राष्ट्र संत गाडगे और बाबासाहेब डॉ.अंबेडकर
संत गाडगे महाराज (23फरवरी1876 -20दिसंबर 1956) और बाबासाहेब डा.
अंबेडकर (14अप्रैल1891 -05दिसंबर 1956) दोनों समकालीन थे किन्तु अंबेडकर से
उम्र में पन्द्रह साल बड़े थे। वैसे तो संत गाडगे बहुत से राजनीतिज्ञों से
मिलते-जुलते रहते थे, लेकिन वे अंबेडकर के कार्यों से बहुत प्रभावित थे।
इसका कारण था जो समाज सुधार सम्बन्धी कार्य वे अपने कीर्तनों के माध्यम से
लोगों को उपदेश देकर कर रहे थे, वही कार्य अंबेडकर राजनीति के माध्यम से कर
रहे थे। संत गाडगे के कार्यों की ही देन थी कि जहाँ डा.अंबेडकर तथाकथित
साधु-संतों से दूर ही रहते थे, वहीं संत गाडगे का अत्यधिक सम्मान करते थे।
वे संत गाडगे से समय-समय पर मिलते रहते थे तथा समाज-सुधार संबंधी आंदोलनों
आदि विषयों पर भी मंत्रणा करते रहते थे जबकि उनके पास किताबी ज्ञान एवं
राजसत्ता दोनो थे। अतः हमें समझना यह होगा कि सामाजिक शिक्षा एवं किताबी
शिक्षा भिन्न-भिन्न हैं और प्रत्येक के पास दोनों नहीं होती और दोनों
प्रकार की शिक्षाओं में समन्वय की महती आवश्यकता है।
अन्य संतों
की भाँति संत गाडगे को भी औपचारिक शिक्षा ग्रहण करने का अवसर नहीं मिला
किन्तु उन्होंने स्वाध्याय के बल पर ही थोड़ा बहुत पढ़ना-लिखना सीख लिया था।
शायद यह डा.अंबेडकर का ही प्रभाव था कि संत गाडगे शिक्षा पर बहुत जोर देते
थे। शिक्षा के महत्व को प्रतिपादित करते हुए वे कहते थे ”शिक्षा बहुत बड़ी
चीज है, पैसे की तंगी हो तो खाने के बर्तन बेच दो, औरत के लिये कम दाम के
कपड़े खरीदो, टूटे-फूटे मकान में रहो पर बच्चों को शिक्षा दिये बिना न रहो,
यदि खाने की थाली भी बेचनी पड़े तो उसे बेचकर भी शिक्षा ग्रहण करो, हाथ पर
रोटी लेकर खाना खा सकते हो पर विद्या के बिना जीवन अधूरा है।" वे अपने
प्रवचनों में शिक्षा पर उपदेश देते समय डा.अंबेडकर को उदाहरण स्वरूप
प्रस्तुत करते हुए कहते थे कि ‘‘देखा बाबासाहेब अंबेडकर अपनी महत्वाकांक्षा
से कितना पढ़े। शिक्षा कोई एक ही वर्ग की ठेकेदारी नहीं है। एक गरीब का
बच्चा भी अच्छी शिक्षा लेकर ढेर सारी डिग्रियाँ हासिल कर सकता है।’’
14जुलाई1949 को बाबासाहेब डॉ. अंबेडकर को मुम्बई में संत गाडगे की
तबियत खराब होने की सूचना मिली। बाबासाहेब तब भारत के कानून मंत्री थे और
उसी दिन उन्हें शाम की ट्रेन से संविधान सभा में प्रतिभाग हेतु दिल्ली वापस
जाना था किन्तु संत गाडगे महाराज के बीमार होने की खबर सुनकर बाबासाहेब
सभी कार्यो को छोडकर तुरंत गाडगे महाराज के लिए 2नई चादरें खरीद कर उन्हें
अस्पताल देखने गए। कभी किसी से एक पाई तक न लेने वाले इस महापुरूष ने
बाबासाहेब द्वारा दी गई भेट को सहर्ष स्वीकार करते हुए कहा कि "अंबेडकर
आपने यहां आने की तकलीफ क्यों की ? मैं एक फकीर, आपका एक-एक मिनट बहुत
कीमती है।" तब बाबासाहेब बोले -"बाबा मेरा अधिकार केवल तब तक का है जब तक
यह कुर्सी की ताकत मेरे पास है, कल यदि यह कुर्सी मेरे पास नही होगी तो
मुझे कोई भी नहीं पूछेगा, आपका अधिकार बडा है" बोलकर बाबासाहेब की अांखो से
अश्रुधारा बहने लगी, क्योंकि दोनों महापुरूष जानते थे कि ऐसा प्रसंग अब
उनके जीवन में शायद पुनः कभी नहीं आएगा। संत गाडगे ने डा. अंबेडकर द्वारा
स्थापित पीपुल्स एजुकेशन सोसाएटी को पंढरपुर की अपनी धर्मशाला छात्रावास
हेतु दान कर दी थी। यह संयोग ही है कि डॉ. अंबेडकर की मृत्यु के मात्र
14दिन बाद ही संत गाडगे ने भी जनसेवा और समाजोत्थान के कार्यों को करते हुए
हमेशा-हमेशा के लिए अपनी आंखें बंद कर लीं।
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