शनिवार, 21 सितंबर 2019

संत नारायण गुरु स्मृति दिन





संत नारायण गुरू के 91वें स्मृति दिन पर दैनिक मूलनिवासी नायक परिवार की ओर से सादर आदरांजलि!
लगभग सौ वर्ष तक पहले ट्रावनकोर और कोचीन (वर्तमान केरल राज्य) ऐसा क्षेत्र था जहाँ निम्न जाति वालों के लिये मंदिर, विद्यालय और सार्वजनिक स्थलों में प्रवेश वर्जित था. कुंओं का इस्तेमाल वे कर नहीं सकते थे. इस जाति के मर्द और औरतों के लिए कमर से ऊपर कपड़े पहनना तक का बड़ा गुनाह था, तो फिर गहने पहनने का तो सवाल ही नहीं था. इन्हें अछूत तो समझा जाता ही था, उनकी परछाइयों से भी लोग दूर रहते थे. बड़े लोगों से कितनी दूरी पर खड़े होना है वह दूरी भी जातियों के आधार पर निर्धारित थी और यह दूरी यह 5 फीट से 30 फीट तक थी. कुछ जातियों के लोगों को तो देख भर लेने से छूत लग जाती थी.

 उन्हें चलते समय दूर से ही अपने आने की सूचना देनी पड़ती थी. वे लोग जोर-जोर से चिल्लाते जाते थे कि ‘‘मेरे मालिकों, मैं इधर ही आ रहा हूँ, कृपया अपनी नजरें घुमा लें“ ये लोग अपने बच्चों के सुन्दर और सार्थक नाम भी नहीं रख सकते थे. नाम ऐसे होते थे जिनसे दासता और हीनता का बोध होता हो. ऐसे किसी भी सामाजिक नियम का उल्लंघन करने पर मौत की सजा निर्धारित थी. भले ही उल्लंघन गलती से हो गया हो. इन सारे अत्याचारों के बीच एक शख्स ने ऐसा चमत्कार कर दिखाया था, जिसने पूरे समाज को ही बदल दिया. इस स्थिति के खिलाफ संघर्ष करने वाले शोषितों को इस गुलामी से बाहर निकालने वाले महापुरुष का नाम था नारायण गुरू. उनका जन्म केरल में 26 अगस्त 1856 को हुआ था. जिन्होंने अपने दृढ़निश्चय से समाज की सूरत बदलकर मनुवादियों की धज्जियाँ उड़ा दीं.

नारायण गुरु जैसे महान युगपुरुष को देश के कई हिस्सों के लोगों द्वारा ज्यादा नहीं जान पाना दुर्भाग्यपूर्ण है. नारायण गुरु का जन्म एक साधारण परिवार में हुआ था. समाज की दशा को देखकर उन्हें बहुत दुख हुआ. केरल में नैयर नदीं के किनारे एक जगह है अरुविप्पुरम, तब यहाँ घना जंगल था, नारायण गुरु यहीं एकांतवास में आकर रहने लगे. उसी दौरान गुरुजी को एक मंदिर बनाने का विचार आया. नारायण गुरु एक ऐसा मंदिर बनाना चाहते थे जिसमें किसी किस्म का कोई भेदभाव न हो. जाति, धर्म, मर्द और औरत का कोई बंधन न हो. अरुविप्पुरम में उन्होंने एक मंदिर बनाकर एक इतिहास रचा. अरुविप्पुरम का मंदिर इस देश का शायद पहला मंदिर है, जहाँ बिना किसी जातिभेद के कोई भी पूजा कर सकता था. नारायण गुरु के इस क्रांतिकारी कदम से उस समय जाति के बंधनों में जकड़े समाज में हंगामा खड़ा हो गया. वहाँ के ब्राह्माणों ने इसे महापाप करार दिया था. दरअसल, वह एक ऐसे धर्म की खोज में थे जहाँ समाज का हर आदमी एक-दूसरे से जुड़ाव महसूस कर सके. वह एक ऐसे ‘बुद्ध’ की खोज में थे जो सभी मनुष्यों को समान दृष्टि से देखे. वह ढ़ोगी समाज द्वारा निम्न ठहरा दी गई जाति के लोगों को स्वाभिमान से जीते देखना चाहते थे. लोगों ने शिकायत की कि उनके बच्चों को स्कूलों में नहीं जाने दिया जाता है. उन्होंने कहा कि अपने बच्चों के लिए स्कूल स्वयं बना लो और इतनी अच्छी तरह चलाओ कि वे भी तुम्हारे स्कूलों में अपने बच्चों को भेजने को इच्छुक हो जाएं. लोगों ने कहा कि उन्हें मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया जाता, उन्होंने कहा कि न तो जबरदस्ती प्रवेश करने की जरूरत है और न प्रवेश की अनुमति के लिए गिड़गिड़ाने की.

रवीन्द्रनाथ टैगोर ने उनसे मिलने के बाद कहा था ‘मैंने लगभग पूरी दुनिया का भ्रमण किया है और मुझे अनेक संतों और महर्षियों से मिलने का सौभाग्य मिला है. लेकिन, मैं खुलकर स्वीकार करता हूँ कि मुझे आज तक ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं मिला जिसकी आध्यात्मिक उपलब्धियाँ नारायण गुरु से अधिक हों, बल्कि बराबर भी हो’ उनके कार्यों की सफलता से प्रभावित होकर मिस्टर गाँधी उनसे मिलकर बातचीत करने को बहुत इच्छुक हुए और उन्होंने पूछा कि क्या गुरुजी अंग्रेजी जानते हैं? गुरुजी ने पलटकर पूछा कि क्या गांधीजी संस्कृत में बातचीत करेंगे? उन्होंने हमेशा अपने अनुयायियों को शिक्षा के माध्यम से जानकार और जागरूक बनने, संगठित होकर मजबूत बनने और कठिन परिश्रम से समृद्धि प्राप्त करने की शिक्षा दी. ब्राह्मणवाद के विरुद्ध लड़ते-लड़ते लगभग 72 वर्ष की आयु में उनका परिनिर्वाण 20 सितंबर 1928 को हो गया. उनके सम्मान में भारत सरकार ने 21 अगस्त 1967 को 15 पैसे व श्रीलंका सरकार ने 04 सितंबर 2009 को 05 रुपये के डाक टिकट जारी किये. उनके 91वें स्मृति दिन पर दैनिक मूलनिवासी नायक परिवार की ओर से सादर आदरांजलि! 

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