शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2018

एक और खतरनाक रक्षा समझौता



 अमेरिका के बाद अब फ्रांस से रक्षा समझौते पर सरकार की मुहर
लोमोआ समझौता कर भारत को गुलामी की तरफ ले जाती मोदी सरकार
दै.मू.ब्यूरो/नई दिल्ली
♦ आज 21वीं शताब्दी के समय में सीधे तौर पर किसी देश को अपना गुलाम बनाना सम्भव नहीं है, लेकिन अप्रत्यक्ष तौर पर देशों को साम्राज्यवादी नीतियों और समझौतों के जरिये गुलाम बनाने का काम पिछले 30 सालों से जारी है। इसी कड़ी में एक नया समझौता है ‘लेमोआ’ जिसके तहत अमरीका और फ्रांस जब चाहे तब भारत के अंदर अपनी फौजों को तैनात कर सकता है।
केन्द्र की मोदी सरकार का बार-बार रक्षा समझौता करना संदेह पैदा करता है कि आखिर मोदी सरकार इतना ज्यादा रक्षा सौदा कर देश में क्या करना चाहती है? अभी बीते 29 अगस्त को अमेरिका के साथ ‘लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट’ (लेमोआ) पर समझौता किए हुए करीब साल ही बीते हैं कि फिर से मोदी सरकार अमेरिका के ही तर्ज पर अब फ्रांस से भी रक्षा समझौता करने वाली है। 
दैनिक मूलनिवासी नायक वरिष्ठ संवाददाता ने जानकारी देते हुए बताया कि फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों की मार्च में होने वाली भारत यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच रक्षा क्षेत्र में बड़ा समझौता होने की उम्मीद है। भारत ने अमेरिका के साथ लेमोआ नाम का जो अग्रीमेंट किया है, वैसा ही समझौता भारत और फ्रांस के बीच भी हो सकता है। इससे हिंद महासागर में भारतीय जहाजों को फ्रांसीसी सैन्य ठिकानों से फ्यूल आदि की सुविधा मिल सकेगी। गौरतलब है कि हिंद महासागर में चीन की पनडुब्बियों की बढ़ती गतिविधियों के मद्देनजर भारत के लिए यह काफी फायदे का सौदा हो सकता है। सरकार तो ऐसा बता रही है, मगर यह देश की जनता के साथ धोखेबाजी है। रक्षा सौदा के नाम पर सरकार देश की जनता के साथ न केवल धोखेबाजी कर रही, बल्कि देश में विदेशी सैनिकों को ठिकाना दे रही है। दूसरी बात यह है कि सरकार बता रही है कि इसका मकसद निर्बाध व्यापार और आवाजाही के लिए अंतरराष्ट्रीय समुद्री गलियारे की सुरक्षा सुनिश्चित करना है। इसी के साथ यह भी कहा जा रहा है कि भारत ने हिंद महासागर में अपनी पहुंच बढ़ाने के लिए सिंगापुर के साथ भी इसी तरह का समझौता किया है, जिससे भारत के नौसैनिक जहाज अब सिंगापुर से फ्यूल ले सकते हैं। ऑस्ट्रेलिया भी भारत के साथ इस तरह का समझौता करने का इच्छुक है। मगर यह सरासर झूठ है। इसकी वस्तविकता वह नहीं जो सरकार बता रही है, बल्कि इसकी वास्तविकता कुछ और ही है।
आपको बताते चलें कि भारत ने बीते 29 अगस्त 2016 को अमेरिका के साथ एक समझौते पर दस्तखत किया था जिसका नाम है, ‘लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट’ (लेमोआ)। इसके तहत दोनों देश एक-दूसरे की सैन्य सुविधाओं, रसद और एक निश्चित सीमा में सैन्य ठिकानों का भी इस्तेमाल कर सकते हैं। जबकि इस समझौते के लिए उस वक्त नरेंद्र मोदी की काफी आलोचना हुई थी। कहा जा रहा था कि यह समझौता करके मोदी सरकार ने अमेरिकी सेना को देश में पैर रखने और जमाने की सुविधा दे दी है। इसी के साथ दिलचस्प बात तो यह है कि उस वक्त कांग्रेस भी खासतौर पर इस समझौते को लेकर काफी मुखर थी। उसका आरोप है कि मोदी ने इस समझौते के जरिए ‘भारत की उस मूलभूत और देखी-परखी नीति को तिलांजलि दे दी है, जिसके तहत किसी भी सैन्य गुट या शक्ति से दूर और निरपेक्ष रहने की परम्परा थी। मगर यह भारत-अमेरिका के बीच लेमोआ खतरनाक समझौता कोई पहली बार नहीं हुआ है। बल्कि पं.जवाहर लाल नेहरू ने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान 1942 से 1946 के बीच समझौता किया था, जिसके तहत अमेरिकी सेना के लिए भारत रसद आपूर्ति का मुख्य अड्डा रहा है। युद्ध के दौरान करीब दो लाख अमेरिकी सैनिक भारत में तैनात रहे। केंद्र सरकार पर आरोप लगाने वाली कांग्रेस को शायद जानकारी न हो, कि अमेरिकी सेना को दी गई यह विशेष सुविधा युद्ध खत्म होने और देश की आजादी के बाद से लेकर आज तक जारी है।
आज भी विदेश मंत्रालय की वेबसाइट पर यह समझौता मौजूद है। इसमें स्पष्ट है कि शुरू में अमेरिकी सेना की वायु परिवहन सेवा (मैट्स) से भारत में उसके विमानों को उतरने और रुकने की सुविधा देने के एवज में कोई शुल्क भी नहीं लिया जाता था। शुल्क लिए जाने का सिलसिला 1952 में शुरू हुआ, लेकिन 1962 में अमेरिका ने इस शुल्क में छूट की मांग की थी और भारत के खिलाफ उसी चीन ने युद्ध छेड़ दिया था। आज यही हालात मोदी सरकार इस देश में पैदा कर रही है। यानी जो काम नेहरू ने किया था वही काम आज मोदी कर रहे हैं, यही कारण है कि मोदी सरकार बार-बार रक्षा के नाम पर खतरनाक समझौता कर देश को गर्क में धकेल रही है।

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