स्वच्छता अभियान के जनक संत गाडगे बाबा
राष्ट्र संत गाडगे महाराज का जन्म 23फरवरी1876 को प्रांत-महाराष्ट्र, जनपद-अमरावती, तहसील- अंजानगांव-सुर्जी, 40-दर्यापुर (SC) विधानसभा क्षेत्र के ग्राम - शेंडगांव में पिता झिंगराजी जाणोरकर और माता सखूबाई के घर धोबी जाति में हुआ था। बाबा गाडगे का पूरा नाम "देवीदास डेबूजी झिंगराजी जाणोकर" था। घर में उनके माता-पिता उन्हें प्यार से ‘डेबूजी’ कहते थे। डेबूजी हमेशा अपने साथ मिट्टी के मटके जैसा एक पात्र रखते थे। इसी में वे खाना भी खाते और पानी भी पीते थे। एक लकड़ी तथा मिटटी का बर्तन जिसे महाराष्ट्र में गाडगा (लोटा) कहा जाता है, इसी कारण कुछ लोग उन्हें 'गाडगे महाराज' तो कुछ लोग उन्हें 'गाडगे बाबा' कहने लगे और बाद में वे "संत गाडगे" के नाम से प्रसिद्ध हो गये। गाडगे बाबा का बचपन उनके मामा के यहाँ ग्राम - दापुरे, तहसील व 32-मुर्तिजापुर (SC) विधानसभा क्षेत्र, जनपद - अकोला में बीता, क्योंकि डेबूजी की आयु जब आठ वर्ष की थी तभी इनके पिताजी स्वर्ग सिधार गये थे इसलिए इनकी माताजी इन्हें लेकर अपने पिता के घर चली आयीं थी। अकोला व अमरावती दोनों जिले और अंजानगांव-सुर्जी व मुर्तिजापुर दोनों तहसीलें आस-पास ही हैं। दापुरे गांव के ही थनाजी खल्लारकर की बेटी कुंताबाई के साथ इनका विवाह हो गया। वह लोगों के साथ धार्मिक, सामाजिक समारोहों में जाते थे तो उन्हें समस्याएं ही समस्याएं नजर आती थीं। अब उन्हें लगने लगा कि अपने समाज के लिए कुछ न कुछ करना होगा, यह दर्द हमारा है तो इसका इलाज भी हमें ही करना होगा। हालांकि परिवार की जिम्मेदारी अपने कंधे पर होने के कारण वह उस ओर भी सोचते रहते और आखिरकार उन्होंने गौतम बुद्ध की भांति 29वर्ष की आयु में घर-परिवार त्याग दिया। गाडगे एक हाथ में लाठी दूसरे हाथ में भिक्षा पात्र लिए और शरीर पर फटे पुराने कपड़ों को गाँठ कर चीवर जैसा बनाकर पहन कर चल दिए।
जब वे किसी गाँव में प्रवेश करते थे तो वे तुरंत ही गटर और रास्तों को साफ़ करने लगते तथा काम खत्म होने के बाद वे खुद लोगो को गाँव के साफ़ होने की बधाई भी देते थे और फिर शाम को वहीं कीर्तन का आयोजन भी करते थे। गाँव के लोग उन्हें पैसे भी देते थे और बाबाजी उन पैसों का उपयोग सामाजिक और शारीरिक विकास करने में लगा देते थे। इस प्रकार उनके अनुयायियों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी। लोग उनके साथ जन सेवा में जुटने लगे थे। उन्होंने यात्रियों की सुविधा के लिए कुँए एवं तलाबों का निर्माण किया। मरीजों के लिए अस्पतालों तथा कुष्ठ रोगियों के लिए कुष्ठ आश्रमों का निर्माण करवाया। संत गाडगे मन्दिरों एवं मूर्ति पूजा के विरोधी थे। उन्होंने शिक्षा विकास के लिए अनेक आश्रम खोले। गाडगे बाबा ने ब्राह्मण, साधू, सन्तों, पण्डितों, महंतों के धार्मिक पाखण्ड की तार्किक ज्ञान से धज्जियाँ उड़ा दी। वह खुद के बारे में कहते थे कि "मेरा कोई शिष्य भी नहीं है और मैं किसी का गुरु भी नही हूँ सब स्व्यं शिष्य हैं और स्व्यं के गुरु हैं।" जिन तथाकथित धार्मिक स्थलों पर बकरे, मूर्गे, भैंसे कटते थे बाबा ने इससे हटकर 'जीवदया' नामक संस्थाओं की स्थापना की शुरुआत की। वह मंदिर मूर्ति के बजाय जन कल्याण, समाज व विकास के लिए शिक्षा के विद्या मंदिरों में विश्वास करते थे। ईश्वर, आत्मा, पुनर्जन्म, ब्राह्मधाम आदि बेकार की बातों पर उनका विश्वास नहीं था। बाबा के प्रमुख अनुयायियों ने संस्थाओं में अनुशासन बनाये रखने एवं बाबा के मिशन को तीव्रगति से चहुंओर फैलाने के उद्देश्य से 08फरवरी 1952 को गाडगे मिशन की स्थापना की। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री श्री बी.जी. खेर ने बाबा की सभी संस्थाओं का एक ट्रस्ट बना दिया, जिसमें करीब 60 संस्थाएं है। आज भी यह मिशन जनसेवा को समर्पित है। वह सदैव बाल विवाह, विधवाओ का मुंडन, दिखावटी के लिए फिजूलखर्ची सहित कुप्रथाओं को रोकने के लिए प्रयासरत रहते, वे अपने कीर्तनो में कहते कि उंच-नीच, अमीर-गरीब, काला-गोरा सब मनुष्य की सोच का नतीजा है इसलिए हमें यथाशीघ्र सामाजिक ढांचे में परिवर्तन करना चाहिए जिससे कि मानवता का विकास संभव हो सके। वे शिक्षा को मनुष्य की अपरिहार्य आवश्यकता के रूप में प्रतिपादित करते थे। अपने कीर्तन के माध्यम से शिक्षा की महत्ता पर प्रकाश डालते हुये वे कहते थे ”शिक्षा बड़ी चीज है. पैसे की तंगी हो तो खाने के बर्तन बेच दो, औरत के लिये कम दाम के कपड़े खरीदो। टूटे-फूटे मकान में रहो पर बच्चों को शिक्षा दिये बिना न रहो।” बाबा ने अपने जीवनकाल में लगभग 60 संस्थाओं की स्थापना की और उनके बाद उनके अनुयायियों ने लगभग 42 संस्थाओं का निर्माण कराया। उन्होनें कभी किसी मन्दिर का निर्माण नहीं कराया अपितु दीनहीन, उपेक्षित एवं साधनहीन मानवता के लिये स्कूल, धर्मशाला, गौशाला, छात्रावास, अस्पताल, परिश्रमालय, वृद्धाश्रम आदि का निर्माण कराया। उन्होंने अपने हाथ में कभी किसी से दान का पैसा नहीं लिया। दानदाता से कहते थे दान देना है तो अमुक स्थान पर संस्था में दे आओ। संत गाडगे महाराज की कीर्तन शैली अपने आप में बेमिसाल थी। वे संतों के वचन सुनाया करते थे। विशेष रूप से कबीर, संत तुकाराम, संत ज्ञानेश्वर आदि के काव्यांश जनता को सुनाते थे। हिंसाबंदी, शराबबंदी, अस्पृश्यता निवारण, पशुबलि प्रथा आदि उनके कीर्तन के विषय हुआ करते थे।
बाबा अपने अनुयायिययों से सदैव यही कहते थे कि मेरी जहां मृत्यु हो जाय, वहीं पर मेरा अंतिम संस्कार कर देना, मेरी मूर्ति, मेरी समाधि, मेरा स्मारक, मेरा मन्दिर नहीं बनाना। मैने जो कार्य किया है, वही मेरा सच्चा स्मारक है। जब बाबा की तबियत खराब हुई तो चिकित्सकों ने उन्हें अमरावती ले जाने की सलाह दी किन्तु वहां पहुचने से पहले ही 39-तिवसा विधानसभा क्षेत्र में स्थित वलगांव के पास पिढ़ी नदी के किनारे रात्रि 20दिसम्बर 1956 को उनकी जीवन ज्योति समाप्त हो गयी। उनके परिनिर्वाण की खबर आग की तरह पूरे महाराष्ट्र में फैल गयी। उनके चाहने वाले हजारों अनुयायियों ने उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की और उनकी अन्तिम यात्रा में सम्मिलित हुए। जहां बाबा का अन्तिम संस्कार किया गया, आज वह स्थान गाडगे नगर के नाम से जाना जाता है। वे ऐसे निष्काम सच्चे कर्मयोगी थे जिन्होंने महाराष्ट्र के कोने-कोने में कई धर्मशालाएँ, गौशालाएँ, विद्यालय, चिकित्सालय तथा छात्रावासों का निर्माण कराया किंतु अपने सारे जीवन में इस महापुरुष ने अपने लिए एक कुटिया तक नहीं बनवाई और यह सब उन्होंने भीख मांग-मांग कर बनवाये थे। उनकी मृत्यु के बाद अंतर्राष्ट्रीय श्रम दिवस व महाराष्ट्र स्थापना दिवस (01.05.1960) के अवसर पर 01मई1983 को महाराष्ट्र सरकार ने नागपुर विश्व विद्यालय को विभाजित करते हुए इसके कुछ संसाधनों द्वारा 'संत गाडगे बाबा अमरावती विश्वविद्यालय' की स्थापना की और उनकी 42वीं पुण्यतिथि के अवसर पर 20दिसम्बर 1998 को भारत सरकार ने उनके सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया तथा उन्हें सम्मान देते हुए महाराष्ट्र सरकार ने 2000-01 में “संत गाडगेबाबा ग्राम स्वच्छता अभियान” की शुरुअात की, जो ग्रामवासी अपने गाँवों को स्वच्छ रखते है उन्हें यह पुरस्कार दिया जाता है।
राष्ट्र संत गाडगे महाराज का जन्म 23फरवरी1876 को प्रांत-महाराष्ट्र, जनपद-अमरावती, तहसील- अंजानगांव-सुर्जी, 40-दर्यापुर (SC) विधानसभा क्षेत्र के ग्राम - शेंडगांव में पिता झिंगराजी जाणोरकर और माता सखूबाई के घर धोबी जाति में हुआ था। बाबा गाडगे का पूरा नाम "देवीदास डेबूजी झिंगराजी जाणोकर" था। घर में उनके माता-पिता उन्हें प्यार से ‘डेबूजी’ कहते थे। डेबूजी हमेशा अपने साथ मिट्टी के मटके जैसा एक पात्र रखते थे। इसी में वे खाना भी खाते और पानी भी पीते थे। एक लकड़ी तथा मिटटी का बर्तन जिसे महाराष्ट्र में गाडगा (लोटा) कहा जाता है, इसी कारण कुछ लोग उन्हें 'गाडगे महाराज' तो कुछ लोग उन्हें 'गाडगे बाबा' कहने लगे और बाद में वे "संत गाडगे" के नाम से प्रसिद्ध हो गये। गाडगे बाबा का बचपन उनके मामा के यहाँ ग्राम - दापुरे, तहसील व 32-मुर्तिजापुर (SC) विधानसभा क्षेत्र, जनपद - अकोला में बीता, क्योंकि डेबूजी की आयु जब आठ वर्ष की थी तभी इनके पिताजी स्वर्ग सिधार गये थे इसलिए इनकी माताजी इन्हें लेकर अपने पिता के घर चली आयीं थी। अकोला व अमरावती दोनों जिले और अंजानगांव-सुर्जी व मुर्तिजापुर दोनों तहसीलें आस-पास ही हैं। दापुरे गांव के ही थनाजी खल्लारकर की बेटी कुंताबाई के साथ इनका विवाह हो गया। वह लोगों के साथ धार्मिक, सामाजिक समारोहों में जाते थे तो उन्हें समस्याएं ही समस्याएं नजर आती थीं। अब उन्हें लगने लगा कि अपने समाज के लिए कुछ न कुछ करना होगा, यह दर्द हमारा है तो इसका इलाज भी हमें ही करना होगा। हालांकि परिवार की जिम्मेदारी अपने कंधे पर होने के कारण वह उस ओर भी सोचते रहते और आखिरकार उन्होंने गौतम बुद्ध की भांति 29वर्ष की आयु में घर-परिवार त्याग दिया। गाडगे एक हाथ में लाठी दूसरे हाथ में भिक्षा पात्र लिए और शरीर पर फटे पुराने कपड़ों को गाँठ कर चीवर जैसा बनाकर पहन कर चल दिए।
जब वे किसी गाँव में प्रवेश करते थे तो वे तुरंत ही गटर और रास्तों को साफ़ करने लगते तथा काम खत्म होने के बाद वे खुद लोगो को गाँव के साफ़ होने की बधाई भी देते थे और फिर शाम को वहीं कीर्तन का आयोजन भी करते थे। गाँव के लोग उन्हें पैसे भी देते थे और बाबाजी उन पैसों का उपयोग सामाजिक और शारीरिक विकास करने में लगा देते थे। इस प्रकार उनके अनुयायियों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी। लोग उनके साथ जन सेवा में जुटने लगे थे। उन्होंने यात्रियों की सुविधा के लिए कुँए एवं तलाबों का निर्माण किया। मरीजों के लिए अस्पतालों तथा कुष्ठ रोगियों के लिए कुष्ठ आश्रमों का निर्माण करवाया। संत गाडगे मन्दिरों एवं मूर्ति पूजा के विरोधी थे। उन्होंने शिक्षा विकास के लिए अनेक आश्रम खोले। गाडगे बाबा ने ब्राह्मण, साधू, सन्तों, पण्डितों, महंतों के धार्मिक पाखण्ड की तार्किक ज्ञान से धज्जियाँ उड़ा दी। वह खुद के बारे में कहते थे कि "मेरा कोई शिष्य भी नहीं है और मैं किसी का गुरु भी नही हूँ सब स्व्यं शिष्य हैं और स्व्यं के गुरु हैं।" जिन तथाकथित धार्मिक स्थलों पर बकरे, मूर्गे, भैंसे कटते थे बाबा ने इससे हटकर 'जीवदया' नामक संस्थाओं की स्थापना की शुरुआत की। वह मंदिर मूर्ति के बजाय जन कल्याण, समाज व विकास के लिए शिक्षा के विद्या मंदिरों में विश्वास करते थे। ईश्वर, आत्मा, पुनर्जन्म, ब्राह्मधाम आदि बेकार की बातों पर उनका विश्वास नहीं था। बाबा के प्रमुख अनुयायियों ने संस्थाओं में अनुशासन बनाये रखने एवं बाबा के मिशन को तीव्रगति से चहुंओर फैलाने के उद्देश्य से 08फरवरी 1952 को गाडगे मिशन की स्थापना की। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री श्री बी.जी. खेर ने बाबा की सभी संस्थाओं का एक ट्रस्ट बना दिया, जिसमें करीब 60 संस्थाएं है। आज भी यह मिशन जनसेवा को समर्पित है। वह सदैव बाल विवाह, विधवाओ का मुंडन, दिखावटी के लिए फिजूलखर्ची सहित कुप्रथाओं को रोकने के लिए प्रयासरत रहते, वे अपने कीर्तनो में कहते कि उंच-नीच, अमीर-गरीब, काला-गोरा सब मनुष्य की सोच का नतीजा है इसलिए हमें यथाशीघ्र सामाजिक ढांचे में परिवर्तन करना चाहिए जिससे कि मानवता का विकास संभव हो सके। वे शिक्षा को मनुष्य की अपरिहार्य आवश्यकता के रूप में प्रतिपादित करते थे। अपने कीर्तन के माध्यम से शिक्षा की महत्ता पर प्रकाश डालते हुये वे कहते थे ”शिक्षा बड़ी चीज है. पैसे की तंगी हो तो खाने के बर्तन बेच दो, औरत के लिये कम दाम के कपड़े खरीदो। टूटे-फूटे मकान में रहो पर बच्चों को शिक्षा दिये बिना न रहो।” बाबा ने अपने जीवनकाल में लगभग 60 संस्थाओं की स्थापना की और उनके बाद उनके अनुयायियों ने लगभग 42 संस्थाओं का निर्माण कराया। उन्होनें कभी किसी मन्दिर का निर्माण नहीं कराया अपितु दीनहीन, उपेक्षित एवं साधनहीन मानवता के लिये स्कूल, धर्मशाला, गौशाला, छात्रावास, अस्पताल, परिश्रमालय, वृद्धाश्रम आदि का निर्माण कराया। उन्होंने अपने हाथ में कभी किसी से दान का पैसा नहीं लिया। दानदाता से कहते थे दान देना है तो अमुक स्थान पर संस्था में दे आओ। संत गाडगे महाराज की कीर्तन शैली अपने आप में बेमिसाल थी। वे संतों के वचन सुनाया करते थे। विशेष रूप से कबीर, संत तुकाराम, संत ज्ञानेश्वर आदि के काव्यांश जनता को सुनाते थे। हिंसाबंदी, शराबबंदी, अस्पृश्यता निवारण, पशुबलि प्रथा आदि उनके कीर्तन के विषय हुआ करते थे।
बाबा अपने अनुयायिययों से सदैव यही कहते थे कि मेरी जहां मृत्यु हो जाय, वहीं पर मेरा अंतिम संस्कार कर देना, मेरी मूर्ति, मेरी समाधि, मेरा स्मारक, मेरा मन्दिर नहीं बनाना। मैने जो कार्य किया है, वही मेरा सच्चा स्मारक है। जब बाबा की तबियत खराब हुई तो चिकित्सकों ने उन्हें अमरावती ले जाने की सलाह दी किन्तु वहां पहुचने से पहले ही 39-तिवसा विधानसभा क्षेत्र में स्थित वलगांव के पास पिढ़ी नदी के किनारे रात्रि 20दिसम्बर 1956 को उनकी जीवन ज्योति समाप्त हो गयी। उनके परिनिर्वाण की खबर आग की तरह पूरे महाराष्ट्र में फैल गयी। उनके चाहने वाले हजारों अनुयायियों ने उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की और उनकी अन्तिम यात्रा में सम्मिलित हुए। जहां बाबा का अन्तिम संस्कार किया गया, आज वह स्थान गाडगे नगर के नाम से जाना जाता है। वे ऐसे निष्काम सच्चे कर्मयोगी थे जिन्होंने महाराष्ट्र के कोने-कोने में कई धर्मशालाएँ, गौशालाएँ, विद्यालय, चिकित्सालय तथा छात्रावासों का निर्माण कराया किंतु अपने सारे जीवन में इस महापुरुष ने अपने लिए एक कुटिया तक नहीं बनवाई और यह सब उन्होंने भीख मांग-मांग कर बनवाये थे। उनकी मृत्यु के बाद अंतर्राष्ट्रीय श्रम दिवस व महाराष्ट्र स्थापना दिवस (01.05.1960) के अवसर पर 01मई1983 को महाराष्ट्र सरकार ने नागपुर विश्व विद्यालय को विभाजित करते हुए इसके कुछ संसाधनों द्वारा 'संत गाडगे बाबा अमरावती विश्वविद्यालय' की स्थापना की और उनकी 42वीं पुण्यतिथि के अवसर पर 20दिसम्बर 1998 को भारत सरकार ने उनके सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया तथा उन्हें सम्मान देते हुए महाराष्ट्र सरकार ने 2000-01 में “संत गाडगेबाबा ग्राम स्वच्छता अभियान” की शुरुअात की, जो ग्रामवासी अपने गाँवों को स्वच्छ रखते है उन्हें यह पुरस्कार दिया जाता है।
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