इस प्रकार की तमाम प्रकार की दुखद ख़बरें हर रोज अख़बार, दूरदर्शन या फिर सोशल मीडिया पर देखने को मिलती है। कुल मिलाकर निष्कर्ष यह है कि मनुस्मृति मानव समाज के लिए खतरा है। यह मानवीय मूल्यों को ठेस पहुंचाती है। मनुस्मृति को मनु नाम के काल्पनिक व्यक्ति ने लिखा था। काल्पनिक इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि मनु को किसी ने देखा नहीं था और न ही इतिहास में मनु की शक्ल के बारे में कोई जानकारी मिलती है। मनुस्मृति की वजह से मूलनिवासियों के साथ अन्याय होता आ रहा है। भारत में महिलाओं के विरोध में कई प्रकार की रुढ़िवादी परम्पराएँ चलती आ रही हैं। मिसाल के लिए दहेज़ प्रथा हो या घुंघट प्रथा, कन्या भ्रूण हत्या हो या बाल विवाह या कन्या-दान शब्द।
मनुस्मृति दहन का मकसद मूलनिवासियों के साथ हो रहे अत्याचार एवं अन्याय को खत्म करके समानता वाले समाज की स्थापना करना था। यानी कि छुआछूत, जाति आधारित भेदभाव, ऊँच-नीच, को ख़त्म करना तो था ही, इसके साथ-साथ चार वर्णों की व्यवस्था को भी ख़त्म करना था यानी कि ब्राह्मणवाद को ख़त्म करके समाजवाद, आम्बेडकरवाद स्थापित करना था। ब्राह्मणवाद के खिलाफ संघर्ष के लिए मनुस्मृति दहन दिवस मील का पत्थर साबित हुआ। बाबा साहेब आम्बेडकर ने उस दिन शाम को दिए भाषण में कहा था कि मनुस्मृति-दहन 1789 की “फ्रेंच -रेवोलुशन” के बराबर है। जाहिर है कि बाबा साहेब आम्बेडकर हिन्दू समाज में जात-पात के खिलाफ थे और सारा आम्बेडकरी साहित्य इस बात की पुष्टि करता है। इस प्रकार से मेरी राय के अनुसार मनुस्मृति मानवता के विरुद्ध है व उसका रचियता मनु अन्याय का प्रतीक है। 28 जून 1989 को राजस्थान हाई कोर्ट के नये परिसर में मनु की मूर्ति का इंस्टालेशन किया गया था। माना जाता है कि मूर्ति की डिमांड लोकप्रिय नहीं थी और स्पष्ट है कि कुछ ‘पाखंडी’ लोग ही इस प्रकार अन्याय का समर्थन कर सकते हैं। शुरुआत से लेकर कार्य पूर्ण तक इस काम को गोपनीय रूप से अंजाम दिया गया, इसलिए चलते काम के बीच इसका विरोध नहीं हो पाया। इसकी जानकारी केवल उन्ही लोगों को थी जो मूर्ति लगवाना चाहते थे। स्पष्ट है कि मनु अन्याय का प्रतीक है, इसके बावजूद भी कुछ पाखंडी एवं रुढ़िवादी लोगों की डिमांड का सम्मान करते हुए न्यायालय द्वारा मनु, जिसको किसी ने देखा भी नहीं होगा फिर भी उसकी मूर्ति या पुतला बनाकर राजस्थान के जोधपुर उच्च न्यायलय में लगाया जाना अन्याय के पक्ष में जाकर फैसला देने के बराबर है।
ध्यान रहे कि संवैधानिक रूप से न्यायालय एक ऐसी संस्थान है जहाँ पर सामाजिक व आर्थिक न्याय की उम्मीद की जाती है। मूर्ति लगने के बाद कई मूलनिवासी संगठनों ने इसके विरोध में धरना प्रदर्शन किया। धरना प्रदर्शन को देखते हुए 27 जुलाई 1989 को राजस्थान के जोधपुर हाई कोर्ट की ही एकल पीठ ने 48 घंटे की समयावधि के अन्दर-अन्दर मूर्ति को हटाने का निर्देश दिया। इसे ध्यान में रखते हुए विश्व हिन्दू परिषद के आचार्य धर्मेन्द्र ने न्यायमूर्ति महेंद्र भूषण के न्यायालय में एक रिट पिटीशन दाखिल कर दी और न्यायलय ने स्टे आर्डर लगाकर मूर्ति हटाने से मना कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि मनु की मूर्ति राजस्थान के जोधपुर हाई कोर्ट में आज भी लगी है।
प्रश्न यह है कि ऐसा न्यायालय न्याय देता होगा कि केवल फैसला ?
भारतीय संविधान में मनुस्मृति से सम्बंधित कानून :- राष्ट्र निर्माता डॉ बाबा साहेब भीमराव आम्बेडकर व संविधान निर्माण
समिति के द्वारा मनुस्मृति सम्बंध में अप्रत्यक्ष रूप से एक प्रावधान लाया गया जिसके अंतर्गत भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13 में अगर 26 जनवरी 1950 के बाद अगर कोई पुरानी परम्परा या विधान जो मौलिक अधिकारों का हनन करे, जो किसी प्रकार की रूढी भी हो सकती है, तो इस प्रकार की परम्परा को अनुच्छेद 13 का उल्लंघन माना जायेगा। इस प्रकार से मेरा मानना है कि मनु की मूर्ति का हाई कोर्ट में लगा होना एक प्रकार से संविधान की अवमानना है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें