गुरुवार, 17 मई 2018

बेरोजगारों की खान, मेरा भारत महान!

बेरोजगारी की गंभीर चुनौती

 कुछ दिन पहले बिहार के मुंगेर जिले से एक चौंकाने वाली खबर आयी कि रेलवे में नौकरी के लिए बेटे ने अपने पिता की हत्या की सुपारी दे दी थी। लेकिन यह खबर काफी सुर्खियों में नहीं आ सकी, इसलिए बहुत लोगों का ध्यान इस ओर नहीं गया। रेलवे कर्मचारी को गोली मारकर हत्या के प्रयास में एक दिन बाद पुलिस ने आरोपी बेटे को गिरफ्तार कर लिया। पुलिस के अनुसार बेटे ने ही अपने पिता की हत्या की योजना बनायी थी, बेटा पिता की जगह रेलवे में नौकरी पाना चाहता था। वह कई वर्षों से प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहा था, लेकिन कामयाबी नहीं मिल पा रही थी। उसके पिता 30 अप्रैल को रिटायर हो रहे थे, इसलिए उसने पिता की हत्या की योजना बनायी, ताकि अनुकंपा के आधार पर उसे रेलवे में नौकरी मिल सके। इसके लिए उसने एक गुर्गे को दो लाख की सुपारी दिया था। मालूम ही होगा कि हाल में रेलवे ने बहुत दिनों बाद 90 हजार पदों पर नियुक्ति के लिए विज्ञापन निकला है, लेकिन 90 हजार नौकरियों के लिए लगभग 3 करोड़ 80 लाख लोगों ने आवेदन किया है।

यह घटना दो बातों की ओर इशारा करती है, एक तो यह कि बेरोजगारी की स्थिति इतनी भयावह हो नहीं चुकी है, बल्कि इसे भयावह बना दी गयी है कि नौकरी के लिए युवा कुछ भी कर गुजरने को तैयार हैं। यहां तक की वे अपनी मां, बहन, बाप या भाई का खून तक करने पर आमदा हो चुके हैं। चौंकाने वाली बात यह भी है कि बेरोजगार युवाओं को ऐसे जघन्य अपराध करने के लिए कोई और नहीं, बल्कि खुद सरकार जिम्मेदार है। क्योंकि यदि सरकार युवाओं को रोजगार देने में सक्षम होती तो युवा नौकरी के लिए अपनों का खून करने का खयाल उनके जेहन में भी नहीं आता। दूसरा पहलू यह है कि वे संघर्ष कर अवसर का लाभ लेने में सक्षम नहीं हैं तथा बच्चों की परवरिश में हम और आप असफल साबित हो रहे हैं। कैसे कोई नवयुवक पिता की हत्या करने के बारे में सोच भी सकता है! यह घटना बेहद चिंताजनक हैं और युवाओं की मनोस्थिति को भी उजागर करती हैं। यह इस बात को भी विचार करने को मजबूर करती है कि अभिभावक नवयुवकों की पढ़ाई पर तो इतना ध्यान देते हैं, लेकिन उनकी क्या मनोदशा है, उसको लेकर कोई चिंता नहीं करता है। नवयुवकों में क्या परिवर्तन हो रहा है, हम उसके आंकलन में नाकामयाब साबित हो रहे हैं।

जहां तक बेरोजगारी की बात है तो अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का भी कहना है कि भारत में बेरोजगारी एक बड़ी चुनौती है। दूसरी ओर लेबर ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार भारत दुनिया का सबसे अधिक बेरोजगारों वाला देश बन गया है। भारत बेरोजगारी के मामले में तेजी से तो बढ़ ही रहा है, लेकिन आर्थिक असमानता भी देश को सत्यानाश की खाई में धकेलता जा रहा है। जहां एक तरफ बढ़ती बेरोजगारी और दूसरी तरफ आर्थिक असमानता दो सबसे बड़ी चुनौतियां हैं। बेरोजगारी का आलम यह है कि पिछले दिनों महाराष्ट्र में सिपाही की भर्ती के लिए एलएलबी, इंजीनियरिंग, एमएड और बीएड डिग्री धारकों ने भी बड़ी संख्या में आवेदन कर सबको हैरान कर दिया था। कुल 4833 पदों के लिए साढ़े सात लाख से अधिक आवेदन आये थे। समाचारपत्रों के मुताबिक आवेदन करने वालों में 38 एलएलबी, 1061 इंजीनियरिंग ग्रेजुएट, 87 एमएड, 158 बीएड, 13698 मास्टर डिग्री धारी और डेढ़ लाख से ज्यादा ग्रेजुएट थे, जबकि इस पद के लिए न्यूनतम योग्यता 12 वीं पास थी। बेरोजगारी की गंभीर होती स्थिति का इससे अंदाज लगाया जा सकता है कि देश में हर साल तकरीबन एक करोड़ नये बेरोजगारों की बेतहासा बढ़ोŸारी हो रही है। चिंता की बात यह है कि हमारी शिक्षा प्रणाली रोजगारोन्मुखी नहीं है। यही नहीं पिछले साल माली (चतुर्थ श्रेणी) के लिए आवेदन जारी किया गया था, जिसमें लाखो ग्रेजुएट आवेदन किए थे। इससे भी हैरान की बात तो यह है कि यह आंकड़ा खुद एचआडी ने लखनऊ में जारी किया था।

 केंद्र सरकार कौशल विकास योजना के अंतर्गत रोजगार का अवसर बढ़ाने की ढोल पीट रही है, लेकिन बेरोजगारों की बढ़ती भारी संख्या देश और सरकार के सामने एक बड़ी चुनौती साबित हो रहा है। ज्यादा वक्त नहीं गुजरा है, जब इंजीनियरिंग की डिग्री को सम्मान से देखा जाता था, इंजीनियरिंग कॉलेजों में दाखिले के लिए होड़ मची रहती थी। अच्छे कॉलेजों में अब भी प्रतिस्पर्धा है, लेकिन मनुवादी सरकारें शिक्षा की नयी नीति लागू कर शिक्षा को ही चौपट बना दिया है। जिसके कारण ग्रिडी लेने के बाद भी युवाओं को यह कहते हुए नौकरी नहीं मिल रही है शिक्षित युवाओं में नौकरी के एक भी गुण नहीं हैं। इसके अलावा नौकरियों की कमी के कारण बड़ी संख्या में इंजीनियरिंग कॉलेज बंद भी हो रहे हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक हर साल 15 लाख से ज्यादा छात्र इंजीनियरिंग कॉलेजों में दाखिला लेते हैं, लेकिन उनमें से नौकरी सिर्फ साढ़े तीन लाख को ही मिल पाती है बाकी लगभग 75 फीसदी इंजीनियर बेरोजगार रहते हैं, उन्हें उपयुक्त काम नहीं मिल पाता। यह सरकारी आंकड़ा कह रहा है, परन्तु इन आंकड़ों पर विश्वास नहीं है कि 15 लाख में ये 3.5 लाख को नौकरी मिल रही है। क्योंकि सरकार के पास सरकारी नौकरी ही नहीं बची है। आज लगातार चार साल से मोदी सरकार सरकारी नौकरियों को खत्म करते आ रही है। अभी कुछ दिन पहले ही मोदी ने युवाओं को नौकरी देने के बजाए पकौड़े बेचने का मंत्र दिया था। यही नहीं यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने तो यहां तक कह दिया था कि शिक्षित युवा पढ-लिखकर सरकारी नौकरी के पीछे न भागे, सरकार उनको नौकरी नहीं दे सकती है। क्या इसके बाद भी सरकार से उम्मीद लगाया जा सकता है कि 15 लाख नौकरियों में से 3.5 लाख नौकरी दे रही हैं? कŸाई नहीं, यह सरकार का आंकड़ा विश्वास करने लायक नहीं है। 

बता दें कि शिक्षा को लेकर सर्वे करने वाली संस्था ‘प्रथम एजुकेशन फांडेशन’ ने कुछ समय पहले अपनी वार्षिक रिपोर्ट ‘असर’ यानी एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट जारी की थी। यह रिपोर्ट बेहद डरावनी और चौंकाने वाली है। इस रिपोर्ट के अनुसार प्राथमिक स्कूलों की हालत तो पहले से ही खराब थी और अब जूनियर स्तर का भी हाल कुछ ऐसा होता नजर आ रहा है। ‘असर’ की टीमों ने देश के 24 राज्यों के 28 जिलों में सर्वे किया। इसमें 1641 से ज्यादा गांवों के 30 हजार से ज्यादा युवाओं ने हिस्सा लिया। ‘असर’ ने इस बार 14 से 18 वर्ष के बच्चों पर ध्यान केंद्रित किया। सर्वे में पाया गया कि पढ़ाई की कमजोरी अब बड़े बच्चों में भी देखी जा रही है। सर्वे के अनुसार 76 फीसदी बच्चे पैसे तक नहीं गिन पाते हैं, जबकि 57 फीसदी को साधारण गुणा भाग भी नहीं आता है। भाषा के मोर्चे पर तो स्थिति और ज्यादा बेहद चिंताजनक है। अंग्रेजी तो छोड़िए, 25 फीसदी अपनी भाषा धाराप्रवाह बिना अटके नहीं पढ़ पा रहे हैं वहीं सामान्य ज्ञान और भूगोल के बारे में बच्चों की जानकारी बेहद कमजोर पायी गयी है। 58 फीसदी छात्र अपने राज्य का नक्शा नहीं पहचान पाये और 14 फीसदी को देश के नक्शे के बारे में जानकारी ही नहीं थी। 
सर्वे में करीब 28 फीसदी युवा देश की राजधानी का नाम नहीं बता पाये। दिलचस्प बात तो यह है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश को डिजिटल बनाने का ढिंढोरा पीट रहे है, लेकिन 59 फीसदी युवाओं को कंप्यूटर का ज्ञान नहीं है। इंटरनेट के इस्तेमाल की भी कुछ ऐसी ही स्थिति है। लगभग 64 फीसदी युवाओं ने कभी इंटरनेट का इस्तेमाल ही नहीं किया है। अभी दो दिन पहले ही यूनेस्को ने सर्वे में दावा किया था जानबूझकर इंटरनेट बंद करने के मामले में भारत पूरी दुनिया में पहले स्थान पर है। प्राथमिक की तरह ही माध्यमिक स्तर के विद्यार्थी भी बुनियादी बातें नहीं सीख रहे हैं, तो यह बात गंभीर होती स्थिति की ओर इशारा करती है। दरअसल, 14 से 18 आयु वर्ग के बच्चे कामगारों की श्रेणी में आने की तैयारी कर रहे होते हैं, यानी इसका सीधा असर अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। यदि इन युवाओं को समय रहते तैयार नहीं किया गया, तो जान लीजिए इसका असर भविष्य में देश के विकास पर बेहद गंभीर पड़ेगा। देश में मौजूदा समय में 14 से 18 साल के बीच के युवाओं की संख्या 10 करोड़ से ज्यादा है, सरकार को बिना वक्त गंवाए इन सभी पहलुओं पर गौर करना होगा अन्यथा स्थिति विकट हो सकती है। मगर सरकार ऐसा नहीं कर सकती है। कारण यह है कि देश की सŸा पर शासक जातियों का अनियंत्रित कब्जा है। 

सŸा पर अनियंत्रित कब्जा होने के कारण लोकतंत्र के चारों स्तम्भों में विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया पर कब्जा कर लिया है। इस प्रकार लोकतंत्र के जो चार स्तम्भ हैं, इन सारे स्तम्भों पर ब्राह्मणों का कब्जा हैं। उसके अलावा मिलिट्री पर ब्राह्मणों का नियंत्रण है। राज्यों के राज्यपाल जो संविधान के अनुच्छेद 356 के तहत राज्यों पर नियंत्रण करते हैं, राज्यपालों पर भी उन्हीं का नियंत्रण है। विश्वविद्यालय, शिक्षा प्रणाली पर नियंत्रण करने वाले उपकुलपति भी ब्राह्मण है। विश्वविद्यालयों पर उनका नियंत्रण है। सिलेबस पर भी ब्राह्मणों का नियंत्रण है अर्थात पढ़ने का अधिकार आपका जरूर होगा, परन्तु आपको क्या पढ़ना है यह तय करने का अधिकार सिलेबस के जरिये ब्राह्मणों का होगा। सारी किताबें लिखने का अधिकार ब्राह्मणों ने अपने नियंत्रण में रखा हुआ है। वो अपने हिसाब से किताबें लिखते हैं। उसके बाद उच्च शिक्षा, व्यवसायिक शिक्षा, सूचना तकनीकि, जैव तकनीकि, रिसर्च शिक्षा तथा विदेश शिक्षा भी ब्राह्मणों के ही नियंत्रण में है। यहीं कारण है कि शासक जातियों के बच्चे फॉरेन ऐजुकेशन ले रहे हैं और मूलनिवासी बच्चों के लिए सरकारी स्कूल खोल रहे हैं। इन स्कूलों में पढ़ाई के स्थान पर भीख मांगने की ट्रेनिंग दे रहे हैं और उच्च शिक्षा में तर्क और विज्ञान आधारित शिक्षा के स्थान पर पाखंडवाद, अंधविस्वासी और वेद, पुराण सहित ब्राह्मणों के सभी धर्म ग्रंथ पढ़ाकर देश के भाविष्य कहे जाने वाले युवाओं को भविष्य चौपट बना रहे हैं।

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