शनिवार, 5 अक्तूबर 2019

संसद में मौन मंत्री



डॉ.बाबासाहब अम्बेडकर ने आरक्षित चुनाव क्षेत्र से चुनकर जाने वाले एससी, एसटी के जनप्रतिनिधियों को लेकर कहा था कि ‘‘अगर, जम्भाई लेना प्रकृतिक नहीं होता तो ये लोग संसद और विधानसभा में मुँह तक नहीं खोलते’’ आज यह बात सत प्रतिशत साबित हो चुकी है. वर्ष 2017 में बीबीसी में एक खबर आयी थी कि संसद और विधानसभाओं में आरक्षित सीटों की वजह से चुनकर आने वाले लगभग बारह सौ जनप्रतिनिधियों ने अपने समुदाय को लगातार निराश किया है. अनुसूचित जाति और आदिवासी हितों के सवाल उठाने में ये जनप्रतिनिधि बेहद निकम्मे साबित हुए हैं. संसद के बाहर ‘भाषा, हत्या, बलात्कार, दंगा-फसाद, मॉब लिंचिंग हो या बेरोजगारी, गरीबी और भुखमरी सहित अन्य मुद्दों को लेकर विभिन्न दलों के सांसदों की तीखी नोक-झोंक सुनने को मिलती है. चुनावी रैली हो या कोई दूसरा कार्यक्रम, वहाँ भी नेताओं के मुंह से कुछ ऐसा निकल जाता है, जो कई दिन तक मीडिया की सुर्खियों में चलता रहता है. लेकिन, संसद व विधानसभा में उपरोक्त मुद्दों को लेकर हमारे सांसद कितने गंभीर हैं, यह अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने भाषा, हत्या, बलात्कार, दंगा-फसाद, मॉब लिंचिंग हो या बेरोजगारी, गरीबी और भुखमरी सहित अन्य को लेकर पिछले 16 साल में केवल 77 सवाल पूछे हैं.

अगर, बात केवल एससी और एसटी के जनप्रतिनिधियों की करें तो एससी और एसटी के नाम पर चुनकर जाने वाले जनप्रतिनिधी संसद और विधानसभा में उनके ही खिलाफ बनाए जा रहे कानून के विरोध में मुँह तक नहीं खोलते हैं. हर दस साल के बाद संसद एक संविधान संशोधन विधेयक पारित करती है. जिसके, तहत लोकसभा और विधानसभाओं में अनुसुचित जाति और जनजाति के लिए राजनीतिक आरक्षण को दस साल के लिए बढ़ा दिया जाता है और फिर राष्ट्रपति इस विधेयक को अनुमोदित करते हैं. संविधान का अनुच्छेद 334, हर दस साल के बाद बदल जाता है. जबकि, यह राजनीतिक आरक्षण केवल दस साल के लिए था. अगर इसे और दस साल के लिए बढ़ाना है तो इसके लिए एससी, एसटी के प्रतिनिधियों से सहमति लेनी पड़ती है. इसके बाद इसकी समीक्षा होती है इसे बढ़ाया जाय या इसे खत्म किया जाय. लेकिन, एससी, एसटी के जनप्रतिनिधी बगैर सोचे समझे राजनीतिक आरक्षण को दस साल बढ़ाने के लिए सहमति दे देते हैं. वे क्यों अपनी सहमति देते हैं? क्योंकि, इसी प्रावधान की वजह से लोकसभा की 543 में से 79 सीटें अनुसूचित जाति और 41 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए रिज़र्व हो जाती हैं. वहीं, विधानसभाओं की 3,961 सीटों में से 543 सीटें अनुसूचित जाति और 527 सीटें जनजाति के लिए सुरक्षित हो जाती हैं. इन सीटों पर वोट तो सभी डालते हैं, लेकिन कैंडिडेट सिर्फ एससी या एसटी का होता है. लोकसभा और विधानसभाओं में आजादी के समय से ही अनुसूचित जाति और जनजाति का उनकी आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व रहा है. लेकिन, सवाल यह उठता है कि इतने सारे अनुसूचित जाति और आदिवासी सांसद और विधायक अपने समुदाय के लिए करते क्या हैं?

नेशनल क्राइम रेकॉर्ड्स ब्यूरो के जारी आंकड़ों के मुताबिक इन समुदायों के उत्पीड़न के साल में 40,000 से ज्यादा मुकदमे दर्ज हुए. यह आंकड़ा साल दर साल बढ़ रहा है. जाहिर है कि इन आंकड़ों के पीछे एक और आंकड़ा उन मामलों का होगा, जो कभी दर्ज ही नहीं होते हैं. क्या अनुसूचित जाति उत्पीड़न की इन घटनाओं के खिलाफ अनुसूचित जाति के सांसदों या विधायकों ने कोई बड़ा यादगार आंदोलन किया है? ऐसे सवालों पर संसद कितनी बार ठप की गई है और ऐसा रिजर्व कैटेगरी के सांसदों ने कितनी बार किया है? इसी तरह, सरकारी नौकरियों और शिक्षा में अनुसूचित जाति और जनजाति को आबादी के अनुपात में आरक्षण मिला हुआ है. लेकिन, केंद्र और राज्य सरकारें अक्सर यह सूचना देती हैं कि इन जगहों पर कोटा पूरा नहीं हो रहा है. खासतौर पर उच्च पदों पर, अनुसूचित जाति और जनजाति के कोटे का हाल बेहद बुरा है. जैसे कि हम देख सकते हैं कि देश की 43 सेंट्रल यूनिवर्सिटी में एक भी वाइस चांसलर अनुसूचित जाति का नहीं है या केंद्र सरकार में सेक्रेटरी स्तर के पदों पर भी एक भी एससी या एसटी का कोई अफसर नहीं है.

शासन के उच्च स्तरों पर अनुसूचित जाति और जनजाति की अनुपस्थिति क्या अनुसूचित जाति और जनजाति के सांसदों के लिए चिंता का विषय नहीं है? अगर वे इसके लिए चिंतित हैं, तो उन्होंने सरकार पर कितना दबाव बनाया है? क्या इस सवाल पर कभी संसद के अंदर कोई बड़ा आंदोलन या हंगामा हुआ? ज़ाहिर है कि ऐसा कुछ नहीं हुआ. चूंकि सरकारी नौकरियों की संख्या लगातार घट रही है और हाल के वर्षों में निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग उठी है, लेकिन क्या अनुसूचित जाति और जनजाति के सांसदों और विधायकों के लिए यह कोई मुद्दा है? इसी तरह की एक मांग उच्च न्यायपालिका में आरक्षण की भी है. ख़ासकर संसद की करिया मुंडा कमेटी की रिपोर्ट में न्यायपालिका में सवर्ण वर्चस्व की बात सामने आने के बाद से यह मांग मज़बूत हुई है. लेकिन क्या अनुसूचित जाति और जनजाति के सांसदों ने कभी इस मुद्दे पर संसद में पुरज़ोर तरीक़े से मांग उठाई है? बता दें कि 120 से ज्यादा एससी और एसटी सांसदों के लिए किसी मुद्दे पर संसद में हंगामा करना और सरकार पर दबाव बनाना मुश्किल काम नहीं है क्यों? क्योंकि ये सभी निकम्मे हैं. एससी, एसटी के नाम पर चुनकर जाने वाले जनप्रतिनिधि समाज के नहीं, बल्कि पार्टियों के हैं जो उन्हें टिकट देकर मैदान में उतारती है. ये जनप्रतिनिधि एससी, एसटी के नाम पर वोट लेते हैं और काम पार्टी की करते हैं. इसको आसान शब्दों में ‘दलाली करना’ कहा जाता है.

इसका सबसे बड़ा कारण है पूना पैक्ट. इसलिए अब समय आ गया है कि पूना पैक्ट की वजह से चली आ रही सुरक्षित सीटों वाली इस व्यवस्था को खत्म करके वो सिस्टम लाया जाए जो बाबासाहब अंबेडकर लाना चाहते थे. बाबासाहब चाहते थे कि ‘सेपरेट इलेक्टोरेट’ यानी सिर्फ अनुसूचित जाति और आदिवासी वोटर ही अपने प्रतिनिधि चुनें. उन सीटों पर दूसरा प्रतिनिधि भी हो, जिनका चुनाव बाकी लोग करें. इससे समाज का सच्चा प्रतिनिधी चुनकर जायेगा और अपने समाज के लिए काम करेगा. अगर गांधी ‘सेपरेट इलेक्टोरेट’ को खत्म नहीं किया होता तो आज ये जनप्रतिनिधि दलाल नहीं बने होते. लेकिन, गाँधी ने ‘ज्वाइंट इलेक्टोरेट’ लागू करके एससी, एसटी, ओबीसी और मायनॉरिटी में दलाल और भड़वों को जन्म दे दिया. यही कारण है कि उनके सामने उनके ही विरोध में कानून बनाए जाते हैं और ये दलाल मुँह तक नहीं खोलते हैं.

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