना दिया. इसके बाद बहुजन क्रांमि मोर्चा के राष्ट्रीय संयोजक वामन मेश्राम ने ईवीएम घोटाले के मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट में केस दायर किया. दबाव  में आकर चुनाव अयोग ने ईवीएम में वीवीपीएटी मशीन तो लगा दिया, लेकिन वीवीपीएटी से निकले वाली कागजी मतपत्रों की 100 प्रतिशत गिनती नहीं की, केवल 5 विधानसभाओं के 5 ईवीएम मशीनों का मिलान किया वो आधा-अधूरा.

इसके बाद वामन मेश्राम 2018 में बहुजन क्रांति मोर्चा के माध्यम से पूरे देश में ईवीएम भंडाफोड़ परिवर्तन निकाली. फिर 2019 में 26 जून से पूरे देश में राष्ट्रव्यापी ईवीएम भंडाफोड़ परिवर्तन यात्रा चला रहे हैं. इस ईवीएम भंडाफोड़ परिवर्तन यात्रा से देश के कोने-कोने में बैठे लोगों को पता चल रहा है कि ईवीएम में घोटाला होता है और यह ईवीएम घोटाला कांग्रेस और बीजेपी दोनों मिलकर कर रही हैं. ईवीएम घोटाले को लेकर पूरे देश में हो रही चर्चा से बीजेपी के अंदर डर हो गया है कि अगर, सभी सीटों पर बीजेपी जीत जायेगी तो यह सिद्ध हो जायेगा कि बीजेपी ने ईवीएम में सेटिंग की थी. क्योंकि, चुनाव के दौरान हरियाणा के असांध सीट से एक बीजेपी प्रत्याशी ने 100 प्रतिशत दावा किया था कि हमारी (बीजेपी) की ईवीएम में सेटिंग है. आप कोई भी बटन दबाओगे, वोट कमल पर ही जायेगा. उन्हांने इतना तक दावा किया था कि ईवीएम सेटिंग से हम यह भी बता सकते हैं कि किस बूथ पर किसने, कितना वोट दिया है.

यह बात खुलते ही बीजेपी के अंदर कोहराम मच गया. इसलिए इस बात को झुठलाने के लिए बीजेपी ने जानबूझकर कम सीटों पर कब्जा किया. ताकि, लोग सोचने पर मजबूर हो जायें कि अगर, ईवीएम में सेटिंग होती तो बीजेपी को कम सीटें नहीं मिलती, बल्कि बीजेपी महाराष्ट्र और हरियाणा में पूर्ण बहुमत में होती. कुछ लोगों का मानना है कि ऐसा नहीं हो सकता है. उनका कहना है कि जानबूझकर बीजेपी कम सीटें क्यों जितेगी, इससे दोनों जगहों से उसकी सत्ता जा सकती है? लेकिन, ऐसा सोचना गलत है. क्योंकि बीजेपी बहुत अच्छी तरह से जानती है कि भले ही उसको दोनों राज्यों में पूर्ण बहुमत नहीं मिलेगा, लेकिन दोनों राज्यों में सरकार उसी की बनेगी. इसको इस तरह से समझा जा सकता है कि जैसे 2019 के लोकसभा चुनाव में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी ने अमेठी से बीजेपी के स्मृति ईरानी को जिताने के लिए वहाँ से जानबूझकर हार गये थे. इसके पीछे कारण यह था कि राहुल गांधी अमेठी के अलावा वायनाड से भी चुनाव लड़े और उनको अच्छी तरह से पता था कि अगर वे अमेठी में हार जाते हैं तो वे वायनाड से जीत रहे हैं. 

अगर राहुल गांधी वायनाड से नहीं लड़े होते केवल अमेठी से लड़े होते तो वे अमेठी से नहीं हारते. यही कारण था कि स्मृति ईरानी को जीताने के लिए ही राहुल गांधी वायनाड और अमेठी से चुनाव लड़े थे. यानी कहने का मतलब यह है कि जैसे राहुल गांधी को पहले से पता है कि वे वायनाड से जीत जायेंगे, ठीक उसी प्रकार से बीजेपी भी जानती है कि महाराष्ट्र और हरियाणा में बहुमत में नहीं होने के बाद भी सरकार उनकी ही बनेगी. इसका उदाहरण सामने है कि हरियाणा में अल्मत होने के बाद भी सरकार बीजेपी की ही बनी है. ठीक इसी तरह से महाराष्ट्र में होने वाला है. कुल मिलाकर ईवीएम के मुद्दे को दबाने के लिए ही बीजेपी ने जानबूझकर कम सीटें जीती है.
राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)