शनिवार, 14 अक्तूबर 2017

भूमि अधिकार और किसानो की समस्याओ पर बाबासाहेब आंबेडकर के विचार



सभी जानते हैं कि पहले राजा जब भी किसी व्यक्ति या वजीर पर खुश होते थे तो गांव के गांव जागीर में ईनाम में दे देते थे, वो ही जागीरदार, सामंती या जमींदार बनते गये। जब राजतंत्र का पतन होना शुरु हुआ तो जमीन पर निजी मालिकाना हक जमा लिया गया, वो कोई और नहीं ब्राह्मण/सवर्ण ही थे। कुछ छोटे-छोटे खेतों पर दलित/पिछड़े भी कब्जा जमाने में सफल हुऐ।
ब्रिटिश सरकार में रैयतवाड़ी व्यवस्था होती थी जिसमें भूमिदार सरकार को लगान देने के लिये उत्तरदायी होता था, लगान न देने पर भूमि से बेदखल कर दिया जाता था। जब सरकार द्वारा रैयतवाड़ी भूमि को बड़े भू-स्वामियों को देने के लिये संसोधन बिल पेश किया गया तो इसका विरोध करने वाले “बाबा साहेब अंबेडकर” ही थे। उन्होनें कहा था कि भू-स्वामित्व को इसी तरह बढ़ाया जाता रहा तो एक दिन ये देश को तबाह कर देगा, पर सरकार उनसे सहमत नहीं हुई।
चाहे रैयतवाड़ी प्रथा हो या कोई और, जिनमें छोटे किसान जिनके पास जमीन भी थी तो वो उसके मालिक नहीं थे। महाराष्ट्र में एक खोती प्रथा भी थी, रैयतवाड़ी में तो किसान सीधा सरकार को टैक्स देते थे पर खोती प्रथानुसार इसमें बिछौलिये रखे गये थे, जिन्हें खोत भी कहा जाता था। उन्हें किसानों से टैक्स बसूलने के लिये कुछ भी करने की छूट थी, वे किसानों पर बहुत जुल्म करते थे तो कभी जमीन से बेदखल। इसके लिये भी बाबा साहेब अंबेडकर ही थे जिन्होंने 1937 में खोती प्रथा के उन्मूलन के लिये बम्बई विधानसभा में बिल प्रस्तुत किया और आंबेडकर जी के प्रयास से खोती प्रथा का उन्मूलन हुआ और किसानों को उनका हक मिला।
1927 में भी ब्रिटिश सरकार ने बम्बई विधानसभा में छोटे किसानों के खेतों को बढ़ा करके भू-स्वामी के हवाले करने का विधेयक पेश किया था, तब भी कोई और नहीं बाबा साहेब अंबेडकर ही थे जिन्होंने इसका विरोध किया था, उन्होंने तर्क दिया था कि खेत का उत्पादक और अनुत्पादक होना उसके आकार पर निर्भर नहीं करता बल्कि किसान के आवश्यक श्रम और पूंजी करता है। उन्होंने कहा था कि समस्या का समाधान खेत का आकार बढ़ाने से नहीं बल्कि सघन खेती से हो सकता है। इसलिये उन्होंने सलाह दी थी कि सामान्य क्षेत्रों में सहकारी कृषि को अपनाया जाये। बाबा साहेब ने इसके पीछे उदाहरण दिया था कि इटली, फ्रांस और इंग्लैण्ड के कुछ हिस्सों में सहकारी कृषि अपनाया जाना फायदेमंद रहा है।
1946 में भी बाबा साहेब अंबेडकर ही थे जिन्होंने संबिधान सभा को भूमि के राष्ट्रीयकरण की मांग को लेकर ज्ञापन दिया था, यह ज्ञापन “स्टेट्स एंड मायनारिटीज” के नाम से आज भी उपलब्ध है। वो भूमि, शिक्षा, बीमा उद्योग, बैंकादि का राष्ट्रीयकरण चाहते थे। वो चाहते थे कि ना कोई जमींदार रहे, ना पट्टेदार और ना ही कोई भूमिहीन।
1954 में भी बाबा साहेब ने भूमि के राष्ट्रीयकरण के लिये संसद में बहस करने के दौरान आवाज उठाई थी पर कांग्रेस ने उनकी नहीं सुनी, क्योंकि भारत का शासन/सत्ता राजाओं, नवाबों और जमींदारों के हाथों में ही आया था, जिसका मुखिया ब्राह्मण था और वो ब्राह्मण/सवर्ण वर्चस्व कायम रखना चाहता था और दलित-पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को आर्थिक रूप से कमजोर।
बाबा साहेब भूमि की सवाल पर भी उतने ही गंभीर थे जितने कि भारत में फैली अन्य समस्याओं के लिऐ। बाबा साहेब ने किसानों की समस्याओं का निवारण हेतु “स्मॉल हॉल्डिंग्स इन इंडिया” नामक शोध-पत्र भी लिखा था, वह भी लोगों को अवश्य पढ़ना चाहिऐ।

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