मुसलमान: देश में
कम, जेल में ज्यादा
संतोष कुमार/मो.
वकास/दिलीप मंडल
नई दिल्ली, 18 दिसम्बर
2012
अगर
आप भारत में मुसलमान हैं तो इस बात का अंदेशा अधिक है कि आप जेल में होंगे, लगभग
दोगुना ज्यादा. अगर आप किसी सेकुलर पार्टी के शासन वाली सरकार में रह रहे हैं तो
सुरक्षित महसूस करने का आपके लिए कोई कारण नहीं है. इंडिया टुडे की लगभग चार महीने
की पड़ताल, सूचना के अधिकार कानून के तहत 30 से ज्यादा जेलों से जुटाए गए आंकड़े
और केंद्रीय गृह मंत्रालय के सीधे अधीन काम करने वाली संस्था—राष्ट्रीय अपराध
रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों से जाहिर होता है कि मुसलमानों को जेल भेजने
के मामले में सेकुलर-कम्युनल सरकारों का भेद नहीं है. बे समय तक लेफ्ट फ्रंट का
गढ़ रहे पश्चिम बंगाल में हर चौथा व्यक्ति मुसलमान है, पर वहां भी जेलों में लगभग
आधे कैदी मुसलमान हैं. बंगाल में कभी किसी सांप्रदायिक पार्टी का राज नहीं
रहा. यही नहीं, महाराष्ट्र में हर तीसरा तो उत्तर प्रदेश में हर चौथा कैदी मुसलमान
है. यह स्थिति ठीक वैसी है जैसी अमेरिकी जेल में अश्वेत कैदियों की है. अमेरिकी
जेलों में कैद 23 लाख लोगों में आधे अश्वेत हैं जबकि अमेरिकी आबादी में उनका
हिस्सा सिर्फ 13 फीसदी है. जम्मू-कश्मीर, पुडुचेरी और सिक्किम के अलावा देश के
अमूमन हर सूबे में मुसलमानों की जितनी आबादी है, उससे अधिक अनुपात में मुसलमान जेल
में हैं. 2001 की जनगणना के मुताबिक, देश में मुस्लिम आबादी 13.4 फीसदी थी और
दिसंबर, 2011 के एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक, जेल में मुसलमानों की संख्या
करीब 21 फीसदी है. तृणमूल कांग्रेस कोटे से यूपीए सरकार में राज्यमंत्री रहे
मौजूदा सांसद सुल्तान अहमद कहते हैं, ''हम लोग खुद को अल्पसंख्यक कहते हैं लेकिन
जेल में हम बहुसंख्यक हैं. यह हमारे देश और समाज के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है.” जैसा
कि राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के चेयरमैन वजाहत हबीबुल्लाह कहते हैं, ''जब मैं
(राजीव गांधी के समय) पीएमओ में था, तब भी यह सवाल आया था, पर इस बारे में अभी तक
अध्ययन नहीं हुआ है कि मुसलमानों के साथ ऐसा क्यों हो रहा है.”
सूचना के अधिकार के तहत
मिली जानकारी के मुताबिक, 2 सितंबर 2012 की सुबह तक अलीपुर सेंट्रल जेल में बंद
1,222 विचाराधीन कैदियों में 530 मुसलमान हैं. यूपी के गाजियाबाद जेल के विचाराधीन
2,200 कैदियों में 720 मुसलमान थे. अन्य जेलों से मिले आंकड़े भी चौंकाने वाले हैं,
जिसे राज्यवार संकलित किया गया है. इसी साल महाराष्ट्र की जेलों में किए गए टाटा
इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (टीआइएस) के अध्ययन से मुसलमानों को लेकर पुलिस और
न्याय व्यवस्था का पूर्वाग्रह जाहिर होता है.
अध्ययन में शामिल किए गए
ज्यादातर कैदियों का आतंकवाद या संगठित अपराध से वास्ता नहीं था. उनमें ज्यादातर
(71.9 फीसदी) आपसी विवाद में उलझे थे और पहली बार मामूली अपराध के आरोप में जेल
जाने वालों की संख्या 75.5 फीसदी थी. अल्पसंख्यक मामलों के केंद्रीय मंत्री के.
रहमान खान कहते हैं, ''ज्यादातर मुसलमान मामूली जुर्म में बंद होते हैं. उन्हें
कानूनी सहायता नहीं मिलती और मुफ्त कानूनी सहायता के बारे में मालूमात नहीं होते.
शहरी-ग्रामीण क्षेत्र में उनके पास पॉलिटिकल पावर नहीं रहती”. लखनऊ जिला जेल के
अधीक्षक डी.आर. मौर्य खान से सहमति जताते हैं, ''जेल में बंद करीब 90 फीसदी मुस्लिम
कैदियों पर नशे का व्यापार करने, चोरी, लूट जैसे मामले चल रहे हैं. गंभीर अपराधों
में बंद मुसलमानों की संख्या काफी कम है.”
किस जुर्म की सजा? मेरठ की जिला अदालत में
रोजाना चक्कर लगाने वाली 51 वर्षीय अफरोज ने युवावस्था की दहलीज पर कदम रख रहे
अपने दोनों बेटों—नूर आलम कुरैशी और शाह आलम कुरैशी के लिए जमीन खरीदी, जिसका सौदा
बिचौलिए भूरा ने कराया. भूरा ने अफरोज के लिए जमीन का सौदा घोसीपुर निवासी
जयप्रकाश से 1.40 लाख रु. में कराया, लेकिन भूरा कथित तौर पर पैसा लेकर भाग गया और
जयप्रकाश ने जमीन देने से इनकार कर दिया. अफरोज ने जिला कलेक्टर को लिखित में भूरा
और जयप्रकाश के खिलाफ शिकायत की. इसके दो दिन बाद ही भूरा के भाई फरीद ने अफरोज के
दोनों बेटों के खिलाफ अपने भाई के अपहरण की शिकायत दर्ज करा दी, हालांकि फरीद ने
डीआइजी दफ्तर को हलफनामा देकर माना कि भूरा शातिर अपराधी है और अफरोज के बेटों का
कोई कसूर नहीं है. हाइकोर्ट ने अन्य मामले में भूरा को पेश करने के आदेश दिए, तो
पुलिस ने फरीद को पकड़ा लेकिन उसने अपनी जान बचाने के लिए भूरा के अपहरण का आरोप
दोहरा दिया. इसके बाद पुलिस ने अफरोज के बेटे 17 वर्षीय नूर आलम को गिरफ्तार कर
जेल में डाल दिया. अफरोज कहती हैं, ''14 साल पहले शौहर की मौत हो गई. बच्चों को
नहीं पढ़ा पाई, अब सोचा था कि जमीन लेकर बच्चे कुछ काम कर लेंगे. लेकिन हमारे पास
कुछ नहीं बचा.” अफरोज का केस लड़ रहे मेरठ कोर्ट में वकील विसाल अहमद कहते
हैं, ''अफरोज को जमीन भी नहीं मिली, पैसा भी गया और बेटा मुल्जिम बन गया.” यह
मामला उस राज्य की पुलिस की कार्यशैली की ओर इशारा करता है जो 1980-90 के
दशक में सांप्रदायिकता की आंच से खुद को नहीं बचा पाई. पुलिस और न्याय प्रणाली की
उपेक्षा का जिक्र करते हुए जेएनयू के प्रोफेसर और समाजशास्त्री आनंद कुमार कहते
हैं, ''पुलिस और न्याय व्यवस्था में अल्पसंख्यकों के खिलाफ सामान्य पूर्वाग्रह है.
आंकड़ों से साफ है कि राजनैतिक विचारधारा से बहुत फर्क नहीं पड़ता है और हर पार्टी
की सरकारें मुसलमानों को गिरफ्तार करने या सजा दिलाने में आगे हैं.” वे सामाजिक-आर्थिक-शैक्षिक
पिछड़ापन को मुसलमानों के जेल में ज्यादा होने की एक अहम वजह मानते हैं. पुलिस की
गिरफ्त में ज्यादातर ऐसे ही लोग फंसते हैं जो कानूनी बचाव करने में सक्षम नहीं
हैं. वे कहते हैं कि संसद पर हमले में अभियुक्त बनाए गए दिल्ली यूनिवर्सिटी के
प्रोफेसर गिलानी जैसे शिक्षित और सक्षम लोगों को भी खुद को निर्दोष साबित करने में
10 साल लग गए.
सबसे बड़ा सवाल: आखिर
क्यों? जाहिर
है, मुसलमानों के इतने बड़े पैमाने पर जेल में होने की वजह जानने के लिए
समाजशास्त्रीय अध्ययनों की कमी है, फिर भी कुछ वजहों पर आम सहमति दिखती है: पुलिस
और न्यायतंत्र का पूर्वाग्रह, गरीबी, अशिक्षा और राजनैतिक व्यवस्था में रसूख की
कमी. बीएसएफ के पूर्व महानिदेशक प्रकाश सिंह कहते हैं, ''मुस्लिम आधुनिक शिक्षा
लेंगे नहीं लेंगे, मदरसे में ही पढऩे जाएंगे और फिर कहेंगे हमारे लोग आइएएस नहीं
बनते, पुलिस में कम हैं. बाद में पुलिस पर आरोप लगाएंगे.” मुसलमानों के जेल में
होने की वजह पर सीपीएम नेता और पूर्व सांसद मोहम्मद सलीम ने पिछली लोकसभा में
सांसद रहते हुए एक सवाल पूछा था, देश में ऐसे कितने लोग हैं जो 10 लाख रु. का इनकम
टैक्स रिटर्न भरते हैं और किसी मुकदमे में दोषी साबित हुए हैं? बकौल सलीम, उन्हें
जवाब मिला था, कोई नहीं. वे कहते हैं, ''जो व्यक्ति या समाज पावरफुल है और पुलिस,
प्रॉसीक्यूशन, वकील खरीदने की क्षमता रखता है उसकी सुनवाई हर जगह होती है. लेकिन
दुर्भाग्य से मुस्लिम समाज ऐसा नहीं कर पाता.” महाराष्ट्र की जेलों में किए गए
टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (टीआइएसएस) के अध्ययन से पता चला कि 58 फीसदी
कैदी या तो अनपढ़ या फिर प्राइमरी पास थे. 43.6 फीसदी कैदियों की हालत ऐसी नहीं थी
कि अपने लिए वकील रख सकें. 61 फीसदी को यह पता नहीं था कि जेल में कोई एनजीओ है,
जिनसे वे मदद मांग सकते हैं. इस समाज के जेल में ज्यादा होने पर जमीयत
उलेमा-ए-हिंद के महासचिव मौलाना महमूद मदनी की दलील है, ''समाज में तालीम की कमी,
पिछड़ापन ज्यादा है. खुद सच्चर कमेटी ने भी माना है कि मुसलमानों की स्थिति दलितों
से भी बदतर है.” वहीं, जामिया टीचर्स सॉलिडेरिटी एसोसिएशन (जेटीएसए) की मनीषा सेठी
का मानना है कि अन्य बातों के अलावा इसमें सहानुभूति न रखने वाले न्यायाधीशों और
ऐसी जमानत व्यवस्था का भी योगदान है, जो केवल धन-दौलत वालों का ही पक्ष लेती है. यह
स्थिति तब है जब आइपीसी की धारा 436 और 436 ए में इस बात का साफ प्रावधान है कि
कोई भी विचाराधीन कैदी अगर अपने ऊपर लगे जुर्म में होने वाली सजा की आधी अवधि पूरी
कर चुका हो तो उसे निजी बांड पर जमानत दी जानी चाहिए. यूपी के डासना जेल के
अधीक्षक वीरेश राज शर्मा कहते हैं, ''जेल प्रशासन और न्यायालय अब सचेत है. जबसे यह
धारा अमल में आई है, जेलों में ऐसी स्थिति नहीं है कि छोटे-मोटे जुर्म में लोग
वर्षों सलाखों के पीछे सिर्फ इसलिए रहें कि कोई जमानत देने वाला नहीं है.” शर्मा
के दावे को मान लिया जाए तो जिन मामलों में लंबे समय बाद कोर्ट बरी कर देता है,
उसमें पुलिस-प्रशासन की जिम्मेदारी कौन तय करेगा? नेता और मंत्री हर बार इस तरह की
कार्रवाई से पुलिस का मनोबल गिरने का बहाना बनाते हैं. हबीबुल्लाह कहते हैं,
''हैदराबाद में 22 केस ऐसे थे, जिसमें कोर्ट ने मनगढ़ंत करार देते हुए लोगों के
साथ नाइंसाफी बताया. मैंने इस मामले में आंध्र के सीएम किरण कुमार रेड्डी से दोषी
पुलिसवालों पर कार्रवाई की मांग की, तो उन्होंने पुलिस के अनुशासन पर खराब असर
पडऩे की बात कही.” अगर सच्चर कमेटी की सिफारिशों पर अमल किया जाता तो पुलिस को
मुस्लिम मानस के आकलन में आसानी होती और उसके मनोबल गिरने की नौबत नहीं आती. कमेटी
ने पुलिस फोर्स में मुसलमानों की संख्या बढ़ाने और मुस्लिम बहुल इलाकों में
मुसलमान पुलिस अफसरों की नियुक्ति की सिफारिश की थी. जस्टिस सच्चर कहते हैं,
''दिल्ली में सेकुलर सरकार है, लेकिन दिल्ली पुलिस में अब भी सिर्फ दो फीसदी
मुसलमान हैं’’ (देखें बॉक्स: सेकुलर सरकारें जवाब दें). गृह मंत्रालय के मुताबिक,
देश में 16.6 लाख पुलिस फोर्स में 1.08 लाख मुसलमान हैं, यानी उनका करीब 6 फीसदी
प्रतिनिधित्व है. लेकिन हकीकत यह है कि उनमें से करीब आधे (46,250) जम्मू-कश्मीर
में हैं.
आतंकवाद के नाम पर कहर दिल्ली के मोहम्मद
आमिर खान का मामला व्यवस्था के पूर्वाग्रह और निष्ठुरता की कहानी कहता है. दिसंबर,
1996 और अक्तूबर, 1997 में दिल्ली, रोहतक, सोनीपत और गाजियाबाद में करीब 20 देसी
बम विस्फोटों के आरोप में गिरफ्तार तब 18 वर्षीय आमिर को 14 साल बाद अदालत ने रिहा
कर दिया. लेकिन इन वर्षों में उनकी दुनिया उजड़ गई. गिरफ्तारी के तीन साल बाद
वालिद हाशिम खान समाज के बहिष्कार और न्याय की आस छोड़कर दुनिया से चल बसे, तो दशक
भर की लड़ाई के बाद 2008-09 में आखिर आमिर की मां की हिम्मत भी जवाब दे गई. वे
लकवाग्रस्त हो गईं. इसी साल जनवरी में जेल से रिहा आमिर कहते हैं, ''आज भी अपनी
वालिदा के मुंह से 'बेटा’ शब्द सुनने को तरसता हूं.” मुस्लिम युवाओं पर जुल्म
के मामले में सीपीएम महासचिव प्रकाश करात के नेतृत्व में एक प्रतिनिधि मंडल ने 17
नवंबर को राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से भी मुलाकात कर 22 मुसलमानों के वर्षों बाद
कोर्ट से बरी होने का जिक्र करते हुए एक ज्ञापन भी सौंपा. इस प्रतिनिधिमंडल में
शामिल आमिर ने बताया, ''मैंने राष्ट्रपति महोदय से कहा कि हम अतीत को भूलना चाहते
हैं और बेहतर भविष्य बनाना चाहते हैं, जिसमें आपके सहयोग की जरूरत है.” करात
कहते हैं, ''पुलिस-प्रशासन मुसलमानों के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित है. जब
भी कोई वारदात होती है, मुस्लिम युवाओं को पकड़ा जाता है.” उत्तर प्रदेश के
अल्पसंख्यक कल्याण मामलों के मंत्री आजम खान भी मानते हैं, ''कई निर्दोष
मुस्लिम युवकों को आतंकवादी बताकर जेल में ठूंस दिया गया है. यही नहीं सांप्रदायिक
दंगों में भी सबसे ज्यादा यही तबका पीडि़त हुआ है. मुसलमान ही दंगों में मारे जा
रहे हैं और पुलिस इन्हीं लोगों को आरोपी बनाकर जेल में बंद कर रही है.” लेकिन इसे
रोकने के लिए अभी तक कोई ठोस उपाय नहीं किए गए हैं. प्रकाश सिंह मानते हैं,
''पुलिस से भी गलती हो सकती है, लेकिन पूरा तंत्र ही गलत है ऐसा नहीं कह सकते.
पुलिस में भी कुछ खराब लोग हो सकते हैं, इसका मतलब यह नहीं कि हर मामले में पुलिस
को निशाना बनाया जाए.” कई मामलों में शिक्षित मुस्लिम युवा सिर्फ अपने समुदाय की
वजह से पुलिसिया जुल्म का शिकार हो जाता है. मध्य प्रदेश के खंडवा के 68 वर्षीय
अब्दुल वकील खुद के परिवार को सिमी के नाम पर प्रताडि़त मानते हैं. उनके छोटे बेटे
मोहम्मद अजहर को सिमी का आतंकी बता महाराष्ट्र पुलिस ने औरंगाबाद में 26 मार्च,
2012 को एनकाउंटर में मार डाला. अजहर की वालिदा अखलाक बी की आंखें भर आती हैं,
''अजहर इंदौर से कंप्यूटर हार्डवेयर का कोर्स करके नौकरी की तलाश में एक कंपनी का
इंटरव्यू देने औरंगाबाद गया था, इसके बाद उन्हें तो बस खंडवा पुलिस से यह सूचना भर
मिली कि उनका बेटा एनकाउंटर में मारा गया है.” इस परिवार को नहीं मालूम कि बेटे
अजहर का अपराध क्या था. पिता की सीबीआइ जांच की गुहार आज तक नहीं सुनी गई, उल्टे
पुलिस ने अब्दुल वकील के दो और बेटों रकीब और राशिद को भी 12 मई 2012 को पूछताछ के
लिए उठा लिया और सिमी का बताकर जेल भेज दिया. शहर काजी सैय्यद अंसार अली कहते हैं,
''मुसलमानों के प्रति पुलिस ज्यादती के चलते ही जेलों में उनकी संख्या बढ़ी है.
सरकार किसी भी पार्टी की रही, मुसलमान हमेशा प्रताडि़त किए गए.” सिमी के नाम पर
युवाओं को गिरफ्तार करने की पुलिस की कार्रवाई पर अदालतें कई बार नाराजगी भी जाहिर
कर चुकी हैं. इसी साल सुप्रीम कोर्ट को गुजरात पुलिस को यह हिदायत देनी पड़ी, ''यह
सुनिश्चित करें कि किसी निर्दोष को यह दंश न झेलना पड़े कि 'मेरा नाम खान है,
लेकिन मैं आतंकवादी नहीं हूं.” गौरतलब है कि राज्य में पोटा में 280 लोगों को
गिरफ्तार किया गया, जिनमें 279 मुसलमान थे. यही नहीं, पोटा और टाडा में सबूत पेश
करने के शॉर्टकट के बावजूद, इन मामलों मे सजा पाने की दर नगण्य रही है. टाडा के
तहत गिरफ्तार केवल 1.5 प्रतिशत को सजा मिली. पोटा का रिकॉर्ड तो और खराब है: 1,031
गिरफ्तार लोगों में से केवल 13 लोगों को ही सजा मिली.
पूर्वाग्रह या सच का सामना? पूर्व ओलंपियन हॉकी
खिलाड़ी और पूर्व केंद्रीय मंत्री असलम शेर खान कहते हैं, ''मध्य प्रदेश की बीजेपी
सरकार मुसलमानों के प्रति बेहद कठोर है और उन्हें ज्यादा संख्या में जेल भेजकर
चुनावी लाभ के लिए उनकी गरीबी-पिछड़ेपन की कहानी बुनती है.” इस बारे में राजनैतिक
ईमानदारी से कबूलनामा मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के राष्ट्रीय
महासचिव दिग्विजय सिंह का है. वे कहते हैं, ''अपने खिलाफ हो रहे पुलिसिया जुल्म को
लेकर यदि मुसलमान बेबस महसूस कर रहे हैं तो यह कांग्रेस की भी कमजोरी है.” लेकिन शिवराज
सिंह चौहान सरकार में अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री अजय विश्नोई कहते हैं, ''एक रात
में चीजें नहीं बदल सकतीं, लेकिन हमारे प्रयास से बदलाव महसूस हो रहा है. देश में
किसी भी समूह के अपराध के पीछे गरीबी और निरक्षरता वजह है, जब यह समस्या खत्म
होगी, आमूलचूल बदलाव दिख जाएगा.” हालांकि प्रकाश सिंह इंडिया टुडे से कहते हैं,
''पुलिस किसी को गिरफ्तार करती है तो उसका नस्ल, जाति-धर्म नहीं देखती. अगर कोई
आतंकवादी वारदात में पकड़ा जाए तो क्या हम पहले उसकी नस्ल पूछें? क्या पुलिस किसी
को गिरफ्तार करने से पहले एनसीआरबी से आंकड़े पूछने जाए. अगर कोई अपराध में लिप्त
है तो पुलिस उसे पकड़ती है. क्या हो गया है इस देश को? हर चीज में वोट बैंक, धर्म
जोड़ा जा रहा है, किसी का कोई सिद्धांत नहीं है.अगर पुलिस से इतनी दिक्कत है तो
पुलिस तंत्र को ही खत्म कर दीजिए, फिर देखिए क्या होता है.” जेटीएसए की अध्यक्ष
सेठी कहती हैं, ''पुलिस वाले पहले से मान लेते हैं कि जेलों में मुसलमानों की
ज्यादा संख्या उनके आतंकी हमलों या सांप्रदायिक दंगों में शामिल होने का ही नतीजा
है.” पाक्षिक मिल्ली गजट के संपादक जफरुल इस्लाम खान कहते हैं, ''पुलिस ने जज का
काम खत्म कर दिया है. वे किसी मुल्जिम को पकड़ते हैं तो उसे मुजरिम करार देते हैं
और मीडिया में उसे मुकदमे के बिना ही मुजरिम करार दे दिया जाता है.” तो क्या मामला
इतना सीधा है कि इस देश की पुलिस और न्याय व्यवस्था एक खास समुदाय के खिलाफ झुकी
हुई है. यह पूरा सच नहीं है. अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की पेचीदगियां किसी एक
बिरादरी के खिलाफ काम नहीं करतीं. जम्मू-कश्मीर इसका बेहतरीन उदाहरण है. सूबे में
66.97 फीसदी आबादी मुसलमानों की है और इसकी तुलना में काफी कम सिर्फ 46.93 फीसदी
कैदी ही मुसलमान हैं. वहां आंकड़ों का गणित मुसलमानों के पक्ष में झुका हुआ नजर
आता है.
हितैषियों की हकीकत सच्चर कमेटी रिपोर्ट
ने वामपंथियों की काफी किरकिरी कराई थी. देश में मुसलमानों की सबसे बदतर स्थिति
पश्चिम बंगाल में थी. लेफ्ट फ्रंट के बाद पश्चिम बंगाल में शासन में आई तृणमूल
कांग्रेस को भी देर-सबेर इस सवाल से टकराना होगा. मुसलमानों का हितैषी होने का दंभ
भरने वाली पार्टियां भी सत्ता में पहुंचने के बाद कुछ नहीं कर पा रही है. उत्तर
प्रदेश की सपा सरकार ने चुनाव से पहले वादा किया था कि गलत इल्जाम में फंसाकर जेल
में डाले गए मुस्लिम युवाओं को रिहा कर दिया जाएगा लेकिन अभी तक कोई नतीजा नहीं
निकला है. यूपीपीयूसीएल के राजीव यादव का कहना है, ''यह सियासी चाल है. अदालत ने
सरकार की कोशिशों पर पानी फेरकर इसे उजागर कर दिया है.” बीजेपी के राष्ट्रीय
उपाध्यक्ष मुख्तार अब्बास नकवी कहते हैं, ''सच्चर कमेटी ने कहा था कि अगर मुसलमान
कहीं सबसे ज्यादा हैं तो वे जेलों में हैं. सेक्युलरिज्म के कंधे पर राजनीति करने
वाले राज्यों में यह समस्या ज्यादा है. इसे मानवीय तरीके से सुलझना होगा.” जाहिर
है, मुस्लिम समुदाय के जेल में अधिक होने को लेकर एक ईमानदार अध्ययन के साथ-साथ
पुलिस और न्याय प्रणाली में आमूल-चूल बदलाव करने की जरूरत है
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें