राजकुमार (संपादक, दैनिक मूलनिवासी नायक)
कभी यह धन, धरती उनकी थी जिनको देश की ब्राह्मणवादी व्यवस्था में घर से बेघर कर दिया गया है. जनगणना 2011 के मुताबिक, देश में कुल 17,73,040 लोग बेघर हैं, जिनमें 86.6 फीसदी एससी, एसटी और आबीसी समूह के लोग हैं. जबकि, 7.8 फीसदी मुस्लिम और 5 फीसदी ईसाई के लोग शामिल हैं. अगर, इनको अगल-अलग श्रेणियों में देखा जाय तो अध्ययन के अनुसार, घर से बेघर होने वालों में 35.6 फीसदी एससी, 23 फीसदी एसटी और 21.4 फीसदी ओबीसी समूह से हैं. सरकारें बेघर लोगों के लिए बड़े-बड़े तो दावे करती हैं, लेकिन यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि इन बेघर लोगों पर कई सरकारी योजनाएं लागू नहीं हो पाती है. 10 अक्टूबर, 2019 को ‘विश्व बेघर दिवस’ पर इंडो ग्लोबल सोशल सर्विस सोसाइटी (आईजीएसएसएस) ने एक प्रेस कान्फ्रेंस करके मीडिया के सामने देश के पाँच राज्यों के 15 शहरों में बेघरों पर एक सर्वेक्षण रिपोर्ट जारी किया. सर्वेक्षण रिपोर्ट के आँकड़े बिहार के पटना, मुज़फ्फरपुर, गया शहर, झारखंड के रांची, धनबाद, जमशेदपुर शहर, आंध्रप्रदेश के विशाखापट्टनम, विजयवाड़ा, गुंटूर, तमिलनाड़ु के चेन्नई, कोयंबटूर, मदुरै शहर और महराष्ट्र मुंबई, पुणे, नासिक शहरों के कुल 4382 बेघर लोगों के अध्ययन पर आधारित है.
बेघरों पर आइजीएसएसएस का अध्ययन बेघरों के प्रति तमाम सामाजिक पूर्वाग्रहों को ध्वस्त करता है. जैसे एक सामान्य सी धारणा है कि बेघर लोग प्रवासी लोग हैं. जबकि, अध्ययन बताता है कि सिर्फ 40 प्रतिशत बेघर ही प्रवासी हो सकते हैं, लेकिन 60 प्रतिशत बेघर उसी शहर में जन्म लिया है. बेघरों को लेकर एक पूर्वाग्रह ये भी होता है कि वे नशेड़ी होते हैं, भीख मांगते हैं और अपराधी होते हैं. जबकि, अध्ययन में बताया गया है कि 81.6 प्रतिशत बेघर लोगों के पास कुछ न कुछ आय का स्त्रोत है. जबकि, 18.4 प्रतिशत बेघरों के पास आय का कोई स्त्रोत नहीं है. आंकड़े बताते हैं कि बेघरों में 23.6 प्रतिशत निर्माण मजदूर हैं. 6.9 प्रतिशत शादी पार्टी में वेटर का काम करते हैं, 5.4 प्रतिशत रिक्शा चलाते हैं. 4.1 प्रतिशत सफाईकर्मी, 3.6 प्रतिशत वेंडर, 3.2 प्रतिशत पल्लेदारी और 6 प्रतिशत घरेलू कामगार हैं. वहीं 10.7 प्रतिशत कबाड़ी का काम करते हैं, 6.3 प्रतिशत ट्रैफिक-लाइट वेंडर हैं. जबकि, 17.5 प्रतिशत बेघर ही भीख मांगते हैं. यह भी चौंकाने वाले बात है कि भीख मांगकर गुज़ारा करने वाले बेघरों में से अधिकांश को शहर की कंपनियों, दुकानों, कारखानों में काम नहीं मिला. यही नहीं कईयों ने फुटपाथ पर रेहड़ी लगाकर छोटा-मोटा धंधा जमाने की कोशिश की तो म्युनिसिपैलिटी ने उन्हें मारकर भगा दिया. जो काम न मिले और छोटा धंधा भी न करने दिया जाए तो बेघर लोग क्या करें? जब उन्हें कारखाने फुटपाथ पर काम नहीं मिलता है तो वे मंदिरों की ओर रुख करते हैं.
रिपोर्ट के अनुसार, बेघरों में 54 प्रतिशत पुरुष और 46 प्रतिशत स्त्रियाँ हैं. अमूमन एक अवधारणा ये भी होती है कि बेघर लोग निरक्षर होते हैं. जबकि, अध्ययन में 53 प्रतिशत बेघरों को साक्षर पाया गया, वहीं 47 प्रतिशत बेघर निरक्षर हैं. सरकारें जन-धन योजना के तहत लाखों मुफ्त खाते खुलवाने का दावा करती है. लेकिन, 70 प्रतिशत बेघरों के पास बैंक एकाउंट तक नहीं है. इसलिए 66 फीसदी बेघर बचत का पैसा अपने पास रखते हैं. 4 प्रतिशत लोग इंपलॉयर के पास ही अपना पैसा छोड़ देते हैं. जबकि, कुछ लोग अपने पैसे दुकानदारों के पास छोड़ देते हैं. अध्ययन के अनुसार 82.1 फीसदी बेघरों को दिहाड़ी के रूप में पेमेंट मिलता है, 11.2 फीसदी को महीना, जबकि 6.2 फीसदी को साप्ताहिक पेमेंट मिलता है. इसी तरह सरकार देश को बाहर शौच मुक्त करने का ढिंढोरा पीटती है. जबकि, बेघर लोगों में से 30 प्रतिशत लोग शौच जाने के लिए हर बार पैसे खर्च करते हैं.
यह रिपोर्ट और ज्यादा चौंकाने वाली है. क्योंकि, इन बेघरों में 86.6 फीसदी एससी, एसटी और आबीसी हैं. जबकि, 7.8 फीसदी मुस्लिम और 5 फीसदी ईसाई के लोग हैं. यही नहीं अगर, इनको अगल-अलग श्रेणियों में देखा जाय तो रिपोर्ट के अनुसार, बेघरों में एससी 35.6 फीसदी, 23 फीसदी एसटी और 21.4 फीसदी ओबीसी समुदाय से हैं. जबकि, 29.5 प्रतिशत बेघर लोगों के पास अपने पहचान से जुड़ा एक भी दस्तावेज़ नहीं है. वहीं 66.4 प्रतिशत बेघरों के पास आधार कार्ड है. ध्यान रहे आधार कार्ड नागरिकता का प्रमाण नहीं है. 39.5 प्रतिशत लोगों के पास मतदाता पहचानपत्र है. इसी तरह से बेघरों में 78.9 फीसदी लोगो ने बेरोजगार और गरीबी को बेघर का कारण बताया है तो 13.7 फीसदी ने घरेलू झगड़े, 4.7 फीसदी विवाह और 5 फीसदी से ज्यादा विस्थापन के चलते बेघर हुए हैं. रिपोर्ट में 95 फीसदी बेघर पुरुषों और 37.6 फीसदी स्त्रियों ने माना है कि उनका उत्पीड़न हुआ है. यही नहीं पुलिस का आतंक भी बेघरों पर कहर बनकर टूटता है. बेघरों पर 67 फीसदी पुलिस और 39 फीसदी असमाजिक तत्व करते हैं. शहरों के सौंदर्यीकरण, सार्वजनिक निर्माण, स्मार्ट सिटी और शहर को स्लम-मुक्त बनाने के उद्देश्य से चलाए जाने वाले परियोजनाओं तथा शहर में वीआईपी ट्रैफिक, इवेंट और स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस के आयोजनों के चलते लगातार एक नियमित पैटर्न में 70 फीसदी बेघर लोग पुलिस और म्युनिसिपल कार्पोरेशन द्वारा बार-बार बेदखल किए जाते हैं.
बेघरों के लिए रात गुजारने के लिए सरकार के पास रैन बसेरा योजना है. लेकिन, 88 फीसदी बेघरों को रैनबसेरे में पहुंचाने की कोई योजना नहीं है, जिससे उनको पता ही नहीं चल पाता है कि कहीं रैनबसेरा भी है. जिसके कारण 88 फीसदी में से 42 फीसदी बेघर सोने के लिए फुटपाथ, 30 फीसदी रेलवे स्टेशन, 15 फीसदी पुल और ओवरब्रिज और 2 फीसदी बेघर लोग रिक्सों, बसों के नीचे ही सोने के लिए मजबूर हैं. अध्ययन में यह भी पाया गया कि 95 फीसदी बेघर अपनी कमाई का सबसे बड़ा हिस्सा खर्च खाने पर करते हैं. जबकि, 31.9 फीसदी शौचालय, 34.6 फीसदी कपड़ों, 17.6 फीसदी नहाने की सुविधाओं और 19 फीसदी बेघर आज यहाँ कल वहाँ आने-जाने की यात्रा पर खर्च करते हैं. जबकि, बेघरों की औसत कमाई 100-200 रुपए के बीच होती है. अगर, बेघरों के स्वास्थ्य सुविधाओं की बात करें तो 58 फीसदी बेघरों को स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित रहना पड़ता है. वास्तव में यह वो सच्चाई है जो देश के तथाकथित आजादी से कांग्रेस और बीजेपी ने किया है. जमीनी हकीकत यह है कि भारत देश की यह धन-धरती इन्हीं 17,73,040 बेघरों की है जिन्हें ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने घर से बेघर किया है.
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