शुक्रवार, 24 मार्च 2017

विधि आयोग और समान नागरिक संहिता

विधि आयोग और समान नागरिक संहिता
समान नागरिक संहिता के विवादास्पद मुद्दे पर विचार विमर्श के दायरे का विस्तार करते हुए विधि आयोग ने सभी राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय राजनीतिक दलों से अपनी राय साझा करने का आह्वान किया है और उसने इस विषय पर संवाद के लिए उनके प्रतिनिधियों को निमंत्रित करने की योजना बनायी है। आयोग ने इस विषय पर राजनीतिक दलों को प्रश्नावली भेजी है और उनसे 21नवंबर 2016 तक अपनी राय भेजने को कहा। 07अक्तूबर2016 को भेजी गयी विधि आयोग की इस प्रश्नावली में लोगों से, क्या तीन बार तलाक कहने की प्रथा खत्म की जानी चाहिए, क्या समान नागरिक संहिता ऐच्छिक होनी चाहिए, जैसे संवदेनशील मुद्दे पर शायद पहली बार उनकी राय मांगी गयी है। चुनाव आयोग में सात दल राष्ट्रीय स्तर पर और 49 दल क्षेत्रीय स्तर पर पंजीकृत है। राष्ट्रीय राजनीतिक दलों में भाजपा, कांग्रेस, बसपा, राकांपा, भाकपा, माकपा और तृणमूल कांग्रेस हैं। 21वें विधि आयोग के अध्यक्ष (सेवानिवृत न्यायमूर्ति, सुप्रीम कोर्ट) डॉ. बलबीर सिंह चौहान ने सभी राजनीतिक दलों को लिखे पत्र में कहा है कि ‘‘आयोग कई दौर की चर्चा के बाद यह समझने के लिए एक प्रश्नावली तैयार की है कि आम लोग समान नागरिक संहिता के बारे में क्या महसूस करते हैं, चूंकि राजनीतिक दल किसी भी सफल लोकतंत्र के मेरुदंड हैं, अतएव, इस प्रश्नावली के संदर्भ में सिर्फ उनकी राय ही नहीं बल्कि इससे संबंधित उनके विचार भी बहुत महत्वपूर्ण है।" आयोग ने कहा है कि वह इस विवादास्पद विषय पर संवाद के लिए बाद में राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों को भी आमंत्रित करेगा। आपका सहयोग आयोग को समान नागरिक संहिता पर त्रुटिहीन रिपोर्ट लाने में सहयोग पहुंचाएगा। कुछ दिन पहले चौहान ने मुख्यमंत्रियों से अल्पसंख्यक संगठनों, राजनीतिक दलों एवं सरकारी विभागों को उसकी प्रश्नावली पर जवाब देने के वास्ते उत्साहित करने के लिए अपने प्रभाव का इस्तेमाल करने की अपील की थी। सभी मुख्यमंत्रियों को भेजे पत्र में उनसे अपने राज्यों में संबंधित पक्षों जैसे अल्पसंख्यक संगठनों, राजनीतिक दलों, गैर सरकारी संगठनों, सिविल सोसायटियों और यहां तक कि सरकारी संगठनों एवं एजेंसियों को आयोग के साथ अपना विचार साझा करने एवं संवाद करने के लिए प्रोत्साहित करने का आग्रह किया था। परामर्श पत्र के साथ जारी अपील में आयोग ने कहा था कि इस प्रयास का उद्देश्य संभावित समूहों के विरुद्ध भेदभाव का समाधान करना और विभिन्न सांस्कृतिक प्रथाओं में संगति बनाना है। उसने लोगों को आश्वासन दिया है कि किसी भी वर्ग, समूह या समुदाय की परपंराएं परिवार विधि सुधार के अंदाज पर वर्चस्वशील नहीं होंगी। समान नागरिक आचार संहिता पर विधि आयोग की प्रश्नावली है कि क्या तीन तलाक का चलन खत्म कर देना चाहिए ? क्या समान नागरिक संहिता वैकल्पिक होनी चाहिए ? समान नागरिक संहिता पर बहस के बीच विधि आयोग ने परिवार कानूनों के पुनरीक्षण और उनमें सुधार के विषयों पर लोगों की राय मांगते हुए कहा कि उसके इस कदम का उद्देश्य कानूनों की बहुलता कायम करने की बजाय सामाजिक अन्याय को खत्म करना है। इन सवालों में मुस्लिम, हिंदू और ईसाई धर्म से संबंधित पर्सनल लॉ में बदलाव के लिए राय मांगी गई। विधि आयोग के कुल 16सवाल निम्नलिखित हैं :-
1. क्या आप जानते हैं कि अनुच्छेद-44 में प्रावधान है कि सरकार समान नागरिक आचार संहिता (यूनिफॉर्म सिविल कोड) लागू करने का प्रयास करेगी ?
2. क्या समान नागरिक आचार संहिता में तमाम धर्मों के पर्सनल लॉ, परंपरागत रीति-रिवाज या उसके कुछ भाग शामिल हो सकते हैं, जैसे-शादी, तलाक, गोद लेने की प्रक्रिया, भरण-पोषण, उत्तराधिकार और विरासत से संबंधित प्रावधान ?
3. क्या समान नागरिक आचार संहिता में पर्सनल लॉ और प्रथाओं को शामिल करने से लाभ होगा ?
4. क्या समान नागरिक आचार संहिता से लैंगिग समानता सुनिश्चित होगी ?
5. क्या समान नागरिक आचार संहिता को वैकल्पिक किया जा सकता है ?
6. क्या बहुविवाह प्रथा, बहुपति प्रथा, मैत्री करार आदि को खत्म किया जाए या फिर नियंत्रित किया जाए ?
7. क्या तीन तलाक की प्रथा को खत्म किया जाए या रहने दिया जाए या फिर संशोधन के साथ रहने दिया जाए ?
8. क्या यह तय करने का उपाय हो कि हिंदू स्त्री अपने संपत्ति के अधिकार का प्रयोग बेहतर तरीके से करे, जैसा पुरुष करते हैं ? क्या इस अधिकार के लिए हिंदू महिला को जागरूक किया जाए और तय हो कि उसके सगे-संबंधी इस बात के लिए दबाव न डालें कि वह संपत्ति का अधिकार त्याग दे ?
9. ईसाई धर्म में तलाक के लिए दो वर्ष का वेटिंग पीरियड संबंधित महिला के अधिकार का उल्लंघन तो नहीं है ?
10. क्या तमाम पर्सनल लॉ में आयुन का पैमाना एक हो ?
11. क्या तलाक के लिए तमाम धर्मों के लिए एक समान आधार तय होना चाहिए ?
12. क्या समान नागरिक आचार संहिता के तहत तलाक का प्रावधान होने से भरण-पोषण की समस्या हल होगी ?
13. विवाह पंजीकरण को बेहतर तरीके से कैसे लागू किया जा सकता है ?
14. अंतरजातीय विवाह या फिर अंतर-धर्म विवाह करने वाले युगल की रक्षा के लिए क्या उपाय हो सकते हैं ?
15. क्या समान नागरिक आचार संहिता धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन करती है ?
16. समान नागरिक आचार संहिता या फिर पर्सनल लॉ के लिए समाज को संवेदनशील बनाने के लिए क्या उपाय हो सकते हैं ?
इन सभी प्रश्नों पर लोगों को केवल हां या ना में जवाब देना है और फिर कारण और टिप्पणी करने के लिए कहा गया।

युग विप्र और द्विज

युग, विप्र और द्विज (कल्पित/फारवर्ड)
(1) सतयुग :- जिस युग में केवल ब्राह्मण ही पढ़-लिख सकता था, इसलिए वह जो बोलता था, वही सत्य समझा जाता था इसलिये उसे सतयुग कहते थे।
(2) द्वापर :- जिस युग में ब्राह्मण के साथ-साथ क्षत्रिय भी पढ़ने लगे अर्थात दो वर्ण पढ़ने लगे इसलिये उसे द्वापर युग कहते थे।
(3) त्रेतायुग :- जिस युग में बाह्मण, क्षत्रिय और वैश्य अर्थात तीनों वर्ण पढ़ने लगे, इसलिये उसे त्रेतायुग कहते थे।
(4) कलयुग :- जिस युग में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के साथ-साथ शूद्र/अतिशूद्र भी पढ़ने लगे इसलिये इसे कलयुग अर्थात अशुभ/अधर्म/पाप का युग कहने लगे, जबकि यह कलयुग नहीं कलमयुग है। शिक्षा के दरवाजे ब्रिटिश राज में खुलने शुरू हुए।
👉विप्र :- ब्राह्मण अपने आप स्वयं कहते हैं कि हम विदेशी लोग हैं और यहां आकर प्रस्थापित हुए हैं। ब्राह्मण अपने आप को 'विप्र' कहता है जिसका अर्थ है कि वि+प्र = विदेशी प्रस्थापित, जिसका मतलब होता है विदेश से यहाँ आकर बसना/स्थापित होना। बामसेफ की बदौलत अब कुछ लोग समझ पा रहे हैं कि ब्राह्मण विदेशी है।
👉द्विज :- द्विज अर्थात द्वि = दोबारा/पुनः , ज = जन्म लेना, जम जाना/बस जाना। वाकई में ब्राह्मण डीएनए के अनुसार यूरेशिया से यहाँ भारत में आये और आने के बाद यहाँ के लोगों को गुलाम बनाकर स्वयं शासक भी बन गये अर्थात प्राथमिक स्तर पर आये और द्वितीय स्तर पर यहाँ के शासक भी बने अर्थात जड़ें जमां कर रहने लगे। दो बार तो वही जीव-जन्तु जन्म लेते हैं जिनका जन्म अंडे के द्वारा होता है अर्थात एक बार अंडा और दूसरी बार अंडे से बच्चा, जबकि बताया यह जाता है कि जब बच्चे का विद्यारंभ संस्कार होता है तब उसका दोबारा जन्म होता है और सभी/कुल 16संस्कार तो केवल ब्राह्मण के ही होते हैं इसलिए ब्राह्मणों को द्विज कहा जाता है।

नवबुद्ध शब्द के इस्तेमाल का सुझाव

"नवबुद्ध" शब्द के इस्तेमाल का सुझाव
दलित शब्द को लेकर कई मामलों में आपत्तियां दर्ज कराई जाती रही है। अब यह मामला कोर्ट में पहुंच गया है। दलित शब्द का उपयोग रोकने के लिए बाम्बे हाईकोर्ट की नागपुर खंडपीठ में जनहित याचिका दायर की गई है। याचिका में सरकारी कामकाज, प्रसार माध्यमों और अन्य किसी के भी द्वारा इस शब्द के प्रयोग पर रोक लगाने की प्रार्थना की गई है। कोर्ट से मांग की गई है कि दलित की बजाय ‘नवबुद्ध’ शब्द का इस्तेमाल किया जाए। याचिका पंकज मेश्राम की ओर से डाली गई है, जिसकी पैरवी अधिवक्ता शैलेश नारनवरे कर रहे हैं। याचिकाकर्ता के मुताबिक दलित शब्द आपत्तिजनक और असंवैधानिक है, इसके प्रयोग से जातिवाद और भेदभाव झलकता है। साथ ही यह भी तर्क दिया गया है कि इसके प्रयोग से संविधान के आर्टिकल 14,15,16,17,18,19,21, 341 का उल्लंघन होता है। याचिकाकर्ता की ओर से कहा गया है कि विविध स्तरों पर ज्ञापन सौंपने के बाद भी सरकार ने मांग पर कोई फैसला नहीं लिया।
याचिकाकर्ता पंकज मेश्राम ने इस मामले में राज्य सरकार के अलावा प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया और केंद्रीय सामाजिक न्याय व आधिकारिता विभाग को प्रतिवादी बनाया है। 17जनवरी2017 को इस मामले में सुनवाई थी, लेकिन प्रतिवादी जवाब प्रस्तुत करने में असमर्थ रहे, इससे नाराज हाईकोर्ट ने प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया, केंद्रीय सामाजिक न्याय व आधिकारिता विभाग और राज्य सरकार को दो सप्ताह में जवाब प्रस्तुत करने के आदेश दिए हैं।

फुलेजी, शाहूजी और अंबेडकर का आंदोलन

फुलेजी, शाहूजी और अंबेडकर का आंदोलन
(1) ज्योतिबा फुले के पास जब न्यायमूर्ति महादेव गोविंद रानाडे गये कि आप आजादी के आंदोलन में शामिल हों तो तथाकथित आजादी के आंदोलन में ज्योतिबा फुले शामिल नहीं हुए और कहा कि हम दोहरे गुलाम हैं, ब्राह्मण अंग्रेजों के गुलाम हैं और हम ब्राह्मणों के गुलाम हैं। भारत में अंग्रेजों के रहते हमें ब्राह्मणों से आजादी का आंदोलन चलाना होगा। यह मौका है, इसे बेकार मत जाने दो।
(2) बाल गंगाधर तिलक कोल्हापुर (महाराष्ट्र )में शाहूजी महाराज के पास गये कि आजादी के आंदोलन में शामिल हों शाहूजी महाराज नें मना कर दिया और अपने लोगों को अपनी आजादी के आंदोलन को चलाने के लिए कहा।
(3) लाला लाजपत राय अमेरिका में अध्ययनरत बाबासाहब अंबेडकर के पास गये और कहा आजादी के आंदोलन में शामिल हों बाबा साहब नें मना किया और अपने लोगों को तथाकथित आजादी के आंदोलन के बारे में कहा जिन लोगों कि बातें गुलामी में सहन नहीं होती है आजाद भारत में इनकी लातें खानी पडेगी, हमें अपनी आजादी का आंदोलन चलाना होगा।
हमारे महापुरुषों पर यह आरोप लगाया जाता है कि वह तथाकथित आजादी के आंदोलन में शामिल नहीं हुए जो कि गलत और बिल्कुल बेबुनियाद है उन्हें आरोप सही तरह से लगाना चाहिए कि हमारे महापुरुष ब्राह्मणों कि आजादी के आंदोलन में शामिल नहीं हुए। तब तो हमारे लोगों को तथाकथित आजादी का आंदोलन भी समझ आता और उनके आरोप का जवाब देने कि जरूरत भी नहीं होती। भारत में कानून बनाने वाली सभा में हमारे लोग भी शामिल होने के लिए मांग कर रहे थे तब बाल गंगाधर तिलक नें अथनी व पंढरपुर में सभा करके कहा कि "तेली, तम्बोली और कुन्भटों को संसद में जाकर क्या हल चलाना है "जो यह विधि मंडल में जाने कि बात कर रहें हैं यह बात तिलक जिसके संपादक थे केसरी नामक पत्रिका में उस समय छपी। हमें यह पढाया जाता है कि स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार हे हम इसे लेकर रहेगें और कहा जाता है कि यह इतिहास है, परन्तु हमें यह कभी नहीं पढाया जाता कि तेली तम्बोली कुन्भटों को संसद में जाकर क्या हल चलाना है। हम कहते हैं यह भी पढाओ, यह भी इतिहास है।


"बिहार लेनिन" बाबू जगदेव प्रसाद कुशवाहा

"बिहार लेनिन" बाबू जगदेव प्रसाद कुशवाहा
बाबू जगदेव प्रसाद जी का जन्म 02फरवरी1922 को गौतम बुद्ध की ज्ञान-स्थली बोध गया के समीप 20अगस्त 2001 को निर्मित जिला अरवल के कुर्था प्रखंड के ग्राम कुरहारी में हुआ था। इनके पिता प्रयाग नारायण कुशवाहा पास के प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक थे तथा माता रासकली अनपढ़ थी। जगदेव प्रसाद जब किशोर अवस्था में अच्छे कपडे पहनकर स्कूल जाते तो उच्चवर्ण के छात्र उनका उपहास उड़ाते थे। एक दिन गुस्से में आकर उन्होंने उनकी पिटाई कर दी और उनकी आँखों में धूल डाल दी, इसके लिए उनके पिता को जुर्माना भरना पड़ा और माफ़ी भी मांगनी पडी।उन्होनें पंचकठिया प्रथा का अंत करवाया। उस इलाके में किसानों की जमीन की फसल का पांच कट्ठा जमींदारों के हाथियों को चारा देने की एक प्रथा सी बन गयी थी। गरीब तथा शोषित वर्ग का किसान जमीदार की इस जबरदस्ती का विरोध नहीं कर पाता था। जब महावत हाथी को लेकर फसल चराने आया तो पहले उसे मना किया गया, जब महावत नहीं माना तब जगदेव बाबू ने अपने साथियों के साथ महावत की पिटाई कर दी और आगे से न आने की चेतावनी भी दी। इस घटना के बाद पंचकठिया प्रथा बंद हो गयी। जब वे शिक्षा हेतु घर से बाहर रह रहे थे, उनके पिता अस्वस्थ रहने लगे। जगदेव बाबू की माँ धार्मिक स्वाभाव की थी, अपने पति की सेहत के लिए उन्होंने देवी-देवताओं की खूब पूजा, अर्चना की तथा मन्नते मांगी, इन सबके बावजूद उनके पिता का देहावसान हो गया। यहीं से जगदेव बाबू के मन में हिन्दू धर्म के प्रति विद्रोही भावना पैदा हो गयी, उन्होंने घर के सारे देवी-देवताओं की मूर्तियों, तस्वीरों को उठाकर पिता की अर्थी पर डाल दिया। इस ब्राह्मणवादी हिन्दू धर्म से जो विक्षोभ उत्पन्न हुआ वो अंत समय तक रहा, उन्होंने ब्राह्मणवाद का प्रतिकार मानववाद के सिद्धांत के जरिये किया। बिहार में उस समय समाजवादी आन्दोलन की बयार थी, लेकिन जे. पी. तथा लोहिया के बीच सैद्धांतिक मतभेद था। जब जे. पी. ने राम मनोहर लोहिया का साथ छोड़ दिया तब बिहार में जगदेव बाबू ने लोहिया का साथ दिया, उन्होंने सोशलिस्ट पार्टी के संगठन को मजबूत किया और समाजवादी विचारधारा का देशीकरण करके इसको घर-घर पहुंचा दिया। जे. पी. मुख्यधारा की राजनीति से हटकर विनोबा भावे द्वारा संचालित भूदान आन्दोलन में शामिल हो गए। जे. पी. नाखून कटाकर क्रांतिकारी बने, वे हमेशा अगड़ी जातियों के समाजवादियों के हित-साधक रहे। भूदान आन्दोलन में जमींदारों का ह्रदय परिवर्तन कराकर जो जमीन प्राप्त की गयी वह पूर्णतया उसर और बंजर थी, उसे गरीब-गुरुबों में बाँट दिया गया था, लोगो ने खून-पसीना एक करके उसे खेती लायक बनाया। लोगों में खुशी का संचार हुआ लेकिन भू-सामंतो ने जमीन का फिर से कब्जा लेना शुरू कर दिया, और अनुसूचित-पिछड़ों की खूब मार-काट की गयी। तब कर्पूरी ठाकुर ने विनोबा भावे को ‘हवाई महात्मा’ बताया जगदेव बाबू ने 1967 के विधानसभा चुनाव में संसोपा (संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, 1966 में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी का एकीकरण हुआ था) के उम्मीदवार के रूप में कुर्था में जोरदार जीत दर्ज की। उनके अथक प्रयासों से स्वतंत्र बिहार के इतिहास में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी तथा महामाया प्रसाद सिन्हा को मुख्यमंत्री बनाया गया, लेकिन पार्टी की नीतियों तथा विचारधारा के मसले पर लोहिया से अनबन हुई और ‘कमाए धोती वाला और खाए टोपी वाला‘ की स्थिति देखकर संसोपा छोड़कर 25 अगस्त 1967 को ‘शोषित दल’ नाम से नयी पार्टी बनाई। बिहार में राजनीति को जनवादी बनाने के लिए उन्होंने सामाजिक-सांस्कृतिक क्रांति की आवश्यकता महसूस की। वे मानववादी रामस्वरूप वर्मा द्वारा स्थापित ‘अर्जक संघ’ (स्थापना 1 जून, 1968) में शामिल हुए। जगदेव बाबू ने कहा था कि अर्जक संघ के सिद्धांतो के द्वारा ही ब्राह्मणवाद को ख़त्म किया जा सकता है और सांस्कृतिक परिवर्तन कर मानववाद स्थापित किया जा सकता है। उस समय ये नारा गली-गली गूंजता था, "मानववाद की क्या पहचान- ब्रह्मण भंगी एक सामान, पुनर्जन्म और भाग्यवाद- इनसे जन्मा ब्राह्मणवाद।" 07अगस्त1972 को शोषित दल तथा रामस्वरूप वर्मा की पार्टी ‘समाज दल’ का एकीकरण हुआ और ‘शोषित समाज दल’ नामक नयी पार्टी का गठन किया गया। एक दार्शनिक तथा एक क्रांतिकारी के संगम से पार्टी में नयी उर्जा का संचार हुआ। जगदेव बाबू ने पार्टी के राष्ट्रीय महामंत्री के रूप में जगह-जगह तूफानी दौरा आरम्भ किया। वे नए-नए तथा जनवादी नारे गढ़ने में निपुण थे। सभाओं में जगदेव बाबू के भाषण बहुत ही प्रभावशाली होते थे, जहानाबाद की सभा में उन्होंने कहा "दस का शासन नब्बे पर, नहीं चलेगा, नहीं चलेगा। सौ में नब्बे शोषित है, नब्बे भाग हमारा है। धन-धरती और राजपाट में, नब्बे भाग हमारा है।"
बिहार की जनता अब इन्हें ‘बिहार के लेनिन’ के नाम से बुलाने लगी। इसी समय बिहार में कांग्रेस की तानाशाही सरकार के खिलाफ जे. पी. के नेतृत्व में विशाल छात्र आन्दोलन शुरू हुआ और राजनीति की एक नयी दिशा-दशा का सूत्रपात हुआ, लेकिन आन्दोलन का नेतृत्व प्रभुवर्ग के अंग्रेजीदा लोगों के हाथ में था, जगदेव बाबू ने छात्र आन्दोलन के इस स्वरुप को स्वीकृति नहीं दी। इससे दो कदम आगे बढ़कर वे इसे जन-आन्दोलन का रूप देने के लिए मई 1974 को 6 सूत्री मांगो को लेकर पूरे बिहार में जन सभाएं की तथा सरकार पर भी दबाव डाला , लेकिन भ्रष्ट प्रशासन तथा ब्राह्मणवादी सरकार पर इसका कोई असर नहीं पड़ा, जिससे 05सितम्बर1974 से राज्य-व्यापी सत्याग्रह शुरू करने की योजना बनी। 5 सितम्बर 1974 को जगदेव बाबू हजारों की संख्या में शोषित समाज का नेतृत्व करते हुए अपने दल का काला झंडा लेकर आगे बढ़ने लगे। कुर्था में तैनात डी.एस.पी. ने उनको को रोका तो जगदेव बाबू ने इसका प्रतिवाद किया और विरोधियों के पूर्वनियोजित जाल में फंस गए। पुलिस ने उनके ऊपर गोली चला दी। गोली सीधे उनके गर्दन में जा लगी, वे गिर पड़े। सत्याग्रहियों ने उनका बचाव किया, किन्तु क्रूर पुलिस घायलावस्था में उन्हें पुलिस स्टेशन ले गयी। पुलिस प्रशासन ने उनके मृत शरीर को गायब करना चाहा, लेकिन भारी जन-दबाव के चलते उनके शव को दूसरे दिन पटना लाया गया और तीसरे दिन उनकी अंतिम शवयात्रा में देश के कोने-कोने से लाखों-लाख लोग पहुंचे। उनके सम्मान में भारत सरकार द्वारा 05सितंबर2001 को डाक टिकट जारी किया गया।

आधुनिक भारत में आजादी के दो आंदोलन

आधुनिक भारत में आजादी के दो आंदोलन
 आधुनिक भारत में काँग्रेस (ब्राह्मणों का संगठन) के माध्यम से अंग्रेजों की गुलामी से आजादी पाने का गोखले, तिलक, गांधी, नेहरू आदि के माध्यम से आंदोलन चला।
दूसरा :- ब्राह्मणों की गुलामी से आजादी पाने का आंदोलन 1848 से 1956 तक चलाया गया। यह आंदोलन ज्योतिराव फुले, शाहूजी महाराज, रामासामी पेरियार, डॉ.अंबेडकर आदि के द्वारा मूलनिवासियों की आजादी के लिए चलाया गया।
👉आजादी का आंदोलन :- गोखले, तिलक, गांधी, नेहरू के साथ फुले, शाहू, पेरियार, अंबेडकर ने मिलकर आजादी का आंदोलन नही चलाया बल्कि इन्होंने अलग अर्थात गोखले, तिलक, गांधी, नेहरू की गुलामी से मुक्त होने का आंदोलन चलाया। इस प्रकार भारत में आजादी के दो आंदोलन चले अर्थात फुले, शाहूजी, पेरियार, अंबेडकर काँग्रेस द्वारा चलाये हुए आजादी के आंदोलन में शामिल नही हुए क्योंकि यह ब्राह्मणों का ब्राह्मणों की आजादी के लिए बनाया गया संगठन था और उससे विदेशी ब्राह्मण आजाद हुए और मुलनिवासी बहुजन विदेशी ब्राह्मणों के गुलाम हो गये अर्थात आजादी का आंदोलन मुलनिवासी बहुजनों की आजादी का आंदोलन नही था, बल्कि विदेशी ब्राह्मणों की आजादी का आंदोलन था। हमें पाठ्यक्रम में एक ही आजादी का आंदोलन पढाया जाता है जो काँग्रेस (ब्राह्मणों का संगठन) के माध्यम से गोखले, तिलक, गांधी, नेहरू आदि द्वारा चलाया गया और दूसरा आन्दोलन फुले, शाहू, पेरियार, अंबेडकर आदि के द्वारा ब्राह्मणों की गुलामी से मुक्त होने के लिए चलाया गया आजादी का आंदोलन पढाया ही नही जाता। अगर भारत में आजादी के दो आंदोलन चले तो लोग विचार करेंगे कि भारत में आजादी के दो आंदोलन क्यों चले ? इस पर मुलनिवासी विचार विमर्श करेगें, उनके साथ की जा रही धोखेबाजी का भांडाफोड़ हो जाएगा इसलिए आजादी का दूसरा आंदोलन पढाया ही नही जाता, इसलिए बहुजन मूलनिवासियों की समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है।
👉15अगस्त1947 :- 15 August मूलनिवासियों की आजादी का दिन नही है बल्कि ब्राह्मणो की आजादी का दिन है, भारत का मूलनिवासी आज भी गुलाम है। 1848 में फुलेजीे ने मूलनिवासियों की आजादी का आंदोलन शुरू किया था, तब गांधी पैदा भी नहीं हुए थे क्योंकि गांधी उसके 21साल बाद 1869 में पैदा हुए। इसका मतलब है कि मूलनिवासियों का आंदोलन अंग्रेज़ों से आजादी का आंदोलन नही था, बहुजन मूलनिवासियों की आजादी का आंदोलन तो फुलेजीे नें 1848 में ही शुरू कर दिया था। यह बात सोचो कि जब अंग्रेज भारत में नहीं थे, मुगल भी भारत में नहीं आयें थे, तब भारत किसका गुलाम था अथवा तब मूलनिवासी किसके गुलाम थे, तब हमारे ऊपर अत्याचार, शोषण कौन कर रहा था, यह बात हमारे लोगों को सोचनी चाहिए। अंग्रेज भारत छोडकर चले गये, इस बात को आजादी मानकर चलना यही गलत बात है क्योंकि फुले, शाहुजी, पेरियार, अंबेडकर यह मानते थे कि अंग्रेजों ने हमको गुलाम नहीं बनाया बल्कि हमको ब्राह्मणों ने गुलाम बनाया है। अंग्रेजों की गुलामी केवल राजनीतिक थी परन्तु ब्राह्मणों की गुलामी सामाजिक, राजनीतिक, शैक्षणिक, आर्थिक एंव शोषण व अमानवीय अत्याचार से भरी पडी है, इसलिए अग्रेजो से आजादी का आंदोलन ब्राह्मणो का हो सकता है, मूलनिवासियों का नहीं, क्योंकि अंग्रेजों के भारत में आने से पहले भी हम गुलाम थे। फुलेजी ने कहा था कि अंग्रेज भारत में है तब तक हमें अवसर है, अपनी आजादी हासिल करने का, अंग्रेज भारत से चल चले जायेंगें और ब्राह्मण भारत का शासक बन जायेगा तो तुम्हारे पास जो अवसर है, वह भी नही रहेगा। बाबासाहब नें कहा था गुलाम भारत में जिसकी बातें भी सहन नहीं होती हैं, आजाद भारत में उनकी लातें खानी पडेगी, इसलिए साथियों 15अगस्त मूलनिवासियों की आजादी का दिन नही है, भारत के मुलनिवासी आज भी गुलाम ही हैं। यदि आजादी का आन्दोलन हमारा आन्दोलन था, तो सारी समस्याएँ हमारे समाज की ही क्यों हैं ? सारे अत्याचार, शोषण जो आजादी से पहले थे, वह आज भी जस के तस क्यों हैं ? 3.5% ब्राह्मणों के 367 सांसद क्यों हैं ? 3.5% ब्राह्मणों के ही लगभग 90% कैबिनेट मंत्री क्यों हैं ? 3.5% ब्राह्मणों के ही हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में कुल जजों में से 98% क्यों है ? 3.5% ब्राह्मणों के ही देश में 79% IAS क्यों है ? 100% मीडिया ब्राह्मण बानियों का है, परन्तु बहुजन मूलनिवासी पत्रकार, टीवी एंकर कितने हैं ?
👉शिक्षित बनो! संगठित रहो! संघर्ष करो! :- बाबासाहब का सबसे अधिक विरोध कांग्रेस नें क्यों किया था ? बाबासाहब इतने विद्वान थे वह आजादी के आन्दोलन में शामिल नहीं थे, तो वह किसकी लड़ाई लड़ रहे थे ? बाबासाहब नें क्यों कहा था कि मेरा अधूरा आन्दोलन पूरा करना, तो हमें कौन-सा आन्दोलन बता कर गये ? यदि 15अगस्त को जब हम आजाद ही हो गये तो बाबा साहब ऐसा क्यों कह कर गये ? विचार करो कि बाबासाहब ने शिक्षा के बाद ऐसा क्यों कहा कि संगठित हो, तो क्यों संगठित हो, किसके खिलाफ संगठित हो। फिर कहा संघर्ष करो, जब हम आजाद हैं तो किसके खिलाफ संगठित हो और किससे संघर्ष करें ? बहुजन मूलनिवासी बुध्दिजीवी वर्ग इस आंदोलन को समझने की कोशिश करेगें, विचार विमर्श करेंगे।
बहुजन महापुरुषों का अधूरा कार्य पूरा करने का काम "बामसेफ व भारत मुक्ति मोर्चा" कर रहा है। आप अपनी/ खुद स्वयं की आजादी हेतु इसमें शामिल हो जाइये।
जागो! बहुजन!! जागो! मूलनिवासी!!

14 फरवरी और जातीय दंभ का बेहमई कांड

14 फरवरी और जातीय दंभ का बेहमई कांड
 देश-विदेश में 14फरवरी को युवक और युवतियां प्यार के दिन के रुप मनाते हैं लेकिन 14फरवरी1981 को दस्यु सुंदरी फूलन देवी ने कानपुर देहात (रमाबाई नगर) मुख्यालय अकबरपुर के बेहमई गांव में दिन दहाड़े एक ही जाति के 22 ठाकुरों को लाईन में खड़ा करके गोली मार कर उनकी हत्या कर दी थी, जिसे प्रदेश का सबसे बड़ा नरसंहार कहा जाता है। जिसकी बेहमई गांव में रहने वाले लोगों के दिलो में दहशत आज भी है। इस कांड के अधिकतर दोषी लोगों की मौत हो चुकी है और वादी भी नहीं रहे, जो जिन्दा हैं वह चल फिर नहीं पाते। भले ही फूलन देवी की हत्या हो गयी हो लेकिन बेहमई काण्ड का फैसला अभी तक नहीं आया और इस गांव में 36 वर्षों से आज तक होली नहीं मनायी गयी है।
वीरांगना फूलन देवी का जन्म 10 अगस्त1963 को यमुना पट्टी में बसे ग्राम गोरहा पुरवा मजरा शेखपुर गुढा़ ब्लॉक महेवा कोतवाली व तहसील कालपी जनपद जालौन मुख्यालय उरई के मल्लाह परिवार में हुआ था। वह पिता देवीदीन व माता मूला देवी की संतान थी। 11वर्ष की नाबालिग आयु में ही इनका बाल विवाह महेश पुरा गांव के 30वर्षीय विधुर व शराबी पुत्ती लाल से कर दिया गया किन्तु पति के यौन शोषण और मारपीट से तंग आकर अपने मायके में रहने लगीं। पारिवारिक जमीन के विवादों ने इन्हें कंगाल किन्तु जीवट का मजबूत बना दिया। उच्च जातीय लड़कों द्वारा बलात्कार किए जाने के बाद इनका लगाव सजातीय डाकू विक्रम मल्लाह से हो गया। चूंकि उस समय यमुना और चम्बल के बीहड़ों में ठाकुर बंधु डकैत लाला राम और श्रीराम का जबरदस्त डंका बजता था और खूंखार सिक्का भी चलता था। विक्रम भी इन्हीं के गिरोह में था किन्तु फूलन द्वारा अपराधों में सक्रिय सहभागिता के कारण विक्रम की ताकत बढ़ गयी और उसने अपना खुद का अलग गिरोह बना लिया। बस यहीं से विक्रम और लाला राम में जातीय ऊंचनीच की भावना के तहत दुश्मनी के कारण विक्रम की हत्या ठाकुर बंधुओं ने कर दी इससे फूलन देवी कमजोर पड़ गयीं। इसके बाद ठाकुर बंधुओं ने उनको पकड़ कर अपने गिरोह के साथ कानपुर देहात की तहसील सिकंदरा थाना व ब्लॉक राजपुर के यमुना पट्टी में ही बसे ठाकुर बाहुल्य गांव बेहमई मजरा खोजा रामपुर बंगर में फूलन देवी के साथ सामूहिक बलात्कार किया और गांव में निर्वस्त्र करके घुमाया और कुंए से निर्वस्त्र ही पानी भरवाया और गांव के ठाकुर हँसते हुए तमाशायी बन कर यह घिनौना दृश्य देखकर प्रतिवाद करना तो दूर की बात बल्कि खड़े खड़े सारा मंजर देखते रहे क्योंकि उनके सजातीय बंधुओं का गिरोह था। किसी तरह वहां से छूटने के बाद फूलन देवी ने एक बहुत बड़ा व शक्तिशाली गिरोह बनाया और खुद उसकी सरदार बनीं। कुछ समय बाद फूलन देवी को सूचना मिली कि ठाकुर बंधु अपने गिरोह सहित बेहमई में डेरा डाले है। 14 फरवरी 1981 को बेहमई में पहुंचने पर ठाकुर बंधु व उनका गिरोह तो नहीं मिला किन्तु गांव के 22 ठाकुरों को उसी कुंए के पास लाईन में खड़ा करके अपमान का बदला लेने के लिए एक साथ गोलियों से भून दिया। विदित हो कि कानपुर देहात और जालौन दोनों जिलों के मध्य से यमुना नदी बहती है जो दोनों जिलों के लिए डिवाइडर का भी काम करती है। उस समय उन पर 10,000 (दस हजार रुपये) का ईनाम रखा गया था। बाद में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी (14.01.1980 -31.10.1984) की सरकार से यह आश्वासन मिलने के बाद कि मृत्यु दण्ड नहीं दिया जायेगा, ग्वालियर में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री अर्जुन सिहं (08.06.1980- 10.03.1985) के समक्ष अपने साथियों सहित 12फरवरी1983 को आत्म समर्पण कर दिया। उस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री वी.पी सिह़ (09.06. 1980- 18.071982) थे। फूलन देवी की जिन्दगी का यह एक अजीब पहलू है कि जितने वर्ष की उम्र में उनकी शादी हुई उतने ही वर्ष उन्हें जेल में रहना पड़ा। ग्यारह वर्ष जेल में रहने के बाद रिहा होने पर उन्होंने उम्मेद सिंह से विवाह किया तथा "बौध्द धर्म" ग्रहण कर किया। इनके साथ शोषित व पीड़ित इकट्ठे होने लगे। यह जानकर मुलायम सिंह यादव ने अपनी समाजवादी पार्टी से फूलन देवी को 1996 में मिर्जापुर से लोक सभा का चुनाव लड़ाया और फूलन देवी भारी मतों से जीत कर पहली बार दस्यु सुन्दरी एवं बैंडिट क्वीन से सांसद बनीं। जब वे दूसरी बार सांसद थीं तब संसद सत्र के दौरान संसद से घर लौटते समय नई दिल्ली में उनके सरकारी आवास के निकट ही 25जुलाई 2001 को शेर सिंह राणा नामक सिरफिरे ने तथाकथित ठाकुरों की हत्या का बदला लेने के लिए उनकी हत्या कर दी। कहा जाता है कि उन्होंने 24अप्रैल2001 को "एकलव्य सेना" बनायी थी जो आगामी चुनावों में प्रतिभाग करती इसलिए राजनैतिक साजिशन उनकी हत्या करा दी गयी। फूलन देवी सिर्फ शोषित वर्ग की ही नहीं बल्कि महिला वर्ग के लिए भी एक प्रेरणा स्रोत है जिसने अपने अपमान का बदला लेने के लिए 22 ठाकुरो को लाईन में खड़ा करके गोली मार दी थी। फूलन देवी का जीवन हमारे समाज की स्त्रियों, शोषितों व पिछड़ो के प्रति ओछी मानसिकता का भी जीता जागता उदाहरण है। भारत में जातीय भेदभाव किस तरह व्यापक रूप से दैनिक जीवन में फैला है यह जानना हो तो फूलन देवी की जीवन यात्रा एक अनुपम उदाहरण है। यह कटु सत्य है कि जितनी भी लड़कियों और महिलाओं के साथ बलात्कार होता है वह सभी लगभग 98% मूलनिवासी (एससी एसटी ओबीसी व धर्मपरिवर्तित) समाज की ही होती हैं। सम्पूर्ण भारत में जितने भी बलात्कार होते है उनमें से यदि केवल 2% ने भी फूलन देवी को अपना आदर्श मानकर उनकी भांति कार्य अंजाम दिया होता तो 98% बलात्कार होने ही बंद हो जाते।
एक दौर था जब उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में फूलन देवी के नाम की धमक थी। दस्यु सुंदरी से सांसद बनी फूलन की एक निगाह पड़ते ही इलाक़े के लोगों की क़िस्मत बदल जाती थी। बीहड़ के दिनो में अमीरों को लूटकर ग़रीबों की मदद करने की उनकी अदा ने उन्हें इलाक़े का रॉबिनहुड ही बना दिया था। लोगों की मदद करने की शैली फूलन के सांसद बनने के बाद भी नहीं बदली। मगर अब फूलन इस दुनिया में नहीं है और उनकी बूढ़ी मां दर-दर की ठोकरें खा रही है। विधवा/ वृद्धावस्था पेंशन तो दूर उन्हें एक अदद राशन कार्ड के लिए भी दफ़्तरों के चक्कर कटाए जा रहे हैं। अधिकांश ज़मीन पर दबंगों ने क़ब्ज़ा कर लिया है और बची खुची ज़मीन से गुज़ारा नहीं हो रहा, ऐसे में भीख मांगने की नौबत आ गई है। फूलन की छोटी बहन रामकली बताती है कि छः बहन भाइयों में से केवल वह मां मूला देवी के साथ रहती है। दो भाई हैं और दोनों परिवार सहित ग्वालियर में रहते हैं। बड़ा भाई शिव नारायण मध्य प्रदेश पुलिस में सिपाही है। छोटा भाई सुंदर अपना काम करता है और अब उनके पिता देवी दीन की मृत्यु हो चुकी है।
विश्व इतिहास की सबसे श्रेष्ठ विद्रोही महिलाओं की 08मार्च2011 को "अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस" के अवसर पर ग्लोबल लिस्ट जारी करते हुए अमेरिका की सबसे प्रतिष्ठित साप्ताहिक अंग्रेज़ी पत्रिका "TIME MAGAZINE" ने अपने प्रकाशित अंक में फूलन देवी को चौथे नंबर पर रखा। भारत से वे अकेले ही इस लिस्ट में हैं। इस लिस्ट में कुल 16 नाम हैं जो निम्नलिखित हैं :-
1. तवाकुल करमान (यमन),
2. आंग सांग सू की (म्यांमार),
3. कोराजोन एक्विनो (फिलिपींस),
4. फूलन देवी (भारत),
5. एंजेला डेविस (अमेरिका),
6. गोल्डा मायर (इजरायल),
7. विल्मा लुसिला इस्पिन (क्यूबा),
8. जेनेट जगन (गुयाना),
9. जिआंग किंग (चीन),
10. नदेझदा क्रुपस्काया (रूस),
11. सुसान बी एंथनी (अमेरिका),
12. इम्मेलिन पानखुरस्त (ब्रिटेन),
13. हेरिएट टुबमैन (अमेरिका),
14. मैरी वुलस्टोनक्राफ्ट (ब्रिटेन),
15. जोआन अॉफ आर्क (फ्रांस),
16. बोउदिका (ब्रिटेन)।
👉 यह उसी कुएं की ओरिजिनल तस्वीर है जिससे निर्वस्त्र करके उन पर पानी भरवाया गया था। इस कुएं पर कुछ अतिरिक्त निर्माण कार्य करवाकर मारे गये लोगों के नाम की पट्टिका लगा दी गई है तथा पट्टिका के ऊपर अब शेरसिहं राणा की तस्वीर भी लगा दी गई है व गांव में एक पुलिस चौकी बना दी गई।
जय भीम! जय मूलनिवासी!! नमो बुद्धाय!!!

राष्ट्र संत गाडगे और बाबासाहेब डॉ.अंबेडकर

राष्ट्र संत गाडगे और बाबासाहेब डॉ.अंबेडकर
 संत गाडगे महाराज (23फरवरी1876 -20दिसंबर 1956) और बाबासाहेब डा. अंबेडकर (14अप्रैल1891 -05दिसंबर 1956) दोनों समकालीन थे किन्तु अंबेडकर से उम्र में पन्द्रह साल बड़े थे। वैसे तो संत गाडगे बहुत से राजनीतिज्ञों से मिलते-जुलते रहते थे, लेकिन वे अंबेडकर के कार्यों से बहुत प्रभावित थे। इसका कारण था जो समाज सुधार सम्बन्धी कार्य वे अपने कीर्तनों के माध्यम से लोगों को उपदेश देकर कर रहे थे, वही कार्य अंबेडकर राजनीति के माध्यम से कर रहे थे। संत गाडगे के कार्यों की ही देन थी कि जहाँ डा.अंबेडकर तथाकथित साधु-संतों से दूर ही रहते थे, वहीं संत गाडगे का अत्यधिक सम्मान करते थे। वे संत गाडगे से समय-समय पर मिलते रहते थे तथा समाज-सुधार संबंधी आंदोलनों आदि विषयों पर भी मंत्रणा करते रहते थे जबकि उनके पास किताबी ज्ञान एवं राजसत्ता दोनो थे। अतः हमें समझना यह होगा कि सामाजिक शिक्षा एवं किताबी शिक्षा भिन्न-भिन्न हैं और प्रत्येक के पास दोनों नहीं होती और दोनों प्रकार की शिक्षाओं में समन्वय की महती आवश्यकता है।
अन्य संतों की भाँति संत गाडगे को भी औपचारिक शिक्षा ग्रहण करने का अवसर नहीं मिला किन्तु उन्होंने स्वाध्याय के बल पर ही थोड़ा बहुत पढ़ना-लिखना सीख लिया था। शायद यह डा.अंबेडकर का ही प्रभाव था कि संत गाडगे शिक्षा पर बहुत जोर देते थे। शिक्षा के महत्व को प्रतिपादित करते हुए वे कहते थे ”शिक्षा बहुत बड़ी चीज है, पैसे की तंगी हो तो खाने के बर्तन बेच दो, औरत के लिये कम दाम के कपड़े खरीदो, टूटे-फूटे मकान में रहो पर बच्चों को शिक्षा दिये बिना न रहो, यदि खाने की थाली भी बेचनी पड़े तो उसे बेचकर भी शिक्षा ग्रहण करो, हाथ पर रोटी लेकर खाना खा सकते हो पर विद्या के बिना जीवन अधूरा है।" वे अपने प्रवचनों में शिक्षा पर उपदेश देते समय डा.अंबेडकर को उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत करते हुए कहते थे कि ‘‘देखा बाबासाहेब अंबेडकर अपनी महत्वाकांक्षा से कितना पढ़े। शिक्षा कोई एक ही वर्ग की ठेकेदारी नहीं है। एक गरीब का बच्चा भी अच्छी शिक्षा लेकर ढेर सारी डिग्रियाँ हासिल कर सकता है।’’
14जुलाई1949 को बाबासाहेब डॉ. अंबेडकर को मुम्बई में संत गाडगे की तबियत खराब होने की सूचना मिली। बाबासाहेब तब भारत के कानून मंत्री थे और उसी दिन उन्हें शाम की ट्रेन से संविधान सभा में प्रतिभाग हेतु दिल्ली वापस जाना था किन्तु संत गाडगे महाराज के बीमार होने की खबर सुनकर बाबासाहेब सभी कार्यो को छोडकर तुरंत गाडगे महाराज के लिए 2नई चादरें खरीद कर उन्हें अस्पताल देखने गए। कभी किसी से एक पाई तक न लेने वाले इस महापुरूष ने बाबासाहेब द्वारा दी गई भेट को सहर्ष स्वीकार करते हुए कहा कि "अंबेडकर आपने यहां आने की तकलीफ क्यों की ? मैं एक फकीर, आपका एक-एक मिनट बहुत कीमती है।" तब बाबासाहेब बोले -"बाबा मेरा अधिकार केवल तब तक का है जब तक यह कुर्सी की ताकत मेरे पास है, कल यदि यह कुर्सी मेरे पास नही होगी तो मुझे कोई भी नहीं पूछेगा, आपका अधिकार बडा है" बोलकर बाबासाहेब की अांखो से अश्रुधारा बहने लगी, क्योंकि दोनों महापुरूष जानते थे कि ऐसा प्रसंग अब उनके जीवन में शायद पुनः कभी नहीं आएगा। संत गाडगे ने डा. अंबेडकर द्वारा स्थापित पीपुल्स एजुकेशन सोसाएटी को पंढरपुर की अपनी धर्मशाला छात्रावास हेतु दान कर दी थी। यह संयोग ही है कि डॉ. अंबेडकर की मृत्यु के मात्र 14दिन बाद ही संत गाडगे ने भी जनसेवा और समाजोत्थान के कार्यों को करते हुए हमेशा-हमेशा के लिए अपनी आंखें बंद कर लीं।

स्वच्छता अभियान के जनक संत गाडगे बाबा

स्वच्छता अभियान के जनक संत गाडगे बाबा

राष्ट्र संत गाडगे महाराज का जन्म 23फरवरी1876 को प्रांत-महाराष्ट्र, जनपद-अमरावती, तहसील- अंजानगांव-सुर्जी, 40-दर्यापुर (SC) विधानसभा क्षेत्र के ग्राम - शेंडगांव में पिता झिंगराजी जाणोरकर और माता सखूबाई के घर धोबी जाति में हुआ था। बाबा गाडगे का पूरा नाम "देवीदास डेबूजी झिंगराजी जाणोकर" था। घर में उनके माता-पिता उन्हें प्यार से ‘डेबूजी’ कहते थे। डेबूजी हमेशा अपने साथ मिट्टी के मटके जैसा एक पात्र रखते थे। इसी में वे खाना भी खाते और पानी भी पीते थे। एक लकड़ी तथा मिटटी का बर्तन जिसे महाराष्ट्र में गाडगा (लोटा) कहा जाता है, इसी कारण कुछ लोग उन्हें 'गाडगे महाराज' तो कुछ लोग उन्हें 'गाडगे बाबा' कहने लगे और बाद में वे "संत गाडगे" के नाम से प्रसिद्ध हो गये। गाडगे बाबा का बचपन उनके मामा के यहाँ ग्राम - दापुरे, तहसील व 32-मुर्तिजापुर (SC) विधानसभा क्षेत्र, जनपद - अकोला में बीता, क्योंकि डेबूजी की आयु जब आठ वर्ष की थी तभी इनके पिताजी स्वर्ग सिधार गये थे इसलिए इनकी माताजी इन्हें लेकर अपने पिता के घर चली आयीं थी। अकोला व अमरावती दोनों जिले और अंजानगांव-सुर्जी व मुर्तिजापुर दोनों तहसीलें आस-पास ही हैं। दापुरे गांव के ही थनाजी खल्लारकर की बेटी कुंताबाई के साथ इनका विवाह हो गया। वह लोगों के साथ धार्मिक, सामाजिक समारोहों में जाते थे तो उन्हें समस्याएं ही समस्याएं नजर आती थीं। अब उन्हें लगने लगा कि अपने समाज के लिए कुछ न कुछ करना होगा, यह दर्द हमारा है तो इसका इलाज भी हमें ही करना होगा। हालांकि परिवार की जिम्मेदारी अपने कंधे पर होने के कारण वह उस ओर भी सोचते रहते और आखिरकार उन्होंने गौतम बुद्ध की भांति 29वर्ष की आयु में घर-परिवार त्याग दिया। गाडगे एक हाथ में लाठी दूसरे हाथ में भिक्षा पात्र लिए और शरीर पर फटे पुराने कपड़ों को गाँठ कर चीवर जैसा बनाकर पहन कर चल दिए।
जब वे किसी गाँव में प्रवेश करते थे तो वे तुरंत ही गटर और रास्तों को साफ़ करने लगते तथा काम खत्म होने के बाद वे खुद लोगो को गाँव के साफ़ होने की बधाई भी देते थे और फिर शाम को वहीं कीर्तन का आयोजन भी करते थे। गाँव के लोग उन्हें पैसे भी देते थे और बाबाजी उन पैसों का उपयोग सामाजिक और शारीरिक विकास करने में लगा देते थे। इस प्रकार उनके अनुयायियों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी। लोग उनके साथ जन सेवा में जुटने लगे थे। उन्होंने यात्रियों की सुविधा के लिए कुँए एवं तलाबों का निर्माण किया। मरीजों के लिए अस्पतालों तथा कुष्ठ रोगियों के लिए कुष्ठ आश्रमों का निर्माण करवाया। संत गाडगे मन्दिरों एवं मूर्ति पूजा के विरोधी थे। उन्होंने शिक्षा विकास के लिए अनेक आश्रम खोले। गाडगे बाबा ने ब्राह्मण, साधू, सन्तों, पण्डितों, महंतों के धार्मिक पाखण्ड की तार्किक ज्ञान से धज्जियाँ उड़ा दी। वह खुद के बारे में कहते थे कि "मेरा कोई शिष्य भी नहीं है और मैं किसी का गुरु भी नही हूँ सब स्व्यं शिष्य हैं और स्व्यं के गुरु हैं।" जिन तथाकथित धार्मिक स्थलों पर बकरे, मूर्गे, भैंसे कटते थे बाबा ने इससे हटकर 'जीवदया' नामक संस्थाओं की स्थापना की शुरुआत की। वह मंदिर मूर्ति के बजाय जन कल्याण, समाज व विकास के लिए शिक्षा के विद्या मंदिरों में विश्वास करते थे। ईश्वर, आत्मा, पुनर्जन्म, ब्राह्मधाम आदि बेकार की बातों पर उनका विश्वास नहीं था। बाबा के प्रमुख अनुयायियों ने संस्थाओं में अनुशासन बनाये रखने एवं बाबा के मिशन को तीव्रगति से चहुंओर फैलाने के उद्देश्य से 08फरवरी 1952 को गाडगे मिशन की स्थापना की। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री श्री बी.जी. खेर ने बाबा की सभी संस्थाओं का एक ट्रस्ट बना दिया, जिसमें करीब 60 संस्थाएं है। आज भी यह मिशन जनसेवा को समर्पित है। वह सदैव बाल विवाह, विधवाओ का मुंडन, दिखावटी के लिए फिजूलखर्ची सहित कुप्रथाओं को रोकने के लिए प्रयासरत रहते, वे अपने कीर्तनो में कहते कि उंच-नीच, अमीर-गरीब, काला-गोरा सब मनुष्य की सोच का नतीजा है इसलिए हमें यथाशीघ्र सामाजिक ढांचे में परिवर्तन करना चाहिए जिससे कि मानवता का विकास संभव हो सके। वे शिक्षा को मनुष्य की अपरिहार्य आवश्यकता के रूप में प्रतिपादित करते थे। अपने कीर्तन के माध्यम से शिक्षा की महत्ता पर प्रकाश डालते हुये वे कहते थे ”शिक्षा बड़ी चीज है. पैसे की तंगी हो तो खाने के बर्तन बेच दो, औरत के लिये कम दाम के कपड़े खरीदो। टूटे-फूटे मकान में रहो पर बच्चों को शिक्षा दिये बिना न रहो।” बाबा ने अपने जीवनकाल में लगभग 60 संस्थाओं की स्थापना की और उनके बाद उनके अनुयायियों ने लगभग 42 संस्थाओं का निर्माण कराया। उन्होनें कभी किसी मन्दिर का निर्माण नहीं कराया अपितु दीनहीन, उपेक्षित एवं साधनहीन मानवता के लिये स्कूल, धर्मशाला, गौशाला, छात्रावास, अस्पताल, परिश्रमालय, वृद्धाश्रम आदि का निर्माण कराया। उन्होंने अपने हाथ में कभी किसी से दान का पैसा नहीं लिया। दानदाता से कहते थे दान देना है तो अमुक स्थान पर संस्था में दे आओ। संत गाडगे महाराज की कीर्तन शैली अपने आप में बेमिसाल थी। वे संतों के वचन सुनाया करते थे। विशेष रूप से कबीर, संत तुकाराम, संत ज्ञानेश्वर आदि के काव्यांश जनता को सुनाते थे। हिंसाबंदी, शराबबंदी, अस्पृश्यता निवारण, पशुबलि प्रथा आदि उनके कीर्तन के विषय हुआ करते थे।
बाबा अपने अनुयायिययों से सदैव यही कहते थे कि मेरी जहां मृत्यु हो जाय, वहीं पर मेरा अंतिम संस्कार कर देना, मेरी मूर्ति, मेरी समाधि, मेरा स्मारक, मेरा मन्दिर नहीं बनाना। मैने जो कार्य किया है, वही मेरा सच्चा स्मारक है। जब बाबा की तबियत खराब हुई तो चिकित्सकों ने उन्हें अमरावती ले जाने की सलाह दी किन्तु वहां पहुचने से पहले ही 39-तिवसा विधानसभा क्षेत्र में स्थित वलगांव के पास पिढ़ी नदी के किनारे रात्रि 20दिसम्बर 1956 को उनकी जीवन ज्योति समाप्त हो गयी। उनके परिनिर्वाण की खबर आग की तरह पूरे महाराष्ट्र में फैल गयी। उनके चाहने वाले हजारों अनुयायियों ने उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की और उनकी अन्तिम यात्रा में सम्मिलित हुए। जहां बाबा का अन्तिम संस्कार किया गया, आज वह स्थान गाडगे नगर के नाम से जाना जाता है। वे ऐसे निष्काम सच्चे कर्मयोगी थे जिन्होंने महाराष्ट्र के कोने-कोने में कई धर्मशालाएँ, गौशालाएँ, विद्यालय, चिकित्सालय तथा छात्रावासों का निर्माण कराया किंतु अपने सारे जीवन में इस महापुरुष ने अपने लिए एक कुटिया तक नहीं बनवाई और यह सब उन्होंने भीख मांग-मांग कर बनवाये थे। उनकी मृत्यु के बाद अंतर्राष्ट्रीय श्रम दिवस व महाराष्ट्र स्थापना दिवस (01.05.1960) के अवसर पर 01मई1983 को महाराष्ट्र सरकार ने नागपुर विश्व विद्यालय को विभाजित करते हुए इसके कुछ संसाधनों द्वारा 'संत गाडगे बाबा अमरावती विश्वविद्यालय' की स्थापना की और उनकी 42वीं पुण्यतिथि के अवसर पर 20दिसम्बर 1998 को भारत सरकार ने उनके सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया तथा उन्हें सम्मान देते हुए महाराष्ट्र सरकार ने 2000-01 में “संत गाडगेबाबा ग्राम स्वच्छता अभियान” की शुरुअात की, जो ग्रामवासी अपने गाँवों को स्वच्छ रखते है उन्हें यह पुरस्कार दिया जाता है।

गंगाजल में पड़े कीड़े, लो! टूट गया मिथक

गंगाजल में पड़े कीड़े, लो! टूट गया मिथक
पतितपावनी, पापनाशिनी, मोक्षदायिनी, पुण्यसलिला, सरित्श्रेष्ठा आदि नामों से अलंकृत पवित्र गंगा नदी की स्वच्छता हेतु गंगा कार्य योजना (गंगा एक्शन प्लान) GAP की शुरुआत अप्रैल 1985 से हुई जिस पर 1200 करोड़ रुपये खर्च हुए और यह योजना 31मार्च2000 में बंद हो गयी। इसके बाद दिसंबर 2009 में राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण (नेशनल गंगा रिवर बेसिन अथॉरिटी) NGRBA की स्थापना की गई जिसके चेयरमैन खुद प्रधानमंत्री हैं। इसके लिए विश्व बैंक के कार्यकारी निदेशक मंडल ने 31मई 2011 को 1.556 अरब डॉलर की लागत वाली राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन परियोजना को स्वीकृति प्रदान की, जिसके लिए विश्व बैंक समूह से 1 अरब डॉलर की धनराशि प्राप्त होगी (जिसमें आईडीए से 19.9 करोड़ डॉलर का ब्याजमुक्त ऋण (क्रेडिट) और आईबीआरडी से 80.1 करोड़ डॉलर का कम ब्याज पर ऋण (लोन) शामिल है)। इस परियोजना को आठ वर्षों में पूरा किया जाएगा। और अब 2014-15 के केन्द्रीय बजट में स्वच्छ गंगा परियोजना आधिकारिक नाम एकीकृत गंगा संरक्षण मिशन परियोजना या "नमामि गंगे" 2037 करोड़ रुपयों की आरंभिक धनराशि का प्रावधान करके 07जुलाई 2016 से प्रथम चरण की शुरुआत हरिद्वार से की गयी। इसके साथ ही गंगा रिवर डॉल्फिन जैसे अन्य प्रोग्राम भी चल रहे हैं। किन्तु गंगा का मामला अबतक तो जस का तस है क्योंकि इसमें भी गंगा नदी में पानी छोड़ने की कोई बात नहीं है। ऐसे में गंगा क्या बिना पानी के ठीक हो पाएगी या नहीं, यह देखने वाली बात होगी जबकि गंगा 2008 में गंगा नदी को राष्ट्रीय नदी का दर्जा दिया जा चुका है।
हिन्दू धर्म के शैव मतानुसार कहा जाता है कि गंगा नदी शिव-शंकर की जटाओं से निकली है और अमर उजाला, कानपुर, 02मार्च2017 (01) के अनुसार गंगा के पानी अर्थात पवित्र गंगाजल में लाल रंग के कीड़े (लार्वा) मौजूद हैं। अभी 24फरवरी 2017 को महाशिव रात्रि के पावन पर्व पर सैकड़ों श्रद्धालुओं ने गंगा नदी में स्नान किया तो क्या उन्हें यह कीड़े अंधश्रद्धा के कारण पता ही नहीं चले। ऐसी स्थिति में उन्हें यह विचार करना चाहिए कि सरकार द्वारा गंगा सफाई के नाम पर अरबों रुपये खर्च करने के बावजूद आखिर कीड़े कहां से आये। कहीं ऐसा तो नहीं कि गंगा के उद्गम अर्थात शिव की जटाओं में ही कीड़े पड़ गये हों और यह कीड़े वहीं से आ रहे हों। लोग 'एकीकृत गंगा संरक्षण मिशन परियोजना' "नमामि गंगे" को ठीक वैसा ही कहते हैं जैसा 'एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रम'(Integrated Rural Development Program) को "आयी रकम डकारि जाउ प्यारे"।

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गुजराती गधे 'खुड़खर' की विशेषताएं

गुजराती गधे 'खुड़खर' की विशेषताएं 
गुजराती गधा सिर्फ गधा ही नहीं बल्कि घोड़ा भी है अर्थात यह घोड़े और गधे का हाइब्रिड क्रॉस प्रोडक्ट है जिसे "घुड़खर" के नाम से जाना जाता है। कच्छ के लघु रण अभ्यारण्य में विभिन्न प्रजाति के जन्तु और पक्षियों के साथ-२ भारतीय जंगली गधे की लुप्तप्राय प्रजाति भी यहां पायी जाती है क्योंकि भारत में गधों के लिए केवल यही एकमात्र अभ्यारण्य है। यह अक्सर झुण्ड में रहते हैं, खासतौर से प्रजनन काल में। यह घुड़खर के नाम से जाना जाने वाला यह जंगली गधा पूरी तरह से न तो गधा है और न ही घोड़ा। यह गधे और घोड़े दोनों के बीच की प्रजाति है इसमें दोनों के गुण पाए जाते हैं। जैसा कि इसके नाम पर गौर करें तो पता चलता है कि घुड़ शब्द घोड़े से लिया गया है और खर का मतलब गधा होता है। इस तरह घोड़े और गधे दोनों के नाम को मिलाकर इसे यह 'घुड़खर' नाम मिला है। वैसे इसे भारत में ‘गधेरा’, ‘खच्चर’ और ‘जंगली गधा' भी कहते हैं।
यह गुजरात के लघु कच्छ रण में स्थित अभ्यारण्य में ही अपनी सबसे ज्यादा तादाद में मिलता है। इन जंगली गधों का निवास यह अभ्यारण्य कोई छोटा-मोटा अभ्यारण यानी सेंचुरी नहीं बल्कि भारत की सबसे बड़ी सेंचुरी है। यह अभ्यारण 4953.70 वर्ग किमी क्षेत्र में फैला हुआ है। साल 2015 में हुए एक सर्वेक्षण के अनुसार देश में कुल 4500 जंगली गधे हैं जिनमें से तकरीबन 3000 घुड़खर केवल इसी अभ्यारण्य में पाए जाते हैं। गुजरात के इस सेंचुरी में पैदा होने वाली घास की वजह से घुड़खर सबसे ज्यादा यहां पाए जाते हैं। खारे रेगिस्तान में उगने वाली एक खास किस्म की घास को खाने का शौकीन होने के कारण कच्छ का लघु रण इसकी पसंदीदा जगह है। लगभग 250 किग्रा वजन व 210 सेमी लंबाई के शरीर वाला यह घुड़खर 70 से 80 किमी प्रतिघंटे की रफ्तार से दौड़ सकता है क्योकि इसकी छलांगे काफी लंबी होती हैं। दस से लेकर बीस के झुंड में चलने वाले घुड़खर इनकी खासियत यह भी है कि यह महीनों बिना नहाए भी चमकदार ही दिखते हैं। इतनी सब विशेषताएं होने के बावजूद गधे को लेकर हमारी मानसिकता के चलते यह दुर्लभ वन्य प्रजाति अनदेखी का शिकार है। एशियाई शेर की तरह ही यह एशियाई गधा भी सिर्फ भारत में ही पाया जाता है।
इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर ने इस प्रजाति को विलुप्ति के खतरे के अंतर्गत रखा है। भारत सरकार द्वारा वन्य पशु सुरक्षा अधिनियम 1972 के अंतर्गत इसे पहली सूची में रखा गया है। शायद आप यह जानकर चौंक जाएं कि कच्छ के घुड़खर और इसी तरह की प्रजाति जिसे लद्दाख में किआंग के नाम से जाना जाता है, के नाम पर 2013 में डाक टिकट भी जारी किये जा चुके हैं जिस तरह की विशेषताएं इस जंगली गधे "घुड़खर" में हैं उनको देखते हुए यह किसी घोड़े से कम नहीं है। इस आधे घोड़े और आधे गधे में वे विशेषताएं हैं जिनका प्रचार सारे संसार में गर्व के साथ हो रहा है।

रविवार, 19 मार्च 2017

इंदिरा गाँधी की कडवी हकीकत




Indira Gandhi And Firoz Khan 

इस नालायक सरकार ने इंदिरा गाँधी को एक बहुत ही जिम्मेदार , ताकतवर और राष्ट्रभक्त महिला बताया हैं , चलिए इसकी कुछ कडवी हकीकत से मैं भी आज आपको रूबरू करवाता हूँ !!! इंदिरा प्रियदर्शिनीनेहरू राजवंश में अनैतिकता को नयी ऊँचाई पर पहुचाया. बौद्धिक इंदिरा को ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में भर्ती कराया गया था लेकिन वहाँ से जल्दी ही पढाई में खराब प्रदर्शन के कारण बाहर निकाल दी गयी. उसके बाद उनको शांतिनिकेतन विश्वविद्यालय में भर्ती कराया गया था, लेकिन गुरु देव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने उन्हें उसके दुराचरण के लिए बाहर कर दिया. शान्तिनिकेतन से बहार निकाल जाने के बाद इंदिरा अकेली हो गयी. राजनीतिज्ञ के रूप में पिता राजनीति के साथ व्यस्त था और मां तपेदिक के स्विट्जरलैंड में मर रही थी. उनके इस अकेलेपन का फायदा फ़िरोज़ खान नाम के व्यापारी ने उठाया.
फ़िरोज़ खान मोतीलाल नेहरु के घर पे मेहेंगी विदेशी शराब की आपूर्ति किया करता था. फ़िरोज़ खान और इंदिरा के बीच प्रेम सम्बन्ध स्थापित हो गए. महाराष्ट्र के तत्कालीन राज्यपाल डा. श्री प्रकाश नेहरू ने चेतावनी दी, कि फिरोज खान के साथ अवैध संबंध बना रहा था. फिरोज खान इंग्लैंड में तो था और इंदिरा के प्रति उसकी बहुत सहानुभूति थी. जल्द ही वह अपने धर्म का त्याग कर,एक मुस्लिम महिला बनीं और लंदन केएक मस्जिद में फिरोज खान से उसकी शादी हो गयी. इंदिरा प्रियदर्शिनी नेहरू ने नया नाम मैमुना बेगम रख लिया. उनकी मां कमला नेहरू इस शादी से काफी नाराज़ थी जिसके कारण उनकी तबियत और ज्यादा बिगड़ गयी. नेहरू भी इस धर्म रूपांतरण से खुश नहीं थे क्युकी इससे इंदिरा के प्रधानमंत्री बन्ने की सम्भावना खतरे में गयी. तो, नेहरू ने युवा फिरोज खान से कहा कि अपना उपनाम खान से गांधी कर लो. परन्तु इसका इस्लाम से हिंदू धर्म में परिवर्तन के साथ कोई लेना - देना नहीं था. यह सिर्फ एक शपथ पत्र द्वारा नाम परिवर्तन का एक मामला था. और फिरोज खान फिरोज गांधी बन गया है, हालांकि यह बिस्मिल्लाह शर्मा की तरह एक असंगत नाम है. दोनों ने ही भारत की जनता को मूर्ख बनाने के लिए नाम बदला था. जब वे भारत लौटे, एक नकली वैदिक विवाह जनता के उपभोग के लिए स्थापित किया गया था. इस प्रकार, इंदिरा और उसके वंश को काल्पनिक नाम गांधी मिला. नेहरू और गांधी दोनों फैंसी नाम हैं. जैसे एक गिरगिट अपना रंग बदलती है, वैसे ही इन लोगो ने अपनीअसली पहचान छुपाने के लिए नाम बदले. . के.एन. राव की पुस्तक "नेहरू राजवंश" (10:8186092005 ISBN) में यह स्पष्ट रूप से लिखा गया है संजय गांधी फ़िरोज़ गांधी का पुत्र नहीं था, जिसकी पुष्टि के लिए उस पुस्तक में अनेक तथ्यों कोसामने रखा गया है. उसमे यह साफ़ तौर पे लिखा हुआ है की संजय गाँधी एक और मुस्लिम मोहम्मद यूनुस नामक सज्जन का बेटा था. दिलचस्प बात यह है की एक सिख लड़की मेनका का विवाह भी संजय गाँधी के साथ मोहम्मद यूनुस के घरमें ही हुआ था. मोहम्मद यूनुस ही वह व्यक्ति था जो संजय गाँधी की विमान दुर्घटना के बाद सबसे ज्यादा रोया था. 'यूनुस की पुस्तक "व्यक्ति जुनून और राजनीति" (persons passions and politics )(ISBN-10: 0706910176) में साफ़ लिखा हुआ है की संजय गाँधी के जन्म के बाद उनका खतना पूरे मुस्लिम रीति रिवाज़ के साथ किया गया था. कैथरीन फ्रैंक की पुस्तक "the life of Indira Nehru Gandhi (ISBN: 9780007259304) में इंदिरा गांधी के अन्य प्रेम संबंधों के कुछ पर प्रकाश डाला है. यह लिखा है कि इंदिरा का पहला प्यार शान्तिनिकेतन में जर्मन शिक्षक के साथ था. बाद में वह एमओ मथाई, (पिता के सचिव) धीरेंद्र ब्रह्मचारी (उनके योग शिक्षक) के साथ और दिनेश सिंह (विदेश मंत्री) के साथ भी अपने प्रेम संबंधो के लिए प्रसिद्द हुई.पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह ने इंदिरा गांधी के मुगलों के लिए संबंध के बारे में एक दिलचस्परहस्योद्घाटन किया अपनी पुस्तक "profiles and letters " (ISBN: 8129102358) में किया. यह कहा गया है कि 1968 में इंदिरा गांधी भारत की प्रधानमंत्री के रूप में अफगानिस्तान की सरकारी यात्रा पर गयी थी . नटवरसिंह एक आईएफएस अधिकारी के रूप में इस दौरे पे गए थे. दिन भर के कार्यक्रमों के होने के बाद इंदिरा गांधी को शाम में सैर के लिए बाहर जाना था . कार में एक लंबी दूरी जाने के बाद,इंदिरा गांधी बाबर की कब्रगाह के दर्शन करना चाहती थी, हालांकि यह इस यात्रा कार्यक्रम में शामिल नहींकिया गया. अफगान सुरक्षा अधिकारियों ने उनकी इस इच्छा पर आपत्ति जताई पर इंदिरा अपनी जिद पर अड़ी रही . अंत में वह उस कब्रगाह पर गयी . यह एक सुनसान जगहथी. वह बाबर की कब्र पर सर झुका कर आँखें बंद करके कड़ी रही और नटवर सिंह उसके पीछे खड़े थे . जब इंदिरा ने उसकी प्रार्थना समाप्तकर ली तब वह मुड़कर नटवर से बोली "आज मैंने अपने इतिहास को ताज़ा कर लिया (Today we have had our brush with history ". यहाँ आपको यह बता दे की बाबर मुग़ल साम्राज्य का संस्थापक था, और नेहरु खानदान इसी मुग़ल साम्राज्य से उत्पन्न हुआ. इतने सालो से भारतीय जनता इसी धोखे मेंहै की नेहरु एक कश्मीरी पंडित था....जो की सरासर गलत तथ्य है..... इस तरह इन नीचो ने भारत में अपनी जड़े जमाई जो आज एक बहुत बड़े वृक्ष में तब्दील हो गया हैं , जिसकी महत्वाकांक्षी शाखाओ ने माँ भारती को आज बहुत जख्मी कर दिया हैं ,,यह मेरा एक प्रयास हैं आज ,,कि आज इस सोशल मीडिया के माध्यम से ही सही मगर हकीकत से रूबरू करवा सकू !!! ,,,बाकी देश के प्रति यदि आपकी भी कुछ जिम्मेदारी बनती हो , तो अबआप लोग '' निःशब्द '' ना बनियेगा ,, इसे फैला दीजिए हर घर में !!!