केंद्रीय सूचना आयोग में करीब 32 हज़ार अपील और शिकायतें लंबित
♦ सरकार को सूचना आयुक्तों की नियुक्ति करके आरटीआई कानून को और मजबूत बनाना चाहिए. लेकिन, वे इसमें संशोधन करके इसे सरकार की कठपुतली बना रहे हैं.
♦ सरकार सूचना आयोग एवं सूचना आयुक्तों की स्वतंत्रता छीनना चाहती है, ताकि वे सरकार के खिलाफ कोई फैसला न करें और आयुक्त किसी ऐसी जानकारी जनता को मुहैया कराने का आदेश न दें जिसे सरकार सार्वजनिक नहीं करना चाहती है.
नई दिल्ली/दै.मू.ब्यूरो
सूचना का अधिकार कानून में संशोधन करने की कोशिश और इससे संबंधित बहसों के बीच एक सनसनीखेज खबर ने सबको चौंकाकर रख दिया है. वास्तव में यह खबर बेहद चौंका देने वाला है. क्योंकि, केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) में इस समय अपील और शिकायतों को मिलाकर कुल तकरीबन 32,000 मामले लंबित पड़े हैं. हैरान हो जायेंगे यह जानकर की जब आरटीआई को बगैर संशोधन किये ही 32 हजार से ज्यादा शिकायतें लंबित पड़े हैं तो सोचो आरटीआई को कमजोर कर देने के बाद हालात क्या होंगे. इसका अंदाजा भी लगा पाना मुश्किल हो जायेगा.
गौरतलब है कि सीआईसी की वेबसाइट पर दी गई जानकारी के मुताबिक 23 जुलाई 2019 तक केंद्रीय सूचना आयोग में 28,442 अपीलें और 3,209 शिकायतें लंबित थे. इस तरह सीआईसी में कुल 31,651 मामले लंबित पड़े हैं. पिछले करीब ढाई सालों में ये सर्वाधिक लंबित मामलों की संख्या में जबरदस्त बढ़ोत्तरी पायी गयी है. जबकि, इससे पहले एक अप्रैल 2017 को लंबित मामलों की संख्या 26,449 थी. आरटीआई को मजबूत करने की दिशा में काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ताओं और पूर्व सूचना आयुक्तों का कहना है कि सरकार की जानबूझकर लापरवाही और आयोगों में सूचना आयुक्त पदों का खाली रहना इसकी सबसे बड़ी वजह है.
बता दें कि केंद्रीय सूचना आयोग और राज्य सूचना आयोग सूचना का अधिकार कानून के तहत सूचना मुहैया कराने के लिए सर्वश्रेष्ठ अपीलीय संस्थान हैं. सीआईसी में केंद्रीय सूचना आयुक्त समेत सूचना आयुक्तों के लिए कुल 11 पद हैं. लेकिन, इस समय आयोग में सात आयुक्त ही नियुक्त हैं और चार पद खाली पड़े हैं. इन चार खाली पदों को भरने के लिए सरकार ने इसी साल चार जनवरी को विज्ञापन जारी किया था. लेकिन, करीब सात महीने का वक्त बीत जाने के बाद भी अभी तक कोई नियुक्ति नहीं हुई है. जबकि, पिछले साल 26 अप्रैल 2018 को सुप्रीम कोर्ट में सूचना आयुक्तों की जल्द नियुक्ति के लिए एक याचिका दायर की गई थी. उस समय तक करीब 23,500 से ज्यादा मामले लंबित थे. यानी लंबित मामलों की संख्या में कमी आने के बजाय करीब एक साल के भीतर इसमें 8,000 और मामलों की बढ़ोतरी हो गयी.
इस मामले में याचिकाकर्ता आरटीआई कार्यकर्ता कोमोडोर लोकेश बत्रा इस पर चिंता जाहिर करते हुए कहते हैं, ये बेहद हैरानी की बात है कि एक तरफ सरकार आरटीआई कानून को मजबूत करने का दावा करती है और दूसरी तरफ ये लोग सूचना आयुक्तों की नियुक्ति नहीं कर रहे हैं. बत्रा ने कहा, नियम के मुताबिक जैसे ही पद खाली होते हैं, उससे कुछ महीने पहले ही नियुक्ति प्रक्रिया शुरू कर दी जानी चाहिए. लेकिन, सरकार ऐसा नहीं करती है. जब तक कोई कोर्ट नहीं जाता है और वहाँ से आदेश नहीं आता, तब तक कोई नियुक्ति नहीं होती है. ये आरटीआई के प्रभाव को कम करने की कोशिश है.
वहीं आरटीआई की दिशा में काम करने वाला गैर सरकारी संगठन सूचना के जन अधिकार का राष्ट्रीय अभियान (एनसीपीआरआई) की सदस्य अंजलि भारद्वाज ने कहा कि सरकार को सूचना आयुक्तों की नियुक्ति करके आरटीआई कानून को और मजबूत बनाना चाहिए. लेकिन, वे इसमें संशोधन करने इसे सरकार की कठपुतली बना रहे हैं. उन्होंने कहा, सरकार आरटीआई कानून में संशोधन करके केंद्रीय एवं राज्य सूचना आयुक्तों की सैलरी और उनका कार्यकाल खुद निर्धारित करना चाहती है. इसका मतलब बिल्कुल साफ है कि सरकार सूचना आयोग एवं सूचना आयुक्तों की स्वतंत्रता छीनना चाहती है, ताकि वे सरकार के खिलाफ कोई फैसला न करें और आयुक्त किसी ऐसी जानकारी जनता को मुहैया कराने का आदेश न दें जिसे सरकार सार्वजनिक नहीं करना चाहती है.
इसके अलावा कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव संगठन के सदस्य और आरटीआई कार्यकर्ता वेंकटेश नायक कहते हैं कि सरकार पूरी तरह से लोकतांत्रिक प्रक्रिया का दमन कर रही है और जनता के संवैधानिक अधिकार आरटीआई को काफी कमजोर किया जा रहा है. उन्होंने कहा कि आरटीआई संशोधन विधेयक लाने से पहले जनता से कोई राय सलाह नहीं ली गई. सरकार की प्राथमिकता सूचना आयुक्तों की नियुक्ति करने की होनी चाहिए, न कि इसमें संशोधन कर इसे कमजोर बनाने की. पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त और कई सूचना आयुक्त भी आरटीआई संशोधन कानून के खिलाफ बोल रहे हैं और मांग कर रहे हैं कि आयोगों में खाली पदों को भरा जाए. परन्तु सरकार मनमानी करने से बाज नहीं आ रही है.
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