शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2018

लोमोआ समझौता कर भारत को गुलामी की तरफ ले जाती मोदी सरकार

लोमोआ समझौता कर भारत को गुलामी की तरफ ले जाती मोदी सरकार


दै.मू.ब्यूरो/नई दिल्ली
लोमोआ समझौते का सबसे बड़ा नुक्सान हमें सामरिक तौर पर उठाना पड़ेगा, रूस अब तक अपनी सबसे सर्वोत्तम टेक्नोलॉजी जैसे अकुला श्रेणी की परमाणु पनडुब्बी, सुखोई श्रेणी के सबसे एडवांस लड़ाकू विमान जैसे सुखोई-30 एककेआई, ब्रह्मोस मिसाइल, टी-90 टैंक भारत के साथ..
इस लेख का शीर्षक पढ़ के लोगों के मन में एक सवाल जरूर उठेगा कि कैसी गुलामी? किसकी गुलामी? किस चीज की गुलामी की बात यहाँ की जा रही है? इन प्रश्नों के जवाब से ही मैं इस लेख की शुरुआत करता हूँ। आज 21वीं शताब्दी के समय में सीधे तौर पर किसी देश को अपना गुलाम बनाना सम्भव नहीं है, लेकिन अप्रत्यक्ष तौर पर देशों को साम्राज्यवादी नीतियों और समझौतों के जरिये गुलाम बनाने का काम पिछले 20 सालों से जारी है। इसी कड़ी में एक नया समझौता है ‘लेमोआ’ जिसके तहत अमरीका जब चाहे तब भारत के अंदर अपनी फौजों को तैनात कर सकता है।
अभी किसी को भी इस बात का अंदाजा नहीं है कि इस समझौते पर हस्ताक्षर कर के कितनी बड़ी भूल हम कर रहे हैं। इसे हस्ताक्षर करने के बाद अब हम अमरीकी विदेश नीति की हाँ में हाँ मिलाने वाले एक गुलाम देश की भांति बन के रह जायेंगे, हमारा रक्षा मंत्रालय सिर्फ पेंटागन का अग्रिम अड्डा बन के रह जायेगा। यह समझौता हिंदुस्तान की आजादी पर एक बड़ा गहरा धब्बा है। सबसे बड़ी चिंता की बात ये है कि अभी वो दस्तावेज जनता के लिए सार्वजनिक नहीं किया गया है जिस पर भारत सरकार ने हस्ताक्षर किये हैं और अगर जनता ने आंदोलन के जरिये दबाव नहीं बनाया तो वो कभी सार्वजानिक किया भी नहीं जायेगा। इस समझौते का सबसे बड़ा नुक्सान हमें सामरिक तौर पर उठाना पड़ेगा, रूस अब तक अपनी सबसे सर्वोत्तम टेक्नोलॉजी जैसे अकुला श्रेणी की परमाणु  पनडुब्बी, सुखोई श्रेणी के सबसे एडवांस लड़ाकू विमान जैसे सुखोई-30 एमकेआई, ब्रह्मोस मिसाइल, टी-90 टैंक भारत के साथ साझा करता आया है या फिर भारत के साथ मिल कर विकसित कर रहा है।
लेमोआ पर हस्ताक्षर होने के बाद अमरीका की फौज भारतीय सैन्य अड्डों पर तैनात होने की आशंका के बीच रूस ने आगे से अपनी सर्वोत्तम सैन्य टेक्नोलॉजी भारत के साथ साझा न करने के संकेत दे दिए हैं। आज तक बिना किसी शर्त के रूस अपनी सर्वोच्च टेक्नोलॉजी भारत के साथ ट्रांसफर ऑफ टेक्नोलॉजी के तहत साझा करता आया है जैसे कि हम सुखोई 30 एमकेआई लड़ाकू विमान के केस में देख सकते हैं। किसी दूसरे देश ने न तो आजतक इस तरह भारत का सैन्य सहयोग किया है और न ही कर सकता है। इस समझौते पर हस्ताक्षर होने के बाद अमरीका भारत को 50 साल पुराने एफ-16 लड़ाकू विमान देने की पेशकश कर रहा है, जो सुखोई 30 एमकेआई लड़ाकू विमान के आगे कहीं भी नहीं टिक सकता।
ध्यान देने योग्य बात ये है कि अमरीका खुद की वायुसेना से एफ-16 लड़ाकू विमान बाहर निकाल रहा है और नई श्रेणी के एफ-35 लड़ाकू विमान अपनी वायुसेना में शामिल कर रहा है। इस लेमोआ नाम के समझौते की वजह से भारत के सामरिक नुकसान का एक पहलू ये भी है कि इस से हमारे पुराने और विश्वासपात्र मित्र रूस की चीन और पाकिस्तान के गुट में शामिल होने की संभावना है जिसका पहला संकेत आज तक के इतिहास में पहली बार हो रहे रूस और पाकिस्तान के सैन्य अभ्यास से मिल रहा है। इस समझौते का दूसरा सबसे बड़ा नुकसान होगा भारत की अपनी आजाद विदेश नीति का अमरीकी सरकार के सामने सरेंडर कर देना। अब तक कई ऐसे देश जैसे ईरान के साथ भारत के अच्छे रिश्ते रहे हैं जिनका अमरीका के साथ छत्तीस का आंकड़ा रहा है। लगभग 2000 करोड़ की लागत से भारत ने ईरान में अपने सामरिक हितों की पूर्ति के लिए चाबहार पोर्ट विकसित किया है। तो अब क्या अमरीकी दबाव में भारत उस पोर्ट का सामरिक इस्तेमाल बन्द कर देगा? इतिहास गवाह है कि अमरीका अपने हर मित्र पर अपनी नीतियां थोपता आया है, तो क्या अब भारत की विदेश नीति भी अमरीका के इशारे पर चलेगी? तो क्या अब भारत भी अमरीका के दबाव में हर उस देश पर प्रतिबंध लगायेगा जो अमरीका के साम्राज्यवाद के विरोध में खड़ा होगा? इन सभी प्रश्नों का उत्तर इस समझौते पर हस्ताक्षर होने के बाद अमरीका के हाथ में चला गया है।
लेमोआ पर हस्ताक्षर करने के बाद भारत ने विदेश मामलों में अपने निर्णय लेने की ताकत अब अमरीका के पास गिरवी रख दी है। अब हमें अमरीका की हाँ में हाँ और न में न मिलाना पड़ेगा। इस समझौते के सामाजिक दुष्परिणाम भी हमे लंबे समय तक देखने को मिलेंगे। पिछले 59 सालों से जापान के ओकिनावा शहर में अमरीका के लगभग 28000 फौजी तैनात हैं और वो जापानी महिलाओं से छेड़छाड़ से ले कर नशीले पदार्थों की तस्करी तक के हर तरह की गैरकानूनी काम में संलिप्त हैं। जापान की सरजमी होने के बावजूद ऐसे गैरकानूनी कामों में संलिप्त अमरीकी फौजियों पर जापान को अपने कानून के हिसाब से कोई भी कार्रवाई करने का अधिकार नहीं है। इसी तरह के हालात भारत में अमरीकी फौजों की तैनाती के बाद बनेंगे।
बड़ा सवाल ये है कि क्या ऐसे दोषी अमरीकी फौजियों पर भारत के संविधान के तहत कार्रवाई की जा सकेगी? 1940 में दूसरे विश्व युद्ध के दौरान भी लगभग 2 लाख अमरीकी सैनिक भारत में तैनात किये गए थे, उस समय के ब्रिटिश दस्तावेज बताते हैं कि अमरीकी सैनिकों की भारत में तैनाती के बाद महिलाओं से छेड़छाड़ और नशीली पदार्थों के तस्करी जैसी गैरकानूनी गतिविधियां बहुत ज्यादा बढ़ गयी थी। क्या हमारी सरकार ने ऐसी समस्याओं का हल सोचा है? सन् 2000 में बूज एलन नाम के आदमी को अमरीका ने भारतीय सैन्य अधिकारियों की दिमागी सोच पढ़ने के लिए भारत भेजा था। अपनी रिपोर्ट में बूज एलन ने कहा कि भारतीय सैन्य अधिकारी सोचते हैं कि पूरे विश्व ने उन्हें उच्चतम सैन्य टेक्नोलॉजी से जानबूझ कर दूर रखा गया है। भारतीय सैन्य अधिकारियों का दिमाग पढ़ने के बाद  बाद अमरीका ने ये झांसा देना शुरू किया कि अगर भारत 4 समझौतों पर हस्ताक्षर कर दे तो उसे उच्चतम टेक्नोलॉजी हम दे देंगे। इन सब में सबसे पहला था ळप्ैडव्। जिस पर 2002 में वाजपेयी सरकार ने हस्ताक्षर किये थे, अब उसके बाद लेमोआ पर मोदी सरकार ने 14 साल बाद हस्ताक्षर किये हैं। स्म्डव्। के बाद अब भारत को ब्प्ैडव्। पर हस्ताक्षर करने के लिए बोला गया है, किसमोआ के तहत भारत को अपना सारा कम्युनिकेशन डाटा अमरीका के साथ साझा करना पड़ेगा।
आज का समय साइबर वारफेयर का है, अगर हमें अपने सारे एन्क्रिप्शन कोड्स अमरीका के साथ साझा करने पड़ेंगे तो हमारी सीक्रेसी कहाँ बची? युद्ध के दौरान कमांड सेंटर से सारा डाटा एन्क्रिप्टेड कोड्स के जरिये भेजा जाता है, इन कोड्स के साझा होने के बाद हमारी सारी सैन्य मूवमेंट का पता अमरीका आसानी से लगा सकता है। किसमोआ के बाद बीका पर हस्ताक्षर करने के लिए बोला जायेगा, जिसके तहत हमे अपनी स्पेस सैटेलाइट्स से जुडी सारी जानकारी अमरीका के साथ साझा करनी पड़ेगी। यह सब सामरिक दृष्टि से किसी भी आजाद देश के लिए बहुत हानिकारक है। अब जब अमरीका हमारे सैन्य अड्डों का इस्तेमाल करेगा तो वो आसानी से भारत की सामरिक दृष्टि के लिहाज से अति महत्वपूर्ण हथियार जैसे अग्नि मिसाइल सिस्टम, परमाणु हथियार और स्ट्रेटेजिक फोर्स कमांड के बारे में जानकारी जुटा सकता है। समझौता किसी भी दो बराबर के देशों के साथ किया जाता है, हम सब अच्छी तरह से वाकिफ हैं कि भारत और अमरीका की सैन्य ताक़त में जमीन आसमान का अंतर है। सरकार द्वारा ये प्रचार भी किया जा रहा है कि ये समझौता दोनों तरफ की फौजों को एक दूसरे के बेस इस्तेमाल करने की इजाजत देगा लेकिन मेरा एक सवाल है कि हमे उनके बेस इस्तेमाल करने की जरूरत ही क्या है? हमारी नेवी कोई ब्लू वाटर नेवी नहीं है, हमारी नेवी की सामरिक ताक़त और जरुरत सिर्फ इंडियन महासागर, अरब महासागर और बंगाल की खाड़ी तक है। हम खुद आतंकवाद और उग्रवाद से इतने जूझ रहे हैं तो हम अपनी सेना को अमरीका के बेसों में तैनात कर के क्या करेंगे? हमारी वायुसेना को लड़ाकू विमानों की 45 स्क्वाड्रन की आवश्यकता है लेकिन अभी हमारे पास हैं सिर्फ 32 वो भी अधिकतर कई दशक पुराने लड़ाकू विमान जैसे मिग 21, मिग 25 से बनायी हुई तो हम अपनी वायुसेना को किस लिए अमरीका में तैनात करेंगे? अमरीका के बेसों को इस्तेमाल करने में हमारा कोई भी सामरिक हित नहीं है और न ही हमारी इतनी क्षमता कि इतनी दूर हम अपनी फौज को तैनात करें। प्रैक्टिकली हमारी फौजों को अमरीका में तैनात करने का कोई अर्थ ही नहीं बनता है और न ही हमे वहां तैनात करने की जरुरत।
भारत नाम और ब्रिक्स जैसी संस्थाओं का स्थापना सदस्य रहा है जो किसी भी अंतर्राष्ट्रीय गुट का हिस्सा नहीं बनने की वकालत करती है। अपने इंडिपेंडेंट स्टैंड की वजह से ही आज तक भारत की विश्व की नजरों में अलग से इजाजत रही है। 1948 में जब फिलिस्तीनियों की धरती पर इस्राईलियों को बसाने का सब समर्थन कर रहे थे तो भारत ने दो टूक खड़े हो कर दुनिया के सामने कहा था कि एक आजाद फिलिस्तीन देश फिलिस्तीनियों का जन्मसिद्ध अधिकार है और ये अधिकार इनको मिलना चाहिए। लेकिन यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि लेमोआ और जेसमोआ जैसे समझौतों पर हस्ताक्षर कर के भारत पहली बार किसी गुट का हिस्सा बना गया है और अपनी इंडिपेंडेंट पॉलिसी हमेशा के लिए खो दी है। कुछ लोगों को यह धोखा है कि इस समझौते के बाद अमरीका चीन के खिलाफ युद्ध में भारत का साथ देगा, किसी भी इंसान का यह सोचना बड़ा हास्यास्पद है। अभी 2007 में फिलीपीन्स के साथ भी लेमोआ जैसा समझौता अमरीका ने किया था लेकिन जब एक द्वीप के ऊपर फिलीपींस का टकराव चीन के साथ हुआ तो अमरीका फिलीपींस की मदद के लिए नहीं आया। अमरीका के इस तरीके के घटिया रवैये से परेशान हो कर फिलीपींस के राष्ट्रपति ने इस लेमोआ जैसे समझौते के तहत फिलीपींस में तैनात की गयी अमरीकी फौजों को जल्दी से जल्दी देश छोड़ने के लिए कहा है। वैसे भारतीय लोग यह झूठा सपना देखना बन्द कर दें कि अमरीका किसी युद्ध की स्थिति में भारत के पक्ष में आ कर खड़ा होगा।
निश्चित रूप से चीन से हमारा टकराव है और भारत और चीन की पहली कोशिश उस टकराव को बातचीत के जरिये सुलझाने की होनी चाहिए। लेकिन अगर सैन्य टकराव की जरुरत पड़ती है तो खुद भारत को इतना मजबूत होना पड़ेगा की वो चीन का मुकाबला अपने अकेले दम पर कर सके। आखिरी बात ये है कि स्म्डव्। पर हस्ताक्षर भारत की कूटनीतिक विफलता है क्योंकि किसी शक्तिशाली देश जैसे अमरीका की गोद में बैठ जाने को कूटनीति नहीं कहते, कूटनीति का अर्थ होता है सभी देशों के साथ अच्छे सम्बंध बना के हर देश का अपने सामरिक हितों के पक्ष में इस्तेमाल करना। लेमोआ जैसे किसी समझौते पर हस्ताक्षर कर के अमरीका जैसे किसी शक्तिशाली देश की सेना को अपनी सरजमी पर बुलाने को आत्मसर्पण करना बोलते हैं, कूटनीति नहीं। इस तरह का आत्मसमर्पण ही गुलाम बनने की और पहला कदम होता है। अगर समय रहते लेमोआ नाम के काले दस्तावेज का भारतीय जनता द्वारा विरोध नहीं किया गया तो हमारा मुल्क गुलामी के अँधेरे में और ज्यादा धंसता चला जायेगा।

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