शुक्रवार, 30 अगस्त 2019

हम दुनिया में इंसाफ कायम करने के लिए एकता निर्माण करना चाहते हैं : वामन मेश्राम


सोलापुर में राष्ट्रीय क्रिश्चन मोर्चा का विशाल जनसभा 
हम दुनिया में इंसाफ कायम करने के लिए एकता निर्माण करना चाहते हैं : वामन मेश्राम
राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)

हमें हथियारों की नहीं, एकता की जरूरत है. हमें एससी, एसटी, ओबीसी, मायनारिटी, क्रिश्चन, बौद्ध, जैन और लिंगायतों में एकता कायम करने की जरूर है. अगर, हमारी ताकत और आपकी ताकत मिल जाये तो सबसे बड़ी ताकत हो जायेगी. मूलनिवासी बहुजनों में एकता कायम करो, अपने अधिकार और इंसाफ के लिए लड़ो. यह बात बहुजन क्रांति मोर्चा के राष्ट्रीय संयोजक वामन मेश्राम ने 29 अगस्त 2019 को महाराष्ट्र के सोलापुर में राष्ट्रीय क्रिश्चन मोर्चा के विशाल सभा को संबोधित करते हुए कही. 

वामन मेश्राम ने संबोधन में कहा कि 26 जनवरी 1950 को संविधान लागू हुआ. संविधान लागू होते ही सभी वर्ग, समूह और धर्म के लोगों को बराबरी का अधिकार मिला. लेकिन, संविधान में अधिकार होने के बाद भी हमें नहीं दिया गया. आज की तरीख में सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से क्रिश्चनों का धार्मिक संगठन है, क्या कोई सामाजिक संगठन है? क्रिश्चनों का धार्मिक संगठन है, क्या राजनीतिक संगठन है? क्रिश्चन धर्म के मानने वाले लोगों ने अपना भविष्य दूसरों के ऊपर (कांग्रेस) छोड़ दिया. आप भी अपना सामाजिक और राजनीतिक संगठन बनाकर अपने भविष्य का खुद फैसला कर सकते हैं. 

आगे वामन मेश्राम ने कहा कि जो बड़े-बड़े देशों में क्रिश्चनों की कम्यूनिटी है उनके ऊपर आप लोगों ने अपने भविष्य का फैसला करने के लिए छोड़ दिया. जबकि, आप भारत में रहते हैं और आपकी समस्या भारत में निर्माण की जा रही है. अगर मान लिया जाय कि भारत में 130 करोड़ में से 5 करोड़ यानी 3 प्रतिशत क्रिश्चन इकट्ठा हो जाते हैं तो क्या 3 प्रतिशत क्रिश्चन अपने समस्याओं का समाधान कर सकते हैं? अरे! 3 प्रतिशत क्रिश्चन लोग ग्राम पंचायत का सदस्य नहीं बन सकते हैं, समस्याओं का समाधान कैसे कर सकते हैं? 

उन्होंने कहा कि क्रिश्चन लोगों को अपने समस्याओं का समाधान करने के लिए एक काम करना होगा. वह यह है कि अगर देश में क्रिश्चन लोग मजलूम हैं तो उनको ढूंढना होगा कि देश में और कौन-कौन लोग मजलूम हैं. इस देश में एससी, एसटी, ओबीसी और इनसे धर्म परिवर्तन करने वाले मुस्लिम, सिख, बौद्ध जैन भी मजलूम हैं और आप क्रिश्चन लोग भी मजलूम हैं. इसलिए सभी मजलूमों में इत्तेहाद (एकता) कायम करना होगा. अगर आप लोग एससी, एसटी, ओबीसी और इनसे धर्म परिवर्तन करने वाले मुस्लिम, सिख, बौद्ध जैन से भाईचारा निर्माण करते हैं तो आपके समस्याओं का समाधान हो सकता है.

वामन मेश्राम की सच हुई भविष्यवाणी



6 पार्टियों की मान्यता रद कर सकता है चुनाव आयोग
ईवीएम मशीन वोट के साथ क्षेत्रिय पार्टियों को भी खत्म कर रही है: वामन मेश्राम


राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)


‘‘ईवीएम मशीन न केवल जनता के वोट देने के मौलिक अधिकार को खत्म कर रही है, बल्कि क्षेत्रिय राजनीतिक पार्टियों को भी खत्म करने का काम कर रही है. अगर, क्षेत्रिय पार्टियाँ ईवीएम के खिलाफ आंदोलन नहीं किया तो बहुत जल्द ही उनकी पार्टियाँ खत्म हो जायेंगी: वामन मेश्राम’’

आखिरकार जो बात बहुजन क्रांति मोर्चा के राष्ट्रीय संयोजक वामन मेश्राम लगातार कहते आ रहे हैं वह बात सच साबित होने लगी हैं. वामन मेश्राम ईवीएम घोटाले को लेकर कई सालों से देशभर की राज्यस्तीय राजनीतिक पार्टियों को आगाह करते आ रहे हैं कि ईवीएम न केवल जनता के वोट देने वाले मौलिक अधिकार को खत्म कर रही है, बल्कि क्षेत्रिय राजनीतिक पार्टियों को भी खत्म करने का काम कर रही है. वामन मेश्राम ने यहाँ तक कहा था कि अगर जल्द क्षेत्रिय पार्टियाँ ईवीएम के खिलाफ आंदोलन नहीं किया तो बहुत जल्द ही उनकी पार्टियाँ खत्म हो जायेंगी. आज वही बात सामने आ गयी है. 

3 राष्ट्रीय पार्टियों के बाद अब 6 राज्यों में 6 राज्य स्तरीय पार्टियों की मान्यता खतरे में आ चुकी है. इनमें अजीत सिंह की आरएलडी और अंबुमणि रामदास की पीएमके भी शामिल है. दरअसल 6 पार्टियों ने राज्यस्तरीय पार्टी होने के लिये आवश्यक 5 शर्तों में से किसी भी शर्त को पूरा नहीं किया. इस कारण आरएलडी, आरएसपी, टीआरएस (आन्ध्र प्रदेश में), मिजोरम की मिजोरम पीपुल्स काॅन्फ्रेंस, तमिलनाडु की पीएमके और नार्थ ईस्ट की पीडीए की मान्यता पर खतरा मंडराने लगा है.

चुनाव आयोग कभी भी इन पार्टियों की मान्यता रद्द कर सकता है. हालांकि, सूत्रों के हवाले से बताया गया है कि चुनाव आयोग सभी 6 पार्टियों को सुनवाई का आखिरी मौका देगी. इससे पहले चुनाव आयोग के नोटिस के जवाब में सभी पार्टियों ने आयोग से गुहार लगाई हैं की मान्यता खत्म न की जाए.

बुधवार, 28 अगस्त 2019

" मा.दीनाभाना साहब के 10वें स्मृति दिवस के अवसर में दैनिक मूलनिवासी परिवार की ओर से विनम्र अभिवादन!"

" मा.दीनाभाना साहब के 10वें  स्मृति दिवस के अवसर में दैनिक मूलनिवासी परिवार की ओर से विनम्र अभिवादन!"

अगर, बगावत का कोई दूसरा नाम है तो वह है दीनाभाना. जी हाँ मा.दीनाभाना जी वह नाम है जिन्होंने कांशीराम साहब को डाॅ.बाबासाहब अम्बेडकर के व्यक्तित्व व कृतित्व से रूबरू कराया और कांशीराम साहब के अंदर छिपी बहुजन नेतृत्व की भावना को सुसुप्तावस्था से जाग्रत कर देश को न केवल एक समर्थ बहुजन नेतृत्व दिलवाने का ऐतिहासिक कार्य किया, बल्कि कांशीराम साहब को मान्यवर भी बना दिया. आज पूरे देश में जय भीम, जय मूलनिवासी की जो आग लगी है उसमे चिंगारी लगाने का काम मा.दीनाभाना साहब ने किया है. मा.दीनाभाना साहब का जन्म 28 फरवरी 1928 को राजस्थान के सीकर जिले के बगास गांव में एक गरीब भंगी परिवार में हुआ था.


 1956 में आगरा में डाॅ.बाबासाहब द्वारा दिया गया वो भाषण सूना जिसमें डाॅ.बाबासाहब अम्बेडकर ने कहा था कि ‘‘मुझे पढ़े-लिखे लोगों ने धोखा दिया’’ यह बात सुनकर दीनाभाना साहब ज्यादा विचलित होने लगे. वही से उन्होंने संकल्प लिया कि वे बाबासाहब के उस कारवां को आगे बढ़ायेंगे, जिस कारवां को वो बड़ी ही कठिनाईयों से यहाँ तक लायें हैं. सच तो यही है कि समाज के प्रति त्याग पुरूषों के लिए एक भाषण ही काफी है. 


दीनाभाना जी ने बाबासाहब के विचार को जाने समझे और बाबासाहब के परिनिर्वाण के बाद भटकते-भटकते पूना आ गये और पूना मे गोला बारूद फैक्टरी (रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन) मे सफाई कर्मचारी के रूप मे सर्विस प्रारंभ की. मा.कांशीराम साहब रोपड़ (रूपनगर) पंजाब निवासी क्लास वन आॅफिसर थे. लेकिन, कांशीराम जी को बाबासहाब कौन हैं? यह पता नही था. उस समय अंबेडकर जयंती की छुट्टी को लेकर दीनाभाना जी ने इतना बड़ा अंदोलन किया, जिसकी वजह से दीनाभाना जी को नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया. इस बात पर कांशीराम जी नजर पड़ी तो उन्होने दीनाभाना जी से पूछा कि यह बाबासाहब कौन हैं जिनकी वजह से तेरी नौकरी चली गयी? 

दीनाभाना जी व उनके साथी विभाग में ही कार्यरत महार जाति में जन्मे नागपुर, महाराष्ट्र निवासी मा.डीके खापर्डे साहब जो बामसेफ के द्वितीय संस्थापक अध्यक्ष थे. मा. डीके खापर्डे साबह ने कांशीराम जी को बाबासाहब की ‘ऐनीहिलेशन आॅफ काॅस्ट’ नाम की पुस्तक दी जो कांशीराम साहब ने रातभर में कई बार पढ़ी और सुबह ही दीनाभाना जी के मिलने पर बोले दीना तुझे छुट्टी भी और नौकरी भी मैं दिलाऊंगा और इस देश में बाबासाहब की जयंती की छुट्टी न देने वाले की जब तक छुट्टी न कर दूं तब तक चैन से नही बैठूंगा. क्योकि, यह तेरे साथ-साथ मेरी भी बात है, तू भंगी है तो मैं भी रामदासिया चमार हूँ. कांशीराम साहब ने नौकरी छोड़ दी और बाबासाहब के मिशन को ‘बामसेफ’ संगठन बनाकर पूरे देश में फैलाया. बामसेफ के संस्थापक सदस्य मा.कांशीराम, मा.दीनाभाना और मा.डीके खापर्डे साहब थे. 


जिस समाज की गैर-राजनितिक जड़ें मजबूत नहीं होती है, उनकी राजनीति कामयाब नहीं हो सकती है. इन्ही गैर-राजनितिक जड़ों को मजबूत करने के लिए मा.दीनभाना, डीके खापर्डे और मा.कांशीराम ने एससी, एसटी, ओबीसी और मायनाॅरिटी समाज के सरकारी कर्मचारियों को एकजुट करने की रणनीति बनाई. और 1973 को दिल्ली में आने वाले पाँच सालों में इन्हें एक संघठन के साथ जोड़ने का निश्चय किया. 

इस तरह 6 दिसम्बर 1978 को नई दिल्ली में ‘‘बामसेफ’’ नाम का एक संगठन बनाया. डाॅ.बाबासाहब के आंदोलन को दुबारा खड़ा करने के लिए उन्होंने ‘‘व्यवस्था परिवर्तन’’ एक फार्मूला बनाया.जो मूलनिवासी बहुजन समाज के लाखों सरकारी कर्मचारियों की वजह से परिवर्तन लाया जा सकता है. 


इसमें उन्होंने तीन मुख्य अंग बनाये, जो थे बहुजन आधारित (मास बेस) यानी ज्यादा लोगो का संघठन दूसरा था देश व्यापी (बोर्ड बेस) यानी देश के हर कोने से सदस्य और तीसरा था कैडरों पर आधारित (कैडर बेस) पूरी तरह से तैयार और त्याग की भावना रखने वाले कैडरों को तैयार करना.


 इसके लिए एक मजबूत विचारधारा का भी निर्माण किया वो था इस देश में दो वर्ग है, एक 15 प्रतिशत आबादी वाला विदेशी मूल का आर्य जिसे वर्तमान में ब्राह्मण, क्षत्रिय और बनिया कहा जाता है और दूसरा 85 प्रतिशत आबादी वाला समाज जिसे भारत का मूलनिवासी बहुजन समाज कहा जाता है जो एससी, एसटी, ओबीसी सहित कई जातियों, समूहों और धर्मों में बंटा हुआ है. इस तरह बामसेफ ने 85 प्रतिशत मूलनिवासी बहुजन समाज की गैर-राजनितिक जड़ों को मजबूत करने में बहुत बड़ी अहम भूमिका निभा रहा है. यह सब केवल मा.दीनाभाना जी की वजह से हुआ है. 


28 अगस्त 2009 को पूना में मा.दीनाभाना जी परिनिर्वाण को प्राप्त हो गये. यदि मा.दीनाभाना साहब नहीं होते तो न तो बामसेफ होता और न ही व्यवस्था परिवर्तन हेतु अंबेडकरवादी जनान्दोलन चल रह होता.


 इस देश में जय भीम! का नारा गायब हो गया होता और आज ब्राह्मणों की नाक में दम करने वाला जय मूलनिवासी! का नारा भी नहीं होता. 

मा.दीनाभान संस्थापक सदस्य बामसेफ के 10वें स्मृति दिवस के अवसर पर सभी मूलनिवासी बहुजनों को उनसे प्रेरणा लेकर अपने दबे, कुचले, अधिकार वंचित समाज के लिए बामसेफ का साथ सहयोग करना चाहिए, ताकि देश के 85 प्रतिशत मूलनिवासी बहुजन समाज अपनी आजादी को हाशिल कर सकें.






बगावत का दूसरा नाम दीनाभाना, " मा.दीनाभाना साहब के 10वें स्मृति दिवस के अवसर में दैनिक मूलनिवासी परिवार की ओर से विनम्र अभिवादन!"


" मा.दीनाभाना साहब के 10वें  स्मृति दिवस के अवसर में दैनिक मूलनिवासी परिवार की ओर से विनम्र अभिवादन!"


अगर, बगावत का कोई दूसरा नाम है तो वह है दीनाभाना. जी हाँ मा.दीनाभाना जी वह नाम है जिन्होंने कांशीराम साहब को डाॅ.बाबासाहब अम्बेडकर के व्यक्तित्व व कृतित्व से रूबरू कराया और कांशीराम साहब के अंदर छिपी बहुजन नेतृत्व की भावना को सुसुप्तावस्था से जाग्रत कर देश को न केवल एक समर्थ बहुजन नेतृत्व दिलवाने का ऐतिहासिक कार्य किया, बल्कि कांशीराम साहब को मान्यवर भी बना दिया. आज पूरे देश में जय भीम, जय मूलनिवासी की जो आग लगी है उसमे चिंगारी लगाने का काम मा.दीनाभाना साहब ने किया है. मा.दीनाभाना साहब का जन्म 28 फरवरी 1928 को राजस्थान के सीकर जिले के बगास गांव में एक गरीब भंगी परिवार में हुआ था. यह बड़े ही जिद्दी किस्म के शख्स थे. बचपन मे उनके पिताजी सवर्णों के यहाँ दूध निकालने जाते थे. इससे उनके मन मे भी भैंस पालने की इच्छा हुई. उन्होने पिताजी से जिद्द करके एक भैस खरीदवा ली. लेकिन, जातिवाद की वजह से भैस दूसरे ही दिन बेचनी पडी. कारण? जिस सवर्ण के यहा उनके पिताजी दूध निकालने जाते थे उससे देखा नहीं गया. उनके पिताजी को बुलाकर कहा तुम छोटी जाति के लोग हमारी बराबरी करोगे? तुम भंगी लोग सुअर पालने वाले भैंस पालोगे? यह भैस अभी बेच दो. उनके पिता ने अत्यधिक दबाब के कारण भैस बेच दी. यह बात मा.दीनाभाना जी के दिल मे चुभ गयी और उन्होंने घर छोड़कर दिल्ली आ गए.

 1956 में आगरा में डाॅ.बाबासाहब द्वारा दिया गया वो भाषण सूना जिसमें डाॅ.बाबासाहब अम्बेडकर ने कहा था कि ‘‘मुझे पढ़े-लिखे लोगों ने धोखा दिया’’ यह बात सुनकर दीनाभाना साहब ज्यादा विचलित होने लगे. वही से उन्होंने संकल्प लिया कि वे बाबासाहब के उस कारवां को आगे बढ़ायेंगे, जिस कारवां को वो बड़ी ही कठिनाईयों से यहाँ तक लायें हैं. सच तो यही है कि समाज के प्रति त्याग पुरूषों के लिए एक भाषण ही काफी है. दीनाभाना जी ने बाबासाहब के विचार को जाने समझे और बाबासाहब के परिनिर्वाण के बाद भटकते-भटकते पूना आ गये और पूना मे गोला बारूद फैक्टरी (रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन) मे सफाई कर्मचारी के रूप मे सर्विस प्रारंभ की. मा.कांशीराम साहब रोपड़ (रूपनगर) पंजाब निवासी क्लास वन आॅफिसर थे. लेकिन, कांशीराम जी को बाबासहाब कौन हैं? यह पता नही था. उस समय अंबेडकर जयंती की छुट्टी को लेकर दीनाभाना जी ने इतना बड़ा अंदोलन किया, जिसकी वजह से दीनाभाना जी को नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया. इस बात पर कांशीराम जी नजर पड़ी तो उन्होने दीनाभाना जी से पूछा कि यह बाबासाहब कौन हैं जिनकी वजह से तेरी नौकरी चली गयी? दीनाभाना जी व उनके साथी विभाग में ही कार्यरत महार जाति में जन्मे नागपुर, महाराष्ट्र निवासी मा.डीके खापर्डे साहब जो बामसेफ के द्वितीय संस्थापक अध्यक्ष थे. मा. डीके खापर्डे साबह ने कांशीराम जी को बाबासाहब की ‘ऐनीहिलेशन आॅफ काॅस्ट’ नाम की पुस्तक दी जो कांशीराम साहब ने रातभर में कई बार पढ़ी और सुबह ही दीनाभाना जी के मिलने पर बोले दीना तुझे छुट्टी भी और नौकरी भी मैं दिलाऊंगा और इस देश में बाबासाहब की जयंती की छुट्टी न देने वाले की जब तक छुट्टी न कर दूं तब तक चैन से नही बैठूंगा. क्योकि, यह तेरे साथ-साथ मेरी भी बात है, तू भंगी है तो मैं भी रामदासिया चमार हूँ. कांशीराम साहब ने नौकरी छोड़ दी और बाबासाहब के मिशन को ‘बामसेफ’ संगठन बनाकर पूरे देश में फैलाया. बामसेफ के संस्थापक सदस्य मा.कांशीराम, मा.दीनाभाना और मा.डीके खापर्डे साहब थे. 

जिस समाज की गैर-राजनितिक जड़ें मजबूत नहीं होती है, उनकी राजनीति कामयाब नहीं हो सकती है. इन्ही गैर-राजनितिक जड़ों को मजबूत करने के लिए मा.दीनभाना, डीके खापर्डे और मा.कांशीराम ने एससी, एसटी, ओबीसी और मायनाॅरिटी समाज के सरकारी कर्मचारियों को एकजुट करने की रणनीति बनाई. और 1973 को दिल्ली में आने वाले पाँच सालों में इन्हें एक संघठन के साथ जोड़ने का निश्चय किया. इस तरह 6 दिसम्बर 1978 को नई दिल्ली में ‘‘बामसेफ’’ नाम का एक संगठन बनाया. डाॅ.बाबासाहब के आंदोलन को दुबारा खड़ा करने के लिए उन्होंने ‘‘व्यवस्था परिवर्तन’’ एक फार्मूला बनाया.जो मूलनिवासी बहुजन समाज के लाखों सरकारी कर्मचारियों की वजह से परिवर्तन लाया जा सकता है. इसमें उन्होंने तीन मुख्य अंग बनाये, जो थे बहुजन आधारित (मास बेस) यानी ज्यादा लोगो का संघठन दूसरा था देश व्यापी (बोर्ड बेस) यानी देश के हर कोने से सदस्य और तीसरा था कैडरों पर आधारित (कैडर बेस) पूरी तरह से तैयार और त्याग की भावना रखने वाले कैडरों को तैयार करना. इसके लिए एक मजबूत विचारधारा का भी निर्माण किया वो था इस देश में दो वर्ग है, एक 15 प्रतिशत आबादी वाला विदेशी मूल का आर्य जिसे वर्तमान में ब्राह्मण, क्षत्रिय और बनिया कहा जाता है और दूसरा 85 प्रतिशत आबादी वाला समाज जिसे भारत का मूलनिवासी बहुजन समाज कहा जाता है जो एससी, एसटी, ओबीसी सहित कई जातियों, समूहों और धर्मों में बंटा हुआ है. इस तरह बामसेफ ने 85 प्रतिशत मूलनिवासी बहुजन समाज की गैर-राजनितिक जड़ों को मजबूत करने में बहुत बड़ी अहम भूमिका निभा रहा है. यह सब केवल मा.दीनाभाना जी की वजह से हुआ है. 

28 अगस्त 2009 को पूना में मा.दीनाभाना जी परिनिर्वाण को प्राप्त हो गये. यदि मा.दीनाभाना साहब नहीं होते तो न तो बामसेफ होता और न ही व्यवस्था परिवर्तन हेतु अंबेडकरवादी जनान्दोलन चल रह होता. इस देश में जय भीम! का नारा गायब हो गया होता और आज ब्राह्मणों की नाक में दम करने वाला जय मूलनिवासी! का नारा भी नहीं होता. मा.दीनाभान संस्थापक सदस्य बामसेफ के 10वें स्मृति दिवस के अवसर पर सभी मूलनिवासी बहुजनों को उनसे प्रेरणा लेकर अपने दबे, कुचले, अधिकार वंचित समाज के लिए बामसेफ का साथ सहयोग करना चाहिए, ताकि देश के 85 प्रतिशत मूलनिवासी बहुजन समाज अपनी आजादी को हाशिल कर सकें.

शुक्रवार, 16 अगस्त 2019

तिरंगे का अपमान क्यों? वो दिन भी याद करो जब आरएसएस ने तिरंगे को पैरों तले रौंदा था...........





वो दिन भी याद करो जब आरएसएस ने 1948 में  तिरंगे को पैरों तले रौंदा था...! इतिहास इस बात का गवाह है कि बीजेपी की मातृ संगठन, आरएसएस ने कभी भी आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा नहीं लिया था. 1930 और 1940 के दशक में जब आज़ादी की लड़ाई पूरे उफान पर थी तो आरएसएस का कोई भी सदस्य उसमें शामिल नहीं हुआ. यहाँ तक की अपने आपको देशभक्ति साबित करने का ढिंढोरा पीटने वाला आरएसएस कभी भी तिरंगे को सैल्यूट तक नहीं किया. बल्कि, आरएसएस हमेशा अपने झंडे को महत्व दिया. बताते चलें कि 30 जनवरी 1948 को जब गाँधीजी की हत्या कर दी गयी तो इस तरह की खबरें आने लगी कि आरएसएस के लोग तिरंगे को पैरों से रौंद रहे थे. यह खबर उन दिनों के अखबारों में खूब छपी थी. आज़ादी में शामिल लोगों को आरएसएस की इस हरकत से बहुत तकलीफ हुई. हालांकि जवाहरलाल नेहरू ने 24 फरवरी को एक भाषण में कहा कि आरएसएस के सदस्य तिरंगे का अपमान कर रहे हैं. उन्हें मालूम होना चाहिए कि राष्ट्रीय झंडे का अपमान करके वे अपने आपको देशद्रोही साबित कर रहे हैं. नेहरू ने यह भी कहा था कि आरएसएस वालों ने आज़ादी की लड़ाई में देश की जनता की भावनाओं का साथ नहीं दिया था.



अगर इतिहास पर एक नजर दौड़ाएं तो इतिहासा बताता है कि 26 जनवरी, 1930 की शाम तत्कालीन आरएसएस सर संघचालक हेडगेवार ने आरएसएस के प्रत्येक सदस्य को लिखा, ‘‘राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की शाखाएं अपने अपने आरएसएस के स्थान पर सभी स्वयंसेवकों को सभाओं का आयोजन कर भगवे ध्वज की वंदना करें’’ इससे स्पष्ट है कि आरएसएस शुरु से ही राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे के प्रति असम्मान का भाव प्रकट रखता था. इतिहास का अवलोकन करने से स्पष्ट होता है कि आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक गोलवलकर भी राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे के प्रति दुर्भावना से ग्रस्त थे, जो उनके तीन वक्तव्यों से साफ है. 

याद होगा गोलवरक का पहला वक्तव्य, जो 14 जुलाई, 1946 को गुरु पूर्णिमा के अवसर पर नागपुर के एक सभा में कहा था कि हमारी महान संस्कृति का परिपूर्ण परिचय देने वाला प्रतीक स्वरूप हमारा भगवा ध्वज है, जो हमारे लिए परमेश्वर स्वरूप है. इसलिए इसी परम वंदनीय ध्वज को हमने अपने गुरुस्थान में रखना उचित समझा है. हमारा दृढ़ विश्वास है कि अंत में इसी ध्वज के समक्ष सारा राष्ट्र नतमस्तक होगा. क्या इससे नहीं लगता है कि तिरंगे के प्रति आरएसएस शुरु से ही दुराग्रह से ग्रस्त है. यही नहीं, इसके बाद 15 अगस्त, 1947 को देश की आजादी की घोषणा के समय दिल्ली के लाल किले से तिरंगा झंडे को फहराने की तैयारी चल रही थी, तभी आरएसएस ने अपने अंग्रेजी के मुखपत्र ऑर्गनाईजर के 14 अगस्त, 1947 के अंक में राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे की भर्त्सना करते हुए लिखा, ‘‘वे लोग जो किस्मत के दांव से सत्ता तक पहुंचे हैं, वे भले ही हमारे हाथों में तिरंगे को थमा दें. लेकिन, हिन्दुओं में न इसे कभी सम्मानित किया जा सकेगा, न अपनाया जा सकेगा. आगे लिखा यह तिरंगे में यह तीन का आंकड़ा अपने आप में अशुभ है और एक ऐसा झंडा, जिसमें तीन रंग हों, बेहद खराब मनोवैज्ञानिक असर डालेगा और देश के लिए नुकसानदेह साबित होगा.

इसके अलावा आजादी मिलने के बाद गोलवलकर ने राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे को लेकर अपने लेखपत्र ‘‘पतन ही पतन’’ में लिखा, उदाहरणस्वरूप हमारे नेताओं ने हमारे राष्ट्र के लिए नया ध्वज निर्धारित किया है. उन्होंने ऐसा क्यों किया? यह पतन की ओर बहने का एक यह सर्वविदित है कि गांधीजी की हत्या के बाद देश के गृहमंत्री, सरदार वल्लभ भाई पटेल ने आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया. प्रतिबंध माफीनामा/स्पष्टीकरण दिए जाने के बाद साल 1949 में आरएसएस से यह प्रतिबंध हटाया गया. भारत के गृहमंत्रालय द्वारा (जिसके गृहमंत्री सरदार पटेल थे) 11 जुलाई, 1949 को एक विज्ञप्ति जारी की गई. उस विज्ञप्ति के अनुसार, ‘‘आरएसएस के नेता ने आश्वासन दिया है कि आरएसएस के संविधान में भारत के संविधान और राष्ट्रध्वज के प्रति निष्ठा को और सुस्पष्ट किया जाएगा. इस हेरफेर और आरएसएस के नेता द्वारा स्पष्टीकरण को देखते हुए मनुवादी सरकार ने कहा आरएसएस को मौका दिया जाना चाहिए कि वो एक जनतांत्रिक, सांस्कृतिक, भारतीय संविधान को निष्ठा और राष्ट्रीय ध्वज को स्वीकार करने वाले व गोपनीयता को छोड़कर हिंसा से दूर रहने वाले संगठन के रूप में काम कर सके. आरएसएस अपने मुख्यालय पर कभी भी तिरंगा झंडा नहीं फहराया. अब वही आरएसएस और आरएसएस पैदा भारतीय जनता पार्टी तिरंगे पर केवल राजनीति कर रही है, बल्कि तिरंगे को पैरों तले रौंदने वाले और कभी न तिरंगा फरहराने वाले देशभक्त होने का ढ़िढोरा पीट रहे हैं. 

15 अगस्त 1947 तथाकथित आजादी



हम सब बचपन से लेकर आज तक सुनते आ रहे हैं कि 15अगस्त1947 को भारत आजाद हुआ। क्या यह सच है या कुछ और ही मामला है। आइए जानते हैं कि इसमें क्या है। 15अगस्त1947 को एक घटना घटी कि अंग्रेज भारत को छोड़कर चले गए और इसी को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जा रहा है। अगर अंग्रेज भारत छोड़कर चले गए और इसी को आजादी मान लिया गया तो इसका मतलब अंग्रेजों ने हमें गुलाम बनाया था। तो इसका एक और मतलब है जब अंग्रेज भारत में नहीं आये थे तो हम आजाद रहे होंगे ?



आप सभी को विदित है कि अंग्रेज लगभग 1600 ई0 में ईस्ट इंडिया कम्पनी के साथ भारत में आये अर्थात हम 1600 ई0 से पहले आजाद थे। पर क्या वास्तव में ऐसा था ? उस समय संविधान नहीं था शासन मनुस्मृति के अनुसार था वर्तमान में जिन्हें sc, st, obc कहते हैं उनकी हालत बद से बदतर थी शिक्षा, सुरक्षा एवं सम्पत्ति के अधिकार से वंचित थे। मरे हुए जानवरों के मांस से जीवन चलता था और तो और कमर में झाडू और गले में मटका हुआ करता था ब्राह्मण इनकी परछाई से भी दूर-दूर रहते थे। शूद्रों (obc) को कोई अधिकार नहीं था केवल ऊपर के तीन वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) की निष्काम भाव से सेवा करने का कार्य सौंप दिया था। सेवा करना कोई अधिकार नहीं है और जो अधिकार वंचित होते है उन्हें ही गुलाम कहा जाता है। अर्थात अंग्रेजों के आने से पहले हम सब ब्राह्मणों के गुलाम थे। अंग्रेजों के आने के बाद ब्राह्मण अंग्रेजों के गुलाम हो गए और हम गुलामों के गुलाम हो गए अर्थात हम दोहरे गुलाम हो गये। 

जब अंग्रेज भारत में आये तो उन्होंने देखा कि यहां पर एक खास वर्ग के लोग ही शासन, सत्ता और व्यवस्था पर काबिज हैं बाकी सब गुलामों की तरह ही जीवन जीने के लिए मजबूर कर दिए गए हैं तो उन्होंने इन सब गुलामों को एक-एक करके हक अधिकार देना शुरू कर दिया। सबके लिए शिक्षा के द्वार खोल दिए। इसीलिए राष्ट्रपिता ज्योतिराव फुले ने 01जून1873 को प्रकाशित अपनी पुस्तक "गुलामगिरी" में अंग्रेजों को देवदूत कहकर संबोधित करते हुए कहा कि जब तक अंग्रेज भारत में हैं तब तक हमारे पास ब्राह्मणों की गुलामी से आजाद होने का अवसर है और अगर हमारी आजादी से पहले ही अंग्रेज भारत छोड़कर जो चले गये तो ब्राह्मण हमें गुलाम बनाकर ही रखेगा। ज्योतिराव फुले की यह बात भारत के गुलाम मूलनिवासी लोग समझ पाते उससे पहले ही ब्राह्मणों ने समझा और अंग्रेजो के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन चलाया और अवसर पाते ही भारत का बंटवारा करके शासन प्रशासन पर कब्जा कर लिया। 

आज इस तथाकथित आजादी के 72साल बाद भी भारत के मूलनिवासी समाज की जो दशा है उसका एक मात्र कारण यह है कि अंग्रेज नाम का विदेशी भारत छोड़कर चला गया और ब्राह्मण नामक विदेशी को सत्ता मिल गयी। निःसंदेह अंग्रेज विदेशी थे उन्हें भारत छोडक़र छोड़कर जाना चाहिए था लेकिन उससे पूर्व जो 4000 साल पुराने विदेशी भारत में आये, उनका क्या ? अगर दोनों विदेशी की तुलना की जाए तो जो अच्छा विदेशी था जिसने भारत के गुलाम मूलनिवासी समाज को हक़ अधिकार दिया वो भारत छोड़कर चला गया और जिसने सदियों से इस मूलनिवासी समाज का शोषण किया, गुलाम बनाया, जानवरों से बदतर जीवन दिया वो आज भी भारत की शासन व्यवस्था, समाज व्यवस्था के शीर्ष पर काबिज है यहाँ तक कि भारत के संविधान को सरेआम अपमानित किया और जलाने का काम कर रहे हैं फिर से मनुस्मृति लागू करने की कोशिश कर रहे हैं तो इसका क्या मतलब समझा जाए। इसीलिए लोकशाहीर अण्णाभाऊ साठे जी ने लाखों लोगों के जनसमूह को संबोधित करते हुए 16अगस्त1947 को मुम्बई के आजाद मैदान में कहा था कि "यह आजादी झूठी है कि देश की जनता भूखी है।"

निश्चित रूप से इन्हें भारत के संविधान में कोई आस्था नहीं है ये सभी को समान अधिकार देने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं हो सकते। अगर आज संविधान को एक तरफ कर दिया जाए और बिना संविधान के भारत की कल्पना की जाए तो जो तस्वीर उभरती है वो बहुत बड़े संकट की तरफ़ इशारा कर रही है। ऐसे में मूलनिवासी समाज की जिम्मेदारी है कि इस देश में समता, स्वतंत्रता, बन्धुता और न्याय की स्थापना के लिए आगे आयें और लोकतंत्र और संविधान की रक्षा में अपनी भूमिका का निर्वाह करे अन्यथा ये आजादी "बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना" साबित हो कर रह जाएगी। 

बुधवार, 14 अगस्त 2019

सन् 1947 की आजादी, बहुजनों की आजादी नहीं, हमें लड़नी होगी अपनी सम्पूर्ण आजादी की जंग


राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)

हमारे मूलनिवासी बहुजन समाज को आज भी इस बात पर यकीन नहीं है कि हम आजाद नहीं है। और जिनको थोड़ा-बहुत पता भी है कि हम आजाद नहीं है वह भी बेचारे 15 अगस्त के दिन क्रीम-पाउडर लगाकर स्कूल-कालेज और संगोष्ठीयों में पहुँच जाते हैं आजादी की डींगे हांकने। और वह मंच पर जैसे ही पहुँचते हैं वैसे ही गला-फाड़कर चिल्लाने लगते हैं कि साथियों आज हमारे आजादी का दिन है, आज ही के दिन हमको विदेशी अंग्रेजों से आजादी मिली और यह आजादी हमारे बापू मोहनदास करमचन्द गांधी जी ने दिलाई। मगर जब हम उनसे यह पूछते हैं कि मान्यवर जी हमको जरा आप ये बताईये कि 15 अगस्त 1947 के दिन भारतीय संसद में उस समय ‘‘आजादी का बिल पास हुआ था या फिर ट्रांसफर ऑफ पावर’’ का बिल पास हुआ था। तो वे बेचारे भौचक्के होकर हमारा मुँह देखने लगते हैं। तो मैं कहता हूँ कि अरे भाई हमारा मुँह क्यों देख रहे हो, क्या हमारे मुँह पर ही यह लिखा हुआ है कि कौन सा बिल पारित हुआ था। 

आजादी का या ट्रांसफर ऑफ पॉवर का। तो जवाब में कहते हैं कि सुनील जी मैं आपका मुंह इसलिए नहीं देख रहा हूं कि आप के मुंह पर यह लिखा हुआ है कि कौन सा बिल पास हुआ बल्कि मैं आपका मुँह इसलिए देख रहा हूँ कि आज तक ऐसा सवाल मुझसे किसी ने पूछा ही नहीं? और ना ही मैंने यह कभी सोचा था कि आजादी के दिन कोई बिल भी पारित हुआ था। तो मैंने कहा कि मान्यवर जी आप तो बहुत पढ़े-लिखे आदमी हो, जब आपको ही नहीं पता है तो फिर हमारे अनपढ़ लोगों को कैसे पता होगा? आप तो स्कूल में एक टीचर भी हैं, जो 15 अगस्त के दिन बच्चों के सामने आजादी की भाषणबाजी करते हैं। और उन्हें गांधी से लेकर के मंगल पांडे तक का पूरा इतिहास बताते हैं। जब मैंने इतना कहा तो उनका चेहरा थोड़ा सा नीचे हो गया, और उन्होंने अपना चेहरा नीचे करके मुझसे कहा कि सुनील जी मुझे इस बात का दुख है कि मैं एक टीचर होकर भी आजादी के सच्चे इतिहास के बारे में जानकारी नहीं हैं, हमें इतना तक नहीं पता है कि आजादी का दिन हमारे आजादी का दिन था या और किसी के आजादी का दिन था। उनकी बात खत्म भी नहीं हुई कि मैंने उनको बीच में ही रोकते हुए कहा कि मान्यवर जी आपको ज्यादा कुछ कहने की जरूरत नहीं है, क्योंकि मैं जानता हूं कि हमारे लोगों को इसके बारे में बहुत कम ही पता है, वह 15 अगस्त 1947 के आंदोलन को ही अपने आजादी का आंदोलन मानते हैं। उनका मानने के पीछे कारण यह है कि देश का जो शासक वर्ग है, जो 15 अगस्त के दिन दिल्ली के लाल किले से झंडा फहराकर पूरे भारत की जनता को यह बताने की कोशिश करता है कि 15 अगस्त 1947 का दिन हमारे आजादी का दिन है, मगर यह नहीं बताता है कि 15 अगस्त 1947 का दिन आजादी का दिन नहीं है बल्कि ट्रांसफर ऑफ पॉवर का दिन है। अर्थात सत्ता हस्तांतरण वाला दिन है। सत्ता हस्तांतरण वाला दिन कैसे है? क्योंकि इसी दिन एक अंग्रेज विदेशी ने भारत की सत्ता को एक दूसरे विदेशी यूरेशियन ब्राह्मणों के हांथों में सौंपी थी। जो आज इस देश के 85 प्रतिशत मूलनिवासियों के ऊपर राज कर रहा है। 

जब तक भारत में अंग्रेज थे, तब तक वह ब्राह्मणों के साथ-साथ इस देश के मूलनिवासियों पर भी राज करते रहे, मगर जैसे ही वह भारत से गये और देश की सत्ता (पॉवर) को विदेशी यूरेशियन ब्राह्मणों के हाथ में ट्रांसफर (हस्तांतरण) किया, वैसे ही विदेशी यूरेशियन ब्राह्मणों ने इस देश के 85 प्रतिशत मूलनिवासियों को फिर से गुलाम बनाकर राज करने लगे। और मूलनिवासियों को इस बात की तनिक भी भनक नहीं होने दी कि संसद में जो 1947 के दिन अंग्रेज और कांग्रेस के बीच जो बिल पारित हुआ, वह आजादी का नहीं बल्कि ट्रांसफर ऑफ पावर का बिल था। और आप तो यह भलीभांति जानते ही हैं कि अगर किसी देश पर काबिज नया विदेशी, पहले से ही काबिज पुराने विदेशी को सत्ता का ट्रांसफर करता है तो उस देश को आजाद देश नहीं कहा जा सकता। जिस देश में वहाँ के मूलनिवासी रहते हैं। अगर अंग्रेज लोग भारत के मूलनिवासियों के हाथ में सत्ता सौंपते तो ऐसा कहा जा सकता था कि मूलनिवासियों को आजादी मिली। मगर विदेशी अंग्रेज दूसरे विदेशी यूरेशियन ब्राह्मणों के हाथ में सत्ता सौंपा तो दुनिया का कोई भी ऐसा वकील और जज यह नहीं कह सकता कि वहां के मूलनिवासियों को आजादी मिली। वह सिर्फ यही कह सकता है कि आजादी अंग्रेजों से मूलनिवासियों को नहीं बल्कि ब्राह्मणों को मिली। इसके लिए हम सबको भारत के आजादी का आंदोलन का नया इतिहास जानना और समझना होगा। क्योंकि डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर इतिहास के बारे में कहते हैं कि जो कौम अपना इतिहास नहीं जानती, वह कौम अपना भविष्य निर्माण नहीं कर सकती। 

अगर हम इतिहास से सबक नहीं सीखते हैं, तो इतिहास हमें सबक जरूर सिखाता है।’’ अर्थात हम भविष्य को उज्जवल बनाना चाहते हैं तो हमें इतिहास की जानकारी होनी चाहिए। दूसरा अगर हम इतिहास से सबक नहीं सीखते हैं, तो इतिहास तब तक चैन से नहीं बैठता है, जब तक कि हमें सबक न सीखा दे। इसलिए हमें किसी भी कीमत पर इतिहास से सबक सीखना होगा। आप सभी को यह भलीभांति पता होगा कि इस भारत पर करीब 650 सालों से मुगलों का राज था तथा मुगलों के 650 साल के राज में यूरेशियन ब्राह्मणों द्वारा मुगलों के विरोध में एक बार भी आजादी के लिए आंदोलन हुआ है, ऐसा एक भी सबूत नहीं मिलता है, तथा भारत पर करीब 150 साल तक अंग्रेजों का राज था (1818 से 1947) इसका अर्थ यह है कि, वास्तव में 129 साल तक था, लेकिन उस काल में यूरेशियन ब्राह्मणों ने अंग्रेजों के विरोध में आजादी का आंदोलन किया, ऐसा क्यों? 650 साल के मोगलों के राज में यूरेशियन ब्राह्मणां ने मुगलों के विरोध में आजादी के लिए आंदोलन नहीं किया, मगर 150  साल के अंग्रेजों के राज में यूरेशियन ब्राह्मणों ने अंग्रेजों के खिलाफ आजादी का आंदोलन चलाया क्यों? यह एक महत्वपूर्ण और रहस्य भरा सवाल है। 

यूरेशियन ब्राह्मणों ने अंग्रेजों के खिलाफ आजादी का आंदोलन क्यों चलाया? इसके तीन कारण हमने देखा। पहला यह कि 1774 में नंदकुमार देव नामक यूरेशियन ब्राह्मण को अंग्रेजों ने फांसी दी, इसलिए यूरेशियन ब्राह्मणों का पारा अपने आप चढ़ गया। दूसरा यह कि शूद्रों/अतिशूद्रों को शिक्षा देने के लिए अंग्रेजों ने 1854 में भारत में तीन विश्वविद्यालय की स्थापना की। अंग्रेजों ने ऐसा करके ब्राह्मणों की मनुस्मृति का घोर अपमान किया। जिसमें यह लिखा है कि शूद्रों/अतिशूद्र्रों अर्थात ओबीसी/एससी/एसटी को शिक्षा नहीं देना चाहिए। इनको शिक्षा देना ब्राह्मण धर्म का उल्लंघन है। तीसरी बात यह कि 1918 में अंग्रेजों ने भारत में विधि मंडल का गठन किया। क्योंकि भारत में 1918  के पहले सारे प्रजा के लिए कानून बनाने का अधिकार केवल और केवल ब्राह्मणों को ही था। सन् 1918 के बाद भारतीय दंड विधान (इंडियन पैनल कोड) आ गया। जिसके सामने ब्राह्मणों और ब्राह्मणों की मनुस्मृति की धज्जियां उड़ गई। इस वजह से मजबूरी में ब्राह्मणों ने अंग्रेजों के विरोध में आजादी का आंदोलन चलाया। और ब्राह्मण आजाद हो गये, मगर इस देश का मूलनिवासी बहुजन समाज आज भी विदेशी यूरेशियन ब्राह्मणों का गुलाम है, इसलिए हम सब को अपनी आजादी के लिए एक दूसरी आजादी की लड़ाई लड़नी होगी। और वह आजादी की लड़ाई आज की तारीख में भारत मुक्ति मोर्चा लड़ रहा है, जिसमें हम सबको साथ-सहयोग करके अपनी आजादी को हासिल करनी की जंग लड़नी होगी।

अंग्रेजों ने भारत पर 150 वर्षों तक राज किया तो ब्राह्मणों ने उनको भगाने का हथियार बन्द आन्दोलन क्यों चलाया?


राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)
यह प्रश्न शोध का विषय है, क्योंकि ब्राह्मणों द्वारा मुगलों के शासन-प्रशासन में 40 प्रतिशत की भागीदारी तथा अपने को विदेशी सिकन्दर तो अंग्रेज भी विदेशी यहां तक कि 1884 में राजाराम मोहनराय ने लन्दन में जाकर अंग्रेजों को यह बताया कि आप हमारे पिछड़े भाई बन्धू हैं पूर्व से पश्चिम आकर सुखद अनुभूति हुई। 1894 में अफीका में मेम्बर ऑफ लिजस्टलेरिब कांसिल को खुला पत्र देते हुए गांधी ने कहा कि हम और आप एक ही डाली के दो फूल हैं। डा. केशवचन्द्र सेन ने कहा कि अंग्रेज जब तक चाहे तब तक भारत में राज कर सकते हैं यह सब हमारे भाई बन्धू हैं, इन्हें मत भगाओ। आरएसएस प्रमुख डा. हेडगेवार ने भी अंग्रेजों के खिलाफ कोई बगावत नहीं की और यहां तक अंग्रेजों को सलाह दिया कि व्यस्क मताधिकार मत लागू करे, यदि लागू करना है तो केवल जमीदार एवं शिक्षित व्यक्ति को ही अधिकार दिया जाए जिसका विरोध बाबासहाब ने जमकर किया और अंग्रेजों के समय समस्त प्रमाण दिये कि मूलनिवासियों को ब्राह्मणों ने गुलाम बनाकर हमें शिक्षा, सम्पिŸा एवं अस्त्र, शस्त्र रखने से वंचित कर रखा है। इसीलिए अंग्रेजों ने कई सुधार कार्य मूलनिवासियों के लिए किया जिसका विरोध ब्राह्मणों ने किया जैसे - 
1757 में प्लासी के युद्ध में अंग्रेजों की फौज ने भारत में अंग्रेजी राज्य की स्थापना की। मनु विधान के अनुसार शूद्रों को सम्पिŸा रखने का अधिकार नहीं था। 1795 में अधिनियम 11 द्वारा शूद्रों को भी सम्पिŸा रखने का कानून बनाया।
2. 1773 में इस्ट इण्डिया कम्पनी ने रेग्यूलेटिंग एक्ट पास किया, जिसमें न्याय व्यवस्था समानता पर आधारित किया गया। 1774 में इसी कानून के तहत बंगाल के सामंत ब्राह्मण नन्द कुमार देव को हत्या एवं बलात्कार के जुर्म में फांसी हुई।
3. 1804 में अधिनियम 3 के द्वारा कन्या हत्या पर रोक अंग्रेजों ने लगाई (लड़कियों को पैदा होते ही तालू में अफीम चिपकाकर मां के स्तन पर धतूरे का लेप लगाकर एक गड्डा बनाकर दूध डालकर उसमें डूबोकर मारा जाता था)
4. 1813 में ब्रिटिश सरकार ने कानून बनाकर सभी जाति एवं धर्मों के लोगों को शिक्षा का अधिकार दिया।
5. 1813 में ब्रिटिश सरकार ने दास प्रथा समाप्त करने का कानून बनाया।
6. 1817 में समान नागरिक सहिंता बनाया गया (1817 के पहले सजा का प्रविधान वर्ग के आधार पर था। ब्राह्मणों को कोई सजा नहीं शूद्रों को कठोर दंड दिया जाता था। अंग्रेजों ने राजा का प्रविधान समाप्त कर दिया।
7. 1817 में अधिनियम 7 के तहत शूद्र क्षत्रियों के शुद्धीकरण पर रोक लगाया (शूद्रों की शादी होने पर दुल्हन को अपने घर न जाकर कम से कम तीन दिन तक ब्राह्मणों के घर शारीरिक सेवा देना पड़ता था।
8. 1830 में नरवली प्रथा पर लोक लगाया।
9. 1833 में अधिनियम 87 द्वारा सरकारी सेवा में भेदभाव पर रोक अर्थात सेवा का आधार योग्यता ही होगा, कम्पनी किसी भी भारतीय के धर्म, जाति लिंग के आधार पर पद से वंचित नहीं रखा जा सकता।
10. 1834 में पहला भारतीय विधि आयोग का गठन किया गया 
11. 1835 प्रथम पुत्र को गंगादान पर रोक लगाई (ब्राह्मणों ने नियम बनाया था कि शूद्रों के घर यदि पहला बच्चा लड़का पैदा होता है तो गंगा को दान करना होगा)।
12. 7 मार्च 1835 को लार्ड मैकाले ने शिक्षा नीति राज्य का विषय बनाया तथा शिक्षा को अंग्रेजी माध्यम बनाया। 
13. 1835 में कानून बनाकर अंग्रेजों ने शूद्रों को कुर्सी पर बैठाकर अधिकार दिया। 1829 में ही विधाओं को जलाना अवैध घोषित कर सती प्रथा का अंत किया। 
14. देवदासी प्रथा पर रोक लगाई 1921 में जाति पर आधारित जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या 4 करोड़ 23 लाख थी, जिसमें 2 लाख देवदासियाँ मन्दिरों में भरी पड़ी थी। यह प्रथा आज भी दक्षिण भारत में मन्दिरों में चल रही है। ऐसी शर्मनाक प्रथा किसी भी देश में नहीं थी न है।
15. 1837 अधिनियम द्वारा ठगी प्रथा का अंत कर दिया।
16. 1849 में कलकत्ता में एक कलकत्ता में बालिका विद्यालय जे.ई.टी वेलन स्थापित किया। 1848 में फुले जी ने स्वतंत्रता आन्दोलन चलाया (ब्राह्मणों की गुलामी से स्वतंत्रता) के लिए।
17. 1854 में अंग्रेजों ने भारत में तीन विश्वविद्यालय कलकत्ता, मद्रास एवं बाम्बे में स्थापित किया। 1902 विश्वविद्यालय आयोग की नियुक्त किया गया।
18. 6 अक्टूबर 1960 को अंग्रेजों ने इण्डिया पैनल कोड बनाया। लार्ड मौकाले ने सदियों से जकड़े शूद्रों की जंजीर को काट दिया।
19. 1865 में अंग्रेजों ने कानून बनाकर चरक पूजा पर रोक लगा दिया (आलीशान भवन एवं पुलों को बनाने पर शूद्रों को पकड़कर जिंदा चुनवा दिया जाता था, पूजा में मान्यता थी कि भवन और पुल ज्यादा दिनों तक टिकाऊ रहेगा। 
20. 1867 में बहुविवाह प्रथा पर पूरे देश में प्रतिबन्ध लगा दिया तथा बंगाल सरकार ने इस सम्बंध में एक कमेटी का गठन किया। 
21. 1871 में अंग्रेजों ने भारत में जातिवार जनगणना प्रारम्भ किया यह जनगणना 1941 तक हुई। 1941 में द्वितीय विश्व युद्ध होने के कारण जाति जनगणना का कार्य अधूरा रह गया। 1948 में नेहरू ने कानून बनाकर जातिवार गणना पर रोक लगा दिया।
22. अंग्रेजों ने महार एवं चमार रेजीमेन्ट बनाकर इन जातियों को सेना में भर्ती किया। 1892 में ब्राह्मणों के दबाव के कारण अछूतों की भर्ती अंग्रेजों ने बन्द कर दिया। 
23. 1918 में साउथबोरो कमीशन अंग्रेजों ने भारत में भेजा। यह कमेटी भारत में सभी जातियों का विधिमण्डल में भागीदारी देने के लिए आया था। शाहूजी महराज के कहने पर पिछड़ों के नेता भाष्कर राव जाधव ने एवं अछूतों के नेता डा. भीमराव अम्बेडकर ने विधिमण्डल में अपने लोगों की भागीदारी के लिए एक मेमोरण्डम दिया। तिलक ने 1919 में इतना गुस्सा हुआ और कहा कि तेली, तमोली, कुणभटों को सांसद में जाकर हल चलाना है, तेली तेल बेचेगा। मतलब शूद्रों को केवल सेवा का कार्य करना चाहिए। 
24. 1919 में अंग्रेजों ने भारत सरकार अधिनियम का गठन किया।
25. 1919 में अंग्रेजों ने ब्राह्मणों के जज बनने पर रोक लगा दिया और कहा इसके (ब्राह्मणों) के अन्दर  न्यायिक चरित्र नहीं होता है।
26. 25 दिसम्बर 1927 को डा. अम्बेडकर द्वारा ‘मनुस्मृति का दहन किया।
27. नवम्बर 1927 को अंग्रेजों ने साइमन कमीशन का गठन किया, 1928 को भारत के लोगों को अतिरिक्त अधिकार देने के लिए आया। भारत के लोगों को यह अंग्रेज अधिकार न दे सके इसलिए इस कमीशन को भारत पहुंचते ही गांधी ने कमीशन के विरोध में आन्दोलन चलाया। लाला लाजपत राय की लाठी खाने से मृत्यु हो गई।
28. साइमन की अधूरी रिपोर्ट लेकर अंग्रेज वापस चला गया एवं अंतिम फैसला लेने के लिए नवम्बर 1930 प्रथम गोलमेज सम्मेलन बुलाया।
29. 24 सितम्बर 1932 को अंग्रेजों ने कम्युनल अवार्ड घोषित किया, परन्तु गांधी के विरोध के कारण ‘‘पूना पैक्ट’’ हुआ जिसमें ओबीसी की महत्वपूर्ण भूमिका थी। यही कारण है कि 52 प्रतिशत ओबीसी कमण्डल लेकर आज तक भीख मांग रहा है।
30. 19 मार्च 1928 को बेगारी प्रथा के विरूद्ध डा. अम्बेडकर ने मुम्बई विधान परिषद में आवाज उठाई। अंग्रेजों ने इस प्रथा को समाप्त किया।
31. 1937 में अंग्रेजों ने प्रोविसिंयल गर्वमेंट का चुनाव करवाया।
32. 1942 में अंग्रेजों से बाबासाहब ने 50 हजार हेक्टेयर भूमि को अछूतों और पिछड़ों में बांट देने के लिए अपील किया, अंग्रेजों ने 20 वर्षों का समय मांगा लेकिन 1947 में अंग्रेज भारत से चले गये।
33. अंग्रेजों ने ब्राह्मणों की भागीदारी 2.5 प्रतिशत पर लाकर खड़ा कर दिया परन्तु आज 71 प्रतिशत भागीदारी सरकारी नौकरी में है।
नोटः- अंग्रेजों ने मूलनिवासियों के हक अधिकार एवं सामाजिक सुधार 1848 में राष्ट्रपिता जोतिराव फुले से काफी प्रभावित होने के बाद तेजी से शुरूआत किया, क्योंकि फुले जी एवं माता सावित्री बाई फुले ने शूद्रों-अतिशूद्रों को जागृति करने के लिए 1850 में सत्यशोधक समाज की नीव डाली 24 सितम्बर 1873 में इसकी स्थापना कर आन्दोलन को तेज कर दिया। 1882 में हंटर कमीशन के सम्मुख शूद्रों-अतिशूद्रों की भागीदारी, हिस्सेदारी सुनिश्चित करने के लिए मेमोरंडम दिया। 1902 में शाहूजी महाराज ने उसी मेमोरंडम को आधार बनाकर 50 प्रतिशत पिछड़ों को राज्य में हिस्सेदारी थी। 

आजादी के भ्रम में जी रहा है मूलनिवासी बहुजन समाज


राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)

जब तक हमारे लोगों को इस बात की जानकारी नहीं होगी कि आजादी के आंदोलन के बारे में हमारे अंदर बहुत बड़ा भ्रम है और यह भ्रम किसी और ने नहीं बल्कि इस देश के विदेशी यूरेशियन ब्राह्मणों ने पैदा कर रखी है। इसलिए हमारे अपने आजादी के आंदोलन में यह भ्रम सबसे बड़ी बाधा है? जब तक यह भ्रम हमारे अंदर से दूर नहीं होता है तब तक हम किसी भी कीमत पर अपने आजादी की लड़ाई नहीं लड़ सकते हैं। 1862 ई. में अब्राहम लिंकन ने अमेरिका में दास प्रथा समाप्त की थी। 

इसके बावजूद वहां रंग भेद की समाप्ति के लिए 100 वर्षों तक लम्बी लड़ाई लड़नी पड़ी। अब यह माना गया कि अमेरिका में गोरों और कालों के बीच की दूरी खत्म हो गई। वहां के लोगों ने अमेरिका के राष्ट्रपति अश्वेत बाराक ओबामा को बनाकर सत्ता सौंप दिया। भारत में भी 1848 ई. में राष्ट्रपिता जोतिराव फुले ने यहां के गुलाम (अनु.जाति, जनजाति/पिछड़ी जाति) की गुलामी से मुक्ति के लिए आंदोलन शुरू किया था। जिसे छत्रपति शाहूजी महाराज ने आगे बढ़ाया और डॉ. अम्बेडकर ने 1956 ई. तक चलाई। अब बामसेफ संगठन इस आजादी के आंदोलन को पूरा करने के लिए कृतसंकल्प हैं। 15 अगस्त 1947 को हमें गुलाम बनाने वाले तो अंग्रेजों से आजाद हो गये लेकिन हम उनके आज भी आधुनिक रूप से गुलाम हैं। 162 देशों की स्थिति बताने वाले ग्लोबल स्लेवरी इंडेक्स 2013 ने पाया कि भारत में 1.40 करोड़ गुलाम हैं। यह आंकड़ा केवल बंधुआ मजदूर, मानव तस्करी के आधार पर है। 

अगर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक व धार्मिक रूप से देखा जाये, तो लगभग 100 सभी मूलनिवासी गुलाम हैं। हमारे बुद्धिजीवी वर्ग अपने को आजाद समझने की भूल करते हैं। आज देश में करोड़ों मजदूर गरीब परिवार ऐसे हैं जिन्हें आजादी का असली मतलब तक नहीं मालूम। हमारे बुद्धिजीवी वर्ग को भी एहसास नहीं कि हम गुलाम हैं। डा. अम्बेडकर ने कहा था ‘‘गुलामों को गुलामी का एहसास करा दो तो वह गुलामी रूपी जंजीर तोड़ने का प्रयास अवश्य करेगा।’’ मूलनिवासी को गुलामी का एहसास न होना ही हमारी आजादी के आंदोलन की सबसे बड़ी बाधा है। जब तक हमारे मूलनिवासी बहुजन समाज को अपने गुलामी का एहसास नहीं होगा तब तक वह दुश्मनों के विरोध में क्रान्ति का आगाज नहीं कर सकता। और जब तक दुश्मनों के विरोध में क्रान्ति का आगाज नहीं कर सकता, तब तक वह शासक वर्ग की गुलामी से आजाद नहीं हो सकता है।

हम आज भी गुलाम हैं.......



राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)

मेरे मन में एक सवाल काफी दिनों से कौंध रहा था कि अगर 15 अगस्त 1947 को सारे भारतीयों को आजादी मिली है तो भारत के आजादी के 71 साल बाद भी भारत में इतनी बड़ी विषमता क्यों? असमानता, गैरबराबरी, रईस और गरीब क्यों? एक के पास घी-रोटी तो दूसरा नंगा-भूखा क्यों? एक धनवान तो दूसरा भिखारी क्यों? आज भी गाँव और देहातों के लोग ‘अंग्रेजों का ही राज ठीक था’ ऐसा क्यों कहते हैं? मुगल, अंग्रेज, डच, फ्रेंच, आदि के राज में तथा कुलबाड़ी भूषण बहुजन प्रतिपालक छत्रपति शिवाजी महाराज के राज में एक भी किसानों ने खुदखुशी की हो, ऐसा सबूत नहीं है. इसके बाद भी पूरे भारत को गेहूँ देने वाले पंजाब के किसानों ने भी खुदखुशी क्यों किया? केवल पंजाब ही नहीं पूरे देश के किसान आत्महत्या कर रहे हैं क्यों? अर्मत्य सेन कहते हैं कि जब पूरी दुनिया में उत्पादन 100 रूपये होता था तब उस वक्त भारत का अकेले उत्पादन 31 रूपये था. आज वही भारत कर्जों की तूफानी धारा में गोते खा रहा है क्यों? क्यों राजा बली के जमाने में भारत से सोने का धुँआ निकलता था और आज उसी भारत से बमबारी के धूएं निकल रहे हैं? सम्राट राजा अशोक के काल में जो भारत सोने की चिड़िया कहा जाता था, आज वही भारत भिखारी बन गया है क्यों?



बली राजा के काल में चोरी, डकैती, खून, हत्या और अन्याय- अत्याचार नहीं होते थे, इसलिए पुलिस नहीं थी. आज उसी भारत में पुलिस फोर्स और न्यायालय होकर भी चोरी, डकैती, खून-खराबा झगड़ा, बलात्कार, अन्याय-अत्याचार तथा भ्रष्टाचार होते हैं क्यों? 1947 के पहले, भारत का एक भी व्यक्ति दुनिया के अमीरों की सूची में नहीं था. मगर, 1947 के बाद दुनिया के अमीरों की सूची में पहले दस में से तीसरा भारत में से होता है, ऐसा क्यों? मूलनिवासी किसान अपनी पत्नी के लिए कपड़ा लेना चाहे तो उसे किसी से पैसे उधार लेना होता है. मगर, मुकेश अंबानी अपने बीबी के जन्मदिन पर 3500 करोड़ रूपये का हेलिकॉप्टर भेंट देता है कैसे? जिस मुकेश अंबानी का बाप धीरूभाई अंबानी खाड़ी देशों में पेट्रोल पम्प पर पेट्रोल बेचता था, वो दुनिया के अमीरों की लिस्ट में पहले दस अमीरों में से एक है और भारत का दिन-रात खून-पसीना बहाकर मेहनत करने वाला किसान, गरीब का गरीब ही क्यों है? आज मूलनिवासी बहुजन समाज के 83 करोड़ लोगों की आमदनी प्र्रति एक 6 से 20 रूपये हैं क्यों? 22 करोड़ से भी ज्यादा युवक-युवतियाँ बेरोजगारी की आग में जल हैं क्यों? 35 लाख लोग से ज्यादा भीख मांग कर जीविका चला रहे है, 15-20  करोड़ लोग आज भी झोपड़पट्टियां में अपना जीवन व्यतीत कर रहे है. करीब 35-40 करोड़ लोगां को शुद्ध पीने का पानी नसीब नहीं हो रहा है. 10 करोड़ बच्चे बाल मजदूरी कर रहे हैं, 25 लाख बच्चे रेलवे प्लेटफार्म पर अपनी जिन्दगी काट रहे है. देश में हर 15 मिनट पर एक महिला के साथ बलात्कार, हर 22 मिनट पर एक महिला के साथ सामुहिक बलात्कार और हर 35 मिनट पर एक बच्ची को हवस का शिकार बनाया जा रहा है. जिसमें सबसे ज्यादा मूलनिवासी महिला हैं. 22.5 करोड़ कुपोषित हैं. शासक वर्ग ने देश की आजादी के 71 वर्षो में हजारां साम्प्रदायिक दंगे-फसाद को अंजाम दिया. देश में हर दिन हजारों किसान आत्महत्या कर रहे हैं. एससी को छुआछूत, भेदभाव, जातिवाद के कारण उनको मौत के घाट उतारा जा रहा है. आदिवासियों को जल, जंगल और जमीन से खदेड़ा जा रहा है और नक्सलवाद के नाम उनका नरसंहार किया जा रहा है. मुसलमानों को कभी आतंवाद के नाम पर तो कभी गोमांस के नाम पर, अब मॉब लिंचिंग की आड़ में बेरहमी से उनकी हत्याएं की जा रही है. सैनिकों को जानबूझकर मौत के मुँह में धकेला जा रहा है. फिर सवाल खड़ा होता है कि हम आजाद कैसे है? 

खुदखुशी करने वालों में व्यापारी, महंत, नेता, कर्मचारी नहीं होत हैं केवल किसान-मजदूर और मेहनत करने वाले ही होते हैं क्यों? ऐसे अनके प्रश्नों से सर चकरा रहा है. बामसेफ के माध्यम से हम दूसरी आजादी का आंदोलन निर्माण करना चाहते हैं. जबकि, मूलनिवासी बहुजन समाज को ऐसा लगता है कि ‘हम 15 अगस्त 1947 को ही आजाद हो चुके हैं और दूसरे आजादी के आंदोलन की आवश्यकता क्यों? 15 अगस्त 1947 के आजादी पर अपने मूलनिवासी बहुजन समाज के लोगों का पक्का विश्वास है. यह विश्वास खत्म करने के लिए आज पूरे देश भर में बामसेफ भारत मुक्ति मोर्चा, जन-जागृति का अभियान चला रहा है. ताकि, इस देश के 85 प्रतिशत मूलनिवासी बहुजन समाज को यह असलियत पता चल सके कि 15 अगस्त 1947 के आजादी का आंदोलन हमारे आजादी का आंदोलन नहीं था, बल्कि विदेशी यूरेशियन ब्राह्मणों के आजादी का आंदोलन था. क्योंकि भारत में कोई भी आजादी का बिल पारित नहीं हुआ है. बल्कि, विदेशी अंग्रेजों ने यूरेशियन ब्राह्मणों के हाथ में ‘ट्रांसफर ऑफ पॉवर’ अर्थात सत्ता का हस्तांतरण बिल पारित किया. इसलिए ऐसा कहा जा सकता है कि 15 अगस्त 1947 का दिन आजादी का दिन नहीं है, ट्रांसफर ऑफ पॉवर का दिन है. जिसे आज तक इस देश के मूलनिवासियों से छुपाया जाता रहा है. जब तक 15 अगस्त 1947 के आजादी पर से बहुजन समाज का विश्वास खत्म नहीं होता, तब तक वह दूसरे आजादी के आंदोलन में शामिल नहीं होगा. और जब तक वह शामिल नहीं होगा, तब तक दूसरे आजादी का आंदोलन कामयाब नहीं हो सकता है. इसलिए आधुनिक भारत में मूलनिवासी बहुजन समाज को यह समझना अतिआवश्यक है कि 1947 के आजादी का आंदोलन हमारे आजादी का आंदोलन नहीं था. बल्कि, ब्राह्मणों के आजादी का आंदोलन था, जो आज की तारीख में बहुजनों पर राज कर रहे हैं. 1947 के आजादी का आंदोलन सभी लोगों के आजादी का आंदोलन था, ऐसा मैं नहीं कह रहा हूँ. क्योंकि इसके बहुत सारे साक्ष्य हैं, जिसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि आजादी का आंदोलन सभी लोगों के आजादी का आंदोलन नहीं था. मूलनिवासी बहुजन समाज के सामने आज बहुत-सी समस्याएं हैं, ये सारी समस्याएं शासक वर्ग यूरेशियन ब्राह्मणों द्वारा योजनाबद्ध तरीकों से निर्माण की गई है. इन हजारों समस्याआें में वर्ण-व्यवस्था, जाति व्यवस्था, अस्पृश्यता, आदिवासियों का अलगीकरण, धर्मांतरों की असुरक्षितता एवं महिला दासता सहित कई मुख्य समस्याएं हैं. तथा इनमें से एक महत्वपूर्ण और अधिक तीव्र समस्या गुलामी है और उसका समाधान मात्र आजादी है. इसलिए हम मूलनिवासी बहुजन समाज के लोगों को आजादी का आंदोलन का निर्माण करना होगा. 

आजादी की भयानक रात....



राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)

कहा जाता है कि 15 अगस्त 1947 को हमारा देश आजाद हो गया. परन्तु, यह भी सच है कि 14 अगस्त 1947 को देश का विभाजन भी हुआ. यानि 14 अगस्त को पाकिस्तान आजाद करने के बाद 15 अगस्त को भारत को आजादी मिली. मगर, एक बात आज तक समझ में नहीं आयी कि यह आजादी 14 अगस्त की रात 12 बजे क्यों मिली? पूरे दावे के साथ कहना चाहता हूँ कि यह बात किसी को पता नहीं होगा और किसी ने इसे जानने की कोशिश भी नहीं की होगी. जिसे जानना बहुत जरूरी है. 15 अगस्त 1947 को भारत आजाद हो गया यह बात एक-दो-तीन नही, बल्कि 71 सालों से हमें बताया जा रहा है. यही बात स्कूलां, विद्याल्यों में भी पढ़ाया जा रहा है और हम मान भी रहे हैं कि 15 अगस्त को हमारा देश आजाद हो गया. लेकिन, यह बात अच्छी तरह से जान लेने की जरूरत है कि 15 अगस्त 1947 को देश आजाद नहीं हुआ, मूलनिवासी बहुजन समाज आजाद नहीं हुआ, बल्कि यूरेशियन ब्राह्मण आजाद हुए. केवल अफवाह फैलाया गया है कि 15 अगस्त 1947 को देश आजाद हो गया. मेरा एक प्रश्न यह है कि अगर देश को आजादी मिली तो देश की आजादी चोरी-चुप्पे क्यों मिली? देश को आजादी मिली तो राज के 12 बजे क्यों मिली? 12 बजे रात को आजादी मिलना इस बात की ओर इशारा करता है कि इसमें कुछ गड़बड़ जरूर है.
बता दें कि 14 अगस्त 1947 की 12 बजे रात आजादी की रात नही थी, बल्कि सत्ता का एग्रीमेन्ट (संधि) की भयानक रात थी. उस रात में अंग्रेजों और यूरेशियन ब्राह्मणों के बीच सत्ता का हस्तानांतरण हुआ था. यानी जो सत्ता अंग्रेजों के हाथों में थी अंग्रेज वो सत्ता ब्राह्मणों के हाथों में सौंप दी. डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर ने लार्ड माउण्ट बेटन से सवाल पूछा कि ‘‘यह आजादी देश की आजादी है या देश के लोगों की आजादी है’’ इसके जवाब ने माउण्टबेन ने कहा हम देश को आजाद कर रहे हैं. देश के लोगों की आजादी नेहरू करेगें. 15 अगस्त को देश आजाद हुआ और 16 अगस्त को मुम्बई में ‘‘अण्णा भाऊ साठे’’ ने एक रैली का आयोजन किया. उस विशाल रैली में अण्णभाऊ साठे ने एक घोषणा किया कि ‘‘ये आजादी झूठी है, देश की जनता भूखी है’’ यानी यह आजादी न होने का प्रमाणिक उदाहरण है कि 15 अगस्त 1947 को आजादी नहीं मिली, बल्कि सत्ता का हस्तानान्तरण हुआ था. सत्ता हस्तानांतरण की संधि भारत के आजादी की संधि है.


यह इतनी खतरनाक संधि है कि अगर आप अंग्रेजां द्वारा सन् 1615 से लेकर 1857 तक किये गये सभी 565 संधियां को जोड दें तो ज्यादा खतरनाक संधि 14 अगस्त 1947 की रात को हुआ, जिसको हम आजादी कहते हैं. वो आजादी नहीं पण्डित नेहरू और लार्ड माउण्टबेटन के बीच में सत्ता का हस्तानांतरण हुआ. सत्ता हस्तानांतरण और स्वतंत्रता ये दो चीजें अलग-अलग है. इसी संधि के बीच गाँधीजी की हत्या भी हुई है, इसमें बहुत बड़ा राज छिपा है. सत्ता का हस्तानांतरण कैसे होता है? एक पार्टी चुनाव हार जाती है दूसरे पार्टी की सरकार जीत कर आती है तो शपथ ग्रहण करने के बाद एक रजिस्टर पर हस्ताक्षर करता है. उसी रजिस्टर को ‘‘ट्रान्सफर ऑफ पॉवर बुक’’ कहते हैं. उस पर हस्ताक्षर के बाद पुराना प्रधान मंत्री नये प्रधानमंत्री को सत्ता सौंप देता है और पुराना प्रधान मंत्री निकलकर बाहर चला जाता है. इसके सत्ता का हस्तानांतरण कहते हैं. यही नाटक 14 अगस्त 1947 की रात को 12 बजे हुआ था. लार्ड माउण्ट बेटन ने अपनी सत्ता पंडित नेहरू के हाथ में सांपी थी और हमने कह दिया स्वराज्य आ गया. कैसा स्वराज्य काहे का स्वराज्य? अंग्रेजां के लिए स्वराज्य का मतलब क्या था? औैर हमारे लिए स्वराज्य का मतलब क्या है? अंग्रेज कहते थे कि हमने स्वराज्य दिया यानी अंग्रेजों ने अपना राज तुमको सौपा था, ताकि तुम लोग कुछ दिन तक इसे चला लो जब जरूरत पड़ेगी तो हम दुबारा आ जायेंगे. ये अंग्रेजां का व्याख्या था और ब्राह्मणों की व्याख्या थी कि हमने स्वराज्य ले लिया. इसी संधि के ही अनुसार भारत के दो टुकड़े किये गये. भारत और पाकिस्तान नाम के दो डोमिनियन स्टेट बनायें गये. डोमिनियन स्टेट का अर्थ है एक बड़े राज्य के अधीन एक छोटा राज्य. देश की आजादी में भारत के विभाजन का भी एक रहस्य छुपा हुआ हे. 

14 अगस्त 1947 को पाकिस्तान का निर्माण हुआ और 15 अगस्त 1947 की रात को 12 बजे भारत आजाद हुआ. यह यूरेशियन ब्राह्मणां की चाल थी और यह चाल आज इन आंकड़ो में दिखाई पड़ती है जो निम्न है- देश की तथाकथित आजादी के 71 वर्षो में संयुक्त राष्ट्र संघ के सर्वे में भारत के 83 करोड़ लोग भुखमरी के कगार पर पहुँचा दिये गये हैं. 22 करोड़ से ज्यादा लोग बेरोजगारी की वजह से घूम रहे है, 35 लाख लोग से ज्यादा भीख मांग कर जीविका चला रहे है, 15-20  करोड़ लोग आज भी झोपड़पट्टियां में अपना जीवन व्यतीत कर रहे है. करीब 35-40 करोड़ लोगां को शुद्ध पीने का पानी नसीब नहीं हो रहा है. 10 करोड़ बच्चे बाल मजदूरी कर रहे हैं, 25 लाख बच्चे रेलवे प्लेटफार्म पर अपनी जिन्दगी काट रहे है. देश में हर 15 मिनट पर एक महिला के साथ बलात्कार, हर 22 मिनट पर एक महिला के साथ सामुहिक बलात्कार और हर 35 मिनट पर एक बच्ची को हवस का शिकार बनाया जा रहा है. जिसमें सबसे ज्यादा मूलनिवासी महिला हैं. 22.5 करोड़ कुपोषित हैं. शासक वर्ग ने देश की आजादी के 71 वर्षो में हजारां साम्प्रदायिक दंगे-फसाद को अंजाम दिया. देश में हर दिन हजारों किसान आत्महत्या कर रहे हैं. एससी को छुआछूत, भेदभाव, जातिवाद के कारण उनको मौत के घाट उतारा जा रहा है. आदिवासियों को जल, जंगल और जमीन से खदेड़ा जा रहा है और नक्सलवाद के नाम उनका नरसंहार किया जा रहा है. मुसलमानों को कभी आतंवाद के नाम पर तो कभी गोमांस के नाम पर, अब मॉब लिंचिंग की आड़ में बेरहमी से उनकी हत्याएं की जा रही है. सैनिकों को जानबूझकर मौत के मुँह में धकेला जा रहा है. 

क्या इसी को आजादी कहते हैं? यह आजादी नहीं है. आज भी देश का 85 प्रतिशत मूलनिवासी बहुजन समाज गुलाम है. इसी गुलामी से आजाद कराने के लिए वामन मेश्राम के नेतृत्व बामसेफ द्वारा आजादी का आंदोलन चलाया जा रहा है. इस आजादी के आंदोलन में एससी, एसटी, ओबीसी, एनटी, डीएनटी, बीजेएनटी और इनसे धर्म परिवर्तित मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध जैन और लिंगायत अर्थात 85 प्रतिशत मूलनिवासी बहुजन समाज को इस आजादी के आंदोलन में साथ सहयोग करके अपनी आजादी हाशिल करनी होगी. अगर आज हम चूक गये तो फिर इस गुलामी से आजादी पाना ज्यादा मुश्किल हो जायेगा.

आजाद भारत में गुलामी का गीत क्यों......?



राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)
जब भारत आजाद हो गया तो फिर आजाद भारत में गुलामी का गीत क्यो गाया जा रहा है? जब 1905 में बंगाल के विभाजन को लेकर अंग्रेजों के खिलाफ भंग का आन्दोलन चला रहा था तो उस समय बंगाल के लोगों ने उस आन्दोलन को काफी मजबूत बनाया था. जिससे अंग्रेजों ने अपने आप को बचाने के लिए अपनी राजधानी कलकत्ता से हटाकर दिल्ली ले गये और 1911 में दिल्ली को राजधानी घोषित कर दिया. जबकि, उस समय पूरे भारत के लोग अंग्रेजों के खिलाफ बुलंदियो पर थे. अंग्रेजों ने अपने इंगलैण्ड के राजा को भारत में आमंत्रित किया ताकि भारत के लोग शांत हो जायं. 1911 में इंगलैण्ड का राजा जार्ज पंचम भारत में आया. जब जार्ज पंचम भारत में आया तो सभी बंगाल के ब्राह्मणों ने रविन्द्रनाथ टैगोर पर दबाव बनाया कि जार्ज पंचम का निर्णय हमारे यानी (ब्राह्मणों) के पक्ष में करने के लिए तुम्हे राजा जार्ज पंचम के स्वागत के लिए एक गीत गाना होगा. 




उस समय टैगोर का पूरा परिवार ही अंग्रेजों का तलवा चाटते थे. खुद रविन्द्रनाथ टैगोर की अंग्रेजों के प्रति सहानुभुति रहती थी. जब सभी ब्राह्मणों का दबाव हुआ तो टैगोर ने राजी होते हुए मन से या बेमन से जो भी गीत लिखा उस गीत के माध्यम से जार्ज पंचम को ये बताया कि हमारा देश भारत समेत हम सभी आप के गुलाम हैं और गुलामी को सम्बोधित करने वाला गीत ‘‘जन, गण, मन, अधिनायक जय हे भारत भागय विधाता’’ इस गीत के सारे शब्दो में अंग्रेज राजा जार्ज पचंम का गुणगान है ताकि अंग्रेजों को लगे कि कोई गीत है जो अंग्रेजों के खुशामद में लिखा हुआ है. 1911 में रविद्रनाथ टैगोर द्वारा राज्य जार्ज पंचम के स्वगत के गीत गाया तो गीत हिन्दी में गाये जाने से राजा को समझ में नही आया. जब वो वापस इंगलैण्ड गया तो उसने उस ‘‘जन, गन, मन, को अंग्रेजी में अनुवाद कराया. जब अनुवाद के बाद सुना तो इतना खुश हुआ और बोला कि इतना सम्मान, इतनी, खुशामद तो मेरी इंगलैण्ड में भी आज तक किसी ने नहीं किया. इतना खुश हुआ कि उसने तुरन्त आदेश दिया जिसने भी यह गीत लिखा है उसे तुसन्त इंगलैण्ड बुलाया जाय. 

रविन्द्रनाथ इंगलैण्ड गया. जार्ज पंचम नोबल पुरस्कार का अध्यक्ष भी था. जार्ज पंचम ने टैगोर को नोबल पुरस्कार से सम्मानित करने लिए फैसला लिया. मगर, रविन्द्रनाथ टैगोर ने इस नोबल पुरस्कार को लेने से इंकार कर दिया. इस इंकार के पिछे गाँधीजी का गाली भरा वो लब्ज था जो रविन्द्रनाथ टैगोर को दिया गया था. इसलिए रविन्द्रनाथ टैगोर ने जार्ज पंचम से कहा कि अगर आप हमे नोबल पुरस्कार देना ही चाहते हैं तो जन, गण, मन, पर न देकर मैने एक गीतांजली नाम की किताब लिखी है उस पर नोबल पुरस्कार दिया जाय और यहि प्रचारित भी किया जाय कि नोबल पुरस्कार गीतांजली पर दिया गया है. जार्ज पंचम मान गया और 1913 को रविन्द्रनाथ के गीतांजली पर नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया. रविन्द्रनाथ टैगोर की अंग्रेजों के प्रति सहनुभुति तब खत्म हुई जब 1919 में जलिया वाला बाग काण्ड हुआ. गांधी ने गाली की भाषा में रविन्द्रनाथ टैगोर को पत्र लिखा और बोला कि तुम्हारी आँखो से अंग्रेजीयत अभी भी खत्म नहीं हुई? तुम्हारे आँखो में अभी भी अंग्रेजों के प्रति वही रैवेया कब तक रहेगी? तुम अग्रंजों के इतने चाटुकार कैसे बन गये? गांधी ने स्वंय रविन्द्रनाथ के घर गया और जोर से डाँटा कि तुम जिस अंग्रेजों के भक्ति में डूबे हो वहीं अंग्रेज ब्राह्मणों पर खतरा बने बैठे हैं. तब जाकर रविन्द्रनाथ टैगोर ने जलिया वाला बाग काण्ड में अंग्रेजो का विरोध किया और नोबल पुरस्कार को पुनः जार्ज पंचम को लौटा दिया. 1919 के पहले रविन्द्रनाथ टैगोर ने जितना कुछ किया वो सब के सब अंग्रेजों के समथर्न में था.

1913 में रविन्द्रनाथ टैगोर ने अपने बहनोई सुरेन्द्रनाथ बनर्जी लंदन मे आईसीएस ऑफिसर को एक पत्र लिखा. पत्र में टैगोर ने लिखा कि ये जो गीत ‘‘जन, गण, मन, लिखा हूँ यह गीत अंग्रेजों के द्वारा बनवाकर लिखवाया गया है. इसके शब्दों का अर्थ सही नही है, इस गीत के अर्थ में देश के गुलामी का संकेत है और यह गीत अंग्रेजों की भक्ति करने के लिए लिखा गया गीत है. इस गीत को कभी नहीं गया जाना चाहिए. इस पत्र के अंतिम लाईन में लिखा कि इस पत्र को किसी को भी नहीं दिखाये. क्योंकि, यह पत्र मैं आप तक सीमित रखना चाहता हूँ. जब कभी मेरी मृत्यु हो जाय तभी इस पत्र को सार्वजनिक करना. 1941 को रविन्द्रनाथ टैगोर की मृत्यु हुई उसके बाद सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने उस पत्र को सार्वजनिक किया और सारे देश को बताया कि ‘‘जन, गण, मन’’ इस गीत को कभी न गाया जाय. यह गीत भारत देश के विरोध मे लिखा गया गीत है जिसे जार्ज पंचम को खुश करने के लिए लिखा गया था. 1941 तक राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी दो दलो में बंट गई थी. कांग्रेस के दो दलों में बटने का कारण था कि इस देश की सत्ता किसके हाथ में होगी? इसलिए बाल गंगाधर तिलक और जवाहर लाल नेहरू दोनों ब्राह्मणों में मतभेद हो गया और दोनों ने अगल-अलग दल बना लिया. एक दल का नाम नरम दल था, जिसके समर्थक जवाहर लाल नेहरू थे तथा दूसरे का नाम गरम दल था जिसके समर्थक बालगंगाधर तिलक थे.

जवारहार लाल नेहरू चाहते थे कि स्वतंत्र भारत की सरकार अंग्रेजों के साथ कोई संयोजक सरकार बने. लेकिन, बालगंगाधर तिलक नहीं चाहते थे कि अंग्रेजों के साथ मिलकार सरकार बने. अंग्रेजों के साथ मिलकर सरकार बनाने का मतलब अपनों से धोखा देना यानी यूरेशियन ब्राह्मणों को इसी मतभेद के कारण बालगंगाधर तिलक कांग्रेस से निकल गये. गरमक दल के नेता बालगंगाधर तिलक हर जगह वन्देमातरम गया करते थे और नरम दल के नेता मोतीला नेहरू (उस समय गांधीजी कांग्रेस की आजीवन सदस्यता से इस्तीफा दे चूके थे, गाँधी किसी के तरफ नहीं थे. मगर, दोनों पक्ष के लिए आदरणीय थे) क्योंकि, गांधीजी महात्मा का चोला ओढ़कर देश के आदरणीय थे. लेकिन, नरम दल वाले नेता ज्यादातर अंग्रेजों के साथ रहते थे, उनके साथ उठना-बैठना, उनके हर बैठकों में शामिल होना और हर समय अंग्रेजों के पक्ष में समझौता करना उनकी चाटुकारिता को प्रकट करती थी. वन्देमातरम से अंग्रेजों को बहुत चिढ़ होती थी. नरम दल वाले गरम दल वालों को चिढ़ाने के लिए 1911 में लिखा गया गीत ‘‘जन, गण, मन, गाया मरते थे और गरम दल वाले ‘‘वन्देमातरम’’ गाया करते थे. नरम दल वाले अंग्रजों के सर्म्पक में थे और अंग्रेजों को वन्देमातरम गीत पसंद नही था. इसलिए अंग्रेजों के कहने पर नरम दल वालों ने मुसलमानों के बिच एक हवा उड़ा दी कि मुसलमानों को वन्देमातरम नहीं गाना चाहिए. क्योंकि, इसमें मूर्ति पूजा (बुतपरस्ती) है और मुसलमान मूर्ति पूजा के कट्टर विरोधी हैं. उस समय मुस्लिम लीग भी बन गई थी, जिसके प्रमुख मोहम्मद अली जिन्ना थे. उन्होने भी उनका विरोध करना शुरू कर दिया. क्योकि, उस समय जिन्ना देखने में भारतीय थे, मगर मन से अंगेज ही थे. जिन्ना ने अंग्रेजों के इशारे पर मुसलमानों को वन्देमातरम गाने से मना कर दिया. 

जब भारत स्वतंत्र हो गया तब जवाहर लाल नेहरू उसमें राजनीजित करने लगे. संविधान सभा की बहस चली, संविधान सभा के 319 में से 318 सांसद ऐसे थे जिन्होने ‘‘वन्देमातरम’’ को राष्ट्रगान स्वीकार करने पर सहमति जताई थी. बस एक सांसद इस प्रस्ताव को नही माना जिसका नाम जवाहरलाल नेहरू था. उसका तर्क था कि वन्देमातरम से मुसलमानों के दिल को चोट पहुचती है. इसलिए इसे नहीं गना चाहिए. दरअसल इस गीत से मुसलमानों को नहीं, बल्कि अंग्रेजों के दिल को चोट पहुचती थी. अब इस झगड़े का फैसला कौन करे? तब वे गांधीजी के पास पहुचे. गांधीजी ने कहा ‘‘जन, गण, मन के पक्ष में तो मैं भी नही हूँ और तुम (नेहरू) वन्देमातरम के पक्ष में नहीं हो. तो कोई तीसरा विकल्प तैयार किया जाय. तब गांधीजी ने तीसरे विकल्प के रूप में झण्डागान को चूना और विजयी विश्व तिरंगा प्यारा’’ को झण्डागान का विकल्प दिया. लेकिन, नेहरू उस पर भी तैयार नही हुआ. नेहरू का तर्क था कि झण्डा गान आरकेष्ट्रा पर नहीं बज सकता और जन, गण, मन, आरकेष्ट्रप पर बज सकता है. उस समय इस विवाद का कोई हल नहीं निकला तो नेहरू ने इस मुददे को गांधीजी के मृत्यु तक टाले रखा. गांधीजी की मृत्यु करने के बाद नेहरू ने जन, गण, मन, को राष्ट्रगान के रूप में घोषित कर दिया और जबरदस्ती यह गुलामी का गीत भारतीयों पर थोप दिया. दूसरा पक्ष नाराज ना हो इसलिए वन्देमातरम को राष्ट्र गीत बना दिया. लेकिन, नेहरू कभी भी नहीं चाहते थे कि अंग्रेजों के दिल को चोट पहुचें. नेहरू मुसलमानों का हितैषी कैसे हो सकता है? जिसने पाकिस्तान बनवा दिया. जबकि, इस देश के मुसलमान पाकिस्तान नही चाहते थे. जन, गण, मन, को इसलिए मान्यता दी गयी कि वो अंग्रेजों के भक्ति में गाया गया गीत था. इसलिए जन, गण, मन को राष्ट्र गान के रूप में नहीं गाना चाहिए. क्योकि, इसमें गुलामी की बू आती है. मैं सभी इतिहासकारों से एक बात कहना चाहता हूँ कि आप लोग भी 52 सेकेण्ड में गाने वाला दूसरा राष्ट्र गान लिख कर रखे रहें. क्योकि, जैसे ही 85 प्रतिशत मूलनिवासी बहुजन समाज को आजादी मिलेगी, वैसे ही इस जन, गण, मन, राष्ट्रगान को रदद कर दिया जायेगा और जो आप लोग द्वारा राष्ट्रगान लिखा जायेगा उसे आजाद भारत का राष्ट्रगान घोषित किया जायेगा.

शुक्रवार, 9 अगस्त 2019

लाश पर सियासत का खेल..........



दैनिक मूलनिवासी नायक जब-जब मनुवादी सरकारों की नीतियों और बड़े नेताओं की मौत पर आशंका जाहिर किया है तब-तब वह बात सच ही साबित हुई है. इसी कड़ी में अब पूर्व विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की मौत में भी आशंका की बू आने लगी है. ईवीएम विरोधी आंदोलन, तीन तलाक, आर्टिकल 370 जैसे गंभीर मुद्दों के शोरशराबे के बीच सुषमा स्वराज की अचानक मौत होना, बात कुछ हजम नहीं हो रही है. अचानक सुषमा स्वराज की मौत ने कई सवाल छोड़ गये हैं. क्या सुषमा स्वराज की मौत स्वभाविक थी? क्या सुषमा स्वराज की मौत सही मायने में 06 दिसम्बर की शाम को ही हुई थी? खैर यह तो जाँच का विषय है, इस पर अभी कुछ कहना ठीक नहीं है. जय ललिता, श्रीदेवी और अटल बिहारी बाजपेयी की तरह इससे भी पर्दा कुछ ही दिनों में हट जायेगा. 

सुषमा स्वराज स्वराज की मौत पर आशंका करने का सिर्फ एक ही कारण है कि सुषमा स्वराज की मौत के पहले भी नामीगिरामी हस्तियों की मौत को साजिश का शिकार बनाया जा चुका है. जय ललीता, श्रीदेवी और अटल बिहारी बाजपेयी की मौत भले ही स्वभाविक हुई हो, लेकिन उनकी लाश पर सियासत का खेल खलने से बीजेपी पीछे नहीं हटी है. इसलिए वर्तमान स्थिति को देखते हुए ऐसा लग रहा है कि सुषमा स्वराज की मौत के पीछे भी सियासत का ही खेल खेला जा रहा है.

बता दें कि जय ललिता की मौत उस वक्त हुई थी जब पूरे देश में विश्वरत्न डॉ.बाबासाहब अम्बेडकर का परिनिर्वाण दिवस मनाया जा रहा था. बामसेफ द्वारा पूरे देश में डॉ.बाबासाहब अम्बेडकर ही हत्या क्यों और किसने की? तथा डीआईजी सक्सेना की रिपोर्ट क्यों नहीं सार्वजनिक की गयी? इन दो गंभीर मुद्दों को विषयवार पूरे देश में चर्चा के लिए रखा गया था. लेकिन, उससे पहले ही पता चला कि 05 दिसम्बर 2016 को जय ललिता की मौत हो गयी. हद तो तब हो गयी जब ब्राह्मणों ने बामसेफ द्वारा 6 दिसंबर को डॉ.बाबासाहब अम्बेडकर के परिनिर्वाण पर बाबसाहब की हत्या का पर्दाफाश करने की आवाज को दबाने के लिए साजिश किया. क्योंकि जय ललिता की मौत दो दिन पहले हुई थी यानी 2-3 तारीख को जय ललिता की मौत हुई थी. लेकिन, ब्राह्मणों ने बामसेफ की आवाज दबाने के लिए जय ललिता की मौत 05 दिसंबर को घोषित किया और अंतिम दर्शन के लिए 06 दिसंबर को जय ललिता का पार्थिव शरीर बाहर निकाला. दलाल मीडिया ने अखबार से लेकर टीवी चैनलों पर केवल जय ललिता की चर्चा करने लगे. जिससे बामसेफ द्वारा चलाए जा रहे बाबासाहब की हत्या की चर्चा दब गई.

इसी तरह से श्रीदेवी की लाश पर भी भारतीय जनता पार्टी ने सियासत की रोटियाँ सेंकने से परहेज नहीं किया. श्रीदेवी की मौत ने भी शासक वर्ग को वो मौका दे दिया, जिससे शासक वर्ग एक साथ कई मुद्दों को दबाने में कामयाब हो गये. श्रीदेवी की मौत 24 फरवरी 2018 को हुई. 2018 में मोदी सरकार को चार साल हो रहे थे और 2019 में लोकसभा चुनाव होने वाला था. 2018 में मोदी सरकार के चार सालों में जहाँ एक तरफ देश में अत्याचार, अन्याय, आतंकी हमले, दंगा-फसाद चरम पर था तो वहीं दूसरी तरफ हिन्दुत्व को बढ़ावा देने के लिए मूलनिवासी बहुजनों का कत्लेआम बड़े पैमाने पर हो रहा था. इसी के साथ मोदी सरकार में भ्रष्टाचार इतना ज्यादा बढ़ चुका था कि दुनिया के 108 भ्रष्ट देशों की सूची में भारत नंबर वन देश घोषित हो गया था. मोदी सरकार में महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं, बच्चे सुरक्षित नहीं हैं, बेरोजगारी, गरीबी, भुखमरी में गरीबों को मौत का निवाला बनाया जा रहा है. चारों तरफ गुंडों का तांडव मचा हुआ है, दिनदहाड़े मूलनिवासियों को जिंदा जलाया जा रहा तो कहीं दिनदहाड़े उनकी पीट पीटकर हत्याएं की जा रही हैं.

एक तरह किसानों को आत्महत्या करने के लिए मजबूर किया जा रहा है तो दूसरी ओर जवानों को मौत के मुंह में ढकेला जा रहा है. न तो महंगाई कम हुई न तो भ्रष्टाचार कम हुआ, बल्कि देश के बैंकों को लूटने के लिए मोदी ने बैंक सफाई अभियान भी शुरू कर दिया था. इकोनॉमी चौपट हो चुकी है, विकास दर निचले स्तर पर जा पहुंची है. शिक्षा, स्वास्थ्य व्यवस्था को घटिया बना दिया गया है. मोदी की सारी योजनाएं टॉय-टॉय फिस्स हो चुकी हैं. यानी मोदी सरकार ने महज चार साल में ही इतनी ज्यादा समस्याओं का निर्माण कर दिया था कि मोदी के विरोध में आवाजे उठने लगी थी. यही नहीं भारत मुक्ति मोर्चा ने ब्राह्मणवादी व्यवस्था पर इतना जोरदार प्रहार किया कि ब्राह्मणवाद जड़ से हिल गया था. शासक वर्ग इन सभी मुद्दों को दबाने के लिए प्लान बना ही रहा था कि श्रीदेवी की मौत ने उनको मौका दे दिया. शासक वर्ग ने प्लान बनाया कि यदि बहुजन विरोधी मुद्दों को दबाना है तो एक नया विवाद खड़ा करना होगा. यह विवाद तभी खड़ा हो सकता है जब श्रीदेवी के पार्थिव शरीर को राष्ट्रीय ध्वज में लपेटा जाय और उसका राजकीय सम्मान के साथ अन्तिम संस्कार किया जाय. इसलिए शासक वर्ग ने न केवल श्रीदेवी के पार्थिव शरीर को तिरंगे में लपेटा, बल्कि राजकीय सम्मान देकर देश भर में बवाल खड़ा कर दिया. इसमें दलाल मीडिया ने भी मसाला लगा कर पेश करने लगा और जो चर्चा सरकार के विरोध में हो रही थी वह चर्चा बंद हो गयी और नया चार्चा शुरू हो गया कि श्रीदेवी को तिरंगे में क्यों लपेटा गया? श्रीदेवी को राजकीय सम्मान क्यों दिया गया? इस तरह से बहुजन विरोधी सभी मुद्दे गायब हो गये.

यही नहीं भारतीय जनता पार्टी ने अटल बिहारी बाजपेयी की लाश को भी नहीं छोड़ा, बल्कि लाश ही गवाही देने लगी थी कि अटल की मौत तकरीबन चार दिन पहले हुई थी और उसके चार दिन बाद 16 अगस्त 2018 को मृत घोषित किया गया. वह दौर भी एक भयंकर साजिश से ही गुजर रहा था. क्योंकि मोदी सरकार 15 अगस्त को तथाकथित देश की आजादी का जश्न मनाने वाली थी. 15 अगस्त को देश विनाशक प्रधानमंत्री दिल्ली के लाल किले से ‘मन की बात’ प्रसारित करने वाले थे. उसी दिन अटल बिहारी बाजपेयी की मौत हो गयी. बीजेपी को लगा अगर अटल बिहारी बाजपेयी की मौत 15 अगस्त को घोषित किया गया तो 15 अगस्त पर जो मोदी मन की बात में बोलने वाले थे वह नहीं बोल पायेंगे, दूसरी सबसे बड़ी बात यह है कि बामसेफ के माध्यम से सभी लोगां को जानकारी हो गयी है कि 15 अगस्त को देश आजाद नहीं हुआ था, बल्कि सत्ता का हस्तानांतरण हुआ था. एक अंग्रेज विदेशी चला गया और जाते-जाते भारत की सत्ता विदेशी ब्राह्मणों को दे गया, मूलनिवासी आज भी गुलाम हैं. मगर, ब्राह्मण हर साल 15 अगस्त को अपनी आजादी का जश्न मनाते हैं. अगर, बाजपेयी की मौत 15 अगस्त को घोषित किया गया तो हर साल 15 अगस्त पर आजादी का जश्न नहीं, बल्कि अटल बिहारी बाजपेयी की पुण्यतिथि मनानी पड़ेगी. यानी बाजपेयी की मौत 15 अगस्त के लिए काला दिन साबित होगा. इसलिए भाजपा सरकार ने अटल बिहारी बाजपेयी को उनकी मौत के चार दिन तक लाशों को रखे रही जब 15 अगस्त बीत गया तब 15 अगस्त की रात में यानी 16 अगस्त को मृत घोषित किया.

उपरोक्त बातों को देखते हुए ही सुषमा स्वराज की मौत के पीछे भी साजिश की आशंका हो रही है. चुंकि, यह दौर भी भाजपा सरकार के लिए मुसिबत से कम नहीं है. मोदी सरकार एक घटना को छुपाने के लिए दूसरे घटना को अंजाम देते जा रही है. पहला तो यह है कि बामसेफ के राष्ट्रीय अध्यक्ष वामन मेश्राम ने पूरे देश में ईवीएम के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया है. वामन मेश्राम की वजह से देश की जनता को पता चल गया है कि ईवीएम में घोटाला करके भाजपा ने दूसरी बार सत्ता पर कब्जा किया है. इसके साथ ही वामन मेश्राम की वजह से कई राजनीतिक पार्टियाँ भाजपा सरकार के खिलाफ एकजुट होकर ईवीएम के खिलाफ 09 अगस्त को आंदोलन करने जा रही हैं. इसके अलावा देश में हत्या, बलात्कार, मॉब लिंचिंग, दंगा-फसाद, बेरोगारी, गरीबी, भुखमरी, किसानों की आत्महत्या, पुलवामा जैसी घटनाओं में बीजेपी द्वारा सैनिकों को मौत के घाट उतारना, देश की चौपट होती इकोनॉमी और ‘तीन तलाक’ जैसे गंभीर मुद्दों ने मोदी सरकार को मुसिबत में डाल दिया है. इसलिए मोदी सरकार ने आर्टिकल 370 खत्म करके इन मुद्दों को एक साथ दबाने की कोशिश की. लेकिन, आर्टिकल 370 के मुद्दे ने सरकार की और ज्यादा किरकीरी कर दी. देश से लेकर विदेशों में मोदी सरकार के खिलाफ गुस्से का माहौल व्याप्त हो चुका है. चारों तरफ सरकार के खिलाफ अवाजें उठने लगी हैं. इन मुद्दों और आवाजों के बीच सुषमा स्वराज की अचानक मौत हो जाना संदेह के घेरे में है. हो सकता है कि सुषमा स्वराज की मौत स्वभाविक हो, मगर आशंका है कि सुषमा स्वराज की मौत पर कहीं सियासत का खेल तो नहीं खेला जा रहा है? हालांकि, यह पूरे दावे के साथ नहीं कहा जा सकता है. 

राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)