गुरुवार, 17 मई 2018

पिता की जिंदगी की खातीर हाथ में ड्रिप की बॉटल लटकाए 02 घंटे तक खड़ी रही 7 साल की बिटिया

पिता की जिंदगी की खातीर हाथ में ड्रिप की बॉटल लटकाए 02 घंटे तक खड़ी रही 7 साल की बिटिया

औरंगाबाद/दै.मू.समाचार
केन्द्र की सरकार लाख कोशिश कर ले, लेकिन देश की हालत सुधरने के बजाए और ज्यादा गंभीर ही होती जायेगी, क्योंकि बीजेपी सरकार की नियत ही खराब है। आज मोदी सरकार में रोटी, कपड़ा, मकान से लेकर शिक्षा, स्वास्थ्य और आमजन की सुरक्षा तक पंगू बन चुकी है। इस बात की गवाही औरंगाबाद सरकारी अस्पताल की यह तस्वीर ही दे रही है जहां 7 साल की बिटिया पिता की जिंदगी बचाने के लिए हाथ में ड्रिप की बॉटल लटकाए 02 घंटे तक खड़ी रही। वास्तव में यह तस्वीर मोदी सरकार में स्वास्थ्य व्यवस्था की पोल खोलने के लिए काफी है। यह मामला औरंगाबाद के घाटी सरकारी हॉस्पिटल का है। एकनाथ का किसी बीमारी में ऑपरेशन हुआ था, हॉस्पिटल में सलाइन (ड्रिप) स्टैंड नहीं था। इसलिए बेटी को बॉटल पकड़ाकर खड़ा कर दिया गया। डॉक्टरों ने बच्ची को सख्त हिदायत दी थी कि बॉटल ऊंची ही रखना। बच्ची ने पिता के लिए 02 घंटे तक हाथ में ड्रिप की बॉटल लिए खड़ी रह गयी। यह मामला प्रकाश में आने पर डॉक्टरों ने कहा की बच्ची सिर्फ 5 मिनट बॉटल पकड़ी...रही। औरंगाबाद के रहने वाले एकनाथ गवली को 5 मई को घाटी अस्पताल में भर्ती कराया गया था जहां 7 मई को ऑपरेशन किया गया। ऑपरेशन के बाद उन्हें वार्ड में शिफ्ट किया गया। वार्ड में शिफ्ट तो कर दिया गया, लेकिन वहां ड्रिप लटकाने के लिए स्टैंड नहीं था। लिहाजा एकनाथ की 7 साल की बेटी को ही डॉक्टरों ने बॉटल पकड़ा दी और बॉटल नीचे न करने की शख्त हिदायत दी जिसके कारण मासूम 02 घंटे तक खड़ी रह गई।
शोसल मीडिया में आई खबरों के अनुसार, पिता की जिंदगी की खातिर बच्ची करीब 2 घंटे ऐसे ही बॉटल पकड़े खड़ी रही। जबकि विवाद बढ़ने के बाद घाटी हॉस्पिटल मैनेजमेंट की ओर से इस बात से इनकार कर दिया गया। हॉस्पिटल ने एक बयान जारी कर कहा है कि ऑपरेशन थिएटर से वार्ड में शिफ्ट करने के दौरान मरीज की बेटी ने कुछ देर के लिए बॉटल को पकड़ लिया था। उसी दौरान किसी ने फोटो खींच ली और सोशल मीडिया में वायरल कर दी। जबकि डॉक्टरों का यह बयान सरासर गलत है। चूंकी ड्रिप की दो बॉटल पहले ही खत्म हो चुकी थी, मासूम के हाथों में तीसरे ड्रिप बॉटल थी। उल्लेखनीय है कि मराठवाड़ा के इस सबसे बड़े 1200 बेड वाले सरकारी हॉस्पिटल में औरंगाबाद सहित आसपास के 8 जिलों के मरीज इलाज कराने आते हैं। लेकिन घाटी अस्पताल में बड़ी संख्या में गरीब मरीजों के आने के बाद भी मरीजों को सहूलियत मिलनी चाहिए वह नहीं मिलती।

कॉस्ट के नाम पर क्लास रूम, थाली खा गए टीचर और कागज पर खा रहे बच्चे

बिहार स्कूल का शर्मनाक वाकया
कॉस्ट के नाम पर क्लास रूम
थाली खा गए टीचर और कागज पर खा रहे बच्चे

पटना/दै.मू.ब्यूरो
जब से बिहार में भाजपा की नीतीश सरकार बनी है तब से बिहार की स्कूलों में अजीबो-गरीब वाकये देखने को मिल रहे हैं। अभी हाल ही में एक खबर ने चौंका दिया था कि बिहार के स्कूलों में जहां कास्ट के आधार पर क्लास रूम चल रहा है। यहीं नहीं उसी दौरान यह भी समाचारों की सुर्खियां रही कि विद्यालयों में जाति के नाम पर मासूमों का बंटवारा हो रहा है। ऐसा ही एक और वाकया देखने को मिला है जहां स्कूलों में बच्चों को पेपर पर खाना परोसा जा रहा है।
शिक्षा और विकास को लेकर बिहार सरकार भले ही रोज गाल बजा रही है, लेकिन सिवान की यह तस्वीर यह बताने के लिए काफी है कि जब से बिहार की सŸा पर बीजेपी का कब्जा हुआ है तब से पूरा सिस्टम सड़ चुका है। सिवान के दरौली प्रखंड के मध्य विद्यालय उकरेड़ी का यह दृष्य देख जानवर भी लजा जाए, लेकिन नीतीश सरकार को लाज नहीं आ रही है। सोमवार को विभाग की उस समय पोल खुल गई जब प्रखंड प्रमुख रूपा देवी स्कूल पहुंची। उन्होंने छात्र-छात्राओं को जमीन पर बैठकर कागज पर मध्यांह भोजन करते हुए देखा। रसोइया थाली के बदले कागज के पन्नों पर चावल परोस रहा था। इतना ही नहीं भोजन परोसने वाला रसोइया कपड़े भी गंदे पहने हुए था। यह देख जब प्रखंड प्रमुख ने बच्चों से कारण पूछा तो प्रखंड प्रमुख के होश ही उड़ गये।   भोजन कर रहे बच्चों ने बताया कि स्कूल द्वारा हम लोगों को थाली नहीं दी जाती है। जो बच्चे घर से थाली लाते हैं वे अपने थाली में भोजन करते हैं और जो नहीं लाते हैं उन्हें कागज के पन्नों पर ही भोजन परोसा जाता है। हम लोग हमेशा इसी कागज के पन्नों पर भोजन करते आ रहे हैं। वास्तव में यह वाकया हिला देने वाला है।
विशेष सूत्रों के अनुसार सोमवार को स्कूल में 86 बच्चों की उपस्थिति बनाई गई थी, जबकि मात्र 54 बच्चे ही भोजन कर रहे थे। वहीं प्रमुख द्वारा पूछे जाने पर ग्रामीण लोगों ने बताया कि स्कूल में मध्यांह भोजन में हमेशा गड़बड़ी होती रहती है। भोजन रोज नहीं बनाकर कभी-कभी बनाया जाता है, जब कभी भोजन बनाता भी है तो काफी अनियमितता से बनाया जाता है। जब स्कूल के अनियमितता के खिलाफ आवाज उठाई जाती है तब स्कूल प्रबंधन द्वारा फर्जी केस में फंसाने की धमकी दी जाती है।
अब सवाल यह उठता है कि बाल पंजीकरण पर बच्चों को भोजन कौन परोस रहा है? आज जब देश में शिक्षा अधिकार अधिनियम लागू है, बच्चों को स्कूलों में शिक्षित करने के लिए सरकार द्वारा सभी संसाधन उपलब्ध कराए गए हैं। मध्यांह भोजन भी उसी का अहम हिस्सा है। इस स्थिति में बिहार के स्कूलों में मध्यांह भोजन योजना में हमेशा गड़बड़ी की बातें सामने आती रही हैं, लेकिन विभाग के अधिकारियों पर कोई फर्क की नहीं पड़ता है। क्योंकि उनके खिलाफ सरकार भी चुप्पी साधे रहती है। स्कूल में बच्चों को बाल पंजी के कागज पर भोजन कराने के पीछे बड़े पैमाने पर गड़बड़ी में पदाधिकारियों की मिलीभगत को कौन सपोर्ट कर रहा है? आखिर बिहार सरकार कब जागेगी? इसका एक ही जवाब है कि जब तक सŸा बीजेपी के हाथों मे रहेगी तब तक शिक्षा, स्वास्थ्य के अलावा रोटी, कपड़ा और मकान जैसी मूलभूत समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता है।

आतंकवाद का जनक ‘‘बाल गंगाधर तिलक’’-राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड



आतंकवाद का जनक ‘‘बाल गंगाधर तिलक’’-राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड
राजस्थान/दै.मू.एजेंसी
इस बात से अब इनकार नहीं किया जा सकता है कि शासक जातियों द्वारा जिन भारतीय इतिहास को दबाया गया था अब उसकी परत दर परत सच्चाई खुलने लगी है। राजस्थान में माध्यमिक शिक्षा बोर्ड द्वारा बाल गंगाधर तिलक को आतंकवाद का जनक बताना भले ही किसी को नागवार लगे परन्तु जमीनी हकीकत यही है कि बाल गंगाधर तिलक केवल ब्राह्मणों के लिए स्वतंत्रता सेनानी हो सकते हैं, लेकिन मूलनिवासियों के लिए आतंकवादी से कम नहीं थे। क्योंकि ब्राह्मणों द्वारा 1947 में चलाया गया आजादी का आंदोलन, आजादी का आंदोलन नहीं था, बल्कि यूरेशियन ब्राह्मणों के लिए ही आजादी का आंदोलन था और मूलनिवासी बहुजनों को गुलाम बनाने का आंदोलन था। 

सूत्रों के मुताबिक अंग्रेजी मीडियम के निजी स्कूलों की 8वीं कक्षा के छात्रों की एक किताब में बाल गंगाधर तिलक को ‘आतंकवाद का जनक’ (फॉदर ऑफ टेररिज्म) बताया गया है। ये स्कूल राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड से मान्यता प्राप्त हैं। मामले पर विवाद बढ़ता देख किताब के प्रकाशक ने सफाई दी और इसे अनुवाद की गलती बता दिया। उधर, कांग्रेस ने किताब को पाठ्यक्रम से हटाने की मांग कर रही है। राजस्थान राज्य पाठ्यक्रम बोर्ड किताबों को हिंदी में प्रकाशित करता है इसलिए बोर्ड से मान्यता पाए अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों के लिए मथुरा के एक प्रकाशक की संदर्भ पुस्तक का इस्तेमाल होता है। इसी पुस्तक के अध्याय 22 और पेज संख्या 267 पर तिलक के बारे में लिखा गया है कि उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन का रास्ता दिखाया था, इसलिए उन्हें ‘आतंकवाद का जनक’ कहा जाता है। किताब में तिलक के बारे में 18वीं और 19वीं शताब्दी के राष्ट्रीय आंदोलन के संदर्भ में लिखा गया है। मथुरा के प्रकाशक स्टूडेंट अडवाइजर पब्लिकेशन प्राइवेट लिमिटेड के अधिकारी राजपाल सिंह ने बताया कि गलती पकड़ी जा चुकी है जिसे संशोधित प्रकाशन में सुधार दिया गया है। हालांकि राजस्थान के स्कूलों में बाल गंगाधर तिलक का अपमान किए जाने का मामला गलत नहीं है, लेकिन बात को तुल देने के लिए अपमान करने का आरोप गलाया जा रहा है। 

बताते चलें कि भारत में सबसे पहले राष्ट्रपिता जोतिराव फुले ने सन् 1882 में अंग्रेजों के हण्टर कमीशन के समक्ष प्रत्यावेदन देकर गैर ब्राह्मणों को आरक्षण देने की मांग की थी। उसके बाद 26 जुलाई सन् 1902 को छत्रपति शाहूजी महाराज ने अपने रियासत कोल्हापुर में पिछड़े वर्गों के लिए पहली बार 50 प्रतिशत आरक्षण लागू किया था। सन् 1918 में साउथ बोरो कमीशन के समक्ष शाहूजी महाराज के कहने पर भास्कर राव जाधव ने पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की मांग किया था, जिसका उग्र विरोध करते हुए बाल गंगाधर तिलक ने कोल्हापुर के अथनी गांव में कहा कि ‘तेली, तंबोली, नाई, कोल, कलवार और कुणभटों (कुर्मी) को संसद में जाकर क्या हल चलाना है? यही नहीं बाल गंगाधर तिलक ने ही स्वराज का नारा देते हुए कहा था कि स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है, इसे मैं लेकर रहूंगा। लेकिन तिलक ने किस स्वराज की बात की यह बात मूलनिवासियों को आज तक पता नहीं चल सका है। तिलक के स्वराज का अर्थ यह था कि यदि अंग्रेज हम ब्राह्मणों को अपने शासन-प्रशासन मे प्रर्याप्त हिस्सेदारी देते हैं तो उन्हें देश छोड़कर जाने की जरूरत नहीं है। इससे भी भयानक बात यह है कि बाल गंगाधर तिलक ने मूलनिवासियों का इतिहास भी बदलने के लिए काम किया है। तिलक ने ही महाराष्ट्र में छत्रपति शिवाजी महाराज के जन्मोत्सव को बंद करने के लिए गणेश उत्सव शुरू किया था। यानी तिलक ने मूलनिवासी इतिहास को दबा दिया। इससे तिलक मूलनिवासी बहुजनों के लिए आतंकवादी ही है।

आईएसआईएस पर सनसनीखेज खुलासा, आईएसआईएस मुसलमाने ने नहीं, बल्कि अमेरिका और इजराइल ने बनाया है-जुलियन असांजे

आईएसआईएस पर सनसनीखेज खुलासा
 आईएसआईएस मुसलमाने ने नहीं, बल्कि अमेरिका और इजराइल ने बनाया है-जुलियन असांजे

मेलबर्न/आस्ट्रेलिया/दै.मू.एजेंसी
इन दिनों यूरेशियन लोगों द्वारा दुनिया भर में मुसलमानों के खिलाफ दुष्प्रचार किया जा रहा है। इस बात के पुख्ता सबूत हैं कि दुनिया भर के तमाम देशों की खुफिया एजेंसियां इस्लामोफोबिया फैलाने का काम गुपचुप तरीके से करती पाई गयीं हैं। आमतौर पर लोगों के भीतर ऐसी धारणा घर कर गई है कि दुनिया भर में कहीं भी किसी भी तरह की आतंकी गतिविधियाँ होती हैं तो उसे तुरंत मुसलमानों से जोड़ दिया जाता है। भले उसके कोई सबूत सामने आये हो या नहीं। बहरहाल, इन सब साजिशों के बावजूद दुनिया में मौजूद तमाम मजहबों में इस्लाम ही ऐसा वाहिद मजहब है, जिसे दुनिया भर में सबसे तेजी से अपनाया गया है। बीते कुछ समय से आतंकी संगठन आईएसआईएस से मुसलमानों को जोड़कर एक समाज विशेष को बदनाम करने की काफी कोशिश की गई है। हालाँकि इससे सम्बंधित तमाम रिपोर्ट भी प्रकाशित हो चुकी है, जिसके मुताबिक यह साफ हो गया है कि मुस्लिम युवकों का आईएसआईएस जैसे संगठनों से कोई भी रिश्ता नहीं है। परन्तु यूरेशियन ब्राह्मणों ने तमाम तरह की साजिश और एजेंडे के तहत मुसलमानों को बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। लेकिन इस बीच एक नये खुलासे ने सबको चौंकाते हुए ब्राह्मणों के मंसबों पर पानी फेर दिया है। 
यह खुलासा विकिलीक्स के संस्थापक जूलियन असांजे ने पहले भी किया था और एक फिर से आईएसआईएस को लेकर बड़ा खुलासा किया है। जूलियन असांजे ने कहा है कि आईएसआईएस मुसलमानों का संगठन नहीं है, बल्कि उसे सीआईए और मोसद ने बनाया है। उन्होंने कहा कि इस उभरते संगठन ने 1979 के करीब आधे मिलियन पूर्व गोपनीय अमेरिकी राजनयिक केबलों को जारी किया था। असांजे ने बताया कि 1979 में हुई घटनाएं ही आईएसआईएस के उदय का कारण बनी थी। बता दें कि जूलियन असांजे उस वक्त दुनिया भर के समाचार में सुर्खियों में छा गए थे जब विकीलीक्स द्वारा पहली कुख्यात केबलगाट की छठी वर्षगांठ पर यूएस फाइलों का अपना पहला बैच जारी किया था। 28 नवंबर 2010 को उसने 1979 से 531,525 नए कूटनीतिक केबलों के साथ अमेरिकी कूटनीति की अपनी सार्वजनिक पुस्तकालय का विस्तार भी किया है।

यदि उक्त बातों का पूर्णरूप से विश्लेषण करें तो पता चलता है कि भारत में ब्राह्मणों ने मूलनिवासी मुस्लिमों को बदनाम और आतंकवाद के नाम पर संहार करने के लिए आईएसआईएस से जोड़कर प्रचार कर रहे हैं, लेकिन इस सनसनीखेज खुलासे ने न केवल ब्राह्मणों के मंसूबों पर पानी फेर दिया है, बल्कि यह भी साबित कर दिया है कि आतंकी घटनाओं को खुद यूरेशियन ब्राह्मणों ने ही अंजाम दिया और मुस्लिमों को आतंकवादी के नाम पर मौत के घाट उतार रहा है। इसके पीछे भी अहम कारण है वह कारण यह है कि अल्पसंख्य ब्राह्मण धर्म के नाम पर एससी, एसटी और ओबीसी को हिन्दू बनाता है और एससी, एसटी और ओबीसी को हिन्दू के नाम पर मुस्लिमों को लड़ा-भिड़ाकर ब्राह्मणम बहुसंख्य बनकर देश की सŸा पर अनियंत्रित काबिज हुआ है।

बामसेफ आज का भिक्खु संघ है और पूर्णकालीन प्रचारक बौद्ध भिक्खु

बामसेफ आज का भिक्खु संघ है और पूर्णकालीन प्रचारक बौद्ध भिक्खु

माँ-बाप, भाई-बहन, सगे-संबंधी और नाते-रिस्तेदार सभी रिश्तों को त्यागकर मूलनिवासी बहुजन समाज को नौकरी, शिक्षा, संवैधानिक हक और अधिकार दिलाने हेतु पूरे देश में प्रचारक बनकर प्रचार करते हैं। हमारी जिम्मेदारी है कि उन्हे साथ-सहयोग करें, उनका मान-सम्मान करें! पूरे देश में प्रचारकों ने गांव-गांव में जाकर बहुजन समाज के महापुरुषों की विचारधारा का प्रचार-प्रसार करके जगाने का काम करते हैं। जिस प्रकार बुद्धा के समय में बौद्ध भिक्खु किया करते थे, ठीक उसी प्रकार आज बामसेफ के पूर्णकालीन प्रचारक काम कर रहे हैं। इसलिए आज के वर्तमान समय में बामसेफ एक भिक्खु ‘संघ’ है एवं बहुजन नायक मा. वामन मेश्राम बुद्ध के सच्चे अनुयायी हैं।
बहुजन नायक मा.वामन मेश्राम, जिन्होंने आज की बामसेफ (प्राचीन काल की बौद्ध भिक्खु संघ) बनाकर समाज में एक मिसाल कायम कर दी है। आज कितनी गर्व की बात है कि जिस मूलनिवासी बहुजन समाज में आरएसएस, कांग्रेस और बीजेपी (शासक वर्ग) ने दलाल और भड़वे तैयार किए थे, आज बामसेफ उसी समाज में ईमानदार, निष्ठावान, स्वाभिमानी और न बिकनेवाला वर्ग तैयार करने में काफी सफल हो चुका है। मा.वामन मेश्राम की नीति-रणनीति से यूरेशियन ब्राह्मणों अर्थात मूलनिवासी बहुजन समाज के दुश्मनों का न केवल मनोबल ध्वस्त हो चुका है, बल्कि उनके अंदर दहशत का माहौल व्याप्त हो चुका है। आज ब्राह्मण हर पल मूलनिवासी बहुजनों में झगडे़ लगाने की कोशिश कर रहा है, लेकिन मा.मेश्राम साहब के जन-जागृति के कारण विदेशी ब्राम्हणों के मंसूबों पर पानी फिर रहा है। आज पूरे देश में केवल एक ही चर्चा का विषय बना हुआ है कि मूलनिवासी बहुजन समाज के लोग बहुजन नायक मा.वामन मेश्राम को क्रांतीवीर की उपाधि से नवाज रहे हैं। वास्तव में यह चर्चा ब्राह्मणों को हजम नहीं हो रहा है। इसलिए ब्राह्मणवादी सरकारें मा.वामन मेश्राम को रोकने के लिए हिंसा का सहारा ले रही हैं, इसके बाद भी बामसेफ का कारवां आगे ही बढ़ता जा रहा है। जिसका जीता-जागता प्रमाण यह है कि आज मूलनिवासी बहुजन समाज के जो लोग जातिगत संगठन बनाकर अकेले-अकेले दुश्मनों से लड़ रहे थे, वे आज बामसेफ का पूरजोर समर्थन कर रहे हैं। क्योंकि उनको इस बात का एहसास हो चुका है कि बगैर बामसेफ के समर्थन से समस्याओं का समाधान नामुमकिन है।

भाजपा का चुनाव प्रचार करती इंडिया टीवी न्यूज की गाड़ी, 4343.26 करोड़ चुनाव जीतने के लिए खर्च कर चुकी है मोदी सरकार, आरटीआई

भाजपा का चुनाव प्रचार करती इंडिया टीवी न्यूज की गाड़ी
4343.26 करोड़ चुनाव जीतने के लिए खर्च कर चुकी है मोदी सरकार, आरटीआई

मुंबई/दै.मू.एजेंसी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने मई 2014 में सत्ता में आने के बाद से अब तक यानी जनवरी 2018 तक भारतीय जनता पार्टी की छवि को चमकाने में 4,343.26 करोड़ खर्च कर चुके हैं। सूचना का अधिकार (आरटीआई) से प्राप्त जानकारी के मुताबिक, सरकार ने विभिन्न मीडिया के जरिये केवल प्रचार और विज्ञापनों पर यह भारी भरकर राशि खर्च करके अब तक का सबसे बड़ा मीडिया घोटाला किया है।
मुंबई के आरटीआई कार्यकर्ता ने केंद्र सरकार के ब्यूरो ऑफ आउटरीच एंड कम्युनिकेशन (बीओसी) से वर्तमान सरकार के कार्यालय संभालने के वक्त से विज्ञापन और प्रचार पर खर्च की गई राशियों के विवरण मांगे थे। बीओसी के वित्तीय सलाहकार तपन सूत्रधार द्वारा जून 2014 से अब तक हुए खर्च पर यह जानकारी मुहैया कराई गई। प्रिंट मीडिया में प्रचार पर 1732.15 करोड़ 1 जून, 2014 से दिसंबर 2017 तक और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर प्रचार में 2079.87 करोड़ 1 जून 2014 से 31 मार्च 2018 तक खर्च किए गए हैं। जबकि आउटडोर प्रचार पर जून 2014 से जनवरी 2018 तक 531.24 करोड़ खर्च किए गए हैं। 

चौंकाने वाली बात तो यह है कि ये सरकारी आंकडे़ भी चुगली करते नजर आ रहे हैं। क्योंकि वर्ष 2015-2016 में राष्ट्रीय किसान मोर्चा के राष्ट्रीय प्रभारी रामसुरेश वर्मा ने आरटीआई के तहत जानकारी मांगी थी कि मोदी सरकार द्वारा केवल चुनाव प्रचार में कितना खर्च किए गये हैं। रामसुरेश वर्मा नें प्रींट मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, आकाशवाणी, रेडियो और होडिंग-बैनर पर कितनी राशि खर्च हुई है तारीख के साथ अलग-अलग विवरण दिया जाए। आरटीआई द्वारा करीब 200 से ज्यादा पन्नों में जो लिखित आंकड़ें दिए उसे देख हर कोई चौंक उठा। क्योंकि केवल चुनाव प्रचार में मोदी ने अरबों-खरबों रूपये बेहिसाब अपने चहेतों को दिया था जो बहुत बड़ा घोटाला होने का संकेत है। क्योंकि भारी भरकम राशि उन मीडिया को दिया गया था जो मोदी के सबसे चहेते थे। इससे भी ज्यादा हैरान करने वाली बात यह है कि जो रकम खर्च किए गये थे उसका सरकारी दस्तावेज मे कोई रिकार्ड भी उपलब्ध नहीं है। यानी बगैर सरकारी दस्तावेज बनाए ही अपने चहेतों को भारी भरकम राशि बांटा गया था, जो यह साबित करता है कि भारत के इतिहास में अब तक का यह सबसे बड़ा मीडिया घोटाला है। यही कारण है कि ब्राह्मणवादी मीडिया भी चुनावों में भाजपा की प्रचार करते नजर आये हैं। दिल्ली विधासनभा चुनाव के दौरान इंडिया टीवी की गाड़ी से भाजपा का चुनावी प्रचार जोरों-शोरों से किया जा रहा था, उस वक्त इंडिया टीवी द्वारा भाजपा का चुनावी प्रचार करते हुए कुछ तस्वीरें भी वायरल हुई थीं। जो यह सबित करता है कि ब्राह्मणवादी मीडिया भी भाजपा के हाथों बिक चुका है जो पत्रकारिता के लिए बेहद खतरनाक बात है।

योगी सरकारी की लापरवाही ने सैकड़ों को सुलया मौत की नींद, बनारस में निर्माणाधीन पुल गिरने से 50 से ज्यादा लोगां की मौत, 100 से ज्यादा घायल

योगी सरकारी की लापरवाही ने सैकड़ों को सुलया मौत की नींद
बनारस में निर्माणाधीन पुल गिरने से 50 से ज्यादा लोगां की मौत, 100 से ज्यादा घायल

वाराणसी/दै.मू.ब्यूरो                                                                   
देश में जब-जब चुनाव परिणाम आये उसी दिन या उसके एक दिन पहले या एक दिन बाद इसी तरह की दर्दनाक घटनाएं घटित होती रही हैं। चाहे वह घटना आतंकवाद, नक्सलवाद की हो या किसी चर्चित व्यक्ति की हत्या की हो। चूंकी कई चुनावी परिणाम के दिन या बाद में या उसी दिन ऐसी बहुत सारी घटानाएं हो चुकी है। इससे आशंका पैदा हो रही कि शायद यह घटना भी उसी का एक अहम हिस्सा हो सकती है। गौरतलब है कि पीएम नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में कैन्ट रेलवे स्टेशन के सामने बन रहे फ्लाई ओवर की दो बीम गिरने से जहां 50 लोगों की मौत हो गई है वहीं 100 से ज्यादा लोग घायल हो चुके हैं, जिनका वाराणसी के प्रमुख अस्पतालों मे इलाज चल रहा है, जिनमें से कई लोग जीवन और मौत के बीच जूझ रहे हैं तथा घटना स्थल पर कोहराम मचा हुआ है। 

बीम गिरने के कारण बस सहित कई गाड़ियों के परखच्चे उड़ गये हैं। घटनास्थल पर नेशनल डिजास्टर रिस्पांस फोर्स की सात टीमें राहत व बचाव कार्य में लगी हैं। इतना दर्दनाक हादसा हो जाने के बाद भी जिला प्रशासन घटना के एक घंटे बाद आया, घटना के बाद आस-पास की पब्लिक ही लोगों को बचाने में लगी थी और लगातार पुलिस को फोन किया जा रहा था, लेकिन कोई नहीं आया। कुछ लोगों ने मलवे के नीचे दबी गाड़ियों से लोगों को निकालने की बहुत कोशिश की, लेकिन लोगों से हो नहीं सका और क्रेन भी एक घंटे बाद पहुंची।शायद समय रहते राहत कार्य शुरू कर दिया गया होता तो शायद कुछ लोगों को बचाया जा सकता था।

ताजा जानकारी मिलने तक रात आठ बजे तक 50 शव निकाले जा चुके थे, मरने वाले लोगों की संख्या और ज्यादा बढ़ सकती है। इसके अलावा मलवे में कई लोगों के दबे होने की सम्भावना है। कैंट रेलवे स्टेशन के पास सेतु निर्माण निगम की गाजीपुर निर्माण इकाई के चौकाघाट-लहरतारा फ्लाईओवर की दो बीम आज शाम अचानक गिर गयीं। हादसे का कारण सेतु निर्माण निगम की लापरवाही एवं सरकार की निजीकरण नीति के कारण मानक के अनुसार निर्माण सामग्री उपयोग नहीं करना मुख्य कारण है। इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उत्तर प्रदेश पुल निर्माण निगम 2261 मीटर लंबे फ्लाईओवर का निर्माण 129 करोड़ की लागत से कर रहा था। फ्लाईओवर का जो हिस्सा गिरा है, उसे तीन महीने पहले ही बनाया गया था। 

इस ओवरब्रिज के डिजाइन को लेकर शुरू से ही सवाल उठते रहे हैं। इस प्रोजेक्ट को 2 मार्च 2015 को मंजूरी मिली थी, 25 अक्टूबर 2015 से इस फ्लाईओवर के निर्माण का काम शुरू हुआ था। इस निर्माणाधीन पुल के डिजाइन को लेकर जुलाई, 2017 में ही सवाल खड़े हो गए थे। ऐसा कहा गया कि फ्लाईओवर की डिजाइन ऐसी बना दी गई है, जो भारी वाहनों के लिए मुसीबत बन गई है। बताया जा रहा है कि इस फ्लाईओवर का निर्माण कार्य पूरा करने की अवधि पहले दिसंबर 2018 निर्धारित थी, लेकिन बाद में इसे घटाकर मार्च 2018 कर दिया गया। पुल गिरने का यही मानक निर्माण सामग्री में घोटाला किया गया और कम समय में ज्यादा काम दिखाकर योगी सरकार की छवि को दिखाने की कोशिश की गयी। जिसका नतीजा यह निकला कि इस घोर लापरवाही ने दर्जनों को मौत की नींद सुला दिया और सैकड़ों का जीवन बर्बाद होने के कगार पर पहुंचा दिया है। दूसरा पहलू यह भी है कि ऐसी घटनाएं विदेशी ब्राह्मणों का आजमाया हुआ एक नुस्खा है। इसलिए ऐसा कहा जा सकता है कि कर्नाटक के ईवीएम घोटाले एवं सरकार की नामाकियों पर पर्दा डालने के लिए वाराणसी में पुल गिरवाकर दर्जनों लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया है।

ईवीएम शासक जातियों का सत्ता हथियाने का हथियार, जिस दिन देश में लोकतंत्र लागू हो जायेगा उसी दिन ब्राह्मणों की हुकूमत खत्म हो जायेगी-वामन मेश्राम

ईवीएम शासक जातियों का सत्ता हथियाने का हथियार
जिस दिन देश में लोकतंत्र लागू हो जायेगा उसी दिन ब्राह्मणों की हुकूमत खत्म हो जायेगी-वामन मेश्राम

नई दिल्ली/दै.मू.एजेंसी
कर्नाटक चुनाव में बीजेपी को सबसे बड़ी पार्टी बनने से यह साफ हो गया है कि इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन में धोखाधड़ी हुई है। चार साल बाद भी मोदी लहर काम नहीं आई है, लेकिन ईवीएम ने नरेंद्र मोदी को 2014 में केन्द्र की सत्ता सौंपने के बाद खत्म हो चुकी लहर को फिर से हवा दे दिया है। ईवीएम के ही माध्यम से देश के 29 राज्यों में से 20 राज्यों पर बीजेपी सत्ता पर काबिज हो चुकी है यानी ताजा खबर मिलने तक 21वां राज्य कर्नाटक भी अब बीजेपी के पास जाता हुआ दिखाई दे रहा है। कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजे ने एक बार फिर से साबित कर दिया है कि जब तक देश में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) से चुनाव होगा तब तक देश की सत्ता पर बीजेपी और कांग्रेस का अनियंत्रित कब्जा बरकरार रहेगा। लेकिन जीत हासिल करने के बाद भी बीजेपी को इस बात की चिंता सता रही है कि फिर से ईवीएम का मुद्दा गर्माने वाला है।
विशेष सूत्रों के मुताबिक इस बार कर्नाटक विधानसभा चुनावों में कुल 80 हजार इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) का इस्तेमाल किया गया है। इन सभी में वोटर वेरीफाई पेपर ऑडिट ट्रेल (वीवीपैट) का उपयोग किया गया है। पिछले कुछ चुनावों के नतीजों के बाद ईवीएम की प्रामाणिकता को लेकर सवाल उठाए गए जा चुके हैं। आपको बता दें कि भारत दुनिया के उन चुनिंदा देशों में शुमार है, जहां ईवीएम का उपयोग होता है। जबकि जिन देशों ने ईवीएम का निर्माण किया है उन देशों ने ईवीएम के इस्तेमाल को यह कहते हुए प्रतिबंधित कर दिया है कि ईवीएम से पारदर्शी चुनाव नहीं कराया जा सकता है, ईवीएम से धोखाधड़ी होती है। ईवीएम का इस्तेमाल न करने वाले देशों में अमेरिका, जर्मनी, नीदरलैंड, पैरागुवे, न्यूजीलैंड, इंग्लैंड, फिलीपींस, ऑस्ट्रेलिया, कोस्टा रिका, ग्वाटेमाला, आयरलैंड, इटली, कजाखिस्तान, नॉर्वे, ब्रिटेन आदि देश शामिल हैं।
बता दें कि ईवीएम की विश्वसनीयता पर आज से नहीं, बल्कि 1982 में जब पहली बार ईवीएम का उपयोग केरल के परूर विधानसभा सीट के उपचुनाव में किया गया था, तब से सवाल खड़े हो रहे हैं। इसके बाद 1998 में मध्य प्रदेश, राजस्थान और दिल्ली की 16 विधानसभा सीटों के लिए हुए चुनाव में फिर से सवाल खड़े हुए। इसके बाद जब 2004 और 2009 में हुए लोकसभा चुनाव में पहली बार पूरे देश में ईवीएम का इस्तेमाल किया गया तब ईवीएम का मामला और ज्यादा जोर पकड़ने लगा। यही नहीं 2014 के चुनाव परिणाम के बाद कांग्रेस पर ईवीएम में घोटाला करके सरकार बनाने का आरोप लगाते हुए बीजेपी के सुब्रहमण्यम स्वामी, जी.वी.एल नरसिंह राव, लालकृष्ण आडवाणी सहित अन्य नेताओं ने सुप्रीम कोर्ट में लिखित दस्तावेज के साथ प्रमाणित भी कर दिया था कि ईवीएम में गड़बड़ी संभव है। जब कांग्रेस को लगा कि यह बात सार्वजनिक होने वाली है तब उसने आरएसएस के बीच समझौता किया कि जिस तरह से कांग्रेस 2004-2009 में ईवीएम में घोटाला करके सŸा पर काबिज हुई है उसी प्रकार से भाजपा भी 2014 की भांति 2019 के लोकसभा सहित अन्य राज्यों के विधानसभा चुनाव में ईवीएम घोटाला करके सरकार बना सकती है। यही वो मुख्य कारण है कि कांग्रेस पर ईवीएम में धोखाधड़ी करके सरकार बनाने का आरोप लगाने वाले बीजेपी के उक्त नेता आज ईवीएम के ईमानदारी की पूरी गांरटी दे रहे हैं। इस काम के लिए ईवीएम के साथ-साथ बीजेपी ने चुनाव आयोग भी हैक किया हुआ है, इसलिए चुनाव आयोग भी ईवीएम के ईमानदार होने का मुहर लगा रहा है।
हैरान करने वाली बात तो यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने 08 अक्टूबर 2013 को यानी लोकसभा चुनाव 2014 के पहले ही चुनाव आयोग को आदेश जारी किया था कि बगैर ईवीएम में वीवीपैट लगाये चुनाव सम्पन्न नहीं कराया जा सकता है, लेकिन चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उलंघन करके न केवल लोकसभा 2014 का चुनाव सम्पन्न कराया, बल्कि दिल्ली, बिहार, यूपी सहित पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में भी ईवीएम का इस्तेमाल किया और 2017 तक देश के 20 राज्यों पर बीजेपी का कब्जा करवाया। 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद भारत मुक्ति मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष वामन मेश्राम ने ईवीएम के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की और ईवीएम घोटाले के हजारों सबूत सुप्रीम कोर्ट में पेश किए। यही नहीं वामन मेश्राम ने चुनाव आयोग पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवमानना करने का भी आरोप लगाया और सुप्रीम कोर्ट में चुनाव आयोग को कटघरे में खड़ा कर दिया। यह भारत के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है कि किसी ने चुनाव आयोग को चुनौती देते हुए कटघरे में खड़ा किया है। 24 अप्रैल 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को कड़ी फटकार लगाते हुए वामन मेश्राम (राष्ट्रीय अध्यक्ष, भारत मुक्ति मोर्चा) के पक्ष में फैसला देते हुए फिर से पेपर ट्रेल लगाने का आदेश जारी किया। इस जीत के बाद वामन मेश्राम ने देश भर में ईवीएम के खिलाफ मोर्चा निकाला और ईवीएम के जगह बैलेट पेपर की मांग करते हुए ‘‘ईवीएम हटाओ, बैलेट पेपर लाओ, लोकतंत्र बचाओ’’ का अभियान देशभर में चलाया। इस अभियान के तहत वामन मेश्राम ने 5 करोड़ लोगों का ईवीएम के खिलाफ हस्ताक्षर अभियान चलाया और घोषणा किया कि सुप्रीम कोर्ट भले ही हमारे पक्ष में फैसला देते हुए चुनाव आयोग को ईवीएम में पेपर ट्रेल (वीवी पैट) लगाने का आदेश दिया है, लेकिन पेपर ट्रेल पर भी हमारा यकीन नहीं है। इसलिए हम ईवीएम को खत्म करके उसके स्थान पर बैलेट पेपर से चुनाव की मांग करते हैं। यदि सरकार बैलेट पेपर के लिए राजी नहीं होती है तो हम आगामी लोकसभा चुनाव 2019 में ईवीएम तोड़ो का अभियान चलायेंगे।

कर्नाटक में ईवीएम का चमत्कार, बहुमत ना होने के बाद भी कर्नाटक में बीजेपी सरकार

कर्नाटक में ईवीएम का चमत्कार
बहुमत ना होने के बाद भी कर्नाटक में बीजेपी सरकार
♦ लोकतंत्र की हत्या कर कर्नाटक सहित 21 राज्यों पर बीजेपी का कब्जा
♦ सुप्रीम कोर्ट का शपथ ग्रहण रोकने से इनकार
♦ येदियुरप्पा ने एक हफ्ता मांगा, गवर्नर ने दे दिए 15 दिन
बैंगलूरू/दै.मू.एजेंसी
यह ईवीएम का चमत्कार ही है कि कर्नाटक में जो दो सीट भी नहीं जीत सकती थी वह आज 104 सीटें जीतने मे कामयाब हो चुकी है। यही नहीं बहुमत ना होने के बावजूद भी कर्नाटक के राज्यपाल वजुभाई वाल ने न केवल बीजेपी की सरकार बनाने का न्यौता दिया, बल्कि सुप्रीम कोर्ट ने भी राज्यपाल की हां में हां मिलाने का काम किया है। यह इस बात का सबूत है कि ईवीएम के साथ-साथ बीजेपी द्वारा राज्यपाल और सुप्रीम कोर्ट भी हैक कर लिया गया है।
कांग्रेस, राज्यपाल के फैसले के खिलाफ और येदियुरप्पा के शपथ ग्रहण पर रोक लगाने के लिए बुधवार देर रात की सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई है। बुधवार को कर्नाटक के राज्यपाल वजुभाई वाला ने बीएस येदियुरप्पा के नेतृत्व में बीजेपी को सरकार बनाने का न्योता दे दिया, जिसके बाद येदियुरप्पा के नए सीएम बनने का रास्ता भी साफ हो गया। गुरुवार को सुबह 9 बजे येदियुरप्पा मुख्यमंत्री पद और गोपनियता की शपथ भी ले लिया। विधानसभा में बहुमत साबित करने के लिए उन्होंने 7 दिन का वक्त मांगा था, लेकिन हैरान करने वाली बात है कि राज्यपाल ने येदियुरप्पा को ‘फ्लोर टेस्ट’ यानी बहुमत साबित करने के लिए 15 दिन का वक्त दिया है। वहीं, कांग्रेस राज्यपाल के फैसले के खिलाफ और येदियुरप्पा के शपथ ग्रहण पर रोक लगाने के लिए बुधवार देर रात की सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई। कांग्रेस ने राज्यपाल के फैसले को असंवैधानिक बताते हुए येदियुरप्पा के शपथ ग्रहण पर रोक लगाने की मांग की, लेकिन सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने शपथ ग्रहण पर रोक लगाने से साफ इनकार कर दिया। बेंच ने कहा कि हम राज्यपाल का फैसला नहीं पलट सकते हैं। इसका मतलब साफ है कि सुप्रीम कोर्ट, राज्यपाल ने मिलकर कर्नाटक में लोकतंत्र की हत्या कर दी है, जो पूर्वनियोजित रणनीति का हिस्सा है।
इसमें चौंकाने वाली बात तो यह है कि कांग्रेस-जीडीएस के पास 117 विधायक हैं, जबकि बीजेपी के पास केवल 104 विधायक, ऐसे में बीजेपी कैसे बहुमत साबित करेगी? दूसरी बात, येदियुरप्पा ने बहुमत के लिए 7 दिन मांगे थे और राज्यपाल ने 15 दिन दे दिए, क्यों? ऐसा पहली बार देखा कि किसी दल को बहुमत साबित करने के लिए 15 दिन का समय दिया गया है। गोवा में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी थी, लेकिन कांग्रेस को क्यों नहीं बड़ी पार्टी के रूप में सरकार बनाने का मौका दिया गया, क्यों चुनाव बाद हुए गठबंधन के बाद बीजेपी को सरकार बनाने का मौका मिला? जबकि जेडीएस ने बहुमत के सबूत के साथ सरकार बनाने का दावा भी कर दिया था, फिर राज्यपाल ने इंतजार क्यों नहीं किया? येदियुरप्पा को सरकार बनाने का न्योता देने का फैसला इतनी जल्दी कैसे ले लिया? अगर यह कोर्ट संविधान की धारा 356 के तहत राष्ट्रपति शासन को रोक सकता है, तो राज्यपाल के आदेश को क्यों नहीं रोक सकता? इसके जवाब में बीजेपी का कहना है कि राज्यपाल के पास सबसे बड़े दल को बुलाने का अधिकार है, अगर सबसे बड़ी पार्टी बहुमत साबित नहीं बना सकी तो दूसरी पार्टी को मौका मिलेगा। यह भी मानना है कि राज्यपाल को पार्टी नहीं बनाया जा सकता है। इस देश में राष्ट्रपति और राज्यपाल के आदेश देने के अधिकार को चुनौती नहीं दी जा सकती है। बीजेपी की तरफ याचिका खारिज करने की मांग करते हुए कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट का अंतिम निर्णय ही सर्वमान होगा। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने याचिका को खारीज करते हुए कहा कि मुख्यमंत्री के शपथ को नहीं रोका जा सकता है, तय समय पर ही शपथ समारोह सम्पन्न कराया जाय। 

बता दें कि कर्नाटक में 222 सीटों पर शनिवार को वोटिंग हुई थी। सरकार बनाने के लिए बहुमत का आंकड़ा 112 है जबकि बीजेपी के पास सिर्फ 104 विधायक और कांग्रेस के 78 और जेडीएस के 37 विधायक हैं। जेडीएस और कांग्रेस ने गठजोड़ करके सरकार बनाने का दावा किया था, लेकिन गठबंधन के साथ बहुमत होने के बाद भी सŸा पर बीजेपी का कब्जा हो गया। कर्नाटक चुनाव में किसी भी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला। इसके बाद भी बीजेपी ने राज्यपाल को हैक करके कर्नाटक में जो 2 सीट भी नहीं जीत सकती थी वह ईवीएम के बदौलत 104 सीटें न केवल हाशिल कर  चुकी है। बल्कि बहुमत न होने के बाद भी कर्नाटक पर बीजेपी का जबरन कब्जा हो गया। हालांकि यह पहला ऐसा मामला नहीं है, बल्कि बीजेपी ने गोवा और बिहार में भी यही रवैया अपना चुकी है। बिहार और गोवा में भी बीजेपी को बहुमत ना होने के बावजूद भी बीजेपी सŸा में है। राज्यपाल वजुभाई वाला ने बीजेपी को बहुमत ना होने बाद सरकार बनाने का न्योता देकर साबित कर दिया है कि राज्यपाल हैक हो चुका है। राज्यपाल के इस फैसले के बाद राजनीतिक गलियारों में उथल-पुथल मच गई, क्योंकि पहले से ही कांग्रेस-जेडीएस मिलकर सरकार बनाने का दावा पेश कर चुकी थी। क्योंकि सरकार बनाने के लिए 123 सीटें चाहिए, जिसमें से बीजेपी को 104 और कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन से 115 सीटें मिली है। पूर्ण बहुमत ना होने के बाद जैसे ही राज्यपाल ने बीजेपी को सरकार बनाने के लिए न्योता दिया ही मामला बेहद गंभीर रूप ले लिया, इसलिए बात सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई। सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई रात के 1ः45 बजे शुरू हुई। सुप्रीम कोर्ट ने भी वहीं किया जो पहले से निर्धारित हो चुका था। आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने भी शपथ ग्रहण पर रोक लगने से इंकार कर दिया और तय कार्यक्रम के मुताबिक ही गुरुवार को सुबह 9 बजे येदियुरप्पा ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। तथाकथित स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह दूसरा मौका है जब सुप्रीम कोर्ट रात को खुला है। इसके पहले साल 2015 में मुंबई ब्लास्ट केस 1993 के झूठे आरोपी याकूब मेमन को आतंकवादी के नाम पर फांसी देने के लिए सुप्रीम कोर्ट को रात 3 बजे खोला गया था और अब कर्नाटक में बीजेपी की सरकार बनाने के लिए रात को 1ः45 बजे तक सुप्रीम कोर्ट खोला गया। वैसे राजनीतिक मामले को लेकर यह पहली बार हुआ है जब सुप्रीम कोर्ट ने आधी रात में कार्रवाई की है।

बेरोजगारों की खान, मेरा भारत महान!

बेरोजगारी की गंभीर चुनौती

 कुछ दिन पहले बिहार के मुंगेर जिले से एक चौंकाने वाली खबर आयी कि रेलवे में नौकरी के लिए बेटे ने अपने पिता की हत्या की सुपारी दे दी थी। लेकिन यह खबर काफी सुर्खियों में नहीं आ सकी, इसलिए बहुत लोगों का ध्यान इस ओर नहीं गया। रेलवे कर्मचारी को गोली मारकर हत्या के प्रयास में एक दिन बाद पुलिस ने आरोपी बेटे को गिरफ्तार कर लिया। पुलिस के अनुसार बेटे ने ही अपने पिता की हत्या की योजना बनायी थी, बेटा पिता की जगह रेलवे में नौकरी पाना चाहता था। वह कई वर्षों से प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहा था, लेकिन कामयाबी नहीं मिल पा रही थी। उसके पिता 30 अप्रैल को रिटायर हो रहे थे, इसलिए उसने पिता की हत्या की योजना बनायी, ताकि अनुकंपा के आधार पर उसे रेलवे में नौकरी मिल सके। इसके लिए उसने एक गुर्गे को दो लाख की सुपारी दिया था। मालूम ही होगा कि हाल में रेलवे ने बहुत दिनों बाद 90 हजार पदों पर नियुक्ति के लिए विज्ञापन निकला है, लेकिन 90 हजार नौकरियों के लिए लगभग 3 करोड़ 80 लाख लोगों ने आवेदन किया है।

यह घटना दो बातों की ओर इशारा करती है, एक तो यह कि बेरोजगारी की स्थिति इतनी भयावह हो नहीं चुकी है, बल्कि इसे भयावह बना दी गयी है कि नौकरी के लिए युवा कुछ भी कर गुजरने को तैयार हैं। यहां तक की वे अपनी मां, बहन, बाप या भाई का खून तक करने पर आमदा हो चुके हैं। चौंकाने वाली बात यह भी है कि बेरोजगार युवाओं को ऐसे जघन्य अपराध करने के लिए कोई और नहीं, बल्कि खुद सरकार जिम्मेदार है। क्योंकि यदि सरकार युवाओं को रोजगार देने में सक्षम होती तो युवा नौकरी के लिए अपनों का खून करने का खयाल उनके जेहन में भी नहीं आता। दूसरा पहलू यह है कि वे संघर्ष कर अवसर का लाभ लेने में सक्षम नहीं हैं तथा बच्चों की परवरिश में हम और आप असफल साबित हो रहे हैं। कैसे कोई नवयुवक पिता की हत्या करने के बारे में सोच भी सकता है! यह घटना बेहद चिंताजनक हैं और युवाओं की मनोस्थिति को भी उजागर करती हैं। यह इस बात को भी विचार करने को मजबूर करती है कि अभिभावक नवयुवकों की पढ़ाई पर तो इतना ध्यान देते हैं, लेकिन उनकी क्या मनोदशा है, उसको लेकर कोई चिंता नहीं करता है। नवयुवकों में क्या परिवर्तन हो रहा है, हम उसके आंकलन में नाकामयाब साबित हो रहे हैं।

जहां तक बेरोजगारी की बात है तो अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का भी कहना है कि भारत में बेरोजगारी एक बड़ी चुनौती है। दूसरी ओर लेबर ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार भारत दुनिया का सबसे अधिक बेरोजगारों वाला देश बन गया है। भारत बेरोजगारी के मामले में तेजी से तो बढ़ ही रहा है, लेकिन आर्थिक असमानता भी देश को सत्यानाश की खाई में धकेलता जा रहा है। जहां एक तरफ बढ़ती बेरोजगारी और दूसरी तरफ आर्थिक असमानता दो सबसे बड़ी चुनौतियां हैं। बेरोजगारी का आलम यह है कि पिछले दिनों महाराष्ट्र में सिपाही की भर्ती के लिए एलएलबी, इंजीनियरिंग, एमएड और बीएड डिग्री धारकों ने भी बड़ी संख्या में आवेदन कर सबको हैरान कर दिया था। कुल 4833 पदों के लिए साढ़े सात लाख से अधिक आवेदन आये थे। समाचारपत्रों के मुताबिक आवेदन करने वालों में 38 एलएलबी, 1061 इंजीनियरिंग ग्रेजुएट, 87 एमएड, 158 बीएड, 13698 मास्टर डिग्री धारी और डेढ़ लाख से ज्यादा ग्रेजुएट थे, जबकि इस पद के लिए न्यूनतम योग्यता 12 वीं पास थी। बेरोजगारी की गंभीर होती स्थिति का इससे अंदाज लगाया जा सकता है कि देश में हर साल तकरीबन एक करोड़ नये बेरोजगारों की बेतहासा बढ़ोŸारी हो रही है। चिंता की बात यह है कि हमारी शिक्षा प्रणाली रोजगारोन्मुखी नहीं है। यही नहीं पिछले साल माली (चतुर्थ श्रेणी) के लिए आवेदन जारी किया गया था, जिसमें लाखो ग्रेजुएट आवेदन किए थे। इससे भी हैरान की बात तो यह है कि यह आंकड़ा खुद एचआडी ने लखनऊ में जारी किया था।

 केंद्र सरकार कौशल विकास योजना के अंतर्गत रोजगार का अवसर बढ़ाने की ढोल पीट रही है, लेकिन बेरोजगारों की बढ़ती भारी संख्या देश और सरकार के सामने एक बड़ी चुनौती साबित हो रहा है। ज्यादा वक्त नहीं गुजरा है, जब इंजीनियरिंग की डिग्री को सम्मान से देखा जाता था, इंजीनियरिंग कॉलेजों में दाखिले के लिए होड़ मची रहती थी। अच्छे कॉलेजों में अब भी प्रतिस्पर्धा है, लेकिन मनुवादी सरकारें शिक्षा की नयी नीति लागू कर शिक्षा को ही चौपट बना दिया है। जिसके कारण ग्रिडी लेने के बाद भी युवाओं को यह कहते हुए नौकरी नहीं मिल रही है शिक्षित युवाओं में नौकरी के एक भी गुण नहीं हैं। इसके अलावा नौकरियों की कमी के कारण बड़ी संख्या में इंजीनियरिंग कॉलेज बंद भी हो रहे हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक हर साल 15 लाख से ज्यादा छात्र इंजीनियरिंग कॉलेजों में दाखिला लेते हैं, लेकिन उनमें से नौकरी सिर्फ साढ़े तीन लाख को ही मिल पाती है बाकी लगभग 75 फीसदी इंजीनियर बेरोजगार रहते हैं, उन्हें उपयुक्त काम नहीं मिल पाता। यह सरकारी आंकड़ा कह रहा है, परन्तु इन आंकड़ों पर विश्वास नहीं है कि 15 लाख में ये 3.5 लाख को नौकरी मिल रही है। क्योंकि सरकार के पास सरकारी नौकरी ही नहीं बची है। आज लगातार चार साल से मोदी सरकार सरकारी नौकरियों को खत्म करते आ रही है। अभी कुछ दिन पहले ही मोदी ने युवाओं को नौकरी देने के बजाए पकौड़े बेचने का मंत्र दिया था। यही नहीं यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने तो यहां तक कह दिया था कि शिक्षित युवा पढ-लिखकर सरकारी नौकरी के पीछे न भागे, सरकार उनको नौकरी नहीं दे सकती है। क्या इसके बाद भी सरकार से उम्मीद लगाया जा सकता है कि 15 लाख नौकरियों में से 3.5 लाख नौकरी दे रही हैं? कŸाई नहीं, यह सरकार का आंकड़ा विश्वास करने लायक नहीं है। 

बता दें कि शिक्षा को लेकर सर्वे करने वाली संस्था ‘प्रथम एजुकेशन फांडेशन’ ने कुछ समय पहले अपनी वार्षिक रिपोर्ट ‘असर’ यानी एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट जारी की थी। यह रिपोर्ट बेहद डरावनी और चौंकाने वाली है। इस रिपोर्ट के अनुसार प्राथमिक स्कूलों की हालत तो पहले से ही खराब थी और अब जूनियर स्तर का भी हाल कुछ ऐसा होता नजर आ रहा है। ‘असर’ की टीमों ने देश के 24 राज्यों के 28 जिलों में सर्वे किया। इसमें 1641 से ज्यादा गांवों के 30 हजार से ज्यादा युवाओं ने हिस्सा लिया। ‘असर’ ने इस बार 14 से 18 वर्ष के बच्चों पर ध्यान केंद्रित किया। सर्वे में पाया गया कि पढ़ाई की कमजोरी अब बड़े बच्चों में भी देखी जा रही है। सर्वे के अनुसार 76 फीसदी बच्चे पैसे तक नहीं गिन पाते हैं, जबकि 57 फीसदी को साधारण गुणा भाग भी नहीं आता है। भाषा के मोर्चे पर तो स्थिति और ज्यादा बेहद चिंताजनक है। अंग्रेजी तो छोड़िए, 25 फीसदी अपनी भाषा धाराप्रवाह बिना अटके नहीं पढ़ पा रहे हैं वहीं सामान्य ज्ञान और भूगोल के बारे में बच्चों की जानकारी बेहद कमजोर पायी गयी है। 58 फीसदी छात्र अपने राज्य का नक्शा नहीं पहचान पाये और 14 फीसदी को देश के नक्शे के बारे में जानकारी ही नहीं थी। 
सर्वे में करीब 28 फीसदी युवा देश की राजधानी का नाम नहीं बता पाये। दिलचस्प बात तो यह है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश को डिजिटल बनाने का ढिंढोरा पीट रहे है, लेकिन 59 फीसदी युवाओं को कंप्यूटर का ज्ञान नहीं है। इंटरनेट के इस्तेमाल की भी कुछ ऐसी ही स्थिति है। लगभग 64 फीसदी युवाओं ने कभी इंटरनेट का इस्तेमाल ही नहीं किया है। अभी दो दिन पहले ही यूनेस्को ने सर्वे में दावा किया था जानबूझकर इंटरनेट बंद करने के मामले में भारत पूरी दुनिया में पहले स्थान पर है। प्राथमिक की तरह ही माध्यमिक स्तर के विद्यार्थी भी बुनियादी बातें नहीं सीख रहे हैं, तो यह बात गंभीर होती स्थिति की ओर इशारा करती है। दरअसल, 14 से 18 आयु वर्ग के बच्चे कामगारों की श्रेणी में आने की तैयारी कर रहे होते हैं, यानी इसका सीधा असर अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। यदि इन युवाओं को समय रहते तैयार नहीं किया गया, तो जान लीजिए इसका असर भविष्य में देश के विकास पर बेहद गंभीर पड़ेगा। देश में मौजूदा समय में 14 से 18 साल के बीच के युवाओं की संख्या 10 करोड़ से ज्यादा है, सरकार को बिना वक्त गंवाए इन सभी पहलुओं पर गौर करना होगा अन्यथा स्थिति विकट हो सकती है। मगर सरकार ऐसा नहीं कर सकती है। कारण यह है कि देश की सŸा पर शासक जातियों का अनियंत्रित कब्जा है। 

सŸा पर अनियंत्रित कब्जा होने के कारण लोकतंत्र के चारों स्तम्भों में विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया पर कब्जा कर लिया है। इस प्रकार लोकतंत्र के जो चार स्तम्भ हैं, इन सारे स्तम्भों पर ब्राह्मणों का कब्जा हैं। उसके अलावा मिलिट्री पर ब्राह्मणों का नियंत्रण है। राज्यों के राज्यपाल जो संविधान के अनुच्छेद 356 के तहत राज्यों पर नियंत्रण करते हैं, राज्यपालों पर भी उन्हीं का नियंत्रण है। विश्वविद्यालय, शिक्षा प्रणाली पर नियंत्रण करने वाले उपकुलपति भी ब्राह्मण है। विश्वविद्यालयों पर उनका नियंत्रण है। सिलेबस पर भी ब्राह्मणों का नियंत्रण है अर्थात पढ़ने का अधिकार आपका जरूर होगा, परन्तु आपको क्या पढ़ना है यह तय करने का अधिकार सिलेबस के जरिये ब्राह्मणों का होगा। सारी किताबें लिखने का अधिकार ब्राह्मणों ने अपने नियंत्रण में रखा हुआ है। वो अपने हिसाब से किताबें लिखते हैं। उसके बाद उच्च शिक्षा, व्यवसायिक शिक्षा, सूचना तकनीकि, जैव तकनीकि, रिसर्च शिक्षा तथा विदेश शिक्षा भी ब्राह्मणों के ही नियंत्रण में है। यहीं कारण है कि शासक जातियों के बच्चे फॉरेन ऐजुकेशन ले रहे हैं और मूलनिवासी बच्चों के लिए सरकारी स्कूल खोल रहे हैं। इन स्कूलों में पढ़ाई के स्थान पर भीख मांगने की ट्रेनिंग दे रहे हैं और उच्च शिक्षा में तर्क और विज्ञान आधारित शिक्षा के स्थान पर पाखंडवाद, अंधविस्वासी और वेद, पुराण सहित ब्राह्मणों के सभी धर्म ग्रंथ पढ़ाकर देश के भाविष्य कहे जाने वाले युवाओं को भविष्य चौपट बना रहे हैं।

शनिवार, 5 मई 2018

दिल्ली यूनिवर्सिटी में ओबीसी की ‘नो इंट्री’ , एक बार फिर ओबीसी को शिक्षा से वंचित करने की साजिश

दिल्ली यूनिवर्सिटी में ओबीसी की ‘नो इंट्री’
एक बार फिर ओबीसी को शिक्षा से वंचित करने की साजिश
♦ उच्च शिक्षा के क्षेत्र में ओबीसी को आरक्षण तो दे दिया गया, लेकिन इसके साथ ही इसे सीमित करने के षडयंत्र भी रचे गये हैं। एक उदाहरण दिल्ली विश्वविद्यालय का है जहां ऐसे नियम बनाये गये हैं जिनके कारण ओबीसी वर्ग के छात्र-छात्राओं का नामांकन होना अब नामुमकिन बन गया है। 
नई दिल्ली/दै.मू.एजेंसी


भारत के महत्वपूर्ण विश्वविद्यालयों में से एक दिल्ली विश्वविद्यालय में ओबीसी के छात्र व छात्राओं का नामांकन न हो सके, इसके लिए प्रक्रियाओं को जटिल बनाया जा रहा है। साथ ही कट ऑफ मार्क्स का खेल भी खेला जा रहा है। यह सब एक सुनियोजित साजिश के जैसा है और इसका शिकार ओबीसी वर्ग के युवा हो रहे हैं। सबसे पहले बात करते हैं कि दिल्ली विश्वविद्यालय की कि किस तरह से ओबीसी युवाओं को रोकने के लिए प्रक्रियाओं को जटिल बना रहा है। मसलन तमाम तरह के प्रमाण पत्र और उनके जमा किए जाने की अवधि, अलग-अलग स्तर के अधिकारियों से अनुशंसित करने की अनिवार्यता लागू किया जाना विश्वविद्यालय की मंशा पर सवाल खड़े करता है। 

गौरतलब है कि ओबीसी युवाओं को वर्तमान वित्तीय वर्ष में जारी अपनी पूरी फैमिली का आय प्रमाण पत्र आवेदन पत्र के साथ जमा करने को कहा जा रहा है। वहीं क्रीमीलेयर के प्रमाण पत्र को लेकर कहा जा रहा है कि इसे तहसीलदार अथवा उससे उच्चस्थ प्रशासनिक पदाधिकारी से अनुशंसित करवाकर जमा करें तभी उनका आवेदन मान्य होगा। जबकि यह सभी जानते हैं कि क्रीमीलेयर का प्रमाण पत्र आय पर आधारित होता है और इस पर संबंधित जिलाधिकारी तक का हस्ताक्षर होता है। ऐसे में अलग से अनुशंसित करवाने का उद्देश्य ओबीसी के युवाओं को नामांकन से वंचित करने के सिवा और क्या हो सकता है।
यही नहीं दूसरा मामला कट ऑफ मार्क्स का है। वर्ष 2006 में उच्च शिक्षा में आरक्षण लागू करने की बात शुरू हुई थी। सुप्रीम कोर्ट ने तत्काल प्रभाव से 27 प्रतिशत आरक्षण लागू करने का आदेश दिया। तब विश्वविद्यालयों ने यह कहकर हाथ खड़े कर दिए थी कि अचानक से 27 फीसदी आरक्षण लागू करने के लिए सीटों की संख्या बढ़ानी पड़ेगी। परिणामस्वरूप विश्वविद्यालयों में पहले तीन साल तक 9 फीसदी आरक्षण लागू किया गया। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार उच्च शिक्षा में ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण मिलना चाहिए। विश्वविद्यालयों ने अलग-अलग तरीके से इसे लागू किया। मसलन किसी विश्वविद्यालय ने कुल सीटों में से 27 फीसदी ओबीसी के लिए रिजर्व कर दिया। इसमें मेरिट वाले ओबीसी युवाओं के नामांकन को भी ओबीसी के खाते में डाला गया। जब इसका विरोध हुआ तब सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्देश दिया कि सामान्य श्रेणी के लिए जारी होने वाले कट ऑफ मार्क्स और ओबीसी के लिए कट ऑफ मार्क्स के निर्धारण में 10 फीसदी का अंतर होना चाहिए। यदि किसी विश्वविद्यालय ने सामान्य श्रेणी के लिए कट ऑफ मार्क्स 90 प्रतिशत निर्धारित किया है तो ओबीसी के लिए यह 81 प्रतिशत होना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं किया जा रहा है। 
कई छात्रों से व्यक्तिगत स्तर पर बात करने पर ऐसे कई मामले सामने आए है जहाँ ओबीसी छात्रों के लिए जारी कट ऑफ से ज्यादा नंबर आने के बाद भी उनका दाखिला (जो की नियम के हिसाब से समान्य वर्ग की सीट पर होना चाहिये) ओबीसी के लिए आरक्षित सीट पर कर दिया जाता है। इससे ओबीसी कोटे की एक सीट भी जाती है साथ ही अच्छे नंबर लाने के बावजूद ऐसे ओबीसी छात्रों पर उनकी प्रतिभा को दरकिनार कर ‘कोटे से आए छात्र’ का टैग लगा दिया जाता है। बात साफ है सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद विश्वविद्यालयों मे आरक्षण नियमों का पालन ठीक तरीके से नहीं किया जा रहा है। मामला केवल इतना ही नहीं है। यदि ओबीसी वर्ग के छात्र का अंक यदि ओबीसी के निर्धारित कट ऑफ मार्क्स से अधिक है तब कायदे से उसे आरक्षित सीट में नहीं गिना जाना चाहिए, लेकिन विश्वविद्यालय उसे ओबीसी में शामिल कर लेता है। 
यह तो स्पष्ट है कि जिस तरीके से विश्वविद्यालय प्रबंधन ने शर्त निर्धारित किया है, वह नियमों के अनुपालन से अधिक उनके द्वारा ओबीसी के लिए अघोषित प्रवेश निषेध के माफिक है। सवाल आरक्षण को लेकर है। जहां उच्च वर्ग के पैरोकार यह कहते हैं कि अवसर प्रतिभा को मिलना चाहिये न कि किसी जाति के आधार पर और फिर जाति आधारित रिजर्वेशन से जातीयता की भावना और भी अधिक बढ़ेगी’। जबकि उच्च शिक्षा के संदर्भ मे रिजर्वेशन कम या खत्म करने की बहस के पहले यह समझना जरूरी है कि भले ही प्रत्यक्ष रूप से ऐसा लगता है कि ये जाति विशेष वर्ग को दिया जाता है, पर इसका आधार सामाजिक-सांस्कृतिक व शैक्षिक रूप से पिछड़ापन है न कि आरक्षण का उद्देश्य देश से गरीबी हटाना और नौकरी देना है। चूंकि जो लोग गरीब और बेरोजगार हैं उन्हे आरक्षण नहीं सरकार से रोजगार और आर्थिक मदद मांगनी चाहिए न कि आरक्षित समुदाय पर अपना हक मारने का इल्जाम लगाना चाहिए। देश मे बढ़ती बेरोजगारी है और शिक्षा संस्थानों और नौकरियों का लगातार तेजी से निजीकरण किया जा रहा है जहां ना तो शिक्षा में आरक्षण लागू होता है और न ही नौकरियों में।
यदि विश्वविद्यालय प्रशासन ओबीसी, एससी, एसटी छात्रों के हितों को लेकर वास्तव मे गंभीर है तो उसे अपने नियमों के अनुसार पूरी तरह से आरक्षण लागू करना होगा।  इसके अलावा छात्र, अध्यापक और प्रगतिशील बुद्धिजीवियों की ये जिम्मेदारी है कि जहाँ कहीं भी आरक्षण नियमों का उल्लंघन होता है, उसका मुखर विरोध करें और आरक्षण को उचित तरीके से लागू करवाएँ। ऐसे माहौल मे आरक्षण व्यवस्था को बदलने या कम करने की भेदभावपूर्ण और समतावादी मूल्य विरोधी बहस में उलझने के बजाय जरूरत है कि आरक्षण व्यवस्था को सही और पूरी तरह से लागू किए जाने और उसमें होने वाली लापरवाही, मनमानेपन के खिलाफ सख्त कदम उठाए जाने की मांग करें। उच्च शिक्षा में ओबीसी, एससी, एसटी और अल्पसंख्यक को शामिल किए बिना समतामूलक लोकतान्त्रिक समाज का सपना सिर्फ सपना ही रह जाएगा।