बदलाव के बहाने हथिया रहे मिलिट्री फार्म्स की हजारों एकड़ जमीन, सेना को बर्बाद करने पर तुले हैं
राष्ट्रवाद का सियासी धंधा करने वाली भाजपा सरकार ने देश की सेना को तीसरे दर्जे का बना कर रख दिया. सेना के पास गोला-बारूद की भारी कमी है. स्तरीय हथियार नहीं हैं. युद्ध उपकरण नहीं हैं. सीधा युद्ध हुआ तो 10 दिन से अधिक लड़ने की आयुध-औकात नहीं है, जो आयुध हैं भी उसका रख-रखाव अत्यंत फूहड़ है जो पुलगांव हादसे की तरह कभी भी भीषण विध्वंस में बदल सकता है. इसकी लगातार आपराधिक-उपेक्षा करने वाली केंद्र सरकार कहती है कि ढांचागत बदलाव करके सेना की युद्धक-क्षमता बढ़ाएंगे.
30 अगस्त की घोषणा केंद्र सरकार का सफेद झूठ है. दरअसल भाजपा नेताओं की निगाह भारतीय सेना के अधिकार क्षेत्र की करीब 25 हजार एकड़ भूमि पर है. हजारों एकड़ बेशकीमती जमीन छीनने के लिए सरकार ने सेना के ढांचागत परिवर्तन की पैंतरेबाजी की है. सेना से बहुमूल्य जमीन छीन कर उसे बड़े उद्योगपतियों और धनपतियों को दिए जाने की तैयारी है. इसका खुलासा होने में भी अब अधिक देर नहीं है. बुधवार 30 अगस्त को रक्षा मंत्री (जो अब पूर्व हो चुके) अरुण जेटली ने उसी दिन हुई केंद्रीय कैबिनेट की बैठक का हवाला देते हुए मीडिया से कहा कि सेना में ढांचागत बदलाव को लेकर लेफ्टिनेंट जनरल डीबी शेकतकर कमेटी की सिफारिशें मंजूर कर ली गई हैं. इस फैसले की धुरी में सेना के 39 कृषि फार्मों (मिलिट्री फार्म्स) की करीब 25 हजार एकड़ जमीन का अधिग्रहण करने की नीयत छुपी है. मिलिट्री फार्म्स की हजारों एकड़ बेशकीमती जमीन छीन कर सेना की युद्धक क्षमता कैसे बढ़ाएंगे? इस सवाल पर अगर आप मंथन करें तो इसके पीछे की पूंजीगत-साजिशों के तार साफ-साफ दिखने लगेंगे.
आप इसी से समझ लें कि केंद्रीय कैबिनेट 30 अगस्त को निर्णय लेती है और उसी दिन जेटली इसका ऐलान करते हैं, जबकि पर्दे के पीछे की असलियत यह है कि मिलिट्री फार्म्स की जमीनों को जब्त करने की कार्रवाई कई महीने पहले शुरू कर दी गई थी. मिलिट्री डेयरियों की गायों को नीलाम करने की प्रक्रिया कई महीने पहले से शुरू थी. सेनाध्यक्ष को पहले ही बता दिया गया था. सरकार के फैसले की आधिकारिक घोषणा के पहले ही मिलिट्री फार्म्स की जमीनें जब्त करने की कार्रवाइयां शुरू हो गई थीं. ऐसी क्या जल्दीबाजी थी अरुण जेटली जी! मिलिट्री फार्म्स की जमीनें लेकर और सैनिकों को मिलने वाला लाखों लीटर दूध छीनकर आप भारतीय सेना की युद्धक क्षमता बढ़ा रहे थे या कोई और ‘असैनिक-क्षमता’ विकसित करने की आपाधापी में लगे थे! कहीं इसी आपाधापी और जल्दीबाजी के कारण तो नहीं आपका रक्षा मंत्री का पद हाथ से निकल गया! खैर, देश के 39 मिलिट्री फार्म्स में जो उन्नत नस्ल की हजारों गायें पलती हैं, उन्हें धड़ाधड़ नीलाम करने की प्रक्रिया चल रही है. गौरक्षा के नाम पर देशभर में माहौल खराब करने वाली पार्टी के सत्ता अलमबरदार यह बता दें कि सेना की उन्नत नस्लों की गायों को नीलाम कर उन्हें किन सक्षम हाथों में देंगे और उन गायों की जहालत के लिए कौन जिम्मेदार होगा? केंद्र सरकार इस सवाल का जवाब नहीं देगी और गौरक्षक भी अपनी सरकार से यह सवाल नहीं पूछेंगे।
शेकतकर कमेटी की सिफारिशों का सबसे विवादास्पद पहलू है सेना के 39 मिलिट्री फार्म्स को बंद कर देने का सुझाव और उस पर केंद्र सरकार द्वारा दी जाने वाली त्वरित मंजूरी. उससे भी अधिक संदेहास्पद है सरकारी मंजूरी के पहले ही जमीन जब्ती की कार्रवाई का गुपचुप तरीके से शुरू हो जाना. केंद्र के इस फैसले का बहुत बुरा खामियाजा भारतीय सेना को आने वाले समय में भुगतना पड़ेगा. भारतीय सेना के कृषि फार्म्स अहमदनगर, ग्वालियर, जबलपुर, सिकंदराबाद, बेलगावी, महू, झांसी, दीमापुर, गुवाहाटी, जोरहाट, पानागढ़, कोलकाता, अम्बाला, जलंधर, आगरा, पठानकोट, इलाहाबाद, लखनऊ, सीतापुर, कानपुर, रानीखेत, जम्मू, श्रीनगर, करगिल और ऊधमपुर समेत देश के कई हिस्सों में हैं. 25 हजार एकड़ वाले कुल 39 मिलिट्री फार्म्स में करीब 50 हजार उच्च नस्ल की दुधारू गायों के अलावा हजारों अन्य पशु पलते हैं. इसी में सेना के डेयरी फार्म भी हैं जो सैनिकों के लिए दूध एवं अन्य दुग्ध सामग्रियां उपलब्ध कराते हैं. मिलिट्री फार्म्स की देखरेख में करीब तीन सौ करोड़ का खर्च आता है, जबकि उससे कई गुणा अधिक कमाई मिलिट्री फार्म्स में होने वाली खेती से होती है. विडंबना यह है कि शेकतकर कमेटी की सिफारिशों को मंजूरी देने की कैबिनेटी-नौटंकी अगस्त महीने की आखिरी तारीख में हुई, जबकि उसके काफी पहले ही मिलिट्री फार्म्स को बंद करने की कार्रवाई शुरू कर दी गई थी. 15 अगस्त के पहले ही देश के 12 मिलिट्री फार्म्स बंद किए जा चुके थे. शेष 27 मिलिट्री फार्म्स को बंद करने की प्रक्रिया सरकारी मंजूरी के प्रहसन के पहले से ही शुरू है.
केंद्र सरकार की नैतिकता का क्या स्तर है यह इस तथ्य से ही समझ में आ जाएगा कि देश में उन्नत नस्ल की फ्रीसवाल गायें विकसित करने का श्रेय मिलिट्री फार्म्स महकमे को जाता है. मिलिट्री फार्म्स महकमे के वेटनरी विशेषज्ञों ने नीदरलैंड की होल्सटीन-फ्रीसियन गायों और साहीवाल गायों के मेल से उन्नतकिस्म की गायें विकसित की थीं, जिन पर दुनियाभर के पशु-विशेषज्ञों को हैरत हुई थी. बेहतरीन डेयरी मैनेजमेंट करने और सेना को शुद्ध दूध मुहैया करने की सुनियोजित व्यवस्था के लिए संयुक्त राष्ट्र भारतीय सेना की प्रशंसा कर चुका है. ऐसे ही गौरवशाली और ऐतिहासिक महकमे को केवल जमीन हथियाने की गरज से बंद किया जा रहा है. सैनिकों को फ्री-राशन की व्यवस्था बंद करने के बाद राष्ट्रवादी भाजपा सरकार ने सैनिकों को मिलने वाले शुद्ध दूध का रास्ता भी बंद कर दिया है. मिलिट्री डेयरी फार्मों से सालाना करीब पांच सौ लाख किलो दूध का उत्पादन हो रहा था. उल्लेखनीय है कि भारतीय सेना का सबसे पहला मिलिट्री फार्म वर्ष 1889 में यूपी के इलाहाबाद में स्थापित किया गया था. इसके बाद यह देश के अन्य हिस्सों में विस्तृत हुआ. इलाहाबाद मिलिट्री फार्म की डेयरी में फ्रीसवाल प्रजाति की करीब हजार गायें हैं, जिनकी कीमत करीब साढ़े तीन सौ करोड़ रुपए है. दो सौ से अधिक कर्मचारी और मजदूर इस डेयरी में गायों की देखरेख करते हैं. यही इनकी आजीविका का साधन भी है.
इलाहाबाद का मिलिट्री फार्म और डेयरी करीब 700 एकड़ जमीन पर फैला है. अकेले इलाहाबाद की डेयरी से प्रतिवर्ष करीब 15 लाख लीटर से अधिक दूध का उत्पादन होता है. डेयरी बंद करने के केंद्र सरकार के आदेश से कर्मचारियों में काफी गुस्सा है. सरकार के इस फैसले के खिलाफ अगस्त महीने में ही कर्मचारियों ने सड़क पर उतर कर प्रदर्शन भी किया था. उधर, कर्नाटक में भी केंद्र के इस फैसले के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू हो गया है. बंगलुरू में श्रीराम सेना नामक संगठन ने आंदोलन का बिगुल फूंका और जोरदार प्रदर्शन से इसकी शुरुआत की. बेलगावी के मिलिट्री फार्म को बंद करने के फैसले के खिलाफ व्यापक जन-आंदोलन की मुनादी की गई. श्रीराम सेना के अध्यक्ष प्रमोद मुतालिक ने कहा कि केंद्र सरकार का यह फैसला देश की सुरक्षा के साथ खिलवाड़ है, सैनिकों को दूध से वंचित करने का अपराध राष्ट्रद्रोह जैसा गंभीर अपराध है. प्रदर्शनकारियों ने रक्षा मंत्री (अब पूर्व) अरुण जेटली के खिलाफ जोरदार नारे लगाए और उन पर भूमाफियाओं के इशारे पर काम करने का आरोप लगाया. बेलगावी का मिलिट्री फार्म डेढ़ सौ एकड़ में विस्तृत है. वहां उन्नत नस्ल की सात सौ गायें हैं. तीन हजार लीटर दूध रोजाना निकलता है जो मराठा लाइट इन्फैंट्री रेजिमेंटल सेंटर में ट्रेनिंग प्राप्त करने वाले सैनिकों को मुहैया होता है.
अभी हाल ही सेना पर महालेखाकार (कैग) की रिपोर्ट संसद के पटल पर रखी गई थी. यह ऑडिट रिपोर्ट नहीं, भारतीय सेना की असलियत उजागर करने वाली खौफनाक स्टेटस-रिपोर्ट है. सेना की जमीनों पर नजर गड़ाए सत्ताधीशों ने कैग की रिपोर्ट को तवज्जो नहीं दी. सरकार ने महत्व नहीं दिया तो मीडिया ने भी थोड़ी-थोड़ी खबर छापकर, दिखाकर औपचारिकता पूरी कर ली. आप तसल्ली से पूरी रिपोर्ट पढ़ें तो आपका दिमाग खराब हो जाएगा कि किन सड़ी हुई विषम स्थितियों में हमारे सैनिक सेना की नौकरी कर रहे हैं! पूरी सेना भीषण आंतरिक विस्फोट के दहाने पर बैठी है. यह बात संकेत में नहीं, बल्कि सीधे और स्पष्ट तौर पर कही जा रही है कि सैनिकों को सीमा पर शत्रु सैनिकों से उतना खतरा नहीं, जितना अंदरूनी खतरों से है.
पुलगांव (महाराष्ट्र) स्थित भारतीय सेना के सबसे बड़े आयुध डिपो में 31 मई 2016 को भीषण विस्फोट के कारण हुए भयावह अग्निकांड में दो आला सेनाधिकारियों समेत 20 फौजियों की दर्दनाक मौत के बाद भी रक्षा मंत्रालय की आंख नहीं खुल रही. पुलगांव में सेंट्रल ऑर्डनेंस डिपो हादसे में डेढ़ सौ टन से अधिक गोला-बारूद स्वाहा हो गया. 71 सौ एकड़ में फैले पुलगांव आयुध डिपो हथियारों के लिहाज से सेना का सबसे संवेदनशील केंद्र है, जहां साधारण गोलियों से लेकर हर तरह के गोला-बारूद और ब्रह्मोस मिसाइलें तक रखी हैं. पुलगांव से ही देशभर में फैले 14 सैन्य डिपो को आयुध की सप्लाई होती है. लेकिन पुलगांव समेत किसी भी आयुध डिपो में सुरक्षा मानकों का पालन नहीं होता. तिरपाल से ढंके शेड में खतरनाक आयुध रखे हुए हैं. सेना आज भी साधारण वाहनों से गोला-बारूद ढो रही है. सेना के शीर्ष कमांड से लेकर रक्षा मंत्रालय तक को बार-बार आगाह किया जा रहा है कि सेना की बड़ी संरचनाएं किसी भी समय भयंकर हादसे का शिकार होकर ध्वस्त हो सकती हैं. ऐसा तब है जब गोला-बारूद की भारी कमी से भारतीय सेना जूझ रही है और दो शत्रु देशों से तनातनी चल रही है. सैन्य नियम के मुताबिक सेना के पास हर समय इतना गोला-बारूद होना चाहिए कि लड़ाई छिड़ने की हालत में औसतन 40 दिन तक काम चलता रहे. लेकिन सीएजी की रिपोर्ट आधिकारिक तौर पर यह खुलासा करती है कि सेना के पास ‘न्यूनतम स्वीकार्य जोखिम स्तर’ तक का गोला-बारूद नहीं है.
बस इतना है कि युद्ध होने पर उसे किसी तरह मारक तौर पर 10 दिन और खींचतान कर 20 दिन तक ले जाया जा सकता है. दुखद तथ्य यह है कि गोला-बारूद रिजर्व का यह न्यूनतम स्तर भी लगातार बना कर नहीं रखा जा रहा है. सरकार इस तरफ देख ही नहीं रही. सेना के शीर्ष कमांडर नेतागीरी में मस्त हैं और सत्ता पर बैठे शीर्ष नेता सेना की जमीनें छीनने की तिकड़म रचने में व्यस्त हैं. भीषण खतरनाक स्थितियों में सेना के काम करने की स्थिति शेकतकर कमेटी के अध्ययन में भी कहीं शामिल नहीं है. शेकतकर कमेटी की सिफारिशें और उसकी सरकारी मंजूरी दोनों ही दुखद हैं. मिलिट्री फार्म्स की जमीनें छीन कर वहां काम करने वाले सैन्य कर्मचारियों को अब युद्धक इकाइयों में भेजा जाएगा. ऐसे अप्रशिक्षत सैन्यकर्मी ‘कॉम्बैट फोर्स’ का मनोबल बढ़ाएंगे या वहां भीड़ बढ़ाएंगे! लेफ्टिनेंट जनरल शेकतकर कमेटी की रिपोर्ट ऐसे कई गंभीर सवालों के घेरे में है. कमेटी ने सेना में सुधार को लेकर जो सिफारिशें की हैं उसमें सेना आयुध कोर के नाकारेपन को दूर करने को लेकर कोई सुझाव नहीं है. रक्षा खरीद नीति में सम्पूर्ण बदलाव की जरूरत कमेटी की सिफारिशों में कहीं शामिल नहीं है.
सामरिक विशेषज्ञों का मानना है कि रक्षा खरीद बोर्ड की अध्यक्षता सेना के तीनों अंगों के अध्यक्षों को करनी चाहिए, न कि रक्षा सचिव को. बेवकूफाना रक्षा खरीद नीति के कारण ही रक्षा खरीद में तमाम व्यवधान खड़े होते हैं. शेकतकर कमेटी ने युद्ध के लिए जरूरी वार-वेस्ट-रिजर्व बढ़ाने और उसे पुख्ता रखने का भी कोई सुझाव नहीं दिया है. स्थिति यह है कि वार-वेस्ट-रिजर्व बढ़ने के बजाय तेजी से घट रहा है. भारतीय सेना की मौजूदा युद्धक क्षमता संख्याबल के हिसाब से काफी कमजोर है. शेकतकर कमेटी की सिफारिशों का हास्यास्पद पहलू है कि गैर-लड़ाकू महकमों में काम कर रहे सैन्यकर्मियों को लड़ाकू महकमों में तैनात करने का प्रस्ताव दे दिया गया और उसे सरकार ने मंजूर भी कर लिया. जो सैनिक पहले से लड़ाकू महकमों में तैनात हैं, उनके पास स्तरीय हथियार और जरूरी गोला-बारूद नहीं हैं, उन्हें मिलिट्री-स्टैंडर्ड के मुताबिक सशस्त्र करने के बजाय अलग से गैर ऑपरेशनल भीड़ को लड़ाकू दस्तों के साथ ‘खोंसने’ का बेवकूफाना सुझाव देकर शेकतकर कमेटी ने भारतीय सेना को हास्यास्पद स्थिति में डाल दिया है.
अनिवार्य शस्त्र-सज्जा के बगैर सैनिकों को लाइन ऑफ कंट्रोल पर बिठा दिया जाए तो वह क्या उखाड़ लेंगे? इस स्वाभाविक सवाल पर न तो शेकतकर कमेटी ने ध्यान दिया और न केंद्र सरकार को इस तरफ ध्यान देने की कोई चिंता है. लेफ्टिनेंट जनरल शेकतकर ने जवानों से अफसरों की बेगारी कराए जाने के ‘चलन’ को समाप्त करने का सुझाव क्यों नहीं दिया? ‘नॉन-कॉम्बैट’ ड्यूटी से निकाल कर 57 हजार सैन्यकर्मियों को ‘कॉम्बैट’ ड्यूटी में झोंक कर 25 हजार करोड़ रुपए बचाने की जुगत बताने वाले लेफ्टिनेंट जनरल शेकतकर बैट-मैन (आम बोलचाल की भाषा में कमीशंड अफसरों के घरेलू नौकर) के काम में लगे हजारों फौजियों को ‘नरक’ से मुक्त करने की सिफारिश नहीं करते.
लेफ्टिनेंट जनरल शेकतकर एक शीर्ष सेनाधिकारी के नजरिए से भारतीय सेना में सुधार के उपायों का अध्ययन नहीं कर रहे थे, बल्कि उनकी रिपोर्ट देखें तो साफ लगेगा कि वे एक ऑडिटर की तरह काम कर रहे थे. शेकतकर कमेटी ने 188 सिफारिशें (रिकोमेंडेशंस) की हैं. ये सब की सब सैन्य दृष्टिकोण से खारिज करने योग्य हैं. केंद्र सरकार ने इनमें से 99 सिफारिशें मान लीं. इन 99 सिफारिशों में थलसेना, वायुसेना और नौसेना तीनों में सुधार के बेमानी मसले शामिल हैं. इनमें से 65 सिफारिशों पर आनन-फानन काम शुरू हो चुका. रक्षा मंत्री अरुण जेटली चालाक व्यक्ति हैं. उन्होंने रक्षा मंत्रालय के ढांचे को पुनर्गठित किए जाने की शेकतकर कमेटी की सिफारिश पर कोई ध्यान नहीं दिया.
शेकतकर कमेटी ने सेना में रिसर्च एंड डेवलपमेंट में सुधार और आवश्यक ढांचागत फेरबदल के महत्वपूर्ण आयाम की तरफ ध्यान नहीं दिया, जबकि यह क्षेत्र सेना की ‘कॉम्बैट’ क्षमता मजबूत करने के लिए सबसे जरूरी है. ‘कॉम्बैट’ क्षमता का मतलब ही होता है शत्रु के मुकाबिल समानान्तर खड़े होने, उसे चुनौती देने और उससे युद्ध लड़ने में सक्षम होना. ‘नॉन-कॉम्बैट’ महकमों में तैनात सैन्यकर्मियों की ‘कॉम्बैट’ क्षमता क्या होगी उसकी हम अभी ही कल्पना कर सकते हैं. हमारे जो सैनिक ‘कॉम्बैट’ इकाइयों में तैनात हैं, उनके पास हमारी सरकार ने कौन से हथियार दे रखे हैं! हमारे सैनिकों के पास मुश्किल से एक किलोमीटर मार करने वाली थकी हुई ‘इन्सास’ राइफलें हैं. जबकि शत्रुओं के पास कम से कम दो किलोमीटर की मारक क्षमता वाली ‘कॉम्बैट-रेडी’ राइफलें हैं.
देश को दो तरफ से घेरने वाली शत्रु सेनाएं अन-आर्म्ड व्हेकिल्स (यूएवी), एम-4 असॉल्ट राइफल्स, अत्याधुनिक ग्लॉक मॉडल-19 की पिस्तौलें, सिरैमिक प्लेटों वाली अभेद्य बुलेट प्रूफ जैकेट्स, बॉडी आर्मर, सैटेलाइट फोन्स, जीपीएस ट्रैकर्स समेत कई अन्य अत्याधुनिक साजो-सामान से लैस हैं. भारतीय सेना को इन जरूरतों से हीन रखा गया है. लड़ाकू सेना की यह पहली आधारभूत अनिवार्यता है, लेकिन इस पर रक्षा मंत्रालय कोई ध्यान नहीं दे रहा. शेकतकर कमेटी ने भी इस तरफ आंखें मूंदे रखीं. नाकारा रक्षा मंत्रालय ने देश की आयुध फैक्ट्रियों के विकास पर कोई ध्यान नहीं दिया. नतीजतन आज यह स्थिति है कि हम अपने लिए जरूरी गोला-बारूद भी नहीं बना पा रहे. अत्याधुनिक शस्त्रों की तो बात ही छोड़िए. सैन्य उपकरणों के उत्पादन की भी बात छोड़िए, जो उपकरण हमारे पास हैं, उनके रख-रखाव का हाल यह है कि ऑर्डनेंस डिपो कूड़े और मलबे का ढेर बन चुके हैं. आयुध महकमा भीषण भ्रष्टाचार का अड्डा बना हुआ है. घोर अराजकता है, अयोग्यता है और गैर-जिम्मेवारी है, लेकिन रक्षा मंत्रालय मस्त है. आयुध फैक्ट्रियां अरबों रुपए का नुकसान कर रही हैं, लेकिन यह शेकतकर को नहीं दिखता. देश की आयुध फैक्ट्रियां भारतीय सेना की ‘कॉम्बैट’ क्षमता को घुन की तरह खाकर खोखला कर रही हैं, फिर भी सरकार के साथ-साथ हमारे सेनाध्यक्ष बयान देते रहते हैं कि हम एक साथ चीन से भी भिड़ लेंगे और पाकिस्तान से भी. देश की सुरक्षा का इन लोगों ने मजाक बना रखा है. करगिल युद्ध के बाद भी केंद्र सरकार ने सुब्रमण्यम कमेटी का गठन किया था, लेकिन उनकी सिफारिशें कूड़े के डिब्बे में डाल दी गईं. फिर भाजपा सरकार ने शेकतकर कमेटी का गठन किया, लेकिन उसकी भी सिफारिशों से अपने मतलब का हिस्सा चुनकर उसे कूड़े के डिब्बे में डाल दिया. आईएएस अफसरों और नेताओं के कुप्रभाव से जब तक रक्षा मंत्रालय मुक्त नहीं होगा, भारतीय सेना का तबतक कोई सुधार नहीं हो सकता. लेफ्टिनेंट जनरल शेकतकर के मन में जनरल नहीं बन पाने का मलाल है. कदाचित इसीलिए उन्होंने सेनाध्यक्षों का मान कम करने वाली सिफारिशें कीं और केंद्र को सुझाव दे डाला कि सेना के तीनों अंगों से जुड़े मसलों पर रक्षा मंत्रालय में बैठे असैनिक नौकरशाहों (आईएएस) नेताओं और तीनों सेनाध्यक्षों से समन्वय स्थापित करने के लिए चार सितारा जनरल का अलग से पद कायम किया जाए. यानि, चार सितारा जनरल सारे निर्णय तय करने लगें तो बाकी तीन सेनाध्यक्ष अपने आप ही ढक्कन हो जाएंगे. सैन्य विशेषज्ञ कहते हैं कि शेकतकर कमेटी की रिपोर्ट सैन्य ढांचे में बदलाव की नहीं, बल्कि असैनिक और अप्रशिक्षित तत्वों की घुसपैठ का रास्ता खोलने वाली रिपोर्ट है.
भारतीय सेना एक तरफ गोला-बारूद की भारी कमी से जूझ रही है तो दूसरी तरफ उसे जो गोला-बारूद मिल रहे हैं वह भी घटिया स्तर के हैं. यह आधिकारिक तथ्य है. देश के आयुध फैक्ट्री बोर्ड की तरफ से मिलने वाले घटिया गोला-बारूद को ठीक करने के बारे में वर्ष 2013 से लगातार लिखा जा रहा है, लेकिन इसमें कोई सुधार नहीं किया गया. सेना की जरूरत के मुताबिक गोला-बारूद का उत्पादन भी नहीं किया जा रहा. अधिकांश गोला-बारूद और उपकरण खारिज कर वापस भेज दिए जा रहे हैं, लेकिन उन्हें भी सुधार कर वापस नहीं भेजा जा रहा है.
यह स्थिति आज तक (खबर लिखे जाने तक) कायम है. आयुध भंडारों की स्थिति सोमालिया जैसे अराजक देशों की अराजक स्थिति की याद दिलाती है. ये कभी भी धमाकों में तब्दील हो सकते हैं. पुलगांव स्थित देश का सबसे बड़ा आयुध डिपो 2016 में तबाह हो चुका है. पिछले ही साल मार्च महीने में जबलपुर के निकट खमरिया आर्डनेंस फैक्ट्री में डंप पड़े 20 साल पुराने गोला-बारूद में भी आग लगने से सिलसिलेवार धमाके हुए और डिपो जल कर खाक हो गया. करीब तीन दर्जन धमाके हुए थे जिसमें कई इमारतें जल कर नष्ट हो गई थीं. चार किलोमीटर तक के दायरे में नुकसान हुआ था. इस हादसे के बाद राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी खतरनाक सैन्य आयुधों के बेजा रखरखाव पर चिंता जाहिर की थी और रक्षा मंत्रालय से जवाब-तलब किया था. आयोग ने रक्षा मंत्रालय से कहा था कि खमरिया डिपो में भारी मात्रा में अनुपयोगी और अस्वीकृत आयुधों के डंप होने से पूरे जबलपुर शहर को खतरा है. खमरिया ऑर्डनेंस फैक्ट्री में पहले भी कई बार विस्फोट हो चुके हैं. लेकिन आयोग के इस सरोकार का सरकार पर कोई असर नहीं पड़ा और अब भी सब वैसा ही चल रहा है. पुलगांव सेंट्रल ऑर्डनेंस डिपो वर्ष 2005 में भी भीषण अग्निकांड का शिकार हुआ था. ऐसे हादसों की कतार लगी है. वर्ष 2000 में भरतपुर के आयुध डिपो में भयंकर आग लगी थी. एक साल बाद ही वर्ष 2001 में पठानकोट और गंगानगर के आयुध डिपो में करोड़ों का गोला-बारूद जलकर खाक हो गया.
फिर अगले साल 2002 में दप्पर और जोधपुर के आयुध डिपो में आग लगी. वर्ष 2007 में कुंदरू के आयुध डिपो और 2010 में पानागढ़ के आयुध डिपो में भीषण अग्निकांड हुआ. 8 दिसम्बर 2015 को विशाखापत्तनम में नौसेना के हथियार डिपो में भीषण आग लगी थी. सेना के विशेषज्ञों का अनुमान है कि वर्ष 2000 से देशभर के हथियार डिपो में हुए धमाकों और अग्निकांडों की वजह से पांच हजार करोड़ से अधिक का नुकसान हो चुका है. अफसर और जवानों की मौत का नुकसान उसके अतिरिक्त है. इन हादसों से रक्षा मंत्रालय ने कोई सीख नहीं ली और आयुध डिपो आज तक वैसे ही लचर हालत में पड़े हैं. देश का केंद्रीय गोला-बारूद डिपो पुलगांव में है. इसके अलावा बठिंडा, डप्पर और भरतपुर में तीन बड़े गोला-बारूद डिपो हैं. देश में छह आयुध फैक्ट्रियां चांदा, बडमल, खमरिया, देहू रोड, किरकी और वारंगांव में हैं. इसके अलावा गोला-बारूद भरने और अन्य रक्षा उत्पाद बनाने वाली ऑड्रनेंस फैक्ट्रियां अम्बाझारी, काशीपुर, कानपुर, कटनी और इटारसी में हैं. आयुध डिपो और आयुध फैक्ट्रियों की देखरेख की जिम्मेदारी आयुध निर्माणी बोर्ड (ओएफबी) की है.
उत्पाद की गुणवत्ता (क्वालिटी) की निगरानी किरकी स्थित गुणवत्ता आश्वासन नियंत्रणालय करता है. इस व्यवस्था के बावजूद सब कुछ लचर और अराजक स्थिति में है. पुलगांव सेंट्रल ऑर्डनेंस डिपो की खराब हालत और हादसे की आशंका के बारे में रक्षा मंत्रालय को बार-बार आगाह किया जा रहा था. इसमें खतरनाक बात यह थी कि डिपो में रखी उच्च विस्फोटक बारूदी सुरंगों (माइन्स) से ट्राइनाइट्रोटोल्यून (टीएनटी) जैसा खतरनाक रसायन लगातार रिस रहा था. इस तरफ रक्षा मंत्रालय का बार-बार ध्यान दिलाया जा रहा था. रक्षा मंत्रालय पुलगांव हादसे में मारे गए दो अफसरों समेत 20 फौजियों की ‘हत्या का दोषी’ है, क्योंकि मास्टर जनरल ऑफ ऑर्डनेंस ने भी रक्षा सचिव को इस खतरे के बारे में जुलाई 2011 को ही आधिकारिक तौर पर सूचित करते हुए अविलंब एहतियाती बंदोबस्त करने के लिए कहा था. लेकिन रक्षा सचिव (आईएएस अफसर) उस फाइल पर कुंडली मारे बैठे रह गए और 2016 में भीषण हादसा हो गया. 31 मई 2016 को दुर्घटना होने तक रक्षा मंत्रालय खतरनाक आयुधों के अनुरक्षण का कोई उपाय नहीं कर सका था और वही स्थिति आज भी बनी हुई है.
भारतीय सेना के बख्तरबंद लड़ाकू वाहनों (एएफबी) और आर्टिलरी (तोपखाना) के इस्तेमाल आने वाले उच्च क्षमता के गोला-बारूदों की उपलब्धता तो न्यूनतम स्वीकृत जोखिम स्तर (मिनिमम एक्सेप्टेबल रिस्क लेवल) तक का भी नहीं है. उच्च क्षमता वाले 170 प्रकार के गोला-बारूदों में 125 प्रकार के गोला-बारूदों की उपलब्धता न्यूनतम स्वीकृत जोखिम स्तर के काफी नीचे है. यानि, भारतीय सेना में उच्च स्तर के गोला-बारूदों की 74 प्रतिशत कमी है, जो 10 दिन के युद्ध के लिए भी कम है. सैन्य मानक के मुताबिक 10 दिनों से कम के गोला-बारूद की उपलब्धता चिंताजनक मानी जाती है. विचित्र बात यह है कि तोपखानों और टैंकों में इस्तेमाल आने वाले उच्च क्षमता वाले गोला-बारूदों को एक्टिवेट करने वाले फ्यूज की सप्लाई भी जरूरत के मुताबिक नहीं हो रही है. सेना के आर्टिलरी रेजिमेंट में तोपखानों में लगने वाले फ्यूज की कमी 89 प्रतिशत पाई गई. कैग ने भी इसे चिंताजनक कहा है. फ्यूज के बिना गोले और मिसाइलें फायर ही नहीं हो सकतीं. फ्यूज की कमी की मुख्य वजह यह भी है कि अहमक अधिकारियों ने फ्यूज की उपलब्धता सुनिश्चित किए बगैर मेकैनिकल फ्यूज की जगह इलेक्ट्रॉनिक फ्यूज इस्तेमाल करने का फरमान जारी कर दिया. भारतीय इलेक्ट्रॉनिक निगम लिमिटेड (ईसीआईएल) इसकी सप्लाई नहीं कर पाया. इस बीच अगर युद्ध छिड़ जाए तो तोपखाने केवल डंडी दिखाते नजर आएंगे.
फ्यूज की उपलब्धता नहीं होने के कारण 83 प्रतिशत उच्च क्षमता वाले गोला-बारूद सेना के इस्तेमाल के योग्य नहीं हैं. सेना के प्रशिक्षण में काम आने वाले गोला-बारूद की भी भारी कमी है. आपको यह जानकर हैरत होगी कि इस कमी के कारण सैनिकों की गोला-बारूद की ट्रेनिंग वर्षों से बंद पड़ी हुई है. सेना की विशेषज्ञता पर इसका बहुत बुरा असर पड़ रहा है. देश की आयुध फैक्ट्रियां गोला-बारूद का उत्पादन नहीं कर पा रहीं और रक्षा मंत्रालय पर काबिज नौकरशाह गोला-बारूद आयात करने की प्रक्रिया में अड़ंगे डाले रहते हैं. सेना के दस्तावेज बताते हैं कि गोला-बारूद की कमी के बावजूद इसे आयात कर कमी को पूरा नहीं किया गया. वर्ष 2013 से लेकर आज तक गोला-बारूद आयात नहीं किया गया. जबकि सरकार लगातार यह कहती रही है कि सेना की जरूरतें पूरी की जा रही हैं.
देश के तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह ने राष्ट्र की चिंता में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को आयुधों और सैन्य उपकरणों की कमी के बारे में आगाह करते हुए पत्र लिख दिया तो नेताओं, नौकरशाहों और पत्रकारों ने गिरोह बना कर उनका विरोध किया और उन्हें बेजार करके रख दिया. लेकिन आखिरकार आधिकारिक तौर पर वही साबित हुआ जिसकी चिंता में जनरल वीके सिंह ने पीएम को पत्र लिखा था. आप फिर से याद करते चलें कि तत्कालीन थलसेना अध्यक्ष जनरल वीके सिंह ने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर कहा था कि सेना में गोला-बारूद की भारी कमी है. टैंक रेजिमेंट और आर्टिलरी (तोपखाना रेजिमेंट) बेहद जरूरी गोला-बारूद की कमी से जूझ रहा है. पैदल सेना के पास हथियारों की भीषण कमी है. वायुसेना के साजो-सामान अपनी ताकत खो चुके हैं.
जरूरत वाले सारे प्रमुख हथियारों और उपकरणों की हालत बहुत खस्ता है. इनमें मैकेनाइज्ड सेना, तोपखाने, हवाई सुरक्षा, पैदल सेना और स्पेशल सेना के साथ ही इंजीनियर्स और सिग्नल्स भी शामिल हैं. हवाई सुरक्षा के लिए इस्तेमाल में लाए जाने वाले 97 फीसदी हथियार और उपकरण पुराने पड़ चुके हैं. आर्मी की एलीट स्पेशल फोर्स के पास जरूरी हथियारों की कमी है. थलसेना के जवानों के पास हथियारों की कमी के साथ-साथ उनके पास रात में दुश्मन से लड़ने की क्षमता नहीं है. एंटी टैंक गाइडेड मिसाइल्स की मौजूदा उत्पादन क्षमता और उपलब्धता बेहद कम है. लंबी दूरी तक मार करने वाले तोपखाने में पिनाका और स्मर्च रॉकेट सिस्टम का खतरनाक अभाव है. जनरल सिंह ने गोला-बारूद की कमी के साथ-साथ भंडारण की लचर व्यवस्था के बारे में भी प्रधानमंत्री को सूचित किया था. उन्होंने लिखा था कि सेना की हालत संतोषजनक स्थिति से काफी दूर है. पड़ोस के दो शत्रु देशों का खतरा है और दो देशों की सुरक्षा का दायित्व भी भारतीय सेना के कंधे पर है, ऐसे में सेना की खामियों को तत्काल प्रभाव से दूर करने की जरूरत है. जनरल सिंह ने सुझाव दिया था कि चीन सीमा पर तैनात इंडो-तिब्बत बॉर्डर पुलिस (आईटीबीपी) के संचालन का अधिकार सेना को मिलना चाहिए और सेना में हवाई बेड़े की जरूरतों को अविलंब पूरा किया जाना चाहिए. लेकिन तत्कालीन केंद्र सरकार जनरल वीके सिंह की चिट्ठी पर बौखला गई और सेना को सुधारने के बजाय जनरल सिंह को ही ‘सुधारने’ में लग गई थी.
भारत सरकार की अजीबोगरीब चाल है. देश की सेना को गोला-बारूद और जरूरी सैन्य साजो-सामान मुहैया नहीं कराए जा रहे हैं, लेकिन आयुध भंडारों में खारिज गोला-बारूद और आयुधों का पहाड़ जमा होता जा रहा है. यही आयुध विध्वंसक घटनाओं की वजह बनते हैं, लेकिन सरकार इसके निपटारे का कोई उपाय नहीं करती. इसके बजाय तू-तू-मैं-मैं और एक-दूसरे के सिर टोपी डालने की ओछी हरकतों में लगी रहती है. सेना के आधिकारिक दस्तावेज बताते हैं कि देश के विभिन्न आयुध डिपो में 1617.94 करोड़ के गोला-बारूद डंप पड़े हैं जिन्हें तकनीकी त्रुटियों के कारण अस्वीकृत कर दिया गया था. इन खारिज गोला-बारूदों में 13 किस्म के खतरनाक आयुध हैं.
रक्षा मंत्रालय न इनकी तकनीकी खामियां ठीक करा रहा है और न इसे निपटा रहा है. जो अस्वीकृत गोला-बारूद मरम्मत के लायक हैं उसे भी बनाने में वर्षों से टाल-मटोल हो रहा है. सरकार का शोहदापन देखिए कि वर्ष 2009 से आज तक गोला-बारूद और आयुध डंप पड़े हुए हैं. इसी प्रसंग में 7.62 एमएम बेल्टेड एम्युनिशन की साढ़े चार करोड़ गोलियों (राउंड्स) के डंप होने का एक ऐसा मामला उजागर हुआ है जो काम के लायक था, लेकिन उसे निर्धारित अवधि के पहले ही खारिज कर किनारे कर दिया गया. उन गोलियों का उत्पादन वर्ष 2009 से 2011 के बीच वारंगांव आयुध फैक्ट्री में हुआ था. इनकी कीमत उस वक्त ही 129.26 करोड़ रुपए थी. उसकी सक्रियता 18 वर्ष निर्धारित थी, लेकिन निर्धारित ‘लाइफ’ के काफी पहले ही उसे डी-ग्रेड कर खारिज कर दिया गया जिससे करोड़ों का नुकसान हुआ. ऐसे गोला-बारूद भारी मात्रा में देश के विभिन्न आयुध डिपो में डंप पड़े हुए हैं, जो कभी भी हमारे ही विध्वंस का कारण बन सकते हैं।
केंद्रीय सत्ता पर बैठी भाजपा सरकार राष्ट्रभक्ति की वैसे ही मार्केटिंग करती है जैसे आम आदमी पार्टी ईमानदारी की मार्केटिंग करती हुई कामयाब हो गई. एक पार्टी की ‘राष्ट्रभक्ति’ और दूसरी पार्टी की ‘ईमानदारी’ में कोई फर्क नहीं है. राष्ट्रभक्ति की नौटंकी करने वाले सत्ताधीशों को यह समझ में नहीं आता कि सेना की शक्ति जितनी ही बढ़ेगी देश की शक्ति उतनी ही बढ़ेगी. लेकिन सरकार ठीक उल्टा कर रही है. भाजपा सरकार ने देश की सैन्यशक्ति को छिन्न-भिन्न करके रख दिया है. चीन की सैन्यशक्ति के सामने भारतीय सैन्यशक्ति बौनी है, इस सत्य को टालना देशभक्ति नहीं, बल्कि इसे स्वीकार करना और अपनी सैन्यशक्ति को मजबूत करने की कवायद में जुट जाना असली राष्ट्रभक्ति है। यहां तक कि पाकिस्तान भी तेजी से अपने हथियारों का जखीरा बढ़ा रहा है, लेकिन हम राष्ट्रभक्ति का नाटक मंचित करने की सियासत में मगन हैं. सत्ता के चाटुकारों की बात पर मत जाइए, चीन के साथ चला डोकलाम विवाद थमा नहीं है, अभी लंबित हुआ है. अभी चीन अपने आर्थिक मसले तय कर रहा है. चीन का ढेर सारा पैसा भारतवर्ष में लगा है, उसे दुरुस्त करने के लिए अभी उसने अपने नाखून अंदर किए हैं. आप इतना समझ लें कि बिना किसी आपसी समझदारी और सहमति के न मोदी चीन जाते और न चीन जाने के ऐन पहले रक्षा मंत्री हटते।
बहरहाल, देश की सैन्यशक्ति बढ़ाने और उसे मजबूत करने में केंद्र सरकार की कितनी दिलचस्पी है, यह गोला-बारूदों, सैन्य उपकरणों और हथियारों की कमी के आधिकारिक दस्तावेजों से लिए गए उपरोक्त तथ्यों से साफ है. सेना की युद्ध क्षमता बढ़ाने के उपायों पर अध्ययन करने के लिए बनाई गई शेकतकर कमेटी के 11 सदस्यों ने पता नहीं क्या अध्ययन किया कि वो सारी जरूरी बातें छूट गईं, जिनसे भारतीय सेना मजबूत होती. शेकतकर कमेटी ने वे सारे सुझाव दिए जिससे नेता मजबूत होता है और सियासत मजबूत होती है. तभी तो हजारों एकड़ में फैले मिलिट्री फार्म्स जब्त कर लेने का नेक सुझाव दिया गया! इस कमेटी को चीन से कारगर युद्ध लड़ने के लिए जरूरी माउंटेन स्ट्राइक कोर के शीघ्र गठन की जरूरत महसूस नहीं हुई, जबकि इस तरफ भारत सरकार की बेरुखी सेना के लिए खतरनाक साबित हो रही है। शेकतकर ने केंद्र सरकार के उस फरेब की तरफ भी ध्यान नहीं दिलाया कि सेना का 2.47 लाख करोड़ का बजट केवल कहने के लिए है, क्योंकि सैन्य बजट का 70 फीसदी हिस्सा सेना के वेतन और अनुरक्षण पर खर्च हो जाता है. सैन्य बजट का मात्र 20 प्रतिशत हिस्सा सैन्य उपकरणों की खरीद के लिए बचता है. सेना को हर साल केवल उपकरणों की खरीद के लिए कम से कम 10 हजार करोड़ रुपए की जरूरत रहती है, जबकि उसके पास बचते हैं मात्र 15 सौ करोड़ रुपए. भारतीय सेना के लिए राइफलें, वाहन, मिसाइलें, तोपें और हेलीकॉप्टर खरीदने की अनिवार्यता चार लाख करोड़ रुपए के लिए लंबित पड़ी हुई है।
जबकि सेना की युद्ध क्षमता को विश्व मानक पर दुरुस्त रखने के लिए यह काम निहायत जरूरी है. रक्षा सेवाओं से जुड़े लोग ही पूछते हैं कि भारत की सरकार सेना के साथ ऐसा क्यों कर रही है? साउथ ब्लॉक (रक्षा मंत्रालय) में आसीन एक वरिष्ठ सेनाधिकारी ने कहा कि केंद्र सरकार नौकरशाही के चंगुल में है। आईएएस अफसर जो चाहते हैं, सरकार वही करती है। आईएएस अफसरों का ‘गिरोह’ नहीं चाहता कि सेना को सुविधाएं मिले और सेना के अफसर उनके समानान्तर बैठें। ऐसे ही घटिया सोच वाले नौकरशाहों की चौकड़ी ने सेना को मिलने वाली तमाम सुविधाएं और भत्ते कटवा दिए. यहां तक कि सेना को सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों के मुताबिक वेतन देने में भी फजीहत कर दी गई। सैनिकों को मिलने वाला मुफ्त राशन बंद करा दिया और अब दूध भी मुहाल कर दिया।
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