शनिवार, 5 अक्तूबर 2019

बाबासाहब अम्बेडकर और बौद्ध धम्म.....



"धर्म मनुष्य के लिए है न कि मनुष्य धर्म के लिए वरना मानसिक गुलामों के लिए धर्म एक अफीम है"
बुद्धं शरणं गच्छामि : मैं बुद्ध की शरण लेता हूं। धम्मं शरणं गच्छामि : मैं धम्म की शरण लेता हूं। संघं शरणं गच्छामि : मैं संघ की शरण लेता हूं। बौद्ध धम्म को हम मानवीय धम्म कह सकते हैं, क्योंकि बौद्ध धम्म ईश्वर को नहीं, मनुष्य को महत्व देता है। तथागत बुद्ध ने अहिंसा की शिक्षा के साथ ही अपने धम्म के अंग के तौर पर सामाजिक, बौद्धिक, आर्थिक, राजनैतिक स्वतंत्रता एवं समानता की शिक्षा दी है। उनका मुख्य ध्येय इंसान को इसी धरती पर इसी जीवन में विमुक्ति दिलाना था, न कि मृत्यु के बाद स्वर्ग प्राप्ति का काल्पनिक वादा करना। बुद्ध ने साफ कहा था कि उनका उपदेश स्वयं उनके विचार पर आधारित है, उसे दूसरे तब स्वीकार करें, जब वे उसे अपने विचार और अनुभव से सही पाएं। जिस प्रकार एक सुनार सोने की परीक्षा करता है, उसी प्रकार मेरे उपदेशों की भी परीक्षा करनी चाहिए। दूसरे किसी भी धर्म संस्थापक ने कभी यह बात नहीं कही। यही कारण है कि बाबासाहब ने दूसरे किसी धर्म को न अपना कर बौद्ध धम्म का ही चुनाव किया। डॉ0 अम्बेडकर के अनुसार बौद्ध धम्म नैतिकता पर आधारित, विज्ञान से संबंध रखने वाला धम्म है। फिर भी हम यदि बौद्ध ग्रंथों में कोई विवरण आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान के विरुद्ध पाते हैं तो बौद्ध होने के नाते हम उसे अस्वीकार करने के लिए स्वतंत्र हैं। ऐसी स्वतंत्रता अन्य किसी भी धर्म में नहीं है।

डॉ0 अम्बेडकर के अनुसार धर्म प्रत्येक समाज के लिए नैतिकता का निर्धारक तत्व होता है और उस समाज में अनुशासन बनाए रखने के लिए धम्म की कुछ शर्तें पूरी करनी होती है, जिसे विज्ञान सम्मत या बुद्धिसंगत होना चाहिए, साथ ही उसे स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के मूलभूत तत्वों को मान्य करना चाहिए। डॉ0 अम्बेडकर के अनुसार बौद्ध धम्म उक्त सभी कसौटियों पर खरा उतरता है। यद्यपि बौद्ध धम्म बहुत ही प्राचीन धम्म है और अपने ढाई हजार वर्षों की अवधि में अनेक उतार- चढ़ाव से गुजरा है, जिसकी कुछ समय के लिए तेजी से अवनति हुई, किन्तु बाबासाहब द्वारा सामूहिक धम्म स्वीकार आंदोलन के बाद भारत में यह तेजी से प्रसारित हुआ है। इस आंदोलन ने हम पिछड़ों को मनुष्य का दर्जा दिलाया है, जिससे हम कई तरह से स्वतंत्रता का अनुभव कर रहे हैं। इस धम्मक्रांति के कई वर्षों बाद भी जो समस्याएं हैं, उसका कारण है कि हम ये समझ ही नहीं पाए हैं कि डॉ0 अम्बेडकर ने बौद्ध धम्म ही क्यों चुना ? इसी तरह सामूहिक धमाम परिवर्तन के आंदोलन के महत्व को समझने में हमारी असफलता रही है, साथ ही इस आंदोलन को हम उस विशाल दृष्टिकोण से देख ही नहीं पातये, समझ ही नहीं पाये और यही कारण है कि हम अपने दायरे से ऊपर किसी महान कार्य करने की भावना से प्रेरित नहीं हो पाये व धम्मक्रांति के कार्य करने के बारे में विचार नहीं करते, उल्टे हम बहुत ही संकीर्णता से व्यक्तिगत मामलों में ही उलझे रहते हैं।

एक प्रश्न है, जिसका उत्तर प्रत्येक धर्म को अवश्य देना चाहिए कि शोषितों को पैरों तले कुचले लोगों के लिए वह किस तरह की मानसिक और नैतिक राहत पहुंचाता है ? क्या हिन्दू धर्म पिछड़े वर्गों और अछूत जातियों, जनजातियों के करोड़ों लोगों को कोई मानसिक और नैतिक राहत पहुंचाता है ? तय है ऐसा नहीं है। वर्तमान का समय बौद्ध धम्म के प्रचार-प्रसार के लिए बिल्कुल अनुकूल दिखाई देता है। एक समय था, जब धर्म के गुण और अवगुणों की परख करने का सवाल ही नहीं उठता था, इसलिए धर्म आदमी के उत्तराधिकार का अंग हुआ करता था, जो पैतृक संपत्ति प्राप्त करने योग्य भी है कि नहीं, का प्रश्न तो उठाया करते थे, लेकिन ऐसा कोई उत्तराधिकारी नहीं था जो यह प्रश्न करता कि क्या उसके माता-पिता का धर्म अपनाने योग्य है ? लगता है अब समय बदल चुका है। संसार भर में अब बहुत से लोगों में उत्तराधिकार में पाए जाने वाले धर्म के बारे में प्रश्न करने का अद्भुत साहस दिखाई देने लगा है, जिसके लिए कारण चाहे जो भी हों, यह सत्य है कि धर्म के बारे में लोगों के मन में जांच-पड़ताल करने की भावना पैदा हो चुकी है, इसलिए कौन सा धर्म अपनाने योग्य है, इस पर साहसपूर्वक प्रश्न किया जाने लगा है। ऐसी स्थिति में बौद्ध या बौद्ध राष्ट्रों को चाहिए कि बौद्ध धम्म का प्रचार-प्रसार करना अपना कर्तव्य मानते हुए यह मानना ही होगा कि नैतिकता का धर्म बौद्ध धम्म का प्रसार करना वास्तविक मानवता की सेवा करना है।

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