ज्योतिराव गोविंदराव फुले का जन्म 11 अप्रेल 1827 को पुणे में महाराष्ट्र की एक ‘माली’ जाति में हुआ
ज्योतिबा के पिता का नाम गोविन्द राव तथा माता का नाम विमला बाई था । एक साल की उम्र में ही ज्योतिबा फुले की माता का देहान्त हो गया । पिता गोविन्द राव जी ने आगे चल कर सुगणा बाई नामक विधवा जिसे वे अपनी मुह बोली बहिन मानते थे उन्हें बच्चों की देख-भाल के लिए रख लिया । ज्योतिबा को पढ़ाने की ललक से पिता ने उन्हें पाठशाला में भेजा था मगर स्वर्णों ने उन्हें स्कूल से वापिस बुलाने पर मजबूर कर दिया । अब ज्योतिबा अपने पिता के साथ माली का कार्य करने लगे । काम के बाद वे आस-पड़ोस के लोगों से देश-दुनिया की बातें करते और किताबें पढ़ते थे । उन्होंने मराठी शिक्षा सन् 1831 से 1838 तक प्राप्त की । सन् 1840 में तेरह साल की छोटी सी उम्र में ही जोतिबा का विवाह नो वर्षीय सावित्री बाई (1831-1897) से हुआ । आगे जोतिबा का नाम स्काटिश मिशन नाम के स्कूल (1841-1847) में लिखा दिया गया जहाँ पर उन्होंने थामसपेन की किता ‘राइट्स ऑफ मेन’ एवं ‘दी एज ऑफ रीजन’ पढ़ी, जिसका उन पर काफी असर पड़ा स्कूल के अपने एक ब्राह्मण मित्र की शादी में एक बार ज्योतिबा गये थे, तो उन्हें वहाँ पर अपमानित होना पड़ा था । बड़े होने पर उन्होंने इन रूढ़ियों के प्रतिकार का विचार पक्का किया । 1848 में उन्होंने अछूतों के लिए पहला स्कूल पुणे में खोला । यह भारत के तीन हजार साल के इतिहास में ऐसा पहला स्कूल था जो अछूतो और शुद्रो के लिए था । 1848 में यह स्कूल खोल कर महात्मा फुले ने उस वक्त के समाज के ठकेदारों को नाराज कर दिया था । ज्योतिबा के पिता गोविन्द राव जी भी उस वक्त के सामंती समाज के बहुत ही महत्वपूर्ण व्यक्ति थे । इस कारण उनके पिता पर काफी दबाव पड़ा तो उनके पिता ने उनसे आकर कहा कि या तो स्कूल बंद करो या घर छोड़ दो । तब जोतिबा फुले एवं उनकी पत्नि ने सन् 1849 में घर छोड़ दिया । उस स्कूल में एक ब्राह्मण शिक्षक पढ़ाते थे । उनको भी दबाव में अपना घर छोड़ना पड़ा । सामाजिक बहिष्कार का जवाब महात्मा फुले ने 1851 में दो और स्कूल खोलकर दिया । सन् 1855 में उन्होंने पुणे में भारत की प्रथम रात्रि प्रौढ़शाला और 1852 में मराठी पुस्तकों के प्रथम पुस्तकालय की स्थापना की। ज्योतिबा ने भारत का पहला लड़कियों की शिक्षा के लिए स्कूल खोला । जिसमें पढ़ाने के लिए कोई भी तैयार नहीं हुआ । ज्योतिबाने अपनी पत्नी सावित्रीबाई को पढ़ाया और सावित्री ने ही स्वयं यह जिम्मेदारी उठाकर उस लड़कियों के स्कूल मे पढ़ाना आरंभ किया । इस तरह सावीत्रीबाई देश की पहली महिला शिक्षिका थीं । उन्हें तंग करने के लिए शुरू में उन पर गोबर और पत्थर फेंके जाते थे । पर वे पीछे नहीं हटी । जब 1868 में उनके पिताजी का देहान्त हुआ तो ज्योतिबा ने अपने परिवार के पीने के पानी वाले तालाब को अछूतों के लिए खोल दिया । मुम्बई सरकार के अभिलेखों में ज्योतिबा फुले द्वारा पुणे एवं उसके आस पास के क्षेत्रों में शुद्र बालक-बालिकाओं के लिए कुल 18 स्कूल खोले जाने का उल्लेख मिलता है । अपने समाज सुधारों के लिए पुणे महाविद्यालय के प्राचार्य ने अंग्रेज सरकार के निर्देश पर उन्हें पुरस्कृत किया और वे चर्चा में आए । इससे चिढ़कर कुछ अछूतों को ही पैसा देकर उनकी हत्या कराने की कोशिश की गई पर वे उनके शिष्य बन गए । सितम्बर 1873 में इन्होने महाराष्ट्र में ’सत्य शोधक समाज’ नामक संस्था का गठन किया । और इसी वर्ष उनकी पुस्तक ‘गुलाम गिरी’ का प्रकाशन हुआ । महात्मा फुले एक समता मूलक और न्याय पर आधारित समाज की बात कर रहे थे इसलिए उन्होंने अपनी रचनाओं में किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए विस्तृत योजना का उल्लेख किया है । पशुपालन, खेती, सिंचाई व्यवस्था सबके बारे में उन्होंने विस्तार से लिखा है । गरीबों के बच्चों की शिक्षा पर उन्होंने बहुत ज़ोर दिया । उन्होंने आज के 150 साल पहले कृषि शिक्षा के लिए विद्यालयों की स्थापना की बात की । जानकार बताते हैं कि 1875 में पुणे और अहमद नगर जिलों का जो किसानों का आंदोलन था, वह महात्मा फुले की प्रेरणा से ही हुआ था । इस दौर के समाज सुधारकों में किसानों के बारे में विस्तार से सोच-विचार करने का रिवाज़ नहीं था लेकिन महात्मा फुले ने इस सबको अपने आंदोलन का हिस्सा बनाया । स्त्रियों के बारे में महात्मा फुले के विचार क्रांतिकारी थे । मनु की व्यवस्था में सभी वर्णों की औरतें शूद्र वाली श्रेणी में गिनी गयी थीं । लेकिन फुले ने स्त्री पुरुष को बराबर समझा । उन्होंने औरतों की आर्य भट्ट यानी ब्राह्मणवादी व्याख्या को ग़लत बताया । फुले ने विवाह प्रथा में बड़े सुधार की बात की । प्रचलित विवाह प्रथा के कर्मकांड में स्त्री को पुरुष के अधीन माना जाता था लेकिन महात्मा फुले का दर्शन हर स्तर पर गैरबराबरी का विरोध करता था । आगे स्वामी दयानंद ने जब मुम्बई में आर्य समाज की स्थापना की तो सनातनियों के विरोध को देखते हुए उन्हें ज्योतिबा की मदद लेनी पड़ी । ज्योतिबा ने शराब बंदी के लिए भी काम किया था । एक गर्भवती ब्राह्मण विधवा को आत्म हत्या करने से रोक उन्होंने उसके बच्चे को गोद ले लिया । जिसका नाम यशवंत रखा गया । अपनी वसीयत ज्योतिबा ने यशवंत के नाम ही की । सन् 1890 में ज्योतिबा के दांए अंगों को लकवा मार गया । तब वे बाएं हाथ से ही सार्वजानिक सत्य धर्म नामक किताब लिखने में लग गये । २८ नवम्बर १९८० में उन्होंने संसार से विदाई ली । इसी साल उनकी मृत्यु के बाद यह किताब छपी । महात्मा ज्योतिबा फुले जी महान विचारक, समाज सेवी तथा क्रान्तिकारी कार्यकर्ता थे । महिलाओं, दलितों एवं शुद्रो के उत्थान के लिये इन्होने अनेक कार्य किए । समाज के सभी वर्गो को शिक्षा प्रदान करने के ये प्रबल समथर्क थे । डॉ. अम्बेडकर तो महात्मा फुले के व्यक्तित्व-कृतित्व से अत्यधिक प्रभावित थे । वे महात्मा फुले को अपने सामाजिक आंदोलन की प्ररेणा का स्त्रोत मनाते थे । 28 अक्टूबर 1954 को पुरूदर स्टेडियम, मुम्बई में भाषण देते हुए उन्होंने महात्मा बुद्ध तथा कबीर के बाद महात्मा फुले को अपना तीसरा गुरू माना है । डॉ. अम्बेडकर ने अपने भाषण में कहा (अर्थात् मेरे तृतीय गुरू ज्योतिबा फुले हैं । केवल उन्होंने ही मानवता का पाठ पढाया । प्रारम्भिक राजनीतिक आन्दोलन में हमने ज्योतिबा के पथ का अनुसरण किया, मेरा जीवन उनसे प्रभावित हुआ है ।) डॉ. अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक ‘’शूद्र कौन थे ?’’ को 10 अक्टूबर 1946 को महात्मा फुले को समर्पित करते हुए लिखा- ‘‘जिन्होंने हिन्दु समाज की छोटी जातियों को, उच्च वर्णो के प्रति उनकी गुलामी की भावना के सम्बंध में जागृत किया और जिन्होने विदेशी शासन से मुक्ती पाने से भी सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना अधिक महत्पुर्ण है, इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया, उस आधुनिक भारत के महान शूद्र महात्मा फुले की स्मृति में सादर समर्पित ।
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