मंगलवार, 10 अक्तूबर 2017

बुलेट ट्रेन


2022 में बुलेट ट्रेन के आगमन को लेकर आशावाद के संचार में बुराई नहीं है। नतीजा पता है फिर भी उम्मीद है तो यह अच्छी बात है। मोदी सरकार ने हमें अनगिनत ईवेंट दिए हैं। जब तक कोई ईवेंट याद आता है कि अरे हां, वो भी तो था,उसका क्या हुआ, तब तक नया ईवेंट आ जाता है। सवाल पूछकर निराश होने का मौका ही नहीं मिलता। जनता को आशा-आशा का खो-खो खेलने के लिए प्रेरित कर दिया जाता है। प्रेरना की तलाश में वो प्रेरित हो भी जाती है। होनी भी चाहिए। फिर भी ईमानदारी से देखेंगे कि जितने भी ईवेंट लांच हुए हैं, उनमें से ज़्यादातर फेल हुए हैं। बहुतों के पूरा होने का डेट 2019 की जगह 2022 कर दिया गया है। शायद किसी ज्योतिष ने बताया होगा कि 2022 कहने से शुभ होगा। ! काश कोई इन तमाम ईवेंट पर हुए खर्चे का हिसाब जोड़ देता। पता चलता कि इनके ईवेंटबाज़ी से ईवेंट कंपनियों का कारोबार कितना बढ़ा है।

ठीक है कि विपक्ष नहीं है, 2019 में मोदी ही जीतेंगे, शुभकामनाएं, इन दो बातों को छोड़ कर तमाम ईवेंट का हिसाब करेंगे तो लगेगा कि मोदी सरकार अनेक असफल योजनाओं की सफल सरकार है। इस लाइन को दो बार पढ़िये। एक बार में नहीं समझ आएगा।

2016-17 के रेल बजट में बड़ोदरा में भारत की पहली रेल यूनिवर्सिटी बनाने का प्रस्ताव था। उसके पहले दिसंबर 2015 में मनोज सिन्हा ने वड़ोदरा में रेल यूनिवर्सिटी का एलान किया था। अक्तूबर 2016 में खुद प्रधानमंत्री ने वड़ोदरा में रेल यूनिवर्सिटी का एलान किया। सुरेश प्रभु जैसे कथित रूप से काबिल मंत्री ने तीन साल रेल मंत्रालय चलाया लेकिन आप पता कर सकते हैं कि रेल यूनिवर्सिटी को लेकर कितनी प्रगति हुई है।

इसी तरह 2014 में देश भर से लोहा जमा किया गया कि सरदार पटेल की प्रतिमा बनेगी। सबसे ऊंची। 2014 से 17 आ गया। 17 भी बीत रहा है। लगता है इसे भी 2022 के खाते में शिफ्ट कर दिया गया है। इसके लिए तो बजट में कई सौ करोड़ का प्रस्ताव भी किया गया था।

2007 में गुजरात में गिफ्ट और केरल के कोच्ची में स्मार्ट सिटी की बुनियाद रखी गई। गुजरात के गिफ्ट को पूरा होने के लिए 70-80 हज़ार करोड़ का अनुमान बताया गया था। दस साल हो गए दोनों में से कोई तैयार नहीं हुआ। गिफ्ट में अभी तक करीब 2000 करोड़ ही ख़र्च हुए हैं। दस साल में इतना तो बाकी पूरा होने में बीस साल लग जाएगा।

अब स्मार्ट सिटी का मतलब बदल दिया गया है. इसे डस्टबिन लगाने, बिजली का खंभा लगाने, वाई फाई लगाने तक सीमित कर दिया गया। जिन शहरों को लाखों करोड़ों से स्मार्ट होना था वो तो हुए नहीं, अब सौ दो सौ करोड़ से स्मार्ट होंगे। गंगा नहीं नहा सके तो जल ही छिड़क लीजिए जजमान।

गिफ्ट सिटी की बुनियाद रखते हुए बताया जाता था कि दस लाख रोज़गार का सृजन होगा मगर कितना हुआ, किसी को पता नहीं। कुछ भी बोल दो। गिफ्ट सिटी तब एक बडा ईवेंट था, अब ये ईंवेट कबाड़ में बदल चुका है। एक दो टावर बने हैं। जिसमें एक अंतर्राष्ट्रीय स्टाक एक्सचेंज का उदघाटन हुआ है। आप कोई भी बिजनेस चैनल खोलकर देख लीजिए कि इस एक्सचेंज का कोई नाम भी लेता है या नहीं। कोई 20-25 फाइनेंस कंपनियों ने अपना दफ्तर खोला है जिसे दो ढाई सौ लोग काम करते होंगे। हीरानंदानी के बनाए टावर में अधिकांश दफ्तर ख़ाली हैं।

लाल किले से सांसद आदर्श ग्राम योजना का एलान हुआ था। चंद अपवाद की गुज़ाइश छोड़ दें तो इस योजना की धज्जियां उड़ चुकी हैं। आदर्श ग्राम को लेकर बातें बड़ी बड़ी हुईं, आशा का संचार हुआ मगर कोई ग्राम आदर्श नहीं बना। लाल किले की घोषणा का भी कोई मोल नहीं रहा।

जयापुर और नागेपुर को प्रधानमंत्री ने आदर्श ग्राम के रूप में चुना है। यहां पर प्लास्टिक के शौचालय लगाए गए। क्यों लगाए गए? जब सारे देश में ईंट के शौचालय बन रहे हैं तो प्रदूषण का कारक प्लास्टिक के शौचालय क्यों लगाए गए? क्या इसके पीछ कोई खेल रहा होगा?

बनारस में क्योटो के नाम पर हेरिटेज पोल लगाया जा रहा है। ये हेरिटेज पोल क्या होता है। नक्काशीदार महंगे बिजली के पोल हेरिटेज पोल हो गए? ई नौका को कितने ज़ोर शोर से लांच किया गया था। अब बंद हो चुका है। वो भी एक ईवेंट था, आशा का संचार हुआ था। शिंजो आबे जब बनारस आए थे तब शहर के कई जगहों पर प्लास्टिक के शौचालय रख दिए गए। मल मूत्र की निकासी की कोई व्यवस्था नहीं हुई। जब सड़ांध फैली तो नगर निगम ने प्लास्टिक के शौचालय उठाकर डंप कर दिया।

जिस साल स्वच्छता अभियान लांच हुआ था तब कई जगहों पर स्वच्छता के नवरत्न उग आए। सब नवर्तन चुनते थे। बनारस में ही स्वच्छता के नवरत्न चुने गए। क्या आप जानते हैं कि ये नवरत्न आज कल स्वच्छता को लेकर क्या कर रहे हैं।

बनारस में जिसे देखिए कोरपोरेट सोशल रेस्पांसबिलिटी का बजट लेकर चला आता है और अपनी मर्ज़ी का कुछ कर जाता है जो दिखे और लगे कि विकास है। घाट पर पत्थर की बेंच बना दी गई जबकि लकड़ी की चौकी रखे जाने की प्रथा है। बाढ़ के समय ये चौकियां हटा ली जाती थीं। पत्थर की बेंच ने घाट की सीढ़ियों का चेहरा बदल दिया है। सफेद रौशनी की फ्लड लाइट लगी तो लोगों ने विरोध किया। अब जाकर उस पर पीली पन्नी जैसी कोई चीज़ लगा दी गई है ताकि पीली रौशनी में घाट सुंदर दिखे।

प्रधानमंत्री के कारण बनारस को बहुत कुछ मिला भी है। बनारस के कई मोहल्लों में बिजली के तार ज़मीन के भीतर बिछा दिए गए हैं। सेना की ज़मीन लेकर पुलवरिया का रास्ता चौड़ा हो रहा है जिससे शहर को लाभ होगा। टाटा मेमोरियल यहां कैंसर अस्पताल बना रहा है। रिंग रोड बन रहा है। लालपुर में एक ट्रेड सेंटर भी है।

क्या आपको जल मार्ग विकास प्रोजेक्ट याद है? आप जुलाई 2014 के अख़बार उठाकर देखिए, जब मोदी सरकार ने अपने पहले बजट में जलमार्ग के लिए 4200 करोड़ का प्रावधान किया था तब इसे लेकर अखबारों में किस किस तरह के सब्ज़बाग़ दिखाए गए थे। रेलवे और सड़क की तुलना में माल ढुलाई की लागत 21 से 42 प्रतिशत कम हो जाएगा। हंसी नहीं आती आपको ऐसे आंकड़ों पर।

जल मार्ग विकास को लेकर गूगल सर्च में दो प्रेस रीलीज़ मिली है। एक 10 जून 2016 को पीआईबी ने जारी की है और एक 16 मार्च 2017 को। 10 जून 2016 की प्रेस रीलीज़ में कहा गया है कि पहले चरण में इलाहाबाद से लेकर हल्दिया के बीच विकास चल रहा है। 16 मार्च 2017 की प्रेस रीलीज़ में कहा गया है कि वाराणसी से हल्दिया के बीच जलमार्ग बन रहा है। इलाहाबाद कब और कैसे ग़ायब हो गया, पता नहीं।

2016 की प्रेस रीलीज़ में लिखा है कि इलाहाबाद से वाराणसी के बीच यात्रियों के ले जाने की सेवा चलेगी ताकि इन शहरों में जाम की समस्या कम हो। इसके लिए 100 करोड़ के निवेश की सूचना दी गई है। न किसी को बनारस में पता है और न इलाहाबाद में कि दोनों शहरों के बीच 100 करोड़ के निवेश से क्या हुआ है।

यही नहीं 10 जून 2016 की प्रेस रीलीज़ में पटना से वाराणसी के बीच क्रूज़ सेवा शुरू होने का ज़िक्र है। क्या किसी ने इस साल पटना से वाराणसी के बीच क्रूज़ चलते देखा है? एक बार क्रूज़ आया था, फिर? वैसे बिना किसी प्रचार के कोलकाता में क्रूज़ सेवा है। काफी महंगा है।

जुलाई 2014 के बजट में 4200 करोड़ का प्रावधान है। कोई नतीजा नज़र आता है? वाराणसी के रामनगर में टर्मिनल बन रहा है। 16 मार्च 2017 की प्रेस रीलीज़ में कहा गया है कि इस योजना पर 5369 करोड़ ख़र्च होगा और छह साल में योजना पूरी होगी। 2014 से छह साल या मार्च 2017 से छह साल?

प्रेस रीलीज़ में कहा गया है कि राष्ट्रीय जलमार्ग की परिकल्पना 1986 में की गई थी। इस पर मार्च 2016 तक 1871 करोड़ खर्च हो चुके हैं। अब यह साफ नहीं कि 1986 से मार्च 2016 तक या जुलाई 2014 से मार्च 2016 के बीच 1871 करोड़ ख़र्च हुए हैं। जल परिवहन राज्य मंत्री ने लोकसभा में लिखित रूप में यह जवाब दिया था।

नमामि गंगे को लेकर कितने ईवेंट रचे गए। गंगा साफ ही नहीं हुई। मंत्री बदल कर नए आ गए हैं। इस पर क्या लिखा जाए। आपको भी पता है कि एन जी टी ने नमामि गंगे के बारे में क्या क्या कहा है। 13 जुलाई 2017 के इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने कहा है कि दो साल में गंगा की सफाई पर 7000 करोड़ ख़र्च हो गए और गंगा साफ नहीं हुई। ये 7000 करोड़ कहां ख़र्च हुए? कोई सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगा था क्या? या सारा पैसा जागरूकता अभियान में ही फूंक दिया गया? आप उस आर्डर को पढ़ंगें तो शर्म आएगी। गंगा से भी कोई छल कर सकता है?

इसलिए ये ईवेंट सरकार है। आपको ईवेंट चाहिए ईवेंट मिलेगा। किसी भी चीज़ को मेक इन इंडिया से जोड़ देने का फन सबमें आ गया जबकि मेक इन इंडिया के बाद भी मैन्यूफैक्चरिंग का अब तक का सबसे रिकार्ड ख़राब है।

नोट: इस पोस्ट को पढ़ते ही आई टी सेल वालों की शिफ्ट शुरू हो जाएगी। वे इनमें से किसी का जवाब नहीं देंगे। कहेंगे कि आप उस पर इस पर क्यों नहीं लिखते हैं। टाइप किए हुए मेसेज अलग अलग नामों से पोस्ट किए जाएंगे। फिर इनका सरगना मेरा किसी लिखे या बोले को तोड़मरोड़ कर ट्वीट करेगा। उनके पास सत्ता है, मैं निहत्था हूं। दारोगा, आयकर विभाग, सीबीआई भी है। फिर भी कोई मिले तो कह देना कि छेनू आया था।

(ये लेखक के निजी विचार हैं। रवीश कुमार एनडीटीवी के सीनियर एक्जीक्यूटिव एडिटर हैं। ये लेख उनके फेसबुक पोस्ट से लिया गया है।)

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