नाग जाती प्राचीन मानव जातियों में एक प्रमुख जाती मानी गई है ।सूर्यवंश के अंतर्गत यह कश्यप और कद्र की संतान मानी जाती है । क़द्रू को सुरसा भी कहा जाता है । कश्यप और क़द्रू के पुत्रों में अनंन्त ( शेष ) तक्षक , वासुकि ,ककोर्टक ,महापद्मम , पद्मम शंख , ( शंखपाल ) ,क़लिक़,एलापात्र , अश्वत्तर तथा एरावत आदि बारह पुत्रों का वर्णन विधमान है । पुराणो में नागों को शक्तिशाली मानव जाती बतलाया गया है । कतिपय विद्वानों का यह मत है की आर्योंद्वारा नाग जाती के समापन हेतु युद्धो का वर्णन ही नाग यज्ञ का रूप है । अथवा देवासुर संग्रमो का स्वरूप ।
महाभारत में नाग वंश के नामावलियो में वासुकि नाग तक्षक नाग, एरावत वंश, कौरव्य तथा पांडव वंश भी नाग जाति से संबंधित थे । पुराणों में नागों का वर्णन साहित्यिक तथा प्रतीकात्मक दोनों रूपों में है, क्योंकि क्योंकि नाग का अर्थ साँप, रज्जू , पवन , हाथी बादल और पर्वत भी होता है । इन विविध पर्यायवाची शब्दों से नाग जाति के बारे बारे में भ्रांति का पैदा होना नितांत आवश्यक हो जाता है ।महाभारत का कौरव और पांडव वंश चंद्रवंशीय माना जाता है । इस चंद्रवंश में पूरूरवा के बाद युधिष्ठिर 45 वीं पीढ़ी में पैदा होते हैं । इन्ही चंद्रवंशीय पांचवी पीढ़ी में ययाति की पांच संतानों में यदु और तुर्वस देवयानी ( शुक्राचार्य की पुत्री ) के पुत्र हैं । पुर , द्रुह तथा अनु ये तीनों पुत्र सर शर्मिशस्ठा (पुत्री प्रीखपर्वा नागराज ) के पुत्र कहे गए है । बड़े पुत्र यदुवंश से यह वंश यदुवंश तथा नागवंश दोनों नामों से विख्यात हुआ । इसके आगे चलकर चार शाखा हुई वृषनी , भोज , कुकर और आंध्र ।यह आंध्रवंश तक्षक वंश पुकारा गया । जिससे टांक वंश की उत्पत्ति हुई। यही टाक वंश भारशिव नागों का कुल है ।इसकी प्रमुख राजधानी रामायण के अनुसार भोगवती बतलाई गई है तथा ऐतिहासिक रूप से पद्मावती जो ग्वालियर के निकट पदमपवाया है समीकृत की जाती है । अन्य नागो के स्थानों में नागलोक, नागपुर , नागधनवा तीर्थ , नागपुर आदि दिखाए गए हैं ।
महाभारत के शांति पर्व के अनुसार नैमिशर्णय के गोमती के किनारे का एक नगर नागपुर आधुनिक नगवा या नागधनवा प्रतीत होता है । इस नागधनवा क्षेत्र में वासुक नाग का निवास था । इसी नाम का एक और नागों का शहर सरस्वती नदी के किनारे बसा हुआ बताया गया है ।अर्थवेद तैत्तरीय संहिता , छंदोपनिषद तथा गृहसूत्र आदि ग्रंथों में नाग पूजा का उल्लेख होता है । अन्य पुराणों में भी इस बात की पुष्टि होती है कि नाग एक सशक्त जाति के लोग थे । भारतवर्ष में आर्यों से बैर भाव के कारण नाग मुर्तिया तोड़ी गई और कुशलता कुषाणों द्वारा भी नाग पूजा और नाग मूर्तियों को क्षति पहुंचाई गई ।
असुर शब्द ईरानी भाषा का अहूर शब्द का हिंदी रुपांतर है । अहुरमजदा इरान का सबसे प्राचीन ग्रंथ है जो वेदों का समकालीन है । अहूर का स्थान प्राचीन इरान में एक पूज्य देवता के रूप में था । ईरान का आर्यवंश का अंतिम राजा यजूदगर्द अरब वालों द्वारा मारा गया तब उसकी बेटी माहबानू भागकर भारत आ गई । उसी की औलादों के में उदयपुर के राना है । ( इतिहास तिमिरनाशकदृशिवप्रसाद सितारे हिंद ) असुर नूह के पुत्र साम का बेटा था । पश्चिम एशिया का असुर देश जो असुरिया कहालाता था ज्ञान , विज्ञान , इतिहास , भूगोल साहित्यिक तथा जादू टोना आदि में पारंगत था । यह देश असुरिया दजला नदी के पश्चिम कीनारे पर आधुनिक टर्क़ी में स्थित था । उसकी राजधानी निनेव थी को मिश्र , मीडिया और बेबिलोनिया के संयुक्त आक्रमण से जलाकर राख कर दिया गया । यहां से उत्खनन के द्वारा 1850 इसवी में 30000 पक्की ईंटों की पुस्तकें का ढेर प्राप्त हुआ , जो लंदन के म्यूजियम में जमा है । यह असुर शब्द सही अर्थों में असूर्य है जो ऋगवेदिक आर्यों के सूर्य उपासना के ठीक विपरीत है । यही असूर शब्द फिर नागवंशीय ,चंद्रवंशीय, सभी असूर्यवंशी की संज्ञा बन गया । यथा “मृगमित्र विलोकत जले है , चंद निशाचर पद्धति को दृरामचंद्रिका केशवदास ।
फर्गुसन महोदय ने इन नागों को असुर भी कहा है अपने ग्रंथ टी एंड सर्प एंड वरशिप में उन्होंने तूरानी (दक्षिण ईरान ) माना है तथा कर्नल टाड ने इन्हे शकायद्विपिय अर्थात सकार्थिया शेष नाग देश निवासी माना है । बनर्जी शास्त्री ने अपने ग्रंथ असुर इंडिया के पृष्ठ 96 में इन्हें असुर जाति की शक्ति तथा रीड की हड्डी माना है ।और बताया है कि नागों के पतन के बाद भारत में असुरों का भी पतन हो गया । इसका मतलब यही है कि नागों और असुरों में असल में कोई अंतर नहीं था ।यह दोनों नाग और असुर एक ही जाति के व्यक्ति थे जो कभी नाम और कभी असुर की संज्ञाये पा जाते थे । प्रसिद्ध इतिहासकार ए न बनर्जी भी असुरों की एक शाखा को नाग जाति मानते है । डा० गियर्सन के अनुसार नाग जाति अनार्य थी और वे कश्मीर के हुंजा क्षेत्र के निवासी थे । कुछ विद्वान नागटोरम के कारण यह नाग जाति के कहलाते थे । ये एक फन , तीन फन पाँच फन या सात फन की माला जा मुकुट धारण करते थे इसीलिए नाग कहलाते थे । कुछ विद्वान नागों को द्रविंण मानते हैं तथा कुछ नागो की भाषा को द्रविंण भाषा बतलाते हैं ।
अब यह स्पष्ट हो चुका है कि पासी जाति नाग वंश की तक्षक “टाक”शाखा के भार शिव वंशी है तथा पद्मावती राजधानी के नवनाग नृप रह चुके हैं । डॉक्टर अंबेडकर ने स्पष्ट कहा है कि यह देश दासों अथवा नागों का घर है । अब हमें यह देखना है कि क्या किसी भारतीय विद्वान ने भी पासी जाति को असुर भी कहा है ? उत्तर हाँ में है ।
उदाहरण देखिए संपन्न नागो के घर प्रायः भूमिगत होते हैं । बड़ी-बड़ी बावड़ियों में और इनदौरों के भीतर इनके दो दो महले के पक्के भवन होते हैं । उनके भीतर जाने के द्वार गुप्त और प्रायः बड़े-बड़े बिलो के आकार के होते हैं असुर और पासीजन दारू बनाने सुरंगे खोदने धनुष चलाने और चौर्यकला में परम निपुण होते हैं । अवध में इन की धनि बस्तीया है । ” एकदा नैमीषारण्य” -पृष्ठ संख्या -72 , लेखक अमृतलाल नागर । उपरोक्त कथन से यह ध्वनित होता है कि नाग और पासी पासी एक जाति की पृथक पृथक प्रथक नामावलीया है ।पासी असुर भी है और आर्यों के कट्टर प्रतिद्वंद्वी भी पासी जाती रही है । इसका सरल अर्थ यह हुआ कि पासी जाति का यह नाम आधुनिक है । पासी जाति के दुर्गुण जो नागर जी द्वारा बताए गए हैं वह युद्धकाल में वह सब सद्गगुण हो जाया करते हैं । सन 1857 की आजादी की लड़ाई में भारत की अन्य जातियों के अपेक्षा इसका ज्यादातर सराहनीय योगदान रहा है । पासी लोगों ने सुरंगे खोदीं , शत्रुओं के गोला-बारूद लूटे, चुराए, बहादुरीपूर्ण धनुष बाण का प्रयोग किया । यह सब विवरण ऐतिहासिक पुस्तकों में देखा जा सकता है ।
अंत में हम यह कह सकते हैं की ” अर्थात भूखा आदमी कौनसा अपराध नहि करता ? हम अपराधी नहि है । और न ही देशप्रेम विहीन हृदय वाले । हम कुशाणओ को देश से बाहर भगाने वाले , दस -दस यज्ञ रचाने वाले , कुआँ , घाट , तालाब ,बनाने वाले और शैव धर्मी सच्चे भारशिव वंशी लोग है । लेकिन भारत के इतिहासकारों ने भारशिव वंश के साथ न्याय नही किया । जिसे डॉ काशीप्रसाद जायसवाल ने समृद्ध किया है।
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