शनिवार, 12 अक्तूबर 2019

चवदार तालाब के पानी में लगी थी आग


क्रांति सूर्य ज्योतिबा फुले के कट्टर अनुयायी रावबहादुर सीताराम केशव बोले (सी.के. बोले/ S.K. BOLE) की पहल पर बॉम्बे विधान परिषद में 04अगस्त1923 को प्रस्ताव पारित हुआ कि सार्वजनिक स्थानों पर अछूतों के साथ होने वाले भेदभाव पर रोक लगायी जाए। बहुमत से पारित होने के बावजूद तीन साल तक यह प्रस्ताव कागज़ पर ही बना रहा। उसके अमल न होने की स्थिति में 05अगस्त1926 को जनाब बोले ने नया प्रस्ताव रखा कि सार्वजनिक स्थानों द्वारा अमल न करने की स्थिति में उनको दी जाने वाली सरकारी सहायता बंद कर दी जाय। इसके बाद बॉम्बे सरकार ने अपने सभी विभाग प्रमुखों को आदेश दिया कि बोले प्रस्ताव को कार्यरूप में परिणित किया जाय। इस आदेश के बाद कोलाबा (वर्तमान में रायगढ़) जिले के महाड़ नामक गांव की नगरपालिका ने चवदार तालाब के पानी का उपयोग करने का अधिकार अछूतों को दिया परन्तु महाड़ के सवर्ण हिन्दुओं का बहुमत नगरपालिका के निर्णय के विरूद्ध होने के भय से अछूत लोग तालाब के पानी को छूने का साहस न कर सके। ध्यान रहे, इसके पानी का उपयोग अछूतों के जानवर भी कर सकते थे किन्तु स्वयं अछूत लोग नहीं।

रायगढ़ जिले के प्रमुख अछूतों के प्रयत्न से महाड़ में 19-20मार्च 1927 को डॉ0 अम्बेडकर की अध्यक्षता में बहिस्कृत हितकारिणी सभा (20जुलाई 1924 को बाबासाहेब द्वारा स्थापित) का सम्मेलन आयोजित हुआ। महाराष्ट्र के कोने-कोने से एवं गुजरात से भी अछूत लोग महाड़ में नियत दिन पर पहुंचे। तपती दुपहरिया में लगभग पांच हजार की तादाद में वहां जमा जनसमूह ने चवदार तालाब की ओर कूंच किया। तालाब पर पहुंच कर बाबासाहेब ने सबसे पहले एक अंजुली पानी भरकर पिया और उसके बाद सभी ने। वहाँ पर उपस्थित भारी जनसमूह को संबोधित करते हुए बाबासाहेब ने कहा कि ‘क्या यहां हम इसलिये आये हैं कि हमें पीने के लिए पानी मयस्सर नहीं होता या यहां हम इसलिये आये हैं कि यहां के जायकेदार कहलाने वाले पानी के हम प्यासे हैं ? नहीं, 

दरअसल हम यहाँ इन्सान होने का अपना हक जताने आये हैं।’ अछूतों द्वारा चवदार तालाब पर पानी पीने की घटना से बौखलाये सवर्णों ने यह अफवा फैला दी कि चवदार तालाब को अपवित्र करने के बाद ये ‘अछूत’ वीरेश्वर मंदिर पर धावा बोलने वाले हैं। पहले से ही तैयार 500 सवर्ण युवकों की अगुआई में सभा स्थल पर लगे तम्बू कनातों पर हमला करके कई लोगों को घायल किया गया। सवर्णों की दृष्टि में अछूतों के छूने से चवदार तालाब भ्रष्ट हो गया था, इसलिए सवर्णों ने तालाब को शुद्ध करने की रश्म अदा की। 108घड़े जल, तालाब से निकाल कर बाहर फिकवाया था और पंचगव्य (गाय का गोबर, मूत्र, दूध, दही और घी) से भरे हुए उतने ही घड़े ब्राह्मण पुरोहितों के मंत्रोचारण के साथ तालाब में डालकर तालाब को शुद्ध किया गया। 

उधर महाड़ नगरपालिका ने सवर्ण हिन्दुओं के दबाव में आकर अपना वह प्रस्ताव, जिसके अनुसार तालाब अछूतों के लिये खोला गया था, 04अगस्त1927 को रद्द कर दिया। इसके बाद महाड़ के चन्द सवर्णों ने अदालत में जाकर यह दरखास्त दी कि यह ‘चवदार तालाब’ दरअसल ‘चौधरी तालाब’ है और यह कोई सार्वजनिक स्थान नहीं है, अदालत ने उनकी याचिका स्वीकार करते हुए 14दिसंबर 1927 को स्टे अॉर्डर दे दिया। डॉ0 अम्बेडकर ने इस चुनौती को स्वीकार करते हुए एक सत्याग्रह समिति गठित की और सत्याग्रह के लिये 25दिसम्बर1927 की तारीख निश्चित की। 

लगभग 15000 अछूत लोग परिषद तथा सत्याग्रह के लिये महाड़ में एकत्रित हुए और सार्वजनिक रूप से मनुस्मृति का दहन किया। यह सवर्णों के कलेज पर एक करारी चोट थी। डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के आदेश को बैरिस्टर अम्बेडकर ने हाईकोर्ट में अपील करते हुए चवदार तालाब पर अछूतों के अधिकार का दावा किया। अंततः बॉम्बे हाई कोर्ट ने 17मार्च1937 को अछूतों के पक्ष में निर्णय दिया और इस प्रकार काफी कष्ट व कठिनाईयों के बाद डॉ0 अम्बेडकर को सफलता मिली। भारत के सामाजिक आन्दोलन में महाड़ क्रान्ति के नाम से जाने जाते चवदार तालाब के ऐतिहासिक सत्याग्रह को तथा उसके दूसरे दौर में मनुस्मृति दहन की चर्चित घटना को शोषितों के विमर्श में वही स्थान, वही दर्जा प्राप्त है जो हैसियत फ्रांसीसी क्रांति की यादगार घटनाओं से सम्बन्ध रखती है।

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