सोमवार, 7 अक्तूबर 2019

अशोक विजयादशमी की वास्तविक सच्चाई



राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)

विजयादश्मी (दशहरा) का कोई भी संबंध रामायण से नहीं है. बल्कि, विजयादश्मी का संबंध चक्रवर्ती सम्राट अशोक से है. विजयादश्मी (दशहरा) का वास्तविक नाम अशोक विजयादश्मी है. क्योंकि, रामायण का राम पुष्यमित्र शुंग और रावण राजा बृहद्रथ मौर्य है. दशहरा का वास्तविक नाम सम्राट अशोक विजयादशमी है. भारत में ‘सम्राट अशोक विजयादशमी’ के बौद्धों के पवित्र त्योहार को खत्म करने के लिए ब्राह्मणों ने षडयंत्र किया और विजयदश्मी (दशहरा) का नाम दे दिया. इस तरह से पराजित करने वाले दिन को ‘दशहरा’ नाम दिया गया और सम्राट अशोक विजयादशमी को गायब कर दिया गया. रावण का जो प्रतीक है उसमें रावण को 10 मुख का बताया गया. जबकि बौद्ध धम्म में दस परमिताओं, दस शीलों का बहुत अधिक महत्व है. इसके साथ मौर्य वंश के दशवें शासक सम्राट बृहद्रथ मौर्य को रावण के रूप में दस मुख वाला बता दिया. 8, 9 या 11 मुख का क्यों नहीं बताया? यही कारण है कि सम्राट अशोक विजयादशमी के त्योहार को समाप्त करने के लिए आर्यों ने दशहरा नामक त्योहार शुरू किया.

आर्यों के इस षडयंत्र को डॉ. बाबासाहब खत्म करना चाहते थे. इसलिए वे सोच समझकर, योजना बनाकर 14 अक्टूबर 1956 को जिस दिन अशोक विजयादश्मी के 2,500 साल पूरे हो रहे थे. यानी 1956 में 14 अक्टूबर को 2,500वीं सम्राट अशोक विजयादशमी आ रही थी. इसलिए बाबासाहब ने उस दिन को निर्धारित किया और लाखों अनुयायियों के साथ धम्म दीक्षा ली. तब लोगों को पता चला कि बाबासाहब ने जो 14 अक्टूबर 1956 को धम्म दीक्षा ली, वह सम्राट अशोक विजयादशमी के साथ जुड़ा हुआ है. इसका मतलब है कि डॉ.बाबासाहब अम्बेडकर अशोक विजयादश्मी के 2,500वें साल पर धम्म दीक्षा लेकर मूलनिवासी बहुजनों की विरासत को न केवल पूर्नजीवित कर दिया, बल्कि उसे बड़े पैमाने पर खड़ा भी कर दिया.

बता दें कि सम्राट अशोक के कलिंग युद्ध में विजयी होने के दसवें दिन मनाये जाने के कारण इसे अशोक विजयदशमी कहते हैं. इस दिन सम्राट अशोक ने बौद्ध धम्म की दीक्षा ली थी. विजय दशमी एक तरह से बौद्धों का पवित्र त्यौहार है. यह ऐतिहासिक सत्यता है कि महाराजा चक्रवर्ती सम्राट अशोक ने कलिंग युद्ध के बाद हिंसा का मार्ग त्यागकर बुद्ध धम्म अपनाने की घोषणा कर दी थी. बौद्ध बन जाने पर वह बौद्ध स्थलों की यात्राओं पर गए. तथागत बुद्ध के जीवन को चरितार्थ करने तथा अपने जीवन को कृतार्थ करने के निमित्त हजारों स्तुपों, शिलालेखों और धम्म स्तम्भों का निर्माण कराया. अशोक की इस धम्म विजय संकल्प से खुश होकर देश की जनता उन सभी स्मारकों को सजाया-सवारा तथा उसपर दीपोत्सव किया. यह आयोजन हर्षोलास के साथ 10 दिनों तक चलता रहा.

दसवें दिन सम्राट अशोक ने राजपरिवार के साथ पूज्य भंते मोग्गिलिपुत्त तिष्य से धम्म दीक्षा ग्रहण किया. सम्राट अशोक ने धम्म विजय को ही सबसे बड़ा विजय कहा. इस दिन सम्राट ने धम्म विजय का संकल्प लिया. सम्रोट अशोक कोई धर्म परिवर्तन नहीं किया, क्योंकि उनके पूवर्ज पहले से ही बौद्ध सम्राट थे, वे कभी भी हिन्दू नहीं थे. धम्म दीक्षा के उपरांत सम्राट अशोक ने प्रतिज्ञा किया कि आज के बाद वह शस्त्रों से नहीं, बल्कि शांति और अहिंसा से प्राणी मात्र के दिलों पर विजय प्राप्त करेंगे. इसीलिए सम्पूर्ण बौद्ध जगत इसे अशोक विजयादसमी के रूप में मनाने लगा. लेकिन, स्वार्थी पाखंडी, रूढ़िवादी और अंध विश्वासों को जन्म देने वाले ब्राह्मणों ने इसे काल्पनिक राम और रावण की कहानी बताकर हमारे इस महत्त्वपूर्ण त्यौहार पर कब्जा कर लिया और प्रचारित किया कि दसहरे के दिन ही राम ने रावण को मारा था.  

जहाँ तक दशहरे की बात है तो इससे जुड़ा तथ्य यह है कि चन्द्रगुप्त मौर्य से लेकर मौर्य साम्राज्य के अंतिम शासक बृहद्रथ मौर्य तक कुल दस सम्राट हुए. अंतिम सम्राट बृहद्रथ मौर्य के सेनापति ब्राह्मण पुष्यमित्र शुंग ने छल-कपट से हत्या कर दी और ‘शुंग वंश’ की स्थापना की. पुष्यमित्र शुंग ने जिस दिन बृहद्रथ की हत्या की उस दिन बड़े धूमधाम से उत्सव मनाया और उसी दिन को दशहरा के नाम पर प्रचारित कर दिया. इसके बाद ब्राह्मणों ने अशोक विजयदश्मी से ‘अशोक’ शब्द को हटाकर विजयदश्मी कर दिया. अशोक विजयदश्मी का ब्राह्मणीकरण करने के बाद ब्राह्मणों ने इस जश्न में मौर्य वंश के 10 सम्राटों के अलग-अलग पुतले न बनाकर एक ही पुतला बनाया और उसके 10 सर बना दिए और उसका दहन किया.

असल में विजयदश्मी (दशहरा) का कोई भी संबंध रामायण से नहीं है. बल्कि, विजयदश्मी का नाम अशोक विजयादश्मी है. चूंकि, ऊपर ही बताया जा चुका है कि रामायण का राम पुष्यमित्र शुंग और रावण मौर्य राजा बृहद्रथ है. इसलिए राम और रावण को मानने की बात ही गलत है. अगर आप रावण को मानते हैं तो आपको राम को भी मानना होगा. कुल मिलाकर अशोक विजयादशमी और उसके महत्व को खत्म करने के लिए ब्राह्मणों ने एक वैकल्पिक कार्यक्रम खड़ाकर रावण दहन की परंपरा शुरू की है. अगर, मूलनिवासी बहुजन समाज के लोग रावण को मानते हैं तो भी उनके अनुसार ‘रावण दहन’ के नाम पर वे अपने ही पूर्वजों को जलाते हैं और खुशी में जश्न मनाते हैं.

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