शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2019

उत्तर प्रदेश में फर्जी एनकाउन्टर तथा यादव सहित तमाम पिछड़े वर्गो की हो रही हत्या के विरोध में धराना प्रदर्शन


जब से उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी है तब सूबे के एससी, एसटी, ओबीसी और इनसे धर्म परिवर्तन करने वाले मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध और जैन के ऊपर अन्याय और अत्याचार चरम सीमा पार कर रही है. हाल ही में जारी एनसीआरबी की रिपोर्ट में भी दावा किया गया था कि यूपी में अपराध के मामले में सबसे टॉप पर है. यही नहीं योगी सरकार में यादव, कुर्मी, मौर्या सहित तमाम पिछड़ी जातियों के लोगों को फर्जी एनकाउंटर में मारा जा रहा है.
साथ ही एससी, एसटी, ओबीसी को छात्रवृत्ति प्रतिपूर्ति शुल्क से वंचित करने, ओबीसी की जाति आधारित गिनती ना करने, बेगुनाह मुस्लिमों को जेल में डालने, आरएसएस, बजरंग दल और विहिप के इशारों पर मॉब लिंचिंग, पशुओं का बंदोबश्त ना करने और ईवीएम के विरोध में बहुजन मुक्ति पार्टी, भारत मुक्ति मोर्चा, राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग मोर्चा, राष्ट्रीय किसान मोर्चा, राष्ट्रीय मुस्लिम मोर्चा, राष्ट्रीय किसान मोर्चा, भारतीय विद्यार्थी, युवा और बेरोजगार मोर्चा सहित कई ऑफसूठ संगठनों ने उत्तर प्रदेश के 75 जिलों में एक साथ धरना-प्रदर्शन किया.
सूत्रों के अनुसार, उपरोक्त संगठनों द्वारा चार चरणों में 25 अक्टूबर को सभी जिला मुख्यालयों पर धरना-प्रदर्शन के बाद 16 नवंबर को धरना-प्रदर्शन व रैली किया जायेगा तथा तीसरे चरण में 30 नवंबर को देशभर में जेल भरो आंदोलन किया जायेगा. हालांकि, अभी चौथे चरण का समय निर्धारित नहीं किया गया है.
बता दें कि अभी हाल ही पुष्पेन्द्र यादव की फर्जी एनकाउंटर में हत्या कर दी गई थी. जबकि, इसी तरह की सभी हत्याएं राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता व प्रतिशोध की भावना से उत्तर प्रदेश के विभिन्न जनपदों में निर्मम तरीके से की गई हैं. यदि देखा जाय तो 23 मई से लेकर 16 जुलाई 2019 तक 60 से ज्यादा यादवों की हत्या की जा चुकी है.
एक नजर यादवों की हत्या पर
1.23-5 सोनू यादव लखनऊ
2.24-5 विजय यादव ग़ाज़ीपुर
3.24-5 रखी यादव प्रयागराज
4.24-5 रविन्द्र यादव लखनऊ
5.25-5 शोभा यादव बदायूँ
6.25-5 मनोज यादव फर्रुखाबाद
7.26-5 रामखेलावन यादव गोंडा
8.26-5 भरत यादव मथुरा
9.26-5 सोमबीर यादव सम्भल
10.27-5 गुड्डी यादव ललितपुर
11.28-5 प्रियंका यादव देवरिया
12.28-5 आदर्श यादव ग़ाज़ीपुर
13.29-5 दुर्वेश यादव मैनपुरी
14.30-5 कौशलेश यादव इलाहाबाद
15.30-5 रामप्यारे यादव आज़मगढ़
16.30-5 कमलेश यादव शाहजहांपुर
17.31-5 रक्षाराम यादव अम्बेडकर नगर
18.31-5 हरकेश यादव मेरठ
19.1-6 ब्रजेश यादव आगरा
20.2-6 प्रेमपाल यादव फ़िरोज़ाबाद
21.2-6 रमेश यादव मैनपुरी
22.3-6 उमेश यादव प्रयागराज
23.4-6 छोटेलाल यादव वाराणसी
24.5-6 रामप्रवेश यादव देवरिया
25.5-6 विपिन यादव शाहजहांपुर
26.6-6 वेदपाल यादव मुरादाबाद
27.6-6 सन्तोष यादव मिर्जापुर
28.8-6 दीपन यादव मऊ
29.8-6 शिवकुमार यादव लखीमपुर
30.9-6 शम्भू यादव महारजगंज
31.11-6 रविन्द्र यादव सुल्तानपुर
32.11-6 रविन्द्र यादव शाहजहांपुर
33.12-6 दरवेश यादव एड. आगरा
34.13-6 जगलाल यादव अमेठी
35.14-6 रामलाल यादव बस्ती
36.14-6 शुभम यादव वाराणसी
37.14-6 जयकिशन यादव इटावा
38.15-6 सिकन्दर यादव कौशाम्बी
39. 18-6 राजेश यादव फ़िरोज़ाबाद
40.18-6 रामप्रसाद यादव वाराणसी
41.19-6 राम अवध यादव जौनपुर
42.20-6 राधेश्याम यादव भदोही
43.22-6 फूलचंद यादव सिद्धार्थ नगर
44.22-6 इन्द्रवती यादव आज़मगढ़
45.22-6 अमरेन्द्र यादव बलरामपुर
46.23-6 शिवकुमार यादव लखीमपुर
47.24-6 देवसरन यादव फैज़ाबाद
48.24-6 बच्चा यादव प्रयागराज
49.25.6 प्रदीप यादव झाँसी
50.26-6 रामपति यादव रायबरेली
51.27-6 भूरी यादव फ़िरोज़ाबाद
52.28-6 प्रेमा यादव लखनऊ
53.29-6 योगेश यादव प्रयागराज
54.29-6 मैथिलीशरण यादव झाँसी
55.29-6 प्रमोद यादव गोंडा
56.30-6 राजबली यादव फैज़ाबाद
57.2-7 पंचम यादव प्रयागराज
58.5-7 केशव प्रसाद यादव झाँसी
59.6-7 आरती यादव अमेठी
60.16-7 अखिलेश यादव फैज़ाबाद

ईवीएममेव जयते...



महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद भले ही दोनों राज्यों में बीजेपी को पूर्ण बहुमत ना मिला हो. लेकिन, दोनों राज्यों में सरकार बीजेपी के बनाने की पूरी संभावना बन चुकी है. दूसरी खास बात सरकार चाहे किसी भी पार्टी की बने परन्तु, यह सच है कि दोनों राज्यों में ईवीएम गठबंधन की ही सरकार बनेगी, इसे कोई रोक नहीं सकता है. क्योंकि, ईवीएम गठबंधन ने दोनों राज्यों में एक दूसरे को मजबूत किया है और लोकसभा चुनाव 2004 से लेकर अब तक के विधानसभा चुनावों में ईवीएममेव जयते की ही विजय हुई है. ईवीएममेव जयते के विजय के साथ ही देश में ईवीएमवाद हावी हो गया और ईवीएमवाद हावी होते ही वर्तमान भारत में लोकतंत्र को दरकिनार कर ब्राह्मणवाद और ईवीएमवाद दोनों साथ-साथ चल रहे हैं.

जहाँ एक ओर भारतीय जनता पार्टी की सरकार से लेकर चुनाव आयोग तक इनकार करते आ रहे हैं कि ईवीएम में घोटाला नहीं हो सकता है, वहीं हरियाणा विधानसभा चुनाव से पहले हरियाणा के असांध सीट से भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी बख्शीश सिंह विर्क ने सौ प्रतिशत दावे के साथ कहा था कि ‘‘आप ईवीएम मशीन का कोई भी बटन दबाओगे, वोट कमल के फूल को ही जाएगा. उन्होंने यहाँ तक कह दिया था कि ‘हमने ईवीएम में सेटिंग कर रखा है, इस सेटिंग से यह भी बता देंगे कि किस बूथ पर किसने कितना वोट’ दिया है. यही नहीं, चुनाव के फाइनल नतीजे आने तक बीजेपी यही बात बार-बार कहती रही है कि भले ही महाराष्ट्र और हरियाणा में हम बहुमत से चूक गये हैं. लेकिन, सरकार बनाने से नहीं. इससे यह साफ है कि महाराष्ट्र और हरियाणा में सरकार बीजेपी ही बनाने वाली है.

लोकसभा चुनाव 2014 और 2019 में जबरदस्त ईवीएम घोटाले से केन्द्र की सत्ता पर कब्जा करने के बाद अब महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव 2019 में फिर से ईवीएम घोटाले ने भाजपा नेतृत्व वाली सरकार की ताजपोशी पर मुहर लगा दी है. गुरूवार को आये विधानसभा चुनाव के नतीजे भले ही भाजपा को पूर्ण बहुमत नहीं दिला सके, परन्तु दोनों ही राज्यों में सरकार बीजेपी ही बनाने जा रही है. यही नहीं ईवीएम ने एक बार फिर बीजेपी को महाराष्ट्र और हरियाणा में दूसरी सबसे बड़ी बना दिया है.

इस बात में कोई दो राय नहीं है कि ‘‘नाजायज लोग न केवल देश की सत्ता पर कब्जा कर रहे हैं, बल्कि नाजायज फैसले भी ले रहे हैं’’ इसका जिम्मेदार केवल ईवीएम और चुनाव आयोग है. इसका मतलब साफ है कि ईवीएम के साथ-साथ चुनाव आयोग भी हैक हो गया है. यह फर्जी सरकार और फर्जी चुनाव आयोग होने का सबसे बड़ा सबूत है. इसमें भारत की मीडिया भी पूरी तरह से शामिल है. गौरतलब है कि चुनाव आयोग के सामने जनता के जबरन वोट छीने जा रहे हैं, चोरी किए जा रहे हैं इसके बाद भी आयोग चिड़ीचुप है. आयोग की चुप्पी साबित करता है कि ईवीएम घोटाले में आयोग पूरी तरह से शामिल है. आयोग का रवैया बता रहा है एनडीए सरकार, चुनाव आयोग को 10 साल के लिए रिर्जव कर लिया है.

बता दें कि संविधान ने चुनाव आयोग को मुक्त, निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव कराने के लिए स्वतंत्र रूप से जिम्मेदारी दी है. लेकिन, चुनाव आयोग मुक्त, निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव कराने का काम रत्तीभर भी नहीं कर रहा है. बल्कि, चुनाव आयोग चुनाव परिणाम जल्दी लाने के लिए काम कर रहा है. दूसरी बात यह है कि ईवीएम के बजाए बैलेट पेपर और वीवीपीएटी से निकलने वाली कागजी मतपत्रों की गिनती पर आयोग ने कहा था कि इससे चुनाव परिणाम में देरी होगी.

यही नहीं सुप्रीम कोर्ट द्वारा ईवीएम और वीवीपीएटी के पाँच विधानसभा में मिलान पर भी कहा था कि इससे भी चुनाव परिणाम में देरी होगी, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. सवाल यह नहीं है, सवाल यह है कि मुक्त, निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव कराना जरूरी है या रिजल्ट जल्दी लाना जरूरी है? इसके अलावा हर बार चुनाव आयोग पर ईवीएम में घोटाला करने और सरकार के दबाव में काम करने का आरोप लगते आ रहे हैं. लेकिन, चुनाव आयोग बार-बार एक ही बात दोहारा रहा है कि ईवीएम हैक प्रूफ है. क्या ऐसा नहीं लगता है कि चुनाव आयोग बिक चुका है? बात एकदम साफ है कि चुनाव आयोग न केवल बिक चुका है, बल्कि मीडिया की तरह आयोग भी बीजेपी सरकार की दलाली कर रहा है.
राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)

महाराष्ट्र और हरियाणा में ईवीएम गठबंधन की सरकार

‘‘जब तक देश में ईवीएम से चुनाव होंगे तब तक कांग्रेस और बीजेपी को सत्ता से बेदखल करना संभव नहीं है : वामन मेश्राम’’

महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद भले ही दोनों राज्यों में बीजेपी को पूर्ण बहुमत ना मिला हो. लेकिन, दोनों राज्यों में बीजेपी के सरकार बनाने की पूरी संभावना बन चुकी है. दूसरी खास बात सरकार चाहे किसी भी पार्टी की बने परन्तु, यह सच है कि दोनों राज्यों में ईवीएम गठबंधन की ही सरकार बनेगी, इसे कोई रोक नहीं सकता है. क्योंकि, ईवीएम गठबंधन ने दोनों राज्यों में एक दूसरे को मजबूत किया है और लोकसभा चुनाव 2004 से लेकर अब तक के विधानसभा चुनावों में ईवीएममेव जयते की ही विजय हुई है. ईवीएममेव जयते के विजय के साथ ही देश में ईवीएमवाद हावी हो गया और ईवीएमवाद हावी होते ही वर्तमान भारत में लोकतंत्र को दरकिनार कर ब्राह्मणवाद और ईवीएमवाद दोनों साथ-साथ चल रहे हैं. नतीजन जब तक देश में ईवीएम से चुनाव होंगे तब तक कांग्रेस और बीजेपी को सत्ता से बेदखल करना संभव नहीं है.
जहाँ एक ओर भारतीय जनता पार्टी की सरकार से लेकर चुनाव आयोग तक इनकार करते आ रहे हैं कि ईवीएम में घोटाला नहीं हो सकता है, वहीं हरियाणा विधानसभा चुनाव से पहले हरियाणा के असांध सीट से भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी बख्शीश सिंह विर्क ने सौ प्रतिशत दावे के साथ कहा था कि ‘‘आप ईवीएम मशीन का कोई भी बटन दबाओगे, वोट कमल के फूल को ही जाएगा. उन्होंने यहाँ तक कह दिया था कि ‘हमने ईवीएम में सेटिंग कर रखा है, इस सेटिंग से यह भी बता देंगे कि किस बूथ पर किसने कितना वोट’ दिया है. यही नहीं, चुनाव के फाइनल नतीजे आने तक बीजेपी यही बात बार-बार कहती रही है कि भले ही महाराष्ट्र और हरियाणा में हम बहुमत से चूक गये हैं. लेकिन, सरकार बनाने से नहीं. इससे यह साफ है कि महाराष्ट्र और हरियाणा में सरकार बीजेपी ही बनाने वाली है.
लोकसभा चुनाव 2014 और 2019 में जबरदस्त ईवीएम घोटाले से केन्द्र की सत्ता पर कब्जा करने के बाद अब महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव 2019 में फिर से ईवीएम घोटाले ने भाजपा नेतृत्व वाली सरकार की ताजपोशी पर मुहर लगा दी है. गुरूवार को आये विधानसभा चुनाव के नतीजे भले ही भाजपा को पूर्ण बहुमत नहीं दिला सके, परन्तु दोनों ही राज्यों में सरकार बीजेपी ही बनाने जा रही है. यही नहीं ईवीएम ने एक बार फिर बीजेपी को महाराष्ट्र और हरियाणा में दूसरी सबसे बड़ी बना दिया है.
महाराष्ट्र के 288 सीटों में बीजेपी ने जहाँ 105 सीटें जीतीं तो वहीं हरियाणा के 90 सीटों में से 40 सीटों पर कब्जा किया. हालांकि, दोनों राज्यों में किसी भी राज्य में बीजेपी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला. लेकिन, दोनों राज्यों में सरकार बनाने का दावा बीजेपी के पास ही बरकरार है. अगर बात महाराष्ट्र में कांग्रेस, शिवसेना, रांकपा और अन्य की करें तो कांग्रेस को 44, शिवसेना को 56, रांकपा को 54 सीटें मिली है वहीं 29 सीटों पर अन्य हैं. जबकि, हरियाणा में कांग्रेस को 31, जजपा को 10 और 9 सीटें अन्य पार्टियों के हिस्से में गया है.

इसी तरह से 17 राज्यों के उपचुनाव में भाजपा को असम में 3, गुजरात में 3, हिमाचल प्रदेश में 2, सिक्किम में 2 और उत्तर प्रदेश के 11 सीटों में बीजेपी को 7, सपा को 3 और अपना दल को 1 सीटें मिली है. जबकि, बसपा का खाता भी नहीं खुल सका है. यहाँ एक और बात गौर करने वाली है कि देश की राजनीति दिशा तय करने वाले उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा का अस्तित्व पूरी तरह से खत्म होते जा रहा है. लोकसभा चुनाव 2014 में जहाँ बसपा का सुपड़ा साफ हो गया था तो वहीं सपा को केवल उसी के परिवार की सीटें हाशिल हुई थी. वहीं 2019 में सपा को 7 सीटें मिली तो बसपा को 10 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा था. जबकि, 2007 में बसपा और 2012 में सपा का उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत की सरकार थी. यानी 2014 और 2019 से उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा को धीरे-धीरे खत्म किया जा रहा है. ठीक यही हाल बिहार, महाराष्ट्र सहित अन्य राज्यों में क्षेत्रिय दलों का अस्तित्व खत्म होते जा रहे हैं.
दरअसल, क्षेत्रिय दलों के अस्तित्व के खत्म होने का कारण केवल ईवीएम घोटाला है. ईवीएम ने न केवल जनता के वोट देने के अधिकार को खत्म कर रही है, बल्कि ईवीएम क्षेत्रिय पार्टियों को भी खत्म करते जा रही है. यह बात बहुजन क्रांति मोर्चा के राष्ट्रीय संयोजक वामन मेश्राम 2014 से लगातार कहते आ रहे हैं. अभी हाल ही एक खबर आई थी कि तेलंगाना में 6 क्षेत्रिय पार्टियों की मान्यता खत्म करने के लिए चुनाव आयोग ने उन पार्टियों को नोटिस जारी की है. इसका मतलब है कि वामन मेश्राम जो बातें कहते आ रहे हैं वो बातें सही साबित होते जा रहे हैं.
बता दें कि वामन मेश्राम ईवीएम के खिलाफ निरंतर आंदोलन करते आ रहे हैं और हर बार कांग्रेस और बीजेपी पर खुला आरोप लगाते आ रहे हैं कि 2004 और 2009 में कांग्रेस ने ईवीएम घोटाला करके सत्ता पर कब्जा किया और 2014 और 2019 में बीजेपी ने ईवीएम घोटाला करके सत्ता पर कब्जा किया है. वर्तमान सरकार ईवीएम घोटाले से चुनी हुई सरकार है. वामन मेश्राम का दावा है कि देश में जब तक ईवीएम से चुनाव होंगे तब तक कांग्रेस और बीजेपी को सत्ता से बेदखल करना संभव नहीं है.

मैकाले मूलनिवासियों की शिक्षा के स्तंभ



भारत में ऐसे विद्धानों की कमी नहीं है जो प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति का गुणगान करते नहीं थकते और लॅार्ड मैकाले की आधुनिक शिक्षा पद्धति को पानी पी-पीकर गालियां देते हैं। लेकिन इन्हीं लार्ड मैकाले की वजह सेअतिशूद्रोंं के लिए शिक्षा का रास्ता खुला और उन्हें न्याय मिलने का मार्ग प्रशस्त हो सका। ब्रिटिश सरकार ने चार्टर ऐक्ट1833 के अनुसार भारत के लिये प्रथम विधि आयोग का गठन किया, जिसके अध्यक्ष बन कर लॅार्ड मैकाले 10जून1834 को भारत में पहुंचे। इसी वर्ष लार्ड मैकाले ने भारत में नई शिक्षा नीति की नींव रखी। 06अक्टूबर1860 को लॅार्ड मैकाले द्वारा लिखी गई भारतीय दण्ड संहिता लागू हुई और मनुस्मृति का विधान खत्म हुआ। इसके पहले भारत में मनुस्मृति के काले कानून लागू थे, जिनके अनुसार अगर ब्राह्मण हत्या का आरोपी भी होता था तो उसे मृत्यु दण्ड नहीं दिया जाता था और वेद वाक्य सुन लेने मात्र के अपराध में शूद्रों के कानों में शीशा पिघलाकर डालने का प्रावधान था। वैसे तो अंग्रेज 23जून1757 प्लासी युद्ध के बाद लगभग आधे भारत पर शासन करने लग गये थे, परन्तु कानून तब भी मनुस्मृति के ही चलते थे। 

तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बैंटिंक द्वारा गठित सार्वजनिक शिक्षा समिति के अध्यक्ष के रूप में लार्ड मैकाले ने अपने विचार सुप्रसिद्ध स्मरणपत्र (Macaulay Minute) 02फरवरी1835 में दिए और उनके विचार ब्रिटिश सरकार द्वारा 07मार्च 1835 को अनुमोदित किए गए। मैकाले ने यहां का सामाजिक भेदभाव, शिक्षण में भेदभाव और दण्ड संहिता में भेदभाव देखकर ही आधुनिक शिक्षा पद्धति की नींव रखी और भारतीय दण्ड संहिता लिखी। जहां आधुनिक शिक्षा पद्धति में सबके लिये शिक्षा के द्वार खुले थे, वहीं भारतीय दण्ड संहिता के कानून ब्राह्मण और अतिशूद्र सबके लिये समान बने। मनुस्मृति की व्यवस्था से ब्राह्मणों को इतनी महानता प्राप्त होती रही थी कि वे अपने आपको धरती का प्राणी होते हुए भी आसमानी पुरुष अर्थात देवताओं के भी देव समझा करते थे। लॅार्ड मैकाले की आधुनिक शिक्षा पद्धति से ब्राह्मणों को अपने सारे विषेषाधिकार छिनते नजर आये, इसी कारण से उन्होनें प्राणप्रण से इस नीति का विरोध किया। इनकी नजर में लॅार्ड मैकाले की आधुनिक शिक्षा पद्धति केवल बाबू बनाने की शिक्षा देती है, पर मेरा मानना है कि लॉर्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति से बाबू तो बन सकते हैं, प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति से तो वह भी नहीं बन सके। हां, ब्राह्मण सब कुछ बनते थे, चाहे वह पढ़ा-लिखा हो या नहीं, अन्य जातियों के लिये तो सारे रास्ते बन्द ही थे। प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति के समर्थक यह बताने का कष्ट करेंगे कि किस काल में किस राजा के यहां कोई अतिशूद्र वर्ग का व्यक्ति मंत्री, पेशकार, महामंत्री या सलाहकार रहा हो ? अतः इन जातियों के लिये तो यह शिक्षा पद्धति कोहनी पर लगा गुड़ ही साबित हुई। ऐसी पद्धति की लाख अच्छाईयां रही होंगी, पर यदि हमें पढ़ाया ही नहीं जाता हो, गुरुकुलों में प्रवेश ही नहीं होता हो, तो हमारे किस काम की ? सरसरी तौर पर इन दोनों शिक्षा पद्धतियों में तुलना करते हैं, फिर आप स्वयं ही निर्णय ले सकते है कि कौन सी शिक्षा पद्धति कैसी है ?

भारत की प्राचीन शिक्षा पद्धति:-
(1) इसका आधार प्राचीन भारतीय धर्मग्रन्थ रहे।
(2) इसमें शिक्षा मात्र ब्राह्मणों द्वारा दी जाती थी।
(3) इसमें शिक्षा पाने के अधिकारी मात्र सवर्ण ही होते थे।
(4) इसमें धार्मिक पूजापाठ और कर्मकाण्ड का बोलबाला रहता था।
(5) इसमें धर्मिक ग्रन्थ, देवी-देवताओं की कहानियां, चिकित्सा, तंत्र, मंत्र, ज्योतिष, जादू टोना आदि शामिल रहे हैं।
(6) इसका माध्यम मुख्यतः संस्कृत रहता था।
(7) इसमें ज्ञान-विज्ञान, भूगोल, इतिहास और आधुनिक विषयों का अभाव रहता था अथवा अतिश्योक्तिपूर्ण ढंग से बात कही जाती थी। जैसेः-राम ने हजारों वर्ष राज किया, भारत जम्बू द्वीप में था, कुंभकर्ण का शरीर कई योजन था, कोटि-कोटि सेना लड़ी, आदि आदि।
(8) इस नीति के तहत कभी ऐसा कोई गुरुकुल या विद्यालय नहीं खोला गया, जिसमें सभी वर्णों और जातियों के बच्चे पढ़तें हों।
(9) इस शिक्षा नीति ने कोई अंदोलन खड़ा नहीं किया, बल्कि लोगों को अंधविश्वासी, धर्मप्राण, अतार्किक और सब कुछ भगवान पर छोड़ देने वाला ही बनाया।
(10)गुरुकुलों में प्रवेश से पूर्व छात्र का यज्ञोपवीत संस्कार अनिवार्य था। चूंकि हिन्दू धर्म शास्त्रों में शूद्रों का यज्ञोपवीत संस्कार वर्जित है, अतः शूद्र तो इसको ग्रहण ही नहीं कर सकते थे, अतः इनके लिये यह किसी काम की नहीं रही।
(11) इसमें तर्क का कोई स्थान नहीं था। धर्म और कर्मकाण्ड पर तर्क करने वाले को नास्तिक करार दिया जाता था। जैसे चार्वाक, तथागत बुद्ध और इसी तरह अन्य।
(12) इस प्रणाली में चतुर्वर्ण समानता का सिद्धांत नहीं रहा।
(13) प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति में शूद्र विरोधी भावनाएं प्रबलता से रही हैं। जैसे कि एकलव्य का अंगूठा काटना, शम्बूक की हत्या आदि।
(14) इससे हम विश्व से परिचित नहीं हो पाते थे। मात्र भारत और उसकी महिमा ही गायी जाती थी।
(15) इसमें वर्ण व्यवस्था का वर्चस्व था और इसमें व्रत, पूजा-पाठ, त्योहार, तीर्थ यात्राओं आदि का बहुत महत्त्व रहा।

मैकाले की आधुनिक शिक्षा पद्धति:-
(1) इसका आधार तत्कालीन परिस्थितियों के अनुसार उत्पन्न आवश्यकतायें रहीं।
(2) लॅार्ड मैकाले ने शिक्षक भर्ती की नई व्यवस्था की, जिसमें हर जाति व धर्म का व्यक्ति शिक्षक बन सकता था। तभी तो रामजी सकपाल (बाबासाहेब डॉ.अंबेडकर के पिताजी) सेना में शिक्षक बने।
(3) जो भी शिक्षा को ग्रहण करने की इच्छा और क्षमता रखता है, वह इसे ग्रहण कर सकता है।
(4) इसमें धार्मिक पूजापाठ और कर्मकाण्ड के बजाय तार्किकता को महत्त्व दिया जाता है।
(5) इसमें इतिहास, कला, भूगोल, भाषा- विज्ञान, विज्ञान, अभियांत्रिकी, चिकित्सा, प्रबन्धन और अनेक आधुनिक विद्यायें शामिल हैं।
(6) इसका माध्यम प्रारम्भ में अंग्रेजी भाषा और बाद में इसके साथ-साथ सभी प्रमुख क्षेत्रीय भाषाएं हो गईं।
(7) इसमें ज्ञान-विज्ञान, भूगोल, इतिहास और आधुनिक विषयों की प्रचुरता रहती है और अतिश्योक्ति पूर्ण या अविश्वसनीय बातों का कोई स्थान नहीं होता है।
(8) इस नीति के तहत सर्व प्रथम 1835 से 1853 तक अधिकांश जिलों में स्कूल खोले गये। आज यही कार्य केंद्र और राज्य सरकारों के साथ ही निजी संस्थाएं भी शामिल हैं।
(9) भारत में स्वाधीनता आंदोलन खड़ा हुआ, उसमें लार्ड मैकाले की आधुनिक शिक्षा पद्धति का बहुत भारी योगदान रहा, क्योंकि जन सामान्य का पढ़ा-लिखा होने से उसे देश-विदेश की जानकारी मिलने लगी, जो इस आंदोलन में सहायक रही।
(10) यह विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में लागू होती आई है।
(11) इसको ग्रहण करने में किसी तरह की कोई पाबन्दी नहीं रही, अतः यह जन साधारण के लिये सर्व सुलभ रही। अगर शूद्रों और अतिशूद्रों का भला किसी शिक्षा से हुआ तो वह लार्ड मैकाले की आधुनिक शिक्षा प्रणाली से ही हुआ। इसी से पढ़ लिख कर बाबासाहेब अंबेडकर डॉक्टर बने।
(12) इसमें तर्क को पूरा स्थान दिया गया है। धर्म अथवा आस्तिकता-नास्तिकता से इसका कोई वास्ता नहीं है।
(13) यह राजा और रंक सब के लिये सुलभ है।
(14) इसमें सर्व वर्ण व सर्व धर्म समान हैं। शूद्र और अतिशूद्र भी इसमें शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं, लेकिन जहां-२ संकीर्ण मानसिकता वाले ब्राह्मणवादियों का वर्चस्व बढ़ा, वहां-२ उन्होनें उनको शिक्षा से वंचित करने की भरपूर कोशिश की है।
(15) इससे हमआधुनिक विश्व से सरलता से परिचितहो रहे हैं।
इस प्रकार शिक्षा और कानून के क्षेत्र में शूद्रों और अतिशूद्रों के लिए किये गये कार्यों के लिए लार्ड मैकाले बेजोड़ स्तंभ हैं और हमेशा रहेंगे।

शनिवार, 19 अक्तूबर 2019

देश के 25 उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों भी भारी, कमी उच्च न्यायालयों में बढ़ती जा रही है जजों के खाली पदों की संख्या : क़ानून मंत्रालय



राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)


♦ एक नजर इधर ♦
मंत्रालय ने ये आंकड़े एक अक्टूबर को जारी किए थे, जो दिखाते हैं कि उच्च न्यायालयों में 420 न्यायाधीशों की कमी है, जो इस वर्ष अब तक सर्वाधिक है. आंकड़ों के अनुसार, गत एक अक्टूबर तक उच्च अदालतों में 659 न्यायाधीश थे, जबकि कुल 1079 पद मंजूर हैं. वहीं देश के 25 उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के 414 पद रिक्त थे. जबकि, अगस्त में यह आंकड़ा 409 था और जुलाई में यही आंकड़ा 403 था. वहीं न्याय विभाग के आंकड़ों के मुताबिक जनवरी में उच्च न्यायालयों में रिक्त पदों की संख्या 392 थी.

उच्चतम न्यायालय न्यायाधीशों की अपनी पूर्ण क्षमता के साथ काम कर रहा है. जबकि, देश के 25 उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के रिक्त पदों की संख्या बढ़ती जा रही है. कानून मंत्रालय के हालिया डेटा में यह जानकारी निकल कर सामने आई है. मंत्रालय ने ये आंकड़े एक अक्टूबर को जारी किए थे, जो दिखाते हैं कि उच्च न्यायालयों में 420 न्यायाधीशों की कमी है, जो इस वर्ष अब तक सर्वाधिक है. आंकड़ों के अनुसार, गत एक अक्टूबर तक उच्च अदालतों में 659 न्यायाधीश थे, जबकि कुल 1079 पद मंजूर हैं.

मंत्रालय द्वारा सितंबर में जारी किए गए आंकड़ों में देश के 25 उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के 414 पद रिक्त थे. जबकि, अगस्त में यह आंकड़ा 409 था और जुलाई में यही आंकड़ा 403 था. वहीं न्याय विभाग के आंकड़ों के मुताबिक जनवरी में उच्च न्यायालयों में रिक्त पदों की संख्या 392 थी. सरकार ने कहा था कि उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति कार्यपालिका और न्यायापालिका के बीच चलने वाली एक निरंतर सहयोगपरक प्रक्रिया है. क्योंकि, उसके लिए कई संवैधानिक अधिकारियों के बीच संवाद एवं उनकी मंजूरी जरूरी होती है. न्यायाधीशों की सेवानिवृति, इस्तीफे या प्रोन्नति तथा उनकी संख्या बढ़ाए जाने के कारण रिक्तियाँ बढ़ती रहती हैं. फिलहाल उच्च न्यायालयों में 43 लाख से अधिक मामले लंबित हैं.

उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए उच्चतम न्यायालय का तीन सदस्यीय कॉलेजियम उम्मीदवारों के नामों की सिफारिश करता है. इसके बाद उच्च न्यायालय का कॉलेजियम संबंधित उच्च न्यायालयों के लिए उम्मीदवारों के नामों को शॉर्ट लिस्ट करता है और उन चयनित नामों को कानून मंत्रालय के पास भेज देता है. मंत्रालय खुफिया ब्यूरो से उन लोगों की पृष्ठभूमि की जाँच करवाने के बाद अंतिम निर्णय के लिए इसे उच्चतम न्यायालय के कॉलेजियम में भेज देता है. सितंबर में चार नए न्यायाधीशों की नियुक्ति के साथ उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की कुल संख्या 34 तक पहुंच गई जो सर्वाधिक है.

गौरतलब है कि पिछले साल सुप्रीम कोर्ट में जजों के रिक्त पदों को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष बिबेक देबरॉय ने सवाल उठाया था. उन्होंने कहा था कि न्यायपालिका में करीब 25 प्रतिशत सीटें खाली हैं और सरकारी तंत्र में 25 प्रतिशत रिक्तियाँ बहुत अधिक नहीं होती हैं. तब सुप्रीम कोर्ट में कुल स्वीकृत 31 जजों में से सिर्फ 22 जज ही थे, बाकी के 9 पद खाली पड़े थे. वहीं, कलकत्ता उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस ज्योतिर्मय भट्टाचार्य ने कहा था कि न्यायाधीशों की कमी के चलते न्यायपालिका एक मुश्किल दौर से गुजर रही है. तब कलकत्ता हाईकोर्ट में न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या 72 में से मात्र 33 न्यायाधीश थे.

खुले में शौच मुक्त भारत की तस्वीर



राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)
पिछले दिनों मध्य प्रदेश के शिवपुरी में 10 और 12 साल के दो अनुसूचित जाति के बच्चों की पीट-पीटकर हत्या कर दी गई. उनका कसूर केवल इतना था कि वे खुले में शौच कर रहे थे. उनके गाँव को स्वच्छ भारत मिशन के डेटाबेस में ‘खुले में शौच से मुक्त’ कर दिया गया है, लेकिन उनके परिवार के पास इस्तेमाल के लिए शौचालय नहीं था. इस घटना के दस दिन पहले ही, उत्तर प्रदेश के रायबरेली के इच्छवापुर में एक महिला शौच के लिए खेतों की तरफ गई थी. बाद में माथे पर चोट के निशान के साथ उसकी लाश पाई गई. स्वच्छ भारत मिशन के डेटाबेस के मुताबिक रायबरेली के भी सभी गाँवों को खुले में शौच मुक्त घोषित कर दिया गया है. ये दो मामले खुले में शौच से मुक्त घोषित करने और उसके सत्यापन की प्रक्रिया पर सवालिया निशान लगाते हैं.

स्वच्छ भारत मिशन के डेटाबेस के मुताबिक, 26 सितंबर तक सभी गांवों ने खुद को खुले में शौच मुक्त घोषित कर दिया है और और 90 फीसदी गाँव सत्यापन के पहले चक्र से गुजर चुके हैं. इस डेटाबेस में दर्ज सूचनाओं की प्रामाणिकता संदिग्ध है. लेकिन, अगर सरकार की बात मान भी लेते हैं, तो भी इस क्षेत्र में सरकार का प्रदर्शन उतना बेदाग नहीं है, जितना दावा सरकार कर रही है. उदाहरण के लिए ओडिशा में सिर्फ 51 फीसदी गाँव सत्यापन के पहले स्तर से गुजरे हैं. बिहार ने अपने 38,000 से ज्यादा गाँवों में से 58 फीसदी गाँवों में पहले चरण का सत्यापन किया है. स्वच्छ भारत मिशन के दिशा-निर्देशों के मुताबिक एक गाँव अपनी ग्राम सभा में इस बाबत एक प्रस्ताव पारित करके खुद को खुले में शौच मुक्त घोषित कर सकता है. यह जानकारी इसके बाद स्वच्छ भारत मिशन के डेटाबेस में अपलोड कर दी जाती है और उसके बाद उस गाँव को ‘खुले में शौच मुक्त घोषित’ के तौर पर चिंहित कर दिया जाता है.

दिशा-निर्देशों के मुताबिक खुले में शौच से मुक्त की घोषणा के सत्यापन के लिए कम से कम दो स्तरों या चरणों का सत्यापन किया जाना चाहिए. सत्यापन का पहला स्तर इस घोषणा के तीन महीने के भीतर पूरा कर लिया जाना चाहिए और दूसरा स्तर- यह सुनिश्चित करने के लिए कि गाँव खुले में शौच मुक्त दर्जे से बाहर न निकल जाए. पहले सत्यापन के छह महीने के भीतर पूरा कर लेना चाहिए. प्रावधान यह है कि यह सत्यापन किसी तीसरे पक्ष के द्वारा या राज्य की अपनी टीमों के द्वारा किया जाए. राज्य की अपनी टीमों के मामले में ईमानदार सत्यापन सुनिश्चित करने के लिए गांव/ब्लॉक/जिला स्तर पर प्रति-सत्यापन किया जाना चाहिए. लेकिन इस प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया है.

स्वच्छ भारत मिशन सत्यापन का काम सिर्फ कागजों पर हुआ है. इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जब 26 सितंबर को स्वच्छ भारत मिशन के डेटाबेस की जांच की गयई तब ओडिशा में सत्यापति खुले में शौच मुक्त गांवों की संख्या 23,902 थी. चार दिन बाद यानी 30 सितंबर को यह संख्या लगभग 55 फीसदी बढ़ते हुए 37,008 हो गयी थी. इसका मतलब है कि ओडिशा ने 13,000 गांवों में पहले स्तर के सत्यापन का काम महज चार दिनों में यानी 3,200 गांव प्रति दिन की दर से पूरा कर लिया था. एक अधिकारी ने बताया, अगर सत्यापन के काम को सही तरीके से किया जाए, तो एक गांव में कम से कम तीन घंटे का वक्त लगेगा, क्योंकि एक पूरी जांच-सूची (चेक लिस्ट) है, जिसका पालन किया जाना होता है और गांव को कई मानदंडों के आधार पर अंक देने होते हैं.

13,000 गांवों को चार दिनों में तो क्या एक महीने में भी वास्तविक रूप से सत्यापित करना मुमकिन नहीं है. यानी अगर डेटाबेस पर यकीन करें, तो ओडिशा ने चार दिनों में उतने गांवों को सत्यापित कर दिया, जितने गांवों का सत्यापन पूरे 2018-19 में भी नहीं हुआ था, जब 11,679 गांवों को सत्यापित किया गया था. 2019-20 में जितने गांवों का सत्यापन हुआ, उनमें से 63 फीसदी का सत्यापन सिर्फ चार दिनों में- प्रधानमंत्री द्वारा भारत को खुले में शौच मुक्त घोषित करने से महज एक हफ्ते पहले- किया गया. उन्हीं चार दिनों की अवधि में, बाढ़ से जूझ रहे बिहार ने 3,202 गांवों का सत्यापन कर दिया, जबकि उत्तर प्रदेश में यह काम 3,850 गांवों में अंजाम दिया गया. कुल मिलाकर ये आंकड़े बताते हैं कि सरकार ने आनन-फानन में शौच मुक्त भारत की घोषणा की है. जबकि, हकीकत में ऐसा कुछ नहीं है.

भुखमरी की चपेट में भारत

राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)

‘‘अर्जुन सेन गुप्ता की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 83 करोड़ लोग गरीबी के चलते भुखमरी की कगार पर पहुँचा दिये गये हैं. इसी तरह एक और चौंका देने वाला तथ्य यह भी है कि नोवेल विजेता विश्वप्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो.डेटॉन ने एक शोध में कहा था कि भारत में जो गरीबी और भुखमरी है इसका मुख्य कारण ‘‘जाति’’ है. इसका मतलब यह हुआ कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों ने भारत में जाति का निर्माण किया और जाति के आधार पर मूलनिवासी बहुजनों को गरीबी और भुखमरी का शिकार बना दिया’’

खाने के लिए भोजन और अनाज ना मिलने के कारण भारत की गरीब जनता भुखमरी का शिकार हो चुकी है. भारत के कई राज्यों में जंगलों में रहने वाले आदिवासियों के हालात इतने ज्यादा गंभीर हैं कि भोजन ना मिलने से कुपोषण (भुखमरी) के शिकार हो रहें हैं. जिससे आदिवासियों के बच्चे मृत्यु के गाल में समा रहें हैं. जबकि, सरकार के पास अनाज का 669.15 लाख टन भंडारण हैं. फिर भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका में जाकर कहते हैं कि भारत में सब कुछ ठीक हैं. अब उनकी यह पोल ग्लोबल हंगर इंडेक्स ने खोल दी हैं. देश में बीजेपी की सत्ता आने के बाद इस सरकार ने देश की जनता को भुखमरी की खाई में धकेल दिया हैं. स्थिती यह हो गई है कि भारत अब ग्लोबल हंगर इंडेक्स में अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान और बांग्लादेश से भी पिछड़ गया है.

ग्लोबल हंगर इंडेक्स-2019 ने मंगलवार को भारत के संबंध में चौंकाने वाले आंकड़े जारी किए हैं. इसके मुताबिक, भारत विश्व के उन 117 देशों में से 102वें नंबर पर आ गया है जहाँ बच्चों की लंबाई के अनुसार वजन बहुत कम है. सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि बाल मृत्यु दर सबसे ज्यादा है और बच्चे कुपोषण के गाल में समा रहे हैं. ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2019 में कहा गया  है कि बच्चों को इस तरह से नुकसान पहुंचने का आंकड़ा 20.8 फीसदी है. रिपोर्ट के अनुसार, विश्व में बच्चों के मामले में सबसे खराब प्रदर्शन यमन, जिबूती और भारत का है, जिनका फीसदी 17.9 से 20.8 के बीच है. ग्लोबल हंगर इंडेक्स में यह भी कहा गया कि भारत में 6 से 23 महीने की बीच के उम्र के महज 9.6 फीसदी बच्चों को ही ‘न्यूयनतम स्वीकार्य आहार’ दिया जाता है. रिपोर्ट ने केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा साल 2016-18 के बीच कराए गए एक सर्वे के आधार पर बताया कि भारत में 35 फीसदी बच्चे छोटे कद के हैं, जबकि 17 फीसदी बच्चे कमजोर पाए गए. रिपोर्ट के मुताबिक पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका जिनकी रैंकिंग क्रमशः 94, 88, 73 और 66 है. साल 2010 में भारत लिस्ट में 95वें नंबर था जो 2019 में खिसकर 102वें स्थान पर आ गया. साल 2000 की 113 देशों की सूची में भार का स्थान 83वां था.

बता दें कि हाल ही में जनसत्ता नाम के हिंदी अखबार एक खबर छपकर आई. खबर में लिखा था कि भारत सरकार के पास सितंबर माह में अनाज का भंडारण 669.15 लाख टन हैं, जिसमें 414 लाख टन गेंहूँ और 254.25 लाख टन चावल है. हैरान करने की बात यह है कि सरकार के पास अनाज रखने के लिए जगह नही हैं, इसलिए सरकार अनाज भंडारण के खर्च में कटौती करने पर विचार कर रही हैं. जिस देश में लोगों को खाने को अनाज नही मिल रहा हैं उस देश की सरकार भंड़ारण खर्च में कटौती के लिए विदेशों को अनाज दान में देने का फैसला कर रही हैं. यही नहीं इसके पूर्व कांगेस सरकार ने भी विदेशों को अनाज दान कर चुकी है. साल 2011-14 और 2017-18 में भारत ने 3.5 लाख टन गेहु अफगनिस्तान को दान कर दिया था वही, 2012-13 में मानवीय सहायता के नाते केंद्र सरकार ने 1447 लाख टन गेंहूँ यमन को दिया गया था. इसके अलावा छोटी छोटी मात्रा में श्रीलंका, नामीबीया, लेसोथो और म्यांमार को चावल दान किया जा चुका है, जबकि भारत की जनता भूखों मर रही है. इसका मतलब साफ है कि कथित आजादी के 71 वर्ष बाद भी भारत जैसे महान देश भारत में जहाँ हर दिन करोड़ों लोगों को ‘दो जून की रोटी’ नसीब नहीं हो रही है तो वहीं दूसरी तरफ भारत जैसे देश में न केवल खाने की बर्बादी की जा रही है, बल्कि भारत सरकार भी दोनों हाथों से दूसरे देशों को अनाज लूटा रही है. ताजा रिपोर्ट कहती है कि भारत में जितना एक साल में अनाज बर्बाद कर दिये जाते हैं, उतना ब्रिटेन पैदा भी नहीं कर पाता है. अगर भारत में खाने और अनाजों की बर्बादी की बात करें तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं.

वर्ल्ड हंगर इंडेक्स की रिपोर्ट 2018 के मुताबिक, भारत में तकरीबन 20 करोड़ से ज्यादा लोग हर रोज भूखे पेट सोने के लिए मजबूर हैं. इसका मतलब है कि भारत में हर 4 में से एक बच्चा भूखा रहता है. वर्ल्ड हंगर इंडेक्स रिपोर्ट के ही मुताबिक भारत में हर दिन 244 करोड़ रूपये का खाना बर्बाद होता है. यदि पूरे एक साल का आंकड़ा निकाले तो भारत में एक साल में 87840 करोड़ रूपये का केवल खाना बर्बाद किया जाता है. जब बात अनाजों की बर्बादी की करते हैं तो इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर साल 23 करोड़ टन दाल, 12 करोड़ टन फल और 21 करोड़ टन सब्जियाँ वितरण प्रणाली में खामियों के कारण खराब हो जाती हैं. देश में हर साल उतना गेहूँ बर्बाद होता है जितना आस्ट्रेलिया की कुल पैदावार होती है. नष्ट हुए गेहूँ की कीमत लगभग 50 हजार करोड़ होती है और इससे 30 करोड़ लोगों को साल भर भरपेट खाना दिया जा सकता है. इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर साल 23 करोड़ टन दाल, 12 करोड़ टन फल और 21 करोड़ टन सब्जियाँ वितरण प्रणाली में खामियों के कारण खराब हो जाती हैं. विश्व खाद्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत की जनसख्या की उदरपूर्ति करने के लिए हर साल लगभग 230 मिलियन टन अनाज की आवश्यकता होती है, लेकिन 270 मिलियन टन अनाज का उत्पादन होने के बाद भी 20 करोड़ से ज्यादा लोग भूखे पेट सो रहे हैं.

भारत में अमीरी-गरीबी का बढ़ता ग्राफ, एक साल में 9.62 फीसदी बढ़ गई अमीरों की संपत्तिः रिपोर्ट


राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)

देश में जहाँ अमीरी-गरीबी की खाई को पाटने के लिए बड़े-बड़े दावे किए जा रहे हैं तो वहीं इसके उलट अमीरी-गरीबी की यही खाई साल दर साल और ज्यादा चौड़ी व गहरी होती जा रही है. नतीजन गरीब और गरीब होता जा रहा है तो अमीर और ज्यादा अमीर होता जा रहा है. जबकि, भारत में अक्सर एक कहावत कही जाती है कि ‘कामयाबी, हमेशा कड़ी मेहनत करने वालों की कदम चूमती है’ मगर, भारत में ठीक इसका उलटा हो रहा है. भारत जैसे कृषि प्रधान देश में तपती और चिलचिलाती धूप, हाड़ कपकपा देने वाली सर्दी और तेज तुफान जैसे बारिश में कड़ी मेहनत करने के बाद भी गरीबों और किसानों के कदम आज तक कामयाबी नहीं चूम सकी. जबकि, इसके उलट अमीर जो मेहनत के नाम पर कुछ भी नहीं करता, बल्कि इन्हीं गरीब, मजदूर और किसानों से ही करवाता है. इसके बाद भी कामयाबी अमीरों के कदम चूम रही है.

 गौरतलब है कि भारत में अमीरी और गरीबी की खाई खत्म होने के बजाए और ज्यादा चौड़ी व गहरी होती जा रही है. भारत में अमीरी-गरीबी का बढ़ता यह ग्राफ इस बात का सबूत है कि सरकारें अमीरी-गरीबी की खाई पाटने की कभी कोशिश ही नहीं की है. इस बात का उदाहरण सामने है कि महज एक साल में अमीरों की संपत्ति में 9.62 फीसदी की बढ़ोत्तरी हो गई है.  कार्वी वेल्थ मैनेजमेंट की रिपोर्ट के अनुसार, देश में अमीरों के पास 2017 में 392 लाख करोड़ रुपये की संपत्ति थी, जो कि 2018 में 9.62 फीसदी की दर से बढ़कर 430 लाख करोड़ रुपये हो गई है.

रिपोर्ट के मुताबिक, देश में अमीरों की संपत्ति की कुल वृद्धि दर 2018 में 9.62 प्रतिशत रही. हालांकि, यह भी बताया गया है कि पहले की तुलना में कम है, जो एक साल पहले 13.45 प्रतिशत थी. एक रिपोर्ट में यह तथ्य सामने आया है. कार्वी वेल्थ मैनेजमेंट की रिपोर्ट के अनुसार, दावा किया है कि 2018 में बड़े अमीरों की संख्या घटकर 2.56 लाख रह गई है, जो 2017 में 2.63 लाख थी. ऐसे लोग जिनके पास 10 लाख डॉलर से अधिक का निवेश योग्य अधिशेष है, बड़े अमीरों की श्रेणी में आते हैं.

यह रिपोर्ट ऐसे समय आई है अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई को लेकर सवाल उठ रहे हैं. अमीर अधिक अमीर हो रहे हैं, जबकि गरीब अधिक तेजी से और गरीब हो रहे हैं. रिपोर्ट में कहा गया है कि अमीरों के पास मौजूद संपत्तियों में से 262 लाख करोड़ रुपये की वित्तीय संपत्तियाँ हैं. जबकि, शेष अचल संपत्तियाँ हैं. इस तरह से कुल मिलाकर इसका अनुपात 60ः40 पर कायम है.जबकि, वित्तीय संपत्तियों में सबसे अधिक 52 लाख करोड़ रुपये सीधे इक्विटी निवेश के रूप में हैं. इस वर्ग में वृद्धि 2017 के 30.32 प्रतिशत के मुकाबले 2018 में घटकर 6.39 प्रतिशत पर आ गई है.

दूसरी तरफ मियादी जमा या बांड में इन अमीरों का निवेश बढ़ा है और यह 45 लाख करोड़ रुपये पर पहुंच गया है. इनमें वृद्धि 8.85 प्रतिशत की रही जो पिछले साल 4.86 प्रतिशत थी.वित्तीय संपत्तियों में बीमा में निवेश 36 लाख करोड़ रुपये रहा, जबकि बैंक जमा 34 लाख करोड़ रुपये है. वहीं देश के अमीरों के पास सोने में निवेश 80 लाख करोड़ रुपये का है. रीयल एस्टेट क्षेत्र में उनका निवेश 74 लाख करोड़ रुपये है. एक साल पहले संपत्ति में निवेश 10.35 प्रतिशत था वहीं 2018 में यह कम होकर 7.13 प्रतिशत रह गया है.

गुरुवार, 17 अक्तूबर 2019

नाना साहब पेशवा कौन थे ?


नाना साहब पेशवा कौन थे ,और मुग़ल और मुसलमान अलग होते हैं अक्सर लोगों को लगता है मुग़ल ही मुसलमान हैं।
पेशवा पर्शियन भाषा का शब्द है जिसका मतलब होता है प्रधानमंत्री, शिवाजी महाराज को कोकणस्थ ब्राह्मणों ने अष्टप्रधान मंडल जो मनुस्मृति के अनुसार राजा को अगर राज्य करना है तो मनुस्मृति के अनुसार उसको अष्टप्रधान मंडल नियुक्त करना होगा, इस के लिए कोकनस्थ ब्राह्मणों ने शिवाजी महाराज को मजबूर किया और उस अष्टप्रधान मंडल का प्रधानमंत्री पेशवा कोकनस्थ ब्राह्मण को बनाया गया। 1857 का जो आंदोलन था उसे ब्राह्मण इतिहासकार हम लोगों को पढ़ाते हैं की ये प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था। नाना साहब पेशवा और मंगल पांडे 1857 के नायक थे ऐसा हमें पढ़ाया जाता है।  

मंगल पांडे और नाना साहब पेशवा के बीच का संवादनाना साहब पेशवा कहते है कि हमें ब्राह्मणों की आज़ादी के लिए लड़ाई लड़नी चाहिए।
मंगल पांडेय: - यदि हम लोग ब्राह्मणों की आज़ादी के लिए लड़ाई लड़ते हैं तो दूसरी जाति के लोग हमें सहयोग क्यूँ करेंगे?
नाना साहब पेशवा: - हमें ये बात सभी जाति के लोगों को नहीं बतानी है की हम केवल मात्र ब्राह्मणों की आज़ादी के लिए लड़ रहे हैं।
मंगल पांडे: - यदि हमें सभी जाति के लोगों को नहीं बताना है की हम सभी जाति के लोगों को ये नहीं बताना की हम केवल मात्र ब्राह्मणों की आज़ादी के लिए लड़ाई लड़ रहे है तो हमें बाकी जातियों के लोगों को क्या बताना है?
नाना साहब पेशवा: - हमें सभी जाति के लोगों को ये बताना है कि हम सभी जाति के लोगों की आज़ादी के लिए लड़ रहे है लेकिन सबको ये नही बताना की हम ब्राह्मणों की आज़ादी के लिए लड़ रहे है।
ये लिखने वाला महापंडित राहुल सांकृत्यायन ब्राह्मण, नाना साहब पेशवा ब्राह्मण, मंगल पांडे ब्राह्मण, यानी लिखने वाला ब्राह्मण, जिनका संवाद है वो दोनों ब्राह्मण इसलिए इसका गलत होने का कोई कारण नहीं है, 1942 को गुलाम भारत में ये किताब पब्लिश हुई और आज़ाद भारत में जब रिपब्लिश हुई यानी दूसरा संस्करण आया तो इस संवाद को संपादन करने वाले लोगों ने गायब कर दिया, इसका मतलब है जिन लोगों ने एडिट कर के संवाद को गायब कर दिया उनका मकसद गलत था .
गुलाम भारत में हमारे लोग(SC ST OBC MINORITY) के लोग पढ़े लिखे नहीं थे और थोड़े बहुत जो थे वो साहित्य पढ़ने के शौकीन नहीं थे।
आज़ाद भारत में हमारे पढ़े लिखे लोगों की संख्या बढ़ गयी, साहित्य लिखने वालों की साहित्य पढ़ने वालों की संख्या बढ़ गयी, ~ब्राह्मणों ने देखा इनकी पढ़ने लिखने वाले लोगों की संख्या बढ़ गयी, यदि इन लोगों ने ये संवाद पढ़ लिया तो आज़ादी की आंदोलन आज़ादी का आंदोलन नहीं था ये ब्राह्मणों की आज़ादी का आंदोलन था ये लोगों को आज़ाद भारत में मालूम हो जाएगा और ये ब्राह्मणों के लिए बहुत खतरनाक होगा इसलिए एडिट कर के उस संवाद को हटा दिया।
बाबा साहब अंबेडकर कहते है कि मुझे पढ़े लिखे लोगों ने धोखा दिया , अब जो लोग ब्राह्मणों की पढ़ी हुई किताबें पढ़ेंगे उनका दिमाग होगा खराब, जब उनका दिमाग खराब होगा तो वो अच्छा काम कैसे करेंगे।
कांशीराम जी पढ़े लिखे लोगों को ANTI SOCIAL ELEMENT कहा करते थे ।
90 % पढ़े लिखे लोगों का समाज से कोई लेना देना नहीं है और जो 10% करते हैं वो किसी संगठन के प्रभाव की वजह से करते हैं।
मुग़ल कौन थे? मुग़ल आक्रमणकारी थे विदेशी थे।
मुग़ल और मुसलमान अलग होते हैं अक्सर लोगों को लगता है मुग़ल ही मुसलमान हैं।
मुग़ल एक रेस(नस्ल) है मुसलमान वो जो कुरान में विश्वास रखता है मुसल्ल, मुसल्ल का मतलब है ठोस विश्वास, जिसका ठोस विश्वास कुरान पर है उसे मुसलमान कहा जाता है, मुसल्ल जिसका ईमान है ठोस ईमान है उसको मुसलमान कहा जाता है
क्या अकबर का ईमान ठोस कुरान पर था तो फैक्ट ये कहता है की अकबर ने "दिने इलाही" नाम का अपना एक धर्म चलाया था इसका मतलब इस्लाम पर उसका ठोस विश्वास नहीं था अगर होता तो उसको दिने इलाही नाम का धर्म चलाने की जरूरत नहीं थी
अकबर ने एक किताब लिखी थी "अलोपनिषद" इसका मतलब कुरान पर भी उसका विश्वास नहीं था, अगर उसको कुरान पर ही विश्वास नहीं था तो वो मुसल्ल ईमान रखने वाला आदमी नहीं था,
मुग़लो का मकसद राजीनितिक था धर्म प्रचार नहीं था, बाबर ने वसीयत लिखी और वसीयत में नसीहत लिखी ऐ मेरी संतानों भारत पर दीर्घकाल राज़ करना है तो ब्राह्मणों को साथ ले लो।
आप सुनकर हैरान हो जाओगे की दुनिया का जो सबसे फेमस विश्वविद्यालय था नालंदा के बाद वो तक्षशिला वो पाकिस्तान में हैं , पुरानी terminology के हिसाब से आज के मुस्लिम लोग बुद्धिस्ट लोग थे जो ब्राह्मण विरोधी ब्राह्मण धर्म विरोधी थे इसलिए इस्लाम कबूल किया ,
इस्लाम मसावाद (equality) को मानता है .
फिराक गोरखपुरी नाम का एक मुसलमान था उसने autobiography लिखी उसमें लिखा कि सरदार पटेल की और मेरी एक बार मुलाकात हई तो सरदार पटेल ने मुझे कहा हम आपके जैसे विदेशी मुसलमानों के विरोधी नहीं है हम लोग जो converted musalaman है हम उनके विरोधी हैं

लखनऊ में मुसलमानों का DNA चेक हुआ सुधा श्रीवास्तव जो कि कायस्थ है संजय गांधी मेडिकल इंस्टीट्यूट में प्रोफेसर है उसने DNA के अनुसार मुसलमानों का रिसर्च किया और कहा बहुसंख्य मुसलमानों का DNA SC ST OBC से मिलता है।
भारत में जो आज की तारीख में आप मुसलमान देख रहे हो ये मुसलमान मुगलों की प्रजा हुआ करती थी।
बहादुरशाह ज़फर मुगलों का आखिरी राजा था भारत में, उस वक़्त तात्या टोपे देश भर में घूम के श्रेष्ठ ब्राह्मणों की सहमति ली और सहमति लेकर वो बहादुरशाह ज़फर के पास गया और बहादुरशाह ज़फर को कहा देश के समस्त श्रेष्ठ ब्राह्मणों की आम राय ये है कि बहादुरशाह ज़फर को अंग्रेज़ो के विरोध में जो आंदोलन चलाया जाने वाला है उसका नेतृत्व करने का अधिकार बहादुरशाह ज़फर को देना चाहिए और आंदोलन हथियारबंद होना चाहिए अंग्रेज़ो को भगाना बगैर हथियारों के मुमकिन नहीं हैं और हथियार तो राजा के पास ही होंगे।
तो बहादुरशाह ज़फर को एक और मौलिक कारण था की ब्राह्मणों ने बहादुरशाह ज़फर को अपना नेता तस्लीम क्यूँ किया क्योंकि ब्राह्मणों को ये आश्वासन था मुगलों के राज़ में 40% हिस्सेदारी ब्राह्मणों और राजपूतों की थी यदि अंग्रेज़ों को परास्त करने में हम कामयाब हो जाते हैं और ब्राह्मण और मुगलों का गठबंधन कामयाब हो जाता है तो ब्राह्मणों को ये गारंटी थी की अगर बहादुरशाह ज़फर अगर सफल होते हैं तो उन के राज में ब्राह्मणों को हिस्सेदारी मिलेगी।
दूसरा भी एक कारण था कि अगर पकड़ा जाता तो बहादुरशाह ज़फर को फाँसी की सज़ा होती ब्राह्मणों को कुछ नहीं होता।
अंग्रज़ों ने अभ्यास किया अध्यन किया कि भारतीय प्रजा इस आंदोलन में शामिल नहीं है इसलिए अंग्रेज़ों ने हथियारबंद आंदोलन को हथियारों के द्वारा कुचलने का निर्णय किया और उसमें सफल हुए और भारतीय प्रजा शामिल क्यूँ नहीं थी? क्यूंकि ब्राह्मणों और मुगलों ने जो गठबंधन बनाया था उसमें उन्होंने भारतीय प्रजा को कोई आश्वासन नहीं दिया था जैसा गांधी ने दिया था, गाँधी का आश्वासन पालन करने के लिए नहीं बल्कि सपोर्ट हासिल करने के लिए दिया आश्वासन था लेकिन ऐसा आश्वासन भी मुगलों और ब्राह्मणों ने भारतीय प्रजा ने नहीं दिया था की यदि हम अंग्रेज़ों को परास्त करने में कामयाब हो गए तो कामयाब होने के बाद देश में लोकतंत्र लागू होगा, संविधान लागू होगा, लोगों को मौलिक अधिकार मिलेंगे, मानवता के अधिकार मिलेंगे।
इस आंदोलन को कुचलने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी से अंग्रेज़ों ने अधिकार अपने हाथ में ले लिया 1860 में इंडियन पीनल कोड लागू किया, इंडियन पीनल कोड में एक व्यवस्था थी राज्य के विरोध में अगर कोई राजद्रोह करता है तो उसे फांसी या आजीवन कारावास की सज़ा होगी, 1860 का इंडियन पीनल कोड अंग्रेज़ो ने लागू किया और आज भी लागू है।
1860 में इंडियन पीनल कोड लागू होने से ब्राह्मणों के अंदर भयंकर डर और भय बैठ गया की 15 साल तक 1860 से लेकर 1875 तक ब्राह्मणों ने सामूहिक रूप से कुछ भी नहीं किया,
15 साल बाद 1875 में राजकोट का रहने वाला ब्राह्मण दयानंद सरस्वती बॉम्बे आया और आर्य समाज नाम का एक धार्मिक संगठन बनाया नकि हिन्दू समाज और दयानंद सरस्वती हिन्दू को उस वक़्त भी नहीं मानते थे और आर्य समाज के लोग आज भी नहीं मानते और वो कहते थे कि हिन्दू मुगलों की दी हुई गाली है और ये हमें बर्दाश्त नहीं।

मंगलवार, 15 अक्तूबर 2019

घर से बेघर हुए हम...


राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)
कभी यह धन, धरती उनकी थी जिनको देश की ब्राह्मणवादी व्यवस्था में घर से बेघर कर दिया गया है. जनगणना 2011 के मुताबिक, देश में कुल 17,73,040 लोग बेघर हैं, जिनमें 86.6 फीसदी एससी, एसटी और आबीसी समूह के लोग हैं. जबकि, 7.8 फीसदी मुस्लिम और 5 फीसदी ईसाई के लोग शामिल हैं. अगर, इनको अगल-अलग श्रेणियों में देखा जाय तो अध्ययन के अनुसार, घर से बेघर होने वालों में 35.6 फीसदी एससी, 23 फीसदी एसटी और 21.4 फीसदी ओबीसी समूह से हैं. सरकारें बेघर लोगों के लिए बड़े-बड़े तो दावे करती हैं, लेकिन यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि इन बेघर लोगों पर कई सरकारी योजनाएं लागू नहीं हो पाती है. 10 अक्टूबर, 2019 को ‘विश्व बेघर दिवस’ पर इंडो ग्लोबल सोशल सर्विस सोसाइटी (आईजीएसएसएस) ने एक प्रेस कान्फ्रेंस करके मीडिया के सामने देश के पाँच राज्यों के 15 शहरों में बेघरों पर एक सर्वेक्षण रिपोर्ट जारी किया. सर्वेक्षण रिपोर्ट के आँकड़े बिहार के पटना, मुज़फ्फरपुर, गया शहर, झारखंड के रांची, धनबाद, जमशेदपुर शहर, आंध्रप्रदेश के विशाखापट्टनम, विजयवाड़ा, गुंटूर, तमिलनाड़ु के चेन्नई, कोयंबटूर, मदुरै शहर और महराष्ट्र मुंबई, पुणे, नासिक शहरों के कुल 4382 बेघर लोगों के अध्ययन पर आधारित है.

 बेघरों पर आइजीएसएसएस का अध्ययन बेघरों के प्रति तमाम सामाजिक पूर्वाग्रहों को ध्वस्त करता है. जैसे एक सामान्य सी धारणा है कि बेघर लोग प्रवासी लोग हैं. जबकि, अध्ययन बताता है कि सिर्फ 40 प्रतिशत बेघर ही प्रवासी हो सकते हैं, लेकिन 60 प्रतिशत बेघर उसी शहर में जन्म लिया है. बेघरों को लेकर एक पूर्वाग्रह ये भी होता है कि वे नशेड़ी होते हैं, भीख मांगते हैं और अपराधी होते हैं. जबकि, अध्ययन में बताया गया है कि 81.6 प्रतिशत बेघर लोगों के पास कुछ न कुछ आय का स्त्रोत है. जबकि, 18.4 प्रतिशत बेघरों के पास आय का कोई स्त्रोत नहीं है. आंकड़े बताते हैं कि बेघरों में 23.6 प्रतिशत निर्माण मजदूर हैं. 6.9 प्रतिशत शादी पार्टी में वेटर का काम करते हैं, 5.4 प्रतिशत रिक्शा चलाते हैं. 4.1 प्रतिशत सफाईकर्मी, 3.6 प्रतिशत वेंडर, 3.2 प्रतिशत पल्लेदारी और 6 प्रतिशत घरेलू कामगार हैं. वहीं 10.7 प्रतिशत कबाड़ी का काम करते हैं, 6.3 प्रतिशत ट्रैफिक-लाइट वेंडर हैं. जबकि, 17.5 प्रतिशत बेघर ही भीख मांगते हैं. यह भी चौंकाने वाले बात है कि भीख मांगकर गुज़ारा करने वाले बेघरों में से अधिकांश को शहर की कंपनियों, दुकानों, कारखानों में काम नहीं मिला. यही नहीं कईयों ने फुटपाथ पर रेहड़ी लगाकर छोटा-मोटा धंधा जमाने की कोशिश की तो म्युनिसिपैलिटी ने उन्हें मारकर भगा दिया. जो काम न मिले और छोटा धंधा भी न करने दिया जाए तो बेघर लोग क्या करें? जब उन्हें कारखाने फुटपाथ पर काम नहीं मिलता है तो वे मंदिरों की ओर रुख करते हैं.

रिपोर्ट के अनुसार, बेघरों में 54 प्रतिशत पुरुष और 46 प्रतिशत स्त्रियाँ हैं. अमूमन एक अवधारणा ये भी होती है कि बेघर लोग निरक्षर होते हैं. जबकि, अध्ययन में 53 प्रतिशत बेघरों को साक्षर पाया गया, वहीं 47 प्रतिशत बेघर निरक्षर हैं. सरकारें जन-धन योजना के तहत लाखों मुफ्त खाते खुलवाने का दावा करती है. लेकिन, 70 प्रतिशत बेघरों के पास बैंक एकाउंट तक नहीं है. इसलिए 66 फीसदी बेघर बचत का पैसा अपने पास रखते हैं. 4 प्रतिशत लोग इंपलॉयर के पास ही अपना पैसा छोड़ देते हैं. जबकि, कुछ लोग अपने पैसे दुकानदारों के पास छोड़ देते हैं. अध्ययन के अनुसार 82.1 फीसदी बेघरों को दिहाड़ी के रूप में पेमेंट मिलता है, 11.2 फीसदी को महीना, जबकि 6.2 फीसदी को साप्ताहिक पेमेंट मिलता है. इसी तरह सरकार देश को बाहर शौच मुक्त करने का ढिंढोरा पीटती है. जबकि, बेघर लोगों में से 30 प्रतिशत लोग शौच जाने के लिए हर बार पैसे खर्च करते हैं.

यह रिपोर्ट और ज्यादा चौंकाने वाली है. क्योंकि, इन बेघरों में 86.6 फीसदी एससी, एसटी और आबीसी हैं. जबकि, 7.8 फीसदी मुस्लिम और 5 फीसदी ईसाई के लोग हैं. यही नहीं अगर, इनको अगल-अलग श्रेणियों में देखा जाय तो रिपोर्ट के अनुसार, बेघरों में एससी 35.6 फीसदी, 23 फीसदी एसटी और 21.4 फीसदी ओबीसी समुदाय से हैं. जबकि, 29.5 प्रतिशत बेघर लोगों के पास अपने पहचान से जुड़ा एक भी दस्तावेज़ नहीं है. वहीं 66.4 प्रतिशत बेघरों के पास आधार कार्ड है. ध्यान रहे आधार कार्ड नागरिकता का प्रमाण नहीं है. 39.5 प्रतिशत लोगों के पास मतदाता पहचानपत्र है. इसी तरह से बेघरों में 78.9 फीसदी लोगो ने बेरोजगार और गरीबी को बेघर का कारण बताया है तो 13.7 फीसदी ने घरेलू झगड़े, 4.7 फीसदी विवाह और 5 फीसदी से ज्यादा विस्थापन के चलते बेघर हुए हैं. रिपोर्ट में 95 फीसदी बेघर पुरुषों और 37.6 फीसदी स्त्रियों ने माना है कि उनका उत्पीड़न हुआ है. यही नहीं पुलिस का आतंक भी बेघरों पर कहर बनकर टूटता है. बेघरों पर 67 फीसदी पुलिस और 39 फीसदी असमाजिक तत्व करते हैं. शहरों के सौंदर्यीकरण, सार्वजनिक निर्माण, स्मार्ट सिटी और शहर को स्लम-मुक्त बनाने के उद्देश्य से चलाए जाने वाले परियोजनाओं तथा शहर में वीआईपी ट्रैफिक, इवेंट और स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस के आयोजनों के चलते लगातार एक नियमित पैटर्न में 70 फीसदी बेघर लोग पुलिस और म्युनिसिपल कार्पोरेशन द्वारा बार-बार बेदखल किए जाते हैं.

बेघरों के लिए रात गुजारने के लिए सरकार के पास रैन बसेरा योजना है. लेकिन, 88 फीसदी बेघरों को रैनबसेरे में पहुंचाने की कोई योजना नहीं है, जिससे उनको पता ही नहीं चल पाता है कि कहीं रैनबसेरा भी है. जिसके कारण 88 फीसदी में से 42 फीसदी बेघर सोने के लिए फुटपाथ, 30 फीसदी रेलवे स्टेशन, 15 फीसदी पुल और ओवरब्रिज और 2 फीसदी बेघर लोग रिक्सों, बसों के नीचे ही सोने के लिए मजबूर हैं. अध्ययन में यह भी पाया गया कि 95 फीसदी बेघर अपनी कमाई का सबसे बड़ा हिस्सा खर्च खाने पर करते हैं. जबकि, 31.9 फीसदी शौचालय, 34.6 फीसदी कपड़ों, 17.6 फीसदी नहाने की सुविधाओं और 19 फीसदी बेघर आज यहाँ कल वहाँ आने-जाने की यात्रा पर खर्च करते हैं. जबकि, बेघरों की औसत कमाई 100-200 रुपए के बीच होती है. अगर, बेघरों के स्वास्थ्य सुविधाओं की बात करें तो 58 फीसदी बेघरों को स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित रहना पड़ता है. वास्तव में यह वो सच्चाई है जो देश के तथाकथित आजादी से कांग्रेस और बीजेपी ने किया है. जमीनी हकीकत यह है कि भारत देश की यह धन-धरती इन्हीं 17,73,040 बेघरों की है जिन्हें ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने घर से बेघर किया है. 

सोमवार, 14 अक्तूबर 2019

कबीरदास रामानंद के शिष्य नहीं





डॉ. मोहन सिंह की किताब के आधार पर यह तथ्य उभरकर आता है कि रामानंद (ब्राह्मण) के शिष्य कबीर नहीं थे। डॉ. मोहन सिंह की किताब "KABIR--HIS BIOGRAPHY" आत्मा राम एंड संस, लाहौर से 1934 ई0 में छपी थी। डॉ. मोहन सिंह ने "भारत मत दर्पण" के आधार पर बताया है कि रामानंद की मृत्यु 1354 ई0 में हो गयी थी और कबीर का जन्म तो 1398 ई0 में सर्व विदित है। इस प्रकार रामानंद कबीर के जन्म से करीब 44वर्ष पूर्व ही गुजर गए थे तो फिर रामानंद के शिष्य कबीर कैसे हुए ?

कबीर ने तो साफ लिख दिया है कि मेरा गुरू "विवेक" है - "कह कबीर मैं सो गुरू पाया जाका नाउ बिबेको।" जो लोग "कासी में हम प्रगट भए हैं रामानंद चेताए" के आधार पर रामानंद को कबीर का गुरू बताते हैं, उन्हें जानना चाहिए कि 'प्रगट भए' यह कबीर की शैली नहीं है, यह पौराणिक शैली है और ऐसी बात कबीर की जीवनी लेखक ही कह सकता है, स्वयं कबीर कि हम काशी में प्रगट भए। चेला वह जिसकी शिक्षाएँ अपने गुरु की शिक्षाओं से मिलती जुलती हों। क्या जुलाहा कबीर की शिक्षाएं ब्राह्मण रामानंद की शिक्षाओं से मेल खाती हैं ?

शनिवार, 12 अक्तूबर 2019

कैसे पढ़ेंगी बेटियाँ....?



देश में जहाँ 55 प्रतिशत लड़कियाँ शिक्षा से दूर हैं तो वहीं दूसरी तरफ देश में स्कूल जाने वाली बच्चियों में से 76 फीसदी और स्कूल छोड़ने वाली बच्चियों में से 90 फीसदी बच्चियाँ घरेलू कामों में शामिल होती हैं. स्कूल छोड़ने वाली हर चार लड़कियों में से एक बच्ची घर के लिए पैसे कमाती है और हर दस में से एक लड़की घर में छोटे बच्चों का खयाल रखती हैं. इससे भी ज्यादा चौंकाने वाली बात तो यह है कि 25 प्रतिशत बच्चियाँ स्कूल इसलिए नहीं जा पाती हैं क्योंकि, स्कूल उनके घर से ज्यादा दूर है. यह उस भारत की हकीकत पेश करती तस्वीर है जिस भारत में ‘‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’’ के नारे लगाये जाते हैं. जबकि, भारत में बेटियों के सुरक्षित होने की बात करें तो भारत में यही बेटियाँ कितनी सुरक्षित हैं? यह किसी से छुपा नहीं है, इसे बताने की जरूरत नहीं है. इस बात का खुलासा तब हुआ जब एक सर्वे ने रिपोर्ट जारी किया.

14 साल की पूजा हफ्ते में 2 या 3 दिन ही स्कूल जा पाती है. उससे पूछो कि क्या बनना चाहती है तो अपने किताब में बनी रॉकेट की तस्वीर दिखाते हुए कहती है कि वैज्ञानिक बनना है. लेकिन, फिर उसके चेहरे पर मायूसी छा जाती है. क्योंकि, वह हर रोज स्कूल नहीं जा पाती है. पिता मजदूर हैं, बड़ी मुश्किल से घर चलाते हैं. उसे अपने दो छोटे भाई-बहनों का ख्याल रखना पड़ता है. इसलिए कभी-कभार ही स्कूल जाना हो पाता है. ये कहानी सिर्फ एक बच्ची की नहीं है. बल्कि, ऐसी कई बेटियाँ हैं देश में जो स्कूल नहीं जा पाती हैं. यही नहीं उनके माता-पिता भी मजबूरी में उन्हें स्कूल नहीं भेज पाते हैं. देश में स्कूल जाने वाली बच्चियों की हालत बहुत अच्छी नहीं हैं. ये बच्चियाँ स्कूल जाने के बजाय घर के कामों में लगी रहती हैं, घर के लिए पैसे कमाती हैं. साथ ही घर में छोटे बच्चों का ख्याल भी रखती हैं. बड़ी मुश्किल से ही प्राइमरी स्कूल तक जा पाती हैं.

देश में स्कूल जाने वाली बच्चियों में से 76 फीसदी और स्कूल छोड़ने वाली बच्चियों में से 90 फीसदी बच्चियाँ घरेलू कामों में शामिल होती हैं. स्कूल छोड़ने वाली हर चार लड़कियों में से एक बच्ची घर के लिए पैसे कमाती है और हर दस में से एक लड़की घर में छोटे बच्चों का ख्याल रखती हैं. यह खुलासा हुआ गैर सरकारी संस्थान चाइल्ड राइट्स एंड यू (सीआरवाई) की रिपोर्ट एजुकेटिंग द गर्ल चाइल्ड ने किया है. सीआरवाई ने देश के चार हिस्सों से चार राज्य चुने, जिनमें बिहार, आंध्र प्रदेश, गुजरात और हरियाणा शामिल है. इन सभी राज्यों के 20-20 गाँवों का अध्ययन किया गया, साथ ही इन गाँवों के जिलों में भी अध्ययन किया गया. रिपोर्ट के अनुसार, 14 साल की उम्र से पहले ही दो तिहाई बच्चियाँ स्कूल छोड़ देती हैं. सिर्फ 58 फीसदी बच्चियाँ ऐसी होती हैं जो अपर प्राइमरी लेवल तक जा पाती हैं. स्कूल जाने वाली बच्चियों में से 49.4 फीसदी उन परिवारों से हैं, जिनकी आय 5 हजार रुपए प्रति माह या उससे कम है. स्कूल छोड़ने वाली सभी बच्चियों में से 89 प्रतिशत लड़कियों के परिवारों की मासिक आय 10 हजार या उससे कम है. स्कूल छोड़ने वाली बच्चियों के माता-पिता आखिर उनसे कराना क्या चाहते हैं?

रिपोर्ट के मुताबिक, बिहार में स्कूल छोड़ने वाली सभी बच्चियों में से 20 फीसदी बच्चियों के माता पिता उनकी जल्दी शादी कराना चाहते हैं. गुजरात में यह दर 3.9 फीसदी, आंध्र प्रदेश में 21.2 फीसदी और हरियाणा में 11.7 फीसदी है. वहीं गुजरात में स्कूल छोड़ने वाली बच्चियों में से 95.4 फीसदी बच्चियों के माता-पिता उन्हें घर के कामों में व्यस्त कर देते हैं. हरियाणा में यह दर 81.7 फीसदी, आंध्र प्रदेश में 72.7 फीसदी और बिहार में 60 फीसदी है. जबकि, हरियाणा में स्कूल छोड़ने वाली कुल बच्चियों में से 20 फीसदी बच्चियों के माता-पिता उन्हें घर पर छोटे भाई-बहनों का ख्याल रखने के लिए कह देते हैं. गुजरात में यह दर 16.9 फीसदी, आंध्र प्रदेश में 12.1 फीसदी और बिहार में 16.9 फीसदी है. यही नहीं गुजरात में स्कूल छोड़ने वाली कुल बच्चियों में से 64.6 फीसदी बच्चियों के माता-पिता उन्हें घरेलू व्यवसाय में लगा देते हैं. आंध्र प्रदेश में यह दर 30.3 फीसदी, हरियाणा में 18.3 फीसदी और बिहार में 14.3 फीसदी है. साथ ही आंध्र प्रदेश में स्कूल छोड़ने वाली कुल बच्चियों में से 30.3 फीसदी बच्चियों के माता-पिता उन्हें घर से बाहर काम में लगा देते हैं. ताकि घर की आमदनी बढ़े. गुजरात में यह दर 7.7 फीसदी, बिहार में 7.1 फीसदी और हरियाणा में 5 फीसदी है.

अगर, बिहार की बात करें तो बिहार में स्कूल छोड़ने वाली कुल बच्चियों में से 28.6 फीसदी बच्चियों के माता-पिता उन्हें घर में खाली बिठा देते हैं. गुजरात में यह दर 27.7 फीसदी है. हरियाणा में 18.3 फीसदी और आंध्र प्रदेश में 6.1 फीसदी है. जबकि, हरियाणा में स्कूल छोड़ने वाली कुल बच्चियों में से 13.3 फीसदी बच्चियों के माता-पिता उन्हें वोकेशनल ट्रेनिंग में लगा देते हैं. गुजरात में यह दर 5.4 फीसदी है, वहीं आंध्र प्रदेश और बिहार में जीरो फीसदी है. हालांकि, रिपोर्ट में यह भी पाया गया है कि स्कूल छोड़ने का फैसला करने वाली लड़कियों में से 54 फीसदी ने स्कूल छोड़ने का फैसला खुद लिया. गुजरात में 61 फीसदी, हरियाणा में 53 फीसदी, आंध्र प्रदेश में 42 फीसदी और बिहार में 40 फीसदी लड़कियों ने स्कूल छोड़ने का फैसला खुद किया. जबकि, उसी रिपोर्ट में पाया गया है कि देश भर में स्कूल छोड़ने वाली लड़कियों में से 21 फीसदी लड़कियों ने पैसे की कमी से स्कूल छोड़ने का फैसला किया. आंध्र प्रदेश में 61 फीसदी फीसदी, बिहार में 51 फीसदी, हरियाणा में 18 फीसदी और गुजरात में 4 फीसदी लड़कियों ने पैसे की कमी से स्कूल छोड़ दिया.

बता दें कि ऊपर ही बताया जा चुका है कि इन मामलों में सबसे ज्यादा गरीब, कमजोर वर्ग यानी एससी, एसटी, ओबीसी और मायनॉरिटी की बच्चियाँ ही शामिल हैं. इनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य की बच्चियाँ शामिल नहीं हैं. यही कारण है कि उनकी, गरीबी और बड़े परिवार के नाते 3. 55.1 फीसदी लड़कियों को छोटे भाई-बहनों का ख्याल रखना होता है. यही बात सर्वे में पाया गया है कि देश भर में स्कूल छोड़ने वाली लड़कियों में से 55.1 फीसदी लड़कियों को छोटे भाई-बहनों का ख्याल रखने के लिए स्कूल छोड़ना पड़ता है. आंध्र प्रदेश में यह संख्या 69.7 फीसदी, गुजरात में 67.7 फीसदी, हरियाणा में 33.3 फीसदी और बिहार में 31.5 फीसदी लड़कियों ने इसी कारण स्कूल छोड़ती हैं.

सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात तो यह है कि केन्द्र से लेकर राज्य सरकारें शिक्षा के क्षेत्र में विकास का ढोल पीटती है. जबकि, कई लाख गाँवों में एक भी स्कूल नहीं हैं तो कहीं कई लाख गाँवों में महज 100 टीचरों के सहारे एक हजार स्कूल चल रहे हैं. अगर, कुछ गाँवों में स्कूल भी हैं तो इतने दूर हैं कि वहाँ जल्दी बच्चे पहुंच नहीं पाते हैं. ऐसे मामलों में 25.2 फीसदी लड़कियाँ स्कूल इसलिए छोड़ती हैं क्योंकि स्कूल दूर होते हैं. रिपोर्ट के मुताबिक, देश भर में स्कूल छोड़ने वाली लड़कियों में से 25.2 फीसदी लड़कियाँ स्कूल दूरी की वजह से स्कूल छोड़ देती हैं. गुजरात में 33.8 फीसदी, आंध्र प्रदेश में 21.2 फीसदी, हरियाणा में 16.7 फीसदी और बिहार में 11.4 फीसदी लड़कियाँ इसीलिए स्कूल छोड़ देती हैं. इसी तरह से देश भर में स्कूल छोड़ने वाली लड़कियों में से 17.4 फीसदी लड़कियाँ स्कूल इसलिए छोड़ती हैं. क्योंकि, उन्हें स्कूल जाने के लिए कोई मोटिवेशन नहीं मिलता. गुजरात में ऐसे बच्चियों की संख्या 26.2 फीसदी, बिहार में 14.3 फीसदी, हरियाणा में 6.7 फीसदी और आंध्र प्रदेश में 6.1 फीसदी लड़कियाँ इसीलिए स्कूल छोड़ देती हैं. कुल मिलाकर यह उस भारत की तस्वीर है जिस भारत में सरकार द्वारा ‘‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’’ के नारे लगाए जाते हैं और हजारो योजनाएं चलाई जाती हैं. 

बाबासाहेब के पैर छूते हुए मि.गांधी- एक वायरल तस्वीर की पड़ताल



1. इस तस्वीर में बाबासाहेब डॉ0 अम्बेडकर अपने दूसरे विवाह के करीब दो माह पश्चात पिकनिक मनाने के लिए अपने कुछ मित्रों सहित "ओखला" नामक पिकनिक स्पॉट पर गये थे। वहीं एक पेड के नीचे चबूतरे पर आराम फरमाने हेतु बाबा साहेब और उनकी पत्नी डॉ0 सविता अम्बेडकर (शारदा कबीर) बैठे हुए हैं। दोनों के मध्य सविता माई की लाडली कुतिया "मोहिनी" है तथा इन सबके पीछे सविता माई के भाई मुरलीधर कबीर खडे हैं। बाबासाहेब का दूसरा विवाह सिविल मैरिज एक्ट के अंतर्गत आवश्यक कागजातों के साथ बंगले पर ही आये हुए दिल्ली के डिप्टी कमिश्नर एम. एस. रंधावा की उपस्थिति में डॉ0 शारदा कबीर के साथ 15अप्रैल 1948 दिन बृहस्पतिवार को 01हार्डिंग एवेन्यू (वर्तमान में तिलक मार्ग), नई दिल्ली में संपन्न हुआ था। यह बंगला बाबासाहेब को कानून मंत्री के नाते आवास हेतु मिला हुआ था। विवाह में शामिल होने वालों में बाबासाहेब के अनन्य सहयोगी एवं सविता माई के परिवारीजन सहित कुल 16स्त्री पुरुष थे।

2. भारत में नमक पर कर (टैक्स) आरंभिक काल से लगाया जाता रहा है। किन्तु वायसराय लार्ड रीडिंग के समय 1923 में नमक पर दोगुना कर लगा दिया गया तथा 1927 में लार्ड इरविन के समय नमक पर एकाधिकार कर लिया गया अर्थात अब भारत के लोग नमक बना भी नहीं सकते थे। उस नमक कानून को तोडने के उद्देश्य से मि0गांधी द्वारा अपने 78 अनुयायियों के साथ प्रातः 06:30 बजे से 12मार्च 1930 को साबरमती आश्रम, अहमदाबाद, गुजरात से यात्रा प्रारंभ की गयी जो 05अप्रैल1930 को अरब सागर के किनारे बसे गांव दांडी, तालुका जलापुर, जिला नवसारी, गुजरात पहुंची। यह 24 दिन का दांडी मार्च 340 कि.मी. की दूरी तय करके पैदल यात्रा की गयी थी। दांडी मार्च को देखते हुए अंग्रेजों द्वारा सारा नमक कीचड में फेंकवा दिया गया। दांडी पहुंचकर मि0गांधी द्वारा दूसरे दिन 06अप्रैल 1930 को प्रातः 06:30 पर कीचड से सना नमक उठाकर उसका क्रिस्टलीकरण करके समुद्र तट पर नमक बनाकर नमक कानून तोडा गया। हांलाकि, बाद में नेहरू की अंतरिम सरकार ने 1946 में नमक से कर हटाया। मि0गांधी ने कीचड से सना नमक उठाया, देखने में यह एक मामूली सी घटना थी किन्तु इसका असर व्यापक हुआ। इस तस्वीर में नमक उठाते हुए मि0गांधी और उनके पीछे मिथुबेन होर्मसजी पेटिट (गांधीजी की एक पारसी महिला अनुयायी, बॉम्बे), मि0गांधी के पुत्र मणिलाल गांधी तथा अन्य अनुयायी खडे हैं।

3. इस तस्वीर में मि0गांधी बाबासाहेब के पैर छूते हुए दिखाई दे रहे हैं। यह तस्वीर असली नहीं है बल्कि यह किसी खुराफाती और बेकार दिमाग की उपज है। हालांकि, फोटो में साफ-साफ दिख रहा है कि मि0गांधी बाबासाहेब के पैर छू रहे हैं लेकिन ये सच नहीं है। इस तस्वीर में फोटोशॉपियों की खुराफात है। दरअसल, यह तस्वीर दो अलग-अलग तस्वीरों से मिलाकर बनाई गई है। दोनों को किसी फोटोशॉपर ने जोड़ दिया है। एक तस्वीर में बाबासाहेब अम्बेडकर सविता माई के साथ बैठे हैं तथा दूसरी तस्वीर में मि0गांधी डांडी में नमक उठा रहे हैं। फोटो बनाने वाले ने अम्बेडकर की फैमिली और मि0गांधी की नमक उठाते हुए फोटो को फोटोशॉप के जरिए मि0गांधी को बाबासाहेब के पैर छूते हुए दिखा दिया। आप खुद सोंचें कि बाबासाहेब का दूसरा विवाह 15अप्रैल 1948 को हुआ और उसके ढाई महीने पहले ही अर्थात 30 जनवरी 1948 को मि0गांधी की हत्या हो गयी थी, तो ऐसे में सविता माई के साथ बैठे हुए बाबासाहेब मि0गांधी को कब और कैसे मिले ?

4. दांडी मार्च के संबंध में कई बार भिन्न-२ वर्षों में भिन्न-२ मौकों पर भिन्न-२ मूल्य के भारत सरकार द्वारा डाक टिकट जारी किये जा चुके हैं, जिनमें दांडी मार्च की 75वीं वर्षगांठ पर दिनांक 06अप्रैल 2005 को भारत सरकार द्वारा 05 रूपये मूल्य की जारी यह डाक टिकट ज्यादा महत्वपूर्ण है। इस डाक टिकट पर 06अप्रैल 1930 को प्रातः कीचड में सना हुआ नमक उठाते हुए मि0गांधी को दिखाया गया है।

5. दांडी मार्च का असल मकसद बाबासाहेब द्वारा किये गये महाड सत्याग्रह खासतौर पर कालाराम मंदिर सत्याग्रह को काउण्टर करने का था। क्रांति सूर्य ज्योतिबा फुले के कट्टर अनुयायी रावबहादुर सीताराम केशव (सी.के.) बोले की पहल पर बॉम्बे विधान परिषद में 04अगस्त1923 को प्रस्ताव पारित हुआ कि सार्वजनिक स्थानों पर अछूतों के साथ होने वाले भेदभाव पर रोक लगायी जाए। बहुमत से पारित होने के बावजूद तीन साल तक यह प्रस्ताव कागज़ पर ही बना रहा। उसके अमल न होने की स्थिति में 05अगस्त1926 को जनाब बोले ने नया प्रस्ताव रखा कि सार्वजनिक स्थानों द्वारा अमल न करने की स्थिति में उनको दी जाने वाली सरकारी सहायता बंद कर दी जाय। इसके बाद बॉम्बे सरकार ने अपने सभी विभाग प्रमुखों को आदेश दिया कि बोले प्रस्ताव को कार्यरूप में परिणित किया जाय। इस आदेश के बाद कोलाबा (वर्तमान में रायगढ़) जिले के महाड़ नामक गांव की नगरपालिका ने चवदार तालाब के पानी का उपयोग करने का अधिकार अछूतों को दिया परन्तु महाड़ के सवर्ण हिन्दुओं का बहुमत नगरपालिका के निर्णय के विरूद्ध होने के भय से अछूत लोग तालाब के पानी को छूने का साहस न कर सके। 

ध्यान रहे, इसके पानी का उपयोग अछूतों के जानवर भी कर सकते थे किन्तु स्वयं अछूत लोग नहीं। रायगढ़ जिले के प्रमुख अछूतों के प्रयत्न से महाड़ में 19-20मार्च 1927 को डॉ0 अम्बेडकर की अध्यक्षता में बहिस्कृत हितकारिणी सभा (20जुलाई1924 को बाबासाहेब द्वारा स्थापित) का सम्मेलन आयोजित हुआ। महाराष्ट्र के कोने-कोने से एवं गुजरात से भी अछूत लोग महाड़ में नियत दिन पर पहुंचे। तपती दुपहरिया में लगभग पांच हजार की तादाद में वहां जमा जनसमूह ने चवदार तालाब की ओर कूंच किया। तालाब पर पहुंच कर बाबासाहेब ने सबसे पहले एक अंजुली पानी भरकर पिया और उसके बाद सभी ने। वहाँ पर उपस्थित भारी जनसमूह को संबोधित करते हुए बाबासाहेब ने कहा कि ‘क्या यहां हम इसलिये आये हैं कि हमें पीने के लिए पानी मयस्सर नहीं होता या यहां हम इसलिये आये हैं कि यहां के जायकेदार कहलाने वाले पानी के हम प्यासे हैं ? नहीं, दरअसल हम यहाँ इन्सान होने का अपना हक जताने आये हैं।’ 

अछूतों द्वारा चवदार तालाब पर पानी पीने की घटना से बौखलाये सवर्णों ने यह अफवा फैला दी कि चवदार तालाब को अपवित्र करने के बाद ये ‘अछूत’ वीरेश्वर मंदिर पर धावा बोलने वाले हैं। पहले से ही तैयार 500 सवर्ण युवकों की अगुआई में सभा स्थल पर लगे तम्बू कनातों पर हमला करके कई लोगों को घायल किया गया। सवर्णों की दृष्टि में अछूतों के छूने से चवदार तालाब भ्रष्ट हो गया था, इसलिए सवर्णों ने तालाब को शुद्ध करने की रश्म अदा की। 108घड़े जल, तालाब से निकाल कर बाहर फिकवाया था और पंचगव्य (गाय का गोबर, मूत्र, दूध, दही और घी) से भरे हुए उतने ही घड़े ब्राह्मण पुरोहितों के मंत्रोचारण के साथ तालाब में डालकर तालाब को शुद्ध किया गया। उधर महाड़ नगरपालिका ने सवर्ण हिन्दुओं के दबाव में आकर अपना वह प्रस्ताव, जिसके अनुसार तालाब अछूतों के लिये खोला गया था, 04अगस्त1927 को रद्द कर दिया। इसके बाद महाड़ के चन्द सवर्णों ने अदालत में जाकर यह दरखास्त दी कि यह ‘चवदार तालाब’ दरअसल ‘चौधरी तालाब’ है और यह कोई सार्वजनिक स्थान नहीं है, 

अदालत ने उनकी याचिका स्वीकार करते हुए 14दिसंबर1927 को स्टे अॉर्डर दे दिया। डॉ0 अम्बेडकर ने इस चुनौती को स्वीकार करते हुए एक सत्याग्रह समिति गठित की और सत्याग्रह के लिये 25दिसम्बर1927 की तारीख निश्चित की। लगभग 15000 अछूत लोग परिषद तथा सत्याग्रह के लिये महाड़ में एकत्रित हुए और सार्वजनिक रूप से मनुस्मृति का दहन किया। यह सवर्णों के कलेज पर एक करारी चोट थी। डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के आदेश को बैरिस्टर अम्बेडकर ने हाईकोर्ट में अपील करते हुए चवदार तालाब पर अछूतों के अधिकार का दावा किया। अंततः बॉम्बे हाई कोर्ट ने 17मार्च1937 को अछूतों के पक्ष में निर्णय दिया और इस प्रकार काफी कष्ट व कठिनाईयों के बाद डॉ0 अम्बेडकर को सफलता मिली। भारत के सामाजिक आन्दोलन में महाड़ क्रान्ति के नाम से जाने जाते चवदार तालाब के ऐतिहासिक सत्याग्रह को तथा उसके दूसरे दौर में मनुस्मृति दहन की चर्चित घटना को शोषितों के विमर्श में वही स्थान, वही दर्जा प्राप्त है जो हैसियत फ्रांसीसी क्रांति की यादगार घटनाओं से सम्बन्ध रखती है।

चवदार तालाब के पानी में लगी थी आग


क्रांति सूर्य ज्योतिबा फुले के कट्टर अनुयायी रावबहादुर सीताराम केशव बोले (सी.के. बोले/ S.K. BOLE) की पहल पर बॉम्बे विधान परिषद में 04अगस्त1923 को प्रस्ताव पारित हुआ कि सार्वजनिक स्थानों पर अछूतों के साथ होने वाले भेदभाव पर रोक लगायी जाए। बहुमत से पारित होने के बावजूद तीन साल तक यह प्रस्ताव कागज़ पर ही बना रहा। उसके अमल न होने की स्थिति में 05अगस्त1926 को जनाब बोले ने नया प्रस्ताव रखा कि सार्वजनिक स्थानों द्वारा अमल न करने की स्थिति में उनको दी जाने वाली सरकारी सहायता बंद कर दी जाय। इसके बाद बॉम्बे सरकार ने अपने सभी विभाग प्रमुखों को आदेश दिया कि बोले प्रस्ताव को कार्यरूप में परिणित किया जाय। इस आदेश के बाद कोलाबा (वर्तमान में रायगढ़) जिले के महाड़ नामक गांव की नगरपालिका ने चवदार तालाब के पानी का उपयोग करने का अधिकार अछूतों को दिया परन्तु महाड़ के सवर्ण हिन्दुओं का बहुमत नगरपालिका के निर्णय के विरूद्ध होने के भय से अछूत लोग तालाब के पानी को छूने का साहस न कर सके। ध्यान रहे, इसके पानी का उपयोग अछूतों के जानवर भी कर सकते थे किन्तु स्वयं अछूत लोग नहीं।

रायगढ़ जिले के प्रमुख अछूतों के प्रयत्न से महाड़ में 19-20मार्च 1927 को डॉ0 अम्बेडकर की अध्यक्षता में बहिस्कृत हितकारिणी सभा (20जुलाई 1924 को बाबासाहेब द्वारा स्थापित) का सम्मेलन आयोजित हुआ। महाराष्ट्र के कोने-कोने से एवं गुजरात से भी अछूत लोग महाड़ में नियत दिन पर पहुंचे। तपती दुपहरिया में लगभग पांच हजार की तादाद में वहां जमा जनसमूह ने चवदार तालाब की ओर कूंच किया। तालाब पर पहुंच कर बाबासाहेब ने सबसे पहले एक अंजुली पानी भरकर पिया और उसके बाद सभी ने। वहाँ पर उपस्थित भारी जनसमूह को संबोधित करते हुए बाबासाहेब ने कहा कि ‘क्या यहां हम इसलिये आये हैं कि हमें पीने के लिए पानी मयस्सर नहीं होता या यहां हम इसलिये आये हैं कि यहां के जायकेदार कहलाने वाले पानी के हम प्यासे हैं ? नहीं, 

दरअसल हम यहाँ इन्सान होने का अपना हक जताने आये हैं।’ अछूतों द्वारा चवदार तालाब पर पानी पीने की घटना से बौखलाये सवर्णों ने यह अफवा फैला दी कि चवदार तालाब को अपवित्र करने के बाद ये ‘अछूत’ वीरेश्वर मंदिर पर धावा बोलने वाले हैं। पहले से ही तैयार 500 सवर्ण युवकों की अगुआई में सभा स्थल पर लगे तम्बू कनातों पर हमला करके कई लोगों को घायल किया गया। सवर्णों की दृष्टि में अछूतों के छूने से चवदार तालाब भ्रष्ट हो गया था, इसलिए सवर्णों ने तालाब को शुद्ध करने की रश्म अदा की। 108घड़े जल, तालाब से निकाल कर बाहर फिकवाया था और पंचगव्य (गाय का गोबर, मूत्र, दूध, दही और घी) से भरे हुए उतने ही घड़े ब्राह्मण पुरोहितों के मंत्रोचारण के साथ तालाब में डालकर तालाब को शुद्ध किया गया। 

उधर महाड़ नगरपालिका ने सवर्ण हिन्दुओं के दबाव में आकर अपना वह प्रस्ताव, जिसके अनुसार तालाब अछूतों के लिये खोला गया था, 04अगस्त1927 को रद्द कर दिया। इसके बाद महाड़ के चन्द सवर्णों ने अदालत में जाकर यह दरखास्त दी कि यह ‘चवदार तालाब’ दरअसल ‘चौधरी तालाब’ है और यह कोई सार्वजनिक स्थान नहीं है, अदालत ने उनकी याचिका स्वीकार करते हुए 14दिसंबर 1927 को स्टे अॉर्डर दे दिया। डॉ0 अम्बेडकर ने इस चुनौती को स्वीकार करते हुए एक सत्याग्रह समिति गठित की और सत्याग्रह के लिये 25दिसम्बर1927 की तारीख निश्चित की। 

लगभग 15000 अछूत लोग परिषद तथा सत्याग्रह के लिये महाड़ में एकत्रित हुए और सार्वजनिक रूप से मनुस्मृति का दहन किया। यह सवर्णों के कलेज पर एक करारी चोट थी। डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के आदेश को बैरिस्टर अम्बेडकर ने हाईकोर्ट में अपील करते हुए चवदार तालाब पर अछूतों के अधिकार का दावा किया। अंततः बॉम्बे हाई कोर्ट ने 17मार्च1937 को अछूतों के पक्ष में निर्णय दिया और इस प्रकार काफी कष्ट व कठिनाईयों के बाद डॉ0 अम्बेडकर को सफलता मिली। भारत के सामाजिक आन्दोलन में महाड़ क्रान्ति के नाम से जाने जाते चवदार तालाब के ऐतिहासिक सत्याग्रह को तथा उसके दूसरे दौर में मनुस्मृति दहन की चर्चित घटना को शोषितों के विमर्श में वही स्थान, वही दर्जा प्राप्त है जो हैसियत फ्रांसीसी क्रांति की यादगार घटनाओं से सम्बन्ध रखती है।

मंगलवार, 8 अक्तूबर 2019

कांशीराम साहब के ‘कलम’ वाली परिभाषा की यादें


अपने कैडर में मान्यवर कांशीराम साहब एक बहुत दिलचस्प किस्सा बताते थे. इस किस्से के जरिए तमाम लोग मान्यवर साहब की बातों को अच्छी तरह से समझ जाते थे. असल में मान्यवर कांशीराम साहब जिस मूलनिवासी बहुजन समाज के लोगों के बीच काम कर रहे थे, जिन्हें जगा रहे थे उसका उस समाज को बहुसंख्यक हिस्सा गरीब और कम पढ़ा-लिखा था. उन्हें उनकी ही भाषा में समझाना जरूरी था, इसलिए कांशीराम साहब उनको उसी भाषा में समझाने के लिए किस्सों का सहारा लेते थे. इस लिहाज से कांशीराम साहब ऐसे-ऐसे किस्से ढूंढ़ लाते, जिससे बहुजन समाज के लोग उनकी बात आसानी से समझ जाते थे. जैसे बाबासाहब को वह टाई वाले बाबा कहते थे और महात्मा ज्योतिराव फुले को पगड़ी वाले बाबा कहकर संबोधित करते थे. जब वो मूलनिवासी बहुजन समाज को इनके बारे में बताते थे तो ऐसे संबोधन सुनकर सभी लोग तुरंत उनकी बातों को समझ जाते कि आखिर मान्यवर साहब किसके बारे में बात कर रहे हैं.

इसी तरह से कांशीराम साहब एक कलम के जरिए अपनी बात समझा रहे थे. हाथ में कलम लिए उनकी यह फोटो काफी चर्चित है. कांशीराम साहब यह पूछते कि कलम चलती कैसे है? लोग बताते थे कि स्याही या लीड से कलम चलती है. फिर कांशीराम साहब पूछते थे कि दिखता क्या है? जाहिर सी बात है मौजूद लोग पेन के कवर को बताते थे. कांशीराम साहब लोगों को फिर यह समझाते थे कि पेन का काम सिर्फ लिखना होता है और लिखने का काम पेन की लीड करती है. फिर वे बताते थे कि अगर पेन का कवर न हो तो भी पेन लिखता रहेगा. वे पेन की कवर को दिखाते हुए कहते थे कि असली ताकत दिखने वाले इस पेन की कवर में नहीं है, बल्कि लिखने वाली स्याही में है. अगर, पेन का कवर फेक दिया जाय तो भी पेन अपना काम करेगा. कवर तो सिर्फ दिखावे के लिए है.

कांशीराम साहब ने कलम दर्शन समझाते हुए बताते थे कि कलम का बड़ा हिस्सा पच्चासी परसेंट है और असली ताकत भी पच्चासी परसेंट के पास ही है और जो ऊपर का हिस्सा पेन का कवर है वह 15 परसेंट है. 15 परसेंट में कोई ताकत नहीं है वह सिर्फ दिखावे के लिए है. जब पचासी पर्सेंट काम करता है तो 15 परसेंट हिस्सा उसके सिर पर सवार हो जाता है और अपनी हुकूमत का एहसास कराता है. इसे वह मूलनिवासी बहुजन समाज से जोड़ते हुए कहते थे कि देश के 85 फीसदी मेहनतकश लोग ही देश की असली ताकत हैं, लेकिन ताकत होते हुए भी वह लाचार हैं. जबकि, 15 फीसदी लोगों के पास कोई ताकत नहीं है, लेकिन इसके बाद भी वे ताकतवर बने हैं और सत्ता पर कब्जा किये हैं. कांशीराम साहब की ऐसी ही परिभाषाओं ने मूलनिवासी बहुजन समाज को उसकी ताकत का अहसास कराया, जिसके बूते मूलनिवासी बहुजन समाज सत्ता के शिखर तक पहुंच सकी. 

आज वर्तमान समय में मूलनिवासी बहुजन समाज अपनी उसी ताकत को खोता जा रहा है. क्या आज मूलनिवासी बहुजन समाज को मान्यवर कांशीराम साहब की ‘कलम’ वाली परिभाषा याद है? इसी जरिए कांशीराम साहब समझाना चाहते थे कि लिखता कौन है (स्याही) यानी की असली ताकत किसके हाथ में है और दिखता कौन है (कवर) यानी बिना मेहनत किए कौन राजा बना बैठा है. बहुजन समाज के हर व्यक्ति को मान्यवर कांशीराम साहब द्वारा दी गई इस परिभाषा से सीख लेते हुए अपनी ताकत को पहचानना होगा. यही मूलनिवासी बहुजन समाज की उनके 13वीं स्मृति दिन पर सच्ची आदरांजलि होगी.