रविवार, 21 मई 2017

संसार में दु:ख है।

दुल्लभो पुरिसो जञ्ञो  सो सब्बत्थ जायति।य
त्थ सो जायति धीरो तं कुलं  सुख मेधति।।
धम्मपद-193
अर्थ: महान परूषों का जन्म दुर्लभ (बहुत मुश्किलसे होता है और उनका जन्म हर स्थान पर नहीं होता। जहांये महान पुरूष जन्म लेते हैंवह अपने कुल और रा्ष्ट्र की ख्याति बढाते हैं।
सिद्धार्थ के जीवन के साथ वैशाख पूर्णिमा के दिन तीन प्रमुख घटनाऐं जुड़ी हैं
1: सिद्धार्थ के रुप में उनका जन्म।
2: बुद्धत्व प्राप्ति।
3: महापरिनिर्वाण की प्राप्ति।
संसार में इस प्रकार की तीन पवित्र घटनाऐं किसी भी अन्य महापुरूष के साथ नहीं घटी हैं। इन तीन घटनाओं के कारण आज के दिन को “त्रिविध पावन पर्व” कहते है।
जन्म
उत्तर भारत के हिमालय पर्वत की तराई में शाक्यों का कपिलवस्तु नाम का वैभवशाली नगर था। वर्तमान में यह स्थान पिपरहवा गांव,जनपद सिद्धार्थ नगर, उत्तर प्रदेश के नाम से जाना जाता है। यही सिद्धार्थ की मूल नगरी थी। सिद्धार्थ के पिता शुद्धोधन यहीं पर राज करते थे। महाराजा शुद्धोधन के दो रानियां थी,उनमें से एक का नाम महामाया और दूसरी का प्रजापति गौतमी था। जो दोनों सगी बहन भी थीं। यह दोनों देवदह निवासिनी थीं।
जब महामाया ने गब्ब  धारण किया और उसके प्रसव का समय जैसे ही नजदीक आया तो रानी ने अपने मायके जाने की इच्छा प्रकट की। राजा शुद्धोधन ने अपनी रानी महामाया को उचित व्यवस्था के साथ भेज दिया। कपिल वस्तु से लगभग १० किमी. की दूरी पर शुद्धोधन का लुम्बिनी नामक शालवन का राज उद्धान था। जो वर्तमान नेपाल राज्य में स्थित है। लुम्बिनि को नेपाल में रूम्मिनदेई के नाम से पुकारा जाता है। इसी बाग में मायके जाते समय आराम के लिए रूकी। उसी समय 563 ईसा पूर्व वैशाख पूर्णिमा के दिन शालवृक्ष के पेड़ों के नीचे महामाया ने एक बच्चे को जन्म दिया। बौद्ध जगत में यह दिन “बुद्ध पूर्णिमा” के नाम से प्रसिद्ध हुआ।आज भी इस स्थान को लुम्बिनी देवी ही कहा जाता है, वे पुन: वहां से कपिलवस्तु लौट आयीं। जन्म के पांचवे दिन  उसका नाम सिद्धार्थ रखा गया और उन्हें 32 महापुरूष लक्षणों तथा  80 अनुव्यंजनों से युक्त  होने वाला बताया गया।
सिद्धार्थ के जन्म के सप्ताह बाद ही उसकी मां का शरीरान्त हो गया। उसका पालन-पोषण उनकी मौसी तथा सौतेली मां महाप्रजापति ने किया। बचपन से ही सिद्धार्थ का स्वभाव बुद्धिमानी, शान्त प्रिय, गंभीर और शील सम्पन्न था,जिससे कई  बार एकान्त में बैठकर वह विचार करते थे। शुद्धोधन अपने बेटे सिद्धार्थ के स्वभाव से चिन्तित रहते थे कि कहीं उसके बेटे को वैराग न हो जाए।
सिद्धार्थ का 19 वर्ष की आयु में कोलिय गणराज्य की सुन्दर कन्या यशोधरा के साथ विवाह हो गया। जब सिद्धार्थ को पुत्र लाभ हुआ तो उसने कहा: ‘राहु जाते बन्धनं जातन्ति’। यानि राहु पैदा हुआ, बन्धन पैदा हुआ। शुद्धोधन ने जब सुना कि सिद्धार्थ ने ऐसा कहा,तब उन्होंने कहा-ठीक है मेरे पोते का नाम राहुल ही होगा।
सिद्धार्थ ने जीवन को सांसारिक बंधन में जकड़ा देख कर ग्रह त्याग करने का निश्चिय किया। शाक्यों और कोलियों के मध्य रोहिणी नदी बहती थी। जिसके पानी से दोनों राज्यों की फसल की सिचाई की जाती थी। जब बुद्ध 28 साल के थे दोनों राज्यों के लोगों में रोहिणी नदी के पानी के बटवारे के लिए घमासान युद्ध होने की स्थिति बन गयी थी। शाक्यों को युद्ध करने के लिए मना किया परन्तु वे मानने के लिए तैयार न थे। भारत में जन्मे विश्व के महानतम विद्वान बोधिसत्व बाबा साहेब डा.भीमराव अम्बेडकर के अनुसार पानी के बटवारे के नाम पर होने वाले युद्ध को टालने के लिए गृहत्याग किया। बौद्ध साहित्य में इस घटना को महाभिनिष्क्रमण के नाम से जाना जाता है।सिद्धार्थ ने अपने माता-पिता, पत्नि और सहित अन्य सगे सम्बन्धियों से गृहत्याग की आज्ञा प्राप्त कर ली।
बुद्धत्व लाभ
29 वर्ष की अवस्था में सिद्धार्थ कन्थक घोड़े की पीठ पर बैठ कर अपने दरबारी छन्दक के साथ निकल कर अनोमा नदी के किनारे  पहुंचे। वहां पर अपने केशों को तलवार से कतर दिया और राजशाही वस्त्रों को उतार कर काषाय वस्त्रों को धारण कर लिया।वस्त्र और घोड़े को छन्दक को सौंप वापिस कपिलवस्तु जाने का आदेश दिया।
सिद्धार्थ आचार्य आलाम-कलाम के आश्रम में पहुंच कर  वहां समाधि तत्व को सीखा। वहां से सम्यक सम्बोधि की खोज के लिए विदा हुए। वे दूसरे सुप्रसिद्ध दार्शनिक उद्द्करामपुत्त के आश्रम में पहुंचे। वहां पर नैसंज्ञा-नासंज्ञायतन नामक समाधि की शिक्षा प्राप्त की। सिद्धार्थ ने सम्यक सम्बोधि के लिए अपूर्ण समझ कर आश्रम छोड़ दिया। सिद्धार्थ की ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा को देख कर उन्होंने भी आश्रम छोड़ दिया। वे पांच परिवाजक कोण्डिण्य, वप्प, भद्दिय, महानाम और अश्वजित तभी से सिद्धार्थ की सेवा में इस आश्य के साथ संलंग्न हुए कि सिद्धार्थ को बोधिलाभ होने पर वे सर्वप्रथम उनके ज्ञान का लाभ उठायेंगे।
सिद्धार्थ उरूवेला(बोधगया) के अन्तर्गत आने वाले रमणीक स्थान डुंगेश्वरी पहाड़ पर कठिन साधना करने लगे।इस स्थान पर आहार के नाम पर मात्र एक चावल का दाना ग्रहण किया और साधना करते-2 उनका शरीर सूख कर कांटा हो गया। वे चलने फिरने में भी असमर्थ होने लगे। वहां से कुछ दूर सैनानि नामक ग्राम के निकट फल्गू ( निरंजना) नदी के किनारे के किनारे साधना करने लगे।एक रात्रि स्वप्न में वीणा बजाती तीन युवतियां वीणा को अलग-कसते हुए आवाज सुनकर मध्यम स्थिति में कसने से मधर और सुरीलीन आवाज सुनाई देने पर शरीर को भी उसी स्थिति में उचित मानकर आहार लेने का विचार किया। उन्हीं दिनों सुजाता नाम की कृषक की पुत्री अपनी पुत्र प्राप्ति की मन्नत पूर्ण होने पर वट वृक्ष की पूजा-अर्चना करने वहां आयी।  पूजा के बाद सुजाता ने उसी वट वृक्ष के नीचे बैठे सिद्धार्थ को खीर ग्रहण करने की विनति की। सिद्धार्थ ने खीर को ग्रहण कर लिया। सुजाता द्वारा दी खीर को खाने पर  पांच परिवाजक सिद्धार्थ को पथ भ्रष्ट कहकर उन्हें अकेला छोड़ कर चले गये।
सिद्धार्थ को नदी पार करने से पूर्व स्वास्तिक नामक किसान मिला। उसने सिद्धार्थ के मन्तव्यको जानकर आठ मुट्ठी कुश नाम की घास दी। नदी पार कर सिद्धार्थ ने कुश का आसन बनाया। उस आसन को वज्रासन को ही कहा जाता है।  पीपल के पेड़ के नीचे  उस आसन पर साधना करने बैठ गये।उन्होंने अधिष्ठान किया कि “चाहें मेरी त्वचा,नसें और हड्डियां ही बाकी रह जायें,चाहे मेरा सारा मांस और रक्त शरीर से सूख जाये किन्तु बिना बोधि प्राप्त किये मै इस आसन का परित्याग नहीं करूंगा।”सिद्धार्थ को वैशाख पूर्णिमा की चांदनी रात को बोधि लाभ प्राप्त किया। उस समय उनकी आयु 35 वर्ष थी। वह तभी से बुद्ध कहलाने लगे,जो संसार में प्रसिद्ध हुए। इस पीपल के पेड़ को बोधि वृक्ष कहा जाने लगा।इस दिन वैशाख पूर्णिमा को ही तभी से बुद्ध पूर्णिमा कहा जाने लगा।
चार आर्यसत्य
भगवान ने मानव कल्याण के लिए चार आर्य सत्य बड़े अनुसंधान के बाद कहीं।आर्य का मतलब उत्तम (श्रेष्ठ) है,सतपुरूष,साधु, ज्ञानी,बुद्धिमान लोग।चार आर्य सत्य मनुष्य के जीवन जगत की ठोस सच्चाई है।
1: दु:ख आर्य  सत्य:
“भिक्खुओ!मैं तुम्हें दो ही बातें सिखाता हूं,
दु:ख और दु:ख से मुक्ति।” प्रश्न उठता है, क्या होना दु:ख है?
इसके उत्तर में भगवान बुद्ध ने कहा-पैदा होना है,शोक करना दु:ख है,रोना-पीटना दु:ख है,पीड़ित होना
दु:ख है,इच्छा की पूर्ति न होना दु:ख है। अर्थात पांच उपादान स्कन्द ही दु:ख हैं-रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान।
2:दु:ख समुदय आर्य सत्य:
जीवन में दुख है, उसका कोई न कोई कारण अवश्य है। वह है,काम,भव,विभव,इन्द्रिय सुख आदि की तृष्णा ही दु:ख समुदय है।
3: दु:ख निरोध आर्य सत्य:
संसार में दु:ख है।
दु:ख का कारण है।वह है तृष्णामयी होना।जब तृष्णा का निरोध होता है,तो इस सच्चाई को दु:ख निरोध आर्य सत्य कहते हैं। दुख के कारण के निवारण से निर्वाण सुख प्राप्त होता है।
4:दु:ख निरोध गामिनी प्रतिपदा आर्य सत्य:
कुछ लोग खाओ पिओ मौज करो या शरीर को कष्ट देने वाली तपसाधना को ही दु:ख निरोध की संज्ञा देते हैं। जबकि भगवान ने दोनों प्रकार की अतियों से बचकर मध्यम मार्ग का ज्ञान प्रशस्त करके सभी दु:खों से मुक्ति पाया सकता है। यही मार्ग आर्य अष्टांगिक मार्ग है, जो दु:ख निरोध की ओर ले जाता है।जो इस प्रकार है-
आर्य अष्टांगिक मार्ग:
आर्य अष्टांगिक मार्ग भगवान बुद्ध की अद्भुत खोज थी।वर्तमान जीवन में सुख-शांति प्राप्त करने के लिए भगवान ने आर्य अष्टांगिक मार्ग बताया है। जिसके आठ अंग हैं, जो इस प्रकार हैं-
1:सम्यक दृष्टि:
सम्यक दृष्टि अर्थात सम्यक दर्शन, दर्शन शब्द का वास्तविक अर्थ है जो वस्तु जैसी है उसे वैसे ही उसके गुण-धर्म-स्वभाव में देखनाअर्थात अनुभव से जानना।इसका अनुभव विपश्यना साधना द्वारा किया जा सकता है।सभी संस्कार अनित्य हैं, सभी संस्कार दु:ख हैं, सभी धर्म अध्यात्म हैं का बोध होना सम्यक दृष्टि है।
2: सम्यक वाणी:
हमारी वाणी सम्यक हो अर्थात  झूठ, कड़वी, चुगली,निन्दा,गाली आदि नामों बोलें।संयमित वाणी बोलें जो दो पक्षों को जोड़ने कारण काम करें। ऐसी वाणी को सम्यक वाणी कहते हैं।
3:सम्यक कर्म:
मन,वचन और शरीर से सभी कार्य सम्यक हो अर्थात अनैतिक कर्मों से दूर रहना। जीवन हिंसा चोरी तथा मिथ्याचार रहित कर्म करना ही सम्यक कर्म है।
4: सम्यक आजीविका:
परिवार के भरण पोषण के लिए कियेे जाने काला कर्म आजीविका कहलाता है।यदि यह कर्म चोरी, जारी, हिंसा और अन्याय एवं अपराध मुक्त है तो इसे सम्यक आजीविका कहते हैं।
5:सम्यक व्यायाम:
सम्यक व्यायाम कार्यक्रम उद्देश्म है इन्द्रियों पर संयम रखना। बुरी भावनाओं को रोकना,अच्छी भावनाओं को उत्पन्न करने कारण प्रयत्न करना तथा अच्छी भावनाओं को कायम रखना।
6:सम्यक स्मृति:
सम्यक स्मृति का अर्थ है मन की सत्य जागरूकता के द्वारा मन में उत्पन्न अकुशल विचारों का सदैव स्मरण रखना। शरीर और चित्त में स्वभावत  तौर होने वाली क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं के प्रति सचेत रहना और वास्तविक सच्चाई को समता भाव से देखना-परखना यही सम्यक स्मृति है।
7:सम्यक समाधि:
अपने आप में सतत जागरूक रहते हुए मन को एकाग्र करना और प्रत्येक लक्षण सच्चाई को जानते हुए द्वेष, मोहरहित रहना ही सम्यक समाधि है।
8:सम्यक संकल्प:
दूषित विचारों से रहित, रागरहित,द्वेषरहित वह मोह रहित चिंतन मनन ही सम्यक संकल्प है।
ज्ञान प्राप्ति के बाद वे बोधिवृक्ष के आसपास सात सप्ताह लगातार सात वृक्षों के नीचे एक-२ सप्ताह विचरते रहे।इन्हीं दिनों तपस्सुऔर मल्लिक नाम के दो व्यापारियों ने बुद्ध को खाने के लिए मधुपिण्डक(गुड़ और मट्ठा) दिया। वे दोनों बुद्ध और धम्म की शरण में जाने वाले पहले उपासक बने।
इस ज्ञान का उपदेश देने सर्वप्रथम जब वे सारनाथ जा रहे थे, तो रास्ते में उन्हें उपक नाम का आजीवक मिला , उसकी शंकासमाधान करते हुए और उसे अपने को बुद्ध होने की बात कहकर ऋषिपत्तन सारनाथ पहुंचे।
वहां पर पांच परिवाजक कोण्डिण्य,वप्प,भद्दिय,महानाम और अश्वजित को प्रथम उपदेश दिया। जिसे धम्मचक्कप्पवत्तन सुत्त के नाम से जाना जाता है। वर्षावास आरम्भ होने पर बुद्ध प्रथम वर्षावास ऋषिपत्तन में किया।
उन दिनों काशी श्रेष्ठी कुलपुत्र यश ग्रहस्थ जीवन से परेशान होकर शान्ति की खोज में ऋषिपत्तन जा पहुंचा।भगवान बुद्ध जहां विचरण कर रहे थे वहां जा पहुंचा।बुद्ध ने अपने उपदेश से उसे शान्त किया। यश भी बुद्ध की शरण में जाकर भिक्खु बना।
काशी श्रेष्ठी अपने पुत्र के जूतों के निशान देखते-२ ऋषिपत्तन जा पहुंचा। ग्रहपति ने बुद्ध से अपने पुत्र के होने के सम्बन्ध में पूछा। बुद्ध का उपदेश सुनने पर उसकी धम्म दृष्टि जाग गयी।  तव उसने शरणागत उपासक होने की विनति करते हुए कहा, “मैं बुद्ध, धम्म और संघ की शरण जाता हूं।यश के पिताजी को संसार में तीन वचनों उपासक होने कारण गौरव प्राप्त हुआ। यश के पिता ने आज का  भोजन करने की आज्ञा मांगी, जिसे बुद्ध ने मौन रहकर स्वीकार किया। श्रेष्ठी अभिवादन कर अपने घर चला गया।
बुद्ध अपने साथ यश को लेकर श्रेष्ठी के घर पहुंचे। दोनों का भोजन होने पर बुद्ध ने परिवार की मंगल कामना करने के लिए पुण्यानुमोदन किया। यश की माता और पहली पत्नि को भी धम्म दृष्टि उत्पन्न हुई। दोनों ने आज से सांजलि उपासिकाऐं होने की विनति की।लोक में वही तीन वचनों वाली प्रथम उपासिकाऐं हुई।
महापरिनिर्वाण
भगवान बुद्ध ने अपने परिनिर्वाण की घोषणा तीन महा पूर्व वैशाली में की थी कि आज से ठीक तीन माह बाद मेरा परिनिर्वाण कुशीनगर में होगा। घोषणा के अनुरूप बुद्ध ने कुशीनगर के लिए प्रस्थान किया।वे विभिन्न गांव में अपना उपदेश करते हुए पावा में चुन्न के आम्र वन में पहुंचे।चुन्न तथागत के सम्मानार्थ उनके पास पहुंचा और अभिवादन करके एक ओर बैठ गया।चुन्न ने तथागत को अगले दिन के लिए भोजन का निमंत्रण किया,जिसको बुद्ध ने स्वीकार कर लिया। चुन्न पुन:अभिवादन करके घर लौट आया।
दूसरे दिन तथागत संघ के साथ चुन्न के घर पहुंचे।चुन्न ने भिक्खु संघ को अलग -2 आसनों पर बैठाया। चुन्न ने अनेक व्यंजनों के साथ शूकरमद्दव (जिमीकन्द) के साथ सभी को भोजन परोसा। भोजन ग्रहण करने के बाद अपना प्रवचन कर आगे चल दिए। चुन्न के घर का भोजन करने पर तथागत के खूनी दस्त ( पेचिस) लग गये। कुछ दूर यात्रा करने के बाद वे रास्ते से हटकर एक वृक्ष के नीचे आनन्द से चीवर बिछवा कर लेट गये। भगवान को उस समय आराम की शख्त जरूरत हुई। बुद्ध उस जगह आराम करने लगे। विभिन्न स्थानों पर होते हुए रास्ते में एक आम्र वन पड़ा, जिसमें संघाटी बिछवा कर उस पर तथागत लेट गये।
तथागत ने आनन्द से कहा कि चुन्न को चिन्ता से मुक्त करना कि उसके यहां भोजन करने से मैं बीमार हुआ हूं, इसलिए उसके मन में किसी भी प्रकार का अपराध का बोध नहीं होना चाहिए।तथागत ने अपने जीवन के दो महत्वपूर्ण भोजनों के सम्बन्ध में कहा – “मेरे जीवन में दो दो भोजन विशेष महत्व रखते हैं। सुजाता के भोजन के बाद मुझे सम्यक बोधि प्राप्त हुई और चुन्न के भोजन के बाद परिनिर्वाण प्राप्त करूंगा।”
“हिरण्यवती नदी पार करके बुद्ध ने कुशीनगर में मल्लों के शाल वन में दो शाल वृक्षों के नीचे आनन्द से संघाटी बिछाने को कहा, जहां उनका परिनिर्वाण होना था। बुद्ध उत्तर की तरफ सिर और दक्षिण की तरफ पैर करके, पैर के ऊपर पैर रखकर दांई करवट से आराम करने लगे। तथागत ने कुछ समय पश्चात कहा, ‘सब्बे संखारा अनिच्चा’ अर्थात जितने भी संसकार हैं सब अनित्य हैं। भगवान बुद्ध के परिनिर्वाण का समय नजदीक आने पर आनन्द आसुओं से रोने लगे। तथागत ने आनन्द को समझाते  हुए कहा- शोक मत करो। प्रिय से वियोग संभव है,जो पैदा हुआ है उसकी मृत्यु न हो,यह असम्भव है। तथागत ने आज रात होने वाले परिनिर्वाण की जानकारी के लिए मल्लो
के सभागार में आनन्द को भेजा,उस समय मल्लों की सभा हो रही थी। तथागत के होने वाले परिनिर्वाण की जानकारी सुनकर सभी उदास होकर तथागत के अंतिम दर्शन के लिए पहुंचे। प्रथम पहर तक दर्शन करके सभी मल्ल वापिस अपने-2 घर चले गये।
उनके बाद कुशीनगर से सुभद्र परिव्राजक बुद्ध से अपनी शंका समाधान के लिए आया। उसको आनन्द ने तथागत से मिलने से रोक दिया,कि तथागत को अंतिम समय में कष्ट पहुंचाना अच्छा नहीं। बुद्ध ने उनकी वार्तालाप सुनकर सुभद्र को अपने पास भेजने का आदेश दिया।सुभद्र ने सर्वप्रथम तथागत की वंदना करके अपनी शंकाओं को उनके समझ रखा,जिनका समाधान बुद्ध ने कियाऔर सुभद्र भी सन्तुष्ट हुआ। सुभद्र बौद्ध धम्म में प्रव्रजित हुआ और इस प्रकार उसने भगवान के जीवन काल में अन्तिम भिक्खु होने का गौरव प्राप्त किया। बुद्ध के परिनिर्वाण की वजय से  आस-पास के भिक्खु उनके पास एकत्रित हो गये। तथागत ने उपस्थित भिक्खुओं को कहा- “मेरे पश्चात तुम्हारा कोई भी शास्ता नहीं होगा,मेरा उपदेश ही तुम्हारा शास्ता होगा।”
तथागत ने भिक्खुओं के सम्बोधन के सम्बन्ध में आनन्द की तरफ संकेत करते हुए कहा- “आनन्द! एक दूसरे को आवुस कहकर सम्बोधन करते हैं, मेरे पश्चात वे ऐसा नहीं करें पुराने भिक्खु नये भिक्खुको नाम से, गोत्र से अथवा आवुस(आयुष्मान) कहकर कहकर सम्बोधन किया करें,और नये भिक्खु अपने से पुराने (सिनियर) भिक्खु को भन्ते कहकर सम्बोधन करें।”
तथागत ने अपने अन्तिम संदेश में भिक्खुओं के जीवन यापन के सम्बन्ध में कहा, ‘अप्पमादेन सम्पादेथ’ “सभी वस्तुओं का क्षय अवश्यम्भावी है। अत:जीवन के लिए अप्रमाद सहित प्रयास करो।” इतना कहकर उन्होंने 80 वर्ष की आयु पूर्ण कर वैशाख पूर्णिमा की रात को महापरिनिर्वाण प्राप्त किया।
सबका मंगल हो

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