सोमवार, 30 सितंबर 2019

देश में तार-तार होती महिलाओं की आबरू


हर मिनट पर बलात्कार की घटनाओं से देश में दहशत

भारत में एक तरफ ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा लगाया जाता है तो दूसरी तरफ उन्हीं बेटियों को हवस का शिकार बनाया जाता है. जबकि, भारत ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में महिलाओं को माँ का दर्जा दिया गया है. लेकिन, उन्हीं माँ समान महिलाओं के साथ बलात्कार जैसी घिनौनी घटनाएं हो रही हैं. क्या आपने कभी सोचा है कि जिस देश में बेटी बचाओ का नारा दिया जाता है आज वही देश पूरी दुनिया में माँ और बेटियों के लिए असुरक्षित देश बन गया है? महिलाओं के साथ हो रहे बलात्कार और सामुहिक बलात्कार के मामलों में भारत जहाँ 2011 में चौथे नंबर था वहीं 2018 में दुनिया का नंबर वन देश बन गया.




2018 में जारी नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में हर 15 मिनट में एक महिला के साथ बलात्कार होता है, हर 22 मिनट पर एक सामुहिक बलात्कार होता है और हर 35 मिनट पर एक बच्ची को हवस का शिकार बनाया जाता है. इससे भी ज्यादा चौंकाने वाली बात तो यह है कि हर तीन दिन पर पुलिस थाने में एक बलात्कार होता है. बलात्कार होने वाली महिलाओं में छोटी जातियां और कमजोर वर्ग की महिलाओं की संख्या सबसे ज्यादा है.




अगर, भारत में वर्ष 1994 से लेकर 2016 तक की बात करें तो 1994 में केवल बच्चियों के साथ बलात्कार की 3,986 घटनाएं हुई थी जो, वर्ष 2016 में 4.2 प्रतिशत की दर से बढ़कर 16863 घटनाएं हो गई. केवल दिल्ली में महज एक साल 2017 में जहाँ 757 बलात्कार हुए, वहीं 2018 में बलात्कार की 780 घटनाएं हुई. इसके अलावा मध्य प्रदेश के आंकड़ों पर गौर करें तो रोंगटे खड़े हो जायेंगे. यह सुनकर की महज 181 दिनों में महिलाओं के साथ 4,961 छेड़छाड़ की घटनाएं हुई. जबकि, 2,439 बलात्कार की घटनाओं को अंजाम दिया गया. इसी तरह से मध्य प्रदेश के चार टॉप शहरों में भोपाल जहाँ 156 बलात्कार, इंदौर 132, जबलपुर 108 और ग्वालियर 97 बलात्कार की घटनाओं के साथ शामिल है.




बता दें कि बलात्कार के मामले में यूपी भी पीछे नहीं है. अगर, आंकड़ों पर गौर करें तो अप्रैल 2017 से जनवरी 2018 तक उत्तर प्रदेश में 3,704 घटनाएं हुई. जबकि, इसी दौरान यूपी में उत्पीड़न के 13,392 घटनाएं और हत्या की 2,223 घटनाओं को अंजाम दिया गया. इसके अलावा 1 अप्रैल 2017 से 31 जनवरी 2018 तक की घटनाओं की बात करें तो 1 अप्रैल 2017 से लेकर 1 जनवरी 2018 तक 3,704 महिलाओं को बलात्कार का शिकार बनाया गया और 11,404 शीलभंग की घटनाएं हुई. अब सवाल खड़ा होता है कि देश में कानून लागू है इसके बाद भी महिलाओं के खिलाफ अपराधों में कोई कमी नहीं आ रही है. देश में महिलाओं के साथ होने वाली घटनाओं की संख्या दिन पर दिन बढ़ती जा रही है. इसके बाद भी सरकार इस पर रोक लगाने में नाकाम है. शासन-प्रशासन का रवैया बता रहा है कि इन घटनाओं पर रोक लगाना सरकार और कानून दोनों के ही बस की बात नहीं है. 

भारी कर्ज के नीचे दम तोड़ता भारत.....!


कांग्रेस पार्टी प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत ने मीडिया में आई खबरों का हवाला देते हुए दावा किया है कि देश का कुल कर्ज बढ़कर 88.18 लाख करोड़ रुपये हो गया है. लेकिन, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कह रहे हैं कि भारत में सब अच्छा है. असल में कांग्रेस पार्टी प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत भी आंकड़ों में हेराफेरी करके ही दावा कर रही हैं. जबकि, हकीकत यह है कि देश का कुल कर्ज 88.18 लाख करोड़ नहीं है, बल्कि देश का कुल कर्ज 1950-51 से लेकर 2019-20 तक 97,97,818 करोड़ रूपये है. हमें लगता है कि श्रीनेत को भारत सरकार का आंकड़ा फिर से देख लेना चाहिए. अब सवाल यह है कि कांग्रेस प्रवक्ता, आंकड़ों में हेराफेरी क्यों कर रही है? क्योंकि, कांग्रेस और बीजेपी, दोनों ने भारत जैसे विशालकाय देश को कर्ज के नीचे पूरी तरह से दबा दिया है. इसलिए कांग्रेस द्वारा आंकड़ों में हेराफेरी करके झूठे आंकड़ों को पेश कर रही है. दरअसल, कांग्रेस जानती है कि अगर, उसने सहीं आंकड़ा पेश किया तो न केवल बीजेपी की पोल खुल जायेगी, बल्कि कांग्रेस के चेहरे से भी नकाब हट जायेगा.दूसरी बात, सुप्रिया श्रीनेत ने यह आरोप भी लगाया है कि सरकार आम जनता को राहत देने की बजाय कॉरपोरेट जगत को राहत दे रही है. मगर, श्रीनेत ने यह नहीं बताया कि यही काम कांग्रेस भी पिछले कई सालों से करती रही है. कांग्रेस सरकार भी आम जनता को राहत देने की बजाय केवल कॉरपोरेट जगत को ही राहत देने का काम किया है.

एक कहावत है कि ‘‘जो सहारा देता है वह इशारा भी करता है’’ यानी सहारा देने वाला जो इशारा करता है उसी इशारों पर चलना पड़ता है. यही हाल हमारे सरकारों की है. कर्ज लेने वाली सरकारें चाहे किसी की हों, देश को किसी भी मायने में सुरक्षित नहीं रख सकती हैं. क्योंकि, कर्ज देने वाला सरकार और उसकी नीतियों पर नियंत्रण रखता है. यही कारण है कि सरकारें जब बजट बनाती हैं तो केवल पूँजीपतियों और कॉरपोरेट घरानों को ध्यान में रखकर बजट बनाती हैं. वहीं, आम जनता के विकास के लिए बजट देने के बजाय केवल सपने दिखाती हैं और उस सपनों को लोग हकीकत मानकर तालियाँ बजाते हैं और सोचते हैं कि यह सरकार का विकासवादी बजट है. इससे खुश होकर लोग दाएं-बाएं देखना और सवाल पूछना छोड़ देते हैं कि सरकार के पास पैसा कहाँ से आ रहा है और कहाँ जा रहा है? बस क्या है, इसी की आड़ में सरकारें दबाकर कर्ज लेती हैं और कर्ज का बोझ देश और जनता के ऊपर लाद देती हैं. फिर सरकारें धीरे-धीरे इन्हीं जनता से कर्ज की वसूली करती हैं और जनता को इस बात की भनक भी नहीं लग पाती है कि सरकारें उनके साथ क्या षड्यंत्र कर रही हैं.

क्या आपको पता है कि देश और आपके के ऊपर कितना कर्ज है? अगर, नहीं तो मैं आपको बता रहा हूँ कि देश और आपके ऊपर कुल कितना कर्ज है. सबसे पहले देश पर कुल कर्जों की बात करते हैं. कांग्रेस सरकार के लगातार दो कार्यकाल के दौरान यानी वर्ष 2004-2005 में देश पर कुल 19,94,422 करोड़ का कर्ज था, जिसका ब्याज 2004-05 में 1,26,934 करोड़ चुकाया गया था. यही कर्ज कांग्रेस के दूसरे कार्यकाल 2013-14 में बढ़कर 56,69,428 करोड़ हो गया. वहीं इसका ब्याज 3,74,254 करोड़ चुकाया गया. जबकि, इसके पहले तकरीबन 59 साल तक केवल कांग्रेस का ही राज रहा है. इसके बाद मोदी सरकार का कार्यकाल आया और मोदी सरकार को इस कर्ज को कम करना चाहिए था. लेकिन मोदी सरकार के पहले कार्यकाल यानी वर्ष 2014-15 में यही कर्ज बढ़कर 62,42,521 करोड़ हो गया, जिसका ब्याज 4,02,444 करोड़ चुकाया गया. यही नहीं, 2015-16 में यही कर्ज बढ़कर 68,92,214 करोड़, 2016-17 में 74,38,481 करोड़, 2017-18 में 82,32,654 करोड़, 2018-19 में 90,56,725 करोड़ और 2019-20 में यही कर्ज बढ़कर 97,97,818 करोड़ हो गया. जबकि, 1997 से 2019-20 तक कुल 59,74,800 करोड़ इसका ब्याज चुकाया गया है. इसका मतलब है कि कर्ज कम होने की बजाय साल दर साल लगातार बढ़ता ही गया. जबकि, 1950-51 में देश पर महज 3059 लाख रूपये का कुल कर्ज था. इसके बाद भी कांग्रेस प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत देश पर कुल 88.18 लाख करोड़ रुपये कर्ज होने का दावा कर रही हैं. हमें लगता है कि श्रीनेत को भारत सरकार का आंकड़ा फिर से देख लेना चाहिए.

अब यदि प्रति व्यक्ति पर कर्ज की बात करें तो वित्त मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक, 31 मार्च 2015 तक प्रति व्यक्ति 49,270 रुपये का कर्ज था. जो 31 मार्च 2016 तक 9 फीसदी बढ़कर प्रति व्यक्ति 53,796 का कर्ज हो गया. यानी सालभर में इसमें 9 फीसदी का इज़ाफा हो गया. अगर, 2018-19 की बात करें तो इन आंकड़ों में जबरदस्त बढ़ोत्तरी हुई है. प्रति व्यक्ति कर्ज की गणना केंद्र सरकार के कर्ज के आधार पर की जाती है. हैरान की बात तो यह है कि विश्लेषकों का मानना है कि साल दर साल कर्ज़ की राशि बढ़ती ही जायेगी. क्योंकि, भारत में उधार लेकर विकास करने की चलन है. जैसे-जैसे विकास के आर्थिक ग्रोथ की रफ्तार बढ़ती और कुल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की रफ्तार घटती जायेगी, वैसे-वैसे देश का खर्च बढ़ता जायेगा और कर्ज भी बढ़ता जायेगा. यही नहीं प्रति व्यक्ति ऊपर कर्ज का बोझ भी बढ़ता जायेगा. क्योंकि, विकास के नाम पर सरकारें भारी भरकम कर्ज लेकर देश को गर्क में झोंक रही हैं और जनता को विकास का सपना दिखाकर देश और जनता के ऊपर भारी कर्ज का बोझ लाद रही हैं.

बुधवार, 25 सितंबर 2019

मूलनिवासी बहुजनों जागो और जगाओ.....!



डॉ.बाबसाहब अंबेडकर ओबीसी को जितना आरक्षण देना चाहते थे, तत्कालीन भारत सरकार उनके इस प्रस्ताव से सहमत नहीं थी. जब सरकार ने बाबासाहब की बात नही मानी तो उन्होंने कानून मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. भारत के कितने प्रतिशत ओबीसी बाबासाहब की इस कुरबानी के बारे में जानते हैं? ओबीसी को छोड़ो एससी और एसटी के कितने लोग जानते हैं? डॉ.बाबासाहब अंबेडकर ने अनुच्छेद 340 में ओबीसी आरक्षण के विषय में क्या लिखा है. इस सच्चाई को एससी, एसटी और ओबीसी को जानने की जरूरत है.

1ः अनुच्छेद 341 के अनुसार अनुसूचित जाति को 15 प्रतिशत प्रतिनिधित्व दिया.  
2ः अनुच्छेद 342 के अनुसार अनुसूचित जनजाति को 7.5 प्रतिशत प्रतिनिधित्व दिया.
3ः और इन वर्गो का विचार करने से पहले डा.अंबेडकर ने सर्वप्रथम ओबीसी अर्थात अन्य पिछड़ी जातियों का विचार किया था. इसलिए बाबासाहब ने अनुच्छेद 340 के अनुसार ओबीसी को सर्वप्रथम प्राथमिकता दी.
4ः अनुच्छेद 340 के अनुसार ओबीसी को 52 प्रतिशत प्रतिनिधित्व देने का प्रावधान किया. 

उस समय सरदार पटेल ने इसका जमकर विरोध करते हुए डॉ.बाबसाहब अम्बेडकर से पूछा ये ओबीसी कौन है? ऐसा प्रश्न सरदार पटेल ने स्वंय ओबीसी होते हुए पूछा था. क्योंकि, उस समय तक एससी और एसटी में शामिल जातियों की पहचान हो चुकी थी और आबीसी में शामिल होने वाली जातियों की पहचान जो आज 6500 से अधिक है, का कार्य पूर्ण नहीं हुआ था. यानी सरदार पटेल को तब तक नहीं मामूल था कि वह भी ओबीसी कटेगरी में आता है. कोई भी अनुच्छेद लिखने के बाद डॉ.बाबासाहब अंबेडकर को उस ‘अनुच्छेद’ को प्रथम तीन लोगों को दिखाना पड़ता था. पहला-पंडित नेहरू, दूसरा राजेंद्र प्रसाद और तीसरा सरदार पटेल. इन तीनों की मंजूरी के बाद उस अनुच्छेद का विरोध करने की हिम्मत किसी में नहीं थी. उस समय संविधान सभा में कुल 308 सदस्य होते थे, जिसमें से 212 काँग्रेस के सदस्य थे.

सभी पिछड़ी जातियों को इस महत्वपूर्ण तथ्य पर ध्यान देना चाहिए कि पहले अनुच्छेद 340 है. इसके बाद अनुच्छेद 341 और 342 है. असल में 340वां अनुच्छेद है क्या? उस समय डॉ. बाबासाहब अंबेडकर ने 340वां अनुच्छेद का प्रावधान किया और सरदार पटेल को दिखाया. उसपर सरदार पटेल ने डॉ. बाबासाहब अंबेडकर से प्रश्न किया ये ओबीसी कौन है? हम तो एससी और एसटी को ही बैकवर्ड मानते है. ये ओबीसी आप कहाँ से लाये? सरदार पटेल भी बैरिस्टर थे और वह स्वयं ओबीसी होते हुए भी उन्होंने ओबीसी से संबंधित अनुच्छेद 340 का विरोध किया. किंतु, इसके पीछे की बुद्धि सिर्फ गाँधी और नेहरू की थी. तब डा.बाबासाहब अंबेडकर ने सरदार पटेल से कहा ‘‘इट इज आज राईट मि.पटेल’’ मैं आपकी बात संविधान मे डाल देता हूँ. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 340 में सरदार पटेल के मुख से बोले गये वाक्य के अधार पर 340वें अनुच्छेद के अनुसार इस देश के राष्ट्रीय नेता जो कि स्वयं अन्य पिछड़ा वर्ग से हैं उन को ओबीसी कौन हैं नहीं मालूम था? और इनकी पहचान करने के लिए एक आयोग गठित करने का आदेश दे रहे हैं.

गांधी, नेहरू, पटेल, राजेंद्र प्रसाद और उनकी कांग्रेस ने ओबीसी को प्रतिनिधित्व नहीं देना चाहते थे. लेकिन, बाबासाहब यह बात बहुत अच्छी तरह से जानते थे सरकार पटेल खुद की बोली नहीं बोल रहे हैं, वें कांग्रेस की बोली बोल रहे हैं. दूसरी बात, 340वें अनुच्छेद के अनुसार राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने ओबीसी कौन है? पहचानने के लिए कोई कमिटी नहीं बनायी. इससे दुखी होकर 27 सितंबर 1951 को डॉ.बाबासाहब अम्बेडकर ने केन्द्रीय कानून मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. मतलब ओबीसी के अधिकार के लिए केंद्रीय मंत्री पद से इस्तीफा देने वाले पहले और अंतिम व्यक्ति डॉ.बाबासाहब अंबेडकर हैं. परंतु, आज भी यह घटना अपने ओबीसी भाईयों को मालूम नहीं है, इस बात पर बहुत आश्चर्य और दुख होता है. भारत में आरक्षण के औचित्य पर जब बहस होती है तो कुछ आरक्षण विरोधी मित्र कहते हैं कि आरक्षण के कारण देश में जातिवाद बढ़ रहा है. आजादी के पहले देश में सबसे पहले आरक्षण अपनी रियासत कोल्हापुर में छत्रपति शाहूजी महाराज ने दिया था. क्या देश में उस समय जातिगत भेदभाव नहीं था? जिसके शिकार बाबासाहब अंबेडकर जैसे व्यक्ति भी हुए थे? अब बताईये कि जातिवाद के कारण आरक्षण आया है या आरक्षण के कारण जातिवाद?

हकीकत तो यह है कि देश में 15 प्रतिशत शासक वर्ग 85 प्रतिशत लोगों के ऊपर पीढ़ी दर पीढ़ी शासन करते आ रहे हैं और भविष्य में ऐसा ही करने की मंशा रखते हैं. यह वर्तमान में संभव नहीं होना चाहिए. लेकिन, आज यदि यह संभव है तो एैसा नहीं है कि इसके पीछे केवल 52 प्रतिशत ओबीसी है. एससी, एसटी और इनसे धर्मपरिवर्तन करने वाले मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन और लिंगायत भी हैं. हमारे लोग हमेशा शासक जातियों के बहकावे में आते रहे हैं. जबकि, शासक वर्ग एससी, एसटी, ओबीसी और मायनॉरिटी को कभी भी अपने बराबर स्थान नहीं दिया. अगर, एससी, एसटी, ओबीसी और मायनॉरिटी जिस दिन इस बात को गहराई से समझ लिया उसी दिन से देश का इतिहास बदल जायेगा और भारत में ब्राह्मणवाद की उलटी गिनती शुरू हो जायेगी. इस काम के लिए बामसेफ की जनजागृति अभियान काफी हद तक सफल हुई है. बामसेफ के जागृति के माध्यम से अब लोगों में दोस्त और दुश्मन की पहचान होने लगी है. एससी, एसटी, ओबीसी और मायनॉरिटी में आपसी भाईचारा बड़े पैमाने पर निर्माण हो रही है. मूलनिवासी बहुजनों की ताकत से ब्राह्मणों में खलबली मच गई है. 85 प्रतिशत मूलनिवासी बहुजन समाज में आपसी भाईचारा को देखकर लगता है कि मूलनिवासी बहुजनों का आंदोलन अब बहुत जल्द ही सफल होने वाला है.

बाबासाहब या भगवान : डॉ0अम्बेडकर




एक बड़ा सा छायादार वृक्ष, हर कोई उसकी छाया में बैठ सके, आराम कर सके। फिर प्रवेश होता है परजीवियों का अमरबेल कह लो, वो धीरे धीरे सारे वृक्ष पर छाती चली जाती है। अब कुछ सालों बाद वृक्ष मर जाता है और छाया की बात तो अब अतीत भी नहीं लगती। बाबासाहेब अपने कामों की वजह से अमर हुए पर अब उनको मार देने का काम चल रहा है। विचारों का खत्म हो जाना मृत्यु ही तो है, बाबासाहेब विचारों के माध्यम से हमारा मार्गदर्शन करते आ रहें हैं किन्तु अब उनके विचारों को बिल्कुल ही बदला जा रहा है, मै इसे मृत्यु से कम कुछ और कह ही नहीं सकता। बाबासाहेब अम्बेडकर या भगवान अम्बेडकर ? आपको खुद स्वयं तय करना होगा कि आपको कौन से अंबेडकर चाहिए।

👉बाबासाहेब अम्बेडकर की जयंती :- क्या आपने उनकी प्रतिमा का पंचामृत से अभिषेक किया ? नहीं ? ओ हाँ! यह तो उनके विचारों के उलट है। ठीक वैसे ही जैसे मंदिर में शराब और कबाब ? ठीक है मंदिर में शराब नहीं पी जा सकती, मांस नहीं खाया जा सकता तो हिंदुत्व का झंडा उठाने वालों की हिम्मत कैसे हुई दूध से बाबासाहेब की प्रतिमा को नहलाने की ? क्या एक अछूत को पवित्र किया जा रहा था ? मैं इसे एक अपराध ही मानता हूँ। भीलवाड़ा, राजस्थान में काँग्रेस ने बाबासाहेब की 126वीं जयंती (14अप्रैल2017) के मौके पर 126दीपक जलाकर, 126 लीटर दूध से स्टेशन रोड स्थित उनकी प्रतिमा का अभिषेक किया। इस घटिया काम के लिए 126लीटर दूध जो कि किसी और अच्छे काम मे लाया जा सकता था, बेकार कर दिया गया। कहीं भजन संध्या का आयोजन हुआ, कहीं हिंदुत्व पर चर्चा, कहीं लड्डुओं का भोग। भीलवाड़ा की ही तहसील मुख्यालय रायपुर में सवर्ण महिलाओं ने 5100 कलशों की शोभा यात्रा निकाली। ऐसा लग रहा है कि जैसे हमे चिढ़ाया जा रहा है कि कर लो जो करना हो, हम तो बाबासाहेब को भगवान बना कर ही रहेंगे।

👉बाबासाहेब के प्रति RSS का रवैया :- जिस RSS ने भारतीय संविधान पारित होने के ठीक 15वें दिन ही बाबासाहेब का पुतला 11दिसंबर 1949 को रामलीला मैदान, नई दिल्ली में जलाया था, फिर आज क्यों उनको यह जयंती मनानी पडी ? कुछ मित्र कह सकते हैं कि यह वोट बैंक का लफडा है, कुछ कह सकते हैं कि बाबा साहेब के विचारों के आगे उनको झुकना ही पडा। ये तो ठीक है कि वोट बैंक के लिए यह किया जा रहा है पर भीतर कुछ और बात है और वो यह कि बाबासाहेब के विचारों को बदला जा रहा है। जिस हिंदुत्व के खिलाफ बाबासाहेब मरते दम तक लिखते और बोलते रहे, आज उन्हीं हिंदुत्ववादी आयोजनों में बाबासाहेब की प्रतिमा या तस्वीरें देखने को मिल रही है जहाँ उनके विचारों का कोई लेना देना नहीं।
👉बाबासाहेब का भविष्यकालीन आईना :- आज से पांच सौ या हजार साल बाद बाबासाहेब अम्बेडकर को किस तरह याद किया जाएगा ? ये मेरा सवाल उन तमाम लोगों से हैं जो आज खुद को बाबासाहेब की विचारधारा का समर्थक/अनुयायी मानते हैं, जो समानता की बात करते हैं, जो धर्म से आगे देश की बात करते हैं। शायद कुछ सालों बाद बाबासाहेब को भगवान का दर्जा देकर उनके मंदिर भी बना दिए जाएंगे, भजन सत्संग होंगे और हम खुश होकर कहेंगे कि हमारे बाबा साहेब भगवान हो गए। और फिर से गुलामी का दौर शुरू, समानता खत्म और सब कुछ फिर से भगवान भरोसे। भगवान यूँ ही बनाए जाते रहे हैं और तब बाबा साहेब और उनके विचार पूरी तरह मर चुके होंगे। ऐसे में कुछ मूलनिवासी इतिहासकार अगर बचे होंगे तो बहस होगी कि क्या अम्बेडकर अछूत थे ? जी हां! आज सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य और सम्राट अशोक पर इस तरह की ही बहस होती है। क्योंकि और कोई तरीका नहीं है उस क्रांतिकारी विचारक, नेता और व्यवस्था परिवर्तक को मार डालने का। RSS और तमाम मनुवादी इस रास्ते पर चल पडे हैं, इससे वोट भी मिल सकता है और भगवाकरण तो हो ही रहा है।

👉डॉ0अम्बेडकर बाबासाहेब या भगवान :- बाबा साहेब और भगवान में फर्क नहीं समझे ? बाबा साहेब तो किसी तरह किताबों से बाहर आ जाएंगे किन्तु याद रहे आपकी समानता की वकालत करने और आपके हक में भगवान अम्बेडकर मंदिर से कभी नहीं निकलेंगे। भगवान अम्बेडकर के यहाँ तो गरीब, अमीर, वीआईपी इत्यादि की लाईन लगी होगी। आप तो अछूत ठहरे, आपको तो मंदिर मे जाने ही नहीं दिया जाएगा और ब्राह्मण/पुरोहित अम्बेडकर के नाम पर भी पैसा कमाएंगे। वैसे भी मंदिर में जाकर करोगे क्या ? यदि गलती से भी भगवान अम्बेडकर के मंत्र, चौपाई और भजन सुन लिए तो मार पडेगी मुफ्त में। वैसे सुन कर करोगे भी क्या ? ये जो अधिकारों की बात करने लगे हो ना! सब भूल जाओगे। अम्बेडकर के जयकारों के बीच, गुलामों की तरह आवाज दब कर रह जाएगी। हमें जो चाहिए वो यह कि हम इस चाल को समझे, उन का जन्म दिवस हो या परिनिर्वाण दिवस, झूठे पांडित्य से दूर रहें व इस तरह के आयोजन का हर स्तर पर विरोध करें और मेरे ख्याल से न्यायालय भी इसका एक रास्ता है। थोड़ा थोड़ा बदलाव ही एक दिन बाबासाहेब का हर विचार बदल देगा। खतरा सामने है तय करो क्या चाहिए बाबासाहेब अम्बेडकर या भगवान अम्बेडकर। इस बार की अम्बेडकर जयंती पर अम्बेडकर की प्रतिमा को दूध से नहलाया गया, अगले साल हो सकता है कि गंगाजल छिड़का जाए और फिर हो सकता है कि भविष्य में अम्बेडकर का कोई मंदिर भी बनवा दिया जाए। ब्राह्मणवादी लोग इस तरह के काम करते आए हैं। जहां से भी कोई क्रांति और बगावत की बू आए तो उसे पूजा-पाठ में उलझा देना चाहिए, शायद अंबेडकर के साथ भी यही होने जा रहा है। ठीक वैसे ही जैसे तथागत बुद्ध को विष्णु का 9वां अवतार बनाकर भगवान बुद्ध बना दिया गया है।

👉भगवान बनने से रोकने का उपाय :- इसको रोकने का मुझे एक उपाय सूझ रहा है कि अम्बेडकर जयंती पर जहां कहीं भी पोस्टर बनाए जाएं, तो उन पोस्टरों में अंबेडकर की तस्वीर के साथ उनकी 22 प्रतिज्ञाएँ भी होनी चाहिए। जिस पोस्टर में 22प्रतिज्ञाएँ नहीं होगी, वो पोस्टर स्वीकार नहीं किया जाएगा। तब पता चलेगा RSS, BJP और Congress वालों को, कि अम्बेडकर जयंती कैसे मनाई जाती है। बाबासाहेब अम्बेडकर की 22प्रतिज्ञाएँ ही आपकी सुरक्षा कवच का काम करेंगी। बौद्ध विहार, पार्क या मैदान, जहां भी अम्बेडकर जयंती मनाई जाए, वहाँ मंच से बाबा साहेब अम्बेडकर की 22प्रतिज्ञाएँ भी बोली जाएं और जबतक नहीं बोली जाएंगी, तबतक अम्बेडकर जयंती का उत्सव पूरा नहीं माना जाएगा। आखिर यह कोई रामलीला तो है नहीं कि आए, खाये-पिये और चल दिये।

डॉ0अम्बेडकर और कोलंबिया यूनिवर्सिटी



डा.अंबेडकर के जीवन के कई वक्ततव्य हैं, जो अनछुए से हैं। अनछुए नहीं भी हैं तो भी उनकी चर्चा प्रमुखता से कम ही हुई है। विदेश से पढ़ाई कर भारत लौटने के बाद शोषित समाज के उत्थान और देश निर्माण में उनकी भूमिका की चर्चा अक्सर की जाती है लेकिन उनके विश्वविद्यालयीय शिक्षा के बारे में चर्चा थोड़ी कम हो पाती है। हम 1913 से 1916 के उस दौर की बात कर रहे हैं, जो वक्त डा. अंबेडकर ने न्यूयार्क के कोलंबिया यूनिवर्सिटी में बिताया था। यह डॉ.अम्बेडकर और बड़ोदा नरेश सयाजी गायकवाड़ के बीच हुए उस करार से सम्भव हुआ जिसमें विदेश से पढ़ाई के बदले 10वर्षों तक रियासत की सेवा करने का करार हुआ था इसी अनुबंध के तहत अम्बेडकर का उच्च शिक्षा हेतु अमेरिका जाना तय हुआ।

बीसवीं शताब्दी में डॉ0अम्बेडकर ऐसे प्रथम श्रेणी के राजनेताओं में पहले व्यक्ति थे, जिन्होने अमेरिका जाकर उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। जून 1916 में उन्होंने ‘नेशनल डिविडेन्ड इन इण्डिया ए हिस्टोरिक एण्ड ऐनेलेटिक स्टेडी’ पर शोध पूरा कर विश्व विद्यालय में जमा किया जिस के लिए डॉ. अंबेडकर को (डॉक्टर ऑफ फिलॉसफी) पीएचडी की उपाधि से सम्मानित किया गया था। अम्बेडकर की इस सफलता से प्रेरित होकर कला संकाय के प्राध्यापकों और विद्यार्थियों ने एक विशेष भोज देकर डॉ.अम्बेडकर का सम्मान किया था जो महान व्यक्ति अब्राहन लिंकन व वाशिंगटन की परम्परा का अनुसरण था। इस शोध प्रबंध में डॉ0 अम्बेडकर ने बिट्रिश सरकार द्वारा भारत के आर्थिक शोषण की एक नंगी तस्वीर दुनिया के सामने रखी जो एक ऐतिहासिक दस्तावेज है।

डॉ0अम्बेडकर द्वारा सामाजिक न्याय व समता के संबंध में भारतीय शोषित समाज को हक दिलाने वाले संविधान निर्माण की उपलब्धि से प्रभावित होकर कोलम्बिया विश्वविद्यालय न्यूयार्क, अमेरिका ने 05 जून 1952 को उन्हें ‘डॉक्टर ऑफ लॉ’ की मानद उपाधि प्रदान की थी। सन् 1754 में स्थापित की गई कोलंबिया युनिवर्सिटी ने अपनी स्थापना के 250 साल पूरा होने पर सन् 2004 में अपने सौ ऐसे पूर्व छात्रों की एक लिस्ट जारी की, जिन्होंने दुनिया में महान कार्य किए और अपने क्षेत्र में प्रसिद्ध रहे। यूनिवर्सिटी की सूची में डॉ. अंबेडकर को पहले स्थान पर रखा गया। इस सूची की खास बात यह हैं इसमें अमेरिका के 3 राष्ट्रपति सहित विश्व के 6 अलग-अलग देशों के राष्ट्राध्यक्ष, 40 नोबेल पुरस्कार विजेताओं, अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के पहले न्यायाधीश सहित 8 अन्य सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश, 22 से अधिक अमेरिकी राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता शामिल हैं। इसके अलावा इस सूची में कई कंपनियों के मुख्य कार्यकारी अधिकारी, विश्व के सर्वाधिक धनवान व्यक्ति वारेन बफेट एवं कई दार्शनिक तथा नोबेल पुरस्कार विजेता शामिल हैं। सूची में जो तीन अमेरिकी राष्ट्रपति हैं, उनमें थियोडोर रूजवेल्ट, फ्रेंकलिन रूजवेल्ट और डेविड आसनहॉवर सहित जर्जिया के राष्ट्रपति मिखाइल साकाश्विली, इथोपिया के राष्ट्रपति थॉमस हेनडिक, इटली के प्रधानमंत्री गियूलिनो अमाटो, अफगानिस्तान के प्रधानमंत्री अब्दुल जहीर, चीनी प्रधानमंत्री तंगशोयी आदि शामिल हैं।

कोलंबिया युनिवर्सिटी में पूर्व छात्रों को सम्मानित करने के लिए एक स्मारक बनाया गया जिस पर इन 100 महान विभूतियों के नाम लिखे गये हैं इन सभी सम्मानित 100 पूर्व विद्यार्थियों के नामों को सही क्रम में लगाने के लिए वहां के विद्वानों की एक कमेटी बनाई गई उस कमेटी ने भारतीय संविधान के रचयिता तथा आधुनिक भारत के संस्थापक पितामह बाबा साहब डॉ0 बी. आर. अम्बेडकर का नाम सबसे ऊपर नं.- 1 पर रखा गया। इस स्मारक का अनावरण 10दिसंबर 2011 को विश्व मानवाधिकार दिवस के अवसर पर अमेरिका के 44वें राष्ट्रपति (20.01.2009 -20.01. 2017) व नोबल शांति पुरस्कार2009 विजेता बराक ओबामा ने किया था। यह स्मारक आज भी कोलम्बिया विश्वविद्यालय के प्रांगण में शोभायमान है।

21 सितंबर : माता फातिमा शेख जयंती



भारत की पहली मुस्लिम शिक्षिका माता फातिमा शेख (21.9.1832- 09.10. 1900) जिन्होंने क्रांतिसूर्य ज्योतिबा फुले और माता सावित्रीबाई फुले के साथ मिलकर लड़कियों में करीब 170 साल पहले शिक्षा की मशाल जलाई थी। आज से लगभग 170 साल पहले तक शिक्षा बहुसंख्य लोगों तक नहीं पहुंच पाई थी जब विश्व आधुनिक शिक्षा में काफी आगे निकल चुका था, लेकिन भारत में बहुसंख्य लोग शिक्षा से वंचित थे। लडकियों की शिक्षा का तो पूछो ही मत, क्या हाल था ? ज्योति राव फुले पूना में 1827 में पैदा हुए उन्होंने बहुजनों की दुर्गति को बहुत ही निकट से देखा था। उन्हें पता था कि बहुजनों के इस पतन का कारण शिक्षा की कमी है, इसीलिए वे चाहते थे कि बहुसंख्य लोगों के घरों तक शिक्षा का प्रचार प्रसार होना चाहिए। विशेषतः वे लड़कियों की शिक्षा के प्रबल पक्षधर थे इसका आरंभ उन्होंने अपने घर से ही किया। उन्होंने सबसे पहले अपनी जीवन संगिनी सावित्रीबाई को शिक्षित किया। ज्योतिराव अपनी जीवन संगिनी को शिक्षित बनाकर अपने कार्य को और भी आगे ले जाने की तैयारियों में जुट गए। यह बात उस समय के सनातनियों को बिल्कुल भी पसंद नहीं आई, उनका चारों ओर से विरोध होने लगा। ज्योतिराव फिर भी अपने कार्य को मजबूती से करते रहे। ज्योतिराव नहीं माने तो उनके पिता गोविंद राव पर दबाव बनाया गया। अंततः पिता को भी प्रस्थापित व्यवस्था के सामने विवश होना पड़ा। 

मज़बूरी में ज्योतिराव फुले को अपना घर छोड़ना पडा। उनके एक दोस्त उस्मान शेख पूना के गंज पेठ में रहते थे। उन्होंने ज्योतिराव फुले को रहने के लिए अपना घर दिया। यहीं ज्योतिराव फुले ने 1848 में अपना पहला स्कूल शुरू किया। उस्मान शेख भी लड़कियों की शिक्षा के महत्व को समझते थे। उनकी एक बहन फातिमा थीं जिसे वे बहुत चाहते थे। उस्मान शेख ने अपनी बहन के दिल में शिक्षा के प्रति रुचि पैदा की। सावित्रीबाई के साथ वह भी लिखना- पढ़ना सीखने लगीं। बाद में उन्होंने शैक्षिक सनद प्राप्त की। क्रांतिसूर्य ज्योति राव फुले ने लड़कियों के लिए कई स्कूल खोले। सावित्रीबाई और फातिमा ने वहां पढ़ाना शुरू किया। वो जब भी रास्ते से गुजरतीं, तो लोग उनकी हंसी उड़ाते और उन्हें पत्थर मारते। दोनों इस ज्यादती को सहन करती रहीं, लेकिन उन्होंने अपना काम बंद नहीं किया। माता फातिमा शेख के जमाने में लड़कियों की शिक्षा में असंख्य रुकावटें थीं। ऐसे जमाने में उन्होंने स्वयं शिक्षा प्राप्त की तथा दूसरों को भी लिखना- पढ़ना सिखाया।

माता फातिमा शेख शिक्षा देने वाली पहली मुस्लिम महिला थीं जिनके पास शिक्षा की सनद थी। उन्होंने लड़कियों की शिक्षा के लिए जो सेवाएं दीं, उसे भुलाया नहीं जा सकता। घर-घर जाना, लोगों को शिक्षा का महत्व समझाना, लड़कियों को स्कूल भेजने के लिए उनके अभिभावकों की खुशामद करना, माता फातिमा शेख की आदत बन गई थी। आखिर उनकी मेहनत रंग लाने लगी। लोगों के विचारों में परिवर्तन आया वे अपनी घरों की लड़कियों को स्कूल भेजने लगे। लड़कियों में भी शिक्षा के प्रति रूचि जाग्रत होने लगी। स्कूल में उनकी संख्या बढती गयी। मुस्लिम लड़कियां भी खुशी- खुशी स्कूल जाने लगीं। विपरीत व्यवस्था के विरोध में जाकर शिक्षा के महान कार्य में ज्योतिराव एवं सावित्री बाई फुले को मौलिकता के साथ सहयोग देने वाली एक वीर मानवतावादी शिक्षिका फातिमा शेख को दिल से जय मूलनिवासी

राजस्थान हाईकोर्ट का ब्राह्मणीकरण


राष्ट्र निर्माता डॉ बाबासाहब भीमराव अम्बेडकर ने 25 दिसम्बर 1927 के दिन महाराष्ट्र के महाड़ में मनुस्मृति नाम के तथाकथित धार्मिक ग्रन्थ को पब्लिकली जलाया था। कारण यह घ्रणित किताब मनुस्मृति मूलनिवासियों के मानव अधिकारों के विरोध में लिखी गयी थी। जाहिर तौर पर इस किताब में पाखंड है। जाति के आधार पर छुआछूत, ऊँच-नीच, असमानता का कारण मनुस्मृति ही है। सदियों से सोशल डीग्रेडेशन का मुख्य कारण मनुस्मृति है। मानव समाज में जाति के आधार पर भेदभाव को जन्म मनुस्मृति ने दिया था। चार वर्णों की व्यवस्था का भी उद्गम मनुस्मृति से होता है। वर्ण व्यवस्था ने मानव समाज में ऊँच-नीच को जन्म दिया। हिन्दू समाज में मूलनिवासियों के मानव अधिकार मनुस्मृति की वजह से छीन लिए गये। इससे सम्बंधित तमाम प्रकार की बातें मनुस्मृति में लिखी हुई है। आज के आधुनिक युग में भी हम तमाम प्रकार की ख़बरों से रूबरू होते हैं जिसमे यह पढ़ने या देखने को मिलता है कि फलांना जगह दलितों के घर जला दिए गये। फलांना जगह एससी लड़कियों के साथ उच्च जाति के असामाजिक तत्वों ने बलात्कार किया या फलांना जगह एससी महिला को नंगा कर घुमाया इत्यादि।
इस प्रकार की तमाम प्रकार की दुखद ख़बरें हर रोज अख़बार, दूरदर्शन या फिर सोशल मीडिया पर देखने को मिलती है। कुल मिलाकर निष्कर्ष यह है कि मनुस्मृति मानव समाज के लिए खतरा है। यह मानवीय मूल्यों को ठेस पहुंचाती है। मनुस्मृति को मनु नाम के काल्पनिक व्यक्ति ने लिखा था। काल्पनिक इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि मनु को किसी ने देखा नहीं था और न ही इतिहास में मनु की शक्ल के बारे में कोई जानकारी मिलती है। मनुस्मृति की वजह से मूलनिवासियों के साथ अन्याय होता आ रहा है। भारत में महिलाओं के विरोध में कई प्रकार की रुढ़िवादी परम्पराएँ चलती आ रही हैं। मिसाल के लिए दहेज़ प्रथा हो या घुंघट प्रथा, कन्या भ्रूण हत्या हो या बाल विवाह या कन्या-दान शब्द।

मनुस्मृति दहन का मकसद मूलनिवासियों के साथ हो रहे अत्याचार एवं अन्याय को खत्म करके समानता वाले समाज की स्थापना करना था। यानी कि छुआछूत, जाति आधारित भेदभाव, ऊँच-नीच, को ख़त्म करना तो था ही, इसके साथ-साथ चार वर्णों की व्यवस्था को भी ख़त्म करना था यानी कि ब्राह्मणवाद को ख़त्म करके समाजवाद, आम्बेडकरवाद स्थापित करना था। ब्राह्मणवाद के खिलाफ संघर्ष के लिए मनुस्मृति दहन दिवस मील का पत्थर साबित हुआ। बाबा साहेब आम्बेडकर ने उस दिन शाम को दिए भाषण में कहा था कि मनुस्मृति-दहन 1789 की “फ्रेंच -रेवोलुशन” के बराबर है। जाहिर है कि बाबा साहेब आम्बेडकर हिन्दू समाज में जात-पात के खिलाफ थे और सारा आम्बेडकरी साहित्य इस बात की पुष्टि करता है। इस प्रकार से मेरी राय के अनुसार मनुस्मृति मानवता के विरुद्ध है व उसका रचियता मनु अन्याय का प्रतीक है। 28 जून 1989 को राजस्थान हाई कोर्ट के नये परिसर में मनु की मूर्ति का इंस्टालेशन किया गया था। माना जाता है कि मूर्ति की डिमांड लोकप्रिय नहीं थी और स्पष्ट है कि कुछ ‘पाखंडी’ लोग ही इस प्रकार अन्याय का समर्थन कर सकते हैं। शुरुआत से लेकर कार्य पूर्ण तक इस काम को गोपनीय रूप से अंजाम दिया गया, इसलिए चलते काम के बीच इसका विरोध नहीं हो पाया। इसकी जानकारी केवल उन्ही लोगों को थी जो मूर्ति लगवाना चाहते थे। स्पष्ट है कि मनु अन्याय का प्रतीक है, इसके बावजूद भी कुछ पाखंडी एवं रुढ़िवादी लोगों की डिमांड का सम्मान करते हुए न्यायालय द्वारा मनु, जिसको किसी ने देखा भी नहीं होगा फिर भी उसकी मूर्ति या पुतला बनाकर राजस्थान के जोधपुर उच्च न्यायलय में लगाया जाना अन्याय के पक्ष में जाकर फैसला देने के बराबर है।

ध्यान रहे कि संवैधानिक रूप से न्यायालय एक ऐसी संस्थान है जहाँ पर सामाजिक व आर्थिक न्याय की उम्मीद की जाती है। मूर्ति लगने के बाद कई मूलनिवासी संगठनों ने इसके विरोध में धरना प्रदर्शन किया। धरना प्रदर्शन को देखते हुए 27 जुलाई 1989 को राजस्थान के जोधपुर हाई कोर्ट की ही एकल पीठ ने 48 घंटे की समयावधि के अन्दर-अन्दर मूर्ति को हटाने का निर्देश दिया। इसे ध्यान में रखते हुए विश्व हिन्दू परिषद के आचार्य धर्मेन्द्र ने न्यायमूर्ति महेंद्र भूषण के न्यायालय में एक रिट पिटीशन दाखिल कर दी और न्यायलय ने स्टे आर्डर लगाकर मूर्ति हटाने से मना कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि मनु की मूर्ति राजस्थान के जोधपुर हाई कोर्ट में आज भी लगी है।

प्रश्न यह है कि ऐसा न्यायालय न्याय देता होगा कि केवल फैसला ?
भारतीय संविधान में मनुस्मृति से सम्बंधित कानून :- राष्ट्र निर्माता डॉ बाबा साहेब भीमराव आम्बेडकर व संविधान निर्माण 

समिति के द्वारा मनुस्मृति सम्बंध में अप्रत्यक्ष रूप से एक प्रावधान लाया गया जिसके अंतर्गत भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13 में अगर 26 जनवरी 1950 के बाद अगर कोई पुरानी परम्परा या विधान जो मौलिक अधिकारों का हनन करे, जो किसी प्रकार की रूढी भी हो सकती है, तो इस प्रकार की परम्परा को अनुच्छेद 13 का उल्लंघन माना जायेगा। इस प्रकार से मेरा मानना है कि मनु की मूर्ति का हाई कोर्ट में लगा होना एक प्रकार से संविधान की अवमानना है।

24 सितंबर की तीन प्रमुख घटनाएं


1.कुळवाडी भूषण बहुजन प्रतिपालक छत्रपति शिवाजी महाराज ने अपना दूसरा राज्याभिषेक आज से 345 साल पहले 24सितंबर1674 को शाक्त पंथ की रीति से करवाया था जिसका पौरोहित्य निश्चलपुरी गोसावी ने किया था। शाक्त पंथ बौद्ध धम्म की ही एक शाखा तंत्रयान से निकला हुआ एक पंथ है।

2.राष्ट्रपिता ज्योतिबा फुले ने व्यवस्था परिवर्तन के आंदोलन को संगठित रूप से आगे बढ़ाने हेतु आज से 146 साल पहले 24सितंबर1873 को ‘सत्य शोधक समाज’ की नींव रखी। उन दिनों समाज सुधार का दावा करने वाले कई संगठन काम कर रहे थे। जैसे, ‘ब्रह्म समाज’ (राजा राममोहन राय : 20अगस्त1928), ‘प्रार्थना समाज’ (केशवचंद सेन : 31मार्च 1867), पुणे सार्वजनिक सभा (महादेव गोविंद रानाडे : 02अप्रैल 1870) आदि प्रमुख थे। लेकिन वे सभी द्विजों द्वारा, द्विजों की हित सिद्धि के लिए बनाए गए थे, उनकी कल्पना में पूरा भारतीय समाज नहीं था। वे चाहते थे कि समाज में जाति रहे, लेकिन उसका चेहरा उतना क्रूर और अमानवीय न हो। इसी क्रम में आर्य समाज (स्वामी दयानंद सरस्वती : 10अप्रैल1875) का नाम भी आता है, जो वेदों की ओर लौटने का बात कर रहा था।

3.बाबासाहब डॉ0अम्बेडकर और मि0 एम. के. गांधी के मध्य आज से 87 साल पहले 24सितंबर 1932 को पूना पैक्ट हुआ था। बाबासाहेब ने इस पैक्ट पर अत्यधिक मजबूरी एवं भारी दबाव में बड़े ही दु:खी मन से सायं 05 बजे दस्तखत किये थे और हस्ताक्षर करते समय उन्होंने कहा था कि "मि0 गांधी मैं युद्ध हारा हूँ, हिम्मत नहीं।" इसके बाद उन्होंने Separate settlement & 30% sc/st compulsory vote for winner candidate to reserve seats के दांव चले, दुर्भाग्यवश वे दांव सफल नहीं हो पाये। हाँ, वे पूना पैक्ट का आजीवन धिक्कार अवश्य करते रहे, इससे उनके कथन की पुष्टि होती है। यदि उस समय आरक्षण के जनक कोल्हापुर नरेश लोकराजा राजर्षि छत्रपति शाहूजी महाराज (26जून1874 -06मई 1922) जीवित होते तो यह समझौता कदापि नहीं होता, चाहें मि0 गांधी व उनके पैरोकार मर भले ही जाते।

इस प्रकार बाबासाहब से पूना पैक्ट पर दस्तखत करवाकर शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक एवं महात्मा फुले के सत्यशोधक समाज की स्थापना से मूलनिवासियों को मिलती खुशी और प्रेरणा को मि0 गांधी ने मातम में बदलकर ग्रहण लगा दिया।

24 सितंबर 1932 : पूना पैक्ट



आज से ठीक 87 साल पहले आज के ही दिन 24 सितंबर 1932 को मि0 एम.के. गांधी और बाबा साहेब डॉ0अम्बेडकर के बीच पूना पैक्ट हुआ था। बाबासाहेब ने इस समझौते पर अत्यधिक मजबूरी एवं भारी दबाव में दस्तखत किये थे क्योंकि इससे आजतक एससी- एसटी को गुलाम बनाया जा रहा है। हाँ, यह बात अलग है कि उस समय आरक्षण के जनक कोल्हापुर नरेश लोकराजा राजर्षि छत्रपति शाहूजी महाराज (26जून 1874 -06मई 1922) यदि जीवित होते तो यह समझौता कदापि नहीं होता, चाहें मि0 गांधी व उनके पैरोकार मर भले ही जाते।
1. Separate Electorates अर्थात पृथक निर्वाचन क्षेत्र।
2. Dual Voting अर्थात दोहरा मत, अपने ही वर्ग के व्यक्ति को प्रतिनिधि के रूप में चुनने का अधिकार।
3. Adult Franchise अर्थात वयस्क मताधिकार।
4. Adequate Representation अर्थात प्रांत एवं केन्द्र के विधान-मंडलों में जनसंख्या के अनुपात में पर्याप्त प्रतिनिधित्व।

उपरोक्त चार अधिकार द्वितीय गोलमेज सम्मेलन (07 सितंबर1931-01दिसंबर 1931), लंदन में बाबासाहब के अथक प्रयासों के फलस्वरूप ब्रिटिश सरकार ने अछूतों (अनुसूचित जाति) के लिए 17 अगस्त1932 को स्वीकार किये थे जिसे COMMUNAL AWARD (साम्प्रदायिक पंचाट) कहा गया और उन अधिकारों में जिसमें पहला व दूसरा अधिकार केवल एससी के लिए, तीसरा भारत के समस्त वयस्कों के लिए तथा चौथे अधिकार में अन्य सामाजिक समूहों के लिए प्रतिनिधित्व देने की मंशा थी।
मि0 गांधी एण्ड कंपनी ने सिर्फ पहले अधिकार का विरोध किया और जब पहला अधिकार समाप्त हो गया तो दूसरा अधिकार स्वतः ही समाप्त हो गया। जेल में कैद मि0 गांधी ने आमरण अनशन करके तथा भयंकर दबाव द्वारा बाबासाहब अम्बेडकर को 24 सितंबर 1932 को यरवदा जेल, पूना में कम्यूनल अवार्ड के विरोध में मजबूर करके समझौता करने पर बाध्य किया। बाबा साहब और मि0 गांधी के बीच पूना में समझौता होने के कारण इसे POONA PACT (पूना समझौता) कहा गया। कम्युनल अवॉर्ड में केवल एससी के लिए पृथक निर्वाचन (Separate Electorates) का प्रावधान था किन्तु पूना पैक्ट से आये संयुक्त निर्वाचन (Joint Electorates) में अनुसूचित जन जातियों (एसटी) को भी शामिल कर लिया गया। हाँ, बाबासाहब इन सबके बावजूद पूना पैक्ट में प्राथमिक चुनाव प्रणाली बरकरार रखने में जरुर सफल रहे। वयस्क मताधिकार बाबा साहब ने भारत के समस्त वयस्कों के लिए स्वीकृत करवाया था जबकि मि0 गांधी इसके भी विरोध में थे। इस प्रकार एससी को मिली हुई वास्तविक आजादी केवल 38 दिन के लिए सिर्फ दिवास्वप्न बन रह गयी और वे फिर से गुलामी की खामोश जंजीरों में जकड़ लिए गये।

Dual Vote :- उदाहरण के लिए, वर्तमान में लोकसभा में 84 एससी के लिए तथा 47 एसटी के लिए, कुल 131निर्वाचन क्षेत्र एससी-एसटी के लिए सुरक्षित हैं तथा शेष 412 निर्वाचन क्षेत्र सभी धर्मावलम्बियों एवं जातियों के लिए हैं। इस प्रकार लोक सभा के कुल 543 निर्वाचन क्षेत्र हैं। यदि कम्युनल अवॉर्ड लागू रहता तो सुरक्षित स्थानों के लिए निर्वाचन हेतु पहले सम्पूर्ण भारत को 84 क्षेत्रों में विभक्त करके चुनाव करवाया जाता जिसमें सिर्फ एससी के लोग ही चुनाव लड़ते और एससी के लोग ही वोट भी करते, ऐसा एससी को दोहरे वोट का अधिकार मिला था। सुरक्षित स्थानों हेतु प्रत्याशी का चुनाव दो पड़ावों से होना था। पहले पड़ाव (सेमीफाइनल) में उम्मीदवार कौन होगा, यह पार्टी नहीं बल्कि प्रत्येक पार्टी द्वारा उतारे गए 04-04 उम्मीदवारों में से उसी पार्टी के सदस्यों/ डेलीगेट्स द्वारा पाए सिर्फ एससी के अधिकतम वोटों वाला ही प्रत्याशी बन पाता। इससे प्रत्याशी पर पार्टी का नाममात्र का दबाव रह जाता और दूसरे पड़ाव में प्रत्याशी का फाइनल चुनाव। उसके बाद दोबारा सम्पूर्ण भारत को 459 निर्वाचन क्षेत्रों में विभक्त कर चुनाव करवाये जाते जिसमें उस क्षेत्र के सभी जाति, धर्म और वर्ग के लोग चुनाव लड़ते और सभी जाति, धर्म और वर्ग के लोग वोट भी करते।

समझौता व उसकी वर्तमान स्थिति :- समझौते में पहले पड़ाव द्वारा उम्मीदवार चयन की व्यवस्था व संयुक्त निर्वाचन की व्यवस्था केवल अग्रिम 10 वर्षों के लिए मान तो ली गई और उसी व्यवस्था के तहत 1937 व 1945 में चुनाव भी हुए किन्तु व्यवहारिकता में उस पर बिल्कुल भी अमल नहीं किया गया। आगे चलकर संविधान सभा में बहुमत न होने के कारण एससी- एसटी के लिए पहले पड़ाव द्वारा उम्मीदवार चयन की व्यवस्था तो समाप्त ही हुई किन्तु इसके साथ ही पूर्व से लागू अन्य सामाजिक समूहों के लिए पृथक निर्वाचन की भी व्यवस्था समाप्त हो गई। कम्युनल अवॉर्ड की भरपाई के लिए बाबासाहब ने श्रम मंत्री के दौरान भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड वेवेल (01अक्टूबर 1943- 21फरवरी 1947) के समक्ष एससी-एसटी के लिए पृथक बस्ती (Separate settlement) का प्रस्ताव रखा, जिसे लॉर्ड वेवेल ने स्वीकार भी किया था और उन्होंने अॉल इंडिया रेडियो पर यह ऐलान भी किया था कि भारत के स्वतंत्र होने पर तीन समूहों (हिन्दू, मुस्लिम और एससी- एसटी) को हिस्सेदारी मिलेगी। भारत- पाकिस्तान का बंटवारा होने पर मुस्लिमों का तो मामला ही खत्म हो गया किन्तु लॉर्ड वेवेल के इंग्लैंड वापस चले जाने के बाद पृथक बस्ती और एससी-एसटी की हिस्सेदारी का मामला कब और कैसे समाप्त हो गया, आजतक पता ही नहीं चला। 

संविधान सभा में संविधान लागू होने की तिथि (26जनवरी1950) से एससी- एसटी के लिए आरक्षित स्थानों की व्यवस्था अग्रिम 10 वर्षों के लिए मानते हुए तथा उसकी आगामी स्थिति पारस्परिक सहमति (Mutual agreement) अर्थात जनमत संग्रह पर निर्भर की गई किन्तु संसद में इसे बिना चर्चा, बिना वाद- विवाद किए ही केवल ध्वनि मत द्वारा प्रति 10वर्ष पर आज तक लगातार बढ़ाया जा रहा है, जो फिलहाल आगामी 25 जनवरी 2020 तक लागू है जिसे संसद के इसी साल 2019 के शीतकालीन सत्र में फिर अगले 10 वर्षों के लिए बढ़ा दिया जायेगा। संविधानसभा में जब पहले पड़ाव वाले चुनाव की व्यवस्था समाप्त हुई तो बाबा साहब ने एससी-एसटी के 30% वोट प्राप्त करने वाले को विजयी मानने का प्रस्ताव रखा किन्तु दुर्भाग्यवश बहुमत न होने के कारण यह प्रस्ताव भी 28अगस्त1947 को संविधान सभा में पास नहीं हो सका था।
इस प्रकार संयुक्त निर्वाचन द्वारा सुरक्षित स्थान से चुना गया व्यक्ति अपने समाज का वास्तविक प्रतिनिधि न होकर Tool (एससी- एसटी के विरोध में इस्तेमाल किया जाने वाला औजार, हथियार), Stooge (शासक जातियों का पिछलग्गू) और Agent (पिट्ठू, देशी भाषा में कहा जाय तो दलाल, भड़वा) बन कर काम करता है। पूना पैक्ट से भारत में छुआछूत की बीमारी आज तक बरकरार है जिसके संस्थापक मि0 गांधी हैं।

रविवार, 22 सितंबर 2019

भाऊराव पाटिल जयंती


भाऊराव पाटिल जयंती
कर्मवीर भाऊराव पायगोंडा पाटिल का जन्म महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिले में 22सितंबर 1887 को हुआ था। उन्होंने सतारा जिले के काले नामक स्थान पर महात्मा फुले के 'सत्य शोधक समाज ' के उद्देश्यों की पूर्ति के निमित्त 04अक्टूबर1919 को बहुजनों की शिक्षा के लिए 'रयत शिक्षण संस्था' की स्थापना की थी। उनका कहना था कि समाज का यह जो गरीब तबका है, इसके पिछड़ने का कारण अशिक्षा है। उन्होंने मजदूर वर्ग को नारा दिया, 'कमाओ और शिक्षा प्राप्त करो' (Earn and learn) रयत शिक्षण संस्था के पास आज करीब 700 होस्टल हैं जिनमें करीब 4,50,000 विद्यार्थी संस्था के विभिन्न स्कूलों और कालेजों में शिक्षा प्राप्त करते हैं।

महाराष्ट्र सरकार ने 1955 में उनके द्वारा समाज के लिए की गई उनकी सेवाओं को याद करते हुए उन्हें 'कर्मवीर' की मानद उपाधि से सम्मानित किया। भारत सरकार ने भी 1959 में उन्हें राष्ट्रीय सम्मान देते हुए 'पद्म भूषण' से अलंकृत किया तथा उनके 29वें स्मृति दिवस पर 09मई 1988 को 60 पैसे का एक डाक टिकट भी जारी किया। इसी वर्ष पूना यूनिवर्सिटी ने उन्हें 'डी लिट्' की मानद उपाधि से नवाजा। करीब 72वर्ष की आयु में 09मई1959 को उनका परिनिर्वाण हो गया। लीक से हटकर चलते हुए इस महान हस्ती ने दबे-कुचलों की शिक्षा के लिए जो कार्य किया, इतिहास में उसे हमेशा याद किया जायेगा।

यह मात्र एक संयोग ही कहा जायेगा कि बाबासाहेब अम्बेडकर ने भी कोलंबिया यूनिवर्सिटी, न्यूयॉर्क में 09मई1916 को आयोजित एक शोध संगोष्ठी में भारत में जातियां: उनकी संरचना, उत्पत्ति एवं विकास (Castes in India: Their Mechanism, Genesis & Development) पर अपना शोधपत्र पढ़ा था। बाबासाहेब तब केवल 25 साल के थे और मानवशास्त्र के शोधार्थी थे। 18 पृष्ठों के इस शोध प्रबंध में बाबासाहेब ने भारत की जाति प्रथा को एक अनूठे परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयास किया है।

शनिवार, 21 सितंबर 2019

raj kumar









संत नारायण गुरु स्मृति दिन





संत नारायण गुरू के 91वें स्मृति दिन पर दैनिक मूलनिवासी नायक परिवार की ओर से सादर आदरांजलि!
लगभग सौ वर्ष तक पहले ट्रावनकोर और कोचीन (वर्तमान केरल राज्य) ऐसा क्षेत्र था जहाँ निम्न जाति वालों के लिये मंदिर, विद्यालय और सार्वजनिक स्थलों में प्रवेश वर्जित था. कुंओं का इस्तेमाल वे कर नहीं सकते थे. इस जाति के मर्द और औरतों के लिए कमर से ऊपर कपड़े पहनना तक का बड़ा गुनाह था, तो फिर गहने पहनने का तो सवाल ही नहीं था. इन्हें अछूत तो समझा जाता ही था, उनकी परछाइयों से भी लोग दूर रहते थे. बड़े लोगों से कितनी दूरी पर खड़े होना है वह दूरी भी जातियों के आधार पर निर्धारित थी और यह दूरी यह 5 फीट से 30 फीट तक थी. कुछ जातियों के लोगों को तो देख भर लेने से छूत लग जाती थी.

 उन्हें चलते समय दूर से ही अपने आने की सूचना देनी पड़ती थी. वे लोग जोर-जोर से चिल्लाते जाते थे कि ‘‘मेरे मालिकों, मैं इधर ही आ रहा हूँ, कृपया अपनी नजरें घुमा लें“ ये लोग अपने बच्चों के सुन्दर और सार्थक नाम भी नहीं रख सकते थे. नाम ऐसे होते थे जिनसे दासता और हीनता का बोध होता हो. ऐसे किसी भी सामाजिक नियम का उल्लंघन करने पर मौत की सजा निर्धारित थी. भले ही उल्लंघन गलती से हो गया हो. इन सारे अत्याचारों के बीच एक शख्स ने ऐसा चमत्कार कर दिखाया था, जिसने पूरे समाज को ही बदल दिया. इस स्थिति के खिलाफ संघर्ष करने वाले शोषितों को इस गुलामी से बाहर निकालने वाले महापुरुष का नाम था नारायण गुरू. उनका जन्म केरल में 26 अगस्त 1856 को हुआ था. जिन्होंने अपने दृढ़निश्चय से समाज की सूरत बदलकर मनुवादियों की धज्जियाँ उड़ा दीं.

नारायण गुरु जैसे महान युगपुरुष को देश के कई हिस्सों के लोगों द्वारा ज्यादा नहीं जान पाना दुर्भाग्यपूर्ण है. नारायण गुरु का जन्म एक साधारण परिवार में हुआ था. समाज की दशा को देखकर उन्हें बहुत दुख हुआ. केरल में नैयर नदीं के किनारे एक जगह है अरुविप्पुरम, तब यहाँ घना जंगल था, नारायण गुरु यहीं एकांतवास में आकर रहने लगे. उसी दौरान गुरुजी को एक मंदिर बनाने का विचार आया. नारायण गुरु एक ऐसा मंदिर बनाना चाहते थे जिसमें किसी किस्म का कोई भेदभाव न हो. जाति, धर्म, मर्द और औरत का कोई बंधन न हो. अरुविप्पुरम में उन्होंने एक मंदिर बनाकर एक इतिहास रचा. अरुविप्पुरम का मंदिर इस देश का शायद पहला मंदिर है, जहाँ बिना किसी जातिभेद के कोई भी पूजा कर सकता था. नारायण गुरु के इस क्रांतिकारी कदम से उस समय जाति के बंधनों में जकड़े समाज में हंगामा खड़ा हो गया. वहाँ के ब्राह्माणों ने इसे महापाप करार दिया था. दरअसल, वह एक ऐसे धर्म की खोज में थे जहाँ समाज का हर आदमी एक-दूसरे से जुड़ाव महसूस कर सके. वह एक ऐसे ‘बुद्ध’ की खोज में थे जो सभी मनुष्यों को समान दृष्टि से देखे. वह ढ़ोगी समाज द्वारा निम्न ठहरा दी गई जाति के लोगों को स्वाभिमान से जीते देखना चाहते थे. लोगों ने शिकायत की कि उनके बच्चों को स्कूलों में नहीं जाने दिया जाता है. उन्होंने कहा कि अपने बच्चों के लिए स्कूल स्वयं बना लो और इतनी अच्छी तरह चलाओ कि वे भी तुम्हारे स्कूलों में अपने बच्चों को भेजने को इच्छुक हो जाएं. लोगों ने कहा कि उन्हें मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया जाता, उन्होंने कहा कि न तो जबरदस्ती प्रवेश करने की जरूरत है और न प्रवेश की अनुमति के लिए गिड़गिड़ाने की.

रवीन्द्रनाथ टैगोर ने उनसे मिलने के बाद कहा था ‘मैंने लगभग पूरी दुनिया का भ्रमण किया है और मुझे अनेक संतों और महर्षियों से मिलने का सौभाग्य मिला है. लेकिन, मैं खुलकर स्वीकार करता हूँ कि मुझे आज तक ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं मिला जिसकी आध्यात्मिक उपलब्धियाँ नारायण गुरु से अधिक हों, बल्कि बराबर भी हो’ उनके कार्यों की सफलता से प्रभावित होकर मिस्टर गाँधी उनसे मिलकर बातचीत करने को बहुत इच्छुक हुए और उन्होंने पूछा कि क्या गुरुजी अंग्रेजी जानते हैं? गुरुजी ने पलटकर पूछा कि क्या गांधीजी संस्कृत में बातचीत करेंगे? उन्होंने हमेशा अपने अनुयायियों को शिक्षा के माध्यम से जानकार और जागरूक बनने, संगठित होकर मजबूत बनने और कठिन परिश्रम से समृद्धि प्राप्त करने की शिक्षा दी. ब्राह्मणवाद के विरुद्ध लड़ते-लड़ते लगभग 72 वर्ष की आयु में उनका परिनिर्वाण 20 सितंबर 1928 को हो गया. उनके सम्मान में भारत सरकार ने 21 अगस्त 1967 को 15 पैसे व श्रीलंका सरकार ने 04 सितंबर 2009 को 05 रुपये के डाक टिकट जारी किये. उनके 91वें स्मृति दिन पर दैनिक मूलनिवासी नायक परिवार की ओर से सादर आदरांजलि! 

बुधवार, 18 सितंबर 2019

सुनो गौर से भारत वालों....! इसराईल में ईवीएम के बजाय बैलेट पेपर पर हुआ चुनाव


भारत में जहाँ इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) का उपयोग बड़े पैमाने पर हो रहा है, तो वहीं इजराइल, यूक्रेन, इंडोनेशिया, जापान, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैण्ड, इटली, नीदरलैंड, आयरलैंड, ब्रिटेन  और अमेरिका जैसे दुनिया के विकसित देश आज भी ईवीएम के बजाय बैलेट पेपर से चुनाव कराते हैं. जबकि, उपरोक्त देशों में जापान, अमेरिका सहित कुछ देशों ने ईवीएम का आविष्कार किया है. इसके बाद भी ईवीएम से चुनाव नहीं कराते हैं. उन देशों का मानना है कि ईवीएम से निष्पक्ष, पारदर्शी और स्वतंत्र रूप से चुनाव नहीं हो सकता है.

गौरतलब है कि 17 सितंबर 2019 को इसराईल के नागरिकों ने देश में पाँच महीने में दूसरी बार हुए आम चुनाव में मंगलवार को बैलेट पेपर पर वोट डाले. इस चुनाव को मौजूदा प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के नेतृत्व पर एक जनमत संग्रह के तौर पर देखा जा रहा है. मंगलवार सुबह सात बजे बैलेट पेपर से मतदान शुरू हुआ. जबकि, इसी साल अप्रैल में चुनाव हुआ था. लेकिन, 120 सदस्यीय संसद में 61 सदस्यों का गठबंधन बनाने में नेतन्याहू (69) के नाकाम रहने के चलते मध्यावधि चुनाव की फिर जरूरत पड़ गयी. इसलिए पाँच महीनें में यह दूसरी बार चुनाव हो रहा है. इसराईली चुनाव की सबसे खास बात यह है कि यहाँ बैलेट पेपर से चुनाव होता है. इसराईली सरकार को ईवीएम पर रत्तीभर भी भरोषा नहीं है. इसराईल के प्रधानमंत्री नौ सितंबर को एकदिवसीय भारत दौरे पर आने वाले थे, लेकिन चुनावों में व्यस्तता के कारण उन्हें यह दौरा रद्द करना पड़ा. इससे पहले अप्रैल में हुए चुनावों के कारण भी अपना भारतीय दौरा रद्द करना पड़ा था.

बता दें कि 2017 में जापान में भी चुनाव बैलेट पेपर से संपन्न हुआ था. यही नहीं 30 मार्च 2019 को यूक्रेन में भी चुनाव बैलेट पेपर से संपन्न हुआ है. दिलचस्प बात तो यह है कि जापान में मतदाताओं को दो बार वोट डालने का अधिकार है. एक वोट चुनाव क्षेत्र के उम्मीदवार के लिए और दूसरा वोट पार्टी के लिए. जापान का संविधान वयस्क मताधिकार और गुप्त मतदान का अधिकार देता है. साथ ही वह निर्धारित करता है कि चुनाव कानून, नस्ल, जाति, लिंग, सामाजिक स्थिति, पारिवारिक मूल, शिक्षा, जायदाद या आय से भेदभाव नहीं कर सकता.

अगर भारत की बात करें तो भारत में ईवीएम में घोटाला होने के बाद भी बैलेट पेपर से चुनाव नहीं किया जा रहा है. जबकि बीते फरवरी 2019 को इंडोनेशिया में राष्ट्रपति का चुनाव संपन्न हुआ. जिसमें ईवीएम की जगह बैलेट पेपर का इस्तेमाल किया गया है. इंडोनेशिया में ईवीएम पर लंबे समय से बहस जारी थी, जिसके बाद सभी दलों में राजनीतिक सहमति नहीं बन सकी और वापस बैलेट पेपर पर लौटना तय हुआ. इंडोनेशिया दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा लोकतंत्र है, जहाँ अमेरिका की तरह ही राष्ट्रपति सिस्टम लागू है.

सबसे ज्यदा चौंकाने वाली बात तो यह है कि इंडोनेशियाई में 8,00,000 मतदान केंद्रों पर 19 करोड़ से अधिक मतदाताओं को वोट देना होता है. इससे भी ज्यादा हैरान करने वाली बात यह भी है कि 19 करोड़ से ज्यादा मतदाता बैलेट पेपर पर मतदान करते हैं. लेकिन, वहीं भारत में चुनाव आयोग द्वारा कहा जा रहा है कि बैलेट पेपर से चुनाव कराने में देरी होगी. अब सवाल यह है कि क्या इंडोनेशिया में देर नहीं हो रहा है? दूसरा सवाल यह है कि चुनाव आयोग का काम निष्पक्ष, पारदर्शी और स्वतंत्र रूप से चुनाव कराने का काम दिया गया है या चुनाव जल्दी कराने का काम दिया गया है?

सोमवार, 16 सितंबर 2019

पहले इस्तेमाल करें, फिर विश्वास करें : सरकार


‘‘गोबर-गोमूत्र से बनी दवाओं का इस्तेमाल करें, फिर बुद्धिमान बच्चों को जन्म दें महिलाएं’’
मोदी सरकार द्वारा गठित आयोग ने एक अजीबो गरीब दावा किया है. आयोग का दावा है कि गोमूत्र और गोबर से तैयार दवाओं का इस्तेमाल कर महिलाएं बुद्धिमान बच्चों को जन्म देंगी. वैसे अब तक जितने भी अजीबो गरीब दावे या अजीबो गरीब हरकतों से भरी घटनाएं हुई हैं, वे मोदी सरकार में ही संभव हो पाया है. खासकर गाय, गोबर, गोमूत्र और धर्म, चमत्कार, पाखंडवाद, अंधविश्वास को लेकर. कभी बताया जाता है कि गाय के गोबर और गोमूत्र से कैंसर ठीक हो जाता है तो कभी गाय के पीठ पर हाथ फेरने से हार्टअटैक. हद तो तब हो गयी जब सरकार द्वारा गठित आयोग ने दावा कर दिया कि गोबर-गोमूत्र से तैयार दवाएं इस्तेमाल करने से महिलाएं बुद्विमान बच्चों को जन्म देंगी. इस दावे पर हंसी आती है और गुस्सा भी आता है कि सरकार के इस बचकाने दावे को क्या कहा जाय? इन लोगों ने तो विज्ञान को भी पीछे छोड़ दिया है. मिशन चन्द्रयान-2 के फेल हो जाने पर सोशल मीडिया पर कई तरह के पोस्ट आने लगे थे. एक ने तो पूरे दावे के साथ लिखा था कि ‘‘अगर चन्द्रमा पर गोबर का लेप किया गया होता तो मिशन चन्द्रयान फेल नहीं होता’’ इस हिसाब से तो पोस्ट करने वाले का दावा सत्य हो सकता है? क्या इस दावे को सत्य मान लिया जाय? अगर यही बात है तो सरकार द्वारा गठित आयोग को मिशन चन्द्रयान के लिए गोबर-गोमूत्र से किसी ऐसे उपकरण का निर्माण करना चाहिए जिससे मिशन कामयाब हो सके.
सरकार ने गाय की सुरक्षा के लिए न केवल भारी भरकम बजट पेश किया है, बल्कि कानून भी बना दिया है. लेकिन, गाय के नाम पर मौत के घाट उतारे जा रहे लाखों लोगों के लिए आज तक कोई कानून नहीं बनाया है. यूपी की योगी सरकार ने तो खुले शब्दों में कह दिया था कि ‘‘हमारी सरकार सिर्फ गाय की रक्षा और सुरक्षा के लिए संकल्पबद्ध है’’ उस वक्त इस बयान पर योगी सरकार की जमकर किरकिरी हुई थी. लोग नारा देने लगे थे कि ‘‘योगी तेरे राज में बहन, बेटियाँ न माँएं, सिर्फ गायें सुरक्षित हैं’’ यह कहने में जरा भी संकोच नहीं है कि यह नारा काफी हद तक साबित भी हुआ है. यूपी ही नहीं, पूरे देश में महिलाओं के प्रति अपराध में बेतहासा बढ़ोत्तरी हुई है. एक रिपोर्ट के अनुसार भारत ही भारत की महिलाओं के लिए सबसे ज्यादा खतरनाक देश बन गया है, जहाँ हर 15 मिनट पर एक महिला के साथ बलात्कार होता है. हर 22 मिनट पर एक महिला के साथ सामुहिक बलात्कार होता है और हर 35 मिनट पर एक बच्ची को हवस का शिकार बनाया जाता है.

मोदी सरकार ने अपने कार्यकाल में जितना महत्व गाय को दिया है. अगर, शायद उतना महत्व देश और इंसान पर दिया होता तो आज न तो देश में बेरोजगारी, गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा, हत्या, बलात्कार, अपहरण, आतंकवाद, मॉब लिंचिंग, दंगा-फसाद होता और न ही गाय के नाम पर लाखों लोगों को मौत के घाट उतारा जाता. बल्कि देश के विकास में काफी हद तक सुधार हो गया होता. लेकिन, सरकार पर जनता का जोर चलने वाला नहीं है. क्योंकि, सरकार को जनता ने नहीं ईवीएम मशीन ने चुना है. यही कारण है कि सरकार को जनता से ज्यादा ईवीएम मशीन की चिंता है और फालतू काम करने की सनक सवार है. लगे हाथ एक और बात बता दें कि कभी बीजेपी की चुनावी नैय्या यही गाय, गंगा, गीता पार लगाती थीं बशर्ते आज ईवीएम लगा रही है.

आपको बताते चलें कि मोदी सरकार ने इसी साल फरवरी में गोवंश के संरक्षण और संवर्द्धन के लिए ‘राष्ट्रीय कामधेनु आयोग’ के गठन के प्रस्ताव को मंजूरी दी थी. यह आयोग आयुष मंत्रालय के साथ मिलकर पंचगव्य दवाएं तैयार करने पर काम कर रहा है. ये पंचगव्य दवाएं गोमूत्र और गोबर आदि से तैयार किए जा रहे हैं. आयोग का दावा है कि अगर गर्भवती महिलाएं इन दवाओं का नियमित इस्तेमाल करेंगी तो वे ‘बेहद बुद्धिमान और स्वस्थ बच्चों’ को जन्म दे पाएंगी. राष्ट्रीय कामधेनु आयोग के चेयरमैन वल्लभभाई कथीरिया ने अंग्रेजी वेबसाइट द प्रिंट से बातचीत में कहा कि शास्त्र और आयुर्वेद में भी पंचगव्य औषधि का जिक्र है, जो गाय से मिलने वाली पाँच चीजों का मिश्रण है. उन्होंने कहा, शास्त्रों और आयुर्वेद में लिखा है कि अगर गर्भवती स्त्रियाँ इन दवाओं का सेवन करती हैं तो वे बेहद बुद्धिमान और स्वस्थ बच्चों को जन्म दे सकती हैं. कथीरिया ने बताया कि आयुष मंत्रालय के अलावा हालिया गठित पशुपालन मंत्रालय की ओर से सूक्ष्म लघु और मध्यम उद्योग मंत्रालय से मदद मांगी जाएगी. एक बार बड़े पैमाने पर दवाओं का उत्पादन शुरू होने के बाद वे गांवों में वैद्यों की नियुक्ति करेंगे, जो गर्भवती महिलाओं को ये दवाएं इस्तेमाल करने के लिए कहेंगे. आयोग के चेयरमैन ने बताया कि उनकी जिम्मेदारी देसी गायों की नस्लों के विकास और उनके संरक्षण की भी है. इसके लिए 22 देसी नस्लों का चयन किया जा चुका है.

बता दें कि 15 अगस्त के दिन जैसे ही पीएम मोदी ने विस्फोटक जनसंख्या पर चर्चा किया, वैसे ही एक बार फिर जनसंख्या वृद्धि को लेकर मुसलमानों पर हमला शुरू हो गया कि मुसलमान की बढ़ती संख्या देश के लिए खतरनाक है. हालांकि, पहले भी समय-समय पर हिन्दुवादी नेताओं द्वारा बयानबाजी और आंकड़ेबाजी शुरू हुई है. कोई कहता था कि हिन्दुओं को पाँच-पाँच बच्चे पैदा करना चाहिए तो कोई कहता हिन्दुओं को दस-दस बच्चे पैदा करना चाहिए. हिन्दुवादी नेताओं द्वारा तो यह भी कहा जाता रहा है कि जितनी तेजी से मुसलमानों की संख्या बढ़ रही है उतनी ही तेजी से हिन्दुओं की संख्या कम हो रही है. यही नहीं यह भी दावा किया जा चुका है कि जिस तरह से देश में मुसलमानों की जनसंख्या बढ़ रही है उस तरह से आने वाले कुछ ही सालों में देश पर केवल मुसलमानों का ही कब्जा हो जायेगा. इस बात को ध्यान में रखते हुए हमें लगता है कि इन दवाओं की सबसे ज्यादा जरूरत उन हिन्दुवादी नेताओं के लिए है जो मुस्लिमों की बढ़ती आबादी और हिन्दुओं की घटती जनसंख्या से चिंतित होकर हिन्दुओं को पाँच से दस बच्चे पैदा करने की सलाह देते हैं. सरकारी आयोग ने जिस हिसाब से दावा किया है उस हिसाब से हिन्दुवादी नताओं को इन दवाओं का इस्तेमाल करके बुद्धिमान बच्चों को जन्म देने के साथ-साथ हिन्दुओं की जनसंख्या में वृद्धि करनी चाहिए.
राजकुमार
सामाजिक कार्यकर्ता
चन्दौली (उत्तर प्रदेश)

मूलनिवासी बहुजनों का साझा आंदोलन




पिछड़े वर्ग के महापुरुषों द्वारा शुरू की गयी साझी लड़ाई को केवल अनुसूचित जाति की लड़ाई समझना पिछड़े वर्ग के समस्याओं का मूल कारण है. पिछड़े वर्ग को यह लगता है कि ब्राह्मण के विरोध की लड़ाई अनुसूचित जाति की लड़ाई है. इस सोच ने पिछड़े वर्ग का सबसे ज्यादा नुकसान किया है. क्योंकि, पिछड़े वर्ग को अपने महापुरुषों के वास्तविक इतिहास को दूर रखा गया है और हमारे पुरखों के साहित्य को षड्यंत्र पूर्वक दलित साहित्य, और हमारे पूर्वजों को दलितों का महापुरुष घोषित किया गया है. जबकि, दलित शब्द असंवैधानिक शब्द है. सुप्रीम कोर्ट का आदेश है कि किसी भी सरकारी, अर्धसरकारी या गैरसरकारी क्षेत्रों में बोलचाल और लिखित रूप में ‘दलित शब्द’ का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है. इसके बाद भी लोग दलित शब्द का प्रयोग कर रहे हैं.

जबकि, हम बहुजन मूलनिवासी की बात करते हैं तो पिछड़े वर्ग को यह लगता है कि यह तो अनुसूचित जातियों की लड़ाई है. लेकिन, जब हम इतिहास का अध्यन करते हैं तो पता चलता है कि प्राचीन भारत में ब्राह्मणवाद के विरोध में सबसे बड़ी लड़ाई पिछड़े वर्ग के महामानव तथागत बुद्ध ने लड़ी और बहुजन संकल्पना दिया और इसी की वजह से मौर्य साम्राज्य स्थापित हुआ. यही नहीं, आधुनिक भारत में इस लड़ाई को राष्ट्रपिता ज्योतिराव फुले ने बढ़ाया. राष्ट्रपिता जोतिराव फुले भी पिछड़े वर्ग से थे. राष्ट्रपिता ज्योतिराव फुले ने किया मूलनिवासी संकल्पना दिया. क्योंकि वे कहते थे कि भारत में रहने वाले एससी, एसटी, ओबीसी, एनटी, डीएनटी, बीजेएनटी और इन लोगों से धर्म परिवर्तित करने वाले मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन और लिंगायत मूलनिवासी है. जबकि, ब्राह्मणों को विदेशी कहते थे. उन्होंने लिखा है आर्य इरानी है.

राष्ट्रपिता ज्योतिराव फुले ने जो बात कही उसे छत्रपति शाहूजी महाराज ने अपने राज्य में लागू किया. जबकि, छत्रपति शाहूजी महाराज भी ओबीसी थे. डॉ.बाबासाहब अम्बेडकर ने लिखा है कि प्राचीन भारत में ब्राह्मणवाद को समाप्त करने का कार्य तथागत बुद्ध और सम्राट अशोक ने किया, मध्यकालीन भारत में संत तुकाराम, छत्रपति शिवाजी महाराज, गुरु गोविंद सिंह, संत रविदास, संत कबीर सहित तमाम संत, महापुरुषों ने इसके विरोध में लड़ाई लड़ी. आधुनिक भारत में राष्ट्रपिता ज्योतिराव फुले ने फुले और छत्रपति शाहू महाराज की लड़ाई की वजह से डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर ने ब्राह्मणवाद को समाप्त कर भारतीय संविधान लागू किया. इसी आन्दोलन को पेरियार रामास्वामी नायकर, संत गाडगे महाराज, डा.रामस्वरूप वर्मा, कर्पूरी ठाकुर, जगदेव बाबू कुशवाहा, पेरियार ललई सिंह यादव और मान्यवर काशीराम आगे बढ़ाया. यानी हमारे सभी संत, महापुरूष अगल-अलग जाति के होकर भी किसी विशेष जाति के लिए लड़ाई नहीं लड़ी, बल्कि बहुजनों के लिए लड़ाई लड़ी. इसलिए यह लड़ाई केवल अनुसूचित जाति की लड़ाई नहीं है, यह लड़ाई ओबीसी के महापुरुषों द्वारा शुरू की गयी मूलनिवासी बहुजनों की साझी लड़ाई है.

हमारे महापुरुषों ने ब्राह्मणवादी व्यवस्था के विरोध में मिल-जुलकर साझी लड़ाई लड़ी. जब राष्ट्रपिता ज्योतिराव फुले को जरूरत पड़ी तो फातिमा शेख, उस्मान सेख ने ज्योतिबा फुले को मदद किया. जब डॉ.बाबासाहब अम्बेडकर की जरूरत पड़ी तो छत्रपति शाहू महाराज ने मदद की और गोलमेज सम्मेलन में मुसलमानों ने बाबासाहेब का साथ दिया और संविधान सभा में भेजने का कार्य किया. जब डॉ.बाबासाहब अम्बेडकर को संविधान लिखने का मौका मिला तो डॉ. बाबसाहब अम्बेडकर ने एससी, एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यकों के लिए हक अधिकार दिया. लेकिन, आज ओबीसी के लोग यह समझ रहे हैं कि यह लड़ाई एससी, एसटी की लड़ाई है. यह लड़ाई एससी, एसटी की लड़ाई नहीं है. यह लड़ाई मूलनिवसी बहुजन समाज की लड़ाई है. लेकिन, हम सभी इस साझी लड़ाई को भूलकर ब्राह्मणों द्वारा लगाये गये आपसी झगड़े में फंस गये हैं, जिसकी वजह से हम मूलनिवासियों की समस्याएं बढ़ गयी है  और लोकतंत्र पर ब्राह्मणों का अनियंत्रित कब्जा हो गया है. इसलिए हमें मूलनिवासी बहुजन की इस साझी लड़ाई को एक साथ मिलकर लड़नी होगी और अपने अधिकार को हाशिल करनी होगी.

हमें आवाज बुलंद करनी होगी!




आप सभी जानते हैं कि देश की आजादी के लगभग 72 वर्ष हो चुके है. आजादी के आंदोलन में पिछड़े वर्ग के लोगों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया, बहुत सारे पिछड़े वर्ग के लोग जेल गये. फाँसी पर चढ़ गये, गोलियाँ खाई जिसकी वजह से 15 अगस्त 1947 को देश अंग्रेजो से आजाद हुआ. हमारे समस्त महापुरूषों ने अग्रेंजो को भगाने के लिए जेल गये, फाँसी पर चढ़े, गोलियाँ खाई. उन्होने सोचा था, देश की आजादी के बाद उनकी आने वाली नस्लें आजाद रहेंगी. लेकिन, आजादी के 72 वर्षो के बाद भी, देश में पिछड़े वर्ग के लोगों के हालात खराब हैं. इसका एक ही कारण है कि आज तक हमने जाति, धर्म, क्षेत्र के आधार पर वोट किया. जिसकी वजह से आज तक हमारा सत्यानाश हो रहा है. देश में हर 5 साल में लोकसभा एवं विधान सभा के चुनाव होते हैं और हर बार हम वोट देते हैं. हमारे वोटों से हर पांच साल बाद सरकारें आती हैं. यानी सत्ता बदलती है, सरकारें बदलती हैं, मगर हमारी समस्याएं जस की तस रहती हैं. एक मौलिक बात यह है कि हम वोट क्यों देते हैं? इसका सीधा जवाब है अपनी समस्याओं का समधान करने के लिए. लेकिन, क्या कभी सोचा है कि हमने जिसको वोट दिया क्या वह हमारी समस्याओं का समाधान कर रहा है? नहीं कर रहा है, बल्कि हमारे वोट से चुनकर जाने वाले हमारी समस्याओं को और ज्यादा भयावह बना रह हैं.


दूसरी बात, देश की आजादी के पहले गुलाम भारत में अंग्रेज हमारी गिनती कराते थे. लेकिन, जवाहर लाल नेहरू ने जाति आधारित गिनती रोकने का काम किया. केन्द्र में अटल बिहारी की सरकार ने भी पिछड़े वर्ग की जनगणना नही किया और 2014 में पिछड़े वर्ग के नाम पर वोट लेकर प्रधानमंत्री बने नरेन्द्र मोदी ने जानवरों की गिनती का आदेश दिया. लेकिन, पिछड़ों की गिनती का आदेश नहीं दिया बल्कि पिछड़े वर्ग के साथ धोखेबाजी करने का कार्य किया. इसी तरह से सपा और बसपा ने उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने के बावजूद पिछड़ों की गिनती के लिए प्रस्ताव तक पारित नही किया. एससी, एसटी को 1932 में संख्या के अनुपात में आरक्षण मिल गया था. जो अधिकार एससी, एसटी को 1932 में मिल गया था वह अधिकार लेने के लिए पिछड़े वर्ग को 60 साल तक इंतजार करना पड़ा. बहुत लम्बी लड़ाई के बाद 1992 में ओबीसी को मण्डल कमीशन लागू किया गया. मण्डल कमीशन में ओबीसी के साथ धोखेबाजी हुई. जब एससी, एसटी को संख्या के आधार पर आरक्षण है तो ओबीसी को क्यों नही? 26 साल से ओबीसी को यह कहा जा रहा है कि 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण नही हो सकता. इसलिए 52 प्रतिशत ओबीसी को 52 प्रतिशत आरक्षण लागू किया जाय. लेकिन, सवर्णों को संविधान के विरोध में जाकर आरक्षण 48 घंटे के अन्दर दे दिया गया, जिसका समर्थन सपा-बसपा ने किया. यह पिछडे वर्ग के साथ धोखेबाजी है.

16 नवम्बर 1992 को सुप्रीम कोर्ट ने ओबीसी पर क्रीमीलेयर लगाया, जिसकी वजह से ओबीसी के लोग जो कि अपने बच्चों को महंगी शिक्षा देने में सक्षम है. उन्हे क्रीमीलेयर के नाम पर बाहर किया जा रहा है और जो सक्षम नही हैं वे स्वतः ही बाहर हो जा रहे हैं. इसका अनुमाना इसी से लगाया जा सकता है कि क्रीमीलेयर के नाम पर मोदी सरकार ने 314 आईएएस की नियुक्ति पर रोक लगा दिया. लेकिन सपा-बसपा ने इसके विरोध में को स्टैण्ड नही लिया. इसके अलावा उत्तर प्रदेश में बसपा सरकार ने पूरी संवैधानिक प्रक्रिया किये बगैर प्रमोशन में आरक्षण लागू किया था. जिसकी वजह से कोर्ट ने एससी, एसटी का प्रमोशन में आरक्षण खारिज कर दिया. मायावती ने ओबीसी को प्रमोशन में आरक्षण नही दिया. बाद में अखिलेश यादव को मायावती की गलतियों को सुधार कर एससी, एसटी के साथ-साथ ओबीसी को प्रमोशन में आरक्षण देना चाहिए. मगर, उन्होने एससी, एसटी का प्रमोशन में आरक्षण समाप्त कर दिया.

इसके साथ ही अखिलेश यादव के कार्यकाल में इलाहाबाद लोक सेवा आयोग ने त्रिस्तरीय आरक्षण व्यवस्था लागू किया था. लेकिन, तब अखिलेश यादव को यह ज्ञान नही था कि वे पिछड़े वर्ग के हैं. लेकिन, जब योगी अदित्यनाथ ने अखिलेश यादव की कुर्सी शुद्ध करायी तो अखिलेश यादव को ज्ञात हुआ कि वे पिछड़े वर्ग के है. लेकिन, यह ज्ञान होने के बावजूद भी अखिलेश यादव ने त्रिस्तरीय आरक्षण का मुद्दा अपने घोषणा पत्र में शामिल नही किया. यही नहीं ओबीसी समाज का एक बड़ा तबका किसान है. किसानों की जमीनें सेज के माध्यम से छीना जा रहा है. उनकी फसल का उचित मूल्य नही मिल रहा है. इस सम्बन्ध में स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट न तो सपा-बसपा ने लागू किया और न ही भाजपा, कांग्रेस ने. इस तरह से उपरोक्त मुद््दे पूर्व में स्थापित कोई भी राजनैतिक पार्टियाँ नही उठा रही है. इसका मतलब है कि खुद हमें आवाज बुलंद करना होगा और अपने अधिकार को हाशिल करना होगा. 

ब्राह्मणवाद के खिलाफ़ असली पेरियार

पाखंडवाद और असामनता के खिलाफ तार्किक दृष्टि देने वाले नास्तिक पेरियार ई.वी. रामासामी नायकर के 140 वें जन्म दिवस पर हार्दिक शुभेच्छाएं.



पेरियार ई.वी. रामासामी नायकर का जन्म 17 सितंबर 1879 को तमिलनाडु के ईरोड में एक सम्पन्न परिवार में हुआ था. इनके पिता वेंकतप्पा नायडू एक व्यापारी थे. उनकी माता का नाम चिन्ना थायाम्मल था. उनके एक बड़े भाई और दो बहने थीं. 

इनका पूरा नाम इरोड वेंकट नायकर रामासामी था. वे एक महान जननायक और सामाजिक कार्यकर्ता थे. इनके प्रशंसक इन्हें आदर के साथ ‘पेरियार’ संबोधित करते थे. जिसका अर्थ होता है ‘सम्मानित’ इन्होने ‘आत्म सम्मान आन्दोलन’ या ‘द्रविड़ आन्दोलन’ प्रारंभ किया था. उन्होंने जस्टिस पार्टी का गठन किया जो बाद में जाकर ‘द्रविड़ कड़गम’ हो गई. वे आजीवन रुढ़िवादी हिन्दुत्व का विरोध करते रहे. उन्होंने दक्षिण भारतीय समाज के साथ-साथ देशभर के शोषित वर्ग के लिए आजीवन कार्य किया. उन्होंने ब्राह्मणवाद और ब्राह्मणों पर करारा प्रहार किया और एक पृथक राष्ट्र ‘द्रविड़ नाडु’ की मांग की. पेरियार ई.वी.रामासामी नायकर ने तर्कवाद, आत्म सम्मान और महिला अधिकार जैसे मुद्दों पर जोर दिया और जाति प्रथा का घोर विरोध किया. उन्होंने दक्षिण भारतीय गैर-तमिल लोगों के हक़ की लड़ाई लड़ी और उत्तर भारतियों के प्रभुत्व का भी विरोध किया. यूनेस्को ने अपने उद्धरण में उन्हें ‘नए युग का पैगम्बर, दक्षिण पूर्व एशिया का सुकरात, समाज सुधार आन्दोलन के पिता, अज्ञानता, अंधविश्वास और बेकार के रीति-रिवाज़ का दुश्मन’ कहा.


सन् 1885 में उन्होंने स्थानीय प्राथमिक विद्यालय में शिक्षा के लिए दाखिला लिया पर कुछ सालों की औपचारिक शिक्षा के बाद वे अपने पिता के व्यवसाय से जुड़ गए. बचपन से ही वे रूढ़िवादिता, अंधविश्वासों और धार्मिक उपदशों में कही गयी बातों की प्रामाणिकता पर सवाल उठाते रहते थे. उन्होंने हिन्दू महाकाव्यों और पुराणों में कही गई परस्पर विरोधी बातों को बेतुका कहा और माखौल भी उड़ाया. उन्होंने सामाजिक कुप्रथाएं जैसे बाल विवाह, देवदासी प्रथा, विधवा पुनर्विवाह का विरोध और स्त्रियों और अछूतों के शोषण का खुलकर विरोध किया. उन्होने जाति व्यवस्था का भी विरोध और बहिष्कार किया. एक बार पेरियार ने एक ब्राह्मण को गिरफ्तार करवाने में न्यायालय की मदद की, उस ब्राह्मण का भाई पेरियार के पिताजी का दोस्त था. इस बात से नाराज होकर उनके पिता ने उन्हें सबके सामने पीटा और घर से निकाल दिया. इसके बाद पेरियार काशी चले गए, जहाँ से उनके जीवन में बड़ा परिवर्तन आया. 

एक दिन भूख लगने पर वे वहाँ निःशुल्क भोज मिलने वाले स्थान पर चले गए, पर वहाँ जाने के बाद उन्हें पता चला कि यह सिर्फ ब्राह्मणों के लिए है. उन्होंने फिर भी भोजन प्राप्त करने की कोशिश की पर उन्हें अपमानित किया गया और धक्के मारकर निकाल दिया गया. इसके बाद वे रुढ़िवादी हिन्दुत्व के विरोधी हो गए. इसके बाद उन्होंने किसी भी धर्म को नहीं स्वीकारा और आजीवन नास्तिक रहे.


उन्होंने इरोड के नगर निगम के अध्यक्ष के तौर पर भी कार्य किया और सामाजिक उत्थान के कार्यों को बढ़ावा दिया. उन्होंने खादी के उपयोग को बढ़ाने की दिशा में भी कार्य किया. चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की पहल पर सन 1919 में वे कांग्रेस के सदस्य बन गए. उन्होंने असहयोग आन्दोलन में भाग लिया और गिरफ्तार भी हुए. सन 1922 के तिरुपुर सत्र में वे मद्रास प्रेसीडेंसी कांग्रेस समिति के अध्यक्ष बन गए और सरकारी नौकरियों और शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण की वकालत की. सन 1925 में उन्होंने कांग्रेस पार्टी छोड़ दी. इनसे प्रभावित होकर केरल कांग्रेस नेताओं ने उनसे वैकोम आन्दोलन का नेतृत्व करने का निवेदन किया. केरल के वैकोम में अस्पृश्यता के कड़े नियम थे, जिसके अनुसार किसी भी मंदिर के आस-पास वाली सडक पर अछूतों का चलना वर्जित था, जिसके विरोध में वैकोम आंदोलन किया गया था.

पेरियार ने समाज में व्याप्त भेदभाव को खत्म करने के लिए सरकारी महकमों के अधिकारियों और सरकार दबाव बनाया. उन्होंने ‘आत्म सम्मान आन्दोलन’ शुरू किया, जिसका मुख्य लक्ष्य था गैर-ब्राह्मण द्रविड़ों को उनके सुनहरे अतीत पर अभिमान कराना. सन 1925 के बाद पेरियार ने ‘आत्म सम्मान आन्दोलन’ के प्रचार-प्रसार पर पूरा ध्यान केन्द्रित किया. आन्दोलन के प्रचार के एक तमिल साप्ताहिकी ‘कुडी अरासु’ और अंग्रेजी जर्नल ‘रिवोल्ट’ का प्रकाशन भी शुरू किया गया. उन्होंने हिंदी और उत्तर भारतीयों का भी विरोध किया था. सन 1937 में जब सी. राजगोपालाचारी मद्रास प्रेसीडेंसी के मुख्यमंत्री बने तब उन्होंने स्कूलों में हिंदी भाषा की पढ़ाई को अनिवार्य कर दिया, जिससे हिंदी विरोधी आन्दोलन उग्र हो गया. 


तमिल राष्ट्रवादी नेताओं, जस्टिस पार्टी और पेरियार ने हिंदी-विरोधी आंदोलनों का आयोजन किया जिसके फलस्वरूप सन 1938 में कई लोग गिरफ्तार किये गए. उसी साल पेरियार ने हिंदी के विरोध में ‘तमिल नाडु तमिलों के लिए’ का नारा दिया. उनका मानना था कि हिंदी लागू होने के बाद तमिल संस्कृति नष्ट हो जाएगी और तमिल समुदाय उत्तर भारतीयों के अधीन हो जायेगा. सन 1916 में एक राजनैतिक संस्था ‘साउथ इंडियन लिबरेशन एसोसिएशन’ की स्थापना हुई थी. इसका मुख्य उद्देश्य था ब्राह्मण समुदाय के आर्थिक और राजनैतिक शक्ति का विरोध और गैर-ब्राह्मणों का सामाजिक उत्थान करना. यह संस्था बाद में ‘जस्टिस पार्टी’ बन गयी. जनसमूह का समर्थन हासिल करने के लिए गैर-ब्राह्मण राजनेताओं ने गैर-ब्राह्मण जातियों में समानता की विचारधारा को प्रचारित-प्रसारित किया. सन 1937 के हिंदी-विरोध आन्दोलन में पेरियार ने ‘जस्टिस पार्टी’ की मदद ली थी. जब जस्टिस पार्टी कमजोर पड़ गई तब पेरियार ने इसका नेतृत्व संभाला और हिंदी विरोधी आन्दोलन के जरिये इसे सशक्त किया. सन 1944 में पेरियार ने जस्टिस पार्टी का नाम बदलकर ‘द्रविड़ कड़गम’ कर दिया. 

द्रविड़ कड़गम का प्रभाव शहरी लोगों और विद्यार्थियों पर था. ग्रामीण क्षेत्र भी इसके सन्देश से अछूते नहीं रहे. हिंदी-विरोध और ब्राह्मण रीति-रिवाज़ और कर्म-कांड के विरोध पर सवार होकर द्रविड़ कड़गम ने तेज़ी से पाँव जमाये. द्रविड़ कड़गम ने अनुसूचित जातियों में अश्पृश्यता के उन्मूलन के लिए संघर्ष किया और अपना ध्यान महिला-मुक्ति, महिला शिक्षा, विधवा पुनर्विवाह जैसे महत्वपूर्ण सामाजिक मुद्दों पर केन्द्रित किया. जीवन भर पेरियार सामाजिक बुराईयों और धर्म में व्याप्त पाखंडों का विरोध करते रहे, उन्होंने कभी किसी धर्म को आत्मसात नहीं किया, बल्कि तार्किकता के साथ धर्म के षड़यंत्रों का विरोध किया और लोगों को इसके लिए हमेशा जागरुक करने में लगे रहे. पेरियार रामासामी नायकर नाम का सूरज 24 दिसंबर 1973 को डूब गया. लेकिन मूलनिवासी बहुजन समाज को वे एक ऐसी दिशा दे गए, जिससे वे सदियों से बनाए गए ब्राह्मणों के जाल से निकल सकें.



सिद्धार्थ शिवा विद्यार्थी
छात्र, इलेक्ट्रिकल इंजीनियर
गोयल ग्रुप ऑफ इंस्टिट्यूट टेक्नोलॉजी एंड मैनेजमेंट, बराबंकी (लखनऊ)