भारत का इतिहास
इंडस वैली (सिन्धु घाटी) की सभ्यता(3200 BC से पहले)
आज से लगभग पाँच हजार वर्ष पूर्व (3200 BC से पहले) भारत मे इंडस वैली (सिन्धु घाटी) की सभ्यता का इतिहास मिलता है और यह सभ्यता दुनिया के अग्रणी सभ्यताओ मे मानी जाती थी। यह सभ्यता महान नागवंशियों और द्रविड़ों द्वारा स्थापित की गयी थी जिनको आज एससी, एसटी, ओबीसी और आदिवासी कहा जाता है, यह लोग भारत के मूलनिवासी है। इंडस वैली (सिन्धु घाटी) की सभ्यता एक नगर सभ्यता थी जो कि आधुनिक नगरो की तरह पूर्णतः योजनाबद्ध एवं वैज्ञानिक ढंग से बसी हुयी थी।
विदेशी आर्य आक्रमण (3100BC-1500)
विदेशी आर्य ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जोकि असभ्य, जंगली एवं ख़ानाबदोश थे और यूरेशिया से देश निकाले की सजा के द्वारा निकले गए लोग थे। इन युरेशियनों के आगमन से पूर्व हमारे समाज के लोग प्रजातान्त्रिक एवं स्वतंत्र सोच के थे एवं उनमे कोई भी जाति व्यस्था नहीं थी। सब लोग मिलकर प्रेम एवं भाईचारे के साथ मिलजुल कर रहते थे। ऐसा इतिहास इंडस वैली (सिन्धु घाटी) की सभ्यता का मिलता है। फिर विदेशी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य लगभग 3100 ईसा पूर्व भारत आये और उनका यहाँ के मूलनिवासियो के साथ संघर्ष हुआ।
वैदिक काल (1500-600BC)
यूरेशियन लोग (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) साम, दाम, दंड एवं भेद की नीत से किसी तरह संघर्ष में जीत गए। परन्तु युरेशियनों की समस्या थी कि बहुसंख्यक मूलनिवासी लोगों को हमेशा के लिए नियंत्रित कैसे रखा जाए। इसलिए उन्होंने मूलनिवासियो को पहले वात्य-स्तोम (धर्म परिवर्तन) करवाके अपने धर्म में जोड़ा। फिर युरेशियनों ने मूलनिवासियों को नीच साबित करने के लिए वर्ण व्यवस्था स्थापित की, जिसमें मूलनिवासियों को चौथे वर्ण शूद्र मे रख दिया। समय के साथ यूरेशियन ब्राह्मण, क्षत्रिय और विषयों ने मूलनिवासियों को वर्ण पर आधारित कानून बना कर शिक्षा (ज्ञान बल), अस्त्र-शस्त्र रखने (शस्त्र बल), और संपति(धन बल) के अधिकार से वंचित कर दिया। इस नियम को ऋग वेद मे डालकर और ऋग वेद को ईश्वरीकृत घोषित कर दिया और इस तरह बहुसंख्यक आबादी को (ज्ञान बल), अस्त्र-शस्त्र रखने (शस्त्र बल), और संपति रखने (धन बल), के अधिकार से वंचित कर मानसिक रूप से गुलाम और लाचार बना दिया। इसे वैदिक संस्कृति, आश्रम संस्कृति या ब्राह्मण संस्कृति कहते है जो श्रेणी बद्ध असमानता का सिधांत पर समाज को चारो वर्णो मे विभक्त करती है।
तथागत गौतम बुद्ध (श्रमण संस्कृति का उत्थान) 563 BC-483BC
तथागत बुद्ध ने वैदिक संस्कृति के विरुद्ध आंदोलन किया और अनित्य, अनात्म एवं दुख का दर्शन देकर वेद के “ईश्वरी कृत” होने और “आत्मा” के सिधान्त को चुनौती दी। उन्होने वैदिक संस्कृत के “जन्मना सिधान्त” को नकार “कर्मणा सिधान्त” का प्रतिपादन किया और वर्ण व्यवस्था के सिधान्त को नकार दिया और समतावादी और मानवतावादी दर्शन का प्रचार किया। वैदिक संस्कृति के यज्ञों मे पशुओ की बली दी जाती थी। इस तरह के कर्म कांड को भी तथागत ने नकार दिया। बुद्ध के मानवीय शिक्षाओं के प्रसार के बाद ब्राह्मणों का वैदिक धर्म बुरी तरह हीन माना जाने लगा था। तथागत ने अपने पुरे जीवन को इस दर्शन को स्थापित करने मे लगाया और पुनः श्रमण संस्कृत को स्थापित किया। जोकि मूलनिवासियों की संस्कृति थी। तब भारतीय इतिहास का सम्राट अशोक का स्वर्ण काल आया।
इंडस वैली (सिन्धु घाटी) की सभ्यता(3200 BC से पहले)
आज से लगभग पाँच हजार वर्ष पूर्व (3200 BC से पहले) भारत मे इंडस वैली (सिन्धु घाटी) की सभ्यता का इतिहास मिलता है और यह सभ्यता दुनिया के अग्रणी सभ्यताओ मे मानी जाती थी। यह सभ्यता महान नागवंशियों और द्रविड़ों द्वारा स्थापित की गयी थी जिनको आज एससी, एसटी, ओबीसी और आदिवासी कहा जाता है, यह लोग भारत के मूलनिवासी है। इंडस वैली (सिन्धु घाटी) की सभ्यता एक नगर सभ्यता थी जो कि आधुनिक नगरो की तरह पूर्णतः योजनाबद्ध एवं वैज्ञानिक ढंग से बसी हुयी थी।
विदेशी आर्य आक्रमण (3100BC-1500)
विदेशी आर्य ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जोकि असभ्य, जंगली एवं ख़ानाबदोश थे और यूरेशिया से देश निकाले की सजा के द्वारा निकले गए लोग थे। इन युरेशियनों के आगमन से पूर्व हमारे समाज के लोग प्रजातान्त्रिक एवं स्वतंत्र सोच के थे एवं उनमे कोई भी जाति व्यस्था नहीं थी। सब लोग मिलकर प्रेम एवं भाईचारे के साथ मिलजुल कर रहते थे। ऐसा इतिहास इंडस वैली (सिन्धु घाटी) की सभ्यता का मिलता है। फिर विदेशी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य लगभग 3100 ईसा पूर्व भारत आये और उनका यहाँ के मूलनिवासियो के साथ संघर्ष हुआ।
वैदिक काल (1500-600BC)
यूरेशियन लोग (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) साम, दाम, दंड एवं भेद की नीत से किसी तरह संघर्ष में जीत गए। परन्तु युरेशियनों की समस्या थी कि बहुसंख्यक मूलनिवासी लोगों को हमेशा के लिए नियंत्रित कैसे रखा जाए। इसलिए उन्होंने मूलनिवासियो को पहले वात्य-स्तोम (धर्म परिवर्तन) करवाके अपने धर्म में जोड़ा। फिर युरेशियनों ने मूलनिवासियों को नीच साबित करने के लिए वर्ण व्यवस्था स्थापित की, जिसमें मूलनिवासियों को चौथे वर्ण शूद्र मे रख दिया। समय के साथ यूरेशियन ब्राह्मण, क्षत्रिय और विषयों ने मूलनिवासियों को वर्ण पर आधारित कानून बना कर शिक्षा (ज्ञान बल), अस्त्र-शस्त्र रखने (शस्त्र बल), और संपति(धन बल) के अधिकार से वंचित कर दिया। इस नियम को ऋग वेद मे डालकर और ऋग वेद को ईश्वरीकृत घोषित कर दिया और इस तरह बहुसंख्यक आबादी को (ज्ञान बल), अस्त्र-शस्त्र रखने (शस्त्र बल), और संपति रखने (धन बल), के अधिकार से वंचित कर मानसिक रूप से गुलाम और लाचार बना दिया। इसे वैदिक संस्कृति, आश्रम संस्कृति या ब्राह्मण संस्कृति कहते है जो श्रेणी बद्ध असमानता का सिधांत पर समाज को चारो वर्णो मे विभक्त करती है।
तथागत गौतम बुद्ध (श्रमण संस्कृति का उत्थान) 563 BC-483BC
तथागत बुद्ध ने वैदिक संस्कृति के विरुद्ध आंदोलन किया और अनित्य, अनात्म एवं दुख का दर्शन देकर वेद के “ईश्वरी कृत” होने और “आत्मा” के सिधान्त को चुनौती दी। उन्होने वैदिक संस्कृत के “जन्मना सिधान्त” को नकार “कर्मणा सिधान्त” का प्रतिपादन किया और वर्ण व्यवस्था के सिधान्त को नकार दिया और समतावादी और मानवतावादी दर्शन का प्रचार किया। वैदिक संस्कृति के यज्ञों मे पशुओ की बली दी जाती थी। इस तरह के कर्म कांड को भी तथागत ने नकार दिया। बुद्ध के मानवीय शिक्षाओं के प्रसार के बाद ब्राह्मणों का वैदिक धर्म बुरी तरह हीन माना जाने लगा था। तथागत ने अपने पुरे जीवन को इस दर्शन को स्थापित करने मे लगाया और पुनः श्रमण संस्कृत को स्थापित किया। जोकि मूलनिवासियों की संस्कृति थी। तब भारतीय इतिहास का सम्राट अशोक का स्वर्ण काल आया।
प्रथम बौद्ध संगीति’ का आयोजन (483BC)
‘प्रथम बौद्ध संगीति’ का आयोजन 483 ई.पू. में राजगृह (आधुनिक राजगिरि), बिहार की ‘सप्तपर्णि गुफ़ा’ में किया गया था। तथागत गौतम बुद्ध के महापरिनिर्वाण के तुरंत बाद ही इस संगीति का आयोजन हुआ था। इसमें बौद्ध स्थविरों (थेरों) ने भाग लिया और तथागत बुद्ध के प्रमुख शिष्य महाकाश्यप ने उसकी अध्यक्षता की। चूँकि तथागत बुद्ध ने अपनी शिक्षाओं को लिपिबद्ध नहीं किया था, इसीलिए प्रथम संगीति में उनके तीन शिष्यों-‘महापण्डित महाकाश्यप’, सबसे वयोवृद्ध ‘उपालि’ तथा सबसे प्रिय शिष्य ‘आनन्द’ ने उनकी शिक्षाओं का संगायन किया।
‘प्रथम बौद्ध संगीति’ का आयोजन 483 ई.पू. में राजगृह (आधुनिक राजगिरि), बिहार की ‘सप्तपर्णि गुफ़ा’ में किया गया था। तथागत गौतम बुद्ध के महापरिनिर्वाण के तुरंत बाद ही इस संगीति का आयोजन हुआ था। इसमें बौद्ध स्थविरों (थेरों) ने भाग लिया और तथागत बुद्ध के प्रमुख शिष्य महाकाश्यप ने उसकी अध्यक्षता की। चूँकि तथागत बुद्ध ने अपनी शिक्षाओं को लिपिबद्ध नहीं किया था, इसीलिए प्रथम संगीति में उनके तीन शिष्यों-‘महापण्डित महाकाश्यप’, सबसे वयोवृद्ध ‘उपालि’ तथा सबसे प्रिय शिष्य ‘आनन्द’ ने उनकी शिक्षाओं का संगायन किया।
द्वितीय बौद्ध संगीति (383 BC)
एक शताब्दी बाद बुद्धोपदिष्ट कुछ विनय-नियमों के सम्बन्ध में भिक्षुओं में विवाद उत्पन्न हो जाने पर वैशाली में दूसरी संगीति हुई। इस संगीति में विनय-नियमों को कठोर बनाया गया और जो बुद्धोपदिष्ट शिक्षाएँ अलिखित रूप में प्रचलित थीं, उनमें संशोधन किया गया।
एक शताब्दी बाद बुद्धोपदिष्ट कुछ विनय-नियमों के सम्बन्ध में भिक्षुओं में विवाद उत्पन्न हो जाने पर वैशाली में दूसरी संगीति हुई। इस संगीति में विनय-नियमों को कठोर बनाया गया और जो बुद्धोपदिष्ट शिक्षाएँ अलिखित रूप में प्रचलित थीं, उनमें संशोधन किया गया।
तृतीय बौद्ध संगीति (249 BC)
बौद्ध अनुश्रुतियों के अनुसार बुद्ध के परिनिर्वाण के 236 वर्ष बाद सम्राट अशोक के संरक्षण में तृतीय संगीति 249 ईसा पूर्व में पाटलीपुत्र में हुई थी। इसकी अध्यक्षता प्रसिद्ध बौद्ध ग्रन्थ ‘कथावत्थु’ के रचयिता तिस्स मोग्गलीपुत्र ने की थी। विश्वास किया जाता है कि इस संगीति में त्रिपिटक को अन्तिम रूप प्रदान किया गया। यदि इसे सही मान लिया जाए कि अशोक ने अपना सारनाथ वाला स्तम्भ लेख इस संगीति के बाद उत्कीर्ण कराया था, तब यह मानना उचित होगा, कि इस संगीति के निर्णयों को इतने अधिक बौद्ध भिक्षु-भिक्षुणियों ने स्वीकार नहीं किया कि अशोक को धमकी देनी पड़ी कि संघ में फूट डालने वालों को कड़ा दण्ड दिया जायेगा।
बौद्ध अनुश्रुतियों के अनुसार बुद्ध के परिनिर्वाण के 236 वर्ष बाद सम्राट अशोक के संरक्षण में तृतीय संगीति 249 ईसा पूर्व में पाटलीपुत्र में हुई थी। इसकी अध्यक्षता प्रसिद्ध बौद्ध ग्रन्थ ‘कथावत्थु’ के रचयिता तिस्स मोग्गलीपुत्र ने की थी। विश्वास किया जाता है कि इस संगीति में त्रिपिटक को अन्तिम रूप प्रदान किया गया। यदि इसे सही मान लिया जाए कि अशोक ने अपना सारनाथ वाला स्तम्भ लेख इस संगीति के बाद उत्कीर्ण कराया था, तब यह मानना उचित होगा, कि इस संगीति के निर्णयों को इतने अधिक बौद्ध भिक्षु-भिक्षुणियों ने स्वीकार नहीं किया कि अशोक को धमकी देनी पड़ी कि संघ में फूट डालने वालों को कड़ा दण्ड दिया जायेगा।
चतुर्थ बौद्ध संगीति
चतुर्थ और अंतिम बौद्ध संगीति कुषाण सम्राट कनिष्क के शासनकाल (लगभग 120-144 ई.) में हुई। यह संगीति कश्मीर के ‘कुण्डल वन’ में आयोजित की गई थी। इस संगीति के अध्यक्ष वसुमित्र एवं उपाध्यक्ष अश्वघोष थे। अश्वघोष कनिष्क का राजकवि था। इसी संगीति में बौद्ध धर्म दो शाखाओं हीनयान और महायान में विभाजित हो गया।
चतुर्थ और अंतिम बौद्ध संगीति कुषाण सम्राट कनिष्क के शासनकाल (लगभग 120-144 ई.) में हुई। यह संगीति कश्मीर के ‘कुण्डल वन’ में आयोजित की गई थी। इस संगीति के अध्यक्ष वसुमित्र एवं उपाध्यक्ष अश्वघोष थे। अश्वघोष कनिष्क का राजकवि था। इसी संगीति में बौद्ध धर्म दो शाखाओं हीनयान और महायान में विभाजित हो गया।
हुएनसांग के मतानुसार सम्राट कनिष्क की संरक्षता तथा आदेशानुसार इस संगीति में 500 बौद्ध विद्वानों ने भाग लिया और त्रिपिटक का पुन: संकलन व संस्करण हुआ। इसके समय से बौद्ध ग्रंथों के लिए पाली भाषा का प्रयोग हुआ और महायान बौद्ध संप्रदाय का भी प्रादुर्भाव हुआ। इस संगीति में नागार्जुन भी शामिल हुए थे। इसी संगीति में तीनों पिटकों पर टीकायें लिखी गईं, जिनको ‘महाविभाषा’ नाम की पुस्तक में संकलित किया गया। इस पुस्तक को बौद्ध धर्म का ‘विश्वकोष’ भी कहा जाता है।
सम्राट अशोक प्राचीन भारत के मौर्य सम्राट बिंदुसार का पुत्र था और चंद्रगुप्त का पौत्र था । जिसका जन्म लगभग 304 ईसा पूर्व में चैत्र शुक्ल अष्टमी को माना जाता है। 272 ईसा पूर्व अशोक को राजगद्दी मिली और 232 ई. पूर्व तक उसने शासन किया। अशोक ने 40 वर्ष राज्य किया। चंद्रगुप्त की सैनिक प्रसार की नीति ने वह स्थायी सफलता नहीं प्राप्त की, जो अशोक की धम्म विजय ने की थी। कलिंग के युद्ध के बाद अशोक ने व्यक्तिगत रूप से बौद्ध धर्म अपना लिया। अशोक के शासनकाल में ही पाटलिपुत्र में तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन किया गया, जिसकी अध्यक्षता मोगाली पुत्र तिष्या ने की। इसी में अभिधम्मपिटक की रचना हुई और बौद्ध भिक्षु विभिन्नी देशों में भेजे गये जिनमें अशोक के पुत्र महेन्द्र एवं पुत्री संघमित्रा को श्रीलंका भेजा गया । बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के फ़लस्वरुप अशोक द्वारा यज्ञों पर रोक लगा दिये जाने के बाद यूरेशियन ब्राह्मणों ने “पुरोहित का कर्म त्यागकर” सैनिक वृति को अपना लिया था। पुष्यमित्र शुंग नाम के एक ब्राह्मण ने घुसपैठ करके मौर्य वंश के 10 वे उत्तराधिकारी “वृहदत्त” का सेनापति बनकर एक दिन सेना का निरिक्षण करते समय धोखे से उसका कत्ल कर दिया। उसने ‘सेनानी’ की उपाधि धारण की थी। दीर्घकाल तक मौर्यों की सेना का सेनापति होने के कारण पुष्यमित्र इसी रुप में विख्यात था तथा राजा बन जाने के बाद भी उसने अपनी यह उपाधि बनाये रखी। शुंग काल में संस्कृत भाषा का पुनरुत्थान हुआ तथा मनुस्मृति के वर्तमान स्वरुप की रचना इसी समय में हुई। वैदिक धर्म एवं आदेशों की जो अशोक के शासनकाल में अपेक्षित हो गये थे को पुनः कठोरता से लागू किया। इसी कारण इसका काल वैदिक प्रतिक्रांति अथवा वैदिक पुनर्जागरण का काल कहलाता। पुष्यमित्र शुंग ने घोषणा किया जो बुद्धिस्ट भिख्खु (Monk) का सिर लाकर देगा वो उसे 100 सोने की सिक्के देगा। बहुत कत्ले आम हुआ।
श्रमण संस्कृत के मानने वाले चार वर्ग मे विभक्त हो गए —
1. जो उनकी अधीनता स्वीकार कर लिए वो सछूत शूद्र बने अर्थात आज का ओबीसीOBC
2. जो लड़ाई से दूर जंगल और पहाड़ मे चले गए अर्थात आज का अनुसूचित जन जाति ST
3. जो ब्राह्मणवाद के सामने नहीं झुका वो है आज का अछूत शूद्र अर्थात अनुसूचित जाति SC
4. जो आज भी ब्राह्मणवाद के आगे नहीं झुके है और जंगलों में रहते है अर्थात आदिवासी
1. जो उनकी अधीनता स्वीकार कर लिए वो सछूत शूद्र बने अर्थात आज का ओबीसीOBC
2. जो लड़ाई से दूर जंगल और पहाड़ मे चले गए अर्थात आज का अनुसूचित जन जाति ST
3. जो ब्राह्मणवाद के सामने नहीं झुका वो है आज का अछूत शूद्र अर्थात अनुसूचित जाति SC
4. जो आज भी ब्राह्मणवाद के आगे नहीं झुके है और जंगलों में रहते है अर्थात आदिवासी
मनुस्मृति की रचना के बाद ब्राह्मणों ने एक बहुत बड़ा जातिप्रथा नाम का षड्यंत्र रचा और फिर इस बार मूलनिवासियों (SC, ST, OBC ) को 6743 जतियों/टुकडो में तोड़ कर जन बल से भी वंचित कर दिया गया। ऐसा तंत्र तैयार किया गया कि इसको तोड़ना अत्यंत कठिन रहे। और उनमे श्रेणीबध असमानता का सिधांत अर्थात जातिव्यवस्था का सिधांत, लागु किया और उनको धर्म, वेदों एवं शास्त्रों के माध्यम से मानसिक रूप से गुलाम बनाया।
उसके बाद समय समय पर ब्राह्मणों ने बहुत से धर्म शास्त्रों की रचना करके जो अंधश्रधा और अन्धविश्वास पर आधारित है लिखे और उनको मूलनिवासियों पर जबरदस्ती धर्म के नाम पर थोप दिया। इस प्रकार हम देखते है कि धर्म ही मूलनिवासियों की गुलामी का मुख्य आधार है यही वो षड्यंत्र है जिसके कारण आज भी मिल्निवासी मानसिक तौर से गुलाम है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य आज भी इसी षड्यंत्र के माध्यम से देश पर राज कर रहे है।
इतिहास में हजारों मूलनिवासी महापुरुष हुए जिन्होंने मानवता पर आधारित मानव जीवन की शिक्षा दी, लेकिन किसी भी महापुरुष ने ना तो कोई धर्म बनाया और ना ही किसी धर्म की कभी बात की। हमारे महापुरुष जानते थे कि धर्म का सही अर्थ सिर्फ शोषण है। रविदास, नानक, कबीर, ज्योति राव फुले, नारायण गुरु, पेरियार, सावित्री बाई फुले और बाबा साहब भीम राव अम्बेडकर ने कोई भी धर्म नहीं बनाया। महापुरुष जानते थे कि अगर हम कोई धर्म बनाते है तो यह वही बात हो जायेगी कि लोगों को एक अंधे कुए से निकल कर दूसरे अंधे कुए में धकेल देना। कोई भी महापुरुष मूलनिवासी लोगों को अंधश्रधा और अविश्वास के कुए में नहीं धकेलना चाहता था। बाबा साहब ने अपने जीवन काल में धर्म का त्याग करके धम्म को अपनाया क्योकि बाबा साहब जानते थे कि आडम्बरों, पाखंडों और ढोंगों पर आधारित धर्मों से कभी भी मूलनिवासियों का भला नहीं हो सकता। इसीलिए बाबा साहब ने धर्म छोड़ कर बुद्धि और तर्क पर आधारित धम्म को अपने का सन्देश दिया।
सभी मूलनिवासियों से प्रार्थना है कि धर्म का त्याग करे और धम्म को अपनाये। शायद कुछ लोग यहाँ तर्क भी करेंगे कि हम धम्म को ही क्यों अपनाये तो उन लोगों से प्रार्थना है कि फालतू में सोच कर या तर्क करके अपना समय और उर्जा खर्च ना करे। आप सभी को ज्ञात ही है कि जब तक हम ब्राह्मण निर्मित धर्म में रहेंगे हम शुद्र, नीच आदि कहलाते रहेंगे। आप सभी धर्म को छोड़ दे और मानवीय मूल्यों के आधार पर जीवन जीना शुरू कर दे। जब आप सभी लोग धर्म को त्याग कर मानवीय मूल्यों पर आधारित जीवन जीना शुरू करेंगे तो निश्चय ही देश के मूलनिवासियों का भला ही होगा।
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