गुरुवार, 8 फ़रवरी 2018

देश के मूलनिवासी बहुजनों को मारने पर उतारू मोदी सरकार

मोदी सरकार ने बढ़ाए जीवनरक्षक दवाओं के दाम


दै.मू.ब्यूरो/नई दिल्ली
मोदी सरकार ने स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण की ओर तेजी से कदम बढ़ाते हुए न केवल जीवन रक्षक दवाओं के दाम बढ़ाकर दवा कंपनियों को खुश किया है, बल्कि दवाओं को महंगा कर मूलनिवासी गरीबों को बेमौत मारने का इंतजाम भी कर दिया है।
दैनिक मूलनिवासी नायक वरिष्ठ संवाददाता ने पहले ही देश की जनता को आगाह करते हुए बताया था कि मोदी सरकार देश के मूलनिवासियों को मारने पर उतारू हो चुकी है। इसका सनसनीखेज खुलासा करते हुए बताया था कि जुलाई माह में राष्ट्रीय दवा मूल्य नियंत्रण प्राधिकरण द्वारा 108 दवाओं को मूल्य नियंत्रण के दायरे में लाने वाले फैसले पर मोदी सरकार ने सितम्बर 2014 में रोक लगा दी है। देशी-विदेशी दवा कम्पनियों और उनकी प्रतिनिधि संस्थाओं ने सरकार के फैसले का दिल खोलकर स्वागत किया था। इस फैसले के तुरन्त बाद शेयर मार्केट में दवा कम्पनियों के शेयरों के भाव में चार प्रतिशत उछाल देखने में आया था। जिसका नतीजा आज भी देखने को मिल रहा है। गौरतलब है कि सरकार का यह फैसला ऐसे समय में आया था जब मोदी की अमेरिकी यात्रा का शोर चारों ओर सुनाई दे रहा था। चुनावी नेताओं, खबरिया चौनलों व अखबारों के कलमघसीट पत्रकारों ने इस विषय पर आम जनता का दृष्टिकोण साफ करने की बजाय और अधिक उलझाने का ही काम किया था।
आपको को बता दें कि मोदी सरकार के वर्तमान फैसले से कुछ महत्वपूर्ण जीवनरक्षक दवाओं की कीमतों में भारी बढ़ोतरी हो गयी है। मसलन रक्तचाप व हृदय की दवा कार्डेस प्लेविक्स जो कि 92 से 147 रुपये में उपलब्ध थी, अब 147 से 1615 रुपये के बीच बिक रही है। कुत्ता काटने पर लगाया जाने वाला एंटीरैबीज इंजेक्शन कैमरेब जो कि 2670 रुपये में मिलता था अब उसकी कीमत 7000 रुपये तक जा पहुँची है। इसी तरह कैंसर की दवा जैफ्रटीनेट ग्लीवेक जो कि 5900 से 8500 रुपये के बीच बिक रही थी, अब 11500 से 1,08,000 के बीच बिक रही है। इस फैसले से दवा कम्पनी सनोफी को 139 करोड़ रुपये, रैनबैक्सी को 38 करोड़ रुपये, ल्यूपिन को 32 करोड़ रुपये, सिपला को 19 करोड़ रुपये का अतिरिक्त मुनाफा हासिल होगा। इसके अलावा सैकड़ों अन्य कम्पनियों को भी इस फैसले से करोड़ों का लाभ मिला है। क्या यह साबित करने लिए कम है कि मोदी सरकार ने जहां दवाओं दाम बढ़ाकर गरीबों को बेमौत मारने का कमा किया है तो वहीं कंपनियों को खुश करने के लिए सरकार ने पूरा खजाना खोल दिया है। क्या साबित करने के लिए काफी नहीं है कि आज तक सरकार का हर फैसला सिर्फ कॉपोरेट घरानों और उन पूंजीपतियों के हित के लिए किया गया है। क्या यह साबित करने के लिए काफी नहीं है कि मोदी सरकार पर कॉरपोरेट घराना मेहरबान नहीं है। यह हरगीज नहीं कहा जा सकता है। इससे साबित होता है कि सरकार ने आज तक जो भी फैसला लिया है वह सिर्फ पूंजीपितयों और कॉरपोरेट घरानों के लिए ही है।
असल में दवाओं के मूल्य को नियंत्रित करने का कानून पहली बार 1970 में बनाया गया। इसके तहत दवा मूल्य नियंत्रण सूची में 370 दवाओं को शामिल किया गया। इसके बाद 1987 में इस सूची को 142 दवाओं तक सीमित कर दिया गया और 1995 में फिर से इसे घटाकर मात्र 75 दवाओं तक समेट कर रख दिया गया। यह कदम मुख्यतः देशी दवा कम्पनियों के कारोबार को बढ़ावा देने के मकसद से उठाया गया था। यहाँ गौर करने की बात यह है कि वर्ष 1980-85 के बीच दवाओं के दामों में 197 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। दवाओं की बेतहाशा बढ़ती कीमतों और स्वास्थ्य सुविधाओं की खस्ता हालत से कहीं जनता का असंतोष न बढ़ जाये इसलिए कांग्रेस सरकार ने वर्ष 2013 में दवा मूल्य नियंत्रण सूची को 75 से बढ़ाकर 348 दवाओं तक कर दिया। हलाँकि इस कदम को उठाने के पीछे कांग्रेस सरकार का एक अन्य मकसद अपनी चुनावी गोट सेंकना भी था। बहरहाल यहाँ यह जानना दिलचस्प होगा कि सरकार द्वारा 348 दवाओं का मूल्य नियंत्रण करने के बावजूद दवा कम्पनियों पर कुल बाजार मूल्य का मात्र 1ण्8 प्रतिशत यानी 1290 करोड़ रुपये का ही नियंत्रण लग पाता है। यह ऐसा हुआ मानो हाथी के शरीर से एक मच्छर खून पी जाये! यह अनायास नहीं है कि वर्ष 1947 में जहाँ दवा कम्पनियों का कारोबार 26 करोड़ का था वही आज 75ए690 करोड़ रुपये तक पहुँच गया है। दवा कम्पनियाँ दवाओं के कारोबार के जरिये किस कदर बेतहाशा मुनाफा कूट रही हैं इसे एकाध उदाहरण से समझा जा सकता है। ब्लड प्रेशर की एक दवा एमलोडिपीन की दस गोलियों को बनाने का खर्च मात्र 01 रुपये है जबकि सराकार ने उसके लिए न्यूनतम मूल्य 30 रुपये निर्धारित किया है! अगर बुखार उतारने वाली दवाओं का ही बाजार देख लिया जाये तो मालूम पड़ता है कि उसका 80 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा नियंत्रण से मुक्त है। ऐसे अनेकों उदाहरण मौजूद हैं जो यह साबित करते हैं कि मूल्य नियंत्रण की राजनीति तो महज एक ढकोसला है जो जनता को भ्रमित करने मकसद से ही किया जाता है। पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी की भूमिका अदा करने वाली सरकारें जनता में यह भ्रम जिन्दा रखने का काम करती हैं कि सरकार को आम जनता की कितनी चिन्ता है। दवाओं के मूल्य नियंत्रण की कवायदें भी इसी का हिस्सा हैं। हालाँकि मौजूदा मोदी सरकार ने तो जनता की चिन्ता का स्वांग रचने के लिए अपना जनमुखी मुखौटा भी उतार फेंककर स्पष्ट कर दिया है कि बड़े.बड़े पूँजीपतियों के मुनाफे की दर को अप्रत्याशित रूप से बढ़ाने के लिए वह कितनी आतुर है।
 यहाँ जानना जरूरी होगा कि दवा मूल्य नियंत्रण प्राधिकरण द्वारा जुलाई माह में 108 दवाओं को मूल्य नियंत्रित करने की कवायद के खिलाफ कई दवा कम्पनियों ने अदालत का दरवाजा खटखटाया और सरकार की सार्वजनिक आलोचना की। यूरोप और अमेरिकी दवा कम्पनियाँ तो पहले से ही इस मसले पर भारत सरकार से खफा थीं। दवा मूल्य नियंत्रण प्राधिकरण के जुलाई महीने में लिए गये फैसले ने आग में घी डालने का काम किया। इस फैसले से अमेरिका और भारत के रिश्तों में काफी तनाव आ गया था। मोदी सरकार ने तुरन्त घुटने टेकते हुए इस फैसले को वापस लिया ताकि अमेरिकी शासकों का दिल खुश किया जा सके। यूँ तो कांग्रेस सरकार ने ही वर्ष 2005 में मुख्यतः अमेरिकी दवा कम्पनियों के दबाव के आगे दण्डवत होते हुए बौद्धिक सम्पदा कानूनों में महत्वपूर्ण संशोधन करना स्वीकार कर लिया था। अमेरिकी पूँजी और खासकर दवा उद्योग में लगी पूँजी अपने बौद्धिक एकाधिकारी कानूनों को लागू करवाना चाहती है जिससे दवा निर्माण में उसका एकछत्र वर्चस्व कायम हो जाये। नरेन्द्र मोदी ने अमेरिकी यात्रा के दौरान अमेरिकी शासकों की कई शर्तों को मान लिया है। आम जनता का जीवन व चिकित्सा की उसकी जरूरतें ज्यादा से ज्यादा दवा कम्पनियों के चंगुल में फँसती जा रही हैं। सरकारें तो असल में दवा मूल्य नियंत्रण के नाम पर जनता को बेवकूफ बनाकर देशी-विदेशी दवा कम्पनियों के मुनाफे की रक्षा कर रही हैं।
आज दुनिया में हथियारों के बाद सबसे ज्यादा मुनाफे का धन्धा दवाओं का व्यापार बन चुका है। जीवन के हर क्षेत्र की तरह ही दवाएँ भी मुनाफा कमाने का एक जबर्दस्त जरिया बन गयी हैं। आज लाखों-लाख लोग महज महँगी दवाओं के चलते छोटी-मोटी बीमारियों में भी अपना इलाज करवा पाने में सक्षम नहीं हैं। निजीकरण, उदारीकरण की नीतियों के चलते देश की सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया गया है। इसका अन्दाजा तो इसी बात से लगाया जा सकता है कि हमारे देश में दुनिया की कुल आबादी का छठवाँ हिस्सा रहता हैए लेकिन स्वास्थ्य पर पूरे विश्व द्वारा खर्च की जाने वाली कुल रकम का 1 प्रतिशत से भी कम हिस्सा भारत सरकार स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करती है। जनता के स्वास्थ्य को पूरी तरह से बाजार की शक्तियों के रहमो-करम पर छोड़ दिया जा रहा है। स्वास्थ्य सेवाओं का प्रश्न केवल दवाओं तक सीमित नहीं है। आज दवा कम्पनियों से लेकर प्राइवेट अस्पतालों व डाक्टरों, पैथॉलोजी लैब एवं डायग्नॉस्टिक सेंटरों का जो पूरा ताना-बाना विकसित हुआ है। उसने अपनी ऑक्टोपसी जकड़बन्दी से जनता को इस कदर अपनी गिरफ्त में ले लिया है कि वह आम जनता के शरीर से खून की आखिरी बूँद तक सोख लेना चाहती है। हमें यह समझना होगा कि स्वास्थ्य सेवा जनता का मूलभूत अधिकार है और जनता तक यह अधिकार पहुँचाने की जिम्मेदारी राज्य व्यवस्था की होती है। अगर कोई राज्य व्यवस्था अपनी इस जिम्मेदारी से मुँह चुरा ले तो क्या ऐसी राज्य व्यवस्था को बनाये रखने का कोई औचित्य है? इसलिए मूलनिवासी बहुजनों को भारत मुक्ति मोर्चा के साथ आकर अपनी आजादी को छीन लें इसी में उनकी भलाई है।

मुझे रोकने के लिए ब्रह्मा के पास औकात नहीं है, ब्राह्मण क्या रोक लेगा-वामन मेश्राम

भारत मुक्ति मोर्चा से यूरेशियन ब्राह्मणों में खौफ
गुजरात में वामन मेश्राम को जान से मारने की ब्राह्मणों ने दी धमकी



दै.मू.ब्यूरो/अहमदाबाद
♦ यूरेशियन ब्राह्मणों होश में आ जाओ, यदि हम बदहोश हो गऐ तो तुम्हारी ऐसी की तैसी कर देंगे, हमें फिर से 01 जनवरी 1818 भीमा कोरेगांव का इतिहास दोहराने के लिए मजबूर मत करो-भारतीय विद्यार्थी मोर्चा
♦ दीन-ए-दस्तूर बचाने के लिए हम भारत मुक्ति मोर्चा को खुले रूप से समर्थन करते हैं और साथ देने के लिए ऐलान करते हैं। देश के मूलनिवासी मुस्लिमों का हित केवल भारत मुक्ति मोर्चा में है और यही संगठन मुस्लिमों के सभी समस्याओं का समाधान कर सकता है-राष्ट्रीय मुस्लिम मोर्चा 
♦ आज से शुरू हो रहा है भारत मुक्ति मोर्चा का नया इतिहास, कच्छ, भुज से आजादी का आंदोलन शुरू हो गया है। यदि ब्राह्मणों में औकात है तो हमारे नेतृत्वकर्ता वामन मेश्राम को रोक कर दिखाए, फिर देखें इसका अंजाम क्या होता है-बहुजन क्रांति मोर्चा
♦ अब सही वक्त आ गया है कि हम महिलाएं भारत मुक्ति मोर्चा के माध्यम से उन गुलामी को खत्म कर सकती हैं जिन ब्राह्मणवादी व्यवस्था में मनुस्मृति सहित तमाम बकवास धर्म ग्रंथों के सहारे हमें मानसिक, शारीरिक और शैक्षणिक गुलाम बनाकर रखा गया है-राष्ट्रीय मूलनिवासी महिला संघ
आज देश में यूरेशियन विदेशी ब्राह्मणों के अंदर कितना खौफ है। इसका अंदाजा सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे वीडियो और तस्वीरों से लगाया जा सकता है। उनके चहरे की झलक साफ गवाही दे रही है कि उनके अंदर यह खौफ किसी और से नहीं, बल्कि भारत मुक्ति मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष वामन मेश्राम के डर से व्याप्त है। इसलिए गुजरात के यूरेशियन विदेशी ब्राह्मणों ने गुजरात में भारत मुक्ति मोर्चा का कार्यक्रम सफल न हो सके इसके लिए न केवल शासन प्रशासन से गुहार लगा रहे हैं, बल्कि वामन मेश्राम को देशद्रोही कहते हुए जान से मारने की धमकी भी दे रहे हैं। विदेशी ब्राह्मणों के इस करतूत को देखते हुए भारत मुक्ति मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष वामन मेश्राम ने कहा कि ‘मुझे रोकने के लिए यदि ब्राह्म को भी औतार लेना पड़े तो भी मुझे नहीं रोक सकता है, ब्राह्मा के पास मुझे रोकने की औकात नहीं है, ब्राह्मण मुझे क्या रोक लेगा। 
दैनिक मूलनिवासी नायक वरिष्ठ संवाददाता ने जानकारी देते हुए बताया कि 06 फरवरी 2018 को गुजरात के कच्छ भुज में भारत मुक्ति मोर्चा का एक दिवसीय कार्यक्रम का आयोजन होने वाला है। अभी कार्यक्रम का आयोजन भी नहीं हुआ, इससे पहले ही गुजरात के यूरेशियन ब्राह्मणों में हलचल मच गई। इसका नजारा सोमवार 05 फरवरी 2018 को गुजरात के कच्छ भुज में उस वक्त देखने को मिला जब भारत मुक्ति मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष वामन मेश्राम के आंदोलन को रोकने के लिए आरएसएस के साथ-साथ कच्छ भूदेव सेना, करणी सेना, ब्राह्मण मंडल, हिन्दू युवा संगठन, बजरंग दल, परशुराम सेना, विश्व हिन्दू परिषद जैसे ब्राह्मणों के कई सारे संगठनों और गुजरात के समस्त ब्राह्मणों ने अपनी पूरी ताकत लगा दी। गौरतलब है कि 06 फरवरी 2018 को गुजरात के कच्छ भुज में भारत मुक्ति मोर्चा का विशाल कार्यक्रम आयोजन होने वाला है। इस कार्यक्रम में एससी, एसटी, ओबीसी सहित मूलनिवासी मुस्लिम भाई लाखों की तादाद में शिरकत कर रहे हैं। इस विशाल कार्यक्रम की अध्यक्षता राष्ट्रीय अध्यक्ष वामन मेश्राम करने वाले हैं। गुजरात में भारत मुक्ति मोर्चा का कार्यक्रम न लगाया जाए, इसके लिए विदेशी ब्राह्मणों द्वारा राजपूतों को सामने किया गया है। 
इस विशाल कार्यक्रम को लेकर ब्राह्मणों द्वारा करीब दस-पंद्रह दिन पहले से ही सोशल मीडिया पर बामसेफ व बामसेफ के राष्ट्रीय अध्यक्ष वामन मेश्राम को जान से मारने की धमकी दे रहे हैं तो कुछ बामसेफ के कार्यकर्ताओं के खिलाफ लगातार कुछ ना कुछ लिख व बोल रहे हैं। कुछ लोग फेसबुक पर पोस्ट लिखकर अपना विरोध जता रहे हैं। इस बात को लेकर ब्राह्मणों ने सोमवार को जिला मजिस्ट्रेट को ज्ञापन सौंपते हुए गुजरात सरकार से मांग कर रहे हैं कि वामन मेश्राम को गुजरात में न आने दिया जाए। इसी के साथ विश्व हिन्दू परिषद के प्रदेश अध्यक्ष रघुवीर सिंह जडेजा द्वारा न केवल गाली दी जा रही है, बल्कि वामन मेश्राम को जान से मारने की धमकी भी दी जा रही है। इस बात को लेकर मूलनिवासी बहुजनों में आक्रोश फूट पड़ा है। आज हजारों संगठन भारत मुक्ति मोर्चा के समर्थन में खड़े हो चुके हैं।
आपको बताते चलें कि पिछले दो साल पहले भी यूरेशियन ब्राह्मणों द्वारा गुजरात में वामन मेश्राम को रोकने की कोशिश की गई थी। उस वक्त गुजरात में करीब 03 हजार ब्राह्मणों ने गुजरात में धरना प्रदर्शन कर सरकार को ज्ञापन सौंपा था और वामन मेश्राम को गुजरात में न आने की मांग की थी, मगर ब्राह्मणों के मंसूबे पर पानी फिर गया। अभी 01 जनवरी 2018 को पूना में भीमा कोरेगांव में भी ऐसा ही ब्राह्मणों द्वार किया गया था। भीमा कोरेगांव में 01 जनवरी को क्रांति दिवस के 200 साल पूरा होने के अवसर पर भारत मुक्ति मोर्चा द्वार विशाल महारैली का आयोजन किया गया था। इस विशाल महारैली को रोकने के लिए अखिल ब्राह्मण महासभा ने देशद्रोही घोषित करने के लिए महाराष्ट्र सरकार से मांग करते हुए सरकार को ज्ञापन सौंपा था। इसके बाद भी भारत मुक्ति मोर्चा के विशाल महारैली को रोक पाना ब्राह्मणों के लिए चुनौती साबित हुआ। 
ब्राह्मणों द्वारा बार-बार ऐसी हरकत से यह साबित हो गया है कि भारत मुक्ति मोर्चा के आंदोलन से ब्राह्मणों में खौफ का माहौल साफ झलक रहा है। अब देश में ब्राह्मणों की खैर नहीं है। ब्राह्मणों को चारों तरफ खतरा ही खतरा नजर आने लगा है। क्योंकि वामन मेश्राम ब्राह्मणवादी व्यवस्था के विरोध में आंदोलन चला रहे हैं। इस आंदोलन के पीछे यही कारण है कि यूरेशियन ब्राह्मण अपनी व्यवस्था में देश के 85 प्रतिशत मूलनिवासी बहुजनों को गुलाम बनाए हुए हैं। इसलिए इस व्यवस्था को खत्म करके ही बहुजनो को ब्राह्मणों की गुलामी से मुक्त कराया जा सकता है। यही कारण है कि यूरेशियन ब्राह्मण इस आंदोलन को रोकने का प्रयास कर रहे हैं।

भारत में बिकने वाली 64 प्रतिशत एंटीबायोटिक दवाएं अवैध-रिपोर्ट

मौत के मुहाने पर खड़ा मूलनिवासी 

दै.मू.ब्यूरो/नई दिल्ली
आज देश के मूलनिवासी बहुजन समाज को मौत के मुहाने पर खड़ा करने में मनुवादी सरकारों ने कोई कसर नहीं छोड़ा है। इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि भारत में जहां घातक बीमारियों की बेहद जरूरी एंटीबायोटिक दवाओं को महंगा कर गरीबों की पहुंच से दूर कर दिया गया है वहीं दूसरी तरफ किसी भी तरह से उपलब्ध होने वाली एंटीबायोटिक दवाओं को पहले से ज्यादा निष्क्रिय बना कर मूलनिवासी बहुजन समाज को मौत के मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया गया है। इस बात का खुलासा तब हुआ जब सोमवार 05 फरवरी 2018 को यूके की एक रिपोर्ट में दावा किया गया कि भारत में बिकने वाली 64 प्रतिशत एंटीबायोटिक दवाएं अवैध हैं।
दैनिक मूलनिवासी नायक प्रमुख संवाददाता ने जानकारी देते हुए बताया कि भारत में एंटीबायोटिक दवाओं को लेकर यूके की एक नई रिपोर्ट आई है। इस रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि भारत में बिकने वाली लाखों एंटीबायोटिक दवाओं की रोकथाम के लिए मोदी सरकार ने अब तक कोई कठोर कानून नहीं बनाया है। जिसका नतीजा सामने है कि भारत में 64 प्रतिशत अवैध दवाओं को धड़ल्ले से बेंचा जा रहा है। गौरतलब है कि यूके में काफी लंबे अरसे से भारत में बिकने वाली दवाओं पर रिसर्च चल रहा था। लंबे रिसर्च के बाद जो नतीजा सामने आया उसे देखकर रिपोर्ट तैयार करने वाले ही चौंक उठे। जब पता चला कि भारत में बिकने वाली 64 प्रतिशत एंटीबायोटिक दवाएं अवैध हैं जिसे मंल्टीनेशनल कंपनियां इस सबके बावजूद इन एंटीबायोटिक दवाओं को भारत में बेच रही हैं और बना भी रही हैं। 
आपको बताते चलें कि यह रिसर्च क्वीन मैरी यूनिवर्सिटी में की गई है, इसमें पाया गया कि 2007 से 2012 के बीच 118 प्रकार की विभिन्न एफडीसी एंटीबायोटिक भारतीय बाजार में बिकती हैं, जिसमें से 64 प्रतिशत ऐसी हैं जो सेंट्र ड्रग्स स्टेंडर्ड कंट्रोल ऑर्गेनाइजेशन से मंजूरी भी नहीं मिली है। इस प्रकार भारत में बिकने वाली यह दवाईयां पूरी तरह से अवैध ही नहीं, बल्कि जानलेवा भी हैं। रिपोर्ट के मुताबिक विश्व स्वास्थ्य संगठन डब्ल्यूएचओ ने चेतावनी दी थी कि एंटीबायोटिक दवाएं जो वर्तमान में क्लिनिकल विकास में हैं, बीमारी से निपटने के लिए अपर्याप्त हैं। यहां पर गौर करने वाली बात यह है कि केन्द्र में आने के बाद मोदी सरकार ने अमेरिका दौरे पर भारत में दवा बनाने वाली विश्व की कई कंपनियों के सीईओ के साथ नाश्ते के टेबल पर जो समझौता किया था उसमें से पहला यह था कि भारत में दवाओं के दाम भारत सरकार तय न कर दवा बनाने वाली कंपनियां ही तय करेंगी। दूसरा यह था कि भारत में बेहद घातक बीमारियों की बेहद जरूरी दवाओं को इतना ज्यादा महंगा कर दिया जाए जो गरीबों की पहुंच से दूर हो जाए। उक्त बातों को र्पूणरूप से विश्लेषण करने से पता चलता है कि उस समझौते में एक समझौता यह भी रहा होगा कि जो भारत में एंटिबायोटिक दवाएं बेंची जा रही हैं उन एंटिबायोटिक दवाओं को निष्क्रिय कर दिया जाए। यही कारण है कि आज भारत में मल्टीनेशनल कंपनियां न केवल धड़ल्ले से अवैध दवाओं को बेंच रही हैं, बल्कि मोदी सरकार बेचवा भी रही है। 

हमें रोकने के लिए ब्राह्मणों के पास कलेजा चाहिए-वामन मेश्राम

ब्राह्मणों के भारी विरोध के बाद भी गुजरात में भारत मुक्ति मोर्चा ने लहराया परचम

दै.मू.ब्यूरो/अहमदाबाद
हमें रोकने के लिए 56 इंच का सीना नहीं, बल्कि 56 इंच सीने के अंदर कलेजा चाहिए। ब्राह्मणों के पास कलेजा ही नहीं है, वो हमें क्या रोक पायेंगे। यह बात मंगलवार 06 फरवरी 2018 को भारत मुक्ति मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष वामन मेश्राम ने गुजरात के कच्छ (भुज) के खासरा मैदान में भारत मुक्ति मोर्चा के विशाल प्रबोधन कार्यक्रम में लाखों की संख्या में उपस्थित जनसमूह को संबोधित करते हुए उस वक्त कही, जिस वक्त आरएसएस समर्थक संगठनों द्वारा गुजरात में न केवल भारत मुक्ति मोर्चा के विशाल कार्यक्रम के आयोजन को रोकने केेे लिए शासन प्रशासन से गुहार लगा रहे थे, बल्कि राष्ट्रीय अध्यक्ष वामन मेश्राम को जान से मारने की धमकी भी दे रहे थे। 
दैनिक मूलनिवासी नायक वरिष्ठ संवाददाता ने जानकारी देते हुए बताया कि यूरेशियन ब्राह्मणों के मंसूबे पर पानी तब फिर गया जब ब्राह्मणों के लाख विरोध करने के बावजूद भी गुजरात के कच्छ (भुज) में भारत मुक्ति मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष वामन मेश्राम की अध्यक्षता में भारत मुक्ति मोर्चा का विशाल संबोधन कार्यक्रम का आयोजन सफलतापूर्वक सम्पन्न हो गया, जिसमें 85 प्रतिशत मूलनिवासी बहुजन समाज के लाखों लोगों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। यही नहीं मूलनिवासी बहुजन समाज के सरकारी कर्मचारियों को भी जगाने का कार्य तब और ज्यादा आसान कर दिया जब गुजरात सरकार ने वामन मेश्राम साहब को सुनने और उनकी सुरक्षा के लिए 02 डीवाईएसपी, 20 पुलिस इंसपेक्टर, 15 लेडिस पुलिस और 80 कॉन्स्टेबल लगा दिए। गौरतलब है कि भारत मुक्ति मोर्चा का यह विशाल आयोजन 06 फरवरी को होने वाला था, मगर इससे पहले ही भारत मुक्ति मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष वामन मेश्राम के आंदोलन को रोकने के लिए आरएसएस के साथ-साथ कच्छ भूदेव सेना, करणी सेना, ब्राह्मण मंडल, हिन्दू युवा संगठन, बजरंग दल, परशुराम सेना, विश्व हिन्दू परिषद जैसे ब्राह्मणों के कई सारे संगठनों और गुजरात के समस्त ब्राह्मणों ने अपनी पूरी ताकत लगा दी थी, इसके बाद भी बहुजनों के नायक वमन मेश्राम को नहीं रोक सके। हालांकि ब्राह्मणों द्वारा वामन मेश्राम को गुजरात में रोकने के लिए पिछले दो साल पहले भी इसी तरह का षड्यंत्र किया गया था। इसके अलावा 01 जनवरी को भीमा कोरेगांव में भी ब्राह्मणों ने भारत मुक्ति मोर्चा के कार्यक्रम को रोकने के लिए एड़ी से चोटी तक जोर लगा दिया, मगर बाल भी बांका न कर सके। आज वैसी ही हरकत दुबारा करके ब्राह्मणों ने साबित कर दिया है कि बहुजनों के नायक वामन मेश्राम को रोक पान ब्राह्मणों के बूते की बात नहीं है। क्योंकि जब-जब विदेशी ब्राह्मण वामन मेश्राम को रोकने की कोशिश करता है तब-तब वामन मेश्राम की शक्ति चार गुना ज्यादा बढ़ जाती है।
आपको बताते चलें कि इस विशाल कार्यक्रम में लाखों की संख्या में उपस्थित जन-समूह को संबोधित करते हुए भारत मुक्ति मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष वामन मेश्रान ने कहा कि लोकतंत्र का प्राणतत्व प्रतिनिधित्व है। इसलिए लोकतंत्र में चुनाव प्रक्रिया एक महत्वपूर्ण भाग है। भारत में पहले बैलेट के द्वारा चुनाव होता था, मगर 2004 से ईवीएम मशीन के द्वारा चुनाव हो रहा है। बैलेट के द्वारा  फ्री, फेयर एण्ड ट्रान्सपेरेन्ट चुनाव होता था, मगर ईवीएम के द्वारा फ्री, फेयर एण्ड ट्रान्सपेरेन्ट चुनाव नहीं होता है। इसलिए 3.5 प्रतिशत ब्राह्मणों ने ईवीएम मशीन में घोटाला करके भारत की सŸा पर सम्पूर्ण अधिकार कर लिया है। भारत के सŸा का दुरूपयोग करके ब्राह्मणों ने भारत के व्यवस्था पर अनियंत्रित कब्जा कर लिया है। इसके कारण भारत में लोकतंत्र के बजाए ब्राह्मणतंत्र स्थापित हो चुका है। लोकतंत्र की हत्या करने में ईवीएम का महत्वूर्ण योगदान है। 
अपनी बात को जारी रखते हुए उन्होंने का कि सन् 2004 और सन् 2009 में कांग्रेस ने सारे देश भर में लोकसभा चुनाव में ईवीएम मशीन का उपयोग किया और कांग्रेस ने ईवीएम मशीन के माध्यम से घोटाला किया। यह घोटला कैसे करना है यह केवल इन्दिरा गांधी को मालूम था। 2004 में कांग्रेस ने ईवीएम मशीन में घोटाला करके चुनाव जीता। 2009 में भी कांग्रेस ने ईवीएम मशीन में घोटाला करके चुनाव जीता। 2004 और 2009 में कांग्रेस द्वारा ईवीएम मशीन में घोटाला करके लोकसभा चुनाव जीतने के बाद डा.सुब्रमण्यन स्वामी ने इसके दस्तावेजी सबूत इकट्ठा किए। डा.सुब्रमण्यन स्वामी ने इसके दस्तावेजी सबूत इकट्ठा करके इसे सुप्रीम कोर्ट में लेकर गया। वैसे बीजेपी को ईवीएम मशीन में घोटाले के बारे में मालमू नहीं था। मगर 2004 और 2009 में कांग्रेस के द्वारा ईवीएम मशीन में घोटाला करके लोकसभा चुनाव जीतने का सबूत डा.सुब्रमण्यम स्वामी ने आरएसएस को दे दिया, जिसके कारण आरएसएस और बीजेपी को भी मालूम हो गया कि ईवीएम मशीन में घोटाला करके चुनाव जीता गया है। इसके बाद कांग्रेस ने आरएसएस के साथ सम्पर्क किया और आरएसएस के साथ गुप्त समझौता किया। इसी गुप्त समझौते का नजीता है कि आज बीजेपी ईवीएम में घोटाला कर सŸा पर कब्जा जमा रही है।
वामन मेश्राम ने आगे कहा कि भारत मुक्ति मोर्चा के माध्यम से हमने मुम्बई हाईकोर्ट, पटना हाईकोर्ट और चण्डीगढ़ हाईकोर्ट में केस दायर कर दिया, क्योंकि तीन राज्यों में चुनाव होने वाले थे। हमने वहां के तीनों हाईकोर्टों में केस दायर कर दिया। हमारे द्वारा केस दायर करने के बाद भी हमने इलेक्शन कमीशन के साथ पत्र व्यवहार जारी रखा। हमने चुनाव आयोग को दोबारा लेटर लिखा और कहा कि जिन राज्यों में चुनाव होने वाले हैं, आप वहाँ चुनाव में ईवीएम मशीन में पेपर ट्रेल क्यों नहीं लगा रहे हो? चुनाव आयोग ने हमको लिखकर जवाब दिया कि नरेन्द्र मोदी पेपर ट्रेल मशीन खरीदने के लिए पैसा नहीं दे रहा है। इसके बाद हमने चुनाव आयोग को दूसरा लेटर लिखा कि संविधान के अनुसार प्रधानमंत्री देश का आखिरी ऑथोरिटी नहीं होता है। इस देश का आखिरी ऑथोरिटी राष्ट्रपति है। क्या चुनाव आयोग ने राष्ट्रपति को चिट्ठी लिखा कि सुप्रीम कोर्ट ने 08 अक्टूबर 2013 को ईवीएम मशीन के साथ पेपर ट्रेल मशीन जोड़ने का आदेश दिया था और भारत सरकार को पेपर ट्रेल मशीन खरीदने के लिए पैसा चुनाव आयोग को देने का भी आदेश दिया था, इसके बावजूद भी देश का प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पैसा नहीं दे रहा है? चुनाव आयोग ने जवाब दिया नहीं। क्या चुनाव आयोग ने चीफ जस्टिस ऑफ इण्डिया को ऐसी ही चिट्ठी लिखी? नहीं लिखी। चुनाव आयोग ने इसके लिए दूसरो दलों के साथ सर्वदलीय मीटिंग क्यों नहीं बुलाई? चुनाव आयोग को ऐसी चिट्ठी लिखना चाहिए था और दूसरे दलों के साथ सर्वदलीय मीटिंग बुलाने के लिए प्रयास करना चाहिए था। क्या चुनाव आयोग ने ऐसा किया? नहीं किया। 08 अक्टूबर 2013 को सुप्रीम कोर्ट का ईवीएम में पेपर ट्रेल मशीन लगाने का निर्णय लागू करने के लिए चुनाव आयोग को प्रेस कॉन्फ्रेंस लेना चाहिए था और भारत के मतदाताओं को बताना चाहिए था कि, ‘आप लोगों ने जिस व्यक्ति को भारत का प्रधानमंत्री चुना है, वह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी फ्री, फेयर एण्ड ट्रान्सपेरेन्ट चुनाव सम्पन्न कराने के लिए पेपर ट्रेल मशीन खरीदने के लिए पैसा नहीं दे रहा है।’ ऐसा प्रेस कॉन्फ्रेंस लेकर चुनाव आयोग ने क्या भारत के मतदाताओं को बताया है? नहीं बताया है। ऐसी चिट्ठी हमने चुनाव आयोग को लिखी और चुनाव आयोग का जवाब प्राप्त करने के लिए हमने दो महीने की राह देखी और दो महीना राह देखने के बाद भी चुनाव आयोग ने हमें कोई जवाब नहीं दिया। तब हमने चुनाव आयोग के खिलाफ ‘कॉन्टेम्प्ट ऑफ कोर्ट’ (न्यायपालिका की अवमानना) का केस सुप्रीम कोर्ट में दायर कर दिया कि, ‘सुप्रीम कोर्ट ने ईवीएम मशीन में पेपर ट्रेल लगाने का आदेश देने के बाद भी चुनाव आयोग ने ईवीएम में पेपर ट्रेल मशीन नहीं लगाया और ऐसा करके चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश का अवमानना किया है। जब हमने कोर्ट में चुनाव आयोग के खिलाफ केस दायर किया तो दूसरे केसों की हियरिंग (सुनवाई) के लिए तारीखे आ रही थी, मगर हमारी केस के हियरिंग के लिए तारीख ही नहीं आ रही थी। जब हमरा आदमी रजिस्ट्रार ऑफिस में इनक्वायरी किया तो रजिस्ट्रार ने बताया की आपके वकील ने तो आपका केस विद्ड्रा (वापस) कर लिया है। 04 जनवरी 2017 को केस का हियरिंग हुआ। चुनाव आयोग ने मेरे खिलाफ चार वकील खड़े किया। चुनाव आयोग के सिनियरमोस्ट लॉयर ने सुप्रीम कोर्ट के जज को कहा कि जज साहब यह जो वामन मेश्राम है, वह ऐसे-ऐसे लेटर लिखता है? इसलिए दो महीने का समय और बढ़ा दिया जाए। इसलिए 04 मार्च 2017 को दो महीने के लिए समय बढ़ा दिया गया। 04 मार्च 2017 आया, मगर चुनाव आयोग ने कोई जवाब सुप्रीम कोर्ट में दाखिल नहीं किया। क्योंकि चुनाव आयोग के पास इसका कोई जवाब ही नहीं था। सुप्रीम कोर्ट ने जो नोटिस जारी किया था, उस नोटिस का चुनाव आयोग ने कोई जवाब नहीं दिया। अंत में उन्होंने कहा कि अब हम फैसला कर चुके हैं कि जब हमने बैलेट पेपर की मांग की तो पेपर ट्रेल मशीन दिया अब हमें पेपर ट्रेल मशीन नहीं चाहिए, हमें बैलेट पेपर चाहिए। यदि आयोग और सरकार इस पर अमल नहीं करता है तो हम 2019 के लोकसभा में ईवीएम के विरोध में ईवीएम फोड़ो अभियान चलाएंगे और ब्राह्मणों को सबक भी सिखाएंगे।

भारत मुक्ति मोर्चा के डर से देश छोड़ने को मजबूर शासक वर्ग







14 साल में 61,000 करोड़पति शासक जातियों ने छोड़ा देश
दै.मू.ब्यूरो/नई दिल्ली
आज देश में हजारों सालों से पैर पसार चुके शासक (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) जातियों में भारत मुक्ति मोर्चा का डर किस कदर सताने लगा है। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 14 साल में 61,000 से ज्यादा शासक जातियों ने भारत छोड़कर दूसरे देश में अपने ठिकाने बना चुके हैं। यह तो बस एक छोटा सा नमूना है, अभी तो पूरी फिल्म बाकी है। आगे ब्राह्मणों का क्या हाल होने वाला है, शायद इसका अंदाजा यूरेशियन ब्राह्मणों को लग चुका है। यही कारण है कि भारत से ब्राह्मणों का भाग जाना ही उनके लिए हमफूज लग रहा है। यह देश के 85 प्रतिशत मूलनिवासी बहुजनों के लिए खुशी की बात है। 
दैनिक मूलनिवासी नायक वरिष्ठ संवाददाता ने जानकारी देते हुए बताया कि न्यू वर्ल्ड वेल्थ रिपोर्ट के अनुसार पिछले वर्ष जहां 25017 में करीब 7000 धनकुबेर शासक जातियों ने भारत छोड़ दिया था वहीं वर्ष 2016 में यह आंकड़ा 6000 था, जबकि 2015 में 4000 शासक जातियों ने भारत को अलविदा कह चुके थे। रिपोर्ट में हालांकि कहा गया है कि चीन और भारत से अमीरों का पलायन चिंता की बात नहीं है, क्योंकि इन देशों को जितने लोग छोड़ कर चले जाते हैं, उससे ज्यादा हर साल नए अमीर बन जाते हैं। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि जैसे-जैसे इन मुल्कों का रहन-सहन का स्तर सुधरेगा, उम्मीद है कि ज्यादातर धनकुबेर यहां लौट आएंगे। यदि पलायन के ट्रेंड को देखें तो भारतीयों की पहली पसंद अमेरिका है। उसके बाद संयुक्त अरब अमीरात, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड हैं। मजेदार बात तो यह है कि भले ही देश की ब्राह्मण्पवादी मीडिया इनके विदेशों में बसने की वजह कुछ और बाता रही हो, मगर जमीनी हकीकत तो यही है कि शासक जातियों के भारत से जाने की वजह जैसा मीडिया बता रहा है वैसा नहीं है। सच तो यही है कि भारत मुक्ति मोर्चा की डर की वजह से शासक जातियां भारत छोड़ने पर मजबूर हो रही हैं। इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 14 साल में भारत से 61,000 करोड़पति (एचएनआई) अर्थात शासक जातियां सुरक्षा एवं बच्चों की शिक्षा के नाम पर विदेशों में शरण ले चुके हैं। यानी हर दिन करीब 12 करोड़पति शासक जातियां विदेशों में जा चुके हैं। 
आपको बताते चलें कि न्यू वर्ल्ड वेल्थ एवं एलआईओ ग्लोबल द्वारा संयुक्त रूप से जारी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि 21वीं सदी की शुरुआत से दूसरे देश की नागरिकता के लिए आवेदनों एवं स्थान परिवर्तन में जबर्दस्त तेजी आयी है जो शासक जातियों के लिए सुनहरा मौका मिल गया, बस इसी का फायदा उठाकर शासक जातियां अन्य देश को अपना ठिकाना बना रही हैं। क्योंकि रिपोर्ट के अनुसार उनका मानना है कि उनके भारत से पलायन का कारण संकट, सुरक्षा एवं बच्चों को उच्च शिक्षा उपलब्ध कराना ही प्रमुख कारण हैं। दरअसल मामला वह नहीं है जैसा मीडिया द्वारा बताया जा रहा है, बल्कि मामला यह है कि देश में भारत मुक्ति मोर्चा ब्राह्मणों के विरोध में जन-आंदोलन चला रहा है। क्योंकि इन ब्राह्मणों ने भारत के 85 प्रतिशत मूलनिवासी बहुजन समाज को हजारों साल से न केवल शैक्षणिक, सामाजाकि, धार्मिक, मानसिक बल्कि आर्थिक गुलाम बनाकर खुद को करोड़पति और शासक बनाया हुआ है। इस व्यवस्था को बदलने के लिए ही भारत मुक्ति मोर्चा ब्राह्मणों को भारत छोड़कर जाने के लिए मजबूर कर दिया है।

शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2018

लंदन के बाद अब भारत में लगे आरएसएस गो बैक के नारे

लंदन के बाद अब भारत में लगे आरएसएस गो बैक के नारे

दै.मू.ब्यूरो/असम
अभी पिछले ही दिन भीमा कोरेगांव हिंसा के खिलाफ लंदन की सड़कों पर न केवल मोदी विरोधी नारे लगाए जा रहे थे, बल्कि भारत में ब्राह्मणवाद के खिलाफ लंदन में हल्ला बोला भी बोला गया था अभी इसे दो दिन भी नहीं बीता कि वही अब ‘आरएसएस गो बैक’ के तेल नारों से पूरा भारत गूंज उठा है। इसका बेहतरीन नजारा तब देखने को मिला जब बृहस्पतिवार 25 जनवरी 2018 को भीमाकोरेगांव में यूरेशियन ब्राह्मणों द्वारा खूनी हिंसा को अंजाम देने देने वाले मिलिंद एकबोट, मनोहर भिड़े और आनन्द दवे को फांसी की मांग रकते हुए राष्ट्रीय अध्यक्ष वामन मेश्राम के दिशानिर्देशन में भारत मुक्ति मोर्चा एवं सभी ऑफसूट संगठनों द्वारा उŸार प्रदेश के 75 जिलों में उग्र धरना प्रदर्शन कर डीएम को ज्ञापन सौंपा गया उसी दिन असम की सड़कों पर आरएसएस गो बैंक के नारे भी लगाए जा रहे थे।
दैनिक मूलनिवासी नायक वरिष्ठ संवाददाता ने जानकारी देत हुए बताया कि देश में महज एक फिल्म ‘पद्मावत’ को लेकर हो रही हिंसा और प्रदर्शनों के शोर में उत्तर-पूर्व से आ रही चिंताजनक खबरों को ब्राह्मणवादी मीडिया द्वारा एक साथ बड़ी कुशलता के साथ दबा दिया गया है। असम के पहाड़ी जिले दीमा हसाओं की सड़कों पर ”आरएसएस गो बैक यानी ‘‘आरएसएस वापस जाओ’’ के नारे लग रहे हैं, लेकिन ये तस्वीरें टीवी से पूरी तरह नदारद हैं और प्रिंट माध्यम में भी तकरीबन नहीं के बराबर हैं। नगालैंड और मणिपुर के कुछ उग्रवादी गुटों ने गणतंत्र दिवस के बहिष्कार की यह घोषणा करते हुए की है कि उन्होंने इस गणतंत्र का हिस्सा होना स्वेच्छा से नहीं चुना था। उधर, नगालैंड के सबसे बड़े उग्रवादी समूह एनएससीएन(आइएम) ने एक बयान जारी करते हुए यहां विधानसभा चुनावों के बहिष्कार की बात की है और कहा है कि चुनाव से पहले नगा समझौते को लागू कर दिया जाना चाहिए। 
आपको बताते चलें कि असम में दीमा हसाओं की सड़कों पर उतरे नगाओं की आवाज और बैनर-पोस्टर में झलक रहा एक शख्स का नाम यह बताने के लिए काफी है कि नगा समझौते के साथ आरएसएस का रिश्ता क्या है और आखिर इस मामले में भारत सरकार ने कैसे नगाओं के साथ धोखा किया है? करीब ढाई साल पहले 3 अगस्त 2015 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्विटर पर अचानक एलान किया था कि उसने नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (इसाक-मुइवा) के साथ एक समझौता कर लिया है और यह संधि न केवल समस्या का अंत होगी बल्कि एक नए भविष्य का आरंभ भी करेगी। इस बीच एक चौंकाने वाले घटनाक्रम में आरएसएस की ओर से नगा समझौते का एक मसौदा दस्तावेज सामने रखा गया जिसे उत्तर-पूर्व में चार दशक से कथित रूप से सक्रिय संघ के कार्यकर्ता जगदम्बा मल्ल ने तैयार किया है। असम की सड़कों पर इन्हीं सज्जन के खिलाफ पिछले दो दिनों से नारे लग रहे हैं और ‘‘आरएसएस वापस जाओ’’ की मांग की जा रही है। 
दरअसल मामला यह है कि जगदम्बा मल्ल पिछले दिनों उत्तर-पूर्व में बीजेपी की चुनावी घुसपैठ में अहम व निर्णायक भूमिका निभाने वाले व्यक्ति हैं। उनका निजी प्रयास है जो 45 साल से ज्यादा समय तक नगा मसले पर उनके अध्ययन की उपज है। वे कि केंद्र को समझौता लागू करने के लिए अंतिम समयसीमा 31 जनवरी, 2018 की तय करनी चाहिए। इस समय सीमा में अब केवल छह दिन का वक्त शेष है, जबकि नगालैंड सहित दो अन्य राज्यों में चुनाव आचार संहिता पहले ही लग चुकी है। मल्ल ने प्रस्ताव दिया है कि नगालैंड के पांच सीमावर्ती जिलों के कुछ क्षेत्रों को मिलाकर एक सीमांत नगालैंड नाम के केंद्र शासित प्रदेश का गठन किया जाए। जबकि यह नगालिम की मांग के एकदम खिलाफ है और इसके चलते सीमावर्ती राज्यों को भी दिक्कत होगी, इसी बात ने मणिपुर के नगालैंड से लगे जिलों सेनापति, तामेंगलांग, उखरुल, चंदेल, नोनी, कामजांग और तेंगनोपाल के लोगों को चिंता में डाल दिया है, जबकि दीमा हसाओं के लोग सड़कों पर उतर चुके हैं और आज उनहोंने 12 घंटे के बंद का एलान कर दिया है। इससे यह साबित होता है कि अब न केवल बीजेपी, बल्कि आरएसएस के ऊपर खतरा मंडराने लगा है।

लोमोआ समझौता कर भारत को गुलामी की तरफ ले जाती मोदी सरकार

लोमोआ समझौता कर भारत को गुलामी की तरफ ले जाती मोदी सरकार


दै.मू.ब्यूरो/नई दिल्ली
लोमोआ समझौते का सबसे बड़ा नुक्सान हमें सामरिक तौर पर उठाना पड़ेगा, रूस अब तक अपनी सबसे सर्वोत्तम टेक्नोलॉजी जैसे अकुला श्रेणी की परमाणु पनडुब्बी, सुखोई श्रेणी के सबसे एडवांस लड़ाकू विमान जैसे सुखोई-30 एककेआई, ब्रह्मोस मिसाइल, टी-90 टैंक भारत के साथ..
इस लेख का शीर्षक पढ़ के लोगों के मन में एक सवाल जरूर उठेगा कि कैसी गुलामी? किसकी गुलामी? किस चीज की गुलामी की बात यहाँ की जा रही है? इन प्रश्नों के जवाब से ही मैं इस लेख की शुरुआत करता हूँ। आज 21वीं शताब्दी के समय में सीधे तौर पर किसी देश को अपना गुलाम बनाना सम्भव नहीं है, लेकिन अप्रत्यक्ष तौर पर देशों को साम्राज्यवादी नीतियों और समझौतों के जरिये गुलाम बनाने का काम पिछले 20 सालों से जारी है। इसी कड़ी में एक नया समझौता है ‘लेमोआ’ जिसके तहत अमरीका जब चाहे तब भारत के अंदर अपनी फौजों को तैनात कर सकता है।
अभी किसी को भी इस बात का अंदाजा नहीं है कि इस समझौते पर हस्ताक्षर कर के कितनी बड़ी भूल हम कर रहे हैं। इसे हस्ताक्षर करने के बाद अब हम अमरीकी विदेश नीति की हाँ में हाँ मिलाने वाले एक गुलाम देश की भांति बन के रह जायेंगे, हमारा रक्षा मंत्रालय सिर्फ पेंटागन का अग्रिम अड्डा बन के रह जायेगा। यह समझौता हिंदुस्तान की आजादी पर एक बड़ा गहरा धब्बा है। सबसे बड़ी चिंता की बात ये है कि अभी वो दस्तावेज जनता के लिए सार्वजनिक नहीं किया गया है जिस पर भारत सरकार ने हस्ताक्षर किये हैं और अगर जनता ने आंदोलन के जरिये दबाव नहीं बनाया तो वो कभी सार्वजानिक किया भी नहीं जायेगा। इस समझौते का सबसे बड़ा नुक्सान हमें सामरिक तौर पर उठाना पड़ेगा, रूस अब तक अपनी सबसे सर्वोत्तम टेक्नोलॉजी जैसे अकुला श्रेणी की परमाणु  पनडुब्बी, सुखोई श्रेणी के सबसे एडवांस लड़ाकू विमान जैसे सुखोई-30 एमकेआई, ब्रह्मोस मिसाइल, टी-90 टैंक भारत के साथ साझा करता आया है या फिर भारत के साथ मिल कर विकसित कर रहा है।
लेमोआ पर हस्ताक्षर होने के बाद अमरीका की फौज भारतीय सैन्य अड्डों पर तैनात होने की आशंका के बीच रूस ने आगे से अपनी सर्वोत्तम सैन्य टेक्नोलॉजी भारत के साथ साझा न करने के संकेत दे दिए हैं। आज तक बिना किसी शर्त के रूस अपनी सर्वोच्च टेक्नोलॉजी भारत के साथ ट्रांसफर ऑफ टेक्नोलॉजी के तहत साझा करता आया है जैसे कि हम सुखोई 30 एमकेआई लड़ाकू विमान के केस में देख सकते हैं। किसी दूसरे देश ने न तो आजतक इस तरह भारत का सैन्य सहयोग किया है और न ही कर सकता है। इस समझौते पर हस्ताक्षर होने के बाद अमरीका भारत को 50 साल पुराने एफ-16 लड़ाकू विमान देने की पेशकश कर रहा है, जो सुखोई 30 एमकेआई लड़ाकू विमान के आगे कहीं भी नहीं टिक सकता।
ध्यान देने योग्य बात ये है कि अमरीका खुद की वायुसेना से एफ-16 लड़ाकू विमान बाहर निकाल रहा है और नई श्रेणी के एफ-35 लड़ाकू विमान अपनी वायुसेना में शामिल कर रहा है। इस लेमोआ नाम के समझौते की वजह से भारत के सामरिक नुकसान का एक पहलू ये भी है कि इस से हमारे पुराने और विश्वासपात्र मित्र रूस की चीन और पाकिस्तान के गुट में शामिल होने की संभावना है जिसका पहला संकेत आज तक के इतिहास में पहली बार हो रहे रूस और पाकिस्तान के सैन्य अभ्यास से मिल रहा है। इस समझौते का दूसरा सबसे बड़ा नुकसान होगा भारत की अपनी आजाद विदेश नीति का अमरीकी सरकार के सामने सरेंडर कर देना। अब तक कई ऐसे देश जैसे ईरान के साथ भारत के अच्छे रिश्ते रहे हैं जिनका अमरीका के साथ छत्तीस का आंकड़ा रहा है। लगभग 2000 करोड़ की लागत से भारत ने ईरान में अपने सामरिक हितों की पूर्ति के लिए चाबहार पोर्ट विकसित किया है। तो अब क्या अमरीकी दबाव में भारत उस पोर्ट का सामरिक इस्तेमाल बन्द कर देगा? इतिहास गवाह है कि अमरीका अपने हर मित्र पर अपनी नीतियां थोपता आया है, तो क्या अब भारत की विदेश नीति भी अमरीका के इशारे पर चलेगी? तो क्या अब भारत भी अमरीका के दबाव में हर उस देश पर प्रतिबंध लगायेगा जो अमरीका के साम्राज्यवाद के विरोध में खड़ा होगा? इन सभी प्रश्नों का उत्तर इस समझौते पर हस्ताक्षर होने के बाद अमरीका के हाथ में चला गया है।
लेमोआ पर हस्ताक्षर करने के बाद भारत ने विदेश मामलों में अपने निर्णय लेने की ताकत अब अमरीका के पास गिरवी रख दी है। अब हमें अमरीका की हाँ में हाँ और न में न मिलाना पड़ेगा। इस समझौते के सामाजिक दुष्परिणाम भी हमे लंबे समय तक देखने को मिलेंगे। पिछले 59 सालों से जापान के ओकिनावा शहर में अमरीका के लगभग 28000 फौजी तैनात हैं और वो जापानी महिलाओं से छेड़छाड़ से ले कर नशीले पदार्थों की तस्करी तक के हर तरह की गैरकानूनी काम में संलिप्त हैं। जापान की सरजमी होने के बावजूद ऐसे गैरकानूनी कामों में संलिप्त अमरीकी फौजियों पर जापान को अपने कानून के हिसाब से कोई भी कार्रवाई करने का अधिकार नहीं है। इसी तरह के हालात भारत में अमरीकी फौजों की तैनाती के बाद बनेंगे।
बड़ा सवाल ये है कि क्या ऐसे दोषी अमरीकी फौजियों पर भारत के संविधान के तहत कार्रवाई की जा सकेगी? 1940 में दूसरे विश्व युद्ध के दौरान भी लगभग 2 लाख अमरीकी सैनिक भारत में तैनात किये गए थे, उस समय के ब्रिटिश दस्तावेज बताते हैं कि अमरीकी सैनिकों की भारत में तैनाती के बाद महिलाओं से छेड़छाड़ और नशीली पदार्थों के तस्करी जैसी गैरकानूनी गतिविधियां बहुत ज्यादा बढ़ गयी थी। क्या हमारी सरकार ने ऐसी समस्याओं का हल सोचा है? सन् 2000 में बूज एलन नाम के आदमी को अमरीका ने भारतीय सैन्य अधिकारियों की दिमागी सोच पढ़ने के लिए भारत भेजा था। अपनी रिपोर्ट में बूज एलन ने कहा कि भारतीय सैन्य अधिकारी सोचते हैं कि पूरे विश्व ने उन्हें उच्चतम सैन्य टेक्नोलॉजी से जानबूझ कर दूर रखा गया है। भारतीय सैन्य अधिकारियों का दिमाग पढ़ने के बाद  बाद अमरीका ने ये झांसा देना शुरू किया कि अगर भारत 4 समझौतों पर हस्ताक्षर कर दे तो उसे उच्चतम टेक्नोलॉजी हम दे देंगे। इन सब में सबसे पहला था ळप्ैडव्। जिस पर 2002 में वाजपेयी सरकार ने हस्ताक्षर किये थे, अब उसके बाद लेमोआ पर मोदी सरकार ने 14 साल बाद हस्ताक्षर किये हैं। स्म्डव्। के बाद अब भारत को ब्प्ैडव्। पर हस्ताक्षर करने के लिए बोला गया है, किसमोआ के तहत भारत को अपना सारा कम्युनिकेशन डाटा अमरीका के साथ साझा करना पड़ेगा।
आज का समय साइबर वारफेयर का है, अगर हमें अपने सारे एन्क्रिप्शन कोड्स अमरीका के साथ साझा करने पड़ेंगे तो हमारी सीक्रेसी कहाँ बची? युद्ध के दौरान कमांड सेंटर से सारा डाटा एन्क्रिप्टेड कोड्स के जरिये भेजा जाता है, इन कोड्स के साझा होने के बाद हमारी सारी सैन्य मूवमेंट का पता अमरीका आसानी से लगा सकता है। किसमोआ के बाद बीका पर हस्ताक्षर करने के लिए बोला जायेगा, जिसके तहत हमे अपनी स्पेस सैटेलाइट्स से जुडी सारी जानकारी अमरीका के साथ साझा करनी पड़ेगी। यह सब सामरिक दृष्टि से किसी भी आजाद देश के लिए बहुत हानिकारक है। अब जब अमरीका हमारे सैन्य अड्डों का इस्तेमाल करेगा तो वो आसानी से भारत की सामरिक दृष्टि के लिहाज से अति महत्वपूर्ण हथियार जैसे अग्नि मिसाइल सिस्टम, परमाणु हथियार और स्ट्रेटेजिक फोर्स कमांड के बारे में जानकारी जुटा सकता है। समझौता किसी भी दो बराबर के देशों के साथ किया जाता है, हम सब अच्छी तरह से वाकिफ हैं कि भारत और अमरीका की सैन्य ताक़त में जमीन आसमान का अंतर है। सरकार द्वारा ये प्रचार भी किया जा रहा है कि ये समझौता दोनों तरफ की फौजों को एक दूसरे के बेस इस्तेमाल करने की इजाजत देगा लेकिन मेरा एक सवाल है कि हमे उनके बेस इस्तेमाल करने की जरूरत ही क्या है? हमारी नेवी कोई ब्लू वाटर नेवी नहीं है, हमारी नेवी की सामरिक ताक़त और जरुरत सिर्फ इंडियन महासागर, अरब महासागर और बंगाल की खाड़ी तक है। हम खुद आतंकवाद और उग्रवाद से इतने जूझ रहे हैं तो हम अपनी सेना को अमरीका के बेसों में तैनात कर के क्या करेंगे? हमारी वायुसेना को लड़ाकू विमानों की 45 स्क्वाड्रन की आवश्यकता है लेकिन अभी हमारे पास हैं सिर्फ 32 वो भी अधिकतर कई दशक पुराने लड़ाकू विमान जैसे मिग 21, मिग 25 से बनायी हुई तो हम अपनी वायुसेना को किस लिए अमरीका में तैनात करेंगे? अमरीका के बेसों को इस्तेमाल करने में हमारा कोई भी सामरिक हित नहीं है और न ही हमारी इतनी क्षमता कि इतनी दूर हम अपनी फौज को तैनात करें। प्रैक्टिकली हमारी फौजों को अमरीका में तैनात करने का कोई अर्थ ही नहीं बनता है और न ही हमे वहां तैनात करने की जरुरत।
भारत नाम और ब्रिक्स जैसी संस्थाओं का स्थापना सदस्य रहा है जो किसी भी अंतर्राष्ट्रीय गुट का हिस्सा नहीं बनने की वकालत करती है। अपने इंडिपेंडेंट स्टैंड की वजह से ही आज तक भारत की विश्व की नजरों में अलग से इजाजत रही है। 1948 में जब फिलिस्तीनियों की धरती पर इस्राईलियों को बसाने का सब समर्थन कर रहे थे तो भारत ने दो टूक खड़े हो कर दुनिया के सामने कहा था कि एक आजाद फिलिस्तीन देश फिलिस्तीनियों का जन्मसिद्ध अधिकार है और ये अधिकार इनको मिलना चाहिए। लेकिन यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि लेमोआ और जेसमोआ जैसे समझौतों पर हस्ताक्षर कर के भारत पहली बार किसी गुट का हिस्सा बना गया है और अपनी इंडिपेंडेंट पॉलिसी हमेशा के लिए खो दी है। कुछ लोगों को यह धोखा है कि इस समझौते के बाद अमरीका चीन के खिलाफ युद्ध में भारत का साथ देगा, किसी भी इंसान का यह सोचना बड़ा हास्यास्पद है। अभी 2007 में फिलीपीन्स के साथ भी लेमोआ जैसा समझौता अमरीका ने किया था लेकिन जब एक द्वीप के ऊपर फिलीपींस का टकराव चीन के साथ हुआ तो अमरीका फिलीपींस की मदद के लिए नहीं आया। अमरीका के इस तरीके के घटिया रवैये से परेशान हो कर फिलीपींस के राष्ट्रपति ने इस लेमोआ जैसे समझौते के तहत फिलीपींस में तैनात की गयी अमरीकी फौजों को जल्दी से जल्दी देश छोड़ने के लिए कहा है। वैसे भारतीय लोग यह झूठा सपना देखना बन्द कर दें कि अमरीका किसी युद्ध की स्थिति में भारत के पक्ष में आ कर खड़ा होगा।
निश्चित रूप से चीन से हमारा टकराव है और भारत और चीन की पहली कोशिश उस टकराव को बातचीत के जरिये सुलझाने की होनी चाहिए। लेकिन अगर सैन्य टकराव की जरुरत पड़ती है तो खुद भारत को इतना मजबूत होना पड़ेगा की वो चीन का मुकाबला अपने अकेले दम पर कर सके। आखिरी बात ये है कि स्म्डव्। पर हस्ताक्षर भारत की कूटनीतिक विफलता है क्योंकि किसी शक्तिशाली देश जैसे अमरीका की गोद में बैठ जाने को कूटनीति नहीं कहते, कूटनीति का अर्थ होता है सभी देशों के साथ अच्छे सम्बंध बना के हर देश का अपने सामरिक हितों के पक्ष में इस्तेमाल करना। लेमोआ जैसे किसी समझौते पर हस्ताक्षर कर के अमरीका जैसे किसी शक्तिशाली देश की सेना को अपनी सरजमी पर बुलाने को आत्मसर्पण करना बोलते हैं, कूटनीति नहीं। इस तरह का आत्मसमर्पण ही गुलाम बनने की और पहला कदम होता है। अगर समय रहते लेमोआ नाम के काले दस्तावेज का भारतीय जनता द्वारा विरोध नहीं किया गया तो हमारा मुल्क गुलामी के अँधेरे में और ज्यादा धंसता चला जायेगा।

यूपी में सांप्रदायिक तनाव कायम रहा तो अगली सरकार भी हमारी-अमित शाह

देश मे जितना हिंसा का कीचड़ होगा, उतना अच्छा कमल खिलेगा


दै.मू.ब्यूरो/नई दिल्ली
बिना दंगे के बीजेपी कोई भी चुनाव न तो जीत सकती है और न ही उसकी तैयारी ही कर सकती है। यह किसी कल्पना के आधार पर नहीं, बल्कि सबूत और दलीलों के आधार पर बतायी जा रही है। क्योंकि साक्ष्यों और दलीलों के आधार पर साबित हो जाता है कि दंगा-फसाद, आतंकी हमला और धार्मिक षड्यंत्र ही शासक वर्ग के राजनीति का मूल आधार है अर्थात नींव है। बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह द्वारा पिछले साल दिए गए ये बयान ‘देश मे जितना हिंसा का कीचड़ होगा, उतना अच्छा कमल खिलेगा और यूपी में सांप्रदायिक तनाव कायम रहा तो अगली सरकार भी हमारी होगी’ यह इस बात की पुष्टि कर रहा है। इससे साबित होता है कि सहारपुर, शामली, मुजफ्फरपुर, अलीगढ़ और कासगंज की विभत्स घटना बीजेपी की ही देन है। 
दैनिक मूलनिवासी नायक समाचार एजेंसी से मिली जानाकारी के अनुसार देश या सूबे में जब-जब चुनावी दौर शुरू होता है, तब-तब कांग्रेस, बीजेपी न केवल दंगा-फसाद करवाती हैं, बल्कि आतंकी जैसे हमलों को भी अंजाम देती है। इसी बात का आंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि बिना दंगा-फसाद के बीजेपी कोई भी चुनाव न तो जीत सकती है और न ही उसकी तैयारी ही कर सकती है। इस बात का सबूत यह है कि पिछले साल यूपी सहित पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के दौरान बीजेपी अध्यक्ष ने कहा था कि ‘देश मे जितना हिंसा का कीचड़ होगा, उतना अच्छा कमल खिलेगा और यूपी में सांप्रदायिक तनाव कायम रहा तो अगली सरकार भी हमारी होगी’। इसका नतीजा यह हुआ कि सहारनपुर, शामली, मुजफ्फरनगर, अलीगढ़ महीनों तक हिंसा, दंगा-फसाद की आग में झुलसते रहे, जैसे आज कासगंज हिंसा की आग में झुलस रहा है। गौरतलब है कि बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने पूर्वोत्तर दौरे में सीपीएम सरकार और सीएम से कहा था कि ‘मैं राज्य की सरकार को बता देना चाहता हूं कि बीजेपी हिंसा से नहीं घबराएगी, जितना ज्यादा हिंसा का कीचड़ फैलेगा, उतना ही बेहतर कमल मतलब बीजेपी का चुनाव निशान खिलेगा। यही नहीं इसी के साथ भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का मानना है कि अगर उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक तनाव लगातार जारी रहा तो इसका लाभ उनकी पार्टी को मिलेगा। वह यहां तक कहते थे कि यदि मौजूदा स्थिति बरकरार रही तो राज्य में अगली सरकार भाजपा की बनेगी। इसका मतलब साफ है कि चुनाव के दौरान बीजेपी ने न केवल उŸार प्रदेश में हिंसा और दंगा-फसाद करवाया था, बल्कि पूरे देश को हिंसा की आग में झोंककर ही केन्द्र से लेकर अन्य राज्यों में सŸासीन हुई है। इन षड्यंत्रों में चुनाव आयोग से लेकर ब्राह्मणवादी मीडिया तक शामिल हैं। क्योंकि शाह के इस बयान पर मचे बवाल के बाद चैनल ने एक बयान में कहा था कि भाजपा अध्यक्ष के बयान को गलत तरीके से पेश किया गया है। यानी अमित शाह को बचाने के लिए मीडिया ऐसा बयान दे रही है। क्या यह साबित करने के लिए कम है कि मीडिया इस षड्यंत्र में शामिल नहीं है। 
आपको बताते चलें कि बीजेपी द्वारा इसीलिए देश में हिन्दू-मुस्लिम दंगे कराये गये और कराये जा रहे हैं कि जितना ज्यादा हिन्दू-मुस्लिम दंगा-फसाद होगा उतना ही ज्यादा मुस्लिमों में दहशत रहेगा और उतना ही हिंदू के नाम पर एससी, एसटी और ओबीसी बीजेपी को वोट करेगा। मगर यह भी हकीकत है कि बीजेपी को सŸासीन करने का श्रेय जितना हिंदू-मुस्लिम दंगा-फसाद का नहीं है इससे कहीं ज्यादा ईवीएम का है। मगर इसके पीछे धर्म के नाम पर निर्दोष मूलनिवासी मुस्लिमों का नरसंहार किया जा रहा है। यहां पर गौर करने वाली बात है कि ईवीएम के मुद्दे को जहां हिन्दू-मुस्लिमों के बीच दंगा-फसाद दबा रहा है तो वहीं दंगा-फसाद को ईवीएम से बनी सरकार यानी भाजपा दबा रहा है।

एक और खतरनाक रक्षा समझौता



 अमेरिका के बाद अब फ्रांस से रक्षा समझौते पर सरकार की मुहर
लोमोआ समझौता कर भारत को गुलामी की तरफ ले जाती मोदी सरकार
दै.मू.ब्यूरो/नई दिल्ली
♦ आज 21वीं शताब्दी के समय में सीधे तौर पर किसी देश को अपना गुलाम बनाना सम्भव नहीं है, लेकिन अप्रत्यक्ष तौर पर देशों को साम्राज्यवादी नीतियों और समझौतों के जरिये गुलाम बनाने का काम पिछले 30 सालों से जारी है। इसी कड़ी में एक नया समझौता है ‘लेमोआ’ जिसके तहत अमरीका और फ्रांस जब चाहे तब भारत के अंदर अपनी फौजों को तैनात कर सकता है।
केन्द्र की मोदी सरकार का बार-बार रक्षा समझौता करना संदेह पैदा करता है कि आखिर मोदी सरकार इतना ज्यादा रक्षा सौदा कर देश में क्या करना चाहती है? अभी बीते 29 अगस्त को अमेरिका के साथ ‘लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट’ (लेमोआ) पर समझौता किए हुए करीब साल ही बीते हैं कि फिर से मोदी सरकार अमेरिका के ही तर्ज पर अब फ्रांस से भी रक्षा समझौता करने वाली है। 
दैनिक मूलनिवासी नायक वरिष्ठ संवाददाता ने जानकारी देते हुए बताया कि फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों की मार्च में होने वाली भारत यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच रक्षा क्षेत्र में बड़ा समझौता होने की उम्मीद है। भारत ने अमेरिका के साथ लेमोआ नाम का जो अग्रीमेंट किया है, वैसा ही समझौता भारत और फ्रांस के बीच भी हो सकता है। इससे हिंद महासागर में भारतीय जहाजों को फ्रांसीसी सैन्य ठिकानों से फ्यूल आदि की सुविधा मिल सकेगी। गौरतलब है कि हिंद महासागर में चीन की पनडुब्बियों की बढ़ती गतिविधियों के मद्देनजर भारत के लिए यह काफी फायदे का सौदा हो सकता है। सरकार तो ऐसा बता रही है, मगर यह देश की जनता के साथ धोखेबाजी है। रक्षा सौदा के नाम पर सरकार देश की जनता के साथ न केवल धोखेबाजी कर रही, बल्कि देश में विदेशी सैनिकों को ठिकाना दे रही है। दूसरी बात यह है कि सरकार बता रही है कि इसका मकसद निर्बाध व्यापार और आवाजाही के लिए अंतरराष्ट्रीय समुद्री गलियारे की सुरक्षा सुनिश्चित करना है। इसी के साथ यह भी कहा जा रहा है कि भारत ने हिंद महासागर में अपनी पहुंच बढ़ाने के लिए सिंगापुर के साथ भी इसी तरह का समझौता किया है, जिससे भारत के नौसैनिक जहाज अब सिंगापुर से फ्यूल ले सकते हैं। ऑस्ट्रेलिया भी भारत के साथ इस तरह का समझौता करने का इच्छुक है। मगर यह सरासर झूठ है। इसकी वस्तविकता वह नहीं जो सरकार बता रही है, बल्कि इसकी वास्तविकता कुछ और ही है।
आपको बताते चलें कि भारत ने बीते 29 अगस्त 2016 को अमेरिका के साथ एक समझौते पर दस्तखत किया था जिसका नाम है, ‘लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट’ (लेमोआ)। इसके तहत दोनों देश एक-दूसरे की सैन्य सुविधाओं, रसद और एक निश्चित सीमा में सैन्य ठिकानों का भी इस्तेमाल कर सकते हैं। जबकि इस समझौते के लिए उस वक्त नरेंद्र मोदी की काफी आलोचना हुई थी। कहा जा रहा था कि यह समझौता करके मोदी सरकार ने अमेरिकी सेना को देश में पैर रखने और जमाने की सुविधा दे दी है। इसी के साथ दिलचस्प बात तो यह है कि उस वक्त कांग्रेस भी खासतौर पर इस समझौते को लेकर काफी मुखर थी। उसका आरोप है कि मोदी ने इस समझौते के जरिए ‘भारत की उस मूलभूत और देखी-परखी नीति को तिलांजलि दे दी है, जिसके तहत किसी भी सैन्य गुट या शक्ति से दूर और निरपेक्ष रहने की परम्परा थी। मगर यह भारत-अमेरिका के बीच लेमोआ खतरनाक समझौता कोई पहली बार नहीं हुआ है। बल्कि पं.जवाहर लाल नेहरू ने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान 1942 से 1946 के बीच समझौता किया था, जिसके तहत अमेरिकी सेना के लिए भारत रसद आपूर्ति का मुख्य अड्डा रहा है। युद्ध के दौरान करीब दो लाख अमेरिकी सैनिक भारत में तैनात रहे। केंद्र सरकार पर आरोप लगाने वाली कांग्रेस को शायद जानकारी न हो, कि अमेरिकी सेना को दी गई यह विशेष सुविधा युद्ध खत्म होने और देश की आजादी के बाद से लेकर आज तक जारी है।
आज भी विदेश मंत्रालय की वेबसाइट पर यह समझौता मौजूद है। इसमें स्पष्ट है कि शुरू में अमेरिकी सेना की वायु परिवहन सेवा (मैट्स) से भारत में उसके विमानों को उतरने और रुकने की सुविधा देने के एवज में कोई शुल्क भी नहीं लिया जाता था। शुल्क लिए जाने का सिलसिला 1952 में शुरू हुआ, लेकिन 1962 में अमेरिका ने इस शुल्क में छूट की मांग की थी और भारत के खिलाफ उसी चीन ने युद्ध छेड़ दिया था। आज यही हालात मोदी सरकार इस देश में पैदा कर रही है। यानी जो काम नेहरू ने किया था वही काम आज मोदी कर रहे हैं, यही कारण है कि मोदी सरकार बार-बार रक्षा के नाम पर खतरनाक समझौता कर देश को गर्क में धकेल रही है।

जनता ने बहुमत 2019 तक दिया था, 2022 तक नहीं-लालू


दै.मू.ब्यूरो/पटना 
भले ही मोदी सरकार ने लालू को चारा घोटाले में फंसाकर जेल के सलाखों के पीछे धकेल दिया गया हो, मगर लालू यादव मोदी सरकार से जरा भी डरने वाले नहीं हैं, मोदी सरकार के खिलाफ अपनी आवाज को और ज्यादा बुलंद कर लिया है। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि आरजेडी प्रमुख लालू यादव ने मोदी टीम द्वारा पेश किए गये बजट पर कड़ा प्रहार करते हुए न केवल उसे बहुजन विरोधी बताया, बल्कि मोदी की औकात दिखाते हुए कहा कि जनता ने बहुमत 2019 तक दिया था, 2022 तक नहीं।
दैनिक मूलनिवासी नायक वरिष्ठ संवाददाता ने जानकरी देते हुए बताया कि आरजेडी सुप्रीमां लालू प्रसाद यादव चारा घोटाले के एक मामले में जेल में बंद हैं, लेकिन ट्विटर के जरिए उनकी प्रतिक्रियाएं लगातार सामने आती रहती हैं। गुरुवार को केंद्रीय बजट पेश हुआ तो लालू यादव अपने ट्विटर अकाउंट पर फिर सक्रिय हो गए। इस दौरान लालू ने ट्वीट के जरिए न सिर्फ अरुण जेटली के बजट पर सवाल उठाया, बल्कि इसे जनता के साथ विश्वासघात भी बताया है। बता दें कि गुरुवार को वित्त मंत्री अरुण जेटली ने मोदी सरकार का आखिरी पूर्ण बजट पेश किया। लालू यादव ने ट्वीट के जरिए इस बजट को हवाहवाई करार दिया। साथ ही लालू ने कहा कि किसानों को छला जा रहा है। ट्वीट के जरिए लालू ने सवाल उठाया कि आखिर किसानों का कर्ज माफ क्यों नहीं किया? जबकि बजट में सरकार ने वादा किया है कि 2022 तक किसानों की आय दोगुनी हो जाएगी। लालू ने इस वादे को लेकर केंद्र सरकार की जमकर आलोचना की है। साथ ही उन्होंने सरकार से इसका रोडमैप मांगा कि कैसे 2022 तक किसानों की आय दोगुना होगी। उन्होंने कहा कि जनता ने बहुमत तो 2019 तक के लिए दिया था ना कि 2022 तक के लिए। 
आगे लालू ने ट्वीट में लिखा कि बजट की आड़ में किसानों को छला जा रहा है। किसानों का कर्ज माफ क्यों नहीं किया? किसानों की आय को 2022 तक दोगुना कैसे किया जाएगा? इसका रोड मैप क्या है? सिर्फ हवाई बातों और मुंह जुबानी खर्च से आय दोगुनी हो जायेगी क्या? बड़ी चालाकी से अपनी विफलताओं और जवाबदेही को 2022 पर फेंक रहे हैं। बड़ा छाती कूटकर 60 दिन माँग रहे थे, 60 दिन! फिर लालू ने इस बजट के जरिए केंद्र सरकार पर हमला बोलते हुए कहा कि इस हवा-हवाई बातों के कारण ही स्थिति बेहतर नहीं हो पा रहा। उन्होंने कहा कि सरकार के पास कोई रोडमैप नहीं है और इसीलिए किसानों की आत्महत्या नहीं रुक रही है। लालू ने आरोप लगाया कि केंद्र की मोदी सरकार अपनी विफलताओं को छिपाने के लिए 2019 की जगह 2022 की बात कर रही है। लालू ने ट्वीट में लिखा, जनता ने बहुमत 2019 तक दिया था ना कि 2022 तक। बड़ी चालाकी से अपनी विफलताओं और जवाबदेही को 2022 पर फेंक रहे हैं। अंत में उन्होंने कहा कि अपनी विफलताओं को छिपाने के लिए मोदी सरकार जनता को गुमराह करने की कोशिश कर रही है।

बजट 2018 चुनावी घोषणा पत्र


बजट, गरीबों और किसानों के लिए मौत का सौदा
नई दिल्ली/दै.मू.समाचार
 मोदी सरकार द्वार पेश किया गया आम बजट जहां गरीबों के लिए चंदा मामा की कहानियों से अधिक कुछ नहीं है। वहीं किसानों के लिए एक तरह से मौत का ही सौदा है। आप कहते हैं कि चांद पर जाएंगे लेकिन वहां तक जाने के लिए आपके पास वाहन कहां है? रेलवे की छोड़िये, जो ये किसान और गरीब की बात करते हैं वो भी हकीकत से दूर है। हकीकत तो यह है कि रेलवे खत्म हो चुका है, दिवालिया हो चुका है। यही नहीं इस बजट में न तो महिलाओं के लिए कुछ है  और न ही ओबीसी के लिए कुछ दिया गया है। रह गई बात शिक्षा और स्वास्थ्य की तो इस पर सेस लगाकर गरीबों की पहुंच से दूर कर दिया है। मगर वहीं कारपोरेट घरानों के लिए पिटारा खोल दिया गया है। हकीकत में यह तो सिर्फ अमीरों का ही बजट है। 
दैनिक मूलनिवासी नायक वरिष्ठ संवाददाता ने जानकारी देते हुए बताया कि वित्त मंत्री अरुण जेटली ने गुरुवार को पांचवां और मोदी सरकार का अंतिम पूर्ण बजट पेश किया। इस बजट से उन्होंने संदेश दिया है कि नरेंद्र मोदी सरकार इस साल होने वाले विधानसभा चुनावों और अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए तैयार है। जाहिर तौर पर राजनीतिक विश्लेषकों की भी राय है कि इस बजट ने ऐसे संदेश दिए हैं कि लोकसभा चुनाव इस साल के आखिर तक हो सकते हैं। अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले सरकार का यह अंतिम आम बजट था। इस बजट से भले ही देश के किसानों को काफी उम्मीदें थीं, वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अपने बजट भाषण में किसानों का जिक्र भी काफी देर तक किया, लेकिन क्या यह बजट सच में किसानों के दुख दर्द को दूर करने वाला साबित होगा और क्या इस बजट से देश के किसानों की बदहाल खस्ता हालत में कुछ सुधार हो पाएगा? ये ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब देश का हर किसान जानना चाहता है। यदि देखा जाए तो इस बजट में सरकार ने किसानों का ख्याल क्यों रखा है? वह इसलिए की किसानों के भरोसे ही मोदी मंडली 2019 का चुनाव जीतना चाहती है। यह इसलिए कहा जा रहा है कि कई ऐसे मसले हैं जिन्हें सरकार ने छोड़ दिया है। बजट पेश करते हुए बताया जा रहा है कि सरकार ने 1.5 घंटे के अंदर 27 बार किसानों का नाम लिया। केवल 27 बार नाम लेने से ही किसानों को खुश होने की बात नहीं, बल्कि सोचनीय बात तो यह है कि सरकार ने किसानों को कर्ज के सिवा दिया क्या है? जो मोदी सरकार के बीते साल के बजट में क्रमशः 06, 08,10 लाख करोड़ रूपये थे उसे मोदी ने बढ़ाकर 11 लाख करोड़ रूपये कर दिया है। यानी किसानों को हर हाल में सरकार या शाहूकरों से कर्ज लेना ही पड़ेगा, यह भी तय है जब कर्ज लेना होगा तो किसानों को मजबूरन आत्महत्या भी करनी होगी। नतीजा यही निकल रहा है कि सरकार किसानों के लिए मौत का ही बजट पेश कर रही है। सरकार का लक्ष्य है कि 2022 तक किसानों की आय दोगुनी कर किया जायेगा और किसानों को उनकी लागत के ऊपर 50 फीसदी मुनाफा देंगे। मगर बजट में कर्ज के सिवा कुछ भी नहीं दिया। अहम सवाल तो यह है कि क्या सरकार का यह पहला बजट है जिसमें किसानों का ध्यान रखा गया है? इसके पहले सरकार ने किसानों पर क्यां ध्यान नहीं दिया? इससे साबित होता है कि सरकार ने आगामी विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए किसानों पर ज्यादा फोकस किया है। यानी किसान आत्महत्याएं कर रहे थे, कृषि विकास दर बढ़ नहीं रही थी। इसके बाद भी सरकार के जुबान पर किसानों का नाम तक नहीं आता था।  दरअसल ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर जोर देने की असल वजह राजनीतिक तो है ही, राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के लिहाज से भी ऐसा करना उनकी मजबूरी थी।
आपको बताते चलें कि मोदी सरकार ने जिस तरह से किसानों को कर्ज के सिवा कुछ भी नहीं दिया है ठीक उसी प्रकार से शिक्षा और हेल्थ पर एक फीसदी सेस लगा कर शिक्षा और स्वास्थ्य को इतना ज्यादा महंगा बना दिया है कि गरीबों का वहां तक पहुंच पाना मुश्किल नहीं, बल्कि उनकी सोच से भी बाहर हो गया है। मोदी सरकार के आने बाद रेल बजट को आम बजट के साथ मिला दिया गया। पहले रेल बजट अलग से पेश किया जाता था और पूरे देश की नजरें, रेल किराये से लेकर नई ट्रेनों पर भी टिकी रहती थी। लेकिन रेल के लिए बजट पर सरकार ने कोई बड़ी घोषणा नहीं की। इस साल रेल बजट में वित्त मंत्री ने रेलवे के विस्तार के लिए केवल 1.48 लाख करोड़ रुपये ही आवंटित किए हैं। जबकि बजट भाषण में रेलवे की समस्याओं और आगे की योजनाओं का जिक्र तक नहीं किया। 
 विशेष संवाददाता ने बताया कि कॉरपोरेट टैक्स का दायरा व्यापक कर दिया गया है। इसके तहत जो कंपनियां पहले 25 करोड़ के टर्नओवर करती थीं अब इसमें 250 करोड़ तक के टर्नओवर पर भी 25 फीसदी ही टैक्स लगेगा। जबकि वही बजट भाषण के कुल 32 पन्नों में से जब जेटली तीन चौथाई से अधिक पलट चुके थे तो तब उस पन्ने की बारी आई जिसका वेतनभोगी कर्मचारियों या कहें कि इनकम टैक्स चुकाने वालों को इंतजार था। मगर बजट भाषण 26वां पन्ना उलटते हुए जेटली ने कहा कि चूंकि उनकी सरकार ने पिछले तीन साल में व्यक्तिगत आयकर दरों में कई सकारात्मक बदलाव किए हैं, लिहाजा वो इनकम टैक्स की मौजूदा दरों में किसी तरह के बदलाव का प्रस्ताव नहीं कर रहे हैं। मतलब साफ था कि वेतनभोगी कर्मचारियों को टैक्स दरों में कोई राहत नहीं थी दी गई है, यानी ढाई लाख तक की कमाई पर पहले की तरह कोई टैक्स नहीं लगेगा। मगर पाँच लाख रुपये तक की आमदनी पर 5 प्रतिशत टैक्स चुकाना होगा। वहीं पांच से दस लाख रुपये तक की आमदनी पर 20 प्रतिशत और इससे अधिक की कमाई पर 30 प्रतिशत टैक्स देना होगा। जबकि इस बजट में सैलरीड ही नहीं, आम आदमियों के लिए भी कुछ नहीं है। जिस तरह से महंगाई दर बढ़ रही है उसी हिसाब से आयकर छूट की सीमा में भी बढ़ोतरी होनी चाहिए थी और ढाई लाख रुपये तक की सीमा को बढ़ाया जाना चाहिए था। देश-विदेश के अर्थशास्त्री मानते हैं कि बजट में जिन मौजूदा योजनाओं को आगे बढ़ाया गया है, इससे न तो रोजगार बढ़ेगा और न ही आम जनता को किसी तरह की राहत ही मिलेगी।
यही हाल बेरोजगारी की भी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान बेरोजगारी को एक बड़ा मुद्दा बनाया था। उन्होंने हर साल नई नौकरियों पैदा करने का वादा भी किया था, लेकिन तमाम वादों के बीच बेरोजगारी दर भारत में लगातार बढ़ती जा रही है। सरकार के हालात ही बताते हैं कि असंगठित क्षेत्र में जो रोजगार की कमी है उसे दूर करना सरकार के सामने एक बड़ी चुनौती होगी। विशेषकर देशभर का युवा रोजगार के लिए लगातार प्रदर्शन कर रहा है। सबसे ज्यादा हैरानी की बात तो यह है कि जो आम बजट 2018 पेश किया गया है। इसमें रक्षा बजट 2.67 लाख करोड़ से बढ़ाकर 2.82 लाख करोड़ रुपए कर दिया है। भले ही यह देखने में बढ़ा हुआ लगता है मगर ये 2018-19 के संभावित जीडीपी का लगभग 1.58 फीसदी है। यदि उक्त बजट का पूर्ण रूप से विश्लेषण करें तो पता चलता है कि संघ संचालित मोदी सरकार ने गरीब और किसान को लुभाने की कोशिश करके एक तरह से अपना चुनावी घोषणा पत्र रखा है। वो कहते हैं, इस बजट का गरीबों से कोई लेना-देना नहीं है, ये सिर्फ अमीरों का बजट है। असल में मोदी का गुजरात चुनाव ट्रेलर था, राजस्थान उपचुनाव इंटरवल था और 2018 के आम बजट से 2019 में पूरी फिल्म दिखाने के लिए रणनीति बनाई जा रही है। इसी रणनीति के आधार पर न केवल आम बजट पेश किया गया है, बल्कि सŸा पर कब्जा करने के लिए बजट के रूप में चुनावी घोषणा पत्र जारी किया गया है।