दिल्ली यूनिवर्सिटी में ओबीसी की ‘नो इंट्री’
एक बार फिर ओबीसी को शिक्षा से वंचित करने की साजिश
♦ उच्च शिक्षा के क्षेत्र में ओबीसी को आरक्षण तो दे दिया गया, लेकिन इसके साथ ही इसे सीमित करने के षडयंत्र भी रचे गये हैं। एक उदाहरण दिल्ली विश्वविद्यालय का है जहां ऐसे नियम बनाये गये हैं जिनके कारण ओबीसी वर्ग के छात्र-छात्राओं का नामांकन होना अब नामुमकिन बन गया है।
नई दिल्ली/दै.मू.एजेंसी
भारत के महत्वपूर्ण विश्वविद्यालयों में से एक दिल्ली विश्वविद्यालय में ओबीसी के छात्र व छात्राओं का नामांकन न हो सके, इसके लिए प्रक्रियाओं को जटिल बनाया जा रहा है। साथ ही कट ऑफ मार्क्स का खेल भी खेला जा रहा है। यह सब एक सुनियोजित साजिश के जैसा है और इसका शिकार ओबीसी वर्ग के युवा हो रहे हैं। सबसे पहले बात करते हैं कि दिल्ली विश्वविद्यालय की कि किस तरह से ओबीसी युवाओं को रोकने के लिए प्रक्रियाओं को जटिल बना रहा है। मसलन तमाम तरह के प्रमाण पत्र और उनके जमा किए जाने की अवधि, अलग-अलग स्तर के अधिकारियों से अनुशंसित करने की अनिवार्यता लागू किया जाना विश्वविद्यालय की मंशा पर सवाल खड़े करता है।
गौरतलब है कि ओबीसी युवाओं को वर्तमान वित्तीय वर्ष में जारी अपनी पूरी फैमिली का आय प्रमाण पत्र आवेदन पत्र के साथ जमा करने को कहा जा रहा है। वहीं क्रीमीलेयर के प्रमाण पत्र को लेकर कहा जा रहा है कि इसे तहसीलदार अथवा उससे उच्चस्थ प्रशासनिक पदाधिकारी से अनुशंसित करवाकर जमा करें तभी उनका आवेदन मान्य होगा। जबकि यह सभी जानते हैं कि क्रीमीलेयर का प्रमाण पत्र आय पर आधारित होता है और इस पर संबंधित जिलाधिकारी तक का हस्ताक्षर होता है। ऐसे में अलग से अनुशंसित करवाने का उद्देश्य ओबीसी के युवाओं को नामांकन से वंचित करने के सिवा और क्या हो सकता है।
यही नहीं दूसरा मामला कट ऑफ मार्क्स का है। वर्ष 2006 में उच्च शिक्षा में आरक्षण लागू करने की बात शुरू हुई थी। सुप्रीम कोर्ट ने तत्काल प्रभाव से 27 प्रतिशत आरक्षण लागू करने का आदेश दिया। तब विश्वविद्यालयों ने यह कहकर हाथ खड़े कर दिए थी कि अचानक से 27 फीसदी आरक्षण लागू करने के लिए सीटों की संख्या बढ़ानी पड़ेगी। परिणामस्वरूप विश्वविद्यालयों में पहले तीन साल तक 9 फीसदी आरक्षण लागू किया गया। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार उच्च शिक्षा में ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण मिलना चाहिए। विश्वविद्यालयों ने अलग-अलग तरीके से इसे लागू किया। मसलन किसी विश्वविद्यालय ने कुल सीटों में से 27 फीसदी ओबीसी के लिए रिजर्व कर दिया। इसमें मेरिट वाले ओबीसी युवाओं के नामांकन को भी ओबीसी के खाते में डाला गया। जब इसका विरोध हुआ तब सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्देश दिया कि सामान्य श्रेणी के लिए जारी होने वाले कट ऑफ मार्क्स और ओबीसी के लिए कट ऑफ मार्क्स के निर्धारण में 10 फीसदी का अंतर होना चाहिए। यदि किसी विश्वविद्यालय ने सामान्य श्रेणी के लिए कट ऑफ मार्क्स 90 प्रतिशत निर्धारित किया है तो ओबीसी के लिए यह 81 प्रतिशत होना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं किया जा रहा है।
कई छात्रों से व्यक्तिगत स्तर पर बात करने पर ऐसे कई मामले सामने आए है जहाँ ओबीसी छात्रों के लिए जारी कट ऑफ से ज्यादा नंबर आने के बाद भी उनका दाखिला (जो की नियम के हिसाब से समान्य वर्ग की सीट पर होना चाहिये) ओबीसी के लिए आरक्षित सीट पर कर दिया जाता है। इससे ओबीसी कोटे की एक सीट भी जाती है साथ ही अच्छे नंबर लाने के बावजूद ऐसे ओबीसी छात्रों पर उनकी प्रतिभा को दरकिनार कर ‘कोटे से आए छात्र’ का टैग लगा दिया जाता है। बात साफ है सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद विश्वविद्यालयों मे आरक्षण नियमों का पालन ठीक तरीके से नहीं किया जा रहा है। मामला केवल इतना ही नहीं है। यदि ओबीसी वर्ग के छात्र का अंक यदि ओबीसी के निर्धारित कट ऑफ मार्क्स से अधिक है तब कायदे से उसे आरक्षित सीट में नहीं गिना जाना चाहिए, लेकिन विश्वविद्यालय उसे ओबीसी में शामिल कर लेता है।
यह तो स्पष्ट है कि जिस तरीके से विश्वविद्यालय प्रबंधन ने शर्त निर्धारित किया है, वह नियमों के अनुपालन से अधिक उनके द्वारा ओबीसी के लिए अघोषित प्रवेश निषेध के माफिक है। सवाल आरक्षण को लेकर है। जहां उच्च वर्ग के पैरोकार यह कहते हैं कि अवसर प्रतिभा को मिलना चाहिये न कि किसी जाति के आधार पर और फिर जाति आधारित रिजर्वेशन से जातीयता की भावना और भी अधिक बढ़ेगी’। जबकि उच्च शिक्षा के संदर्भ मे रिजर्वेशन कम या खत्म करने की बहस के पहले यह समझना जरूरी है कि भले ही प्रत्यक्ष रूप से ऐसा लगता है कि ये जाति विशेष वर्ग को दिया जाता है, पर इसका आधार सामाजिक-सांस्कृतिक व शैक्षिक रूप से पिछड़ापन है न कि आरक्षण का उद्देश्य देश से गरीबी हटाना और नौकरी देना है। चूंकि जो लोग गरीब और बेरोजगार हैं उन्हे आरक्षण नहीं सरकार से रोजगार और आर्थिक मदद मांगनी चाहिए न कि आरक्षित समुदाय पर अपना हक मारने का इल्जाम लगाना चाहिए। देश मे बढ़ती बेरोजगारी है और शिक्षा संस्थानों और नौकरियों का लगातार तेजी से निजीकरण किया जा रहा है जहां ना तो शिक्षा में आरक्षण लागू होता है और न ही नौकरियों में।
यदि विश्वविद्यालय प्रशासन ओबीसी, एससी, एसटी छात्रों के हितों को लेकर वास्तव मे गंभीर है तो उसे अपने नियमों के अनुसार पूरी तरह से आरक्षण लागू करना होगा। इसके अलावा छात्र, अध्यापक और प्रगतिशील बुद्धिजीवियों की ये जिम्मेदारी है कि जहाँ कहीं भी आरक्षण नियमों का उल्लंघन होता है, उसका मुखर विरोध करें और आरक्षण को उचित तरीके से लागू करवाएँ। ऐसे माहौल मे आरक्षण व्यवस्था को बदलने या कम करने की भेदभावपूर्ण और समतावादी मूल्य विरोधी बहस में उलझने के बजाय जरूरत है कि आरक्षण व्यवस्था को सही और पूरी तरह से लागू किए जाने और उसमें होने वाली लापरवाही, मनमानेपन के खिलाफ सख्त कदम उठाए जाने की मांग करें। उच्च शिक्षा में ओबीसी, एससी, एसटी और अल्पसंख्यक को शामिल किए बिना समतामूलक लोकतान्त्रिक समाज का सपना सिर्फ सपना ही रह जाएगा।
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